माण्डूक्योपनिषद्विज्ञानभाष्य
पं० मोतीलाल शास्त्री
वेदवीथी पथिक
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Mandukya Upanishad Vigyan Bhashya by Pandit Motilal Shastri
प्रकाशक : राजस्थान पत्रिका लिमिटेड , केसरगढ़ , जवाहरलाल नेहरू मार्ग , जयपुर
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त्रिस्थानं च त्रिमात्रं च त्रिब्रह्म च त्रयाक्षरम् ।
त्रिमात्रमर्द्धमात्रं वा यस्तं वेद स वेदवित् ॥
( ध्यानबिन्दूपनिषत् ३६ )
त्रयोऽग्मयश्च त्रिगुणाः स्थिताः सर्वे त्रयाक्षरे ।
त्रयाणामक्षराणां च योऽधीतेऽप्यर्धमक्षरम् ॥
तेन सर्वमिदं प्रोतं तत्सत्यं तत्परं पदम् ।
( योगतत्त्वोपनिषत् १३५- १३६ )
अथ माण्डूक्योपनिषत्
ओंकार द्वारा – चतुष्पात्प्रज्ञान ब्रह्म का निरूपण
‘प्रज्ञानोंकारनिरूपणपरेयमुपनिषत्’
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्ग स्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥१ ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥२ ॥
अथ – माण्डूक्य – विज्ञानम्
भोक्तात्म द्वारा अक्षरपुरुष – निरूपरणम्
पाङ्क्त ( पञ्चावयव ) प्रजापति की अनुकम्पा से ईश , केन , कठ , प्रश्न ,मुण्डक नाम से प्रसिद्ध– पाँच उपनिषदों का विज्ञान विज्ञान – प्रेमियों के सामनेहम रखने में समर्थ हो सके हैं । उसी प्रजापति की प्रेरणा से आज हम माण्डूक्यविज्ञान आपके समक्ष उपस्थित कर रहे हैं । आशा है— इसे देख कर प्रेमी पाठकआगे के उपनिषदर्थों के लिए हमें प्रोत्साहित करेंगे । जिस माण्डूक्य का प्राजहम निरूपण करने वाले हैं , वह व्याख्याताओं का प्रधान स्तम्भ है । यह उपनिषद्और सभी उपनिषदों की अपेक्षा छोटी है । ऐसा होने पर भी भगवान् शंकराचार्यने इस पर औरों की अपेक्षा विस्तृत भाष्य किया है । स्वनामधन्य शंकर के गुरु केगुरु गौड़पादाचार्य ने इस पर विस्तृत कारिका लिखी है एवं उस कारिका पर भीशांकर – भाष्य है । इस प्रकार इन सारे प्रपञ्चों से यह अल्पकाय ग्रन्थ महाकायबन गया है । यथार्थ में बात ऐसी ही है । इस उपनिषत् पर जितना लिखा जाएथोड़ा है । ऋषि ने थोड़े से अक्षरों में सारी आत्मविद्या का निरूपण कर दियाहै । न केवल प्रात्मविद्या का ही अपितु , साथ ही साथ – विश्व का स्वरूप भीहमारे सामने रख दिया है । आज इसी विश्वविशिष्ट आत्मनिरूपक माण्डूक्यको हिन्दी – जगत् के सामने उपस्थित किया जाता है ।
उपनिषदर्थ की संगति के लिए पहले कुछ बाहरी बातों का जान लेनाआवश्यक होगा क्यों कि बिना बाहरी बातें जाने इसका अर्थ समझ लेना कठिनही नहीं अपितु , असम्भव हो जाता है ।
सृष्टि का मूल क्या है ? उत्तर है १ — ‘ आनन्द – विज्ञानघन – मनोमय
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१. आनन्दश्च विज्ञानं च आनन्दविज्ञाने । तद्घनं आनन्दविज्ञानघनं तद्युक्तं
यन्मनस्तद् – आनन्दविज्ञानघनं मनः । तन्मयः प्राणः । तद्गभितावाक् – ‘ आनन्द – विज्ञानघन – मनोमय – प्राण – गर्भिता वाक् ‘ । सैषा सृष्टिमूला वाक् ।
प्राणगर्भिता वाक् ‘ है । वाक् , सृष्टि का प्रधान अधिष्ठान है । संम्पूर्ण विश्वको अपने उपस्थ ( धरातल ) में रखने वाली यही वाक् है ।वाक् के भीतर प्राण है । प्राण के भीतर मन है । मन के भीतर विज्ञानहै । आनन्द सर्वान्तरतम है । इन पाँचों में आनन्द – विज्ञान सहकारी हैं गौण कारण हैं । मन , प्राण , वाक् प्रधान हैं – मुख्य कारण हैं । मुक्ति का मूलक्या है ? इसका उत्तर है — प्राण- मनोमय – विज्ञानगर्मित आनन्द ‘ ।मुक्ति में मन , प्राण , वाक् सहकारी हैं- गौण हैं । विज्ञानानन्द प्रधानहैं— मुख्य कारण हैं । सृष्टिमार्ग संचर है । मुक्तिमार्ग प्रतिसंचर है । संचरविज्ञानमार्ग है । प्रतिसंचर ज्ञानमार्ग है । ‘ ब्रह्म वेदं सर्वम् ‘ ‘ यह सृष्टिरूप विज्ञानमार्ग है । ‘ सर्वं खल्विदं ब्रह्म ‘ यह मुक्तिरूप ज्ञानमार्ग है । एक से अनेक की ओरजाना विज्ञान है , यही सृष्टि है । अनेक से एक की ओर आना ज्ञान है । यहीमुक्ति है । ज्ञान विज्ञान के बिना अधूरा है । विज्ञान , बिना ज्ञान के अधूरा है । दोनोंके समन्वय से ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान होता है । क्यों कि वह ( ब्रह्म ) ज्ञानविज्ञानात्मकहै , जब तक भारतवर्ष विज्ञानयुक्त ज्ञान का उपासक था तब तक यह पूर्ण उन्नतथा । परन्तु जबसे इसने कतिपय व्याख्याताओं के वाग्जाल में फँस कर विज्ञानकी उपेक्षा कर केवल ज्ञान की शरण ले ली तभी से इसका अधःपतन होने लगगया । ज्ञान का आलम्बन विज्ञान है । उसकी इसने उपेक्षा की , अतएव प्राज यहन इधर का रहा न उधर का । जिस भूल ने उन्नति के शिखर पर पहुँचने वालेभारत की आज यह दुरवस्था कर दी है – उन्नति का घण्टाघोष करने वालाआज का पाश्चात्य जगत् भी उसी भूल में पड़ रहा है । अन्तर केवल क्रम – व्यत्यासमात्र में है । इन लोगों ने ( भारतीयों ने ) विज्ञान का तिरस्कार किया । दूसरेशब्दों में सांसारिक – विज्ञान का तिरस्कार कर केवल आत्म – ज्ञान को प्रधान माना ।उधर पश्चिम के लोग ज्ञान का तिरस्कार कर केवल विज्ञान के उपासक बनरहे हैं । इनकी दृष्टि में प्रात्म – ज्ञान कोई वस्तु नहीं है । भौतिक विज्ञान हीइनका आराध्यदेव है । परन्तु ध्यान रहे यही भूल किसी दिन – इन पाश्चात्योंका पलड़ा उलट देगी । कल्याण दोनों की उपासना में है । कोरा ज्ञान भी कुछनहीं । कोरा विज्ञान भी कुछ नहीं । दोनों की समष्टि कल्याण का कारण है ।इसी ज्ञानविज्ञान की उपयोगिता बतलाते हुए भगवान् कहते हैं : —
” ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ” || ३
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१. नरसिंह उ . उष . ७ । १ २. छा . उप . ३१४१ । ३. गीता ७।२ ।
बस , इन्हीं सब कारणों को लक्ष्य में रख कर ज्ञानप्रधान उपनिषदों में हम विज्ञान को स्थान देने का साहस कर डालते हैं । इसीलिए इस उपनिषद् के अर्थ का प्रारम्भ हम — सृष्टि का क्या मूल है ? ” इन अक्षरों से करते हैं ।सृष्टि का क्या मूल है ? इसका उत्तर पूर्व में दिया जा चुका है । वहाँ यह भीबतलाया जा चुका है कि आनन्दविज्ञान सहकारी मात्र हैं । सृष्टि में प्रधानतामन , प्राण , वाक् की ही है । इसलिए इन तीन की ओर ही विशेष रूप से आपकाध्यान आकर्षित किया जाता है ।
मन , प्राण , वाक , ये तीनों तत्त्व क्रमश : प्रखण्ड , खण्डाखण्ड , सखण्ड हैं ।मन सर्वथा अखण्ड है । परन्तु इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि यहाँ जिसमन को हम अखण्ड बतला रहे हैं , वह अव्यय का श्वोवसीय नाम से प्रसिद्ध मनहै । इस मन का चाहे वाक् से सम्बन्ध हो या न हो , यह उभयथा प्रखण्ड ही हैएवं प्राण – तत्त्व शुद्धरूप से प्रखण्ड है । परन्तु सखण्ड वाक्तत्त्व से युक्त हो करयह सखण्ड बन जाता है , अतएव इसे हम ‘ खण्डाखण्ड ‘ कहने के लिए तय्यार हैं ।तीसरा है — वाक् – तत्त्व [ पञ्चभूतात्मक उपादान की वैदिक संज्ञा वाच है । ] वाक्तत्त्व सर्वथा सखण्ड ही है । इसी की सखण्डता सृष्टि का बीज बनती है । सृष्टिनानाभावापन्न है । यह नानाभावापन्ना सृष्टि उसी नानाभावापन्ना वाक् से होतीहै । मन – प्राण भी आनन्द – विज्ञान की तरह एक प्रकार से सहकारी ही हैं ।उपादान तो केवल वाक् ही है । क्यों कि सखण्ड सृष्टि का उपादान सखण्डा वाक्ही हो सकती है । इसी वाक् प्रधानता को लक्ष्य में रख कर ‘ थो वागेवेदंसर्वम् ‘ —— ‘ वाचीमा विश्वा भुवनान्यपिता’२ . – इत्यादि कहा जाता है । परन्तु’ तत्तु समन्वयात् ‘ इस दार्शनिक सिद्धान्त के अनुसार बिना मनः प्राणवाक्के समन्वय के सृष्टि नहीं हो सकती , अतएव ‘ सृष्टि : किमूला ‘ ? इस प्रश्न का’ मनोमयी प्राणगर्भिता वाक्मूला सृष्टि : ‘ — यह उत्तर दिया जाता है । मन , बिनाविज्ञान के नहीं रह सकता , विज्ञान बिना आनन्द के अनुपपन्न है । इस प्रकारसृष्टि के उपादानभूत वाक्तत्त्व के साथ – आनन्द , विज्ञान , मन , प्राण , इन चारसहकारियों की सत्ता सिद्ध हो जाती है । ऐसी अवस्था में अन्ततोगत्वा उसीपूर्वोक्त — ‘ आनन्द – विज्ञानघनमनोमयप्राणगर्मिता वाक्- -सृष्टिमूला , इस लक्षणपर विश्राम मानना पड़ता है ।
मन में से कामना का उदय होता है । कामना के अव्यवहितोत्तरकाल मेंही ‘ प्राण – व्यापार ‘ हो पड़ता है । प्राण – व्यापार से शान्त स्थिर वाक् समुद्र में
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१. नरसिंहोत्तर उप ८ । २. तै . ब्रा . २।८।८।४
हलचल पैदा हो जाती है । बस , यही हलचल वाक् को सृष्टि रूप में परिणतकरती है । प्राणसम्बन्ध के तारतम्य से उस वाक्समुद्र में कम्प और चिति , दोप्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं । कम्प से शब्द – सृष्टि होती है । चिति से अर्थ – सृष्टिहोती है । शब्द – प्रथं दोनों का उपादान वही वाक् है , अतएव शब्द – ज्ञान से अर्थब्रह्म का ज्ञान हो जाता है एवं अर्थब्रह्म से शब्द – ज्ञान हो जाता है । वाक् – समुद्रभरा है । प्राण का धक्का लगता है । उसमें वीची पैदा होती है । वह हमारे कानपर धक्का लगाती है । वहाँ बैठी हुई प्रज्ञा उसे पकड़ लेती है । बस , प्रज्ञा – रूपइन्द्र से बद्ध तरङ्गों में परिणत वाक् – खण्ड ही — क – च – ट – त – प – आदि वर्णों कीजननी बनती है । यह तो हुई कम्प – कथा । यदि प्राण का प्रबल आघात होता हैतो दो वाक् – खण्ड या अनेक खण्ड परस्पर मिल जाते हैं । यह मिलना पाँचप्रकार से होता है ।
यह पाँच ही सम्बन्ध विज्ञानजगत् में– १ अन्तर्य्याम , २ बहिर्य्याम ,३ उपयाम , ४ यातयाम , ५ उद्याम , इन नामों से प्रसिद्ध हैं । जल को तरल बनानेवाला , अपनी उष्णता खो कर जल का आत्मा बनाने वाला अग्नि , अन्तमसम्बन्ध से पानी में प्रविष्ट है । गरम पानी में घुसा हुआ अग्नि– बहिर्य्यामसम्बन्ध से सम्बन्ध रखता है । पात्र में रक्खा हुआ अग्नि उपयाम सम्बन्ध केअन्तर्गत है । पात्र से उछट कर गिरे हुए अग्नि का उस पात्र के साथ यातयामसम्बन्ध है । चारों सम्बन्धों से स्वतन्त्र अलग प्रतिष्ठित अग्नि — पानी , पात्रादिकी अपेक्षा से ‘ उद्याम ‘ बन रहा है । इन पाँचों सम्बन्धों में सृष्टि केवल अन्तर्य्यामसम्बन्ध पर निर्भर है । अन्तम सम्बन्ध में ही चिति होती है । चिति में दोवस्तुओं का रासायनिक संयोग होता है । इससे दोनों का स्वरूप मारा जाता हैएवं दोनों के मिथुन से एक विजातीय तीसरी वस्तु उत्पन्न हो जाती है । पूर्व केप्रकरणों में हमने अव्यय को आलम्बन बतलाया था । यहाँ उसी के वाक्भागको उपादान बतलाया जाता है । इसमें विरोध नहीं समझना चाहिए ।
सृष्टिमूला वाक् – स्वयम्भू की वाक् है । यह उसी अव्यय वाक् का विकासमात्र है । मुण्डकोपनिषत् के — ‘ द्वा सुपर्णा ० ‘ का अर्थ करते समय यह बडे विस्तारके साथ बतलाया जा चुका है कि अव्यय – वाक् स्वयम्भू में प्रादुर्भूत होती है ।यही स्वयम्भू – वाक्- -‘स्वायम्भुवी , अनादिनिधना , सत्या , वेद ‘ आदि नामों सेप्रसिद्ध है । इस वेदवाक् ऋग् – यजुः साम- ये तीन भेद हैं । तीनों में ऋक्सामस्वतन्त्र हैं । यजुः में यत् और जू – ये – थे दो भाग है । इनमें यत् भाग प्राण है ,जू भाग वाक् है । इसी वाक्भाग से प्राणव्यापार द्वारा– ‘ -‘सोऽपोऽसृजत । वाच एव लोकात् ‘१ के अनुसार पानी पैदा होता है । वही आपोमय परमेष्ठी कहलाता है ।वही स्वायम्भुवी वाक् – आप: – रूप में परिणत हो कर भार्गवी , आंगिरसी दो नामधारण कर लेती है : ‘ आपो भृग्वङ्गिरोरूपम् ‘ के अनुसार पारमेष्ठ्य आप् भृग्वङ्गिरात्मक है । भृगु सोम है । अङ्गिरा अग्नि है । दोनों आपोमय हैं , एकजातीयतत्त्व हैं । दोनों में भृगुधारा सौम्या वाक् है । अंगिराधारा आग्नेयी वाक्है । सौम्या वाक् आम्भृणी कहलाती है । यही अर्थ -सृष्टि की जननी है ।आग्नेयी – वाक् ‘ सरस्वती ‘ कहलाती है । यही शब्दसृष्टि की जननी है । सरस्वान्नाम का वाक्समुद्र है । वही वीचीतरंग न्याय से — शब्दजननी बनती हुई-‘ सरस्वती ‘ नाम धारण कर लेती है । इस प्रकार शब्दार्थसृष्टि का समानोपादानत्वभली – भाँति सिद्ध हो जाता है ।
पृथिवी , जल , तेज , वायु , आकाश पाँचों अर्थ शब्दमय हैं । दोनों की अभिन्नताका इससे अधिक स्पष्ट प्रमाण और क्या हो सकता है ? इस प्रपञ्च से बतलानायही है कि अव्ययवाक् आलम्बनमात्र है । उपादान स्वायम्भुवी सत्यावाक्गर्भिता – पारमेष्ठ्यापोमयी वाक् ही उपादान है । इसी को ( ब्रह्मसुब्रह्मसमष्टि को )हमने शुक्र कहा है । शुक्र को ही सृष्टि का उपादान बतलाया है । परन्तु इतनाहोने पर भी इस वाक्प्रपञ्च का आधार वही अव्यय की वाक् है । बिना उसकेयह अनुपपन्न है । इसी अभिन्नता को लक्ष्य में रख कर हम उसे उपादान कहदिया करते हैं । जिसके लिए – प्रातिस्विक शुद्धरूप को लक्ष्य में रख कर—
‘ न तस्य कार्यं करणं च विद्यते ; न करोति न लिप्यते ‘ — इत्यादि कहा जाताहै । प्रकृतिरूपा वाक् के अविनाभाव को लक्ष्य में रख कर उसी के लिए-
” मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनंजय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ” ॥४
यह कहा जाता है । दृष्टिभेद से वह आलम्बन है –उपादान भी है-निमित्त भी । अस्तु , प्रकृत से सम्बन्ध रखने वाला अंश केवल इतना ही है कि ,आनन्द विज्ञानघनमनोमयप्राणगर्भिता वाक् सृष्टि का उपादान है । इनमें प्राणव्यापारसे वाक् में यदि कम्प होता है तो इससे शब्द – सृष्टि होती है । यदि – अन्तर्थ्याम
——–
१. शत ० ब्रा ० ६।१।१।९ । २. गोपाथ ब्रा ० पू ० १।३९। ३. आम्भृणी-वाक् अर्थरूप से विश्वभुवनों में व्याप्त है । देखिए ऋग्वेद् १०।१२५ आम्भूणी सूक्त । ४. गीता ७।७ ।
नाम से प्रसिद्ध खण्ड खण्ड रूप में परिणत विजातीयवाकों का रासायनिक संयोग होता है , तो अर्थ – सृष्टि होती है । दोनों में से एक का ज्ञान दूसरे की प्राप्ति में सहायक बन जाता है । इसी विज्ञान को लक्ष्य में रख कर कहते हैं-
” द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ” ॥ १
शब्दब्रह्म परब्रह्म पर दृष्टि और परब्रह्म दोनों में से– शब्दब्रह्म को छोड़ दीजिए । केवल डालिए । इस परब्रह्म के –धर्म्मशून्य और धर्मयुक्त ये दो भेद हो जाते हैं । धर्म्मशून्य – ब्रह्म शास्त्रों में– ‘ निरञ्जन ‘ ‘ निष्कल ‘ ‘ द्वन्द्वातीत ‘ ‘ अखण्ड ‘ ‘ निर्धमंक ‘ ‘ अशेषभेदशून्य ‘ आदि नामों से प्रसिद्ध हैं । शुद्ध रस का नाम ही निविशेष – निर्धर्म्मक ब्रह्म है । यह ब्रह्म सर्वथा शास्त्रानधिकृत है । दूसरा है — सर्वधर्मोपपन्न | इस सर्वधर्मोपपन्न ब्रह्म के — विश्व , विश्वचर , विश्वातीत ये तीन भेद हैं । परात्पर का नाम ही अभय ब्रह्म है । सर्वबलविशिष्ट होने से ही यह परात्पर ‘ सर्वधर्मोपपन्न ‘ कहलाता है । चूंकि यह विश्वातीत होने से अवाङ्मनसगोचर है , अतएव यह भी निर्विशेषवत् शास्त्रानधिकृत ही है । षोडशी पुरुष का नाम ‘ विश्वचर ‘ ब्रह्म है एवं स्वयम्भू – परमेष्ठी सूर्य – चन्द्रमा पृथिवी इन पाँचों प्राकृतात्माओं की समष्टि का नाम ‘ विश्व ‘ है । ससीमतथा विश्व और विश्वचर ब्रह्म शास्त्राधिकृत हैं । इस प्रकार – ‘ -‘चतुष्टयं वा इदं सर्वम् ‘ के अनुसार एक ही ब्रह्म के ( १ ) निविशेष , ( २ ) परात्पर , ( ३ ) षोडशी , ( ४ ) विश्व , ये चार अविकृत परिणाम हो जाते हैं । इन चारों में पूर्व के दो को तो बिल्कुल छोड़ दीजिए । शास्त्र इन दो का स्पर्श भी नहीं कर सकता । क्यों कि शब्द की यत्किञ्चित् पदार्थतावच्छेदकावच्छिन्न में शक्ति होती है । वे पदार्थातीत हैं । शब्द- अर्थ – इन दोनों सृष्टियों से बाहर हैं , अतः वहाँ शब्द की गति नहीं है । इसीलिए उपनिषदों को – स्मृतियों को-
“ यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥ २
यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । ३
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्यविषयः ” ॥४
—————-
१. मैत्रा उप ० ६।२२ । २. केन उप ० २।३ । ३. तै ० उप ० २।४।१ । ४. महिम्न स्तोत्र २ ।
– इत्यादि रूप से स्पष्ट ही उनकी अविज्ञेयता का धन्यघोष करना पड़ता है ।बाकी बचते हैं — विश्वचर और विश्व । इन दोनों का शास्त्रों में खूब ही प्रतिपादन है । ११३१ संहिताएं , इतने ही ब्राह्मण , विश्व – ब्रह्म का निरूपण करते हैं ।एवं ११३१ आरण्यक और ११३१ उपनिषत् विश्वचर – ब्रह्म का निरूपण करते हैं ।विश्व और विश्वात्मा अविनाभूत हैं । ‘ तत्सृष्टा तदेवानुप्राविशत् ‘ ‘ के अनुसारप्रविष्ट आत्मा सृष्ट- विश्व के भीतर प्रविष्ट रहता है , अतएव — विश्व – ब्रह्मप्रतिपादक संहिता , ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रात्मा के ऊपर लक्ष्य रखना पड़ता है , एवंप्रविष्ट – ब्रह्म प्रतिपादक आरण्यक , उपनिषद् ग्रन्थों को विश्व के ऊपर भी लक्ष्यरखना पड़ता है । दोनों में दोनों की प्रधानता है । अन्तर केवल — प्रधानाप्रधानताका है । एक भाग कर्म्ममय विश्व को प्रधानता देता है । दूसरा भाग– ज्ञानमयआत्मा को प्रधानता देता है । कर्म्ममय विश्व त्रिगुणभावापन्न है । संहिता औरब्राह्मण – ग्रन्थ इसी त्रिगुणभाव से युक्त हैं । वैगुण्यरूप आसक्तिकर्म से बन्धनहोता है , अतएव भगवान् कर्म्ममय ( प्रवृत्तिकर्म्ममय ) वेदग्रन्थों के लिए-‘ त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ‘ — यह कहना पड़ता है ।
अस्तु , इस कर्म्मभाग की चर्चा में हम आपका अधिक समय नहीं लेनाचाहते । हम आत्मविद्या प्रतिपादक , दूसरे शब्दों में प्रविष्ट – ब्रह्मप्रतिपादकउपनिषद् ग्रन्थों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं । उपनिषदोंमें क्या है ? ईशोपनिषद् के प्रारम्भ में किए गए इस प्रश्न का उत्तर है– ‘ प्रात्मविद्यास्वरूपनिरूपणम् ‘ — आत्मा शब्द सापेक्ष शब्द है । पुत्र , पिता , माता , गुरु ,राजा आदि कहते ही- किसका पुत्र , किसका पिता , किसका गुरु , कहाँ का राजा ?आदि जानने की अपेक्षा होती है । इस अपेक्षा को — पिता का पुत्र , पुत्र का पितापुत्र की माता , कुरुदेश का राजा आदि – आदि उत्तरों से शान्त किया जाता है ।हमारा आत्मा – शब्द भी ठीक ऐसा ही है । ‘ आत्मा है ‘ कहते ही ‘ किसका आत्मा ‘ ? यह जिज्ञासा होती है । इसका उत्तर है — विश्व का आत्मा । कहने का तात्पर्य्ययही है कि जैसे पुत्र के बिना पिताव्यवहार सर्वथा अनुपपन्न है , एवमेव बिनाविश्व के — ‘ आत्म ‘ – व्यवहार सर्वथा अनुपपन्न है । बस , इसी अपेक्षाभाव के कारणउपनिषदों को – आत्मनिरूपण करते समय गौणरूप से विश्व को भी सामनेरखना पड़ता है । उपनिषत् विश्व को लक्ष्य बना कर कहता है कि तुम विश्व की आराधना मत करो , किन्तु विश्वाधार विश्वात्मा की उपासना करो । जैसे आत्मासे विश्व की ओर लाना वेद के कर्म – काण्ड का काम है , ठीक इसके विपरीत
———–
१. तै ० उप ० २।६। २. गीता २।४५ ।
विश्व से आत्मा की ओर ले जाना उपनिषत् का काम है — जैसा कि प्रश्नोपनिषत्के शान्ति – पाठ – विज्ञानप्रकरण में विस्तार के साथ बतलाया जा चुका है-
उपनिषत् प्रविष्टात्मा का ही निरूपण करता है इसमें कोई संदेह नहीं है । परन्तु प्रविष्टब्रह्म दो प्रकार का है । एक विश्वापेक्षया सर्वव्यापक विश्वशरीरावच्छिन्न ईश्वर , एवं सर्वभूतान्तरात्मा नाम से प्रसिद्ध , प्रविष्ट – ब्रह्म है । दूसराविश्वापेक्षया परिच्छिन्न किन्तु शरीरापेक्षया सर्वव्यापक शरीरविश्वावच्छिन्न , जीवएवं भूतात्मा के नाम से प्रसिद्ध , प्रविष्ट – ब्रह्म है । इन दोनों में से — उपनिषत् किसप्रविष्ट – ब्रह्म का निरूपण करता – यह प्रश्न है । इसका समाधान जीव नामसे प्रविष्ट – ब्रह्म को लक्ष्य बना कर किया जा सकता है । उपनिषदों में प्रधानताजीवात्मा की है । क्यों कि उपनिषत् बतलाता है कि तुम अपने स्वरूप को भूलेहुए हो । उसे पहचानो । आत्मयाजी बनो । विश्वयाजी मत बनो । अपने सृष्टको अपने प्रविष्ट पर ले जाओ । बस , सारे उपनिषद् एकमात्र इसी अर्थ कानिरूपण करते हैं । इतना होने पर भी हम साथ ही साथ उपनिषदों को विभिन्नार्थप्रतिपादक मानने के लिए तैयार हैं । सभी उपनिषत् आत्मप्राप्ति का उपायबतलाते हैं — परन्तु सब नानोपक्रम हैं । नानोपक्रम होने से सबका निरूपणीयविषय पृथक् – पृथक् है । समाननिधन ( अवसान ) होने से सबका निरूपणीयविषयएक है ।चूँकि उपनिषत् का प्रधान लक्ष्य जीवात्मा है , अत : इसी के विश्व का स्वरूप .बतला कर प्रकृत का अनुसरण किया जाता है । अव्यय- अक्षर – क्षर की समष्टिईश्वर है । स्वयम्भू – परमेष्ठी – सूर्य – चन्द्रमा पृथिवी की समष्टि विश्व है । ये ही पाँचोंजीव जगत् में अव्यक्त , महान् , विज्ञान , प्रज्ञान , भोक्तात्मा , नाम से प्रसिद्ध हैं । इनपाँचों का आधार चित्य – शरीर है । शरीर – पिण्ड में वैश्वानर – तैजस – प्राज्ञरूप भोक्तात्माहै । उस पर प्रज्ञान है । प्रज्ञान पर विज्ञान है । विज्ञान पर अव्यक्तगर्भित महान्
है । इस पर षोडषीपुरुष है । इस षोडशीपुरुष का नाम – अमृतात्मा है ।अव्यक्तादि पाँचों का नाम ब्रह्मसत्य है । शरीर यज्ञसत्य है । यज्ञसत्य ब्रह्मसत्यपर प्रतिष्ठित है । ब्रह्मसत्य अमृत पर प्रतिष्ठित है । अमृत आत्मा है । यहीप्राप्तव्य है । ब्रह्मसत्यरूप अव्यक्तादि पाँचों क्षर भाग एवं शरीर ये दोनों विश्व हैं ।इनको अमृत पर पहुंचा देना , उपनिषदों का काम है । विश्व के अनेक अवयव हैं ।सभी उपनिषत् सभी का अमृतात्मा से सम्बन्ध नहीं बतलाते । कोई उपनिषत् -भोक्तात्मोपक्रम है । कोई प्रज्ञानात्मोपक्रम है । कोई विज्ञानात्मोपक्रम है । कोईमहानात्मोपक्रम है । कोई शरीरस्थ – ईश्वरात्मोपक्रम है । ईशोपनिषत् — ईश्वरात्मोपक्रम है । केनोपनिषत् — प्रज्ञानात्मोपक्रम है । कठोपनिषत् –भोक्तात्मोपक्रमहै । प्रश्नोपनिषत् –पञ्चात्मोपक्रम है । मुण्डकोपनिषत् -विज्ञानात्मोपक्रम है ।इस प्रकार कोई प्रज्ञान को लक्ष्य बना कर अमृतात्मा पर जाता है , कोई विज्ञानको , कोई महान् को , कोई भोक्तात्मा को । प्राप्तिस्थान एक है । मार्ग भिन्न – भिन्नहैं । जो उपनिषत् प्राप्तिस्थानभूत जिसे प्रधान मानता है , हम उसको उसी कानिरूपण करने वाला मान सकते हैं । हमारा माण्डूक्य – उपनिषत् भोक्तात्मा कोउपक्रम मान कर उसे अमृतात्मा पर ले जाता है — प्रतः कठवत् हम इसे भोक्तात्माका निरूपक मानने के लिए तय्यार हैं । वस्तुतस्तु यदि और भी सूक्ष्म दृष्टि सेअवलोकन किया जाता है – तो इस उपनिषत् में सारा प्रपञ्च समाया हुआमिलता है । उपनिषत् के उपक्रम – उपसंहार हमें इसके लिए बाध्य करते हैं किइस उपनिषत् को हम – ‘ सर्वोपनिषत् ‘ कहें । जैसा कि आगे जा कर उपनिषदर्थसे अपने आप स्पष्ट हो जाएगा । प्रारम्भिक वक्तव्य समाप्त हो चुका । अबउपनिषत् प्रारम्भ किया जाता है-
इस उपनिषत् की सर्वात्मव्यापकता बतलाता हुआ निम्नलिखित मन्त्र हमारेसामने आता है —
अथ माण्डूक्य – उपनिषद्
” ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत् त्रिकालातीतंतदप्योङ्कार एव ” ॥१ ॥
‘ ओम् ‘ की ओर इशारा करके ऋषि कहते हैं कि — ‘ ओम् ‘ यह अक्षर सबकुछ है । इस सर्वरूप ओंकार का उपव्याख्यान ( निरूपण ) यही है कि — भूत , भविष्यत् , वर्तमान सब कुछ ओंकार ही है । और जो त्रिकालातीत है – वह भी ओंकार ही है ।
यह है— इस प्रथम मन्त्र का अक्षरार्थ । इसके तत्त्वज्ञान के लिए निम्नलिखित प्रकरण पर दृष्टि डालना आवश्यक होगा –उपनिषत् आत्मा का निरूपणकरते हैं — यह बतलाया जा चुका है । षोडशी – पुरुष का नाम ही अमृतात्मा है ।अमृत नाम वास्तव में मध्यपतित अक्षर का है । मुण्डकोपनिषत् में यह विस्तारसे बतलाया जा चुका है कि अव्यय अविकुर्वाण होने से सृष्टिकर्ता नहीं है । क्षरविकुर्वाण होने से सृष्टिकर्त्ता नहीं है । कुर्वाण अक्षर ही सृष्टि का मूल है । यदिएअक्षर न होता तो — न क्षर संसार का आरम्भण ( उपादान ) बन सकता था , न अव्यय अधिष्ठान ( आलम्बन ) बन सकता था । अव्ययालम्बन पर – क्षरोपादान सेसारा विश्व बन गया । यह मध्यपतित पञ्चकलकुर्वाण अक्षर की ही महिमा है ,अतएव क्षर की उपादानता का तिरस्कार करके ऋषि को स्पष्ट शब्दों में
तथाऽक्षराद्विविधाः सोम्य भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति १
– यह कहना पड़ा है । सारा विश्व — ‘ इदं सर्वम् ‘ है । इस ‘ इदं ‘ सर्वम् ‘ काउपादान क्षर है – आलम्बन अव्यय है । ऐसी अवस्था में– ‘ अव्यययुक्तं क्षरमिदंसर्वम् ‘ कहना चाहिए था परन्तु ऐसा न कह कर ऋषि – – ‘ अक्षरमिदं सर्वम् ‘कह रहे हैं । कारण इसका यही है कि मध्यपतित अक्षर ही – अव्ययात्मक्षर को
में प्रविष्ट करता है । अक्षर ब्रह्म से केवल अक्षर ही अभिप्रेत नहीं है ,अपितु , षोडशी – प्रजापति अभिप्रेत है । इसी षोडशी का नाम- ‘ ओम् ‘ है ।यद्यपि — ‘ ओम् ‘ उसका अभिधान ( नाम ) है । ‘ ओम् ‘ यह एकाक्षर ब्रह्म शब्द ब्रह्महै । यह उस परब्रह्म का एकदेश ( भाग ) है । ऐसी अवस्था में उसके लिए ‘ ओम् ‘कहना अनुचित था । तथापि अभिधान और अभिषेय की अभेद विवक्षा कर-उसके लिए ‘ ओम् ‘ कह दिया गया । यह अमृतात्मा ( अक्षरात्मा षोडशी – पुरुष )आत्म – योनि है , जैसा कि पूर्व के उपनिषदों में बतलाया जा चुका है । भूतात्माप्रज्ञान , विज्ञान , महान् , आदि इसी अक्षरसम्बन्ध से आत्मा कहलाता है । अमृतात्मा का पहले महान् से सम्बन्ध होता है । तद्द्वारा विज्ञान से सम्बन्ध होताहै । तद्द्वारा वह चेतना प्रज्ञान में आती है । प्रज्ञान द्वारा भूतात्मा में आती है ।इस प्रकार ‘ एकं वा इदं विबभूव सर्वम् ‘ के अनुसार यह एक ही अमृतात्मा सर्वत्रव्याप्त हो रहा है । श्रुति को आत्मसामान्य का ग्रहण अभीष्ट है , अतएव किसी
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१. मुण्डक उप ० २।१।१ ।
एक का नाम न ले कर , अक्षर का नाम लिया है । क्यों कि अक्षर का सब के साथसम्बन्ध है । यह अक्षर ब्रह्म – आत्मा ( प्रविष्ट – ब्रह्म ) है । हम बतला चुके हैं किआत्मा सापेक्ष है । आत्मा के साथ विश्व का ग्रहण अवश्यंभावी है । उस ओम्रूप अक्षर से — आत्मा और विश्व दोनों का ग्रहण है । विश्व अङ्ग है । तत्प्रविष्टआत्मा अङ्गी है । अङ्ग – विश्व त्रिकाल है । यह संसार पहले न था , आज है ,आगे न रहेगा । भूतमय सम्पूर्ण विश्व
” अव्यक्तादीनि भूतामि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ” ॥ १
– के अनुसार अव्यक्त व्यक्त और अव्यक्त रूप है । विश्व में विश्वान्तर्गतप्रत्येक पदार्थ में भूत , भवत् , भविष्यत् तीन कलाओं का सम्बन्ध है । तीनों कलाएँमर्त्य हैं । तीनों का आधार विश्वात्मा तुरीय है — त्रिकालातीत है । वह त्रिकालाबाधित है –नित्य है । आत्मा नित्य है , अतएव त्रिकालातीत है । विश्व प्रनित्य है ,अतएव त्रिकालभावापन्न है । त्रैकालिक – विश्व , त्रिकालातीत – आत्मा दोनों एकअक्षर है । आत्मा का क्षरभाग ही विपरिणामी स्वभाव से विश्व बना है । वहीक्षररूप से विश्व बन कर , अक्षररूप से उसमें प्रविष्ट हो उसका आत्मा बन रहाहै — वही विश्व है और वही विश्व प्रविष्ट है । अ , उ , म् ये तीन कलाएँ विश्व हैं ।तुरीय अर्द्धमात्र ‘ आत्मा ‘ है । दोनों की समष्टि ओंकार है ।
पञ्चविध ओंकार निरूपण
प्रविष्टात्मा के — अव्यक्तात्मा , महानात्मा , विज्ञानात्मा , प्रज्ञानात्मा , भूतात्माये पाँच विवर्त्त हैं । सृष्ट- विश्व के स्वयम्भू , परमेष्ठी , सूर्य , चन्द्रमा , पृथिवी , येपाँच विवर्त्त हैं । प्रथम मन्त्र में श्रुति समष्टिरूप से , सबका एक साथ निरूपणकरती है । इससे व्यष्टि का निरूपण हो जाता है । समष्टि सम्बन्ध से एक
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१. गीता २१२८ ।
ओंकार होता है । व्यष्टि सम्बन्ध से पाँच ओंकार हो जाते हैं । जैसा कि निम्न लिखित क्रम से स्पष्ट हो जाता है ।
अव्यक्त, महान् , विज्ञान , प्रज्ञान , भोक्ता ये पाँच ब्रह्म हैं । प्रत्येक ब्रह्म चतुष्पात्है । इसमें तीन पाद अङ्ग हैं । एक पाद अङ्गी है । तीन मर्त्यकला हैं । एक अमृतहै । दोनों की समष्टि ओंकार है । निदर्शनमात्र है । ऐसे – ऐसे अनन्त ओंकार होजाते हैं । संसार का एक एक परमाणु ब्रह्म है । प्रति ब्रह्म चतुष्पात् है । प्रत्येकमें तीन अङ्ग हैं । एक अङ्गी है । ‘ इदं ‘ सर्वम् से ऋषि को सबका ग्रहण अभीष्टहै , अतएव किसी एक का नाम न ले कर आत्मा के लिए अक्षर , और विश्व केलिए भूत , भवत् , भविष्यत् का निर्देश करते हैं । अव्यक्तादि चाहे कोई सा ब्रह्महो- उसके मर्त्य तीन पाद अवश्यमेव त्रिकालभावापन्न रहते हैं । आत्मभाव अक्षरसे सम्बन्ध रखता है । इसी सामान्य विज्ञान को लक्ष्य में रख कर श्रुति ने’ ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वम् ‘ – यह कहा है । प्रज्ञान , विज्ञान , महान् सब कुछ अक्षरही है । अक्षर ही सब बना है । इससे श्रुति उपदेश देती है कि यदि तुम सर्वज्ञबनना चाहते हो , आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहते हो , तो अक्षर की उपासना करो ।अक्षर जैसे सब रूप में परिणत होता हुआ भी सब से अलग है एवमेव उसेपहचानने के बाद , तुम सब कुछ करते हुए भी बन्धनों से अलग रहोगे । यहीइस अक्षर का उपव्याख्यान ( स्वरूप – परिचय ) है ।
( २ )
इसी प्राक्कथन का स्पष्टीकरण करते हुए आगे जा कर ऋषि कहते हैं
“ सर्वं ह्येतद् ब्रह्म । अयमात्मा ब्रह्म । सोऽयमात्मा’ चतुष्पात् ‘ || २ ||
आत्मब्रह्म का चतुष्पाद् – भाव दो प्रकार से समझना चाहिए । सृष्टयुक्तप्रविष्टात्मब्रह्म चतुष्पात् है । विश्व त्रिपात् है । आत्मा एकपात् है । दोनों कीसमष्टि चतुष्पात् ब्रह्म है – जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है । अब विश्व
को छोड़ दीजिए । केवल प्रविष्ट आत्मब्रह्म को ही लीजिए । वह स्वयं भी चतुष्पात् है । अव्यय प्रथम पाद है । अक्षर द्वितीय पाद है । बाकी बचता है आत्मक्षर । इसके ब्रह्म – सुब्रह्म दो भेद होते हैं । ब्रह्म से अनस्था ( स्थिर ) सृष्टि होती है । ब्रह्मगर्भित सुब्रह्म से अस्थन्वा ( अस्थिर ) सृष्टि होती है । आत्मक्षर का प्राण – भाग वेदत्रयी रूप में परिणत रहता है । इसी का नाम ब्रह्म है । इसके प्राण – भाग से सुब्रह्म का प्रादुर्भाव होता है । ब्रह्मगर्भित सुब्रह्म ही शुक्र है । यह सृष्टि का मूल है । इसे ही– ‘ अव्यक्त ‘ कहा जाता है । बिना विज्ञान सम्बन्ध के यह शुक्र घोर तमोरूप है । ‘ तम प्रासीत् तमसा गूळढमग्रे ‘ १, ‘ आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ‘२ इत्यादि श्रुति – स्मृति वचन इसी अव्यक्त तमोमय शुक्र का निरूपण करते हैं । शुद्ध ब्रह्म – भाव सृष्टि का उपादान है । ब्रह्मगर्भित सुब्रह्म शुक्र – मैथुनीसृष्टि का कारण है । यही शुक्र विज्ञान सम्बन्ध से- ‘ महान् ‘ नाम धारण करता हुआ – त्रिगुणभावापन्न हो जाता है । जैसा कि- ‘ अदितिर्देवतामयी ‘ इत्यादि मन्त्रव्याख्यानद्वारा कठोपनिषत् में विस्तार के साथ बतलाया जा चुका है । कहना सारे प्रपञ्च से यही है कि विश्व – प्रविष्ट आत्मा का क्षरभाग — ब्रह्म और सुब्रह्म दो भागों में परिगत हो कर सृष्टि का उपादान होता है । दोनों उसी प्रविष्ट के अवयव हैं । इन दोनों के कारण विश्वोपहित शुद्ध प्रविष्ट आत्मा भी –चतुष्पात् हो जाता है । चारों पाद एक कला है । विश्व त्रिकल है । दोनों की समष्टि एक ओंकार है–
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१. ऋग्वेद मं ० १०।१२९।३।२ । २. मनुस्मृति १।५ ।
जैसे अक्षर अमृत नाम से प्रसिद्ध है –एवमेव क्षर ‘ ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ‘के अनुसार ब्रह्म नाम से प्रसिद्ध है । पूर्व मन्त्र में ऋषि ने ‘ अक्षरमिदं सर्वम् ‘ कहाहै । परन्तु यथार्थ में ‘ इदं सर्वम् ‘ का कारण ( उपादान कारण ) अक्षर नहींविपरिणामि क्षरब्रह्म है । ब्रह्म ( क्षर ) इदं सर्वम् है — न कि अक्षर । इसीलिएइस दूसरे मन्त्र में ऋषि को ‘ सर्वं ह्य तद्ब्रह्म ‘ यह कहना पड़ा है । क्षर ब्रह्म ही ‘ इदंसर्वम् ‘ है– परन्तु वह अक्षर भी इससे पृथक् नहीं है । मार्ग भिन्न है । सत्ता एकहै । वह अक्षरात्मा ही क्षर ब्रह्म है । उसका अमृत – भाग अक्षर है– मत्यंभागक्षर है । दोनों मिल कर एक प्रजापति है । कहने को आत्मा ( अक्षर ) और ब्रह्म( क्षर ) भिन्न हैं । वस्तुतः यह प्रात्मा ही ( अक्षर ही ) ब्रह्म है । ब्रह्म ही सब कुछहै । इसी अभिप्राय से – ‘ अयमात्मा ‘ ( अक्षरम् ) ब्रह्म ( क्षरम् ) कहा है । वह एकही –उपादान है । वही निमित्त है । वही आलम्बन है – यह कैसे हो सकता है ?इसका उत्तर देने के लिए ऋषि को आगे जा कर — ‘ सोऽयमात्मा चतुष्पात् ‘ – यहकहना पड़ा है । एक ही प्रात्मा के — अव्यय , अक्षर , ब्रह्म , सुब्रह्म ये चार पादहैं । इस एक आत्मा का पहला अव्ययपाद सृष्टि का आलम्बन है । दूसराअक्षरपाद निमित्त है । तीसरा चौथा – ब्रह्म सुब्रह्म पाद उपादान हैं । क्षराभिप्रायसे सारा विश्व आत्मा है । अक्षराभिप्राय से प्रात्मा विश्व का कर्ता हैअव्ययापेक्षया आत्मा आधार है । अव्ययापेक्षया आत्मा – न कर्ता है – न कारण है ।न उपादान है । अक्षरापेक्षया आत्मा कर्त्ता हो कर भी प्रकर्त्ता है । क्षरापेक्षया’ ब्रह्म वेदं सर्वम् ‘ है ।
अथवा इस द्वितीय मन्त्र को प्रतिसंचर क्रम का निरूपक मानना चाहिए ।प्रकरण के प्रारम्भ में ही बतलाया जा चुका है कि- आत्मा से ( एक से ) विश्वकी ओर ( नानाभाव की ओर ) आना संचर पक्ष है- विज्ञान पक्ष है । प्रथम मन्त्रइसी का निरूपण करता है । ‘ अक्षरमिदं सर्वम् ‘ में अक्षर उद्देश्य है । सर्वं विधेयहै । अक्षर से सब बना है । एक से अनेक बना है- यही संचर है । विश्व से( नानाभाव से ) आत्मा की ओोर ( एकत्व की ओर जाना प्रतिसंचर है – यहीज्ञान है । दूसरा मन्त्र इसी का निरूपण करता है । ‘ सर्वं ह्येतद् ब्रह्म ‘ में – सर्वको उद्देश्य बना कर ब्रह्मत्व का विधान है । क्षरविश्व सर्वम् है । इसकी अन्तिमगति ब्रह्म ( क्षर ) है । ब्रह्म के आगे आत्मा ( अक्षर ) है । वही चतुष्पात् बनकर – संचर प्रतिसंचर का अधिष्ठाता बन कर सब कुछ बना हुआ है । नानात्वभेद का कारण है । भेद अन्तर है । ‘ यदुदरमन्तरं कुरुते अथ भयं भवति ‘ केअनुसार अन्तर भय का कारण है । भय क्षोभ रूप है । क्षोभ अशान्ति है ।’ अशान्तस्य कुतः सुखम् ‘ । ठीक इसके विपरीत एकत्व अद्वैत का कारण है । अद्वैत
अनन्तर अतएव भेदशून्य है । संचर – प्रतिसंचर दिखलाती हुई श्रुति कहती है किजो तुम नानात्व देख रहे हो , विश्वास करो , नाना कुछ नहीं है । वह एक ही तत्त्वसर्वत्र व्याप्त है । संचर – प्रतिसंचर द्वारा जिस दिन तुम उसे पहचान जाओगे उसदिन तुम उस एकस्वरूप अभयपद को प्राप्त कर लोगे ।
( ३ )
सृष्टोपहित प्रविष्टब्रह्म भी चतुष्पात् है एवं सृष्टिविशिष्ट प्रविष्ट भीचतुष्टयभावापन्न है । जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है । उदाहरण के लिएयहाँ एक ब्रह्म की चतुष्पात्ता बतला कर इस प्रकरण को समाप्त किया जाता है ।सब से नजदीक मोक्तात्मा है । उसके ऊपर प्रज्ञान है । प्रज्ञान के ऊपर विज्ञान है ।विज्ञान के ऊपर महान् है । महान् के ऊपर अव्यक्त हैं । उसके ऊपर षोडशी है ।साधारण मनुष्य भोक्तात्मा – प्रज्ञान को पहचानते हैं । प्रज्ञान – मन के काम सभीदेखते हैं । भोक्तात्मा का प्रत्यक्ष ‘ अहमस्मि ‘ रूप से सभी को हो रहा है , अतएव’ स्थूलारुन्धतीन्याय ‘ को लक्ष्य में रख कर ऋषि प्रतिसन्निकट सर्वपरिचितभोक्तात्मा विशिष्टप्रज्ञान ब्रह्म को उदाहरण के लिए हमारे सामने रखते हैं ।प्रज्ञान ब्रह्म है । इसके साथ तीन भोक्ता की कलाएँ हैं । चितेनिधेय अग्नि सेनिष्पन्न वैश्वानर , तैजस , प्राज्ञ की समष्टि भोक्तात्मा है । इसी को कठोपनिषत् मेंहमने देवसत्य कहा है । इस देवसत्य को अपने ऊपर धारण करने वाला वही’ ब्रह्म ‘ – सत्य का अवश्य रूप प्रज्ञान ब्रह्म है । प्रज्ञानात्मा- उसी अन्तर सम्बन्ध सेआत्मा कहलाता है । प्रज्ञान विज्ञान महान् अव्यक्त षोडशी रूप का प्रज्ञान से ग्रहणहै । क्यों कि ‘ संस्था विभाग के अनुसार उत्तर – उत्तर के आत्मा में पूर्व – पूर्वआत्माओं का सम्बन्ध मानना पड़ता है । वैश्वानर अग्नि है । तैजस वायु है । प्राज्ञइन्द्र है । वैश्वानर अर्थशक्ति का अधिष्ठाता है । तैजस क्रियाशक्ति का अधिष्ठाताहै । प्राज्ञ ज्ञानशक्ति का अधिष्ठाता है । इस प्रकार स्थूलदृष्टि से देखने पर इसशरीर में ज्ञानक्रियार्थमूलक अग्नि – वायु इन्द्र इन तीन ही देवताओं का साम्राज्यदीखता है । परन्तु ऋषि कहते हैं कि ये तीनों – उस ब्रह्म की महिमा से महीयान्बन रहे हैं— जो कि ब्रह्म इन तीनों का आलम्बन है एवं गुणी है- अक्षर रूपहै । उसी की उपासना करनी चाहिए । प्रस्तु , इस विषय को प्रकृत से हम अधिकनहीं बढ़ाना चाहते । केनोपनिषत् में बड़े विस्तार के साथ इस विषय का निरूपणकिया जा चुका है । प्रकरणसंगति के लिए यहाँ इतना ही समझ लेना पर्याप्तहोगा कि– प्रज्ञानात्मा आत्मा है , अङ्गी है । वैश्वानर तैजस – प्राज्ञ ये इसके तीनअङ्ग हैं । चारों को मिला कर एक प्रज्ञानब्रह्म है । वैश्वानर इसका प्रथम पाद
है । तैजस द्वितीय पाद है । प्राज्ञ तृतीय पाद है । स्वयं प्रज्ञान चौथा पाद है ।वही शिव ज्ञान अद्वैत है । साक्षात् अक्षर है । उसी की उपासना करनी चाहिए ।बस , अन्त तक केवल इसी पूर्वोक्त उपोद्घात का क्रमशः – स्पष्टीकरण है ।वैश्वानर , तैजस , प्राज्ञ की समष्टि को भोक्तात्मा बतलाया गया है । इन तीनोंमें वैश्वानर सब में स्थूल है । प्रथम इसी का निरूपण करते हुए माण्डूक्यकहते हैं-
इस मन्त्र के अर्थ से पहले तत्सम्बन्धी कुछ बाहर का विषय जान लेनाआवश्यक होगा–
” जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखःस्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ” ॥ ३ ॥
इस प्रकरण में क्रमशः वैश्वानर , तैजस , प्राज्ञ , को स्थूलभुक् , प्रविविक्तमुक् , आनन्द भुक् बतलाया जाता है । वैश्वानर स्थूलभुक् है , बहिःप्रज्ञ है , जागरितस्थान है , सप्ताङ्ग है , एकोनविंशतिमुख है । तैजस प्रविविक्तभुक् है , अन्तःप्रज्ञ है ,स्वप्नस्थान है , सप्ताङ्ग है , एकोनविंशतिमुख है एवं प्राज्ञ अनन्दभुक् है ,सुषुप्तस्थान है , चेतोमुख है , प्रज्ञानघन है ।
इस उपनिषत् में वैश्वानर जाग्रदवस्था का अधिष्ठाता है । तैजसस्वप्नावस्था का अधिष्ठाता है एवं प्राज्ञ सुषुप्त्यवस्था का अधिष्ठाता है ।वस्तुतः — ऐसा है नहीं । परन्तु ऐसा है भी । तभी तो यहाँ ऐसा कहा है । यहदोनों विरुद्ध धर्म कैसे सम्भव हो सकते हैं ? इसके लिए कठ उपनिषद् में कही हुईअवस्था – त्रय के स्वरूप को समझना चाहिए । तीनों अवस्थाओं का स्वरूप बतलातेहुए कठोपनिषत् में बतला दिया गया है कि – महान् , विज्ञान , प्रज्ञान इन तीनों कीजाग्रदवस्था का नाम जाग्रदवस्था है । महान् विज्ञान की जाग्रदवस्था एवं प्रज्ञानकी सुषुप्ति अवस्था का नाम स्वप्नावस्था है । महान् की जाग्रदवस्था एवं विज्ञानप्रज्ञान की सुषुप्त्यवस्था का नाम सुषुप्त्यवस्था है एवं महान् भी सो जाता हैतो वही मृत्यु अवस्था है । इन्द्रियों द्वारा बाहर के विषय प्रज्ञान – मन देखाकरता है । यह जाग्रदवस्था है । बाहर के विषयों से उपराम होने पर प्रज्ञानअन्तर्मुख हो जाता है । परन्तु प्रत्यक्ष दृष्ट विषयों के भावना वासना संस्कार इसपर प्रतिष्ठित रहते हैं । विज्ञान इन्हें देखा करता है । परन्तु जब महान् में लीनहो जाता है तो – सुषुप्ति हो जाती है । इस प्रकार प्रज्ञान की तीन अवस्थाएँ होजाती हैं । बहिरंग – विषय – संसक्त प्रज्ञान जाग्रदवस्था का अधिष्ठाता है । बहिरंग
विषय-पराङ्मुख विज्ञान में लीन प्रज्ञान स्वप्नावस्था का अधिष्ठाता है एवंमहदक्षररूप आत्मा में लीन प्रज्ञान सुषुप्ति का अधिष्ठाता है । इसी अवस्था केलिए ‘ यत्र सुप्तो न कंचन कामं कामयते ‘ – इत्यादि कहा जाता है । विज्ञानमौजूद है । परन्तु जिन संस्कारों को यह देखता है – उन संस्कारों को अपने ऊपरलिए हुए प्रज्ञान में डूबा हुआ है , अतः रहता हुआ भी विषय नहीं देखता ।इस मन्त्र में महान् विज्ञान नित्य जाग्रत् है । प्रज्ञान ( मनःसर्वेन्द्रियात्मा ) मात्र तीनअवस्थाओं से युक्त है । प्रज्ञान चान्द्रभाग है । इसके नीचे पहले प्राज्ञ है । बादमें तैजस है । अन्त में वैश्वानर है । इन तीनों की समष्टि ही देवसत्य है – यहीजीवात्मा है । यहाँ पर ऋषि इन तीनों को अवस्थात्रय से युक्त बतलाते हैं ।इसका कारण यही है कि अवस्थात्रय का अधिष्ठाता पूर्वोक्त प्रज्ञानात्मा- योनिरूप से हृदय में , प्रतिष्ठारूप से भ्रूसंधि में रहता हुआ – – प्राशयरूप से सर्वाङ्गशरीर में व्याप्त रहता है । ‘ आलोमभ्य आनखाग्रेभ्य : ‘ के अनुसार लोमनखाग्र भागको छोड़ कर जहाँ तक ‘ खून ‘ का सम्बन्ध है , वहाँ तक यह तत्त्व व्याप्त है । इसीआधार पर -‘यावान् वै रसस्तावानात्मा ‘ यह कहा जाता है । इस प्रकार प्रज्ञान कीव्याप्ति सर्वाङ्ग शरीर में होजाती है । रस तक ही प्रज्ञान रहता है , अतएव शुष्कस्थान में– शून्यस्थान में वेदना का अनुभव नहीं होता । शरीर में रसासृक्मांसमेदोस्थि – मज्जा – शुक्र – ये सात धातु हैं । सातों धातु पार्थिव हैं । अग्नि के चिनाव सेसातों . धातु बने हैं । ये सातो चित्य अग्नि हैं । यह पिण्ड पृथिवी का भाग है ।इन सातों में ही गर्मी है । यह गर्मी त्रिवृत्स्थानीय वैश्वानर – अग्नि की है । यहचितेनिधेय है । सातों धातु और उनमें रहने वाली गर्मी , दोनों मिल कर एक अग्निहै— दोनों तादात्म्यापन्न हैं— धातुशक्तिमान् हैं— गर्मीशक्ति है । शक्ति – शक्तिमान्का अभेद है , अतएव चित्यचितेनिधेय अग्निद्वय का हम ‘ वैश्वानर ‘ से ग्रहण करसकते हैं । यह पहिला स्थूल विभाग है । विज्ञानपरिभाषा में यही ‘ वाक् ‘( भूतप्रपञ्च ) है । इस अग्निरूप अर्थप्रपञ्च या वाक्प्रपञ्च के भीतर वायुरूपप्राणतत्त्व है । शरीर पृथिवीपिण्ड है । पृथिवी माता है । इसमें सर्वत्र प्राणभागव्याप्त है , अतएव प्राणरूप वायु को मातरिश्वा कहा जाता है । शरीरावयवों कासंचार इसी के द्वारा होता है । यह तैजस वायु एकरूप हो कर भी सात धातुनों केक्रम से — सात भागों में विभक्त हो जाता है । प्राणाग्नि की अपेक्षा यद्यपिइसे पञ्चधाविभक्त बतलाया जाता है ‘ — तथापि भूतरूप सप्तावयववैश्वानर की अपेक्षा — यह भी सप्तावयव कहला सकता है । इसके भीतरज्ञानशक्तिका अधिष्ठाता प्राज्ञ इन्द्र है । यह ज्ञान एकरूप है । प्राज्ञ ज्ञानमय है ।
——
१. द्रष्टव्य प्रश्न उप ० ।
तैजस क्रियामय है । वैश्वानर अर्थमय है । उस प्रज्ञान की व्याप्ति वैश्वानरतक है । तीनों में प्रज्ञान व्याप्त हो रहा है । ज्ञानगर्भित अर्थ वैश्वानर है ।ज्ञानगर्मित क्रिया तैजस है । क्रियार्थगर्भित ज्ञान प्राज्ञ है । यद्यपि भोक्तृत्व ज्ञानमयप्राज्ञ का धर्म है –परन्तु तैजस वैश्वानर भोग में सहकारी हैं । वैश्वानर स्थूलविषयों के भोग का साधक है । तैजस संस्कार जगत् के भोग का साधक है । प्राज्ञशुद्ध भोक्ता है । इन्द्रियों द्वारा प्रज्ञान बाहर आ कर विषयों से सम्बन्ध करता है ।यही प्रज्ञान का स्थूल भोग है । इस समय प्रज्ञान वैश्वानर तक व्याप्त रहता है ।स्थूलपदार्थों का भोग – प्रज्ञान – वैश्वानर को साथ ले कर ही करने में समर्थ होताहै । जाग्रदवस्था में प्रज्ञान वैश्वानर तक व्याप्त रहता है । सुतरां वैश्वानरयुक्तप्रज्ञान की स्थूलभोगता सिद्ध हो जाती है । बस , इसी विज्ञान को सामने रख करयहाँ ऋषि ने वैश्वानर को स्थूलभुक् बतलाया है । वैश्वानर स्थूलभुक् नहीं है ।वैश्वानरावच्छिन्न प्रज्ञान स्थूलभुक् है । जब तक बहिर्जगद्रूप स्थूल जगत् काइन्द्रियों के द्वारा भोग करता रहता है तभी तक आत्मा जाग्रदवस्थापन कहलाताहै । ऋषि को प्रज्ञानगत अक्षर की ओर ले जाना है । उसे भोगशून्य बतलाना है ,अतः उसका नाम न ले कर यहाँ केवल वैश्वानर को स्थूलभुक् बतलाया है । परन्तुयहाँ प्रज्ञान अवश्य है । अन्यथा भोग ग्रसंभव है । यदि प्रज्ञानांश वैश्वानर मेंन होता तो इसे कभी ‘ ब्रह्म ‘ का ‘ पाद ‘ ( अंश ) न बतलाया जाता । ‘ प्रथमः पादः ‘वाक्य ही यह सिद्ध करता है कि वैश्वानर में एक अंश उसका मौजूद है । वैश्वानर
सप्तचितिरूप है । सात धातु भी सप्तचिति हैं । सातों धातु अग्निरूप हैं , अतएव’ सप्तचितिकोऽग्निः ‘ -यह कहा जाता है । प्रकारान्तर से चत्वार प्रात्मा , द्वौपक्षौपुच्छंप्रतिष्ठा भी सात अवयव हैं । इन सात अवयवों के कारण हम अवश्य हीवैश्वानर को ‘ सप्ताङ्ग ‘ कह सकते हैं । वैश्वानरावच्छिन्न प्रज्ञान स्थूलभुक हैभोक्ता है । स्थूलजगत् के घटपटादि पदार्थ भोग्य हैं एवं ५ ज्ञानेन्द्रियाँ ,५ कर्मेन्द्रियाँ , ५ प्राणोदानादि प्राण , १ मन , २ बुद्धि , ३ चित्त , ४ अहंकार नामसे प्रसिद्ध अन्तःकरण यह १६ वस्तुभोगसाधन हैं । ज्ञानेन्द्रियों से जो स्थूलपदार्थों का भोग होता है , उससे भावना – संस्कार होता है । कर्मेन्द्रियों से जो संस्कारआता है , वह वासना कहलाता है । इन संस्कारों से ही स्वप्नावस्था बनती हैजैसा कि अनुपद में ही बतलाने वाले हैं । इन्द्रियादि प्रज्ञान के मुख हैं , न किवैश्वानर के । परन्तु जाग्रत् वैश्वानर को साथ ले कर प्रज्ञान इन १६ से भोगकरने में समर्थ होता है , अतएव यह १ ९– वैश्वानर के मुख मान लिए जाते हैं ।प्रज्ञाभाग वैश्वानर से युक्त है । इसीलिए वैश्वानर को बहिःप्रज्ञ कहा है । स्थूलपदार्थों के सम्बन्ध में इन्द्रियद्वारा वैश्वानरयुक्त प्रज्ञा बहिर्मुख ही रहती है ।निष्कर्ष यह हुआ कि प्राज्ञांशयुक्त सप्तचितिक एकोनविंशतिमुख बहिःप्रज्ञ स्थूलभुक्
वैश्वानर — उस चतुष्पाद का प्रथम पाद है – एक अंश है । यही जागरित स्थानहै । अवस्था का अविष्ठाता प्रज्ञान ही है । इस अवस्था में वैश्वानर रहता है ।वह स्वयं अवस्था का विष्ठाता नहीं है । इसीलिए वैश्वानर के लिए जागरितस्थानः ( स्थानीयः — नतु अवस्थाधिष्ठाता ) कहा है । दूसरे शब्दों में– वैश्वानरावच्छिन्न – सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुख बहिःप्रज्ञ – जागरितस्थान प्रज्ञान ही-उसका एक पाद है । ऋषि ने ऐसा नहीं कहा क्यों कि प्रज्ञान से वैश्वानर कीप्रोर नहीं आना है वैश्वानर से प्रज्ञान की ओर जाना है । स्थूल से सूक्ष्म की ओरजाते हुए कारण पर जाना है ।
(४)
वैश्वानररूप वाक्प्रपञ्च के भीतर प्राणरूप तैजस है । तैजस – भी-सप्ताङ्ग है —— एकोनविंशतिमुख है । यहाँ पर रहने वाला प्रज्ञान — स्थूलविषयों से अलग है । स्थूलविषयों का संस्कार मात्र है । स्थूलविषय हट गए हैं ।स्थूलविषयों से पृथग्भूत — संस्कार जगत् ही ‘ प्रविविक्त ‘ भाग है । जब प्रज्ञानबाहर के विषयों को छोड़ देता है तो वैश्वानर का साथ भी छूट जाता है । प्रज्ञानतैजस पर आ जाता है । इस समय का प्रज्ञान अन्तर्मुख है । यहाँ तैजस के सहारेएकोनविंशतिमुख हो कर तैजसाच्छिन्न प्रज्ञान उस संस्कार रूप प्रविविक्त भाग काभोग करता है । तैजस वायु है । वायु में गति है । जिसका यह वायव्यभागप्रवृद्ध होता है उसे विचित्र विचित्र स्वप्न आया करते हैं । वातज प्रकृति को अधिकस्वप्न आते हैं । वायु व्यापार के कारण आगत संस्कारों का समन्वय ऊट – पटाँगहो जाता है जैसा कि कठ में बतलाया जा चुका है । प्रज्ञानावच्छिन्न तैजस – प्राज्ञकी अन्तर्मुखता के कारण स्वयं अन्तर्मुख है । भोग साधन १६ भाग यहाँ भी मौजूदहै क्यों कि बिना इनके भोग असंभव है । यह तैजस स्वप्नस्थानीय है । स्वप्न का अधिष्ठाता नहीं , स्वप्नस्थानीय है । यह प्रज्ञान ब्रह्म का दूसरा पाद है । इसीविज्ञान को लक्ष्य में रख कर श्रुति कहती है
स्वप्नस्थानोऽन्त प्रज्ञःसप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः । प्रविविक्तभुक् तैजसो द्वितीयः पादः ॥४ ॥
( ५ )
तैजस के ऊपर-प्राज्ञ रूप इन्द्र है । इसके आश्रित ही प्रज्ञान है । प्राज्ञ प्रज्ञान से संनिकट है । प्रज्ञान चिद्धन है । उसका प्रथम सम्बन्ध प्राज्ञ इन्द्र से
होता है , अतएव इसके लिए स हि एन मेदिठं पस्पर्श – स हि प्रथमं विदाञ्चकार ‘ ( केनोपनिषत् ) —यह कहा जाता है । प्रज्ञान का चिदंश पहले प्राज्ञ में आता है ।तद्द्वारा तैजस में जाता है । तद्द्वारा वैश्वानर में आता है । येही तीनों केन उपनिषद् के अग्नि , वायु , इन्द्र , हैं । यहाँ कहा गया है कि अग्निवायु उस महायज्ञ कोन पहचान सके । जब इन्द्र गए तो वह महद्यक्ष गायब हो गया । इसका तात्पर्य्ययही है कि क्रियारूप तैजस अर्थरूप वैश्वानर ज्ञान से विजातीय है । प्राज्ञ भागज्ञानप्रधान होने से सजातीय है अतः यह अंश – ज्ञान उस ज्ञानघन में डूब जाताहै । शुद्ध प्रज्ञा प्रज्ञान में डूब जाती है , अतः प्राज्ञ भाग प्रज्ञानघन हो जाता है ।तैजस में व्यापार था । जब तक तैजस था — तब तक स्वप्नदर्शनरूप व्यापार था ।तैजस से अलग हो कर जब प्रज्ञान शुद्ध प्राज्ञ युक्त हो जाता है तो सारा व्यापारबंद हो जाता है । यहाँ प्रज्ञान प्राज्ञ का भेद जाता रहता है । दोनों उस महदक्षरमें डूब जाते हैं । यही सुषुप्त्यवस्था है । इस समय सारे इन्द्रिय भाग गायब हैं ।केवल चिन्मात्र अवशिष्ट हैं : प्राज्ञावच्छिन्नप्रज्ञान संस्कारों से भी अलग हो जाताहै , अतएव कामना की निवृत्ति हो जाती है । न यह अन्तः प्रज्ञ है — न बहिःप्रज्ञ है ।केवल प्रज्ञानघन है , आनन्दमय है । अनन्दयुक्त है । अव्यय के – आनन्द ,विज्ञान , मन , प्राण , वाक् पाँच कोश हैं । पाँचों में मन प्रज्ञानरूप से विकसित है ,यही भोक्ता है । यही प्रज्ञान– प्राज्ञ , तैजस , वैश्वानर रूप में परिणत हो करक्रमशः – – वाक्प्राण , आनन्द का भोग करता है । वाक् अन्नमय कोष है । स्थूलजगत् इसी का विकास है । अपने वैश्वानर भाग से प्रज्ञान स्थूल का भोग करताहै । अन्न के भीतर प्राण है । संस्कार जगत् प्राणरूप है । यह प्राणमय कोश काविकास है | अन्न से अलग होने के कारण यह प्राणरूप संस्कार जगत् प्रविविक्तहै । अपने तैजस भाग से इसका भोग करता है । तीसरा मनोमय कोष है । उसकाविकास स्वयं भोक्ता प्रज्ञान है । मन के बाद विज्ञानमय कोष है । विज्ञान भोगका साधन है । बाकी बचता है — आनन्द । चेतोमुख प्राज्ञभाग से वह इसकाभोग करता है । भोगत्रय के कारण तीन अवस्थाएँ हो जाती हैं । इनमें से इसीतीसरी अवस्था का निरूपण करते हुए ऋषि कहते हैं-
“ यत्र सुप्तो न कंचन कामं कामयते न कंचन स्वप्नं पश्यतितत्सुषुप्तम् । सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयोह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ” ॥५ ॥
( ६ )
वैश्वानर , तैजस , प्राज्ञ ही अधिदेवत में ( ईश्वर – शरीर में ) वैश्वानर , हिरण्यगर्भ , सर्वज्ञ – नाम से प्रसिद्ध है । इनमें प्रधान सर्वज्ञ है । इन्द्र है । इन्द्र हीविश्व का मूल है । सारे भूतों का अधिपति यही है । प्रभव – प्रतिष्ठा – परायण यहीहै । वाक् का नाम इन्द्र है । स्वयम्भूवाक् इन्द्र वाक् है । उसी से सारा विश्वबना है , अतएव ‘ नेन्द्राद्ऋते पवते घाम किञ्चन ‘ यह कहा जाता है , अतएव –‘ अथोवागेवेदं सर्वम् ‘ कहा जाता है । वाक् यह इन्द्राक्षर है । कठोपनिषद् मेंबतलाया गया है कि ब्रह्मा का क्षर पुरुष से सम्बन्ध है । विष्णु का अव्ययपुरुषसे सम्बन्ध है एवं इन्द्र का मध्यपतित अक्षर से सम्बन्ध है । अक्षर इन्द्ररूपहै । मध्यपतित इन्द्राक्षर से ब्रह्मा – विष्णु – इन दोनों अक्षरों का भी ग्रहण हो जाताहै । अक्षत्रय मिल कर एक अक्षर है । वाक् यह एक इन्द्राक्षर है । अक्षर यहब्रह्मा – विष्णु – इन्द्र नाम मे प्रसिद्ध तीन अक्षर हैं । इसी विज्ञान को लक्ष्य में रख कर’ वागित्येकमक्षरम् = अक्षरमिति व्यक्षरम् ‘ – यह कहा जाता है । पिण्डनिर्माणअग्नीषोम से होता है । हृदय में प्रतिष्ठत हो कर उस पिण्ड का संचालन करनाइस अक्षर का काम है , अतएव कबन्ध अथर्वा ने— ‘ ग्रन्तस्तिष्ठन् नियमयतिसर्वान् ‘ – इस व्युत्पत्ति को लक्ष्य में रख कर इसे इन्द्र प्रधानाक्षर को– ‘ अन्तर्यामी ‘कहा है । ईश्वर का यह सर्वांश ही जीव जगत् में प्रविष्ट हो कर प्राज्ञ कहलानेलगता है । अविद्यादिदोषों से यह अपने उस सर्वज्ञरूप को भूल रहा है । ऋषिउसी भूल को दूर करने की चेतावनी देते हुए कहते हैं कि जिस प्राज्ञ को तुमनेसाधारण समझ रक्खा है , वह सर्वज्ञांशभूत होने से सर्वज्ञ है- सर्वेश्वर हैअन्तर्यामी है । सब का प्रभव – प्रतिष्ठा परायण है । उस समीपस्थ को पहचानो ।इसी में तुम्हारा कल्याण है । अपि च अध्यात्म जगत् लिए तो यह प्राज्ञ हीसर्वेश्वर है , यही इस शरीर भूतप्रपञ्च की योनि है । क्रिया और अर्थ इस ज्ञानशक्ति पर प्रतिष्ठित हैं । वस्तुतः प्रतिष्ठित उस चिदात्मा पर है जो कि प्रज्ञान – घनहै परन्तु भूतादि में उसका सम्बन्ध प्राज्ञ द्वारा ही होता है । वही भूतसंपरिष्वक्तहोता है , अतएव इनकी अपेक्षा इसे ही हम सर्वेसर्वा कहेंगे- इसी विज्ञान कोलक्ष्य में रख कर ऋषि कहते हैं
” एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्यामी ।एष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥ ६ ॥
( ७ )
नान्तः प्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनंन प्रज्ञं नाप्रज्ञम् । अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षरण मचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमंशान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ” ॥७ ॥
१ अव्यक्त , २ महान् , ३ विज्ञान , ४ प्रज्ञान- इनका एक विभाग समझिए ।१ प्राज्ञ , २ वैश्वानर , ३ तैजस , ४ शरीर – इन चारों का एक विभाग समझिए ।इन सब की समष्टि विश्व अध्यात्मजगत् है । इस अध्यात्मजगत् में वहअमृतात्मा प्रविष्ट होता है । अव्यक्त ब्रह्म है । महान् सुब्रह्म है । दोनों अविनाभूतहैं । दोनों मिलकर शुक्र हैं अर्थात् – ‘ महान् ‘ से अव्यक्त महान् – दोनों का ग्रहण है ।सर्वप्रथम आत्मा का प्रतिबिम्ब जिसे कि उपनिषत् – परिभाषा के अनुसार हम अक्षरकहेंगे , महान् पर पड़ता है । महदक्षर आत्मा है । इससे अक्षरविज्ञान पर आता है ।विज्ञानद्वारा – वही अक्षर – प्रज्ञासंपरिष्वक्त प्रज्ञान पर भ्राता है । प्रज्ञानद्वारा प्राज्ञ -तैजस वैश्वानर पर जाता है । यह है चित्त का क्रमिक अवतार । यहाँ पर ऋषिप्रज्ञानगत अक्षर – तत्त्व का स्वरूप परिचय करा रहे हैं । यहाँ ब्रह्म से प्रज्ञानगतअक्षर – तत्त्व अभिप्रेत है । यह प्रज्ञान ब्रह्म – स्वयं भोगभाव से शून्य है । इसकीवैश्वानर , तैजस , प्राज्ञ , तीन कलाएँ ही भोग करती हैं । यह सर्वथा निष्कल है ,निरंजन है । तीनों भागों में यही अंशरूप से प्रविष्ट है , अतः तीनों उसके प्रथमद्वितीय तृतीय पाद हैं । चौथा घनरूप वह स्वयं है । उसका आगे निरूपण करनेवाले हैं । वैश्वानरावाच्छिन्न प्रज्ञान स्थूलभुक् है । तैजसावच्छिन्न उसका अंशप्रविविक्त भुक् है । प्राज्ञावच्छिन्न सर्वज्ञभाग आनन्दभुक् है । वह घन तीनों सेपृथक् है- शुद्ध है- अक्षर रूप है । वही असली वस्तु है । इसी की महिमा सेवैश्वानर तैजस – प्राज्ञ तीनों ने सर्वत्र अपना साम्राज्य बना रक्खा है । प्राज्ञ केऊपर प्रज्ञान ब्रह्म है वही तुरीय है । उसी का निरूपण करते हुए ऋषि कहते हैंन वह अन्तःप्रज्ञ है – न बहिःप्रज्ञ है – न उभयतःप्रज्ञ है – न प्रज्ञानघन है – न प्रज्ञहै – न अप्रज्ञ है – वह अदृष्ट है । अव्यवहार्य है । अग्राह्य है । अक्षरण है ।अचिन्त्य है । अव्यपदेश्य है । एकात्मप्रत्ययसार है । प्रपञ्चोपशम है । शान्त है ।ऐसे उसे , विद्वान् लोग तुरीयपद समझते हैं । वही आत्मा विज्ञेय है ।
प्राज्ञ – तैजस वैश्वानर ये तीनों सुषुप्ति स्वप्न और जाग्रत् के अधिष्ठातानहीं है । अपितु – तीनों ही क्रमशः सुषुप्तस्थान , स्वप्नस्थान , जागरितस्थान( सुषुप्त्यवस्थादि में प्रतिष्ठित – तत्स्थानीय ) हैं । अवस्थात्रय का अधिष्ठाता तोप्रज्ञान ही है । जाग्रदवस्था वह कहलाती है जब कि प्रज्ञान इन्द्रियों द्वारा बाहरके स्थूल विषयों से सम्बन्ध रखता है । बिना स्थूलजगत् के एवं वैश्वानर केप्रज्ञान की जाग्रदवस्था सर्वथा अनुपपन्न है । पदार्थ स्वयं वैश्वानररूप है । सजातीयता के कारण पहिले इनका सम्बन्ध हमारे वैश्वानर से होता है तद् द्वारा प्रज्ञान उनका भोग करने में समर्थ होता है । सब विषयों को छोड़कर प्रज्ञान अन्तर्मुख बनता है तो स्थूल जगत् का सम्बन्ध छूट जाता है । ऐसे समय में प्रज्ञान स्थूल विषयों से प्रविविक्त होता है एवं प्रज्ञान पर आए हुए संस्कारप्रपञ्च भी प्रविविक्त होते हैं । इस समय इसे स्थूल वैश्वानर की अपेक्षा नहीं रहती । क्योंकि स्थूल का भोग इस अवस्था में इसे नहीं करना पड़ता । प्रविविक्त विषय सूक्ष्म हैं । प्राणरूप हैं । उधर तैजस भी प्राणरूप सजातीयता के कारण उस प्रविविक्त का सम्बन्ध तैजस से होता है । तैजसयुक्त प्रज्ञान ही प्रविविक्त का भोग करने में समर्थ होता है । अब यहाँ से भी हटकर प्रज्ञान जब महदक्षर में जाता है तो तैजस की भी निरपेक्षा होजाती है । उस समय – ज्ञानमय प्राज्ञभागमात्र सजातीयता के कारण प्रज्ञान में रहता है । इस अवस्था में प्राज्ञ प्रज्ञान का द्वेष जाता रहता है । प्रज्ञान में डूबा हुआ प्राज्ञ प्रज्ञानघन है । परन्तु प्राज्ञ प्रज्ञान में डूबता तभी है जब कि प्रज्ञान महदक्षर में डूबकर- सुषुप्ति अवस्था में जाता है । जबतक प्रज्ञान महदक्षर में नहीं जाता तबतक वह तैजस वैश्वानर से युक्त रहता है । ऐसी अवस्था में ज्ञानविजातीय अर्थक्रिया के मध्यपतित रहने से – ज्ञानमयप्राज्ञ का प्रज्ञान के साथ एकीभाव नहीं हो सकता । जब – अर्थक्रियारूप तैजस – वैश्वानर अलग हो जाते हैं तो प्राज्ञ स्वस्वरूपसे ( शुद्धरूपसे ) रह जाता है ।
इस समय – ‘ यथोदकं शुद्धे शुद्धं – ताहगेव भवति ‘ के अनुसार शुद्धज्ञानरूप प्राज्ञ तैजसादिशून्य अतएव शुद्धप्रज्ञानमें एकीभूत होता हुआ स्वयं भी प्रज्ञानघन बन जाता है । ऐसा होता है — सुषुप्ति में ही । अतएव प्रज्ञानघग एकीभूत प्राज्ञ को ‘ सुषुप्तिस्थान ‘ बतलाया गया है । इस समय सिवाय ज्ञान के चित्र के अन्य विजाती यवस्तु का प्रभाव रहता है । अतएव इस अवस्थावाले प्रज्ञानघन प्राज्ञको चेतो मुख कहा है । वैश्वानर तैजस प्राज्ञ ही भोक्तात्मा है । प्रज्ञान ब्रह्मसत्य का अवयव है । परन्तु यह भोग बिना प्रज्ञानमनके और इन्द्रियों के अनुपपन्न है । अतः— मन और इन्द्रियों का भी भोक्तात्मरूप देयसत्यमें अन्तर्भाव करलिया जाता है । इसी अभिप्रायसे – ‘ आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः – यह कहा जाता है । वस्तुतः – प्रज्ञान स्वतंत्र है । परन्तु कहने के लिए प्रज्ञानही अवस्थात्रय में परिणत होकर – क्रमशः बहिःप्रज्ञ , अन्तःप्रज्ञ , और प्रज्ञानघन बनकर स्थूलभुक् प्रविविक्तभुक् और आनन्दभुक् होता है । वस्तुतः ये सारे धर्म्म भोक्तात्म रूप देव सत्यके हैं । प्राज्ञ तैजसगर्भित , अर्थप्रधान वैश्वानरभाग– स्थूलभुक् है । वैश्वानर प्राज्ञगर्भित क्रियाप्रधान तैजस भाग प्रविविक्तभुक् है एवं वैश्वानर तैजसगभित ज्ञानप्रधान प्रज्ञानघन प्राज्ञ आनन्दभुक् है । तीनों उस प्रज्ञानब्रह्म के तीन पाद
हैं । चौथास्वयं प्रज्ञानब्रह्म है , जोकि उपद्रष्टा है – विज्ञानद्रष्टा कहलाता है ।प्रज्ञान उपद्रष्टा अनुमन्ता भर्त्ता- महेश्वर है । प्रज्ञान विज्ञान अविनाभूत हैं ।ये दोनों महदक्षराविनाभूत है । बस – ऐसी अवस्था में– विज्ञानसंपरिष्वक्तमहदक्षरयुक्त प्रज्ञान को ही हम तुरीय कहेंगे ! सातवां मन्त्र अक्षर को लक्ष्यबनाकर इसी तुरीय प्रज्ञानका अक्षरसे निरूपण करता है वर्णन है— प्रज्ञानका ,परन्तु लक्ष्य है अक्षर पर ।
वैश्वानरावच्छिन्नप्राज्ञ – बहिःप्रज्ञ है । तैजसावच्छिन्नप्राज्ञ अन्तःप्रज्ञ है । ऐसी अवस्था में उभयथावच्छिन्न होता हुआ प्राज्ञ ‘ उभयप्रज्ञ ‘ कहलाने काअधिकारी हो जाता है । वही प्राज्ञ शुद्धरूप में आकर प्रज्ञान में डूबता हुआ—प्रज्ञानघन हो जाता है । इस प्रकार प्राज्ञ अन्तःप्रज्ञ है । बहिःप्रज्ञ है । उमयप्रज्ञहै । प्रज्ञानघन है । इससे अलग प्रज्ञान आत्मा है । उसका भोग से कोई सम्बन्धनहीं है । न वह स्थूलभुक् है । न प्रविविक्तभुक् है । न आनन्दभुक् है । वैश्वानरसे अलग है इसलिए वह बहिःप्रज्ञ नहीं है । तैजम से पृथक् है— इसलिए अन्तःप्रज्ञनहीं है । दोनों से अलग है इसलिए उभयप्रज्ञ नहीं है । स्वयं प्रज्ञानरूप है ।प्रज्ञान में प्रज्ञान नहीं रहता- अतएव वह अप्रज्ञान है । तात्पर्य्य यही है , प्रज्ञानस्वयं प्रज्ञानघन है । प्रज्ञानघन में प्रज्ञानघन क्या रहैगा- अतः वह प्रज्ञानघन नहींहै । प्राज्ञअंश है । वह – प्राज्ञ से अतिरिक्त है इसलिए उसे हम प्राज्ञ नहीं कहसकते । परन्तु प्रज्ञानगत चैतन्यने ही चूंकि प्राज्ञको प्राज्ञ बना रक्खा है । प्राज्ञ मेंजो ज्ञ है यदि उसे हटालिया जाय तो उसकी प्राज्ञता ही न रहै । ऐसी अवस्था मेंहम उसे प्राज्ञसे अतिरिक्त भी नहीं मान सकते । श्रुतिके शब्दमें बड़ा चमत्कारहै । प्राज्ञम् न कहकर — ‘ न अप्रज्ञम् ‘ कहा है । वास्तव में वह प्राज्ञसे अतिरिक्तहै , इसलिए तो उसके लिए- ‘ प्रज्ञम् ‘ कहा नहीं जा सकता । साथ ही में प्राज्ञ काप्राज्ञपना वही है । इस भाव को प्रकट करमे वाला यदि कोई वाक्य हो सकताहै तो ‘ नाप्रज्ञम् ‘ यही हो सकता है ।
नान्तःप्रज्ञं , नबहिःप्रज्ञं , नोभयतःप्रज्ञं , न प्रज्ञानघनं , न प्रज्ञं , नाप्रज्ञम् = मन्त्रका यह पूर्वार्द्ध भाग प्रज्ञानका निरूपण करता है । प्रज्ञान में– प्रज्ञान और प्रदो वस्तु हैं । अतएव ऋषि ने सातवें मन्त्रके – दो विभाग कर डाले है । पूर्वका छोटावाक्य — अक्षरापेक्षया लघुप्रज्ञान का निरूपण करता है । एवं – ‘ ग्रदृष्टम्’इत्यादि उत्तर का महावाक्य – महदक्षर का निरूपण करता है ।
प्रज्ञान के बाद क्रमशः – विज्ञान , महान् , अव्यक्त , आत्मक्षर , अक्षर , अव्यय इतने भाग हैं । इनमें विज्ञानका तो- ‘ सोऽयं विज्ञानात्मा प्रज्ञानात्मनासंपरिष्वक्तः ‘
के अनुसार — प्रज्ञान में ही अन्तर्भाव हो जाता है । विज्ञानके — अमृतमर्त्य दो भाग हैं । प्रज्ञानमें मर्त्यविज्ञान का अन्तर्भाव है । बाकीबचता है– प्रमृतविज्ञान | इसका महान् में अन्तर्भाव है । इस प्रकार – अव्यय , अक्षर , आत्मक्षर , अव्यक्त तथा- विज्ञानगमित अतएव त्रिगुणभावापन्न – – महान् बचजाते हैं । उस अक्षर की व्यप्ति — महान् तक है । अतएव — ‘ महद्ब्रह्म कमक्षरम् -बहुब्रह्म कमक्षरम् ‘ यह कहा जाता है । यही कठका परार्ध्य भाग है । नीचे का अपरार्ध्य भाग है । परार्ध्यभाग अक्षरप्रधान होने से अमृत है । अवरार्ध्य भाग क्षरप्रधान होने से मर्त्य है । पूर्व का प्रपञ्च- अवरार्ध्य का निरूपण करता है । एवं ‘ अदृष्टं ‘ इत्यादि उत्तर का प्रपञ्च – – परार्ध्य अमृत भाग का — – ( अक्षरको प्रधान मानकर ) निरूपण करता है–
पर और अपर ब्रह्म का चित्रगत निरूपण –
अदृष्टम्, अव्यवहार्यम् , अग्राह्यम् , अलक्षणम् , अचिन्त्यम् , अव्यपदेश्यम् – इतने विशेषण – परब्रह्म के अक्षर माग का निरूपण करते हैं ।
‘ एकात्मप्रत्ययसारम् ‘ यह अव्यय का निरूपण करता है । प्रपञ्चोपशमं – यह प्रात्मक्षर का निरूपणकरता है । ‘ शान्तम् ‘ यह ‘ अव्ययात्मा ‘ का निरूपण करता है एवं– ‘ शिवम् ‘यह चौथे महान् का निरूपण करता है । अद्वैतम् — सब ब्रह्मों का एकाक्षरदृष्टयाअभेद बतलाता है । वह अक्षर ग्रदृष्ट है , देखा नहीं जासकता । चक्षुषा – अग्राह्यम् हीअदृष्टम् है । मुण्डक ने जिस भाव के लिए ‘ अद्वेश्यम् ‘ कहा है — उसी के लिए यहाँ’ अदृष्टम् ‘ कहा है । वाक् , प्राण , चक्षु , श्रोत्र मन इन पाँचों बाह्यकरणों का उपलक्षणचक्षु है । वह अक्षर बहिष्करणशून्य है । हमारी कोई भी बहिरिन्द्रिय-( ज्ञानेन्द्रिय –कर्मेन्द्रिय ) वहाँ नहीं जा सकती । इन्द्रियों की दौड़ स्वप्नावस्थातक है । स्वप्न से परे सुषुप्ति है । सुषुप्ति से परे प्रज्ञान है । यहाँ प्रतिष्ठिततुरीय अक्षरपर –इन्द्रियाँ कैसे जा सकती हैं ? वह अग्राह्य है । अर्थात् मन – बुद्धिचित्त – अहंकार इन चारों अन्तःकरणों से शून्य है । मन प्रज्ञान है । बुद्धि विज्ञान है ।चित्त सत्य है । ग्रहं महान है । अक्षर इनसे बाहर है । वह अगोत्र है- अर्थात्निःशब्द है – अनिर्वचनीय है । स्वयमपि अलक्षण है । अर्थात् स्वयं भी ज्ञानकर्मेन्द्रियविकल है । न वहाँ इन्द्रियाँ जाती हैं -न वह स्वयं इन्द्रियाँ रखता हैमुण्डकोक्त — ‘ ग्रगोत्रम् ‘ के स्थान पर यहाँ — ‘ अव्यवहार्यम् है ।
अव्यय नित्य है — विभु है- सर्वगत है – सुसूक्ष्म है- अतएव अचिन्त्य है औरअव्यपदेश्य है । प्रसीमभाव , अचिन्त्य और अव्यपदेश्य ही होता है । ‘ अविभक्तंविभक्तेषु ‘ के अनुसार महदादि सारे खण्डात्माओं में वह एकरूप से व्याप्त है ।
स्वयम्भू – परमेष्ठी- सूर्य्य – चन्द्र पृथिवी- यही प्रपञ्च है । इनका उपादनआत्मक्षर है । इसी से पाँचों उत्पन्न होते हैं । इसी में लीन होते हैं , अतएव हमइस आत्मक्षर को प्रपञ्चोपशम कहने के लिए तय्यार हैं । मुण्डकोक्त ‘ भूतयोनिम् ‘के स्थान में यहाँ ‘ प्रपञ्चोपशमम् ‘ कहा है ।
अव्यक्त स्वयम्भू शान्त है । इसीलिए तो – ‘ यच्छेद् वाङ्मनसी प्राज्ञः ‘ मेंअव्यक्तात्मा के लिए —’तद्यच्छेच्छान्त प्रात्मनि ‘ कहा है ।
स्वयम्भू सत्य है । छःहों रजों या लोकों से अलग है । वे छःहों लोकचल हैं एवं अचल हैं । छनों का अधिष्ठाता – सत्य स्वयम्भू शान्त है ।
महान् शिव है । रोदसी प्राण आग्नेय होने से जैसे रुद्र कहलाता है ,एवमेव पारमेष्ठ्य – प्राण सोममय होने से साम्ब सदाशिव कहलाता है । पारमेष्ठ्यभाग ही महान् है , अतः हम इसे ‘ शिव ‘ कहने के लिए तय्यार हैं । इस
महद्भाव के कारण शिवरूप महानात्मा को – ‘ महादेव ‘ कहा जाता है । इस महान् की व्याप्ति विज्ञान में है तथा प्रज्ञान में है । प्रज्ञानगत अक्षर की प्रतिष्ठा भी महत् सोम ही है एवं विज्ञानगत अक्षर की प्रतिष्ठा भी महत् सोम ही है । क्यों कि बिना महान् केचित् प्रतिष्ठित नहीं हो सकता । सम्भव है- अव्यय अक्षर क्षर – ग्रव्यक्त – महान् इतने भेद देख कर कोई अनेक प्रात्मा समझ बैठें इसके लिए श्रुति को ‘ म् ‘ कहना पड़ा है । एक ही तत्त्व का अमृत रूप से इतने भावों में भान है । भान अनेक है । परन्तु सत्ता एक है , अत : – ‘ एकात्म प्रत्ययसारस्वरूप अद्वैत में कोई बाधा नहीं है ।
अव्ययाक्षरात्मक्षर शान्त शिव सबको मिला कर एक आत्मा है । यह तुरीय है । श्रुतिगत ‘ तुरीय ‘ शब्द में भी बडा रहस्य है । वैश्वानर – तैजस – प्राज्ञ तीनों प्रज्ञान ब्रह्म के तीन पाद हैं । चौथा स्वयं प्रज्ञानाक्षर है । उसी पर प्रधान लक्ष्य है । इसलिए भी ‘ तुरीयम् ‘ कहा है । एवं सृष्टिधाराक्रम में अव्यय , अक्षर आत्मक्षर – शान्तगर्भित महान् इस क्रम से महान् चौथा पड़ता है । महदक्षर इस क्रम में चौथा है- इसलिए भी अक्षर तुरीय है । वैश्वानर पृथिवी की वस्तु है । तैजस अन्तरिक्ष की वस्तु है । प्राज्ञ द्युलोक की वस्तु है । ‘ अस्ति वै चतुर्थोदेवलोक आप: ‘ के अनुसार- चौथा पारमेष्ठ्य लोक है— यही महान् है । इस लोक व्यवस्था अनुसार भी महदक्षर चौथा पड़ता है । जाग्रत् स्वप्न- सुषुप्ति तीनों से वह अक्षरावस्था चौथी है- इस व्यवस्थानुसार भी महदक्षर चौथा पड़ता है । मर्त्यभाग तीन अवयव वाला है । अमृताक्षर एक है । इस अमृतमर्त्यापेक्षया भी अमृताक्षर चौथा है । बस , इसी विज्ञान को लक्ष्य में रख कर श्रुति ने- ‘ तुरीयम् ‘ कहा है । नीचे लिखी तालिकाओं से अब तक का सारा विषय स्पष्ट हो जाता है—
मुण्डक के अनुसार विशेषण १ अद्रेश्यम् माण्डूक्य अदृष्टम् के अनुसार ।
१ अद्रेश्यम् (अदृश्यम्?) = चक्षुषा अग्राह्यम् ( वाक् प्राण चक्षुः श्रोत्र मन अतीतम् = बहिष्करणशून्यम् ) |
२ अगोत्रम् = अव्यवहार्य्यम् अनिर्वचनीयम् भूतमात्राशून्यम् ।
३ अग्राह्यम् =अग्राह्यम् = ( मन – बु ० चित्त ० ग्रहंकारात्मकान्तःकरणशून्यम् ) ।
४ अचक्षुःश्रोत्रम् अपाणिपादम् अलक्षणम् ( निर्धर्मकम् – ज्ञान कर्म्मेन्द्रियविकलम् – प्रज्ञाप्राणमात्राशून्यम् ) ।
५ सूक्ष्मम् नित्यम् अचिन्त्यम् नित्यत्व , विभुत्व , सर्वगतत्व , सुसूक्ष्मत्वादिमत्वेन अविज्ञेयं मनसातीतम् ।
६ विभुम् = प्रव्यपदेश्यम् अनिर्वचनीयम् ।
७ सर्वगतम् = एकात्मप्रत्ययसारम् विभुधर्मेण खण्डात्मप्रपंचेषु – प्रविभक्त रूपेण व्याप्तम् ।
८ भूतयोनिम् – प्रपञ्चोपशमम् – स्व ० पर ० स ० च ० प्त ० इत्येतेषां प्रभव प्रतिष्ठापरायणम् ।
९ शान्तम् = भूः भुवः स्वः , महः जनः तपः इतिषड् रजांसि । तदतीतत्वात् शान्तम् ।
१० शिवम् = पारमेष्ठघसोमसम्बन्धेन शिवरूपम् ।
आत्माओं के अनुसार वर्गीकरण ।
शान्त – शिव यह क्रम है । परन्तु यहाँ ऋषि ने अक्षर – प्रव्यय – क्षर शान्त , शिवयह क्रम रक्खा है । कारण इसका यही है कि इस सारे प्रपञ्च का मूल कारणअक्षर ही है । यदि अक्षर न होगा तो ज्ञानमय , अतएव अविकुर्वाण अव्यय भीकुछ नहीं कर सकता । अर्थमय विकुर्वाण क्षर भी कुछ नहीं कर सकता । साराप्रपञ्च कुर्वाण अक्षर पर ही प्रतिष्ठित है । यह मुण्डकोपनिषत् में विस्तार केसाथ बतलाया जा चुका है । अपिच उपनिषत् जीवका निरूपण करता है । जीवकापराप्रकृतिरूप अक्षर से सम्बन्ध है । इसलिए भी यहाँ अक्षर का ही प्रथमउल्लेख है । प्रकरण के प्रारम्भ में ही , हम कह आए हैं कि इस उपनिषत् काप्रधान ब्रह्म – प्रज्ञान ब्रह्म है । तद्गत अक्षर ही इसका तुरीय भाग है । इसीलिएपारमेष्ठय भाग के लिए ‘ महान् ‘ न कह कर ‘ शिव कहा है । यदि महान् कहाजाता तो उसी का महान् होता । परन्तु यहाँ उस महदक्षर का ग्रहण अभीप्सितहै जो कि विज्ञान में आता हुआ – प्रज्ञान में प्रतिष्ठित होता है । उसका ग्रहण शिवशब्द से हो सकता है । महान् भी शिव है । प्रज्ञान भी शिव है । विज्ञान भी शिवहै । महान् शिव – महान् नाम से प्रसिद्ध है । विज्ञान शिव विज्ञान से प्रसिद्ध हैएवं प्रज्ञान शिव – शिव नाम से प्रसिद्ध है । अग्नि तत्त्व का नाम रुद्र है । वहअग्नि चिन्मय सोम से मिल कर शिव बन जाता है । अग्नि और सोम उसके दोशरीर हैं । अग्निप्रधानतया वही अक्षर तत्त्व- रुद्र बन जाता है । सोम – सम्बन्ध सेवही तत्त्व बन जाता है । परमष्ठी में सोम है , अतएव वहाँ का अंगिराप्राण अक्षरयुक्त हो कर शिव बन जाता है । पूर्व में हमने क्षर को प्रपञ्चोपशम कहा है ।अव्यक्त को शान्त कहा है । महान् को शिव कहा है । अब इन तीनों को क्रमशः -महान् – विज्ञान – प्रज्ञान का वाचक समझिए । महदक्षर पर सृष्टि क्रम समाप्त है !मैथुनीसृष्टि का प्रभव प्रतिष्ठा – परायण महदक्षर है , अतएव सृष्ट्यपेक्षया हमइसे प्रपञ्चोपशम कहेंगे । पारमेष्ठ्य अंगिराप्राण आग्नेय है । यह अग्नि सोमयुक्तहोने से शिव है । परन्तु कैसा शिव ? प्रञ्चोपशम शिव । सारा प्रबन्ध इसी शिवमें शान्त होता है । महान् के नीचे विज्ञान है । विज्ञान सूर्य्य है- आदित्य है ।अग्नि है । इसमें भी निरन्तर सोमाहुति होती रहती है , अतएव सूर्य्य रूप विज्ञानके लिए- ‘ सूर्य्यो हवा अग्निहोत्रम् ‘ ये कह जाता है । सोम सम्बन्ध से आदित्यरूपविज्ञान भी शिव है । प्रपञ्चोपशम से भेद करने के लिए ऋषि ने इसके- ‘ शान्तम् ‘कहा है । मैथुनीसृष्टि महदक्षर पर शम भाव को प्राप्त होती है । परन्तु रोदसीब्रह्माण्ड की प्रथम प्रतिष्ठा सूर्य्य ही है । हम सब की मृत्यु सूर्य्य है । जीवन भीयही है । संवत्सरादि कालरूप में परिणत हो कर यही सूर्य्य रूप को उत्पन्न करताहै । यहीं सब शान्त हो जाते हैं । इसी काल पुरुष के लिए
‘ काल : सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः ‘ – यह कहा जाता है । तीसरा हैप्रज्ञान शिव । इसके लिए ऋषि ने ‘ शिव ‘ ही कहा है । विज्ञान शिव अपरामुक्तिका अधिष्ठाता है । महदक्षर शिव परामुक्ति का अधिष्ठाता है । प्रज्ञान शिव मुक्तिका साधक होते हुए भी जीवन का रक्षक है । जब तक प्रज्ञान है , तब तक प्राज्ञतैजस – वैश्वानर रूप भोक्तात्मा है । तभी तक जीवन है । जीवन दशा में प्रज्ञानशिव की आराधना अधिक हितकारी है । क्यों कि विज्ञान महान् की अपेक्षा वहनिकट भी पड़ता है एवं जीवन का भी कारण है । जीवनहेतुभूत होने से हीयहाँ उसे शिव कहा है । शिव के बाद शान्त विज्ञान है । शान्त के बाद प्रपञ्चोपशम महदक्षर है । तीनों कहने को तीन हैं – वस्तुतः तीनों एक तत्त्व है ।भेदबुद्धया उपासना करना बन्धन का कारण है । इसलिए आगे जा कर ऋषि को’ अद्वैतम् ‘ कहना पड़ा है । प्रज्ञानोङ्कार की आराधना को प्रधान मानने वालेवैज्ञानिक ऋषि इस शिव को ( प्रज्ञानाक्षर को ) ही चतुर्थ मानते हैं । क्यों किवैश्वानर – तैजस – प्राज्ञ – इन तीनों का तुरीय प्रज्ञान शिव ही हो सकता है । इसलिएउप – संहार में ऋषि ने ‘ शिव ‘ को रक्खा है- एवं ‘ शिवमद्वैतं चतुयं मन्यन्ते ‘ से तुरीयका इसी के साथ सम्बन्ध माना है । यह प्रज्ञान शिव ललाट प्रदेश में रहता है ।शिव विश्वपति की यह आवासभूमि – उपनिषदों में वाराणसी ( काशी ) नाम सेप्रसिद्ध है । मस्तक सहस्रदल कमल है । इसके मध्य में अपनी शक्ति के साथशिव विराजमान है । प्रज्ञान इन्द्र रूप है । अग्निषोम , सम्बन्ध से यही त्रिनेत्रकहलाने लगते हैं । सोम चन्द्रमा है- यही प्राज्ञ है । अग्नि पार्थिव भाग है वहीवैश्वानर है । सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुख तैजस का सप्ताङ्ग एकोनविंशति मुखइसी वैश्वानर में अन्तर्भाव है । आदित्य भाग स्वयं प्रज्ञान है । वैश्वानर प्राज्ञआदित्य तीनों क्रमश : – अग्नि – चन्द्र – सूर्य्य हैं । इन्हीं तीन नेत्रों से वह अध्यात्मअधिदैवत का द्रष्टा ( उपद्रष्टा ) बन रहा है । सोमभाग सौरतेज सम्बन्ध से हेमवर्णन बन रहा है । वही सोम हैमवती उमा है । जिसका कि केनोपनिषत् में बडेविस्तार के साथ निरूपण कर दिया गया है । हैमवती उमा चिरशक्ति है । वहीआदि माया है । यह पुरुष शिव के साथ नित्य प्रतिष्ठित है । उस शिव को प्राप्तकरने के लिए इसी शक्ति का सहारा लेना आवश्यक है । शक्ति बने बिना शिवप्राप्त करना नितान्त असम्भव है । मायी बने बिना महेश्वर की आराधना सर्वथानिष्फल है ।
( ८ )
प्रज्ञान विशिष्ट अक्षर देवतारूप है- वह उपास्य है । क्यों कि ‘ उपासना ‘ विशिष्ट की ही हो सकती है । प्रज्ञानोपहित शुद्ध अक्षर असली तत्त्व है । वह केवल ध्यानयोग से ज्ञेयमात्र है – यह है परब्रह्म का प्रज्ञान द्वारा संक्षिप्त निरूपण । इस सगुणब्रह्माक्षर की उपासना कैसे की जाए ? बस , आगे के प्रकरण
से एकमात्र इसी प्रश्न का उत्तर दिया जाता है । ‘ शाब्दे ब्रह्मरिण निष्णातः परंब्रह्माधिगच्छति ‘ के अनुसार शब्दब्रह्म की उपासना ही उसे जानने का उपाय है । जैसी स्थिति परब्रह्म की है वैसी हो स्थिति शब्दब्रह्म की है । शब्दब्रह्म – ओंकार है । इसे साधन बनाओ – परब्रह्म को लक्ष्य बनाओ । इस उपासना का विस्तृत
विवेचन-
‘ प्रणवोधनु : शरोह्यात्मा ‘ – इत्यादि रूप से पूर्व के उपनिषत् में बड़े विस्तारके साथ किया जा चुका है , अतः यहाँ इस विषय में अधिक न कह कर केवलशब्दार्थ मात्र बतला कर इस प्रकरण को समाप्त करते हैं ।
आत्मा ही शब्दब्रह्म है । आत्मा ही परब्रह्म है । एक ही ब्रह्म के शब्द प्रौरपर दो विवर्त्त हैं । इन दोनों के स्वरूपज्ञान के लिए ऋषि ने दोनों के नामभिन्न – भिन्न मान रक्खे हैं । शब्दब्रह्म भी आत्मा है । दोनों ही चतुष्पात् है । दोनोंपरमार्थतः ( ज्ञानकाण्ड में ) एक वस्तु है । दोनों का अभेद मानने से – उपासनाहट जाती है । उपासना हेतुभाव से सम्बन्ध रखती है । अद्वैत में उपासना नहींहै । वहाँ केवल ज्ञानमात्र है , अतएव पूर्व के आत्मा के लिए ( जो कि शब्द परभेद शून्य है – एकरूप है ) ‘ शिवमद्वैतं चतुर्थ ‘ मन्यन्ते- स ात्मा सविज्ञेयः – यह कहाहै । परन्तु जब उपासना पर लक्ष्य जाता है तो उसी पूर्वोक्त चतुष्पात् आत्मब्रह्म केपर और शब्द दो भेद मानने पड़ते हैं । बस , यहाँ से – उपासनाप्रधान इन्हींदोनों का निरूपण है । तद्द्वारा उपासना ओंकार , उपासना के फल का आदेश है ।
वही आत्मा – उपास्य कोटि में जाता हुआा – ‘ अध्यक्षरम् ‘ नाम से व्यवहृत होता है ।अक्षर को लक्ष्य बना कर ( अक्षरमधिकृत्य वर्ण्यमान : – उपास्यात्मा अध्यक्षरम् )उपास्य आत्मा – अक्षर नाम से प्रसिद्ध होता है एवं उपासनासाधनभूत शब्दप्रधान वही आत्मा ‘ कार ‘ नाम से प्रसिद्ध होता है । यह चूँकि मात्रा को लक्ष्यबना कर प्रवृत्त होता है , अतएव यह अधिमात्र है । इस ओंकार उपासना – काण्ड मेंउस एक ही के अध्यक्षर , ओंकार अधिमात्र दो भेद हो जाते हैं । अध्यक्षरउपास्य है । अधिमात्र ओंकारसाधन है । अर्थात् परात्मा – उपनिषदों में ‘ अक्षर ‘नाम से व्यवहृत होता है । इसका उपनिषत् जब वर्णन करेगा – ‘ अद्रेश्यम् ‘इत्यादिरूप से वर्णन करेगा । उसे अनुपास्य और केवल ज्ञेय बतलाएगा एवंशब्दात्मा उपनिषत् में- ‘ ओम् ‘ नाम से प्रसिद्ध है । इसका जब भी उपनिषत् वर्णनकरेगा- ‘ प्रोमित्येवं ध्यायथ प्रात्मानम् ‘ इत्यादि रूप से वर्णन करेगा । इसे उपासनाका साधक बतलाएगा । अक्षरात्मा वाच्य है । ओम् वाचक है , प्रतएव – ‘ तस्यवाचकः ‘ प्रणवः ‘ कहा जाता है । वाचक शब्द है – वही ओंकार है । यही शब्दब्रह्म है । वाच्य अर्थ है । वही अक्षर है । यही परब्रह्म है । वाच्य अक्षरब्रह्मके चारों भाग – ‘ पाद नाम से व्यवहृत होते हैं एवं वाचक शब्द ब्रह्म के चारोंभाग – मात्राशब्द से व्यवहृत होते हैं । शब्द – ब्रह्म के चारों पाद – मात्रा हैं । अर्थब्रह्म की चारों मात्राएँ -पाद हैं । दोनों चूंकि परमार्थत : – अभिन्न है , अतः जोओम्- इस शब्द की मात्रा है – वही इसके पाद हैं । पाद – ही मात्रा है । व्यवहार केलिए – अक्षर ओम्- की तरह पाद – मात्र शब्द नियत हैं , इसी अभिप्राय से कहते हैं —
‘ सोऽयमात्मा ( पूर्वोक्तः – अद्वयः – शब्दपरभेदादभिन्न – आत्मा ) – अध्यक्षरम् ,ओंकारोऽधिमात्रम् | पादाः , मात्राः ‘ ।
इनमें अक्षर के चारों पाद बतला दिए गए । अब बाकी बचता है- अधिमात्र= ‘ ओम् ‘ ।। इसकी तीन मात्रा इसके तीन पाद है । वे तीनों अ – उ – म – नाम सेप्रसिद्ध हैं । कहने को भेद है- परमार्थतः अभेद हैं इस बात को सूचित करने केलिए ऋषि – ‘ मात्राश्च – कह कर साथ ही में ‘ पादाः ‘ बोल देते हैं । ओंकार कीतीनों मात्राओं को विजातीय मत समझो अभी तो अक्षर के जो तीन पाद हैं – वहीअ- उ – म हैं । ‘ पर ‘ ही ‘ शब्द ‘ बना है – यही तात्पर्य है । इसी अभिप्राय से कहते है
मात्राश्च पादा – अकार उकार मकार इति ‘ ।
सोऽयमात्माऽध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति ॥८ ॥
तीनों मात्राओं को क्रमश : – वैश्वानर – तैजस – प्राज्ञ नाम से प्रसिद्ध अक्षर केतीनों पादों से मिलाते जाइए । जागरित स्थान सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुख बहिःप्रज्ञवैश्वानर- ‘ अ ‘ नाम से प्रसिद्ध पहली मात्रा है । वर्ण – सृष्टि का मूल अकार है ।’ अकारो वैसर्वावाक् – सैषा स्पर्शोष्मभिर्व्यज्यमाना बह्वी नानारूपा भवति ‘ के अनुसारएक अकार ही सारा वाक् – प्रपञ्च है । अकार ही तालुस्थान में जाकर ‘ इ ‘ बनजाता है । ओष्ठस्थान में जा कर ‘ उ ‘ बन जाता है । दन्त मुर्द्धास्थान में जा कर’ ऋ ‘ ‘ लृ ‘ बन जाता है । स्पर्श से ( स्थान करण के संयोग से ) अ , क बन जाता है ।इ , य बन जाता है । उ , व बन जाता है । महाप्राण से क , ख बन जाता है ।यह निदर्शन मात्र है । केवल स्पर्श उष्मा के तारतम्य से अकार सारा वाक् बनाहै । ‘ ‘ अक्षर का रूप है । पहली मात्रा है , अतएव – ‘ अक्षराणामकारोऽस्मि ‘कहा जाता है । असारे वाक् प्रपञ्च का मूल है । अक्षर में ‘ र ‘ कोई वस्तु नहींहै । अ – क्ष – असली है , अतएव माला को ‘ अक्ष ‘ कहा जाता है । अ से क्ष तक हीप्रसली वर्णमाला है । र मध्य पतित है । अ – क्ष – अ इस क्रम से उपक्रमोपसंहार मेंस्वर है । मध्य में व्यञ्जन है । भगवान् पारिणनि का सूत्र इसी विद्या काप्रतिपादन करता है । सारा वाक् – प्रपञ्च , अ – उपक्रम है । अ – निधन है । ‘ अ ‘ यहवाक् है । वाक् एक ‘ अ ‘ अक्षर है , अतएव ‘ वागित्येकमक्षरम् ‘ कहा जाता है ।वाक् अग्नि है । यही आदि में है । अन्त में भी यही है । यह शब्दाग्निरूप वाक् उसी वैश्वानराग्नि से उद्बुद्ध है । शरीर-अग्नि वैश्वानर है। ‘अग्निर्वाग्भूत्वा मुखे प्राविशत् ‘ के अनुसार वही अग्नि – वायु से धक्का खा कर उरकण्ठ मूर्खा में जा कर मुख में आता हुआ क – च – ट – त – प आदिरूप में परिणत होता है । जैसा किनिम्नलिखित शिक्षा – श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है —
आत्मा बुद्धया समेत्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया
मनः कायाग्निमाहत्य स प्रेरयति मारुतम् । मारुतस्तूरसि चरन् ।।
यथार्थ है । जो मनुष्य आवश्यकता से अधिक बोलता है वह थक जाता है ।उसका सारा शरीर गरम हो जाता हैं । अग्नि ही शरीर का बल है । वह चूंकिशब्द – निर्माण में आवश्यकता से अधिक खर्च हो जाता है , प्रतएव थकान होतीहै । इस प्रकार उपक्रमवाक् – प्रपञ्च की और वैश्वानर अग्नि की अभेदता भलीभाँति सिद्ध हो जाती है । वैश्वानराग्नि उपक्रम में है । वही वागग्नि ब्रह्माग्निरूपसे उपसंहार में है । जैसा कि पूर्व की तालिकाओं से स्पष्ट हो जाता है । उधर अ – से वाक् प्रारम्भ होती है । यहीं पर समाप्त होती है । ऐसी अवस्था में अ को और वैश्वानर को एक वस्तु मानने के लिए तैयार हैं । अ वैश्वानर है । यह
पूर्वकथनानुसार जागरितस्थान है । वैश्वानरांशमात्र में अ समान है । सप्ता ०एको ० बहिष्प्रज्ञता वाक् – प्रपञ्च में प्रत्यक्षरूप से अनुपपन्न है , अतः ऋषि नेइन भावों को छोड़ दिया है । अ – रूप वैश्वानर शब्द का पहला वर्ण है – आदिहै । ‘ आप्लृव्याप्ती ‘ धातुका पहला है , अतएव इस अ – रूप वैश्वानर को हमआदिम भी कह सकते हैं । जिसने अ को पहचान लिया , वह वाक् – प्रपञ्च के सारेस्वरूप को पहचान गया । इसलिए ऋषि ने अ- की ‘ आप्लृव्याप्तौ ‘ धातु से निष्पन्नप्राप्ति का अकार माना है । बस , जो प्राप्ति के आदिभूत इस अ मात्रा कीवैश्वानररूप से उपासना करता है । अर्थात् अ को साधन मान कर अक्षर केप्रथमपादभूत – वैश्वानर की उपासना करता है वह सारी पार्थिव कामनाओं कोप्राप्त हो जाता है । एवं सारे प्रारिगसमाज में यह आदि ( मुख्य- पहला – अग्रणी )हो जाता है । ‘ अ के द्वारा वैश्वानर की उपासना करो ‘ यही निष्कर्ष है । सारापार्थिव ब्रह्माण्ड आप्तिरूप है । उसका पहला भाग वैश्वानर है । प्राप्ति कापहला अक्षर – ‘ ‘ है । इसी शब्दार्थ की अभिन्नता को लक्ष्य में रखकर इसवैश्वानर को- ‘ ‘ कहा है ॥ ९ ॥
जागरित स्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽऽप्तेरादिमत्त्वाद्वाप्नोति ह वै सर्वान् कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥९ ॥
स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीयामात्रोत्कर्षादुभयत्वा द्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसन्ततिसमानश्च भवति नास्याब्रह्मवित्कुलेभवति य एवं वेद ॥ १० ॥
स्वप्नस्थान – तैजस उकार है । यह द्वितीया मात्रा है । वैश्वानर अपान रूपहै । प्राज्ञ प्राण रूप है । मध्य पतित – वायव्य तैजस व्यान रूप है । वैश्वानर अर्थप्रधान होने से क्रिया – शून्य है । प्राज्ञ ज्ञान प्रधान होने से क्रिया शून्य है । मध्यपतित सदा गतिधर्मा व्यान रूप तैजस ही क्रिया शक्ति का अधिष्ठाता है । अर्थका उत्कर्ष भी क्रियाधीन है । यदि वायु – संचार न हो तो – धातुरूप वैश्वानरस्वस्वरूप से कभी पुष्ट न हो । बिना क्रिया के अन्न का परिपाक भी न हो ।तथा मन भी निर्बल है । मन के निर्बल रहने से ज्ञान निर्बल रहे । ऐसी अवस्थामें ज्ञान का उत्कर्ष भी इसी के द्वारा होता है । इसीलिए
” न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन ।
इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेताबुपाश्रितौ ॥ १
ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयति अपानं प्रत्यगस्यति ।
मध्ये वामनमासीनं विश्वेदेवा उपासते ” ॥ २
– इत्यादि रूप से मध्य पतित तैजस रूप व्यान को ही प्राणापानरूप वैश्वानर के उत्कर्ष का कारण बतलाया जाता है । तैजस उत्कर्ष का अधिष्ठाता है इसीलिए वृक्ष बढ़ते हैं । बालक छोटे से बड़ा होता है । गतिरूप तैजस नहीं तो कुछ नहीं है । वैश्वानर स्वतन्त्र है । उधर प्राज्ञ स्वतन्त्र है । परन्तु मध्यपतित तैजस का उभय स्थान से सम्बन्ध है । वह दोनों का सञ्चालन करता है । बस , इन्हीं गुणों के कारण हम तैजस को- ‘ उत्कर्ष ‘ ( रूप ) , ‘ उभय ‘ ( रूप ) कहने के लिए तय्यार हैं । उत्कर्ष का उ – अथवा उभय का उ उभय था । तैजस ‘ उ ‘ कार है । तैजस को उ इसलिए कहते हैं कि वह उत्कर्षशाली है – उभयानुग्राहक है । जो आत्मजिज्ञासु उत्कर्षशाली उभयानुग्राहकरूप अतएव – ‘ उ ‘ नाम से प्रसिद्ध इस तैजस की ओम् की उमात्रा को साधन बना कर उपासना करता है , वह विद्वान् दिन – दिन अपनी ज्ञान – संतति ( ज्ञानधारा ) बढ़ाता रहता है एवं जैसे तैजस – व्यान , प्राणापानरूप वैश्वानर प्राज्ञ का दोनों का अनुग्राहक होने से दोनों में समान है एवमेव यह शत्रु मित्र दोनों के लिए समान हो जाता है । वैश्वानर अर्थप्रधान है । प्राज्ञ ज्ञान प्रधान है । अर्थ आवरणरूप होने से तम है । ज्ञान प्रकाश है । तमः प्रकाश परन्तु तैजस का आश्रय परस्पर में अत्यन्त विरुद्ध हैं । दोनों में घोर शत्रुता है । दोनों लेते हैं । वही हालत इस उपासक की होती है । परस्पर में घोर शत्रुता रखने वाले मनुष्य भी इसकी शरण में आते हैं । यह सब के लिए तैजसवत् समान बन जाता है । सारा संसार इसका मित्र बन जाता है – यही निष्कर्ष है । ऐसे विद्वान् के वंश में कभी भी कोई भी मूर्ख नहीं होता । सब विद्वान् ही होते हैं । क्यों कि तैजसात्ममय ( तत्प्रधान ) शुक्र से सम्बन्ध रखने वाला सन्तान -सूत्र इसी वासना से युक्त रहता है अतः सात पीढ़ तक वही ब्रह्मोपासना – प्रविद्या की प्रतिबन्धिका बन जाती है । क्यों कि सन्तान – सूत्र -८४ पितरों के अवतार क्रम से ७ वीं पीढ़ी में समाप्त हो जाता है । उकार को लक्ष्य बना कर अक्षर के तैजस पाद की उपासना करो यही प्रदेश है ।। १० ।।
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१. कठ उप . २/२/५ । २. कठ उप . २/२/३ |
सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद || ११ ||
सुषुप्त स्थान प्राज्ञ मकार है । यही तीसरी मात्रा है । अर्थ प्रधान वैश्वानर ,क्रिया – प्रधान तैजस दोनों ही परिच्छिन्न हैं । परन्तु प्रज्ञान संपरिष्वक्त – अतएवप्रज्ञानघन ज्ञानमूर्ति प्राज्ञ अपरिच्छिन है । सारी क्रियाएँ – सारे अर्थ – ज्ञान समुद्रलीन है । ज्ञान में हाथी है तो ज्ञान उतना बड़ा है । तिल है जो तदाकाराकारित है । विश्व के सामने आने पर विश्वाकाराकारित है । इस प्रकार अणुसे अणुपदार्थ एवं महान् से महान् पदार्थ ज्ञान प्रज्ञान घनप्राज्ञ में आ कर तदाकाराकारित हो जाते हैं । सारे पदार्थ ज्ञान में आकर सीमित हो जाते हैं ।संसार में ऐसा कोई भी अर्थ नहीं है जिसकी सीमा ( हदबन्दी ) ज्ञान न कर देताहो चाहे फिर वह पदार्थ कितना ही बड़ा क्यों न हो ? ज्ञान में आते ही पदार्थसीमित हो जाते हैं , अतएव इस प्राज्ञ को हम विषयरूप वैश्वानर- क्रियारूपतैजस दोनों की ‘ मिति ‘ कह सकते हैं । ज्ञानमयी प्रज्ञा – सब की मिति है । मापकयन्त्र है । मितिभावापन्न होने के कारण ही हम इसे – ‘ म ‘ कह सकते हैं । अ – उ – मतीनों में म् हल् है । ओम् का मकार हल् ही अपेक्षित है अतः- और कोई मादिशब्द न रख कर अर्थानुकूल ‘ मिति ‘ शब्द रक्खा है । मिति में से ‘ म् ‘ का पृथक्करण सुगमता से हो सकता है । प्राज्ञ मकार है- इसका अर्थ यही है कि यहमितिधर्म्मा है । सबकी मिति करने वाला है । पत्र लिखे बाद अन्त में ‘ मिति ‘की जाती है । मिति समाप्ति का सूचक है । भोक्तात्मा की मिति ( समाप्ति )प्रज्ञा है । इसलिए यह मिति है । प्रचलित मिति शब्द का यही वैदिक मितिशब्दशब्दमूल है । अथवा अपीति – सम्बन्ध से भी इसे म कहा जा सकता है । ‘ ओम् ‘वैश्वानर का तैजस में लय होता है । तैजस का प्राज्ञ में लय होता है । उधरशब्द ब्रह्म में अवैश्वानर है । उ तैजस है । दोनों का अव्यय – ‘ म् ‘ पर है । ‘ ओम् ‘का उच्चारण करने पर अ – उ – म् में अपीत मिलते हैं । यही स्थिति परब्रह्म कीहै । वैश्वानर – तैजस – प्राज्ञ में प्रपीति है । इस सामान्यभाव के कारण अपीति रूप’ म ‘ इसका नाम हो जाता है । जो विधान प्राज्ञ के इस मितिविज्ञान एवं प्रीतिविज्ञान को जानता हुआ – म को साधक मान कर उस प्राज्ञ ब्रह्म की उपासनाकरता है वह सारे विश्व – वैभव को अपने प्रज्ञान से नाप लेता हैं एवं सब मेंअपीति हो जाता है । सारा वैभव इसके अधिकार में आ जाता है । म को सामनेरख कर प्राज्ञ की उपासना करो , यही निष्कर्ष है ।। ११ ।।
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैतएवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनात्मानं य एवं वेद य एवंवेद ॥ १२ ॥
बाकी बचता है , अक्षरयुक्त प्रज्ञान । वह पूर्वोक्त तीनों मात्राओं का अखण्डअमात्र प्राधार है । उसे तुरीय कहा है । मात्रा नहीं कहा है । वह अव्यवहार्य है ।प्रपञ्चोपशम शिव है – अद्वैत है – वही ओंकार है । विश्वास करो , यह शब्दब्रह्मरूप ओंकार उस उस परब्रह्म रूप आत्मतत्त्व से पृथक् नहीं है । म् अक्षरात्माएक वस्तु है । जो इस आत्म – विज्ञान को समझ जाता है – अद्वैत को जान जाताहै – वह अपने वैश्वानर तैजस – प्राज्ञरूप भोक्तात्मा के साथ – उसी अर्द्धमात्रारूपआत्मा में प्रविष्ट हो जाता है । द्वन्द्वातीत होता हुआ – ‘ न स पुनरावर्तते न सपुनरावर्त्तते का अधिकारी बन जाता है ।। १२ ।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
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