Mahabharata Gita Press Vol I Page 1-300 Webpage 1

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।। श्रीहरिः ।।

श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत

महाभारत (प्रथम खण्ड)

Mahabharata

[आदिपर्व और सभापर्व]

(सचित्र, सरल हिंदी-अनुवाद)

त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव

त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।

अनुवादक-साहित्याचार्य पण्डित रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय

सं० २०७२ सत्रहवाँ पुनर्मुद्रण

सं० २०७२ सत्रहवाँ पुनर्मुद्रण ३,५०० कुल मुद्रण ८६,७००प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर-२७३००५ (गोबिन्दभवन-कार्यालय, कोलकाता का संस्थान) फोन : (०५५१) २३३४७२१, २३३१२५०; फैक्स : (०५५१) २३३६९९७web : gitapress.org e-mail : booksales@gitapress.orgगीताप्रेस प्रकाशन gitapressbookshop.in से online खरीदें।

।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः ।।

नम्र निवेदन

महाभारत आर्य-संस्कृति तथा भारतीय सनातनधर्मका एक महान् ग्रन्थ तथा अमूल्य रत्नोंका अपार भण्डार है। भगवान् वेदव्यास स्वयं कहते हैं कि ‘इस महाभारतमें मैंने वेदोंके रहस्य और विस्तार, उपनिषदोंके सम्पूर्ण सार, इतिहास- पुराणोंके उन्मेष और निमेष, चातुर्वर्ण्यके विधान, पुराणोंके आशय, ग्रह-नक्षत्र -तारा आदिके परिमाण, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान, पाशुपत ( अन्तर्यामीकी महिमा), तीर्थों, पुण्य देशों, नदियों, पर्वतों, वनों तथा समुद्रोंका भी वर्णन किया गया है। अंतएव महाभारत महाकाव्य है, गूढ़ार्थमय ज्ञान-विज्ञान-शास्त्र है, धर्मग्रन्थ है, राजनीतिक दर्शन है, कर्मयोग-दर्शन है, भक्ति-शास्त्र है, अध्यात्म-शास्त्र है, आर्यजातिका इतिहास है और सर्वार्थसाधक तथा सर्वशास्त्रसंग्रह है। सबसे अधिक महत्त्वकी बात तो यह है कि इसमें एक, अद्वितीय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वलोकमहेश्वर, परमयोगेश्वर, अचिन्त्यानन्त गुणगणसम्पन्न, सृष्टि-स्थिति- प्रलयकारी, निखिलरसामृतसिन्धु, अनन्त प्रेमाधार, प्रेमघनविग्रह, सच्चिदानन्दघन, वासुदेव भगवान् श्रीकृष्णके गुण-गौरवका मधुर गान है। इसकी महिमा अपार है। औपनिषद ऋषिने भी इतिहास-पुराणको पंचम वेद बताकर महाभारतकी सर्वोपरि महत्ता स्वीकार की है। इस महाभारतके हिन्दीमें कई अनुवाद इससे पहले प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु इस समय मूल संस्कृत तथा हिन्दी-अनुवादसहित सम्पूर्ण ग्रन्थ शायद उपलब्ध नहीं है। इसे गीताप्रेसने संवत् १९९९ में प्रकाशित किया था, किन्तु परिस्थिति एवं साधनोंके अभावमें पाठकोंकी सेवामें नहीं दिया जा सका। भगवत्कृपासे इसे पुनर्मुद्रित करनेका सुअवसर अब प्राप्त हुआ है। इस महाभारतमें मुख्यतः नीलकण्ठीके अनुसार पाठ लिया गया है। साथ ही दाक्षिणात्य पाठके उपयोगी अंशोंको सम्मिलित किया गया है और इसीके अनुसार बीच-बीचमें उसके श्लोक अर्थसहित दे दिये गये हैं पर उन श्लोकोंकी श्लोक-संख्या न तो मूलमें दी गयी है, न अर्थमें ही। अध्यायके अन्तमें दाक्षिणात्य पाठके श्लोकोंकी संख्या अलग बताकर उक्त अध्यायकी पूर्ण श्लोक-संख्या बता दी गयी है और इसी प्रकार पर्वके अन्तमें लिये हुए दाक्षिणात्य अधिक पाठके श्लोकोंकी संख्या अलग- अलग बताकर उस पर्वकी पूर्ण श्लोक- संख्या भी दे दी गयी है। इसके अतिरिक्त महाभारतके पूर्वप्रकाशित अन्यान्य संस्करणों तथा पूनाके संस्करणसे भी पाठ- 1.विचित्र लीलाविहारी, भक्त-भक्तिमान्, भक्त-सर्वस्व,निर्णयमें सहायता ली गयी है और अच्छा प्रतीत होनेपर उनके मूलपाठ या पाठान्तरको भी ग्रहण किया गया है। इस संस्करणमें कुल श्लोक-संख्या १००२१७ है। इसमें उत्तर भारतीय पाठकी ८६६००, दाक्षिणात्य पाठकी ६५८४ तथा ‘उवाचकी संख्या ७०३२ है।इस विशाल ग्रन्थके हिन्दी-अनुवादका प्रायः सारा कार्य गीताप्रेसके प्रसिद्ध तथा सिद्धहस्त भाषान्तरकार संस्कृत-हिन्दी दोनों भाषाओंके सफल लेखक तथा कवि,परम विद्वान् पण्डितप्रवर श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री महोदयने किया है। इसीसेअनुवादकी भाषा सरल होनेके साथ ही इतनी सुमधुर हो सकी है। दार्शनिक वयोवृद्ध विद्वान् डॉ० श्रीभगवानदासजीने इस अनुवादकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।आदिपर्व तथा कुछ अन्य पर्वोके कुछ अनुवादको हमारे परम आदरणीय विद्वान् स्वामीजी श्रीअखण्डानन्दजी महाराजने भी कृपापूर्वक देखा है; इसके लिये हमउनके कृतज्ञ है। इसके अतिरिक्त, पाठनिर्णय तथा अनुवाद देखनेका सारा कार्य हमारेपरमश्रद्धेयश्रीरामसुखदासजी, श्रीहरिकृष्णदासजी गोयन्दका, श्रीघनश्यामदासजी जालान, श्रीवासुदेवजी काबरा आदिको साथ रखकर किया है। श्रीगोयन्दकाजी तथा इन महानुभावोंने इतनी लगनके साथ बहुत लम्बा समय नियमितरूपसे देकर काम न किया होता तो इस विशाल ग्रन्थका प्रकाशन होना सम्भव नहीं था।इस प्रकार भगवत्कृपासे यह महान् कार्य ६ खण्डोंमें पूरा हुआ है। आशा है,भारतीय जनता इससे लाभ उठाकर धार्मिक जीवनयापन एवं अपने जीवनकोसफल बनानेमें सक्षम होगी। श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने समय-समयपर स्वामीजी

विनीत-प्रकाशक।।

श्रीहरिः ।।

विषय-सूची

(आदिपर्व)

अध्याय विषय

(अनुक्रमणिकापर्व)

१- ग्रन्थका उपक्रम, ग्रन्थमें कहे हुए अधिकांश विषयोंकी संक्षिप्त सूची तथा इसकेपाठकी महिमा

(पर्वसंग्रहपर्व)

२- समन्तपंचकक्षेत्रका वर्णन, अक्षौहिणी सेनाका प्रमाण, महाभारतमें वर्णित पर्वोंऔर उनके संक्षिप्त विषयोंका संग्रह तथा महाभारतके श्रवण एवं पठनका फल 1.

(पौष्यपर्व)

३- जनमेजयको सरमाका शाप, जनमेजयद्वारा सोमश्रवाका पुरोहितके पदपर वरण,आरुणि, उपमन्यु, वेद और उत्तंककी गुरुभक्ति तथा उत्तंकका सर्पयज्ञके लियेजनमेजयको प्रोत्साहून देना

(पौलोमपर्व)

४- कथा-प्रवेश५- भृगुके आश्रमपर पुलोमा दानवका आगमन और उसकी अग्निदेवके साथ बातचीत६- महर्षि च्यवनका जन्म, उनके तेजसे_पुलोमा राक्षसका भस्म होना तथा भृगुकाअग्निदेवको शाप देना७- शापसे कुपित_हुए अग्निदेवका अदृश्य होना और ब्रह्माजीका उनके शापकोसंकुचित करके उन्हें प्रसन्न करना८- प्रमुद्वराका जन्म, रुरुके साथ उसका वाग्दान तथा विवाहके पहले ही साँपकेकाटनेसे प्रमुद्वराकी मृत्यु९- रुरुकी आधी आयुसे प्रमुद्वराका जीवित होना, रुरुके साथ उसका विवाह, रुरुकासर्पोंको मारनेका निश्चय तथा रुरु-डुण्डुभ-संवाद१०- रुरु मुनि और डुण्डुभका संवाद११- डुण्डुभकी आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुरुको अहिंसाका उपदेश१२- जनमेजयके सर्पसत्रके विषयमें रुरुकी जिज्ञासा और पिताद्वारा उसकी पूर्ति

(आस्तीकपर्व)

१३- जरत्कारुका अपने पितरोंके अनुरोधसे विवाहके लिये उद्यत होना१४- जरत्कारुद्वारा वासुकिकी बहिनका पाणिग्रहण१५- आस्तीकका जन्म तथा मातृशापसे सर्पसत्रमें नष्ट होनेवाले नागवंशकी उनके द्वारा रक्षा१६- कद्रू और विनताको कश्यपजीके वरदानसे अभीष्ट पुत्रोंकी प्राप्ति१७- मेरुपर्वतपर अमृतके लिये विचार करनेवाले देवताओंको भगवान् नारायणका समुद्र-मन्थनके लिये आदेश१८- देवताओं और दैत्योंद्वारा अमृतके लिये समुद्रका मन्थन, अनेक रत्नोंके साथ अमृतकी उत्पत्ति और भगवानुका मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंके हाथसे अमृत ले लेना१९- देवताओंका अमृतपान, देवासुरसंग्राम तथा देवताओंकी विजय२०- कुद्रू और विनताकी होड़, कद्बद्वारा अपने पुत्रोंको शाप एवं ब्रह्माजीद्वारा उसका अनुमोदन२१- समुद्रका विस्तारसे वर्णन२२- नागोंद्वारा उच्चैःश्रवाकी पूँछको काली बनाना; कद्बू और विनताका समुद्रको देखते हुए आगे बढ़ना२३- पराजित विनताका कद्रूकी दासी होना, गरुडकी उत्पत्ति तथा देवताओंद्वारा उनकी स्तुति

२४- गरुडके_द्वारा अपने तेज और शरीरका संकोच तथा सूर्यके क्रोधजनित तीव्र तेजकी शान्तिके लिये अरुणका उनके रथपर स्थित होना२५- सूर्यके तापसे मू्च्छित हुए सर्पोंकी रक्षाके लिये कटद्रद्वारा इन्द्रदेवकी स्तुति२६- इन्द्रद्वारा की हुई वर्षासे सर्पोंकी प्रसन्नता२७- रामणीयक द्वीपके मनोरम वनका वर्णन तथा गरुडका दास्यभावसे छूटनेके लिये सर्पोंसे उपाय पूछना२८- गरुडका अमृतके लिये जाना और अपनी माताकी आज्ञाके अनुसार निषादोंका भक्षण करना२९- कश्यपजीका गरुडको हाथी और कछुएके पूर्वजन्मकी कथा सुनाना, गरुडका उन दोनोंको पकड़कर एक दिव्य वटवृक्षकी शाखापर ले जाना और उस शाखाका टूटना३०- गरुडका कश्यपजीसे मिलना, उनकी प्रार्थनासे वालखिल्य ऋषियोंका शाखा छोड़कर तपके लिये प्रस्थान और गरुड़का निर्जन पर्वतपर उस शाखाको छोड़ना३१- इन्द्रके द्वारा वालखिल्योंका अपमान और उनकी तपस्याके प्रभावसे अरुण एवं गुरुड़की उत्पत्ति३२- गरुडका देवताओंके साथ युद्ध और देवताओंकी पराजय३३- गरुडका अमृत लेकर लौटना, मार्गमें भगवान् विष्णुसे वर पाना एवं उनपर इन्द्रवके द्वारा वज्र-प्रहार३४- इन्द्र और गरुडकी मित्रता, गरुडका अमृत लेकर नागोंके पास आना और विनताको दासीभावसे छुड़ाना तथा इन्द्रद्वारा अमृतका अपहरण३५- मुख्य-मुख्य नागोंके नाम३६- शेषनागकी तपस्या, ब्रह्माजीसे वर-प्राप्ति तथा पृथ्वीको सिरपर धारण करना

३७- माताके शापसे बचनेके लिये वासुकि आदि नागोंका परस्पर परामर्श३८- वासुकिकी बहिन जरत्कारुका जरत्कारु मुनिके साथ विवाह करनेका निश्चय३९- ब्रह्माजीकी आज्ञासे वासुकिका जरत्कारु मुनिके साथ अपनी बहिनको ब्याहनेके लिये प्रयत्नशील होना४०- जरत्कारुकी तपस्या, राजा परीक्षितुका उपाख्यान तथा राजाद्वारा मुनिके कंधेपर मृतक साँप रखनेके कारण दुःखी हुए कृशका शृंगीको उत्तेजित करना४१- शुंगी ऋषिका राजा परीक्षितुको शाप देना और शमीकका अपने पुत्रको शान्त करते हुए शापको अनुचित बताना४२- शमीकका अपने पुत्रको समझाना और गौरमुखको राजा परीक्षित्के पास भेजना, राजाद्वारा आत्मरक्षाकी व्यवस्था तथा तक्षुक नाग और काश्यपकी बातचीत४३- तक्षकका धन देकर काश्यपको लौटा देना और छलसे राजा परीक्षित्के समीप पहुँचकर उन्हें डँसना४४- जनमेजयका राज्याभिषेक और विवाह४५- जरत्कारुको अपने पितरोंका दर्शन और उनसे वार्तालाप४६- जरत्कारुका शर्तके साथ विवाहके लिये उद्यत होना और नागराज वासुकिका जरत्कारु नामकी कन्याको लेकर आना४७- जरत्कारु मुनिका नागकन्याके साथ विवाह, नागकन्या जरत्कारुद्वारा पतिसेवा तथा पतिका उसे त्यागकर तपस्याके लिये गमन४८- वासुकि नागकी चिन्ता, बहिनद्वारा उसका निवारण तथा आस्तीकका जन्म एवं विद्याध्ययन४९- राजा परीक्षितुके धर्ममय आचार तथा उत्तम गुणोंका वर्णन, राजाका शिकारके लिये जाना और उनके द्वारा शमीक मुनिका तिरस्कार५०- शृंगी ऋषिका परीक्षित्को शाप, तक्षकका काश्यपको लौटाकर छलसे परीक्षितको डँसना और पिताकी मृत्युका वृत्तान्त सुनकर जनमेजयकी तक्षकसे बदला लेनेकीप्रतिज्ञा

५१- जनमेजयके सर्पयज्ञका उपक्रम५२- सर्पसत्रका आरम्भ और उसमें सर्पोंका विनाश५३- सर्पयज्ञके ऋत्विजोंकी नामावली, सर्पोंका भयंकर विनाश, तक्षकका इन्द्रकीशरणमें जाना तथा वासुकिका अपनी बहिनसे आस्तीकको यज्ञमें भेजनेके लिये कहना ५४- माताकी आज्ञासे मामाको सान्त्वना देकर आस्तीकका सर्पयज्ञमें जाना५५- आस्तीकके_द्वारा यजमान, यज्ञ, ऋत्विज्, सदस्यगण और अग्निदेवकी स्तुति-प्रशंसा५६- राजाका आस्तीकको वर देनेके लिये तैयार होना, तक्षक नागकी व्याकुलता तथा आस्तीकका वर माँगना५७- सर्पयज्ञमें दग्ध हुए प्रधान-प्रधान सप्कि नाम५८- यज्ञकी समाप्ति एवं आस्तीकका सप्पोंसे वर प्राप्त करना 1.

(अंशावतरणपर्व)

५९- महाभारतका उपक्रम६०- जनमेजयके यज्ञमें व्यासजीका आगमन, सत्कार तथा राजाकी प्रार्थनासेव्यासजीका वैशम्पायनजीसे महाभारत-कथा सुनानेके लिये कहना६१- कौरव-पाण्डवोंमें फूट और युद्ध होनेके वृत्तान्तका सूत्ररूपमें निर्देश६२- मुहाभारतकी महत्ता६३- राजा उपरिचरका चरित्र तथा सत्यवती, व्यासादि_प्रमुख पात्रोंकी संक्षिप्त जन्मकथा ६४- ब्राह्मणोंद्वारा क्षत्रियवंशकी उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस समयके धार्मिक राज्यका वर्णन; असुरोंका जन्म और उनके भारसे पीड़ित पृथ्वीका ब्रह्माजीकी शरणमें जानातथा ब्रह्माजीका देवताओंको अपने अंशसे पृथ्वीपर जन्म लेनेका आदेश

(सम्भवपर्व)

६५- मरीचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्षकन्याओंके वंशका विवरण६६- महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियोंकी संतान-परम्पराका वर्णन६७- देवता और दैत्य आदिके अंशावतारोंका दिग्दर्शन६८- राजा दुष्यन्तकी अद्भुत शक्ति तथा राज्यशासनकी क्षमताका वर्णन६९- दुष्यन्तका शिकारके लिये वनमें जाना और विविध हिंसक वन-जन्तुओंका वध करना७०- तपोवन और कण्वके आश्रमका वरर्णन तथा राजा दुष्यन्तका उस आश्रममें प्रवेश७१- राजा दुष्यन्तका शकुन्तलाके साथ वार्तालाप, शकुन्तलाके द्वारा अपने जन्मका कारण बतलाना तथा उसी प्रसंगमें विश्वामित्रकी तपस्यासे इन्द्रका चिन्तित होकर

मेनकाको मुनिका तपोभंग करनेके लिये भेजना७२- मेनका-विश्वामित्र-मिलन, कन्याकी उत्पत्ति, शकुन्त पक्षियोंके द्वारा उसकी रक्षा

और कण्वका उसे अपने आश्रमपर लाकर शकुन्तला नाम रखकर पालन करना७३- शकुन्तला और दुष्यन्तका गान्धर्व विवाह और महर्षि कण्वके द्वारा उसका

अनुमोदन७४- शकुन्तलाके पुत्रका जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तलाका दुष्यन्तके

यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणीद्वारा शकुन्तलाकी शुद्धिका

समर्थन और भरतका राज्याभिषेक७५- दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रोंकी उत्पत्ति; पुरूरवा, नहुष और ययातिके

चरित्रोंका संक्षेपसे वर्णन७६- कचका शिष्यभावसे शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक

कष्ट सहनेके पश्चात् मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त करना७७- देवयानीका कचसे पाणिग्रहणके लिये अनुरोध कचकी अस्वीकृति तथा दोनोंका

एक-दूसरेको शाप देना७८- देवयानी और शर्मिष्ठाका कलह, शर्मिेष्ठाद्वारा_कुएँमें गिरायी गयी देवयानीको

ययातिका निकालना और देवयानीका शुक्राचार्यजीके साथ वार्तालाप७९- शुक्राचार्यद्वारा देवयानीको समझाना और देवयानीका असंतोष८०- शुक्राचार्यका वृषपर्वाको फटकारना तथा उसे छोड़कर जानेके लिये उद्यत होना

और वृषपर्वाके आदेशसे शर्मिष्ठाका देवयानीकी दासी बनकर शुक्राचार्य तथा

देवयानीको संतुष्ट करना८१- सखियोंसहित देवयानी और शर्मिष्ठाका वन-विहार, राजा ययातिका आगमन,

देवयानीकी उनके साथ बातचीत तथा विवाह८२- ययातिसे देवयानीको पुत्र-प्राप्ति; ययाति और शर्मिष्ठाका एकान्त मिलन और

उनसे एक पुत्रका जन्म८३- देवयानी और शर्मिष्ठाका संवाद, ययातिसे शर्मिष्ठाके पुत्र होनेकी बात जानकर

देवयानीका रूठकर पिताके पास जाना, शुक्राचार्यका ययातिको बूढ़े होनेका शाप

देना८४- ययातिका अपने पुत्र यदु, तुर्वसु, द्रहा और अनुसे अपनी युवावस्था देकर

वृद्धावस्था लेनेके लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करनेपर उन्हें शाप देना, फिर

अपने पुत्र पूरुको जरावस्था देकर उनकी युवावस्था लेना तथा उन्हें वर प्रदान करना८५: राजा ययातिका विषय सेवन और वैराग्य तथा पूरुका राज्याभिषेक करके वनमें

जाना८६- वनमें राजा ययातिकी तपस्या और उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति८७- इन्द्रके पूछनेपर ययातिका अपने पुत्र पूरुको दिये हुए उपदेशकी चर्चा करना८८- ययातिका स्वर्गसे पतन और अष्टकका उनसे प्रश्न करना८९- ययाति और अष्टकका संवाद९०- अष्टक और ययातिका संवाद২१- ययाति और अष्टकका आश्रमधर्मसम्बन्धी संवाद९२- अष्टक-ययाति-संवाद और ययातिद्वारा दूसरोंके दिये हुए पुण्यदानको अस्वीकार

करना९३- राजा ययातिका वसुमान् और शिबिके प्रतिग्रहको अस्वीकार करना तथा अष्टक

आदि चारों राजाओंके साथ स्वर्गमें जाना২४- पूरुवंशका वर्णन९५- दक्ष प्रजापतिसे लेकर पूरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंशकी परम्पराका वर्णन९६- मुहाभिषको ब्रह्माजीका शाप तथा शापग्रस्त वसुओंके साथ गंगाकी बातचीत९७- राजा प्रतीपका गंगाको पुत्रवधूके रूपमें स्वीकार करना और शान्तनुका जन्म,

राज्याभिषेक तथा गंगासे मिलना९८- शान्तनु और गंगाका कुछ श्तोंके साथ सम्बन्ध, वसुओंका जन्म और शापसे

उद्धार तथा भीष्मकी उत्पत्ति९९: मुहर्षि वसिष्ठद्वारा वसुओंको शाप प्राप्त होनेकी कथा१००- शान्तनुके रूप, गुण और सदाचारकी प्रशंसा, गंगाजीके द्वारा सुशिक्षित पुत्रकी

प्राप्ति तथा देवव्रतकी भीष्म-प्रतिज्ञा१०१- सत्यवतीके गर्भसे चित्रांगद और विचित्रवीर्यकी उत्पत्ति, शान्तनु और चित्रांगदका

निधन तथा विचित्रवीर्यका राज्याभिषेक१०२- भीष्मके द्वारा स्वयंवरसे काशिराजकी कन्याओंका हरण, युद्धमें सब राजाओं

तथा शाल्वकी पराजय, अम्बिका और अम्बालिकाके साथ विचित्रवीर्यका विवाह

तथा निधन१०३- सत्यवतीका भीष्मसे राज्यग्रहण और संतानोत्पादनके लिये आग्रह तथा भीष्मके

द्वारा अपनी प्रतिज्ञा बतलाते हुए उसकी अस्वीकृति१०४- भीष्मकी सम्मतिसे सत्यवतीद्वारा व्यासका आवाहन और व्यासजीका माताकी

आज्ञासे कुरुवंशकी वृद्धिके लिये विचित्रवीर्यकी पत्नियोंके गर्भसे संतानोत्पादन

करनेकी स्वीकृति देना१०५- व्यासजीके द्वारा विचित्रवीर्यके क्षेत्रसे धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुरकी उत्पत्ति१०६- महर्षि माण्डव्यका शूलीपर चढ़ाया जाना१०७- माण्डव्यका धर्मराजको शाप देना१०८- धुतराष्ट्र आदिके जन्म तथा भीष्मजीके धर्मपूर्ण शासनसे कुरुदेशकी सर्वांगीण

उन्नतिका दिग्दर्शन१०९- राजा धृतराष्ट्रका विवाह११०- कुन्तीको दुर्वासासे मन्त्रकी प्राप्ति, सूर्यदेिवका आवाहन तथा उनके संयोगसे

कर्णका जन्म एवं कर्णके द्वारा इन्द्रको कवच और कुण्डलोंका दान१११- कुन्तीद्वारा स्वयंवरमें पाण्डुका वरण और उनके साथ विवाह११२- माद्रीके साथ पाण्डुका विवाह तथा राजा पाण्डुकी दिग्विजय११३- राजा पाण्डुका पत्नियोंसहित वनमें निवास तथा विद्रका विवाह११४- धृतराष्ट्रके गान्धारीसे एक सौ पुत्र तथा एक कन्याकी तथा सेवा करनेवाली

वैश्यजातीय युवतीसे युयुत्सु नामक एक पुत्रवकी उत्पत्ति११५- दुःशलाके जन्मकी कथा११६- धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंकी नामावली११७- राजा पाण्डुके द्वारा मृगरूपधारी मुनिका वध तथा उनसे शापकी प्राप्ति११८- पाण्डुका अनुताप, संन्यास लेनेका निश्चय तथा पत्नियोंके अनुरोधसे वानप्रस्थ-

आश्रममें प्रवेश११९- पाण्डुका कुन्तीको पुत्र-प्राप्तिके लिये प्रयत्न करनेका आदेश१२०- कुन्तीका पाण्डुको व्युषिताश्वके मृत शरीरसे उसकी पतिव्रता पत्नी भूद्राके द्वारा

पुत्र-प्राप्तिका कथन२१- पाण्डुका कुन्तीको समझाना और कुन्तीका पतिकी आज्ञासे पुत्रोत्पत्तिके लिये

धर्मदेवताका आवाहन करनेके लिये उद्यत होना१२२- युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनकी उत्पत्ति१२३- नकुल और सहदेवकी उत्पत्ति तथा पाण्डु-पुत्रोंके नामकरण-संस्कार१२४- राजा पाण्डुकी मृत्यु और माद्रीका उनके साथ चितारोहण१२५: ऋषियोंका कुन्ती और पाण्डवोंको लेकर हस्तिनापुर जाना और उन्हें भीष्म

आदिके हाथों सौंपना१२६- पाण्डु और माद्रीकी अस्थियोंका दाह-संस्कार तथा भाई बन्धुओंद्वारा उनके लिये

जलांजलिदान१२७- पाण्डवों तथा धृतराष्ट्रप्रोंकी बालक्रीड़ा, दुर्योधनका भीमसेनको विष खिलाना

तथा गंगामें ढकेलना और भीमका नागलोकमें पहुँचकर आठ कुण्डोंके दिव्य रसका

पान करना१२८- भीमसेनके न आनेसे कुन्ती आदिकी चिन्ता , नागलोकसे भीमसेनका आगमन

तथा उनके प्रति दुर्योधनकी कुचेष्टा१२९- कुपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामाकी उत्पत्ति तथा द्रोणको परशुरामजीसे अस्त्र-

शस्त्रकी प्राप्तिकी कथा१३०- द्रोणका द्रुपदसे तिरस्कृत हो हस्तिनापुरमें आना, राजकुमारोंसे उनकी भेंट,

उनकी बीटा और अँगूठीको कुएँमेंसे निकालना एवं भीष्मका उन्हें अपने यहाँ

सम्मानपूर्वक रखना१३.१- द्रोणाचार्यद्वारा राजकुमारोंकी शिक्षा, एकलव्यकी गुरुभक्ति तथा आचार्यद्वारा

शिष्योंकी परीक्षा१३२- अर्जुनके द्वारा लक्ष्यवेध, द्रोणका ग्राहसे छुटकारा और अर्जुनको ब्रह्मशिर नामक

अस्त्रकी प्राप्ति१३३- राजकुमारोंका रंगभूमिमें अस्त्र-कौशल दिखाना१३४- भीमसेन, दुर्योधन तथा अर्जुनके द्वारा अस्त्र-कौशलका प्रदर्शन१३५- कर्णका रंगभूमिमें प्रवेश तथा राज्याभिषेक१३६- भीमसेनके द्वारा कर्णका तिरस्कार और दुर्योधनद्वारा उसका सम्मान१३७- द्रोणका शिष्योंद्वारा द्रुपदपर आक्रमण करवाना, अर्जुनका द्रपदको बंदी बनाकर

लाना और द्रोणद्वारा ट्रुपदको आधा राज्य देकर मुक्त कर देना१३८- युधिष्ठिरका युवराजपदपर अभिषेक, पाण्डवोंके शौर्य, कीर्ति और बलके

विस्तारसे धृतराष्ट्रको चिन्ता१३९- कणिकका धृतराष्ट्रको कूटनीतिका उपदेश

(जतुगृहपर्व)

१४०- पाण्डवोंके प्रति पुरवासियोंका अनुराग देखकर दुर्योधनकी चिन्ता१४१- दुर्योधनका धृतराष्ट्रसे पाण्डवोंको वारणावत भेज देनेका प्रस्ताव१४२- धृतराष्ट्रके आदेशसे पाण्डवोंकी वारणावत-यात्रा१४३- दुर्योधनके आदेशसे पुरोचनका वारणावत नगरमें लाक्षागृह बनाना१४४- पाण्डवोंकी वारणावत-यात्रा तथा उनको विदुरका गुप्त उपदेश१४५- वारणावतमें पाण्डवोंका स्वागत,_पुरोचनका सत्कारपूर्वक उन्हें ठहराना,

लाक्षागृहमें निवासकी व्यवस्था और युधिष्ठिर एवं भीमसेनकी बातचीत१४६- विदुरके भेजे हुए खनकद्वारा लाक्षागृहमें सुरंगका निर्माण१४७- लाक्षागृहका दाह और पाण्डवोंका सुरंगके रास्ते निकल जाना१४८- विदुरजीके भेजे हुए नाविकका पाण्डवोंको गंगाजीके पार उतारना१४९- धृतराष्ट्र_आदिके द्वारा पाण्डवोंके लिये शोकप्रकाश एवं जलांजलिदान तथा

पाण्डवोंका वनमें प्रवेश१५०- माता कुन्तीके लिये भीमसेनका जल ले आना, माता और भाइयोंको भूमिपरसोये देखकर भीमका विषाद एवं दुर्योधनके प्रति उनका क्रोध

(हिडिम्बवधपर्व)

१५१- हिडिम्बके भेजनेसे हिडिम्बा राक्षसीका पाण्डवोंके पास आना और भीमसेनसेउसका वार्तालाप१५२- हिडिम्बका आना, हिडिम्बाका उससे भयभीत होना और भीम तथा

हिडिम्बासुरका युद्ध१५३- हिडिम्बाका कुन्ती आदिसे अपना मनोभाव प्रकट करना तथा भीमसेनके द्वाराहिडिम्बा-सुरका वध१५४- युधिष्ठिरका भीमसेनको हिडिम्बाके वधसे रोकना, हिडिम्बाकी भीमसेनके लियेप्रार्थना, भीमसेन और हिडिम्बाका मिलन तथा घटोत्कचकी उत्पत्ति१५५- पाण्डवोंको व्यासजीका दर्शन और उनका एकचक्रा नगरीमें प्रवेश

(बकवधपर्व)

१५६- ब्राह्मणपरिवारका कष्ट दूर करनेके लिये कुन्तीकी भीमसेनसे बातचीत तथाब्राह्मणके चिन्तापूर्ण उद्गार१५७- ब्राह्मणीका स्वयं मरनेके लिये उद्यत होकर पतिसे जीवित रहनेके लिये अनुरोध

करना१५८- ब्राह्मण-कन्याके त्याग और विवेकपूर्ण वचन तथा कुन्तीका उन सबके पास

जाना१५९- कुन्तीके पूछनेपर ब्राह्मणका उनसे अपने दुःखका कारण बताना१६०- कुन्ती और ब्राह्मणकी बातचीत१६१- भीमसेनको राक्षसके पास भेजनेके विषयमें युधिष्ठिर और कुन्तीकी बातचीत१६२- भीमसेनका भोजन-सामग्री लेकर बकासुरके पास जाना और स्वयं भोजन करनातथा युद्ध करके उसे मार गिराना१६३- बकासुरके वधसे राक्षसोंका भयभीत होकर पलायन और नगरनिवासियोंकी

प्रसन्नता

(चैत्ररथपर्व)

१६४- पाण्डवोंका एक ब्राह्मणसे विचित्र कथाएँ सुनना१६५- द्रोणके द्वारा द्रुपदके अपमानित होनेका वृत्तान्त१६६- द्रुपदके यज्ञसे धृष्टद्युम्न और द्रौपदीकी उत्पत्ति१६७- कुन्तीकी अपने पुत्रोंसे पूछकर पंचालदेशमें जानेकी तैयारी१६८- व्यासजीका पाण्डवोंको द्रौपदीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त सुनाना१६९- पाण्डवोंकी पंचाल-यात्रा और अर्जुनके द्वारा चित्ररथ गन्धर्वकी पराजय एवं उन

दोनोंकी मित्रता१७०- सूर्यकन्या तपतीको देखकर राजा संवरणका मोहित होना१७१- तपती और संवरणकी बातचीत१७२- वसिष्ठजीकी सहायतासे राजा संवरणको तपतीकी प्राप्ति१७३- गन्धर्वका वसिष्ठजीकी महत्ता बताते हुए किसी श्रेष्ठ ब्राह्मणको पुरोहित बनानेके

लिये आग्रह करना१७४- वसिष्ठजीके अद्भुत क्षमा-बलके आगे विश्वामित्रजीका पराभव१७५- शक्तिके शापसे कल्माषपादका राक्षस होना, विश्वामित्रकी प्रेरणासे राक्षसद्वारा

वसिष्ठके पुत्रोंका भक्षण और वसिष्ठका शोक१७६- कल्माषपादका शापसे उद्धार और वसिष्ठजीके_द्वारा उन्हें अश्मक नामक पुत्रकी

प्राप्ति१७७- शक्तिपुत्र पराशरका जन्म और पिताकी मृत्युका हाल सुनकर कुपित हुए

पराशरको शान्त करनेके लिये वसिष्ठजीका उन्हें और्वोपाख्यान सुनाना१७८- पितरोंद्वारा और्कके क्रोधका निवारण१७९- और्व और पितरोंकी बातचीत तथा और्वका अपनी क्रोधाग्निको बडवानलरूपसे

समुद्रमें त्यागना१८०- पुलस्त्य आदि महर्षियोंके समझानेसे पराशरजीके द्वारा राक्षससत्रकी समाप्ति१८१- राजा कल्माषपादको ब्राह्मणी आंगिरसीका शाप१८२- पाण्डवोंका धौम्यको अपना पुरोहित बनाना

(स्वयंवरपर्व)

१८३- पाण्डवोंकी पंचालयात्रा और मार्गमें ब्राह्मणोंसे बातचीत१८४- पाण्डवोंका द्रुपदकी राजधानीमें जाकर कुम्हारके यहाँ रहना, स्वयंवरसभाका

वर्णन तथा धृष्ट्युम्नकी घोषणा१८५- धृष्टद्युम्नका द्रौपदीको स्वयंवरमें आये हुए राजाओंका परिचय देना१८६- राजाओंका लक्ष्यवेधके लिये उद्योग और असफल होना१८७- अर्जुनका लक्ष्यवेध करके द्रौपदीको प्राप्त करना१८८- ट्रुपदको मारनेके लिये उद्यत हुए राजाओंका सामना करनेके लिये भीम और

अर्जुनका उद्यत होना और उनके विषयमें भगवान् श्रीकृष्णका बलरामजीसेवार्तालाप१८९- अर्जुन और भीमसेनके द्वारा कर्ण तथा शल्यकी पराजय और द्रौपदीसहित भीम-

अर्जुनका अपने डेरेपर जाना१९०- कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिरकी बातचीत, पाँचों पाण्डवोंका द्रौपदीके साथ

विवाहका विचार तथा बलराम और श्रीकृष्णकी पाण्डवोंसे भेंट१९१- धृष्टद्युम्नका गुप्तरूपसे वहाँका सब हाल देखकर राजा द्रुपदके पास आना तथा

द्रौपदीके विषयमें द्रुपदका प्रश्न

(वैवाहिकपर्व)

११२- धृष्टद्युम्नके द्वारा द्रौपदी तथा पाण्डवोंका हाल सुनकर राजा द्रुपदका उनके पास

पुरोहितको भेजना तथा पुरोहित और युधिष्ठिरकी बातचीत१९३- पाण्डवों और कुन्तीका द्रपदके घरमें जाकर सम्मानित होना और राजा द्रुपदद्वारा

पाण्डवोंके शील-स्वभावकी परीक्षा१९४- द्रुपद और युधिष्ठिरकी बातचीत तथा व्यासजीका आगमन१९५- व्यासजीके सामने द्रौपदीका पाँच पुरुषोंसे विवाह होनेके विषयमें द्रुपद, धृष्टद्युम्न

और युधिष्ठिरका अपने-अपने विचार व्यक्त करना१९६- व्यासजीका द्रुपदको पाण्डवों तथा द्रौपदीके पूर्वजन्मकी कथा सुनाकर दिव्य

दृष्टि देना और द्रुपदका उनके दिव्य रूपोंकी झाँकी करना१९७- द्रौपदीका पाँचों पाण्डवोंके साथ विवाह१९८- कुन्तीका द्रौपदीको उपदेश और आशीर्वाद तथा भगवान् श्रीकृष्णका पाण्डवोंके

लिये उपहार भेजना

(विदुरागमनराज्यलम्भपर्व)

१९९- पाण्डवोंके विवाहसे दुर्योधन आदिकी चिन्ता, धृतराष्ट्रका पाण्डवोंके प्रति प्रेमका

दिखावा और दुर्योधनकी कुमन्त्रणा२००- धृतराष्ट्र और दुर्योधनकी बातचीत, शत्रुओंको वशमें करनेके उपाय२०१- पाण्डवोंको पराक्रमसे दबानेके लिये कर्णकी सम्मति२०२- भीष्मकी दुर्योधनसे पाण्डवोंको आधा राज्य देनेकी सलाह२०३- द्रोणाचार्यकी पाण्डवोंको उपहार भेजने और बुलानेकी सम्मति तथा कर्णके द्वारा

उनकी सम्मतिका विरोध करनेपर द्रोणाचार्यकी फटकार२०४- विदुरजीकी सम्मति -द्रोण और भीष्मके वचनोंका ही समर्थन२०५- धृतराष्ट्रकी आज्ञासे विदुरका द्रुपदके यहाँ जाना और पाण्डवोंको हस्तिनापुर

भेजनेका प्रस्ताव करना 1.२०६- पाण्डवोंका हस्तिनापुरमें आना और आधा राज्य पाकर इन्द्रप्रस्थ नगरका निर्माणकरना एवं भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीका द्वारकाके लिये प्रस्थान२०७- पाण्डवोंके यहाँ नारदजीका आगमन और उनमें फूट न हो, इसके लिये कुछनियम बनानेके लिये प्रेरणा करके सुन्द और उपसुन्दकी कथाको प्रस्तावित करना२०८- सुन्द-उपसुन्दकी तपस्या, ब्रह्माजीके द्वारा उन्हें वर प्राप्त होना और दैत्योंके यहाँ

आनन्दोत्सव२०९- सुन्द और उपसुन्दद्वारा क्रूरतापूर्ण कर्मोंसे त्रिलोकीपर विजय प्राप्त करना२१०- तिलोत्तमाकी उत्पत्ति, उसके रूपका आकर्षण तथा सुन्दोपसुन्दको मोहित

करनेके लिये उसका प्रस्थान२११- तिलोत्तमापर मोहित होकर सुन्द-उपसुन्दका आपसमें लड़ना और मारा जानाएवं तिलोत्तमाको ब्रह्माजीद्वारा वरप्राप्ति तथा पाण्डवोंका द्रौपदीके विषयमें नियम-

निर्धारण

(अर्जुनवनवासपर्व)

२१२- अर्जुनके द्वारा ब्राह्मणके गोधनकी रक्षाके लिये नियमभंग और वनकी ओर

प्रस्थान२१३- अर्जुनका गंगाद्वारमें ठहरना और वहाँ उनका उलूपीके साथ मिलन२१४- अर्जुनका पूर्वदिशाके तीर्थोमें भ्रमण करते हुए मणिपूरमें जाकर चित्रांगदाकापाणिग्रहण करके उसके गर्भसे एक पुत्र उत्पन्न करना२१५- अर्जुनके_द्वारा वर्गा अप्सराका ग्राहयोनिसे उद्धार तथा वर्गाकी आत्मकथाका

आरम्भ२१६- वर्गाकी प्रार्थनासे अर्जुनका शेष चारों अप्सराओंको भी शापमुक्त करके मणिपूर

जाना और चित्रांगदासे मिलकर गोकर्णतीर्थको प्रस्थान करना२१७- अर्जुनका प्रभासतीर्थमें श्रीकृष्णसे मिलना और उन्हींके साथ उनका रैवतक पर्वतएवं द्वारकापुरीमें आना

(सुभद्राहरणपर्व)

२१८- रैवतक पर्वतके उत्सवमें अर्जुनका सुभुद्रापर आसक्त होना और श्रीकृष्ण तथायुधिष्ठिरकी अनुमतिसे उसे हर ले जानेका निश्चय करना२१९- यादवोंकी युद्धके लिये तैयारी और अर्जुनके प्रति बलरामजीके क्रोधपूर्ण उद्गार

(हरणाहरणपर्व)

२२०- द्वारकामें अर्जुन और सुभुद्राका विवाह, अर्जुनके इन्द्रप्रस्थ पहुँचनेपर श्रीकृष्ण

आदिका दहेज लेकर वहाँ जाना, द्ौपदीके पुत्र एवं अभिमन्युके जन्म, संस्कार औरशिक्षा

(खाण्डवदाहपर्व)

२२१- युधिष्ठिरके राज्यकी विशेषता, कृष्ण और अर्जुनका खाण्डववनमें जाना तथा उनदोनोंके पास ब्राह्मणवेषधारी अग्निदेवका आगमन२२२- अग्निदेवका खाण्डववनको जलानेके लिये श्रीकृष्ण और अर्जुनसे सहायताकीयाचना करना, अग्निदेव उस वनको क्यों जलाना चाहते थे, इसे बतानेके प्रसंगमेंराजा श्वेतकिकी कथा२२३- अर्जुनका अग्निकी प्रार्थना स्वीकार करके उनसे दिव्य धनुष एवं रथ आदिमाँगना२२४- अग्निदेवका अर्जुन और श्रीकृष्णको दिव्य धनुषु, अक्षय तरकस, दिव्य रथ औरचक्र आदि प्रदान करना तथा उन दोनोंकी सहायतासे खाण्डववनको जलाना२२५- खाण्डववनमें जलते हुए प्राणियोंकी दुर्दशा और इन्द्रके द्वारा जल बरसाकर आगबुझानेकी चेष्टा२२६- देवताओं आदिके साथ श्रीकृष्ण और अर्जुनका युद्ध

(मयदर्शनपर्व)

२२७- देवताओंकी पराजय, खाण्डववनका विनाश और मयासुरकी रक्षा२२८- शाङ्ग्गकोपाख्यान-मन्दपाल मुनिके द्वारा जरिता-शार्क्गिकासे पुत्रोंकी उत्पत्तिऔर उन्हें बचानेके लिये मुनिका अग्निदेवकी स्तुति करना२२९- जरिताका अपने बच्चोंकी रक्षाके लिये चिन्तित होकर विलाप करना२३०- जरिता और उसके बच्चोंका संवाद२३१- शार्ङ्कोंके स्तवनसे प्रसन्न होकर अग्निदेवका उन्हें अभय देना२३२- मन्दपालका अपने बाल-बच्चोंसे मिलना२३३- इन्द्रदेवका श्रीकृष्ण और अर्जुनको वरदान तथा श्रीकृष्ण, अर्जुन और मयासुरकाअग्निसे विदा लेकर एक साथ यमुनातटपर बैठना

(आदिपर्व सम्पूर्ण)

सभापर्व

(सभाक्रियापर्व)१- भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञाके अनुसार मयासुर्द्वारा सभाभवन बनानेकी तैयारी२- श्रीकृष्णकी द्वारकायात्रा३- मयासुरका भीमसेन और अर्जुनको गदा और शंख लाकर देना तथा उसके द्वारा

अद्भुत सभाका निर्माण४- मयद्वारा निर्मित सभाभवनमें धर्मराज युधिष्ठिरका प्रवेश तथा सभामें स्थित

मुहर्षियों और राजाओं आदिका वर्णन

(लोकपालसभाख्यानपर्व)

५- नारदजीका युधिष्ठिरकी सभामें आगमन और प्रश्नके रूपमें युधिष्ठिरको शिक्षा देना६- युधिष्ठिरकी दिव्य सभाओंके विषयमें जिज्ञासा७- इन्द्रसभाका वर्णन८- यमराजकी सभाका वर्णन९- वरुणकी सभाका वर्णन१०- कुरबेरकी सभाका वर्णन११- ब्रह्माजीकी सभाका वर्णन१२- राजा हरिश्चन्द्रका माहात्म्य तथा युधिष्ठिरके प्रति राजा पाण्डुका संदेश

(राजसूयारम्भपर्व)

१३- युधिष्ठिरका राजसूरयविषयक संकल्प और उसके विषयमें भाइयों, मन्त्रियों, मुनियोंतथा श्रीकृष्णसे सलाह लेना१४- श्रीकृष्णकी राजसूयुयज्ञके लिये सम्मति१५: जरासंधके विषयमें राजा युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्णकी बातचीत१६- जरासंधको जीतनेके विषयमें युधिष्ठिरके उत्साहृहीन होनेपर अर्जुनका उत्साहपूर्ण

उद्गार१७- श्रीकृष्णके द्वारा अर्जुनकी बातका अनुमोदन तथा युधिष्ठिरको जरासंधकी

उत्पत्तिका प्रसंग सुनाना१८- जरा राक्षसीका अपना परिचय देना और उसीके नामपर बालकका नामकरण

होना१९- चण्डकौशिक मुनिके द्वारा जरासंधका भविष्यकथन तथा पिताके_द्वारा उसकाराज्याभिषेक करके वनमें जाना

(जरासंधवधपर्व)

२०- युधिष्ठिरके अनुमोदन करनेपर श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनकी मगध-यात्रा२१- श्रीकृष्णद्वारा मगधकी राजधानीकी प्रशंसा, चैत्यक पर्वतशिखर और नगाड़ोंकोतोड़-फोड़कर तीनोंका नगर एवं राज-भवनमें प्रवेश तथा श्रीकृष्ण और जरासंधका

संवाद२२- जरासंध और श्रीकृष्णका संवाद तथा जरासंधकी युद्धके लिये तैयारी एवंजरासंधका श्रीकृष्णके साथ वैर होनेके कारणका वर्णन२३- जरासंधका भीमसेनके साथ युद्ध करनेका निश्चय, भीम और जरासंधका भयानक

युद्ध तथा जरासंधकी थकावट२४- भीमके द्वारा जरासंधका वध, बंदी राजाओंकी मुक्ति, श्रीकृष्ण आदिका भेंट लेकरइन्द्रप्रस्थमें आना और वहाँसे श्रीकृष्णका द्वारका जाना

(दिग्विजयपर्व)

२५- अर्जुन आदि चारों भाइयोंकी दिग्विजयके लिये यात्रा२६- अर्जुनके द्वारा अनेक देशों, राजाओं तथा भगदत्तकी पराजय२७- अर्जुनका अनेक पर्वतीय देशोंपर विजय पाना२८- किम्पुरुष, हाटक तथा उत्तरकुरुपर विजय प्राप्त करके अर्जुनका इन्द्रप्रस्थ लौटना२९: भीमसेनका पूर्व दिशाको जीतनेके लिये प्रस्थान और विभिन्न देशोंपर विजय पाना३०- भीमका पूर्व दिशाके अनेक देशों तथा राजाओंको जीतकर भारी धन-सम्पत्तिकेसाथ इन्द्रप्रस्थमें लौटना३,१- सहदेवके द्वारा दक्षिण दिशाकी विजय३२- नकुलके द्वारा पश्चिम दिशाकी विजय

(राजसूयपर्व)

३३- युधिष्ठिरके शासनकी विशेषता, श्रीकृष्णकी आज्ञासे युधिष्ठिरका राजसूययज्ञकीदीक्षा लेना तथा राजाओं, ब्राह्मणों एवं सगे-सम्बन्धियोंको बुलानेके लिये निमन्त्रण

भेजना३४- युधिष्ठिरके यज्ञमें सब देशके राजाओं, कौरवों तथा यादवोंका आगमन और उनसबके भोजन-विश्राम आदिकी सुव्यवस्था३५- राजसूययज्ञका वर्णन

(अर्घाभिहरणपर्व)

३६- राजसूययज्ञमें ब्राह्मणों तथा राजाओंका समागम, श्रीनारदजीके द्वारा श्रीकृष्ण-महिमाका वर्णन और भीष्मजीकी अनुमतिसे श्रीकृष्णकी अग्रपूजा३७- शिशुपालके आक्षेपपूर्ण वचन३८- युधिष्ठिरका शिशुपालको समझाना और भीष्मजीका उसके आक्षेपोंका उत्तर देना३९- सहदेवकी राजाओंको चुनौती तथा क्षुब्ध हुए शिशुपाल आदि नरेशोंका युद्धके

लिये उद्यत होना

(शिशुपालवधपर्व)

४०- युधिष्ठिरकी चिन्ता और भीष्मजीका उन्हें सान्त्वना देना४१- शिशुपालद्वारा भीष्मकी निन्दा४२- शिशुपालकी बातोंपर भीमसेनका क्रोध और भीष्मजीका उन्हें शान्त करना४३- भीष्मजीके द्वारा शिशुपालके जन्मके वृत्तान्तका वर्णन४४- भीष्मकी बातोंसे चिढ़े हुए शिशुपालका उन्हें फटकारना तथा भीष्मका श्रीकृष्णसे

युद्ध करनेके लिये समस्त राजाओंको चुनौती देना४५- श्रीकृष्णके द्वारा शिशुपालका वध, राजसूययज्ञकी समाप्ति तथा सभी ब्राह्मणों,

राजाओं और श्रीकृष्णका स्वदेशगमन

(द्यूतपर्व)

४६- व्यासजीकी भविष्यवाणीसे युधिष्ठिरकी चिन्ता और समत्वपूर्ण बर्ताव करनेकी

प्रतिज्ञा४७- दुर्योधनका मरयनिर्मित सभाभवनको देखना और पग-पगपर भ्रमके कारण

उपहासका पात्र बनना तथा युधिष्ठिरके वैभवको देखकर उसका चिन्तित होना४८- पाण्डवोंपर विजय प्राप्त करनेके लिये शकुनि और दुर्योधनकी बातचीत४९- धृतराष्ट्रके पूछनेपर दुर्योधनका अपनी चिन्ता बताना और द्यूतके लिये धृतराष्ट्रसे

अनुरोध करना एवं धृतराष्ट्रका विदुरको इन्द्रप्रस्थ जानेका आदेश५०- दुर्योधनका धृतराष्ट्रको अपने दुःख और चिन्ताका कारण बताना५१- युधिष्ठिरको भेंटमें मिली हुई वस्तुओंका दुर्योधनद्वारा वर्णन५२- युधिष्ठिरको भेंटमें मिली हुई वस्तुओंका दुर्योधनद्वारा वर्णन५३- दुर्योधनद्वारा युधिष्ठिरके अभिषेकका वर्णन५४- धृतराष्ट्रका दुर्योधनको समझाना५५- दुर्योधनका धृतराष्ट्रको उकसाना५६- धृतराष्ट्र और दुर्योधनकी बातचीत, द्यूतक्रीड़ाके लिये सभानिर्माण और धृतराष्ट्रका

युधिष्ठिरको बुलानेके लिये विदुरको आज्ञा देना५७- विदुर और धृतराष्ट्रकी बातचीत५८- विदुर और युधिष्ठिरकी बातचीत तथा युधिष्ठिरका हस्तिनापुरमें जाकर सबसे

मिलना५९- जूएके अनौचित्यके सम्बन्धरमें युधिष्ठिर और शकुनिका संवाद६०- द्यूतक्रीड़ाका आरम्भ६१- जूएमें शकुनिके छलसे प्रत्येक दाँवपर युधिष्ठिरकी हार६२- धृतराष्ट्रको विदुरकी चेतावनी६३- विदुरजीके द्वारा जूएका घोर विरोध६४- दुर्योधनका विदुरको फटकारना और विदुका उसे चेतावनी देना६५- युधिष्ठिरका धन, राज्य, भाइयों तथा द्रौपदी-सहित अपनेको भी हारना६६- विदुरका दुर्योधनको फटकारना६७- प्रातिकामीके बुलानेसे न आनेपर दुःशासनका सभामें द्रौपदीको केश पकड़कर

घसीटकर लाना एवं सभासदोंसे द्रौपदीका प्रश्न६८- भीमसेनका क्रोध एवं अर्जुनका उन्हें शान्त करना, विकर्णकी धर्मसंगत बातका

कर्णके द्वारा विरोध, द्रौपदीका चीरहरण एवं भगवान्द्वारा उसकी लज्जारक्षा तथा

विदुरके द्वारा प्रह्लादका उदाहरण देकर सभासदोंको विरोधके लिये प्रेरित करना६९- द्रौपदीका चेतावनीयुक्त विलाप एवं भीष्मका वचन७०- दुर्योधनके छल-कपटयुक्त वचन और भीमसेनका रोषपूर्ण उद्गार७१- कर्ण और दुर्योधनके वचन, भीमसेनकी प्रतिज्ञा, विदुरकी चेतावनी और द्रौपदीको

धृतराष्ट्रसे वरप्राप्ति७२- शत्रुओंको मारनेके लिये उद्यत हुए भीमको युधिष्ठिरका शान्त करना७३- धृतराष्ट्रका युधिष्ठिरको सारा धन लौटाकर एवं समझा-बुझाकर इन्द्रप्रस्थ जानेका

आदेश देना 1.

(अनुद्यूतपर्व)

७४- दुर्योधनका धृतराष्ट्रसे अर्जुनकी वीरता बतलाकर पुनः द्यूतक्रीड़ाके लिये

पाण्डवोंको बुलानेका अनुरोध और उनकी स्वीकृति७५- गान्धारीकी धृतराष्ट्रको चेतावनी और धृतराष्ट्रका अस्वीकार करना७६- सबके मना करनेपर भी धृतराष्ट्रकी आज्ञासे युधिष्ठिरका पुनः जूआ खेलना और

हारना७७- दुःशासनद्वारा पाण्डवोंका उपहास एवं भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेवकी

शत्रुओंको मारनेके लिये भीषण प्रतिज्ञा७८- युधिष्ठिरका धृतराष्ट्र आदिसे विदा लेना, विदुरका कुन्तीको अपने यहाँ रखनेका

प्रस्ताव और पाण्डवोंको धर्मपूर्वक रहनेका उपदेश देना७९- द्रौपदीका कुन्तीसे विदा लेना तथा कुन्तीका विलाप एवं नगरके नर-नारियोंका

शोकातुर होना८०- वनगमनके समय पाण्डवोंकी चेष्टा और प्रजाजनोंकी शोकातुरताके विषयमेंधृतराष्ट्र तथा विदुरका संवाद और शरणागत कौरवोंको द्रोणाचार्यका आश्वासन८१- धुतराष्ट्रकी चिन्ता और उनका संजयके साथ वार्तालाप

(सभापर्व सम्पूर्ण)

चित्र-सूची

(सादा)

१- उग्रश्रवाजीके द्वारा महाभारतकी कथा२- रुरुके दर्शनसे सहस्रपाद ऋषिकी सर्पयोनिसे मुक्ति३- भगवान् विष्णुने चक्रसे राहुका सिर काट दिया४- ब्रह्माजीने शेषजीको वरदान तथा पृथ्वी धारण करनेकी आज्ञा दी५: आस्तीकने तक्षकको अग्निकुण्डमें गिरनेसे रोक दिया६- शुक्राचार्य और कच७- ययातिका पतन८- देवव्रत (भीष्म)-की भीषण प्रतिज्ञा९- धर्मराज और अणीमाण्डव्यू१०- अणीमाण्डव्य ऋषि शूलीपर११- शतशृंग पर्वतपर पाण्डुका तप१२- बालक भीमके शरीरकी चोटसे चट्टान टूट गयी१३- सुरंगद्वारा मातासहित पाण्डवोंका लाक्षागृहसे निकलना१४- भीम अपने चारों भाइयोंको तथा माताको उठाकर ले चले१५- हिडिम्ब-वध१६- भीमसेन और घटोत्कच१७- पाण्डवोंकी व्यासजीसे भेंट१८- धृष्टद्युम्नकी घोषणा१९- कुन्तीद्वारा ब्राह्मण-दम्पतिको सान्त्वना२०- बकासुरपर भीमका प्रहार२१- विश्वामित्रकी सेनापर नन्दिनीका कोप२२- पाण्डव,द्रुपद और व्यासजीमें बातचीत२३- व्यासजीद्वारा पाण्डवोंके पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन२४- सुन्द और उपसुन्दका अत्याचार२५- तिलोत्तमाके लिये सुन्द और उपसुन्दका युद्ध२६- सुभुद्राका कुन्ती और द्रौपदीकी सेवामें उपस्थित होना२७- श्रीकृष्ण और अर्जुनका देवताओंसे युद्ध२८- अर्जुन और श्रीकृष्णको इन्द्रका वरदान२९- पाण्डवोंद्वारा देवर्षि नारदका पूजन३०- जरासंधके भवनमें श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन३१- भीमसेन और जरासंधका युद्ध३२- भीष्मका युधिष्ठिरको श्रीकृष्णकी महिमा बताना३३- शिशुपालका युद्धके लिये उद्योग३४- भूमिका भगवानुको अदितिके कुण्डल देना३५- शिशुपालके वधके लिये भगवानुका हाथमें चक्र ग्रहण करना३६- दुर्योधनका स्थलके भ्रमसे जलमें गिरना३७- दयूत-क्रीडामें युधिष्ठिरसे पराजय३८- दुःशासनका द्रौपदीके केश पकड़कर खींचना

३९: द्रौपदी-चीर-हरण४०- गान्धारीका धृतराष्ट्रको समझाना

।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।

श्रीमहाभारतम्

आदिपर्व

अनुक्रमणिकापर्व

प्रथमोऽध्यायः

ग्रन्थका उपक्रम, ग्रन्थमें कहे हुए अधिकांश विषयोंकी संक्षिप्त सूची तथा इसके पाठकी महिमा

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।

‘बदरिकाश्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि श्रीनारायण तथा श्रीनर ( अन्तर्यामी नारायणस्वरूपभगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन), उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यासको नमस्कार कर (आसुरीसम्पत्तियोंका नाश करके अन्तःकरणपर दैवी सम्पत्तियोंको विजय प्राप्त करानेवाले) जयः(महाभारत एवं अन्य इतिहास-पुराणादि)- का पाठ करना चाहिये।’3

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। ॐ नमः पितामहाय। ॐ नमः प्रजापतिभ्यः । ॐनमः कृष्णद्वैपायनाय। ॐ नमः सर्वविघ्नविनायकेभ्यः ।

ॐकारस्वरूप भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। ॐकारस्वरूप भगवान् पितामहकोनमस्कार है। ॐकारस्वरूप प्रजापतियोंको नमस्कार है । ॐकारस्वरूप श्रीकृष्णद्वैपायनकोनमस्कार है। ॐकारस्वरूप सर्व-विघ्नविनाशक विनायकोंको नमस्कार है।

लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको

नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेद्द्वादशवार्षिके सत्रे ।। १ ।॥

सुखासीनानभ्यगच्छद् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान् ।

विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनन्दनः ।। २ ।।

एक समयकी बात है, नैमिषारण्यमें कुलपति महर्षि शौनकके बारह वर्षोंतक चालूरहनेवाले सत्रमें जब उत्तम एवं कठोर ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका पालन करनेवाले ब्रह्मर्षिगणअवकाशके समय सुखपूर्वक बैठे थे, सूतकुलको आनन्दित करनेवाले लोमहर्षणपुत्रउग्रश्रवा सौति स्वयं कौतूहलवश उन ब्रह्मर्षियोंके समीप बड़े विनीतभावसे आये । वेपुराणोंके विद्वान् और कथावाचक थे ।। १-२ ।।

तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम् ।

चित्राः श्रोतुं कथास्तत्र परिवब्रुस्तपस्विनः ।। ३ ।।

उस समय नैमिषारण्यवासियोंके आश्रममें पधारे हुए उन उग्रश्रवाजीको उनसे चित्र-विचित्र कथाएँ सुननेके लिये, सब तपस्वियोंने वहीं घेर लिया ।। ३ ।।

अभिवाद्य मुनींस्तांस्तु सर्वानेव कृताञ्जलिः ।

अपृच्छत् स तपोवृद्धिं सद्धिश्चैवाभिपूजितः ॥ ४ ।।

उग्रश्रवाजीने पहले हाथ जोड़कर उन सभी मुनियोंको अभिवादन किया और’आपलोगोंकी तपस्या सुखपूर्वक बढ़ रही है न?’ इस प्रकार कुशल -प्रश्न किया। उनसत्पुरुषोंने भी उग्रश्रवाजीका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया।। ४ ।

अथ तेषूपविष्टेषु सर्वेष्वेव तपस्विषु ।

निर्दिष्टमासनं भेजे विनयाल्लौमहर्षणिः ।। ५ ।।

इसके अनन्तर जब वे सभी तपस्वी अपने-अपने आसनपर विराजमान हो गये, तबलोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाजीने भी उनके बताये हुए आसनको विनयपूर्वक ग्रहण किया।।

सुखासीनं ततस्तं तु विश्रान्तमुपलक्ष्य च ।

अथापृच्छदृषिस्तत्र कश्चित् प्रस्तावयन् कथाः ।। ६ ।।

तत्पश्चात् यह देखकर कि उग्रश्रवाजी थकावटसे रहित होकर आरामसे बैठे हुए हैं,किसी महर्षिने बातचीतका प्रसंग उपस्थित करते हुए यह प्रश्न पूछा- ।। ६ ।।

कुत आगम्यते सौते क्व चायं विहृतस्त्वया ।

कालः कमलपत्राक्ष शंसैतत् पृच्छतो मम ।। ७ ।।

कमलनयन सूतकुमार! आपका शुभागमन कहाँसे हो रहा है? अबतक आपने कहाँआनन्दपूर्वक समय बिताया है? मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये ।। ७ ।।

एवं पृष्टोऽब्रवीत् सम्यग् यथावल्लौमहर्षणिः ।

वाक्यं वचनसम्पन्नस्तेषां च चरिताश्रयम् ।। ८।।

तस्मिन् सदसि विस्तीर्णे मुनीनां भावितात्मनाम् ।

उग्रश्रवाजी एक कुशल वक्ता थे। इस प्रकार प्रश्न किये जानेपर वे शुद्ध अन्तःकरणवालेमुनियोंकी उस विशाल सभामें ऋषियों तथा राजाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली उत्तम एवं यथार्थकथा कहने लगे ।। ८३ ।।सौतिरुवाच

जनमेजयस्य राजर्षेः सर्पसत्रे महात्मनः ।। ९ ।।

समीपे पार्थिवेन्द्रस्य सम्यक् पारिक्षितस्य च ।

कृष्णद्वैपायनप्रोक्ताः सुपुण्या विविधाः कथाः ।। १० ।।

कथिताश्चापि विधिवद् या वैशम्पायनेन वै ।

श्रुत्वाहं ता विचित्रार्था महाभारतसंश्रिताः ।। ११ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-महर्षियो! चक्रवर्ती सम्राट् महात्मा राजर्षि परीक्षित्-नन्दनजनमेजयके सर्पयज्ञमें उन्हींके पास वैशम्पायनने श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीके द्वारा निर्मितपरम पुण्यमयी चित्र-विचित्र अर्थसे युक्त महाभारतकी जो विविध कथाएँ विधिपूर्वक कहीहैं, उन्हें सुनकर मैं आ रहा हूँ ।। ९-११ ।।

बहुनि सम्परिक्रम्य तीर्थान्यायतनानि च ।

समन्तपञ्चकं नाम पुण्यं द्विजनिषेवितम् ।। १२ ।।

गतवानस्मि तं देशं युद्धं यत्राभवत् पुरा ।

कुरूणां पाण्डवानां च सर्वेषां च महीक्षिताम् ।। १३ ।।

मैं बहुत-से तीर्थों एवं धामोंकी यात्रा करता हुआ ब्राह्मणोंके द्वारा सेवित उस परमपुण्यमय समन्तपंचक क्षेत्र कुरुक्षेत्र देशमें गया , जहाँ पहले कौरव-पाण्डव एवं अन्य सबराजाओंका युद्ध हुआ था ।। १२-१३ ।।

दिदृक्षुरागतस्तस्मात् समीपं भवतामिह ।

आयुष्मन्तः सर्व एव ब्रह्मभूता हि मे मताः ।

अस्मिन् यज्ञे महाभागाः सूर्यपावकवर्चसः ।। १४ ।।

वहींसे आपलोगोंके दर्शनकी इच्छा लेकर मैं यहाँ आपके पास आया हूँ। मेरी यहमान्यता है कि आप सभी दीर्घायु एवं ब्रह्मस्वरूप हैं। ब्राह्मणो! इस यज्ञमें सम्मिलित आपसभी महात्मा बड़े भाग्यशाली तथा सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी हैं ।। १४ ।।

कृताभिषेकाः शुचयः कृतजप्याहुताग्नयः ।

भवन्त आसने स्वस्था ब्रवीमि किमहं द्विजाः ।। १५ ।।

पुराणसंहिताः पुण्याः कथा धर्मार्थसंश्रिताः ।

इति वृत्तं नरेन्द्राणामृषीणां च महात्मनाम् ।। १६ ।।

इस समय आप सभी स्नान, संध्या-वन्दन, जप और अग्निहोत्र आदि करके शुद्ध होअपने-अपने आसनपर स्वस्थचित्तसे विराजमान हैं। आज्ञा कीजिये, मैं आपलोगोंको क्यासुनाऊँ? क्या मैं आपलोगोंको धर्म और अर्थके गूढ़ रहस्यसे युक्त, अन्तःकरणको शुद्धकरनेवाली भिन्न-भिन्न पुराणोंकी कथा सुनाऊँ अथवा उदारचरित महानुभाव ऋषियों एवंसम्राटोंके पवित्र इतिहास? ।। १५-१६ ।।

ऋषय ऊचुः

द्वैपायनेन यत् प्रोक्तं पुराणं परमर्षिणा।

सुरैर्ब्रह्मर्षिभिश्चैव श्रुत्वा यदभिपूजितम् ।। १७ ।।

तस्याख्यानवरिष्ठस्य विचित्रपदपर्वणः ।

सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च ।। १८ ।।

भारतस्येतिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम् ।

संस्कारोपगतां ब्राह्मीं नानाशास्त्रोपबृंहिताम् ।। १९ ।।

जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशम्पायन उक्तवान् ।

यथावत् स ऋषिस्तुष्ट्या सत्रे द्वैपायनाज्ञया ।। २० ।।

वेदैश्वतुर्भिः संयुक्तां व्यासस्याद्भुतकर्मणः ।

संहितां श्रोतुमिच्छामः पुण्यां पापभयापहाम् ।। २१ ।।

ऋषियोंने कहा-उग्रश्रवाजी! परमर्षि श्रीकृष्ण-द्वैपायनने जिस प्राचीन इतिहासरूपपुराणका वर्णन किया है और देवताओं तथा ऋषियोंने अपने-अपने लोकमें श्रवण करकेजिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जो आख्यानोंमें सर्वश्रेष्ठ है, जिसका एक-एक पद, वाक्यएवं पर्व विचित्र शब्दविन्यास और रमणीय अर्थसे परिपूर्ण है, जिसमें आत्मा-परमात्माकेसूक्ष्म स्वरूपका निर्णय एवं उनके अनुभवके लिये अनुकूल युक्तियाँ भरी हुई हैं और जोसम्पूर्ण वेदोंके तात्पर्यानुकूल अर्थसे अलंकृत है, उस भारत इतिहासकी परम पुण्यमयी,ग्रन्थके गुप्त भावोंको स्पष्ट करनेवाली, पदों-वाक्योंकी व्युत्पत्तिसे युक्त, सब शास्त्रोंकेअभिप्रायके अनुकूल और उनसे समर्थित जो अद्भुतकर्मा व्यासकी संहिता है, उसे हमसुनना चाहते हैं। अवश्य ही वह चारों वेदोंके अर्थोंसे भरी हुई तथा पुण्यस्वरूपा है। पापऔर भयका नाश करनेवाली है। भगवान् वेदव्यासकी आज्ञासे राजा जनमेजयके यज्मेंप्रसिद्ध ऋषि वैशम्पायनने आनन्दमें भरकर भलीभाँति इसका निरूपण किया है ।। १७-२१ ।।

सौतिरुवाच

आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् ।

ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं सनातनम् ।। २२ ।।

असच्च सदसच्चैव यद् विश्वं सदसत्परम् ।

परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम् ।। २३ ।।

मङ्गल्यं मङ्गलं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम् ।

नमस्कृत्य हृषीकेशं चराचरगुरुं हरिम् ।। २४ ।।

महर्षेः पूजितस्येह सर्वलोकैर्महात्मनः ।

प्रवक्ष्यामि मतं पुण्यं व्यासस्याद्भुतकर्मणः ।। २५ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-जो सबका आदि कारण, अन्तर्यामी और नियन्ता है, जिसका आवाहन और जिसके उद्देश्यसे हवन किया जाता है, जिसकी अनेक पुरुषोंद्वाराअनेक नामोंसे स्तुति की गयी है, जो ऋत (सत्यस्वरूप), एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव एवं एकमात्रअविनाशी और सर्वव्यापी परमात्मा), व्यक्ताव्यक्त (साकार-निराकार)-स्वरूप एवं सनातनहै, असत्-सत् एवं उभयरूपसे जो स्वयं विराजमान है; फिर भी जिसका वास्तविक स्वरूपसत्-असत् दोनोंसे विलक्षण है, यह विश्व जिससे अभिन्न है, जो सम्पूर्ण परावर (स्थूल-सूक्ष्म) जगत्का स्रष्टा, पुराणपुरुष, सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर एवं वृद्धि-क्षय आदि विकारोंसे रहितहै, जिसे पाप कभी छू नहीं सकता, जो सहज शुद्ध है, वह ब्रह्म ही मंगलकारी एवं मंगलमयविष्णु है। उन्हीं चराचरगुरु हृषीकेश (मन-इन्द्रियोंके प्रेरक) श्रीहरिको नमस्कार करकेसर्वलोकपूजित अद्भुतकर्मा महात्मा महर्षिे व्यासदेवके इस अन्तःकरणशोधक मतका मैंवर्णन करूँगा ।। २२-२५ ।।

आचख्युः कवयः केचित् सम्प्रत्याचक्षते परे ।

आख्यास्यन्ति तथैवान्ये इतिहासमिमं भुवि ।। २६ ।।

पृथ्वीपर इस इतिहासका अनेकों कवियोंने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत-सेवर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन करते रहेंगे ।। २६ ।।

इदं तु त्रिषु लोकेषु महज्ज्ञानं प्रतिष्ठितम् ।

विस्तरैश्च समासैश्च धार्यते यद् द्विजातिभिः ॥। २७ ।।

इस महाभारतकी तीनों लोकोंमें एक महान् ज्ञानके रूपमें प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादिद्विजाति संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपोंमें अध्ययन और अध्यापनकी परम्पराके द्वाराइसे अपने हृदयमें धारण करते हैं ।। २७ ।।

अलंकृतं शुभैः शब्दैः समयैर्दिव्यमानुषैः ।

छन्दोवृत्तैश्च विविधैरन्वितं विदुषां प्रियम् ।। २८ ।।

यह शुभ (ललित एवं मंगलमय) शब्दविन्याससे अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक यासंस्कृत-प्राकृत संकेतोंसे सुशोभित है। अनुष्टुप्, इन्द्रवज्रा आदि नाना प्रकारके छन्द भीइसमें प्रयुक्त हुए हैं; अतः यह ग्रन्थ विद्वानोंको बहुत ही प्रिय है ।। २८ ।।

(पुण्ये हिमवतः पादे मध्ये गिरिगुहालये ।

विशोध्य देहं धर्मात्मा दर्भसंस्तरमाश्रितः ।।

शुचिः सनियमो व्यासः शान्तात्मा तपसि स्थितः ।

भारतस्येतिहासस्य धर्मेणान्वीक्ष्य तां गतिम् ।।

प्रविश्य योगं ज्ञानेन सोऽपश्यत् सर्वमन्ततः ।)

हिमालयकी पवित्र तलहटीमें पर्वतीय गुफाके भीतर धर्मात्मा व्यासजी स्नानादिसेशरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुशका आसन बिछाकर बैठे थे। उस समय नियमपालनपूर्वकशान्तचित्त हो वे तपस्यामें संलग्न थे। ध्यानयोगमें स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहासके स्वरूपका विचार करके ज्ञानदृष्टिद्वारा आदिसे अन्ततक सब कुछ प्रत्यक्षकीभाँति देखा (और इस ग्रन्थका निर्माण किया) ।

निष्प्रभेऽस्मिन् निरालोके सर्वतस्तमसावृते ।

बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमव्ययम् ।। २९ ।।

सृष्टिके प्रारम्भमें जब यहाँ वस्तुविशेष या नामरूप आदिका भान नहीं होता था,प्रकाशका कहीं नाम नहीं था, सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एकबहुत बड़ा अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओंका अविनाशी बीज था ।। २९ ।।

युगस्यादौ निमित्तं तन्महद्दिव्यं प्रचक्षते ।

यस्मिन् संश्रूयते सत्यं ज्योतिर्बरह्म सनातनम् ।। ३० ।।

ब्रह्मकल्पके आदिमें उसी महान् एवं दिव्य अण्डको चार प्रकारके प्राणिसमुदायकाकारण कहा जाता है। जिसमें सत्यस्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्टहुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है? ।। ३० ।।

अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतां गतम् ।

अव्यक्तं कारणं सूक्ष्मं यत्तत् सदसदात्मकम् ।। ३१ ।।

वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समानरूपसे व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म, कारणस्वरूपएवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत्-असत्रूपमें उपलब्ध होता है, सब वही है ।। ३१ ।।

यस्मात् पितामहो जज्ञे प्रभुरेकः प्रजापतिः।

ब्रह्मा सुरगुरुः स्थाणुर्मनुः कः परमेष्ठ्यथ ।। ३२ ।।

प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च सप्त वै ।

ततः प्रजानां पतयः प्राभवन्नेकविंशतिः ।। ३३ ।।

उस अण्डसे ही प्रथम देहधारी, प्रजापालक प्रभु, देवगुरु पितामह ब्रह्मा तथा रुद्र, मनु,प्रजापति, परमेष्ठी, प्रचेताओंके पुत्र, दक्ष तथा दक्षके सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत,अंगिरा, कर्दम और अश्व) प्रकट हुए । तत्पश्चात् इक्कीस प्रजापति ( मरीचि आदि सात ऋषिऔर चौदह मनु) पैदा हुए ।। ३२-३३ ।।

पुरुषश्चाप्रमेयात्मा यं सर्व ऋषयो विदुः ।

विश्वेदेवास्तथादित्या वसवोऽथाश्विनावपि ।। ३४ ।।

जिन्हें मत्स्य-कूर्म आदि अवतारोंके रूपमें सभी ऋषि-मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्माविष्णुरूप पुरुष और उनकी विभूतिरूप विश्वेदेव, आदित्य, वसु एवं अश्विनीकुमार आदि भीक्रमशः प्रकट हुए है ।। ३४ ।।

यक्षाः साध्याः पिशाचाश्च गुह्यकाः पितरस्तथा ।

ततः प्रसूता विद्वांसः शिष्टा ब्रह्मर्षिसत्तमाः ॥ ३५| ।।तदनन्तर यक्ष, साध्य, पिशाच, गुह्यक और पितर एवं तत्त्वज्ञानी सदाचारपरायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए ।। ३५ ।। राजर्षयश्च बहवः सर्वे समुदिता गुणैः । आपो द्यौः पृथिवी वायुरन्तरिक्षं दिशस्तथा ।। ३६ ।। इसी प्रकार बहुत-से राजर्षियोंका प्रादुर्भाव हुआ है, जो सब- के-सब शौर्यादि सद्गुणोंसे सम्पन्न थे। क्रमशः उसी ब्रह्माण्डसे जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष और दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं ।। ३६ ।। संवत्सरर्तवो मासाः पक्षाहोरात्रयः क्रमात् । यच्चान्यदपि तत् सर्वं सम्भूतं लोकसाक्षिकम् ।। ३७ ।। संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, दिन तथा रात्रिका प्राकट्य भी क्रमश: उसीसे हुआ है। इसके सिवा और भी जो कुछ लोकमें देखा या सुना जाता है, वह सब उसी अण्डसे उत्पन्न हुआ है ।। ३७ ।। यदिदं दृश्यते किंचिद् भूतं स्थावरजङ्गमम् । पुनः संक्षिप्यते सर्व जगत् प्राप्ते युगक्षये ।। ३८ ।। यह जो कुछ भी स्थावर-जंगम जगत् दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलयकाल आनेपर अपने कारणमें विलीन हो जाता है ।। ३८ ।। यथर्तावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये । दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ।। ३९ || जैसे ऋतुके आनेपर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकारके चिह्न प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जानेपर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कल्पका आरम्भ होनेपर पूर्ववत् वे-वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्पके अन्तमें उनका लय हो जाता है ।। ३९ ।। एवमेतदनाद्यन्तं भूतसंहारकारकम् । अनादिनिधनं लोके चक्रं सम्परिवर्तते ।॥ ४० ।। इस प्रकार यह अनादि और अनन्त काल-चक्र लोकमें प्रवाहरूपसे नित्य घूमता रहता है। इसीमें प्राणियोंकी उत्पत्ति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उद्भव और विनाश नहीं होता ।। ४० ।। त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि च । त्रयस्त्रिंशच्च देवानां सृष्टिः संक्षेपलक्षणा ।। ४१ ।। देवताओंकी सृष्टि संक्षेपसे तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है ।। ४१ ।। दिवःपुत्रो बृहद्धानुश्चक्षुरात्मा विभावसुः । सविता स ऋचीकोऽक्को भानुराशावहो रविः ।। ४२ ।। पुरा विवस्वतः सर्वे मह्यस्तेषां तथावरः । 1.देवभ्राट् तनयस्तस्य सुभाडिति ततः स्मृतः ।। ४३ ।।

पूर्वकालमें दिवःपुत्र, बृहत्, भानु, चक्षु, आत्मा, विभावसु, सविता, ऋचीक, अर्क, भानु,आशावह तथा रवि-ये सब शब्द विवस्वान्के बोधक माने गये हैं, इन सबमें जो अन्तिम’रवि’ हैं वे ‘मह्य’ ( मही- पृथ्वीमें गर्भ स्थापन करनेवाले एवं पूज्य ) माने गये हैं। इनकेतनय देवभ्राट् हैं और देवभ्राट्के तनय सुभ्राट् माने गये हैं ।। ४२-४३ ।।

सुभ्राजस्तु त्रयः पुत्राः प्रजावन्तो बहुश्रुताः ।

दशज्योतिः शतज्योतिः सहस्रज्योतिरेव च ।। ४४ ।।

सुभ्राट्के तीन पुत्र हुए, वे सब-के-सब संतानवान् और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रोंके ) ज्ञाताहैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-दशज्योति, शतज्योति तथा सहस्रज्योति ।। ४४ ।।

दशपुत्रसहस्राणि दशज्योतेर्महात्मनः ।

ततो दशगुणाश्चान्ये शतज्योतेरिहात्मजाः ।। ४५ ।।

महात्मा दशज्योतिके दस हजार पुत्र हुए। उनसे भी दस गुने अर्थात् एक लाख पुत्रयहाँ शतज्योतिके हुए ।। ४५ ।।

भूयस्ततो दशगुणाः सहस्रज्योतिषः सुताः ।

तेभ्योऽयं कुरुवंशश्च यदूनां भरतस्य च ।। ४६ ।।

ययातीक्ष्वाकुवंशश्च राजर्षीणां च सर्वशः

सम्भूता बहवो वंशा भूतसर्गाः सुविस्तराः ॥ ४७ ।।

फिर उनसे भी दस गुने अर्थात् दस लाख पुत्र सहस्रज्योतिके हुए। उन्हींसे यह कुरुवंश,यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाकुके वंश तथा अन्य राजर्षियोंके सब वंश चले।प्राणियोंकी सृष्टिपरम्परा और बहुत-से वंश भी इन्हींसे प्रकट हो विस्तारको प्राप्त हुएहैं ।। ४६-४७ ।।

भूतस्थानानि सर्वाणि रहस्यं त्रिविधं च यत् ।

वेदा योगः सविज्ञानो धर्मोऽर्थः काम एव च ।। ४८ ।।

धर्मकामार्थयुक्तानि शास्त्राणि विविधानि च ।

लोकयात्राविधानं च सर्वं तद् दृष्टवानृषिः ।। ४९ ।।

भगवान् वेदव्यासने, अपनी ज्ञानदृष्टिसे सम्पूर्ण प्राणियोंके निवासस्थान, धर्म, अर्थ औरकामके भेदसे त्रिविध रहस्य, कर्मोपासनाज्ञानरूप वेद, विज्ञानसहित योग, धर्म, अर्थ एवंकाम, इन धर्म, काम और अर्थरूप तीन पुरुषार्थोंके प्रतिपादन करनेवाले विविध शास्त्र,लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये आयुर्वेद, धनुर्वेद, स्थापत्यवेद, गान्धर्ववेद आदि लौकिकशास्त्र सब उन्हीं दशज्योति आदिसे हुए हैं-इस तत्त्वको और उनके स्वरूपको भलीभाँतिअनुभव किया ।। ४८-४९ ।।

इतिहासाः सवैयाख्या विविधाः श्रुतयोऽपि च ।
इह सर्वमनुक्रान्तमुक्तं ग्रन्थस्य लक्षणम् ।। ५० ।।

उन्होंने ही इस महाभारत ग्रन्थमें, व्याख्याके साथ उस सब इतिहासका तथा विविधप्रकारकी श्रुतियोंके रहस्य आदिका पूर्णरूपसे निरूपण किया है और इस पूर्णताको ही इसग्रन्थका लक्षण बताया गया है ।। ५० ।।

विस्तीर्यैतन्महज्ज्ञानमृषिः संक्षिप्य चाब्रवीत् ।
इष्टं हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम् ।। ५१ ।।

महर्षिने इस महान् ज्ञानका संक्षेप और विस्तार दोनों ही प्रकारसे वर्णन किया है;क्योंकि संसारमें विद्वान् पुरुष संक्षेप और विस्तार दोनों ही रीतियोंको पसंद करतेहैं ।। ५१ ।।

मन्वादि भारतं केचिदास्तीकादि तथा परे ।

तथोपरिचराद्यन्ये विप्राः सम्यगधीयते । ५२ ।।

कोई-कोई इस ग्रन्थका आरम्भ ‘नारायणं नमस्कृत्य’-से मानते हैं और कोई-कोईआस्तीकपर्वसे। दूसरे विद्वान् ब्राह्मण उपरिचर वसुकी कथासे इसका विधिपूर्वक पाठप्रारम्भ करते हैं ।। ५२ ।।

विविधं संहिताज्ञानं दीपयन्ति मनीषिणः ।

व्याख्यातुं कुशलाः केचिद् ग्रन्थान् धारयितुं परे ।। ५३ ।।

विद्वान् पुरुष इस भारतसंहिताके ज्ञानको विविध प्रकारसे प्रकाशित करते हैं। कोई-कोई ग्रन्थकी व्याख्या करके समझानेमें कुशल होते हैं तो दूसरे विद्वान् अपनी तीक्ष्णमेधाशक्तिके द्वारा इन ग्रन्थोंको धारण करते हैं ।। ५३ ।।

तपसा ब्रह्मचर्येण व्यस्य वेदं सनातनम् ।

इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवतीसुतः ।। ५४ ।।

सत्यवतीनन्दन भगवान् व्यासने अपनी तपस्या एवं ब्रह्मचर्यकी शक्तिसे सनातन वेदकाविस्तार करके इस लोकपावन पवित्र इतिहासका निर्माण किया है ।। ५४ ।।

पराशरात्मजो विद्वान् ब्रह्मर्षिः संशितव्रतः ।

तदाख्यानवरिष्ठं स कृत्वा द्वैपायनः प्रभुः ।। ५५ ।।

कथमध्यापयानीह शिष्यान्नित्यन्वचिन्तयत् ।

तस्य तच्चिन्तितं ज्ञात्वा ऋषे्द्वपायनस्य च ।। ५६ ।।

तत्राजगाम भगवान् ब्रह्मा लोकगुरुः स्वयम् ।

प्रीत्यर्थं तस्य चैवर्षेल्लोकानां हितकाम्यया ।। ५७ ।।

प्रशस्त व्रतधारी, निग्रहानुग्रह-समर्थ, सर्वज्ञ पराशरनन्दन ब्रह्मर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन इसइतिहासशिरोमणि महाभारतकी रचना करके यह विचार करने लगे कि अब शिष्योंको इसग्रन्थका अध्ययन कैसे कराऊँ? जनतामें इसका प्रचार कैसे हो? द्वैपायन ऋषिका यहविचार जानकर लोकगुरु भगवान् ब्रह्मा उन महात्माकी प्रसन्नता तथा लोककल्याणकीकामनासे स्वयं ही व्यासजीके आश्रमपर पधारे ।। ५५- ५७।

तं दृष्ट्वा विस्मितो भूत्वा प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः ।

आसनं कल्पयामास सर्वैर्मुनिगणैर्वृतः ।। ५८ ।।

व्यासजी ब्रह्माजीको देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और खड़े रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि-मुनियोंके साथ उन्होंने ब्रह्माजीके लिये आसनकी व्यवस्था की ।। ५८ ।।

हिरण्यगर्भमासीनं तस्मिंस्तु परमासने ।

परिवृत्यासनाभ्याशे वासवेयः स्थितोऽभवत् ।। ५९ ।।

जब उस श्रेष्ठ आसनपर ब्रह्माजी विराज गये, तब व्यासजीने उनकी परिक्रमा की और ब्रह्माजीके आसनके समीप ही विनयपूर्वक खड़े हो गये ।। ५९ ।।

अनुज्ञातोऽथ कृष्णस्तु ब्रह्मणा परमेष्ठिना।

निषसादासनाभ्याशे प्रीयमाणः शुचिस्मितः ।। ६० ।।

परमेष्ठी ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे उनके आसनके पास ही बैठ गये। उस समय व्यासजीकेहृदयमें आनन्दका समुद्र उमड़ रहा था और मुखपर मन्द-मन्द पवित्र मुसकान लहरा रही थी ।। ६० ।। 1.

उवाच स महातेजा ब्रह्माणं परमेष्ठिनम् ।

कृतं मयेदं भगवन् काव्यं परमपूजितम् ।। ६१ ।।

परम तेजस्वी व्यासजीने परमेष्ठी ब्रह्माजीसे निवेदन किया-‘भगवन्! मैंने यह सम्पूर्णलोकोंसे अत्यन्त पूजित एक महाकाव्यकी रचना की है’ ।। ६१ ।।

ब्रह्मन् वेदरहस्यं च यच्चान्यत् स्थापितं मया ।

साङ्गोपनिषदां चैव वेदानां विस्तरक्रिया ।। ६२ ।।

ब्रह्मन्! मैंने इस महाकाव्यमें सम्पूर्ण वेदोंका गुप्ततम रहस्य तथा अन्य सब शास्त्रोंकासार-सार संकलित करके स्थापित कर दिया है। केवल वेदोंका ही नहीं , उनके अंग एवं उपनिषदोंका भी इसमें विस्तारसे निरूपण किया है ।। ६२ ।। इतिहासपुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत् । भूतं भव्यं भविष्यं च त्रिविधं कालसंज्ञितम् ।। ६३ ।। इस ग्रन्थमें इतिहास और पुराणोंका मन्थन करके उनका प्रशस्त रूप प्रकट किया गया है। भूत, वर्तमान और भविष्यकालकी इन तीनों संज्ञाओंका भी वर्णन हुआ है ।। ६३ ।।

जरामृत्युभयव्याधिभावाभावविनिश्चयः । विविधस्य च धर्मस्य ह्याश्रमाणां च लक्षणम् ।। ६४ ।। इस ग्रन्थमें बुढ़ापा, मृत्यु, भय, रोग और पदार्थोंके सत्यत्व और मिथ्यात्वका विशेषरूपसे निश्चय किया गया है तथा अधिकारी-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रकारके धर्मों एवं आश्रमोंका भी लक्षण बताया गया है ।। ६४ ।। चातुर्वर्ण्यविधानं च पुराणानां च कृत्स्नशः ।तपसो ब्रह्मचर्यस्य पृथिव्याश्चन्द्रसूर्ययोः ।। ६५ ।।

ग्रहनक्षत्रताराणां प्रमाणं च युगैः सह ।

ऋचो यजूंषि सामानि वेदाध्यात्मं तथैव च ।। ६६ ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चारों वर्णोंके कर्तव्यका विधान, पुराणोंका सम्पूर्णमूलतत्त्व भी प्रकट हुआ है। तपस्या एवं ब्रह्मचर्यके स्वरूप, अनुष्ठान एवं फलोंका विवरण,पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग- इन सबके परिमाणऔर प्रमाण, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और इनके आध्यात्मिक अभिप्राय औरअध्यात्मशास्त्रका इस ग्रन्थमें विस्तारसे वर्णन किया गया है ।। ६५-६६ ।।

न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं तथा।

हेतुनैव समं जन्म दिव्यमानुषसंज्ञितम् ।। ६७ ।।

न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान तथा पाशुपत ( अन्तर्यामीकी महिमा)-का भी इसमेंविशद निरूपण है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि देवता, मनुष्य आदि भिन्न-भिन्नयोनियोंमें जन्मका कारण क्या है? ।। ६७ ।।

तीर्थानां चैव पुण्यानां देशानां चैव कीर्तनम् ।

नदीनां पर्वतानां च वनानां सागरस्य च ।। ६८ ।।

लोकपावन तीर्थों, देशों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्रका भी इसमें वर्णन किया गयाहै ।। ६८ ।।

पुराणां चैव दिव्यानां कल्पानां युद्धकौशलम् ।वाक्यजातिविशेषाश्च लोकयात्राक्रमश्च यः ।। ६९ ।।

यच्चापि सर्वगं वस्तु तच्चैव प्रतिपादितम् ।परं न लेखकः कश्चिदेतस्य भुवि विद्यते ।। ७० ।।

दिव्य नगर एवं दुर्गोंके निर्माणका कौशल तथा युद्धकी निपुणताका भी वर्णन है। भिन्न-भिन्न भाषाओं और जातियोंकी जो विशेषताएँ हैं, लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये जो कुछआवश्यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी पदार्थ हो सकते हैं, उन सबका इसमेंप्रतिपादन किया गया है; परंतु मुझे इस बातकी चिन्ता है कि पृथ्वीमें इस ग्रन्थको लिखसके ऐसा कोई नहीं है’ ।। ६९-७० ।।

ब्रह्मोवाच

तपोविशिष्टादपि वै विशिष्टान्मुनिसंचयात् ।

मन्ये श्रेष्ठतरं त्वां वै रहस्यज्ञानवेदनात् ।। ७१ ।।

ब्रह्माजीने कहा-व्यासजी! संसारमें विशिष्ट तपस्या और विशिष्ट कुलके कारणजितने भी श्रेष्ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्हें सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ; क्योंकि तुम जगत्, जीवऔर ईश्वर-तत्त्वका जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो ।। ७१ ।।जन्मप्रभृति सत्यां ते वेद्मि गां ब्रह्मवादिनीम् ।

त्वया च काव्यमित्युक्तं तस्मात् काव्यं भविष्यति ।। ७२ ।।

मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्य भाषण करती रही है औरतुमने अपनी रचनाको काव्य कहा है, इसलिये अब यह काव्यके नामसे ही प्रसिद्धहोगी ।। ७२ ।।

अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे ।विशेषणे गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः ।। ७३ ।।

काव्यस्य लेखनाथ्थाय गणेशः स्मर्यतां मुने ।

संसारके बड़े-से-बड़े कवि भी इस काव्यसे बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीकवैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओंद्वारागृहस्थाश्रमसे आगे नहीं बढ़ सकते । मुनिवर! अपने काव्यको लिखवानेके लिये तुमगणेशजीका स्मरण करो ।। ७३३ ।।

सौतिरुवाच

एवमाभाष्य तं ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम् ।। ७४ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-महात्माओ! ब्रह्माजी व्यासजीसे इस प्रकार सम्भाषण करकेअपने धाम ब्रह्मलोकमें चले गये ।। ७४ ।।

ततः सस्मार हेरम्बं व्यासः सत्यवतीसुतः।

स्मृतमात्रो गणेशानो भक्तचिन्तितपूरकः ।। ७५ ।।

तत्राजगाम विघ्नेशो वेदव्यासो यतः स्थितः ।पूजितश्चोपविष्टश्च व्यासेनोत्तस्तदाऽनघ ।। ७६ ।।

निष्पाप शौनक! तदनन्तर सत्यवतीनन्दन व्यासजीने भगवान् गणेशका स्मरण कियाऔर स्मरण करते ही भक्तवांछाकल्पतरु विघ्नेश्वर श्रीगणेशजी महाराज वहाँ आये, जहाँव्यासजी विद्यमान थे। व्यासजीने गणेशजीका बड़े आदर और प्रेमसे स्वागत-सत्कार कियाऔर वे जब बैठ गये, तब उनसे कहा-||७५-७६ ।।

लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक ।

मयैव प्रोच्यमानस्य मनसा कल्पितस्य च ।। ७७ ।।

‘गणनायक! आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत-ग्रन्थके लेखक बन जाइये; मैंबोलकर लिखाता जाऊँगा। मैंने मन-ही-मन इसकी रचना कर ली है’ ।। ७७ ।।

श्रुत्वैतत् प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम् ।

लिखितो नावतिष्ठेत तदा स्यां लेखको ह्यहम् ।। ७८ ।।

यह सुनकर विघ्नराज श्रीगणेशजीने कहा-‘व्यासजी! यदि लिखते समय क्षणभरकेलिये भी मेरी लेखनी न रुके तो मैं इस ग्रन्थका लेखक बन सकता हूँ’ ।। ७८ ।।व्यासोऽप्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित् ।

ओमित्युक्त्वा गणेशोऽपि बभूव किल लेखकः ।। ७९ ।।

व्यासजीने भी गणेशजीसे कहा-‘बिना समझे किसी भी प्रसंगमें एक अक्षर भी नलिखियेगा।’ गणेशजीने ‘ॐ’ कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये ।। ७९ ।।

ग्रन्थग्रन्थिं तदा चक्रे मुनिर्गूढं कुतूहलात् ।

यस्मिन् प्रतिज्ञया प्राह मुनिर्द्वपायनस्त्विदम् ।। ८० ।।

तब व्यासजी भी कुतूहलवश ग्रन्थमें गाँठ लगाने लगे। वे ऐसे-ऐसे श्लोक बोल देतेजिनका अर्थ बाहरसे दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बन्धमेंप्रतिज्ञापूर्वक श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिने यह बात कही है – ।। ८० ।।

अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च ।

अहं वेद्मि शुको वेत्ति संजयो वेत्ति वा न वा ।। ८१ ।।

इस ग्रन्थमें ८,८०० (आठ हजार आठ सौ) श्लोक ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ,शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है ।। ८१ ।।

तच्छ्लोककूटमद्यापि ग्रथितं सुदृढं मुने ।

भेत्तुं न शक्यतेऽर्थस्य गूढत्वात् प्रश्रितस्य च ।। ८२ ।।

मुनिवर! वे कूट श्लोक इतने गुँथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्य-भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति औररूढवृत्ति आदि रचनावैचित्र्यके कारण गम्भीर हैं |। ८२ ।।

सर्वज्ञोऽपि गणेशो यत् क्षणमास्ते विचारयन् ।

तावच्चकार व्यासोऽपि श्लोकानन्यान् बहूनपि ।। ८३ ।।

स्वयं सर्वज्ञ गणेशजी भी उन श्लोकोंका विचार करते समय क्षणभरके लिये ठहर जातेथे। इतने समयमें व्यासजी भी और बहुत-से श्लोकोंकी रचना कर लेते थे ।। ८३ ।।

अज्ञानतिमिरान्धस्य लोकस्य तु विचेष्टतः ।

ज्ञानाञ्जनशलाकाभिर्नेत्रोन्मीलनकारकम् । ८४ ।।

धर्मार्थकाममोक्षार्थैः समासव्यासकीर्तनैः ।

तथा भारतसूर्येण नृणां विनिहतं तमः ।। ८५ ।।

संसारी जीव अज्ञानान्धकारसे अंधे होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानांजनकीशलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्या है? धर्म, अर्थ, काम औरमोक्षरूप पुरुषार्थोंका संक्षेप और विस्तारसे वर्णन। यह न केवल अज्ञानकी रतौंधी दूरकरता, प्रत्युत सूर्यके समान उदित होकर मनुष्योंकी आँखके सामनेका सम्पूर्ण अन्धकार हीनष्ट कर देता है ।। ८४-८५ ।।

पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्नाः प्रकाशिताः ।

नूबुद्धिकैरवाणां च कृतमेतत् प्रकाशनम् ।। ८६ ।।यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमाके समान है, जिससे श्रुतियोंकी चाँदनी छिटकती है औरमनुष्योंकी बुद्धिरूपी कुमुदिनी सदाके लिये खिल जाती है ।। ८६ ।।इतिहासप्रदीपेन मोहावरणघातिना ।लोकगर्भगृहं कृत्स्नं यथावत् सम्प्रकाशितम् ।। ८७ ।।यह भारत-इतिहास एक जाज्वल्यमान दीपक है। यह मोहका अन्धकार मिटाकरलोगोंके अन्तःकरण-रूप सम्पूर्ण अन्तरंग गृहको भलीभाँति ज्ञानालोकसे प्रकाशित कर देताहै ।। ८७ ।।संग्रहाध्यायबीजो वै पौलोमास्तीकमूलवान् ।सम्भवस्कन्धविस्तारः सभारण्यविटङ्कवान् ।। ८८ ।महाभारत-वृक्षका बीज है संग्रहाध्याय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीकपर्व।सम्भवपर्व इसके स्कन्धका विस्तार है और सभा तथा अरण्यपर्व पक्षियोंके रहनेयोग्य कोटरहैं ।। ८८ ।।

अरणीपर्वरूपाढ्यो विराटोद्योगसारवान् ।

भीष्मपर्वमहाशाखो द्रोणपर्वपलाशवान् ।। ८९ ।।

अरणीपर्व इस वृक्षका ग्रन्थिस्थल है। विराट और उद्योगपर्व इसका सारभाग है।भीष्मपर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोणपर्व इसके पत्ते हैं ।। ८९ ।।कर्णपर्वसितैः पुष्पैः शल्यपर्वसुगन्धिभिः ।

स्त्रीपर्वेषीकविश्रामः शान्तिपर्वमहाफलः ।। ९० ।।कर्णपर्व इसके श्वेत पुष्प हैं और शल्यपर्व सुगन्ध। स्त्रीपर्व और ऐषीकपर्व इसकी छायाहै तथा शान्तिपर्व इसका महान् फल है ।। ९० ।।

अश्वमेधामृतरसस्त्वाश्रमस्थानसंश्रयः ।मौसलः श्रुतिसंक्षेपः शिष्टद्विजनिषेवितः ।। ९१ ।।

अश्वमेधपर्व इसका अमृतमय रस है और आश्रम-वासिकपर्व आश्रय लेकर बैठनेकास्थान। मौसलपर्व श्रुति-रूपा ऊँची-ऊँची शाखाओंका अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवंविद्यासे सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं ।। ९१ ।।सर्वेषां कविमुख्यानामुपजीव्यो भविष्यति ।पर्जन्य इव भूतानामक्षयो भारतद्रुमः ।। ९२ ।।संसारमें जितने भी श्रेष्ठ कवि होंगे उनके काव्यके लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसेमेघ सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है ।। ९२ ।।

सौतिरुवाच

तस्य वृक्षस्य वक्ष्यामि शश्वत्पुष्पफलोदयम् ।स्वादुमेध्यरसोपेतमच्छेद्यममरैरपि ।। ९३ ।।उग्रश्रवाजी कहते हैं-यह भारत एक ृक्ष है। इसके स्वादु, पवित्र, सरस एवंअविनाशी पुष्प तथा फल हैं-धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्षसे अलग नहीं कर | सकते; अब मैं उन्हींका वर्णन करूँगा ।। ९३ ।।

मातुर्नियोगाद् धर्मात्मा गाङ्गेयस्य च धीमतः।

क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य कृष्णद्वैपायनः पुरा ।। ९४ ।।

त्रीनग्नीनिव कौरव्यान् जनयामास वीर्यवान् ।

उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डुं विदुरमेव च ।। ९५ ।।

पहलेकी बात है-शक्तिशाली, धर्मात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन ( व्यास)-ने अपनी मातासत्यवती और परमज्ञानी गंगापुत्र भीष्मपितामहकी आज्ञासे विचित्रवीर्यकी पत्नी अम्बिकाआदिके गर्भसे तीन अग्नियोंके समान तेजस्वी तीन कुरुवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नामहैं-धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ।। ९४-९५ ।।

जगाम तपसे धीमान् पुनरेवाश्रमं प्रति ।

तेषु जातेषु वृद्धेषु गतेषु परमां गतिम् ।। ९६ ।।

अब्रवीद् भारतं लोके मानुषेऽस्मिन् महानृषिः ।

जनमेजयेन पृष्टः सन् ब्राह्मणैश्च सहस्रशः ।। ९७ ।।

शशास शिष्यमासीनं वैशम्पायनमन्तिके ।

ससदस्यैः सहासीनः श्रावयामास भारतम् ।। ९८ ।।

कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः ।

इन तीन पुत्रोंको जन्म देकर परम ज्ञानी व्यासजी फिर अपने आश्रमपर चले गये। जबवे तीनों पुत्र वृद्ध हो परम गतिको प्राप्त हुए, तब महर्षि व्यासजीने इस मनुष्यलोकमेंमहाभारतका प्रवचन किया। जनमेजय और हजारों ब्राह्मणोंके प्रश्न करनेपर व्यासजीनेपास ही बैठे अपने शिष्य वैशम्पायनको आज्ञा दी कि तुम इन लोगोंको महाभारत सुनाओ।वैशम्पायन याज्ञिक सदस्योंके साथ ही बैठे थे, अतः जब यज्ञकर्ममें बीच – बीचमें अवकाशमिलता, तब यजमान आदिके बार-बार आग्रह करनेपर वे उन्हें महाभारत सुनायाथे ।। ९६-९८ ।।

विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम् ।। ९९ ।।

क्षत्तुः प्रज्ञां धृतिं कृन्त्याः सम्यग् द्वैपायनोऽब्रवीत् ।

वासुदेवस्य माहात्म्यं पाण्डवानां च सत्यताम् । । १०० ।।

दुर्वृत्तं धार्तराष्ट्राणामुक्तवान् भगवानृषिः ।

इदं शतसहस्रं तु लोकानां पुण्यकर्मणाम् ।। १०९ ।।

उपाख्यानैः सह ज्ञेयमाद्यं भारतमुत्तमम् । करतेइस महाभारत-ग्रन्थमें व्यासजीने कुरुवंशके विस्तार, गान्धारीकी धर्मशीलता, विदुरकी उत्तम प्रज्ञा और कुन्तीदेवीके धैर्यका भलीभाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान् व्यासने इसमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके माहात्म्य, पाण्डवोंकी सत्यपरायणता तथा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन आदिके दुर्व्यवहारोंका स्पष्ट उल्लेख किया है। पुण्यकर्मा मानवोंके उपाख्यानोंसहित एक लाख श्लोकोंके इस उत्तम ग्रन्थको आद्यभारत (महाभारत) जानना चाहिये ।। ९९-१०१ ।। चतुर्विंशतिसाहस्री चक्रे भारतसंहिताम् ।। १०२ ।। उपाख्यानैर्विना तावद् भारतं प्रोच्यते बुधैः । ततोऽप्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः ।। १०३ ।। अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तान्तं सर्वपर्वणाम् । इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम् ।। १०४ ।। तदनन्तर व्यासजीने उपाख्यानभागको छोड़कर चौबीस हजार श्लोकोंकी भारतसंहिता बनायी; जिसे विद्वान् पुरुष भारत कहते हैं। इसके पश्चात् महर्षिने पुनः पर्वसहित ग्रन्थमें वर्णित वृत्तान्तोंकी अनुक्रमणिका (सूची)- का एक संक्षिप्त अध्याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्लोक हैं। व्यासजीने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेवजीको इस महाभारत-ग्रन्थका 1.अध्ययन कराया ।। १०२-१०४ ।। ततोऽन्येभ्योऽनुरूपेभ्यः शिष्येभ्यः प्रददौ विभुः । षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम् ।। १०५ ।। तदनन्तर उन्होंने दूसरे-दूसरे सुयोग्य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्योंको इसका उपदेश दिया। तत्पश्चात् भगवान् व्यासने साठ लाख श्लोकोंकी एक दूसरी संहिता बनायी ।। १०५ ।। त्रिंशच्छतसहस्रं च देवलोके प्रतिष्ठितम् । पित्र्ये पञ्चदश प्रोक्तं गन्धर्वेषु चतुर्दश ।। १०६ ।। उसके तीस लाख श्लोक देवलोकमें समादृत हो रहे हैं, पितृलोकमें पंद्रह लाख तथा गन्धर्वलोकमें चौदह लाख श्लोकोंका पाठ होता है ।। १०६ ।। एकं शतसहस्रं तु मानुषेषु प्रतिष्ठितम् । नारदोऽश्रावयद् देवानसितो देवलः पितृन् ।। १०७ ।। इस मनुष्यलोकमें एक लाख श्लोकोंका आद्यभारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। देवर्षि नारदने देवताओंको और असित-देवलने पितरोंको इसका श्रवण कराया है ।। १०७ ।। गन्धर्वयक्षरक्षांसि श्रावयामास वै शुक: । अस्मिंस्तु मानुषे लोके वैशम्पायन उक्तवान् ।। १० ८ ।। शिष्यो व्यासस्य धर्मात्मा सर्ववेदविदां वरः । एकं शतसहस्रं तु मयोक्तं वै निबोधत ।। १०९ ।।शुकदेवजीने गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षसोंको महाभारतकी कथा सुनायी है; परंतु इसमनुष्यलोकमें सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंके शिरोमणि व्यास-शिष्य धर्मात्मा वैशम्पायनजीने इसकाप्रवचन किया है। मुनिवरो! वही एक लाख श्लोकोंका महाभारत आपलोग मुझसे श्रवणकीजिये ।। १०८-१०९ ।।

दुर्योधनो मन्युमयो महाद्रुमः

स्कन्धः कर्णः शकुनिस्तस्य शाखाः ।

दुःशासनः पुष्पफले समृद्धे

मूलं राजा धृतराष्ट्रोऽमनीषी ।। ११० ।।

दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्षके समान है। कर्ण स्कन्ध, शकुनि शाखा और दुःशासनसमृद्ध फल-पुष्प है। अज्ञानी राजा धृतराष्ट्र ही इसके मूल हैं ।। ११० ।।

युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुमः

स्कन्धोऽर्जुनो भीमसेनोऽस्य शाखाः।

माद्रीसुतौ पुष्पफले समृद्धे

मूलं कृष्णो ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च ।। १११ ।।

युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन स्कन्ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनन्दन इसकेसमृद्ध फल-पुष्प हैं। श्रीकृष्ण, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्षके मूल (जड़) हैं |। १११ ।।

पाण्डुर्जित्वा बहून् देशान् बुद्धया विक्रमणेन च ।

अरण्ये मृगयाशीलो न्यवसन्मुनिभिः सह ।। ११२ ।।

महाराज पाण्डु अपनी बुद्धि और पराक्रमसे अनेक देशोंपर विजय पाकर (हिंसक)मृगोंको मारनेके स्वभाववाले होनेके कारण ऋषि मुनियोंके साथ वनमें ही निवास करतेथे ।। ११२ ।।

मृगव्यवायनिधनात् कृच्छ्रां प्राप स आपदम् ।

जन्मप्रभृति पार्थानां तत्राचारविधिक्रमः । ११३ ।।

एक दिन उन्होंने मृगरूपधारी महर्षिको मैथुनकालमें मार डाला। इससे वे बड़े भारीसंकटमें पड़ गये (ऋषिने यह शाप दे दिया कि स्त्री-सहवास करनेपर तुम्हारी मृत्यु होजायगी), यह संकट होते हुए भी युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंके जन्मसे लेकर जातकर्म आदिसब संस्कार वनमें ही हुए और वहीं उन्हें शील एवं सदाचारकी रक्षाका उपदेशहुआ ।। ११३ ।।

मात्रोरभ्युपपत्तिश्च धर्मोपनिषदं प्रति ।

धर्मस्य वायोः शक्रस्य देवयोश्च तथाश्विनोः।। ११४ ।।

(पूर्वोक्त शाप होनेपर भी संतान होनेका कारण यह था कि) कुल-धर्मकी रक्षाके लियेदुर्वासाद्वारा प्राप्त हुई विद्याका आश्रय लेनेके कारण पाण्डवोंकी दोनों माताओं कुन्ती औरमाद्रीके समीप क्रमशः धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार- इन देवताओंका आगमनसम्भव हो सका (इन्हींकी कृपासे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन एवं नकुल-सहदेवकी उत्पत्तिहुई) ।। ११४ ।।

(ततो धर्मोपनिषदः श्रुत्वा भर्तुः प्रिया पृथा ।

धर्मानिलेन्द्रान् स्तुतिभिर्जुहाव सुतवाञ्छया ।

तद्दत्तोपनिषन्माद्री चाश्विनावाजुहाव च ।)

तापसैः सह संवृद्धा मातृभ्यां परिरक्षिताः ।

मेध्यारण्येषु पुण्येषु महतामाश्रमेषु च ।। ११५ ।।

पतिप्रिया कुन्तीने पतिके मुखसे धर्म-रहस्यकी बातें सुनकर पुत्र पानेकी इच्छासे मन्त्र-जपपूर्वक स्तुतिद्वारा धर्म, वायु और इन्द्र देवताका आवाहन किया। कुन्तीके उपदेश देनेपरमाद्री भी उस मन्त्र-विद्याको जान गयी और उसने संतानके लिये दोनों अश्विनीकुमारोंकाआवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओंसे पाण्डवोंकी उत्पत्ति हुई। पाँचों पाण्डवअपनी दोनों माताओंद्वारा ही पाले-पोसे गये वे वनोंमें और महात्माओंके परम पुण्यआश्रमोंमें ही तपस्वी लोगोंके साथ दिनोदिन बढ़ने लगे ।। ११५ ।।

ऋषिभिर्यत्तदाऽऽनीता धार्तराष्ट्रान् प्रति स्वयम् ।

शिशवश्चाभिरूपाश्च जटिला ब्रह्मचारिणः ।। ११६ ।।

(पाण्डुकी मृत्यु होनेके पश्चात्) बड़े-बड़े ऋषि-मुनि स्वयं ही पाण्डवोंको लेकर धृतराष्ट्रएवं उनके पुत्रोंके पास आये। उस समय पाण्डव नन्हे-नन्हे शिशुके रूपमें बड़े ही सुन्दरलगते थे। वे सिरपर जटा धारण किये ब्रह्मचारीके वेशमें थे ।। ११६ ।।

पुत्राश्च भ्रातरश्चेमे शिष्याश्च सुहृदश्च वः ।

पाण्डवा एत इत्युक्त्वा मुनयोऽन्तर्हितास्ततः ।। ११७ ।।

ऋषियोंने वहाँ जाकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रोंसे कहा – ‘ये तुम्हारे पुत्र , भाई, शिष्यऔर सुहृद् हैं। ये सभी महाराज पाण्डुके ही पुत्र हैं।’ इतना कहकर वे मुनि वहाँसे अन्तर्धानहो गये ।। ११७ ।।

तांस्तैर्निवेदितान् दृष्ट्वा पाण्डवान् कौरवास्तदा ।

शिष्टाश्च वर्णाः पौरा ये ते हर्षाच्चुक्रुशुर्भृशम् ।। ११८ ।।

ऋषियोंद्वारा लाये हुए उन पाण्डवोंको देखकर सभी कौरव और नगरनिवासी, शिष्टतथा वर्णाश्रमी हर्षसे भरकर अत्यन्त कोलाहल करने लगे ।। ११८ ।।

आहुः केचिन्न तस्यैते तस्यैत इति चापरे ।

यदा चिरमृतः पाण्डुः कथं तस्येति चापरे ।। ११९ ।।

कोई कहते, ‘ये पाण्डुके पुत्र नहीं हैं।’ दूसरे कहते, ‘अजी! ये उन्हींके हैं।’ कुछ लोगकहते, ‘जब पाण्डुको मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं?’ ।।

स्वागतं सर्वथा दिष्ट्या पाण्डोः पश्याम संततिम् ।उच्यतां स्वागतमिति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः ।। १२० ।।

फिर सब लोग कहने लगे, ‘हम तो सर्वथा इनका स्वागत करते हैं। हमारे लिये बड़ेसौभाग्यकी बात है कि आज हम महाराज पाण्डुकी संतानको अपनी आँखोंसे देख रहे हैं।फिर तो सब ओरसे स्वागत बोलनेवालोंकी ही बातें सुनायी देने लगीं ।। १२० ।।

तस्मिन्नुपरते शब्दे दिशः सर्वा निनादयन् ।

अन्तर्हितानां भूतानां निःस्वनस्तुमुलोऽभवत् ।। १२१ ।।

दर्शकोंका वह तुमुल शब्द बन्द होनेपर सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करती हुईअदृश्य भूतों-देवताओंकी यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूँज उठी – ये पाण्डवही हैं’ ।। १२१ ।।

पुष्पवृष्टिः शुभा गन्धाः शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनाः । आसन् प्रवेशे पार्थानां तदद्भुतमिवाभवत् ।। १२२ ।।

जिस समय पाण्डवोंने नगरमें प्रवेश किया, उसी समय फूलोंकी वर्षा होने लगी,ओर सुगन्ध छा गयी तथा शंख और दुन्दुभियोंके मांगलिक शब्द सुनायी देने लगे। यह एकअद्भुत चमत्कारकी-सी बात हुई ।। १२२ ।।

तत्प्रीत्या चैव सर्वेषां पौराणां हर्षसम्भवः ।

शब्द आसीन्महांस्तत्र दिवःस्पृक्कीर्तिवर्धनः ।। १२३ ।।

सभी नागरिक पाण्डवोंके प्रेमसे आनन्दमें भरकर ऊँचे स्वरसे अभिनन्दन-ध्वनि करनेलगे। उनका वह महान् शब्द स्वर्गलोकतक गूँज उठा जो पाण्डवोंकी कीर्ति बढ़ानेवाला सबथा ।। १२३ ।।

तेऽधीत्य निखिलान् वेदाञ्छास्त्राणि विविधानि च ।

न्यवसन् पाण्डवास्तत्र पूजिता अकुतोभयाः ।। १२४ ।।

वे सम्पूर्ण वेद एवं विविध शास्त्रोंका अध्ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभीउनका आदर करते थे और उन्हें किसीसे भय नहीं था ।। १२४ ।।

युधिष्ठिरस्य शौचेन प्रीताः प्रकृतयोऽभवन् ।

धृत्या च भीमसेनस्य विक्रमेणार्जुनस्य च ।। १२५ ।।

गुरुशुश्रूषया क्षान्त्या यमयोर्विनयेन च ।

तुतोष लोकः सकलस्तेषां शौर्यगुणेन च ।। १२६ ।। राष्ट्रकी सम्पूर्ण प्रजा युधिष्ठिरके शौचाचार, भीमसेनकी धृति, अर्जुनके विक्रम तथानकुल-सहदेवकी गुरुशुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनयसे बहुत ही प्रसन्न होती थी। सब लोगपाण्डवोंके शौर्यगुणसे संतोषका अनुभव करते थे” ।।

समवाये ततो राज्ञां कन्यां भर्तृस्वयंवराम् ।

प्राप्तवानर्जुनः कृष्णां कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ।। १२७ ।।कालके पश्चात् राजाओंके समुदायमें अर्जुनने अत्यन्त दुष्कर पराक्रम तदनन्तर कुछ

करके स्वयं ही पति चुननेवाली द्रुपदकन्या कृष्णाको प्राप्त किया।। १२७ ।।

ततः प्रभृति लोकेऽस्मिन् पूज्यः सर्वधनुष्मताम् ।

आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यः समरेष्वपि चाभवत् ।। १२८ ।।

तभीसे वे इस लोकमें सम्पूर्ण धनुर्धारियोंके पूजनीय ( आदरणीय ) हो गये औरसमरांगणमें प्रचण्ड मार्तण्डकी भाँति प्रतापी अर्जुनकी ओर किसीके लिये आँख उठाकरदेखना भी कठिन हो गया ।। १२८ ।।

स सर्वान् पार्थिवाञ् जित्वा सर्वाश्च महतो गणान् ।

आजहारार्जुनो राज्ञो राजसूयं महाक्रतुम् ।। १२९ ।।

उन्होंने पृथक्-पृथक् तथा महान् संघ बनाकर आये हुए सब राजाओंको जीतकरमहाराज युधिष्ठिरके राजसूय नामक महायज्ञको सम्पन्न कराया ।। १२९ ।।

अन्नवान् दक्षिणावांश्च सर्वैः समुदितो गुणैः ।युधिष्ठिरेण सम्प्राप्तो राजसूयो महाक्रतुः ।। १३० ।।

सुनयाद् वासुदेवस्य भीमाजर्जुनबलेन च ।

घातयित्वा जरासन्धं चैद्यं च बलगर्वितम् ।। १३१ ।।

भगवान् श्रीकृष्णकी सुन्दर नीति और भीमसेन तथा अर्जुनकी शक्तिसे बलके घमण्डमेंचूर रहनेवाले जरासन्ध और चेदिराज शिशुपालको मरवाकर धर्मराज युधिष्ठिरने महायज्ञराजसूयका सम्पादन किया। वह यज्ञ सभी उत्तम गुणोंसे सम्पन्न था। उसमें प्रचुर अन्न औरपर्याप्त दक्षिणाका वितरण किया गया था ।। १३० – १३१ ।।

दुर्योधनं समागच्छन्नर्हणानि ततस्ततः ।

मणिकाञ्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वधनानि च ।। १३२ ।।

विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च ।कम्बलाजिनरत्नानि राङ्कवास्तरणानि च ।। १३३ ।।

उस समय इधर-उधर विभिन्न देशों तथा नृपतियोंके यहाँसे मणि, सुवर्ण, रत्न, गाय,हाथी, घोड़े, धन-सम्पत्ति, विचित्र वस्त्र, तम्बू, कनात, परदे, उत्तम कम्बल, श्रेष्ठ मृगचर्म तथारंकुनामक मृगके बालोंसे बने हुए कोमल बिछौने आदि जो उपहारकी बहुमूल्य वस्तुएँआतीं, वे दुर्योधनके हाथमें दी जातीं- उसीकी देख- रेखमें रखी जाती थीं ।। १३२ – १३३ ।।

समृद्धां तां तथा दृष्ट्वा पाण्डवानां तदा श्रियम् ।

ईष्ष्यासमुत्थः सुमहांस्तस्य मन्युरजायत ।। १३४ ।।

उस समय पाण्डवोंकी वह बढ़ी-चढ़ी समृद्धि-सम्पत्ति देखकर दुर्योधनके मनमेंईष्ष्याजनित महान् रोष एवं दुःखका उदय हुआ ।। १३४ ।।

विमानप्रतिमां तत्र मयेन सुकृतां सभाम् ।

पाण्डवानामुपहृतां स दृष्ट्वा पर्यतप्यत ।॥ १३५ ।। 1.

जिसकी उस अवसरपर मयदानवने पाण्डवोंको एक सभाभवन भेंटमें दिया था, रूपरेखा विमानके समान थी। वह भवन उसके शिल्पकौशलका एक अच्छा नमूना था। उसे देखकर दुर्योधनको और अधिक संताप हुआ ।। १३५ ।।

तत्रावहसितश्चासीत् प्रस्कन्दन्निव सम्भ्रमात् ।

प्रत्यक्षं वासुदेवस्य भीमेनानभिजातवत् ।। १३६ ।।

उसी सभाभवनमें जब सम्भ्रम (जलमें स्थल और स्थलमें जलका भ्रम ) होनेके कारण दुर्योधनके पाँव फिसलने-से लगे, तब भगवान् श्रीकृष्णके सामने ही भीमसेनने उसे गँवार- सा सिद्ध करते हुए उसकी हँसी उड़ायी थी ।। १३६ ।।

स भोगान् विविधान् भुञ्जन् रत्नानि विविधानि च । कथितो धृतराष्ट्रस्य दुर्योधन

नाना प्रकारके भोग तथा भाँति-भाँतिके रत्नोंका उपयोग करते रहनेपर भी दिनोदिन दुबला रहने लगा। उसका रंग फीका पड़ गया। इसकी सूचना कर्मचारियोंने महाराज धृतराष्ट्रको दी ।। १३७ ।।

अन्वजानात् ततो द्यूतं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः ।

तच्छुत्वा वासुदेवस्य कोपः समभवन्महान् ।। १३८ ।।

धृतराष्ट्र अपने उस पुत्रके प्रति अधिक आसक्त थे, अत: उसकी इच्छा जानकर उन्होंने उसे पाण्डवोंके साथ जूआ खेलनेकी आज्ञा दे दी। जब भगवान् श्रीकृष्णने यह समाचार सुना, तब उन्हें धृतराष्ट्रपर बड़ा क्रोध आया ।। १३८ ।।

नातिप्रीतमनाश्चासीद् विवादांश्चान्वमोदत । द्यूतादीननयान् घोरान् विविधांश्चाप्युपैक्षत ।। १३९ ।।

यद्यपि उनके मनमें कलहकी सम्भावनाके कारण कुछ विशेष प्रसन्नता नहीं हुई, तथापि उन्होंने (मौन रहकर) इन विवादोंका अनुमोदन ही किया और भिन्न-भिन्न प्रकारके भयंकर अन्याय, द्यूत आदिको देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी ।। १३९ |

निरस्य विदुरं भीष्मं द्रोणं शारद्वतं कृपम् । विग्रहे तुमुले तस्मिन् दहन् क्षत्रं परस्परम् ।। १४० ।।

(इस अनुमोदन या उपेक्षाका कारण यह था कि वे धर्मनाशक दुष्ट राजाओंका संहार चाहते थे। अतः उन्हें विश्वास था कि) इस विग्रहजनित महान् युद्धमें विदुर, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्यकी अवहेलना करके सभी दुष्ट क्षत्रिय एक- दूसरेको अपनी क्रोधाग्निमें भस्म कर डालेंगे ।। १४० ।।

जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम् । दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा । १४१ ।।

धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत् । शृणु संजय सर्व मे न चासूयितुमर्हसि ।। १४२ ।।

विवर्णो हरिणः कृशः ।। १३७ ।।

श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान् प्राज्ञसम्मतः ।

न विग्रहे मम मतिर्न च प्रीये कुलक्षये ।। १४३ ।।

जब युद्धमें पाण्डवोंकी जीत होती गयी, तब यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर तथादुर्योधन, कर्ण और शकुनिके दुराग्रहपूर्ण निश्चित विचार जानकर धृतराष्ट्र बहुत देरतकचिन्तामें पड़े रहे। फिर उन्होंने संजयसे कहा – ‘संजय! मेरी सब बातें सुन लो। फिर इसयुद्ध या विनाशके लिये मुझे दोष न दे सकोगे। तुम विद्वान्, मेधावी, बुद्धिमान् औरपण्डितके लिये भी आदरणीय हो। इस युद्धमें मेरी सम्मति बिलकुल नहीं थी और यह जोहमारे कुलका विनाश हो गया है, इससे मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है |। १४१-१४३ ।।

न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा ।

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