Mahabharata Gita Press Vol I Page 1-300 Webpage 2

।। श्रीहरिः ।।

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श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत

महाभारत (प्रथम खण्ड)

[आदिपर्व और सभापर्व]

(सचित्र, सरल हिंदी-अनुवाद)

त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव

त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।

न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा ।

वृद्धं मामभ्यसूरयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः ।। १४४ ।।

मेरे लिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंमें कोई भेद नहीं था। किंतु क्या करूं? मेरे पुत्रक्रोधके वशीभूत हो मुझपर ही दोषारोपण करते थे और मेरी बात नहीं मानते थे ।। १४४ ।।

अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात् पुत्रप्रीत्या सहामि तत् ।

मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम् ।। १४५ ।।

मैं अंधा हूँ, अतः कुछ दीनताके कारण और कुछ पुत्रोंके प्रति अधिक आसक्ति होनेसेभी वह सब अन्याय सहता आ रहा हूँ। मन्दबुद्धि दुर्योधन जब मोहवश दुःखी होता था, तबमैं भी उसके साथ दुःखी हो जाता था। १४५ ।।

राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः ।

तच्चावहसनं प्राप्य सभारोहणदर्शने ।। १४६ ।।

अमर्षणः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान् रणे।

निरुत्साहश्च सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोऽपि सन् ।। १४७ ।।

गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत् ।

तत्र यद् यद् यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु ।। १४८ ।।

राजसूय-यज्ञमें महापराक्रमी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरकी सर्वोपरि समृद्धि-सम्पत्ति देखकरतथा सभाभवनकी सीढ़ियोंपर चढ़ते और उस भवनको देखते समय भीमसेनके द्वाराउपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्षमें भर गया था । युद्धमें पाण्डवोंको हरानेकी शक्ति तोउसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्धके लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परंतुपाण्डवोंकी उस उत्तम सम्पत्तिको हथियानेके लिये उसने गान्धारराज शकुनिको साथ लेकरकपटपूर्ण द्यूत खेलनेका ही निश्चय किया। संजय! इस प्रकार जूआ खेलनेका निश्चय होजानेपर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुएमैंने समय-समयपर विजयकी आशाके विपरीत जो- जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ,सुनो-।। १४६-१४८ ।।श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः ।

ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत ।। १४९ ।।

सूतनन्दन! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनोंको सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैंकितना प्रज्ञाचक्षु हूँ ।। १४९ ।।

यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं

विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम् ।

कृष्णां हृतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञां

तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५० ।

संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुनने धनुषपर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया औरउसे धरतीपर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओंके सामने , जबकि वे टुकुर-टुकुर देखते हीरह गये, बलपूर्वक द्रौपदीको ले आया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। १५० ।।

यदाश्रौषं द्वारकारयां सुभद्रां

प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन ।

इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौ

तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५१ ।

संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुनने द्वारकामें मधुवंशकी राजकुमारी (और श्रीकृष्णकीबहिन) सुभद्राको बलपूर्वक हरण कर लिया और श्रीकृष्ण एवं बलराम ( इस घटनाकाविरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थमें आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं होसकती ।। १५१ ।।

यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टं

शरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन ।

अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च

तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५२ ।

जब मैंने सुना कि खाण्डवदाहके समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहतेथे और अर्जुनने उसे अपने दिव्य बाणोंसे रोक दिया तथा अग्निदेवको तृप्त किया, संजय!तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५२ ।।

यदाश्रौषं जातुषाद् वेश्मनस्तान्

मुक्तान् पार्थान् पञ्च कुन्त्या समेतान् ।

युक्तं चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ

तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५३ ॥

जब मैंने सुना कि लाक्षाभवनसे अपनी मातासहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयंविदुर उनकी स्वार्थसिद्धिके प्रयत्नमें तत्पर हैं, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दीथी ।। १५३ ।।

यदाश्रौषं द्रौपदीं रङ्गमध्ये लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन ।

शूरान् पञ्चालान् पाण्डवेयांश्च युक्तां-स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५४ ।।

जब मैंने सुना कि रंगभूमिमें लक्ष्यवेध करके अर्जुनने द्रौपदी प्राप्त कर ली है औरपांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं, संजय! उसी समय मैंने विजयकीआशा छोड़ दी ।। १५४ ।।

यदाश्रौषं मागधानां वरिष्ठं जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम् ।

दोभ्या हतं भीमसेनेन गत्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५५ ।।

जब मैंने सुना कि मगधराज-शिरोमणि, क्षत्रियजातिके जाज्वल्यमान रत्न जरासन्धकोभीमसेनने उसकी राजधानीमें जाकर बिना अस्त्र-शस्त्रके हाथोंसे ही चीर दिया। संजय! मेरीजीतकी आशा तो तभी टूट गयी ।। १५५ ।।

यदाश्रौषं दिग्विजये पाण्डुपुत्रै-र्वशीकृतान् भूमिपालान् प्रसह्य ।

महाक्रतुं राजसूयं कृतं चतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५६ ।।

जब मैंने सुना कि दिग्विजयके समय पाण्डवोंने बलपूर्वक बड़े-बड़े भूमिपतियोंकोअपने अधीन कर लिया और महायज्ञ राजसूय सम्पन्न कर दिया। संजय! तभी मैंने समझलिया कि मेरी विजयकी कोई आशा नहीं है ।। १५६ ।।

यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम् ।

रजस्वलां नाथवतीमनाथवत् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५७ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि दुःखिता द्रौपदी रजस्वलावस्थामें आँखोंमें आँसू भरे केवलएक वस्त्र पहने वीर पतियोंके रहते हुए भी अनाथके समान भरी सभामें घसीटकर लायीगयी है, तभी मैंने समझ लिया था कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५७ ।।

यदाश्रौषं वाससां तत्र राशिं समाक्षिपत् कितवो मन्दबुद्धिः ।

दुःशासनो गतवान् नैव चान्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५८ ।।

जब मैंने सुना कि धूर्त एवं मन्दबुद्धि दुःशासनने द्रौपदीका वस्त्र खींचा और वहाँवस्त्रोंका इतना ढेर लग गया कि वह उसका पार न पा सका; संजय! तभीसे मुझे विजयकीआशा नहीं रही ।। १५८ ।।

यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम् ।

अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयै-स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५९ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिरको जूएमें शकुनिने हरा दिया और उनकाराज्य छीन लिया, फिर भी उनके अतुल बलशाली धीर गम्भीर भाइयोंने युधिष्ठिरकाअनुगमन ही किया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १५९ ।।

यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टा धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय ।

ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६० ।।

जब मैंने सुना कि वनमें जाते समय धर्मात्मा पाण्डव धर्मराज युधिष्ठिरके प्रेमवश दुःखपा रहे थे और अपने हृदयका भाव प्रकाशित करनेके लिये विविध प्रकारकी चेष्टाएँ कर रहेथे; संजय! तभी मेरी विजयकी आशा नष्ट हो गयी ।। १६० ।।

यदाश्रौषं स्नातकानां सहस्रै-रन्वागतं धर्मराजं वनस्थम् ।

भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६१ ।।

जब मैंने सुना कि हजारों स्नातक वनवासी युधिष्ठिरके साथ रह रहे हैं और वे तथादूसरे महात्मा एवं ब्राह्मण उनसे भिक्षा प्राप्त करते हैं। संजय! तभी मैं विजयके सम्बन्धमेंनिराश हो गया ।। १६१ ।।

यदाश्रौषमर्जुनं देवदेवं किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे ।

अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्रं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६२ ॥

संजय! जब मैंने सुना कि किरातवेषधारी देवदेव त्रिलोचन महादेवको युद्धमें संतुष्टकरके अर्जुनने पाशुपत नामक महान् अस्त्र प्राप्त कर लिया है, तभी मेरी आशा निराशामेंपरिणत हो गयी ।। १६२ ।।

(यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान् समागतान् महर्षिभिः पुराणैः ।

उपास्यमानान् सगणैज्जातसख्यान् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।)

यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनञ्जयं शक्रात् साक्षाद् दिव्यमस्त्रं यथावत् ।

अधीयानं शंसितं सत्यसन्धं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६३ ।।

जब मैंने सुना कि वनवासमें भी कुन्तीपुत्रोंके पास पुरातन महर्षिगण पधारते औरउनसे मिलते हैं। उनके साथ उठते-बैठते और निवास करते हैं तथा सेवक-सम्बन्धियोंसहितपाण्डवोंके प्रति उनका मैत्रीभाव हो गया है। संजय! तभीसे मुझे अपने पक्षकी विजयकाविश्वास नहीं रह गया था। जब मैंने सुना कि सत्यसंध धनंजय अर्जुन स्वर्गमें गये हुए हैं औरवहाँ साक्षात् इन्द्रसे दिव्य अस्त्र-शस्त्रकी विधिपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और वहाँ उनकेपौरुष एवं ब्रह्मचर्य आदिकी प्रशंसा हो रही है, संजय! तभीसे मेरी युद्धमें विजयकी आशाजाती रही ।। १६३ ।।

यदाश्रौषं कालकेयास्ततस्ते पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ताः ।

देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६४ ।।

जबसे मैंने सुना कि वरदानके प्रभावसे घमंडके नशेमें चूर कालकेय तथा पौलोमनामके असुरोंको, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं जीत सकते थे, अर्जुनने बात-की-बातमेंपराजित कर दिया, तभीसे संजय! मैंने विजयकी आशा कभी नहीं की ।। १६४ ।।

यदाश्रौषमसुराणां वधार्थे किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम् ।

कृतार्थं चाप्यागतं शक्रलोकात् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६५ ।।

मैंने जब सुना कि शत्रुओंका संहार करनेवाले किरीटी अर्जुन असुरोंका वध करनेकेलिये गये थे और इन्द्रलोकसे अपना काम पूरा करके लौट आये हैं, संजय! तभी मैंने समझलिया-अब मेरी जीतकी कोई आशा नहीं ।। १६५ ।।

(यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं पाण्डोः सुतं सहितं लोमशेन ।

तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।)

यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं समागतं भीममन्यांश्च पार्थान् ।

तस्मिन् देशे मानुषाणामगम्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६६ ॥

जब मैंने सुना कि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर महर्षि लोमशजीके साथ तीर्थयात्रा कर रहे हैं।और लोमशजीके मुखसे ही उन्होंने यह भी सुना है कि स्वर्गमें अर्जुनको अभीष्ट वस्तु (दिव्यास्त्र)-की प्राप्ति हो गयी है, संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा ही छोड़ दी। जब मैंनेसुना कि भीमसेन तथा दूसरे भाई उस देशमें जाकर, जहाँ मनुष्योंकी गति नहीं है, कुबेरकेसाथ मेल-मिलाप कर आये, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। १६६ ।

यदाश्रौषं घोषयात्रागतानां बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेनस्वेषां।

सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६७ ।।

जब मैंने सुना कि कर्णकी बुद्धिपर विश्वास करके चलनेवाले मेरे पुत्र घोषयात्राकेनिमित्त गये और गन्धर्वोके हाथ बन्दी बन गये और अर्जुनने उन्हें उनके हाथसे छुड़ाया। संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १६७ ।।

यदाश्रौषं यक्षरूपेण धर्म समागतं धर्मराजेन सूत ।

प्रश्नान् कांश्चिद् विब्रुवाणं च सम्यक् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६८ ।।

सूत संजय! जब मैंने युधिष्ठिरने उनके द्वारा किये गये गूढ़ प्रश्नोंका ठीक-ठीक समाधान कर दिया, तभी विजयके सम्बन्धमें मेरी आशा टूट गयी ।। १६८ ।।

यदाश्रौषं न विदुर्मामकास्तान् प्रच्छन्नरूपान् वसतः पाण्डवेयान् ।

विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६९ ॥

संजय! विराटकी राजधानीमें गुप्तरूपसे द्रौपदीके साथ पाँचों पाण्डव निवास कर रहेथे, परंतु मेरे पुत्र और उनके सहायक इस बातका पता नहीं लगा सके; जब मैंने यह बात सुनी, मुझे यह निश्चय हो गया कि मेरी विजय सम्भव नहीं है ।। १६९ ।।

(यदाश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम् ।

द्रौपद्यर्थं भीमसेनेन संख्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।)

यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान् सुना कि धर्मराज यक्षका रूप धारण करके युधिष्ठिरसे मिले औरधनञ्जयेनैकरथेन भग्नान् ।

विराटराष्ट्रे वसता महात्मना तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७० ॥

संजय! जब मैंने लिये कीचकोंके सर्वश्रेष्ठ वीरको उसके सौ भाइयोंसहित युद्धमें मार डाला था, तभीसे मुझे विजयकी बिलकुल आशा नहीं रह गयी थी। संजय! जब मैंने सुना कि विराटकी राजधानीमें रहते समय महात्मा धनंजयने एकमात्र रथकी सहायतासे हमारे सभी श्रेष्ठ महारथियोंको (जो गो-हरणके लिये पूर्ण तैयारीके साथ वहाँ गये थे) मार भगाया, तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७० ।।

यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय ।

तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात् सुतार्थे तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७१ ।।

जिस दिन मैंने यह बात सुनी कि मत्स्यराज विराटने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री उत्तराको अर्जुनके हाथ अर्पित कर दिया, परंतु अर्जुनने अपने लिये नहीं, अपने पुत्रके लिये उसे स्वीकार किया, संजय! उसी दिनसे मैं विजयकी आशा नहीं करता था ।। १७१ ।।

यदाश्रौषं निर्जितस्याधनस्य प्रव्राजितस्य स्वजनात् प्रच्युतस्य । अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्य तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७२ ।।

संजय! युधिष्ठिर जूएमें पराजित हैं, निर्धन हैं, घरसे निकाले हुए हैं और अपने सगे- सम्बन्धियोंसे बिछुड़े हुए हैं। फिर भी जब मैंने सुना कि उनके पास सात अक्षौहिणी सेना एकत्र हो चुकी है, तभी विजयके लिये मेरे मनमें जो आशा थी, उसपर पानी फिर सुना कि भीमसेनने द्रौपदीके प्रति किये हुए अपराधका बदला लेनेके गया ।। १७२ ।।

यदाश्रौषं माधवं वासुदेवं सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम् ।

यस्येमां गां विक्रममेकमाहु- स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७३ ।।

(वामनावतारके समय) यह सम्पूर्ण पृथ्वी जिनके एक डगमें ही आ गयी बतायी जाती है, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण पूरे हृदयसे पाण्डवोंकी कार्यसिद्धिके लिये तत्पर हैं, जब यह बात मैंने सुनी, संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७३ ।।

यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य ।

अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक् तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७४ ।।

जब देवर्षि नारदके मुखसे मैंने यह बात सुनी कि श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात् नर औरनारायण हैं और इन्हें मैंने ब्रह्मलोकमें भलीभाँति देखा है, तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़दी ।। १७४ ।।

यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम् ।

शमं कुर्वाणमकृतार्थं च यातं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७५ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण लोककल्याणके लिये शान्तिकीइच्छासे आये हुए हैं और कौरव-पाण्डवोंमें शान्ति-सन्धि करवाना चाहते हैं, परंतु वे अपनेप्रयासमें असफल होकर लौट गये, तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७५ ।।

यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां बुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य ।

तं चात्मानं बहुधा दर्शयानं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७६ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि कर्ण और दुर्योधन दोनोंने यह सलाह की है कि श्रीकृष्णकोकैद कर लिया जाय और श्रीकृष्णने अपने-आपको अनेक रूपोंमें विराट् या अखिल विश्वकेरूपमें दिखा दिया, तभीसे मैंने विजयाशा त्याग दी थी ।। १७६ ।।

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् गीताप्रेस, गोरखपुर नमस्कारगीताप्रेस, गोरखपुर

अवतारके लिये प्रार्थनागीताप्रेस, गोरखपुर

सिंह-बाघोंमें बालक भरतगीताप्रेस, गोरखपुर

कुमार भीमसेनका साँपोंपर कोपगीताप्रेस, गोरखपुर

एकलव्यकी गुरु-दक्षिणापीताप्रेस, गोरखपुर

द्रौपदी-स्वयंवरगीताप्रेस, गोरखपुर

प्रभासक्षेत्रमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका मिलन गीताप्रेस, गोरखपुर कृपासिंधु भगवान् श्रीकृष्णयदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम् ।

आ्ता पृथां सान्त्वितां केशवेन।

तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७७॥

जब मैंने सुना-यहाँसे श्रीकृष्णके लौटते समय अकेली कुन्ती उनके रथकेसामने आकर खड़ी हो गयी और अपने हृदयकी आर्ति-वेदना प्रकट करने लगी,तब श्रीकृष्णने उसे भलीभाँति सान्त्वना दी। संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशाछोड़ दी ।। १७७ ।।

यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवं तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम् ।

भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७८ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि श्रीकृष्ण पाण्डवोंके मन्त्री हैं और शान्तनुनन्दनभीष्म तथा भारद्वाज द्रोणाचार्य उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं, तब मुझे विजय-प्राप्तिकी किंचित् भी आशा नहीं रही ।। १७८ ।।

यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्मं नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति ।

हित्वा सेनामपचक्राम चापि तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७९ ।।

जब कर्णने भीष्मसे यह बात कह दी कि ‘जबतक तुम युद्ध करते रहोगेतबतक मैं पाण्डवोंसे नहीं लड़ूगा’, इतना ही नहीं – वह सेनाको छोड़कर हटगया, संजय! तभीसे मेरे मनमें विजयके लिये कुछ भी आशा नहीं रहगयी ।। १७९ ।।

यदाश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम् ।

त्रीण्युग्रवीर्याणि समागतानि तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८० ।

संजय! जब मैंने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण, वीरवर अर्जुन और अतुलितशक्तिशाली गाण्डीव धनुष-ये तीनों भयंकर प्रभावशाली शक्तियाँ इकट्ठी होगयी हैं, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १८० ।।

यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने रथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै ।

कृष्णं लोकान् दर्शयानं शरीरेतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८१ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि रथके पिछले भागमें स्थित मोहग्रस्त अर्जुनअत्यन्त दुःखी हो रहे थे और श्रीकृष्णने अपने शरीरमें उन्हें सब लोकोंका दर्शनकरा दिया, तभी मेरे मनसे विजयकी सारी आशा समाप्त हो गयी।। १८१ ।।

यदाश्रौषं भीष्मममित्रकर्शनं निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम् ।

नैषां कश्चिद् वध्यते ख्यातरूप-स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८२ ।।

जब मैंने सुना कि शत्रुघाती भीष्म रणांगणमें प्रतिदिन दस हजार रथियोंकासंहार कर रहे हैं, परंतु पाण्डवोंका कोई प्रसिद्ध योद्धा नहीं मारा जा रहा है,संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १८२ ।।

यदाश्रौषं चापगेयेन संख्ये स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण ।

तच्चाकार्षुः पाण्डवेयाः प्रहृष्टा-स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८३ ।।

जब मैंने सुना कि परम धार्मिक गंगानन्दन भीष्मने युद्धभूमिमें पाण्डवोंकोअपनी मृत्युका उपाय स्वयं बता दिया और पाण्डवोंने प्रसन्न होकर उनकी उसआज्ञाका पालन किया। संजय! तभी मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १८३ ।।

यदाश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् ।

शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८४ ।।

जब मैंने सुना कि अर्जुनने सामने शिखण्डीको खड़ा करके उसकी ओटसेसर्वथा अजेय अत्यन्त शूर भीष्मपितामहको युद्धभूमिमें गिरा दिया। संजय!तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। १८४ ।।

यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं वृद्धं वीरं सादितं चित्रपुङ्खैः ।

भीष्मं कृत्वा सोमकानल्पशेषां-स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८५ ।।

जब मैंने सुना कि हमारे वृद्ध वीर भीष्मपितामह अधिकांश सोमकवंशीयोद्धाओंका वध करके अर्जुनके बाणोंसे क्षत-विक्षत शरीर हो शरशय्यापर शयनकर रहे हैं, संजय! तभी मैंने समझ लिया अब मेरी विजय नहीं होसकती ।। १८५ ।।

यदाश्रौषं शान्तनवे शयाने पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन ।

भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्मं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८६ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि शान्तनुनन्दन भीष्मपितामहने शरशय्यापर सोतेसमय अर्जुनको संकेत किया और उन्होंने बाणसे धरतीका भेदन करके उनकीप्यास बुझा दी, तब मैंने विजयकी आशा त्याग दी ।। १८६ ।।

यदा वायुश्चन्द्रसूर्यो च युक्तौ कौन्तेयानामनुलोमा जयाय ।

नित्यं चास्माञ्श्वापदा भीषयन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८७ ।।

जब वायु अनुकूल बहकर और चन्द्रमा-सूर्य लाभस्थानमें संयुक्त होकरपाण्डवोंकी विजयकी सूचना दे रहे हैं और कुत्ते आदि भयंकर प्राणी प्रतिदिनहमलोगोंको डरा रहे हैं। संजय! तब मैंने विजयके सम्बन्धरमें अपनी आशा छोड़दी ।। १८७ ।।

यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान् निदर्शयन् समरे चित्रयोधी।

न पाण्डवाञ्श्रेष्ठतरान् निहन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८८ ।।

संजय! हमारे आचार्य द्रोण बेजोड़ योद्धा थे और उन्होंने रणांगणमें अपनेअस्त्र-शस्त्रके अनेकों विविध कौशल दिखलाये, परंतु जब मैंने सुना कि वे वीर-शिरोमणि पाण्डवोंमेंसे किसी एकका भी वध नहीं कर रहे हैं, तब मैंने विजयकीआशा त्याग दी ।। १८८ ।।

यदाश्रौ चास्मदीयान् महारथान् व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय ।

संशप्तकान् निहतानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८९ ।।

संजय! मेरी विजयकी आशा तो तभी नहीं रही जब मैंने सुना कि मेरे जोमहारथी वीर संशप्तक योद्धा अर्जुनके वधके लिये मोर्चेपर डटे हुए थे, उन्हेंअकेले ही अर्जुनने मौतके घाट उतार दिया ।। १८९ ।।

यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यै-्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम् ।

भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९० ।।

संजय! स्वयं भारद्वाज द्रोणाचार्य अपने हाथमें शस्त्र उठाकर उसचक्रव्यूहकी रक्षा कर रहे थे, जिसको कोई दूसरा तोड़ ही नहीं सकता था, परंतुसुभद्रानन्दन वीर अभिमन्यु अकेला ही छिन्न-भिन्न करके उसमें घुस गया, जबयह बात मेरे कानोंतक पहुँची, तभी मेरी विजयकी आशा लुप्त होगयी ।। १९० ।।

यदाभिमन्युं परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः ।

महारथाः पार्थमशक्नुवन्त-स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९१ ।।

संजय! मेरे बड़े-बड़े महारथी वीरवर अर्जुनके सामने तो टिक न सके औरसबने मिलकर बालक अभिमन्युको घेर लिया और उसको मारकर हर्षित होनेलगे, जब यह बात मुझतक पहुँची, तभीसे मैंने विजयकी आशा त्यागदी ।। १९१ ।।

यदाश्रौषमभिमन्युं निहत्य हर्षान्मूढान् क्रोशतो धार्तराष्ट्रान् ।

क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९२ ।।

जब मैंने सुना कि मेरे मूढ़ पुत्र अपने ही वंशके होनहार बालक अभिमन्युकीहत्या करके हर्षपूर्ण कोलाहल कर रहे हैं और अर्जुनने क्रोधवश जयद्रथकोमारनेकी भीषण प्रतिज्ञा की है, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़दी ।। १९२ ।।

यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां प्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन ।

सत्यां तीर्णां शत्रुमध्ये च तेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९३ ।।

जब मैंने सुना कि अर्जुनने जयद्रथको मार डालनेकी जो दृढ़ प्रतिज्ञा की थी,उसने वह शत्रुओंसे भरी रणभूमिमें सत्य एवं पूर्ण करके दिखा दी। संजय!तभीसे मुझे विजयकी सम्भावना नहीं रह गयी।। १९३ ।।

यदाश्रौषं श्रान्तहये धनञ्जये मुक्त्वा हयान् पाययित्वोपवृत्तान् ।

पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९४ ।।

युद्धभूमिमें धनञ्जय अर्जुनके घोड़े अत्यन्त श्रान्त और प्याससे व्याकुल होरहे थे। स्वयं श्रीकृष्णने उन्हें रथसे खोलकर पानी पिलाया। फिरसे रथके निकटलाकर उन्हें जोत दिया और अर्जुनसहित वे सकुशल लौट गये। जब मैंने यहबात सुनी, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी।। १९४ ।।

यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन ।

सर्वान् योधान् वारितानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९५ ।।

जब संग्रामभूमिमें रथके घोड़े अपना काम करनेमें असमर्थ हो गये, तबरथके समीप ही खड़े होकर पाण्डववीर अर्जुनने अकेले ही सब योद्धाओंकासामना किया और उन्हें रोक दिया। मैंने जिस समय यह बात सुनी, संजय! उसीसमय मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९५ ।।

यदाश्रौषं नागबलैः सुदुःसहं द्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य ।

यातं वाष्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थो तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९६ ।।

जब मैंने सुना कि वृष्णिवंशावतंस युयुधान-सात्यकिने अकेले हीद्रोणाचार्यकी उस सेनाको, जिसका सामना हाथियोंकी सेना भी नहीं कर सकतीथी, तितर-बितर और तहस-नहस कर दिया तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके पासपहुँच गये। संजय! तभीसे मेरे लिये विजयकी आशा असम्भव होगयी ।। १९६ ।।

यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं वधाद् भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः ।

धनुष्कोट्याऽऽतुद्य कर्णेन वीरं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९७ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि वीर भीमसेन कर्णके पंजेमें फँस गये थे, परंतुकर्णने तिरस्कारपूर्वक झिड़ककर और धनुषकी नोक चुभाकर ही छोड़ दियातथा भीमसेन मृत्युके मुखसे बच निकले। संजय! तभी मेरी विजयकी आशापरपानी फिर गया ।। १९७ ।।

यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः ।

अमर्षयन् सैन्धवं वध्यमानं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९८ ।।

S.जब मैंने सुना कि द्रोणाचार्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कर्ण और अश्वत्थामातथा वीर शल्यने भी सिन्धुराज जयद्रथका वरध सह लिया, प्रतीकार नहीं किया।संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९८ ।।

यदाश्रौषं देवराजेन दत्तां दिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन ।

घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९९ ।।

संजय! देवराज इन्द्रने कर्णको कवचके बदले एक दिव्य शक्ति दे रखी थीऔर उसने उसे अर्जुनपर प्रयुक्त करनेके लिये रख छोड़ा था3 परंतु मायापतिश्रीकृष्णने भयंकर राक्षस घटोत्कचपर छुड़वाकर उससे भी वंचित करवा दिया।जिस समय यह बात मैंने सुनी, उसी समय मेरी विजयकी आशा टूटगयी ।। १९९ ।।

यदाश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यां युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम् ।

यया वध्यः समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०० ।।

जब मैंने सुना कि कर्ण और घटोत्कचके युद्धमें कर्णने वह शक्तिघटोत्कचपर चला दी, जिससे रणांगणमें अर्जुनका वध किया जा सकता था।संजय! तब मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। २०० ।।

यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकं धृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम् ।

रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०१ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि आचार्य द्रोण पुत्रकी मृत्युके शोकसे शस्त्रादिछोड़कर आमरण अनशन करनेके निश्चयसे अकेले रथके पास बैठे थे औरधृष्टद्युम्नने धर्मयुद्धकी मर्यादाका उल्लंघन करके उन्हें मार डाला, तभी मैंनेविजयकी आशा छोड़ दी थी ।। २०१ ।।

यदाश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थं माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये ।

समं युद्धे मण्डलेभ्यश्चरन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०२ ।।

जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा-जैसे वीरके साथ बड़े-बड़े वीरोंके सामने हीमाद्रीनन्दन नकुल अकेले ही अच्छी तरह युद्ध कर रहे हैं। संजय! तब मुझेजीतकी आशा न रही ।। २०२ ।।

यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन् ।

नैषामन्तं गतवान् पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०३ ।।

जब द्रोणाचार्यकी हत्याके अनन्तर अश्वत्थामाने दिव्य नारायणास्त्रका प्रयोगकिया; परंतु उससे वह पाण्डवोंका अन्त नहीं कर सका । संजय! तभी मेरीविजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। २०३ ।।

यदाश्रौषं भीमसेनेन पीतं रक्तं भ्रातुर्युधि दुःशासनस्य ।

निवारितं नान्यतमेन भीमं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०४ ।।

जब मैंने सुना कि रणभूमिमें भीमसेनने अपने भाई दुःशासनका रक्तपानकिया, परंतु वहाँ उपस्थित सत्पुरुषोंमेंसे किसी एकने भी निवारण नहीं किया।संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा बिलकुल नहीं रह गयी।। २०४ ।।

यदाश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् ।

तस्मिन् भ्रातृणां विग्रहे देवगुह्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०५ ।।

संजय! वह भाईका भाईसे युद्ध देवताओंकी गुप्त प्रेरणासे हो रहा था। जबमैंने सुना कि भिन्न-भिन्न युद्धभूमियोंमें कभी पराजित न होनेवाले अत्यन्तशूरशिरोमणि कर्णको पृथापुत्र अर्जुनने मार डाला, तब मेरी विजयकी आशा नष्टहो गयी ।। २०५ ।।

यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम् ।

युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०६ ।।

जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, शूरवीर दुःशासनएवं उग्र योद्धा कृतवर्माको भी युद्धमें जीत रहे हैं, संजय! तभीसे मुझे विजयकीआशा नहीं रह गयी ।। २०६ ।।

यदाश्रौषं निहतं मद्रराजं रणे शूरं धर्मराजेन सूत ।

सदा संग्रामे स्पर्धते यस्तु कृष्णंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०७ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि रणभूमिमें धर्मराज युधिष्ठिरने शूरशिरोमणिमद्रराज शल्यको मार डाला, जो सर्वदा युद्धमें घोड़े हाँकनेके सम्बन्धमेंश्रीकृष्णकी होड़ करनेपर उतारू रहता था, तभीसे मैं विजयकी आशा नहींकरता था ।। २०७ ।।

यदाश्रौषं कलहद्यूतमूलं मायाबलं सौबलं पाण्डवेन ।

हतं संग्रामे सहदेवेन पापं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०८ ।।

जब मैंने सुना कि कलहकारी द्यूतके मूल कारण, केवल छल-कपटके बलसेबली पापी शकुनिको पाण्डुनन्दन सहदेवने रणभूमिमें यमराजके हवाले करदिया, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी।। २०८ ।।

यदाश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं ह्रदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः ।

दुर्योधनं विरथं भग्नशक्तिं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०९ ।।

जब दुर्योधनका रथ छिन्न-भिन्न हो गया, शक्ति क्षीण हो गयी और वह थकगया, तब सरोवरपर जाकर वहाँका जल स्तम्भित करके उसमें अकेला ही सोगया। संजय! जब मैंने यह संवाद सुना, तब मेरी विजयकी आशा भी चलीगयी ।। २०९ ।।

यदाश्रौषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान् गत्वा हरदे वासुदेवेन सार्धम् ।

अमर्षणं धर्षयतः सुतं मे तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१० ।।

जब मैंने सुना कि उसी सरोवरके तटपर श्रीकृष्णके साथ पाण्डव जाकरखड़े हैं और मेरे पुत्रको असह्य दुर्वचन कहकर नीचा दिखा रहे हैं, तभी संजय!मैंने विजयकी आशा सर्वथा त्याग दी ।। २१० ।।

यदाश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान् गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम् ।

मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्धया तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २११ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि गदायुद्धमें मेरा पुत्र बड़ी निपुणतासे पैंतरेबदलकर रणकौशल प्रकट कर रहा है और श्रीकृष्णकी सलाहसे भीमसेननेगदायुद्धकी मर्यादाके विपरीत जाँघमें गदाका प्रहार करके उसे मार डाला, तबतो संजय! मेरे मनमें विजयकी आशा रह ही नहीं गयी।। २११ ।।

यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तै-्हतान् पञ्चालान् द्रौपदेयांश्च सुप्तान् ।

कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१२ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा आदि दुष्टोंने सोते हुए पाञ्चालनरपतियों और द्रौपदीके होनहार पुत्रोंको मारकर अत्यन्त बीभत्स और वंशकेयशको कलंकित करनेवाला काम किया है, तब तो मुझे विजयकी आशा रही हीनहीं ।। २१२ ।।

यदाश्रौषं भीमसेनानुयाते-नाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम् ।

करुद्धैनैषीकमवधीद् येन गर्भ तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१३ ।।

संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेनके पीछा करनेपर अश्वत्थामानेक्रोधपूर्वक सींकके बाणपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग कर दिया, जिससे कि पाण्डवोंकागर्भस्थ वंशधर भी नष्ट हो जाय, तभी मेरे मनमें विजयकी आशा नहींरही ।। २१३ ।।

यदाश्रौषं ब्रह्मशिरोऽर्जुनेन स्वस्तीत्युक्त्वास्त्रमस्त्रेण शान्तम् ।

अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१४ ।।

जब मैंने सुना कि अश्वत्थामाके द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मशिर अस्त्रको अर्जुनने’स्वस्ति’, ‘स्वस्ति’ कहकर अपने अस्त्रसे शान्त कर दिया और अश्वत्थामाकोअपना मणिरत्न भी देना पड़ा। संजय! उसी समय मुझे जीतकी आशा नहींरही ।। २१४ ।।

यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भे वैराट्या वै पात्यमाने महास्त्रैः ।

द्वैपायनः केशवो द्रोणपुत्रं परस्परेणाभिशापैः शशाप ।। २१५ ।।

शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैर्विहीना तथा बन्धुभिः पितृभिभ््रातृभिश्च ।

कृतं कार्यं दुष्करं पाण्डवेयैःप्राप्तं राज्यमसपत्नं पुनस्तैः ।। २१६ ।।

जब मैंने गर्भ गिरानेकी चेष्टा कर रहा है तथा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास और स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने परस्पर विचार करके उसे शापोंसे अभिशप्त कर दिया है (तभी मेरी विजयकी आशा सदाके लिये समाप्त हो गयी)। इस समय गान्धारीकी दशा शोचनीय हो गयी है; क्योंकि उसके पुत्र-पौत्र, पिता तथा भाई -बन्धुओंमेंसे कोई नहीं रहा। पाण्डवोंने दुष्कर कार्य कर डाला। उन्होंने फिरसे अपना अकण्टक राज्य प्राप्त कर लिया ।। २१५-२१६ ।।

कष्टं युद्धे दश शेषाः श्रुता मे त्रयोऽस्माकं पाण्डवानां च सप्त ।

द्वयूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां तस्मिन् संग्रामे भैरवे क्षत्रियाणाम् ।। २१७ ।।

हाय-हाय! कितने कष्टकी बात है, मैंने सुना है कि इस भयंकर युद्धमें केवल दस व्यक्ति बचे हैं; मेरे पक्षके तीन-कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा तथा पाण्डवपक्षके सात-श्रीकृष्ण, सात्यकि और पाँचों पाण्डव। क्षत्रियोंके इस भीषण संग्राममें अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हो गयीं ।। २१७ ।।

तमस्त्वतीव विस्तीर्णं मोह आविशतीव माम् ।

संज्ञां नोपलभे सूत मनो विह्वलतीव मे ।। २१८ ।।

सारथे! यह सब सुनकर मेरी आँखोंके सामने घना अन्धकार छाया हुआ है। मेरे हृदयमें मोहका आवेश-सा होता जा रहा है। मैं चेतना-शून्य हो रहा हूँ। मेरा मन विह्वल-सा हो रहा है ।। २१८ ।।

सुना कि अश्वत्थामा अपने महान् अस्त्रोंका प्रयोग करके उत्तराका सौतिरुवाच इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहुदुःखितः।

मूर्च्छितः पुनराश्वस्तः संजयं वाक्यमब्रवीत् ।। २१९ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-धृतराष्ट्रने ऐसा कहकर बहुत विलाप किया और अत्यन्त दुःखके कारण वे मूर्च्छित हो गये। फिर होशमें आकर कहने लगे ।। २१९ ।।

धृतराष्ट्र उवाच संजयैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम् ।

स्तोकं ह्यपि न पश्यामि फलं जीवितधारणे ।। २२० ।।

धृतराष्ट्रने कहा-संजय! युद्धका यह परिणाम निकलनेपर अब मैं अविलम्ब अपने प्राण छोड़ना चाहता हूँ। अब जीवन-धारण करनेका कुछ भीफल मुझे दिखलायी नहीं देता ।। २२० ।।

सौतिरुवाच

तं तथावादिनं दीनं विलपन्तं महीपतिम् ।

निःश्वसन्तं यथा नागं मुह्यमानं पुनः पुनः ।। २२१ ।।

गावल्गणिरिदं धीमान् महार्थं वाक्यमब्रवीत् ।उग्रश्रवाजी कहते हैं-जब राजा धृतराष्ट्र दीनतापूर्वक विलाप करते हुएऐसा कह रहे थे और नागके समान लम्बी साँस ले रहे थे तथा बार-बार मूर्च्छितहोते जा रहे थे, तब बुद्धिमान् संजयने यह सारगर्भित प्रवचन किया ।। २२१||

संजय उवाच

श्रुतवानसि वै राजन् महोत्साहान् महाबलान् ।।२२२ ।।

द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमतः ।संजयने कहा-महाराज! आपने परम ज्ञानी देवर्षि नारद एवं महर्षिव्यासके मुखसे महान् उत्साहसे युक्त एवं परम पराक्रमी नृपतियोंका चरित्रश्रवण किया है ।। २२२ ।।

महत्सु राजवंशेषु गुणैः समुदितेषु च ।। २२३ ।।

जातान् दिव्यास्त्रविदुषः शक्रप्रतिमतेजसः।

धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्ञैरिष्ट्वाप्तदक्षिणैः ।। २२४ ।।

अस्मिँल्लोके यशः प्राप्य ततः कालवशं गतान् ।

शैब्यं महारथं वीरं सृञ्जयं जयतां वरम् ।। २२५ ।।

सुहोत्रं रन्तिदेवं च काक्षीवन्तमरथौशिजम् ।

बाह्लीकं दमनं चैद्यं श्यातिमजितं नलम् । २२६ ।।

विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम् ।

मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुं गयं भरतमेव च ।। २२७ ।।

रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दुं भगीरथम् ।

कृतवीर्यं महाभागं तथैव जनमेजयम् ।। २२८ ।।

ययातिं शुभकर्माणं देवैय्यो याजितः स्वयम् ।

चैत्ययूपाङ्किता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा ।। २२९ ।।

इति राज्ञां चतुर्विंशन्नारदेन सुर्षिणा ।

पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा श्वैत्याय कीर्तितम् ।। २३० ।।

आपने ऐसे-ऐसे राजाओंके चरित्र सुने हैं जो सर्वसद्गुणसम्पन्न महान्राजवंशोंमें उत्पन्न, दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंके पारदर्शी एवं देवराज इन्द्रके समानप्रभावशाली थे। जिन्होंने धर्मयुद्धसे पृथ्वीपर विजय प्राप्त की, बड़ी-बड़ीदक्षिणावाले यज्ञ किये, इस लोकमें उज्ज्वल यश प्राप्त किया और फिर कालकेगालमें समा गये। इनमेंसे महारथी शैब्य, विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ सृजय, सुहोत्र,रन्तिदेव, काक्षीवान्, औशिज, बाह्लीक, दमन, चैद्य, शर्याति, अपराजित नल,शत्रुघाती विश्वामित्र, महाबली अम्बरीष, मरुत्त, मनु, इक्ष्वाकु, गय, भरतदशरथनन्दन श्रीराम, शशबिन्दु, भगीरथ, महाभाग्यशाली कृतवीर्य, जनमेजयऔर वे शुभकर्मा ययाति, जिनका यज्ञ देवताओंने स्वयं करवाया था, जिन्होंनेअपनी राष्ट्रभूमिको यज्ञोंकी खान बना दिया था और सारी पृथ्वी यज्ञ-सम्बन्धीयूपों (खंभों)-से अंकित कर दी थी-इन चौबीस राजाओंका वर्णन पूर्वकालमेंदेवर्षि नारदने पुत्रशोकसे अत्यन्त संतप्त महाराज श्वैत्यका दुःख दूर करनेकेलिये किया था ।। २२३-२३० ।।

तेभ्यश्चान्ये गताः पूर्वं राजानो बलवत्तराः ।

महारथा महात्मानः सर्वैः समुदिता गुणैः ।। २३१ ।।

पूरुः कुरुर्यदुः शूरो विष्वगश्वो महाद्युतिः ।

अणुहो युवनाश्वश्च ककुत्स्थो विक्रमी रघुः ।। २३२ ।।

विजयो वीतिहोत्रोऽङ्गो भवः श्वेतो बृहद्गुरु: ।

उशीनरः शतरथः कङ्को दुलिदुहो द्रुमः ।। २३३ ।।

दम्भोद्भवः परो वेनः सगरः संकृतिर्निमिः।

अजेयः परशुः पुण्डुः शम्भुर्देवावृधोऽनघः ।। २३४ ।।

देवाह्वयः सुप्रतिमः सुप्रतीको बृहद्रथ: ।

महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुर्नेषधो नल: ।। २३५ ।।

सत्यव्रतः शान्तभयः सुमित्रः सुबलः प्रभुः ।

जानुजङ्घोऽनरण्योऽर्कः प्रियभृत्यः शुचिव्रतः ।। २३६ ।।

बलबन्धुर्निरामर्दः केतुशृङ्गो बृहद्धलः ।

धृष्टकेतुर्बृहत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामयः ।। २३७ ।।

अवीक्षिच्चपलो धूर्तः कृतबन्धुर्दृढेषुधिः ।

महापुराणसम्भाव्यः प्रत्यङ्गः परहा श्रुतिः ।। २३८ ।।

एते चान्ये च राजानः शतशोऽथ सहस्रशः ।

श्रूयन्ते शतशश्चान्ये संख्याताश्चैव पद्मशः ।। २३९ ।।

हित्वा सुविपुलान् भोगान् बुद्धिमन्तो महाबलाः ।

राजानो निधनं प्राप्तास्तव पुत्रा इव प्रभो ।। २४० ।।

महाराज! पिछले युगमें इन राजाओंके अतिरिक्त दूसरे और बहुत-सेमहारथी, महात्मा, शौर्य-वीर्य आदि सद्गुणोंसे सम्पन्न, परम पराक्रमी राजा होगये हैं। जैसे-पूरु, कुरु, यदु, शूर, महातेजस्वी विष्वगश्व, अणुह, युवनाश्व,ककुत्स्थ, पराक्रमी रघु, विजय, वीतिहोत्र, अंग, भव, श्वेत, बृहद्गुरु, उशीनर,शतरथ, कंक, दुलिदुह, द्रुम, दम्भोद्भव, पर, वेन, सगर, संकृति, निमि, अजेय

, परशु, पुण्डु, शम्भु, निष्पाप देवावृध, देवाह्वय सुप्रतिम, सुप्रतीक, बृहद्रथ,

महान् उत्साही और महाविनयी सुक्रतु, निषधराज नल, सत्यव्रत, शान्तभय,सुमित्र, सुबल, प्रभु, जानुजंघ, अनरण्य, अर्क, प्रियभृत्य, शुचिव्रत, बलबन्धु,निरामर्द, केतुशृंग, बृहद्वल, धृष्टकेतु, बृहत्केतु, दीप्तकेतु, निरामय, अवीक्षित्,चपल, धूर्त, कृतबन्धु, दृढेषुधि, महापुराणोंमें सम्मानित प्रत्यंग, परहा और श्रुति-ये और इनके अतिरिक्त दूसरे सैकड़ों तथा हजारों राजा सुने जाते हैं, जिनकासैकड़ों बार वर्णन किया गया है और इनके सिवा दूसरे भी, जिनकी संख्यापद्मोंमें कही गयी है, बड़े बुद्धिमान् और शक्तिशाली थे महाराज ! किंतु वे अपनेविपुल भोग-वैभवको छोड़कर वैसे ही मर गये, जैसे आपके पुत्रोंकी मृत्यु हुई 1:है ।। २३१-२४० ।।

येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च ।

माहात्म्यमपि चास्तिक्यं सत्यं शौचं दयाजवम् ।। २४१ ।

विद्वद्धिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः।

सर्वर्द्धिगुणसम्पन्नास्ते चापि निधनं गताः ॥ २४२ ।।

जिनके दिव्य कर्म, पराक्रम, त्याग, माहात्म्य, आस्तिकता, सत्य, पवित्रता,दया और सरलता आदि सद्गुणोंका वर्णन बड़े-बड़े विद्वान् एवं श्रेष्ठतम कविप्राचीन ग्रन्थोंमें तथा लोकमें भी करते रहतेहैं, वे समस्त सम्पत्ति और सद्गुणोंसेसम्पन्न महापुरुष भी मृत्युको प्राप्त हो गये ।। २४१-२४२ ।।

तव पुत्रा दुरात्मानः प्रतप्ताश्चैव मन्युना ।

लुब्धा दुर्वृत्तभूयिष्ठा न ताञ्छोचितुमर्हसि ।। २४३ ।।

आपके पुत्र दुर्योधन आदि तो दुरात्मा, क्रोधसे जले-भुने, लोभी एवं अत्यन्तदुराचारी थे। उनकी मृत्युपर आपको शोक नहीं करना चाहिये ।। २४३ ।।

श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान् प्राज्ञसम्मतः ।

येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुह्यन्ति भारत ।। २४४ ।।

आपने गुरुजनोंसे सत्-शास्त्रोंका श्रवण किया है। आपकी धारणाशक्ति तीव्रहै, आप बुद्धिमान् हैं और ज्ञानवान् पुरुष आपका आदर करते हैं।भरतवंशशिरोमणे! जिनकी बुद्धि शास्त्रके अनुसार सोचती है, वे कभी शोक-मोहसे मोहित नहीं होते ।। २४४ ।।

निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप ।

नात्यन्तमेवानुवृत्तिः कार्या ते पुत्ररक्षणे ।। २४५ ।।

महाराज! आपने पाण्डवोंके साथ निर्दयता और अपने पुत्रोंके प्रतिपक्षपातका जो बर्ताव किया है, वह आपको विदित ही है। इसलिये अब पुत्रोंकेजीवनके लिये आपको अत्यन्त व्याकुल नहीं होना चाहिये ।। २४५ ।।

भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुमर्हसि ।

दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निर्वर्तितुमर्हति ।। २४६ ।।

होनहार ही ऐसी थी, इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। भला,इस सृष्टिमें ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो अपनी बुद्धिकी विशेषतासे होनहार मिटासके ।। २४६ ।।

विधातृविहितं मार्गं न कश्चिदतिवर्तते ।

कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे ।। २४७ ।।

अपने कर्मोंका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है – यह विधाताका विधानहै। इसको कोई टाल नहीं सकता। जन्म-मृत्यु और सुख-दुःख सबका मूलकारण काल ही है ।। २४७ ।।

कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः ।

संहरन्तं प्रजाः कालं कालः शमयते पुनः ।। २४८ ।।

काल ही प्राणियोंकी सृष्टि करता है और काल ही समस्त प्रजाका संहारकरता है। फिर प्रजाका संहार करनेवाले उस कालको महाकालस्वरूपपरमात्मा ही शान्त करता है ।। २४८ ।।

कालो हि कुरुते भावान् सर्वलोके शुभाशुभान् ।

कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः ।। २४९ ।।

सम्पूर्ण लोकोंमें यह काल ही शुभ-अशुभ सब पदार्थोंका कर्ता है। काल हीसम्पूर्ण प्रजाका संहार करता है और वही पुनः सबकी सृष्टि भी करताहै ।। २४९ ।।

कालः सुप्तेषु जाग्ति कालो हि दुरतिक्रमः ।

कालः सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृतः समः ।। २५० ।।

अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम् ।

तान् कालनिर्मितान् बुद्ध्वा न संज्ञां हातुमर्हसि ।। २५१ ।।

जब सुषुप्ति-अवस्थामें सब इन्द्रियाँ और मनोवृतियाँ लीन हो जाती हैं, तबभी यह काल जागता रहता है। कालकी गतिका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता।वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे बेरोक-टोक अपनी क्रिया करता रहता है।इस सृष्टिमें जितने पदार्थ हो चुके, भविष्यमें होंगे और इस समय वर्तमान हैं, वेसब कालकी रचना हैं; ऐसा समझकर आपको अपने विवेकका परित्याग नहींकरना चाहिये ।। २५०-२५१ ।। 1.सौतिरुवाच

इत्येवं पुत्रशोक्त धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् ।

आश्वास्य स्वस्थमकरोत् सूतो गावल्गणिस्तदा ।। २५२ ।।

अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ।

विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः ।। २५३ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-सूतवंशी संजयने यह सब कहकर पुत्रशोकसेव्याकुल नरपति धृतराष्ट्रको समझाया-बुझाया और उन्हें स्वस्थ किया। इसीइतिहासके आधारपर श्रीकृष्णद्वैपायनने इस परम पुण्यमयी उपनिषद्-रूपमहाभारतका (शोकातुर प्राणियोंका शोक नाश करनेके लिये) निरूपण किया।विद्वज्जन लोकमें और श्रेष्ठतम कवि पुराणोंमें सदासे इसीका वर्णन करते आयेहै ।। २५२-२५३ ।।

भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः ।

श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः ।। २५४ ।।

महाभारतका अध्ययन अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला है। जो कोई श्रद्धाकेसाथ इसके किसी एक श्लोकके एक पादका भी अध्ययन करता है, उसके सबपाप सम्पूर्णरूपसे मिट जाते हैं ।। २५४ ।।

देवा देवर्षयो ह्यत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः ।

कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगाः ।। २५५ ।।

इस ग्रन्थरत्नमें शुभ कर्म करनेवाले देवता, देवर्षि, निर्मल ब्रह्मर्षि, यक्ष औरमहानागोंका वर्णन किया गया है ।। २५५ ।।

भगवान् वासुदेवश्च कीरत्यतेऽत्र सनातनः ।

स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च ।। २५६ ।।

इस ग्रन्थके मुख्य विषय हैं स्वयं सनातन परब्रह्मस्वरूप वासुदेव भगवान्श्रीकृष्ण। उन्हींका इसमें संकीर्तन किया गया है। वे ही सत्य, ऋत , पवित्र एवंपुण्य है ।। २५६ ।।

शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम् ।

यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः ।। २५७ ।।

वे ही शाश्वत परब्रह्म हैं और वे ही अविनाशी सनातन ज्योति हैं। मनीषीपुरुष उन्हींकी दिव्य लीलाओंका संकीर्तन किया करते हैं ।। २५७ ।।

असच्च सदसच्चैव यस्माद् विश्वं प्रवर्तते ।

संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः ।। २५८ ।।

उन्हींसे असत्, सत् तथा सदसत्-उभयरूप सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है।उन्हींसे संतति (प्रजा), प्रवृत्ति (कर्त्तव्य-कर्म), जन्म-मृत्यु तथा पुनर्जन्म होतेहैं ।। २५८ ।।

अध्यात्मं श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम् ।

अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते ।। २५९ ।।

इस महाभारतमें जीवात्माका स्वरूप भी बतलाया गया है एवं जो सत्त्व-रज-तम-इन तीनों गुणोंके कार्यरूप पाँच महाभूत हैं, उनका तथा जो अव्यक्तप्रकृति आदिके मूल कारण परम ब्रह्म परमात्मा हैं, उनका भी भलीभाँतिनिरूपण किया गया है ।। २५९ ।।

यत्तद् यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः ।प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।। २६० ।।

ध्यानयोगकी शक्तिसे सम्पन्न जीवन्मुक्त यतिवर, दर्पणमें प्रतिबिम्बके समानअपने हृदयमें अवस्थित उन्हीं परमात्माका अनुभव करते हैं ।। २६० ।।

श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः ।

आसेवन्निममध्यायं नरः पापात् प्रमुच्यते ।। २६१ ।।

जो धर्मपरायण पुरुष श्रद्धाके साथ सर्वदा सावधान रहकर प्रतिदिन इसअध्यायका सेवन करता है, वह पाप-तापसे मुक्त हो जाता है ।। २६१ ।।

अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः ।

आस्तिकः सततं शृण्वन् न कृच्छ्रेष्ववसीदति ।। २६२ ।।

जो आस्तिक पुरुष महाभारतके इस अनुक्रमणिका-अध्यायको आदिसेअन्ततक प्रतिदिन श्रवण करता है, वह संकटकालमें भी दुःखसे अभिभूत नहींहोता ।। २६२ ।।

उभे संध्ये जपन् किंचित् सद्यो मुच्येत किल्बिषात् ।

अनुक्रमण्या यावत् स्यादह्ना रात्र्या च संचितम् ।। २६३ ।।

जो इस अनुक्रमणिका-अध्यायका कुछ अंश भी प्रातः- सायं अथवामध्याह्नमें जपता है, वह दिन अथवा रात्रिके समय संचित सम्पूर्ण पापराशिसेतत्काल मुक्त हो जाता है ।। २६३ ।।

भारतस्य वपुहयेतत् सत्यं चामृतमेव च ।

नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा ।। २६४ ।।

आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा।

ह्ृरदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम् ।। २६५ ।।

यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते ।

यश्चैनं श्रावयेच्छराद्धे ब्राह्मणान् पादमन्ततः ।। २६६ ।।

अक्षय्यमन्नपानं वै पितृंस्तस्योपतिष्ठते ।यह अध्याय महाभारतका मूल शरीर है। यह सत्य एवं अमृत है। जैसे दहीमें नवनीत, मनुष्योंमें ब्राह्मण, वेदोंमें उपनिषद्, ओषधियोंमें अमृत, सरोवरोंमें समुद्र और चौपायोंमें गाय सबसे श्रेष्ठ है, वैसे ही उन्हींके समान इतिहासोंमें यह महाभारत भी है। जो श्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंको अन्तमें इस अध्यायका एक चौथाई भाग अथवा श्लोकका एक चरण भी सुनाता है, उसके पितरोंको अक्षय अन्न-पानकी प्राप्ति होती है ।। २६४-२६६३ ।।

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् ।। २६७ ।।

बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति ।

काष्ण्णं वेदमिमं विद्वाञ्श्रावयित्वार्थमश्नुते ।। २६८ ।।

इतिहास और पुराणोंकी सहायतासे ही वेदोंके अर्थका विस्तार एवं समर्थन करना चाहिये। जो इतिहास एवं पुराणोंसे अनभिज्ञ है, उससे वेद डरते रहते हैं कि कहीं यह मुझपर प्रहार कर देगा। जो विद्वान् श्रीकृष्णद्वैपायनद्वारा कहे हुए इस वेदका दूसरोंको श्रवण कराते हैं, उन्हें मनोवांछित अर्थकी प्राप्ति होती है ।। २६७-२६८ ।।

भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम् ।

य इमं शुचिरध्यायं पठेत् पर्वणि पर्वणि ।। २६९ ।।

अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः ।

यश्चैनं शृणुयान्नित्यमार्षं श्रद्धासमन्वितः ।। २७० ।।

स दीर्घमायुः कीर्ति च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः ।

एकतश्चतुरो वेदान् भारतं चैतदेकतः ।। २७१ ।।

पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम् ।

चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा |। २७२ ।।

तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् महाभारतमुच्यते ।

महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम् ।। २७३ ।।

और इससे भ्रूणहत्या आदि पापोंका भी नाश हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। जो पवित्र होकर प्रत्येक पर्वपर इस अध्यायका पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण महाभारतके अध्ययनका फल मिलता है, ऐसा मेरा निश्चय है। जो पुरुष श्रद्धाके साथ प्रतिदिन इस महर्षि व्यासप्रणीत ग्रन्थरत्नका श्रवण करता है, उसे दीर्घ आयु, कीर्ति और स्वर्गकी प्राप्ति होती है। प्राचीन कालमें सब देवताओंने इकट्ठे होकर तराजूके एक पलड़ेपर चारों वेदोंको और दूसरेपर महाभारतको रखा । परंतु जब यह रहस्यसहित चारों वेदोंकी अपेक्षा अधिक भारी निकला, तभीसे संसारमें यह महाभारतके नामसे कहा जाने लगा । सत्यके तराजूपर तौलनेसे यह 1.

1.ग्रन्थ महत्त्व, गौरव अथवा गम्भीरतामें वेदोंसे भी अधिक सिद्ध हुआ है ।। २६९-२७३ ।।

महत्त्वाद् भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते ।

निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। २७४ ।।

अतएव महत्ता, भार अथवा गम्भीरताकी विशेषतासे ही इसको महाभारतकहते हैं। जो इस ग्रन्थके निर्वचनको जान लेता है, वह सब पापोंसे छूट जाताहै ।। २७४ ।।

तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः ।

प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्क-स्तान्येव भावोपहतानि कल्कः ।। २७५ ।।

तपस्या निर्मल है, शास्त्रोंका अध्ययन भी निर्मल है, वर्णाश्रमके अनुसारस्वाभाविक वेदोक्त विधि भी निर्मल है और कष्टपूर्वक उपार्जन किया हुआ धनभी निर्मल है, किंतु वे ही सब विपरीत भावसे किये जानेपर पापमय हैं अर्थात्दूसरेके अनिष्टके लिये किया हुआ तप, शास्त्राध्ययन और वेदोक्त स्वाभाविककर्म तथा क्लेशपूर्वक उपार्जित धन भी पापयुक्त हो जाता है। (तात्पर्य यह किइस ग्रन्थरत्नमें भावशुद्धिपर विशेष जोर दिया गया है; इसलिये महाभारत-ग्रन्थका अध्ययन करते समय भी भाव शुद्ध रखना चाहिये) ।। २७५ ।।

इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि प्रथमोऽध्यायः ।।

१ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत अनुक्रमणिकापर्वमें पहला अध्याय

पूरा हुआ ।। १ ।।

[दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७ श्लोक मिलाकर कुल २८२ श्लोक हैं]

।। अनुक्रमणिकापर्व सम्पूर्ण ।।

१. जय शब्दका अर्थ महाभारत नामक इतिहास ही है। आगे चलकर कहा है-‘जयो नामेतिहासोऽयम्’इत्यादि। अथवा अठारहों पुराण, वाल्मीकिरामायण आदि सभी आर्ष-ग्रन्थोंकी संज्ञा ‘जय’ है ।

२. मंगलाचरणका श्लोक देखनेपर ऐसा जान पड़ता है कि यहाँ नारायण शब्दका अर्थ है भगवान्श्रीकृष्ण और नरोत्तम नरका अर्थ है नररत्न अर्जुन । महाभारतमें प्रायः सर्वत्र इन्हीं दोनोंका नर-नारायणकेअवतारके रूपमें उल्लेख हुआ है। इससे मंगलाचरणमें ग्रन्थके इन दोनों प्रधान पात्र तथा भगवान्के मूर्ति-युगलको प्रणाम करना मंगलाचरणको नमस्कारात्मक होनेके साथ ही वस्तुनिर्देशात्मक भी बना देता है।इसलिये अनुवादमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका ही उल्लेख किया गया है।

३. नैमिषारण्य नामकी व्याख्या वाराहपुराणमें इस प्रकार मिलती है-एवं कृत्वा ततो देवो मुनिं गौरमुखं तदा। उवाच निमिषेणेदं निहं दानवं बलम् ।।अरण्येऽस्मिंस्ततस्त्वेतन्नैमिषारण्यसंज्ञितम् ।ऐसा करके भगवान्ने उस समय गौरमुख मुनिसे कहा- ‘मैंने निमिषमात्रमें इस अरण्य (वन) – के भीतरइस दानव-सेनाका संहार किया है; अतः यह वन नैमिषारण्यके नामसे प्रसिद्ध होगा।

४. जो विद्वान् ब्राह्मण अकेला ही दस सहस्र जिज्ञासु व्यक्तियोंका अन्न-दानादिके द्वारा भरण-पोषणकरता है, उसे कुलपति कहते हैं।

५. जो कार्य अनेक व्यक्तियोंके सहयोगसे किया गया हो और जिसमें बहुतोंको ज्ञान, सदाचार आदिकीशिक्षा तथा अन्न-वस्त्रादि वस्तुएँ दी जाती हों, जो बहुतोंके लिये तृप्तिकारक एवं उपयोगी हो, उसे ‘सत्र’कहते हैं।

१. ‘तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्’ (तैत्तिरीय उपनिषद् ) । ब्रह्मने अण्ड एवं पिण्डकी रचना करके मानोस्वयं ही उसमें प्रवेश किया है।

२. ऋषयः सप्त पूर्व ये मनवश्च चतुर्दश । एते प्रजानां पतय एभिः कल्पः समाप्यते ।।

(नीलकण्ठीमें ब्रह्माण्डपुराणका वचन)

* यह और इसके बादका श्लोक महाभारतके तात्पर्यके सूचक हैं। दुर्योधन क्रोध है। यहाँ क्रोध शब्दसेद्वेष-असूया आदि दुर्गुण भी समझ लेने चाहिये । कर्ण, शकुनि, दुःशासन आदि उससे एकताको प्राप्त हैं,उसीके स्वरूप हैं। इन सबका मूल है राजा धृतराष्ट्र। यह अज्ञानी अपने मनको वशमें करनेमें असमर्थ है।इसीने पुत्रोंकी आसक्तिसे अंधे होकर दुर्योधनको अवसर दिया, जिससे उसकी जड़ मजबूत हो गयी। यदियह दुर्योधनको वशमें कर लेता अथवा बचपनमें ही विदुर आदिकी बात मानकर इसका त्याग कर देता तोविष-दान, लाक्षागृहदाह, द्रौपदी-केशाकर्षण आदि दुष्कर्मोंका अवसर ही नहीं आता और कुलक्षय नहोता। इस प्रसंगसे यह भाव सूचित किया गया है कि यह जो मन्यु (दुर्योधन)- रूप वृक्ष है, इसका दृढ़अज्ञान ही मूल है, क्रोध-लोभादि स्कन्ध हैं, हिंसा-चोरी आदि शाखाएँ हैं और बन्धन-नरकादि इसके फल-पुष्प हैं। पुरुषार्थकामी पुरुषको मूलाज्ञानका उच्छेद करके पहले ही इस (क्रोधरूप ) वृक्षको नष्ट कर देनाचाहिये।

युधिष्ठिर धर्म हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे शम, दम, सत्य, अहिंसा आदि रूप धर्मकी मूर्ति हैं ।अर्जुन-भीम आदिको धर्मकी शाखा बतलानेका अभिप्राय यह है कि वे सब युधिष्ठिरके ही स्वरूप हैं, उनसेअभिन्न हैं। शुद्धसत्त्वमय ज्ञानविग्रह श्रीकृष्णरूप परमात्मा ही उसके मूल हैं। उनके दृढ़ ज्ञानसे ही धर्मकीनींव मजबूत होती है। श्रुति भगवतीने कहा है कि ‘हे गार्गी! इस अविनाशी परमात्माको जाने बिना इसलोकमें जो हजारों वर्षपर्यन्त यज्ञ करता है, दान देता है, तपस्या करता है, उन सबका फल नाशवान् हीहोता है।’ ज्ञानका मूल है ब्रह्म अर्थात् वेद। वेदसे ही परमधर्म योग और अपरधर्म यज्ञ-यागादिका ज्ञान होताहै। यह निश्चित सिद्धान्त है कि धर्मका मूल केवल शब्दप्रमाण ही है। वेदके भी मूल ब्राह्मण हैं; क्योंकि वे हीवेद-सम्प्रदायके प्रवर्तक हैं। इस प्रकार उपदेशकके रूपमें ब्राह्मण, प्रमाणके रूपमें वेद और अनुग्राहककेरूपमें परमात्मा धर्मका मूल है। इससे यह बात सिद्ध हुई है कि वेद और ब्राह्मणका भक्त अधिकारी पुरुषभगवदाराधनके बलसे योगादिरूप धर्ममय वृक्षका सम्पादन करे। उस वृक्षके अहिंसा-सत्य आदि तने हैं।धारण-ध्यान आदि शाखाएँ हैं और तत्त्व-साक्षात्कार ही उसका फल है। इस धर्ममय वृक्षके समाश्रयसे हीपुरुषार्थकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं।

शास्त्रोक्त आचारका परित्याग न करना, सदाचारी सत्पुरुषोंका संग करना और सदाचारमें दृढ़तासेस्थित रहना-इसको ‘शौच’ कहते हैं। अपनी इच्छाके अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थोंकी प्राप्ति होनेपरचित्तमें विकार न होना ही ‘धृति’ है। सबसे बढ़कर सामर्थ्यका होना ही ‘विक्रम’ है। सद्वृत्तकी अनुवृत्ति ही’शुश्रूषा’ है। (सदाचारपरायण गुरुजनोंका अनुसरण गुरुशुश्रूषा है।) किसीके द्वारा अपराध बन जानेपर भीउसके प्रति अपने चित्तमें क्रोध आदि विकारोंका न होना ही ‘क्षमाशीलता’ है। जितेन्द्रियता अथवा अनुद्धतरहना ही ‘विनय’ है। बलवान् शत्रुको भी पराजित कर देनेका अध्यवसाय ‘शौर्य’है । इनके संग्राहक श्लोकइस प्रकार हैं-

आचारापरिहारश्च संसर्गश्चाप्यनिन्दितैः । आचारे च व्यवस्थानं शौचमित्यभिधीयते ।। *इष्टानिष्टार्थसम्पत्तौ चित्तस्याविकृतिधृतिः । सर्वातिशयसामर्थ्यं विक्रमं परिचक्षते ।।वृत्तानुवृत्तिः शुश्रूषा क्षान्तिरागस्यविक्रिया । जितेन्द्रियत्वं विनयो ऽथवानुद्धतशीलता ।।

शौर्यमध्यवसायः स्याद् बलिनोऽपि पराभवे ।।

आचार्य, ब्रह्मा, ऋत्विक्, सदस्य, यजमान, यजमानपत्नी, धन-सम्पत्ति, श्रद्धा-उत्साह, विधि-विधानका सम्यक् पालन एवं सद्बुद्धि आदि यज्ञकी उत्तम गुणसामग्रीके अन्तर्गत हैं।(पर्वसंग्रहपर्व)

द्वितीयोऽध्यायः

समन्तपंचकक्षेत्रका वर्णन, अक्षौहिणी सेनाका प्रमाण,महाभारतमें वर्णित पर्वो और उनके संक्षिप्त विषयोंकासंग्रह तथा महाभारतके श्रवण एवं पठनका फल

ऋषय ऊचुः

समन्तपञ्चकमिति यदुत्तं सूतनन्दन ।

एतत् सर्वं यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम् ।। १ ।।

ऋषि बोले-सूतनन्दन! आपने अपने प्रवचनके प्रारम्भमें जो समन्तपंचक ( कुरुक्षेत्र)-की चर्चा की थी, अब हम उस देश (तथा वहाँ हुए युद्ध)-के सम्बन्धमें पूर्णरूपसे सब कुछयथावत् सुनना चाहते हैं ।। १ ।।

सौतिरुवाच

शृणुध्वं मम भो विप्रा ब्रुवतश्च कथाः शुभाः ।

समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः ।। २ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-साधुशिरोमणि विप्रगण! अब मैं कल्याणदायिनी शुभ कथाएँकह रहा हूँ; उसे आपलोग सावधान चित्तसे सुनिये और इसी प्रसंगमें समन्तपंचकक्षेत्रकावर्णन भी सुन लीजिये ।। २ ।।

त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः ।

असकृत् पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः ।। ३ ।।

त्रेता और द्वापरकी सन्धिके समय शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने क्षत्रियोंके प्रतिक्रोधसे प्रेरित होकर अनेकों बार क्षत्रिय राजाओंका संहार किया। ३ ।।

स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः ।

समन्तपञ्चके पञ्च चकार रौधिरान् ह्रदान् ।। ४ ।।

अग्निके समान तेजस्वी परशुरामजीने अपने पराक्रमसे सम्पूर्ण क्षत्रियवंशका संहारकरके समन्तपंचकक्षेत्रमें रक्तके पाँच सरोवर बना दिये ।। ४ ।।

स तेषु रुधिराम्भःसु हरदेषु क्रोधमूर्च्छितः ।

पितृन् संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम् । ५ ।।

क्रोधसे आविष्ट होकर परशुरामजीने उन रक्तरूप जलसे भरे हुए सरोवरोंमेंरक्ताञ्जलिके द्वारा अपने पितरोंका तर्पण किया, यह बात हमने सुनी है ।। ५ ।।

अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन् ।

राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव ।। ६ ।।

अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो ।

वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते ।। ७ ।।

तदनन्तर, ऋचीक आदि पितृगण परशुरामजीके पास आकर बोले – ‘महाभाग राम!सामर्थ्यशाली भृगुवंशभूषण परशुराम!! तुम्हारी इस पितृभक्ति और पराक्रमसे हम बहुत हीप्रसन्न हैं। महाप्रतापी परशुराम! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जिस वरकी इच्छा हो हमसे माँगलो ।। ६-७ ।।

राम उवाच

यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि ।

यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया ।।८ ।।

अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः: ।

ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः ।। ९ ।।

परशुरामजीने कहा-यदि आप सब हमारे पितर मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे अपनेअनुग्रहका पात्र समझते हैं तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंशका विध्वंस किया है, इसकुकर्मके पापसे मैं मुक्त हो जाऊँ और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वीमें प्रसिद्ध तीर्थ होजायँ। यही वर मैं आपलोगोंसे चाहता हूँ ।। ८-९ ।।

एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन् ।

तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह ।। १० ।।

तदनन्तर ‘ऐसा ही होगा’ यह कहकर पितरोंने वरदान दिया। साथ ही ‘अब बचे-खुचेक्षत्रियवंशको क्षमा कर दो’- ऐसा कहकर उन्हें क्षत्रियोंके संहारसे भी रोक दिया। इसकेपश्चात् परशुरामजी शान्त हो गये ।। १० ।।

तेषां समीपे यो देशो ह्रदानां रुधिराम्भसाम् ।समन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत् परिकीर्तितम् ।। ११ ।।

उन रक्तसे भरे सरोवरोंके पास जो प्रदेश है उसे ही समन्तपंचक कहते हैं। यह क्षेत्रबहुत ही पुण्यप्रद है ।। ११ ।।

येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते ।

तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः ।। १२ ।।

जिस चिह्नसे जो देश युक्त होता है और जिससे जिसकी पहचान होती है, विद्वानोंकाकहना है कि उस देशका वही नाम रखना चाहिये।। १२ ।।

अन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत् ।

समन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः ।। १३ ।।

जब कलियुग और द्वापरकी सन्धिका समय आया, तब उसी समन्तपंचकक्षेत्रमें कौरवोंऔर पाण्डवोंकी सेनाओंका परस्पर भीषण युद्ध हुआ ।। १३ ।।

तस्मिन् परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते ।

अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया ।। १४ ।।

भूमिसम्बन्धी दोषोंसे रहित उस परम धार्मिक प्रदेशमें युद्ध करनेकी इच्छासे अठारहअक्षौहिणी सेनाएँ इकट्ठी हुई थीं ।। १४ ।।

समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधनं गताः ।

एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः ।। १५ ।।

ब्राह्मणो! वे सब सेनाएँ वहाँ इकट्ठी हुईं और वहीं नष्ट हो गयीं| द्विजवरो! इसीसे उसदेशका नाम समन्तपंचक पड़ गया ।। १५ ।।

पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः ।

तदेतत् कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः ।

यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः ।। १६ ।।

वह देश अत्यन्त पुण्यमय एवं रमणीय कहा गया है। उत्तम व्रतका पालन करनेवालेश्रेष्ठ ब्राह्मणो! तीनों लोकोंमें जिस प्रकार उस देशकी प्रसिद्धि हुई थी, वह सब मैंनेआपलोगोंसे कह दिया ।। १६ ।।

ऋषय ऊचुः

अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन ।

एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम् ।। १७ ।।

ऋषियोंने पूछा-सूतनन्दन! अभी-अभी आपने जो अक्षौहिणी शब्दका उच्चारणकिया है, इसके सम्बन्धमें हमलोग सारी बातें यथार्थरूपसे सुनना चाहते हैं ।। १७ ।।

अक्षौहिण्याः परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम् ।

यथावच्चैव नो ब्रुहि सर्वं हि विदितं तव ।। १८ ।।

अक्षौहिणी सेनामें कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते हैं? इसका हमें यथार्थ वर्णनसुनाइये; क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है ।। १८ ।।

सौतिरुवाच

एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः ।

त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते ॥ १९ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े-बस,इन्हींको सेनाके मर्मज्ञ विद्वानोंने ‘पत्ति’ कहा है ।। १९ ।।

पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः ।

त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते ।। २० ।।

इसी पत्तिकी तिगुनी संख्याको विद्वान् पुरुष ‘सेनामुख’ कहते हैं। तीन ‘सेनामुखों’ कोएक ‘गुल्म’ कहा जाता है ।। २० ।।

त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः ।

स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः ॥ २१ ।।

तीन गुल्मका एक ‘गण’ होता है, तीन गणकी एक ‘वाहिनी’ होती है और तीनवाहिनियोंको सेनाका रहस्य जाननेवाले विद्वानोंने ‘पृतना’ कहा है ।। २१ ।।

चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रश्चम्बस्त्वनीकिनी ।

अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधाः ।। २२ ।।

तीन पृतनाकी एक ‘चमू’, तीन चमूकी एक ‘अनीकिनी’ और दस अनीकिनीकी एक’अक्षौहिणी’ होती है। यह विद्वानोंका कथन है ।। २२ ।।

अक्षौहिण्याः प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमाः ।

संख्या गणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः ।। २३ ।।

शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः ।

गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत् ।। २४ ।।

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! गणितके तत्त्वज्ञ विद्वानोंने एक अक्षौहिणी सेनामें रथोंकी संख्याइक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (२१,८७०) बतलायी है। हाथियोंकी संख्या भी इतनी हीकहनी चाहिये ।। २३-२४ ।।

ज्ञेयं शतसहस्तरं तु सहस्राणि नवैव तु ।

नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः ।। २५ ।।

निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणीमें पैदल मनुष्योंकी संख्या एक लाख नौ हजार तीनसौ पचास (१,०९,३५०) जाननी चाहिये ।। २५ ।।

पञ्चषष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च ।

दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया ।। २६ ।।

एक अक्षौहिणी सेनामें, घोड़ोंकी ठीक-ठीक संख्या पैंसठ हजार छः सौ दस(६५,६१०) कही गयी है ।। २६ ।।

एतामक्षौहिणीं प्राहुः

यां वः कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः ।। २७ ।।

तपोधनो! संख्याका तत्त्व जाननेवाले विद्वानोंने इसीको अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंनेआपलोगोंको विस्तारपूर्वक बताया है ।। २७ ।।

संख्यातत्त्वविदो जनाः।

एतया संख्यया ह्यासन् कुरुपाण्डवसेनयोः।

अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु । । २८ ।।

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणनाके अनुसार कौरव-पाण्डव दोनों सेनाओंकी संख्या अठारहअक्षौहिणी थी ।। २८ ।।

समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गताः।

कौरवान् कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा ।। २९ ।।

अद्भुत कर्म करनेवाले कालकी प्रेरणासे समन्तपंचकक्षेत्रमें कौरवोंको निमित्त बनाकरइतनी सेनाएँ इकट्ठी हुईं और वहीं नाशको प्राप्त हो गयीं ।। २९ ।।

अहानि युयुधे भीष्मो दरशैव परमास्त्रवित् ।

अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम् ।। ३० ।।

अस्त्र-शस्त्रोंके सर्वोपरि मर्मज्ञ भीष्मपितामहने दस दिनोंतक युद्ध किया, आचार्यद्रोणने पाँच दिनोंतक कौरव-सेनाकी रक्षा की ।। ३० ।।

अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परबलार्दनः ।

शल्योऽर्धदिवसं चैव गदायुद्धमतः परम् ।। ३१ ।।

शत्रुसेनाको पीड़ित करनेवाले वीरवर कर्णने दो दिन युद्ध किया और शल्यने आधेदिनतक। इसके पश्चात् (दुर्योधन और भीमसेनका परस्पर) गदायुद्ध आधे दिनतक होतारहा ।। ३१ ।।

तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमाः ।

प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुयौधिष्ठिरं बलम् ।। ३२ ।।

अठारहवाँ दिन बीत जानेपर रात्रिके समय अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्यनेनिःशंक सोते हुए युधिष्ठिरके सैनिकोंको मार डाला ।। ३२ ।।

यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम्।

जनमेजयस्य तत् सत्रे व्यासशिष्येण धीमता ।। ३३ ।।

कथितं विस्तरार्थं च यशो वीर्यं महीक्षिताम् ।

पौष्यं तत्र च पौलोममास्तीकं चादितः स्मृतम् ।। ३४ ।।

शौनकजी! आपके इस सत्संग-सत्रमें मैं यह जो उत्तम इतिहास महाभारत सुना रहा हूँ,यही जनमेजयके सर्पयज्ञमें व्यासजीके बुद्धिमान् शिष्य वैशम्पायनजीके द्वारा भी वर्णनकिया गया था। उन्होंने बड़े-बड़े नरपतियोंके यश और पराक्रमका विस्तारपूर्वक वर्णनकरनेके लिये प्रारम्भमें पौष्य, पौलोम और आस्तीक – इन तीन पर्वोंका स्मरण कियाहै ।। ३३-३४ ।।

विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम् ।

प्रतिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मोक्षिभिः ।। ३५ ।।

जैसे मोक्ष चाहनेवाले पुरुष पर-वैराग्यकी शरण ग्रहण करते हैं, वैसे ही प्रज्ञावान् मनुष्यअलौकिक अर्थ, विचित्र पद, अद्भुत आख्यान और भाँति-भाँतिकी परस्पर विलक्षणमर्यादाओंसे युक्त इस महाभारतका आश्रय ग्रहण करते हैं ।। ३५ ।।

आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम् ।

इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम् ।। ३६ ।।

जैसे जाननेयोग्य पदार्थोंमें आत्मा, प्रिय पदार्थोंमें अपना जीवन सर्वश्रेष्ठ है, वैसे हीसम्पूर्ण शास्त्रोंमें परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिरूप प्रयोजनको पूर्ण करनेवाला यह इतिहासश्रेष्ठ है ।। ३६ ।।

अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते ।

आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम् ।। ३७ ।।

जैसे भोजन किये बिना शरीर-निर्वाह सम्भव नहीं है, वैसे ही इस इतिहासका आश्रयलिये बिना पृथ्वीपर कोई कथा नहीं है ।। ३७ ।।

तदेतद् भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते ।

उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः ।। ३८ ।।

जैसे अपनी उन्नति चाहनेवाले महत्त्वाकांक्षी सेवक अपने कुलीन और सद्भावसम्पन्नस्वामीकी सेवा करते हैं, इसी प्रकार संसारके श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी सेवा करके हीअपने काव्यकी रचना करते हैं ।। ३८ ।।

इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा ।

स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक् । ३९ ॥

जैसे लौकिक और वैदिक सब प्रकारके ज्ञानको प्रकाशित करनेवाली सम्पूर्ण वाणीस्वरों एवं व्यंजनोंमें समायी रहती है, वैसे ही (लोक, परलोक एवं परमार्थसम्बन्धी) सम्पूर्णउत्तम विद्या-बुद्धि इस श्रेष्ठ इतिहासमें भरी हुई है ।। ३९ ।।

तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः ।

सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैरभूषितस्य च ।। ४० । ।

भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः ।

पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः ।। ४१ ।।

यह महाभारत इतिहास ज्ञानका भण्डार है। इसमें सूक्ष्म-से-सूक्ष्म पदार्थ और उनकाअनुभव करानेवाली युक्तियाँ भरी हुई हैं। इसका एक- एक पद और पर्व आश्चर्यजनक है।तथा यह वेदोंके धर्ममय अर्थसे अलंकृत है। अब इसके पर्वोकी संग्रह- सूची सुनिये। पहलेअध्यायमें पर्वानुक्रमणी है और दूसरेमें पर्वसंग्रह ।। ४० -४१ ।।

पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम् ।

ततः सम्भवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम् ।। ४२ ।।

इसके पश्चात् पौष्य, पौलोम, आस्तीक और आदिअंशावतरण पर्व हैं। तदनन्तरसम्भवपर्वका वर्णन है, जो अत्यन्त अद्भुत और रोमांचकारी है ।। ४२ ।।

दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते ।

ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः । ४३ ।।

इसके पश्चात् जतुगृह (लाक्षाभवन) दाहपर्व है। तदनन्तर हिडिम्बवधपर्व है, फिरबकवध और उसके बाद चैत्ररथपर्व है ।। ४३ ।।

ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते ।

क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् ।। ४४ ।।

उसके बाद पांचालराजकुमारी देवी द्रौपदीके स्वयंवरपर्वका तथा क्षत्रियधर्मसे सबराजाओंपर विजय-प्राप्तिपूर्वक वैवाहिकपर्वका वर्णन है ।। ४४ ।।

विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च ।

अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः ।। ४५ ।।

विदुरागमन, राज्यलम्भपर्व, तत्पश्चात् अर्जुन-वनवासपर्व और फिर सुभद्राहरणपर्वहै ।। ४५ ।।

सुभद्राहरणादूध्ध्व ज्ञेया हरणहारिका ।

ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम् ।। ४६ ।।

सुभद्राहरणके बाद हरणाहरणपर्व है, पुनः खाण्डवदाह- पर्व है, उसीमें मयदानवकेदर्शनकी कथा है ।। ४६ ।।

सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम् ।

जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा ।। ४७ ।।

इसके बाद क्रमश: सभापर्व, मन्त्रपर्व, जरासन्ध-वधपर्व और दिग्विजयपर्वका प्रवचनहै ।। ४७ ।।

पर्व दिग्विजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते ।

ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः ।। ४८ ।।

तदनन्तर राजसूय, अर्घाभिहरण और शिशुपाल-वधपर्व कहे गये हैं ।। ४८ ।।

द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमतः परम् ।

तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च ।। ४९ ।।

इसके बाद क्रमशः द्यूत एवं अनुद्यूतपर्व हैं। तत्पश्चात् वनयात्रापर्व तथा किर्मीरवधपर्वहै ।। ४९ ।।

अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम् ।

ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम् ।। ५० ।।

इसके बाद अर्जुनाभिगमनपर्व जानना चाहिये और फिर कैरातपर्व आता है, जिसमेंसर्वेश्वर भगवान् शिव तथा अर्जुनके युद्धका वर्णन है ।। ५० ।।

इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम् ।

नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम् ।। ५१ ।।

तत्पश्चात् इन्द्रलोकाभिगमनपर्व है, फिर धार्मिक तथा करुणोत्पादक नलोपाख्यानपर्वहै ।। ५१ ।।

तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः ।

जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम् ।। ५२ ।।

तदनन्तर बुद्धिमान् कुरुराजका तीर्थयात्रापर्व, जटासुरवधपर्व और उसके बादयक्षयुद्धपर्व है ।। ५२ ।।

निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः ।

मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते ।। ५३ ।।

इसके पश्चात् निवातकवचयुद्ध, आजगर और मार्कण्डेयसमास्यापर्व क्रमशः कहे गयेहैं ।। ५३ ।।

संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः ।

घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नोद्भवं ततः ।। ५४ ।।

व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च ।

द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम् ।। ५५ ।।

इसके बाद आता है द्रौपदी और सत्यभामाके संवादका पर्व, इसके अनन्तरघोषयात्रापर्व है, उसीमें मृगस्वप्नोद्भव और व्रीहिद्रौणिक उपाख्यान है। तदनन्तर इन्द्रद्युम्नकाआख्यान और उसके बाद द्रौपदीहरणपर्व है। उसीमें जयद्रथविमोक्षणपर्व है ।। ५४-५५ ।।

पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याश्चैवमद्भुतम् ।

रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम् ।।५६ ।।

इसके बाद पतिव्रता सावित्रीके पातिव्रत्यका अद्भुत माहात्म्य है। फिर इसी स्थानपररामोपाख्यानपर्व जानना चाहिये ।। ५६ ।।

कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते ।

आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम् ।

पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम् ।। ५७ ।।

इसके बाद क्रमशः कुण्डलाहरण और आरणेय-पर्व कहे गये हैं । तदनन्तर विराटपर्वकाआरम्भ होता है, जिसमें पाण्डवोंके नगरप्रवेश और समयपालन-सम्बन्धीपर्व हैं ।। ५७ ।।

कीचकानां वधः पर्व पर्व गोग्रहणं ततः।

अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम् ।। ५८ ।।

इसके बाद कीचकवधपर्व, गोग्रहण (गोहरण)- पर्व तथा अभिमन्यु और उत्तराकेविवाहका पर्व है ।। ५८ ।।

उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम् ।ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम् ।। ५९ ।।

प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया ।

पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम् ।। ६० ।।

इसके पश्चात् परम अद्भुत उद्योगपर्व समझना चाहिये। इसीमें संजययानपर्व कहा गयाहै। तदनन्तर चिन्ताके कारण धृतराष्ट्रके रातभर जागनेसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रजागरपर्वसमझना चाहिये। तत्पश्चात् वह प्रसिद्ध सनत्सुजातपर्व है, जिसमें अत्यन्त गोपनीयअध्यात्मदर्शनका समावेश हुआ है ।। ५९-६० ।।

यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च ।

मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च ।। ६१ ।।

सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च ।

जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजिकम् ।। ६२ ।।

इसके पश्चात् यानसन्धि तथा भगवद्यानपर्व है, इसीमें मातलिका उपाख्यान, गालव-चरित, सावित्र, वामदेव तथा वैन्य-उपाख्यान, जामदग्न्य और षोडशराजिक-उपाख्यानआते हैं ।। ६१-६२ ।।

सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम् ।

उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च ।। ६३ ।।

फिर श्रीकृष्णका सभाप्रवेश, विदुलाका अपने पुत्रके प्रति उपदेश, युद्धका उद्योग,सैन्यनिर्याण तथा विश्वोपाख्यान-इनका क्रमशः उल्लेख हुआ है ।। ६३ ।।

ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः ।

निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः ।। ६४ ।।

इसी प्रसंगमें महात्मा कर्णका विवादपर्व है। तदनन्तर कौरव एवं पाण्डव – सेनाकानिर्याणपर्व है ।। ६४ ।।

रथातिरथसंख्या च पर्वोतक्तं तदनन्तरम् ।

उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम् ।। ६५ ।।

तत्पश्चात् रथातिरथसंख्यापर्व और उसके बाद क्रोधकी आग प्रज्वलित करनेवालाउलूकदूतागमनपर्व है ।। ६५ ।।

अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम् ।

भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते ।। ६६ ।।

इसके बाद ही अम्बोपाख्यानपर्व है। तत्पश्चात् अद्भुत भीष्माभिषेचनपर्व कहा गयाहै ।। ६६ ।।

जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोत्तं तदनन्तरम् ।

भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम् ।। ६७ ।।

इसके आगे जम्बूखण्ड विनिर्माणपर्व है। तदनन्तर भूमिपर्व कहा गया है, जिसमेंद्वीपोंके विस्तारका कीर्तन किया गया है ।। ६७ ।।

पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः ।

द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः ।। ६८ ।।

इसके बाद क्रमशः भगवद्गीता, भीष्मवध, द्रोणाभिषेक तथा संशप्तकवधपर्वहैं ।। ६८ ।।

अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते ।

जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः । ६९ ।।

इसके बाद अभिमन्युवधपर्व, प्रतिज्ञापर्व, जयद्रथवधपर्व और घटोत्कचवधपर्वहैं ।। ६९ ।।

ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं लोमहर्षणम् ।

मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते ।। ७० ।।

फिर रोंगटे खड़े कर देनेवाला द्रोणवधपर्व जानना चाहिये। तदनन्तरनारायणास्त्रमोक्षपर्व कहा गया है ।। ७० ।।

कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम् ।

ह्रदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम् ।। ७१ ।।

फिर कर्णपर्व और उसके बाद शल्यपर्व है। इसी पर्वमें ह्रदप्रवेश और गदायुद्धपर्व भीहैं ।। ७१ ।।

सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम् ।

अत ऊर्ध्वं सुबीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते ।। ७२ ।।

तदनन्तर सारस्वतपर्व है, जिसमें तीर्थों और वंशोंका वर्णन किया गया है। इसके बाद है।अत्यन्त बीभत्स सौप्तिकपर्व ।। ७२ ।।

ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम् ।

जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम् ।। ७३ ।।

इसके बाद अत्यन्त दारुण ऐषीकपर्वकी कथा है। फिर जलप्रदानिक औरस्त्रीविलापपर्व आते हैं ।। ७३ ।।

श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौध्ध्वदेहिकम् ।

चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः ।। ७४ ।।

तत्पश्चात् श्राद्धपर्व है, जिसमें मृत कौरवोंकी अन्त्येष्टिक्रियाका वर्णन है। उसके बादब्राह्मण-वेषधारी राक्षस चार्वाकके निग्रहका पर्व है ।। ७४ ।।

आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजस्य धीमतः ।

प्रविभागो गृहाणां च प्वोक्तं तदनन्तरम् ।। ७५ ।।

तदनन्तर धर्मबुद्धिसम्पन्न धर्मराज युधिष्ठिरके अभिषेकका पर्व है तथा इसके पश्चात्गृहप्रविभागपर्व है ।। ७५ ।।

शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम् ।

आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम् ।। ७६ ।।

इसके बाद शान्तिपर्व प्रारम्भ होता है; जिसमें राजधर्मानुशासन, आपद्धर्म औरमोक्षधर्मपर्व हैं ।। ७६ ।।

शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम् ।

प्रादुर्भावश्च दुर्वासः संवादश्चैव मायया ।। ७७ ।।

फिर शुकप्रश्नाभिगमन, ब्रह्मप्रश्नानुशासन, दुर्वासाका प्रादुर्भाव और मायासवादपर्वहै ।। ७७ ।।

ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम् ।

स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः ।। ७८ ।।

इसके बाद धर्माधर्मका अनुशासन करनेवाला आनुशासनिकपर्व है, तदनन्तर बुद्धिमान्भीष्मजीका स्वर्गारोहणपर्व है ।। ७८ ।।

ततोऽऽश्वमेधिकं पर्व सर्वपापप्रणाशनम् ।

अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम् ।। ७९ ।।

अब आता है आश्वमेधिकपर्व, जो सम्पूर्ण पापोंका नाशक है। उसीमें अनुगीतापर्व है,जिसमें अध्यात्मज्ञानका सुन्दर निरूपण हुआ है ।। ७९ ।।

पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च ।

नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते ।। ८० ।।

इसके बाद आश्रमवासिक, पुत्रदर्शन और तदनन्तर नारदागमनपर्व कहे गयेहैं ।। ८० ।।

मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम् ।

महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः ।। ८१ ।।

इसके बाद है अत्यन्त भयानक एवं दारुण मौसलपर्व। तत्पश्चात् महाप्रस्थानपर्व औरस्वर्गारोहण-पर्व आते हैं ।। ८१ ।।

हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम् ।

विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा ।। ८२ ।।

इसके बाद हरिवंशपर्व है, जिसे खिल (परिशिष्ट) पुराण भी कहते हैं, इसमें विष्णुपर्वश्रीकृष्णकी बाललीला एवं कंसवधका वर्णन है ।। ८२ ।।

भविष्यपर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत् ।

एतत् पर्वशतं पूर्ण व्यासेनोक्तं महात्मना ।। ८३ ।।

इस खिलपर्वमें भविष्यपर्व भी कहा गया है, जो महान् अद्भुत है। महात्माश्रीव्यासजीने इस प्रकार पूरे सौ पर्वोकी रचना की है ।। ८३ ।।

यथावत् सूरपुत्रेण लौमहर्षणिना ततः ।

उक्तानि नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु ।। ८४ ।।

सूतवंशशिरोमणि लोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवाजीने व्यासजीकी रचना पूर्ण हो जानेपरनैमिषारण्यक्षेत्रमें इन्हीं सौ पर्वोको अठारह पर्वोके रूपमें सुव्यवस्थित करके ऋषियोंकेसामने कहा ।। ८४ ।।

समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः ।

पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम् ।। ८५ ।।

सम्भवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोर्वधः ।

तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः ।। ८६ ।।

क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् ।

विदुरागमनं चैव राज्यलम्भस्तथैव च ।। ८७ ।।

वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः ।

हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च । ८८ ।।

मयस्य दर्शनं चैव आदिपर्वणि कथ्यते।इस प्रकार यहाँ संक्षेपसे महाभारतके पर्वोका संग्रह बताया गया है। पौष्य , पौलोम, आस्तीक, आदिअंशावतरण, सम्भव, लाक्षागृह, हिडिम्बवध, बकवध चैत्ररथ, देवी द्रौपदीका स्वयंवर, क्षत्रियधर्मसे राजाओंपर विजयप्राप्तिपूर्वक वैवाहिक विधि, विदुरागमन,राज्यलम्भ, अर्जुनका वनवास, सुभद्राका हरण, हरणाहरण, खाण्डवदाह तथा मयदानवसेमिलनेका प्रसंग-यहाँतककी कथा आदिपवमें कही गयी है ।। ८५-८८ ।।

पौष्ये पर्वणि माहात्म्यमुत्तङ्कस्योपवर्णितम् ।। ८९ ।।

पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः ।

आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च सम्भवः ।। ९० ।।

पौष्यपर्वमें उत्तंकके माहात्म्यका वर्णन है। पौलोमपर्वमें भृगुवंशके विस्तारका वर्णन है।आस्तीकपर्वमें सब नागों तथा गरुड़की उत्पत्तिकी कथा है ।। ८९-९० ।।

क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा।

यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारीक्षितस्य च ।। ९१ ।।

कथेयमभिनिर्वृत्ता भरतानां महात्मनाम् ।

विविधाः सम्भवा राज्ञामुक्ताः सम्भवपर्वणि ।। ९२ ।।

अन्येषां चैव शूराणामृषेर्द्वपायनस्य च ।

अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम् ।। ९३ ।।

इसी पर्वमें क्षीरसागरके मन्थन और उच्चै:श्रवा घोड़ेके जन्मकी भी कथा है।परीक्षितुनन्दन राजा जनमेजयके सर्पयज्ञमें इन भरतवंशी महात्मा राजाओंकी कथा कहीगयी है। सम्भवपर्वमें राजाओंके भिन्न-भिन्न प्रकारके जन्मसम्बन्धी वृत्तान्तोंका वर्णन है।इसीमें दूसरे शूरवीरों तथा महर्षि ह्वैपायनके जन्मकी कथा भी है। यहीं देवताओंकेअंशावतरणकी कथा कही गयी है ।। ९१-९३ ।।

दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम् ।

नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम् ।। ९४ ।।

अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः ।

महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः ।। ९५ ।।

शकुन्तलायां दुष्यन्ताद् भरतश्चापि जज्ञिवान् ।

यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम् ।। ९६ ।।

इसी पर्वमें अत्यन्त प्रभावशाली दैत्य, दानव, यक्ष, नाग, सर्प, गन्धर्व और पक्षियों तथाअन्य विविध प्रकारके प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन है। परम तपस्वी महर्षि कण्वकेआश्रममें दुष्यन्तके द्वारा शकुन्तलाके गर्भसे भरतके जन्मकी कथा भी इसीमें है। उन्हींमहात्मा भरतके नामसे यह भरतवंश संसारमें प्रसिद्ध हुआ है ।। ९४ – ९६ ।।

वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम् ।

शान्तनोर्वेश्मनि पुन्तेषां चारोहणं दिवि ।। ९७ ।।

इसके बाद महाराज शान्तनुके गृहमें भागीरथी गंगाके गर्भसे महात्मा वसुओंकी उत्पत्तिएवं फिरसे उनके स्वर्गमें जानेका वर्णन किया गया है ।। ९७ ।।

तेजोंऽशानां च सम्पातो भीष्मस्याप्यत्र सम्भवः ।

राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः ॥ ९८ ।।

प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च ।

हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः ।। ९९ ।॥

विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये सम्प्रतिपादनम् ।

धर्मस्य नृषु सम्भूतिरणीमाण्डव्यशापजा ।। १०० ।।

कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा ।

धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च सम्भवः ।। १०१ ।।

इसी पर्वमें वसुओं के तेजके अंशभूत भीष्मके जन्मकी कथा भी है। उनकी राज्यभोगसेनिवृत्ति, आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतमें स्थित रहनेकी प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञापालन, चित्रांगदकी रक्षा औरचित्रांगदकी मृत्यु हो जानेपर छोटे भाई विचित्रवीर्यकी रक्षा, उन्हें राज्य -समर्पण,अणीमाण्डव्यके शापसे भगवान् धर्मकी विदुरके रूपमें मनुष्योंमें उत्पत्ति,श्रीकृष्णद्वैपायनके वरदानके कारण धृतराष्ट्र एवं पाण्डुका जन्म और इसी प्रसंगमेंपाण्डवोंकी उत्पत्ति-कथा भी है ।। ९८-१०१ ।।वारणावतयात्रायां मन्त्रो दुर्योधनस्य च ।

कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान् प्रति ।। १०२ ।।

हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः ।

विदुरेण कृतो यत्र हितार्थं म्लेच्छभाषया ।। १०३ ।।

लाक्षागृहदाहपर्वमें पाण्डवोंकी वारणावत-यात्राके प्रसंगमें दुर्योधनके गुप्त षड्यन्त्रकावर्णन है। उसका पाण्डवोंके पास कूटनीतिज्ञ पुरोचनको भेजनेका भी प्रसंग है। मार्गमेंविदुरजीने बुद्धिमान् युधिष्ठिरके हितके लिये म्लेच्छभाषामें जो हितोपदेश किया, उसका भीवर्णन है ।। १०२-१०३ ।।

विदुरस्य च वाक्येन सुरङ्गोपक्रमक्रिया ।

निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि ।। १०४ ।।

पुरोचनस्य चात्रैव दहनं सम्प्रकीर्तितम् ।

पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम् ।। १०५ ।।

तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात् ।

घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता ।। १०६ ।।

फिर विदुरकी बात मानकर सुरंग खुदवानेका कार्य आरम्भ किया गया । उसीलाक्षागृहमें अपने पाँच पुत्रोंके साथ सोती हुई एक भीलनी और पुरोचन भी जल मरे-यहसब कथा कही गयी है। हिडिम्बवधपर्वमें घोर वनके मार्गसे यात्रा करते समय पाण्डवोंकोहिडिम्बाके दर्शन, महाबली भीमसेनके द्वारा हिडिम्बासुरके वध तथा घटोत्कचके जन्मकीकथा कही गयी है ।। १०४-१०६ ।।

महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः ।

तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने ।। १०७ ।।

अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तितः ।

बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः ।। १०८ ।।

अमिततेजस्वी महर्षि व्यासका पाण्डवोंसे मिलना और उनकी आज्ञासे एकचक्रानगरीमें ब्राह्मणके घर पाण्डवोंके गुप्त निवासका वर्णन है। वहीं रहते समय उन्होंनेबकासुरका वध किया, जिससे नागरिकोंको बड़ा भारी आश्चर्य हुआ ।। १०७ -१०८ ।।

सम्भवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह ।

ब्राह्मणात् समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः।। १०९ ।।

द्रौपदीं प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया ।पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः ।। ११० ।।

इसके अनन्तर कृष्णा (द्रौपदी) और उसके भाई धृष्टद्युम्नकी उत्पत्तिका वर्णन है। जबपाण्डवोंको ब्राह्मणके मुखसे यह संवाद मिला, तब वे महर्षि व्यासकी आज्ञासे द्रौपदीकीप्राप्तिके लिये कौतूहलपूर्ण चित्तसे स्वयंवर देखने पांचालदेशकी ओर चलपड़े ।। १०९-११० ।।

अङ्गारपर्णं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा ।

सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे ।। १११ ।।

तापत्यमथ वासिष्ठमौर्वं चाख्यानमुत्तमम् ।

भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ ।। ११२ ।।

पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्वा धनंजयः |।

द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम् ।। ११३ ।।

भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान् पृथिवीपतीन् ।

शल्यकर्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे ।। ११४ ।।

चैत्ररथपर्वमें गंगाके तटपर अर्जुनने अंगारपण गन्धर्वको जीतकर उससे मित्रता कर लीऔर उसीके मुखसे तपती, वसिष्ठ और और्वके उत्तम आख्यान सुने। फिर अर्जुने वहाँसेअपने सभी भाइयोंके साथ पांचालकी ओर यात्रा की। तदनन्तर अर्जुनने पांचालनगरकेबड़े-बड़े राजाओंसे भरी सभामें लक्ष्यवेध करके द्रौपदीको प्राप्त किया-यह कथा भी इसीपर्वमें है। वहीं भीमसेन और अर्जुनने रणांगणमें युद्धके लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओंकोतथा शल्य और कर्णको भी अपने पराक्रमसे पराजित कर दिया।। १११ – ११४ ।।

दृष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम् ।

शङ्कमानौ पाण्डवांस्तान् रामकृष्णौ महामती ।॥ ११५ ।।

जग्मतुस्तैः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि ।

पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शों द्रुपदस्य च ।। ११६ ।।

महामति बलराम एवं भगवान् श्रीकृष्णने जब भीमसेन एवं अर्जुनके अपरिमित औरअतिमानुष बल-वीर्यको देखा, तब उन्हें यह शंका हुई कि कहीं ये पाण्डव तो नहीं हैं। फिरवे दोनों उनसे मिलनेके लिये कुम्हारके घर आये। इसके पश्चात् द्रुपदने ‘पाँचों पाण्डवोंकीएक ही पत्नी कैसे हो सकती है’-इस सम्बन्धमें विचार-विमर्श किया।। ११५-११६ ।।

पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते ।

द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्चाप्यमानुषः ।। ११७ ।।

इसी वैवाहिकपर्वमें पाँच इन्द्रोंका अद्भुत उपाख्यान और द्रौपदीके देवविहित तथा परम्पराके विपरीत विवाहका वर्णन हुआ है ।। ११७ ।।

मनुष्य-क्षत्तुश्च धृतराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान् प्रति ।

विदुरस्य च सम्प्राप्तिर्दर्शनं केशवस्य च ।। ११८ ।।

इसके बाद धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पास विदुरजीको भेजा है, विदुरजी पाण्डवोंसे मिले हैं।तथा उन्हें श्रीकृष्णका दर्शन हुआ है।। ११८ ।।

खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धसज्जनम् ।

नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया ।। ११९ ।।

इसके पश्चात् धृतराष्ट्रका पाण्डवोंको आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थमें पाण्डवोंका निवासकरना एवं नारदजीकी आज्ञासे द्रौपदीके पास आने-जानेके सम्बन्धमें समय-निर्धारण आदिविषयोंका वर्णन है ।। ११९ ।।

सुन्दोपसुन्दयोस्तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम् ।

अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम् ।। १२० ।।

अनुप्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम् ।

मोक्षयित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थं कृतनिश्चयः ।। १२१ ।।

समयं पालयन् वीरो वनं यत्र जगाम ह ।

पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि संगमः ॥ १२२ ।।

इसी प्रसंगमें सुन्द और उपसुन्दके उपाख्यानका भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिनधर्मराज युधिष्ठिर द्रौपदीके साथ बैठे हुए थे। अर्जुनने ब्राह्मणके लिये नियम तोड़कर वहाँप्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मणकी वस्तु उसे प्राप्त करा दी और दृढ़ निश्चयकरके वीरताके साथ मर्यादापालनके लिये वनमें चले गये। इसी प्रसंगमें यह कथा भी कहीगयी है कि वनवासके अवसरपर मार्गमें ही अर्जुन और उलूपीका मेल-मिलाप होगया ।। १२०-१२२ ।।

पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च ।

तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसः शुभाः ।। १२३ ।।

शापाद् ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः ।

प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः ।। १२४ ।।

इसके बाद अर्जुनने पवित्र तीर्थोंकी यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदाके गर्भसेबभ्रुवाहनका जन्म हुआ है और इसी यात्रामें उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओंको मुक्तिदानकिया, जो एक तपस्वी ब्राह्मणके शापसे ग्राह हो गयी थीं। फिर प्रभासतीर्थमें श्रीकृष्ण औरअर्जुनके मिलनका वर्णन है ।। १२३-१२४ ।।

द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी।

वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना ।। १२५ ।।

तत्पश्चात् यह बताया गया है कि द्वारकामें सुभद्रा और अर्जुन परस्पर एक-दूसरेपरआसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्णकी अनुमतिसे अर्जुनने सुभद्राको हर लिया ।। १२५ ।।

गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने ।

अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः ।। १२६ ।।

तदनन्तर देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके दहेज लेकर पाण्डवोंके पास पहुँचनेकी औरसुभद्राके गर्भसे परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्युके जन्मकी कथा है ।। १२६ ।।द्रौपद्यास्तनयानां च सम्भवोऽनुप्रकीर्तितः।विहारार्थं च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु ।। १२७ ।।

सम्प्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम् ।

मयस्य मोक्षो ज्वलनाद् भुजङ्गस्य च मोक्षणम् ।। १२८ ।।

इसके पश्चात् द्रौपदीके पुत्रोंकी उत्पत्तिकी कथा है। तदनन्तर जब श्रीकृष्ण और अर्जुनयमुनाजीके तटपर विहार करनेके लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुषकीप्राप्ति हुई, उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डववनके दाह, मयदानवके छुटकारे औरअग्निकाण्डसे सर्पके सर्वथा बच जानेका वर्णन हुआ है ।। १२७-१२८ ।।

महर्षेर्मन्दपालस्य शाङ्गर्या तनयसम्भवः।

इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहुविस्तरम् ।। १२९ ।।

इसके बाद महर्षि मन्दपालका शाङ्गी पक्षीके गर्भसे पुत्र उत्पन्न करनेकी कथा है। इसप्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्वका सबसे प्रथम निरूपण हुआ है ।। १२९ ।।

अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा ।

सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा ।। १३० ।।

परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यासने इस पर्वमें दो सौ सत्ताईस (२२७) अध्यायोंकीरचना की है ।। १३० ।।

अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च ।

श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना ।। १३१ ।।

महात्मा व्यास मुनिने इन दो सौ सत्ताईस (२२७) अध्यायोंमें आठ हजार आठ सौचौरासी (८,८८४) श्लोक कहे हैं ।। १३१ ।।

द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते ।

सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम् ॥ १३२ ।

लोकपालसभाख्यानं नारदाद् देवदर्शिनः।

राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा ।। १३३ ।।

गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम् ।

तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाण्डवानां प्रकीर्तितः ।॥ १३४ ।।

दूसरा सभापर्व है। इसमें बहुत-से वृत्तान्तोंका वर्णन है। पाण्डवोंका सभानिर्माण,किंकर नामक राक्षसोंका दीखना, देवर्षि नारदद्वारा लोकपालोंकी सभाका वर्णन,राजसूययज्ञका आरम्भ एवं जरासन्धवध, गिरिव्रजमें बंदी राजाओंका श्रीकृष्णके द्वाराछुड़ाया जाना और पाण्डवोंकी दिग्विजयका भी इसी सभापर्वमें वर्णन किया गयाहै ।। १३२-१३४ ।।

राज्ञामागमनं चैव साहर्हणानां महाक्रतौ ।

राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा ।। १३५ ।।

राजसूय महायज्ञमें उपहार ले-लेकर राजाओंके आगमन तथा पहले किसकी पूजा होइस विषयको लेकर छिड़े हुए विवादमें शिशुपालके वधका प्रसंग भी इसी सभापर्वमें आयाहै ।। १३५ ।।

यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च।

दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले ।। १३६ ।।

यज्ञमें पाण्डवोंका यह वैभव देखकर दुर्योधन दुःख और ईष्ष्यासे मन-ही-मनमें जलनेलगा। इसी प्रसंगमें सभाभवनके सामने समतल भूमिपर भीमसेनने उसका उपहासकिया ।। १३६ ।।

यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत्।

यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत् ।। १३७ ।।

उसी उपहासके कारण दुर्योधनके हृदयमें क्रोधाग्नि जल उठी। जिसके कारण उसनेजूएके खेलका षड्यन्त्र रचा। इसी जूएमें कपटी शकुनिने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको जीतलिया ।। १३७ ।।

यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदीं नौरिवार्णवात् ।

धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम् ।। १३८ ।।

तारयामास तांस्तीर्णान् ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः ।

पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान् ।। १३९ ।।

जैसे समुद्रमें डूबी हुई नौकाको कोई फिरसे निकाल ले, वैसे ही दयूतके समुद्रमें डूबी हुईपरमदुःखिनी पुत्रवधू द्रौपदीको परम बुद्धिमान् धृतराष्ट्रने निकाल लिया। जब राजादुर्योधनको जूएकी विपत्तिसे पाण्डवोंके बच जानेका समाचार मिला , तब उसने पुनः उन्हें(पितासे आग्रह करके) जूएके लिये बुलवाया ।। १३८-१३९ ।।

जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः ।

एतत् सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना ।। १४० ।।

दुर्योधनने उन्हें जूएमें जीतकर वनवासके लिये भेज दिया। महर्षि व्यासने सभापर्वमेंयही सब कथा कही है ।। १४० ।।

अध्यायाः सप्ततिज्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया ।

श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च ।। १४१ ।।

श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन् द्विजोत्तमाः ।

अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत् ।। १४२ ।।

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या अठहत्तर (७८) है और श्लोकोंकी संख्यादो हजार पाँच सौ ग्यारह (२,५११) बतायी गयी है। इसके पश्चात् महत्त्वपूर्ण वनपर्वकाआरम्भ होता है ।। १४१-१४२ ।।

वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु ।

पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः ।। १४३ ।।

जिस समय महात्मा पाण्डव वनवासके लिये यात्रा कर रहे थे, उस समय बहुत-२पुरवासी लोग बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरके पीछे-पीछे चलने लगे ।। १४३ ।।

अन्नौषधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना ।

द्विजानां भरणार्थं च कृतमाराधनं रवेः ।। १४४ ।।

महात्मा युधिष्ठिरने पहले अनुयायी ब्राह्मणोंके भरण-पोषणके लिये अन्न औरओषधियाँ प्राप्त करनेके उद्देश्यसे सूर्यभगवान्की आराधना की ।। १४४ ।।

धौम्योपदेशात् तिग्मांशुप्रसादादन्नसम्भवः ।

हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात् ।। १४५ ।।

त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा।

पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात् ।। १४६ ।।

कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ।

वनस्थान् पाण्डवान् हन्तुं मन्त्रों दुर्योधनस्य च ।। १४७ ।।

महर्षि धौम्यके उपदेशसे उन्हें सूर्यभगवान्की कृपा प्राप्त हुई और अक्षय अन्नका पात्रमिला। उधर विदुरजी धृतराष्ट्रको हितकारी उपदेश कर रहे थे , परंतु धृतराष्ट्रने उनकापरित्याग कर दिया। धृतराष्ट्रके परित्यागपर विदुरजी पाण्डवोंके पास चले गये और फिरधृतराष्ट्रका आदेश प्राप्त होनेपर उनके पास लौट आये। धृतराष्ट्रनन्दन दुर्मति दुर्योधननेकर्णके प्रोत्साहनसे वनवासी पाण्डवोंको मार डालनेका विचार किया १४५- १४७ ।।

तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम् ।

निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च ।। १४८ ।।

दुर्योधनके इस दूषित भावको जानकर महर्षे व्यास झटपट वहाँ आ पहुँचे और उन्होंनेदुर्योधनकी यात्राका निषेध कर दिया। इसी प्रसंगमें सुरभिका आख्यान भी है ।। १४८ ।।

मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम् ।

शापोत्सर्गक्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च ।। १४९ ।।

मैत्रेय ऋषिने आकर राजा धृतराष्ट्रको उपदेश किया और उन्होंने ही राजा दुर्योधनकोशाप दे दिया ।। १४९ ।।

किर्मीरस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे ।

वृष्णीनामागमश्चात्र पञ्चालानां च सर्वशः ।। १५० ।।

इसी पर्वमें यह कथा है कि युद्धमें भीमसेनने किर्मीरको मार डाला। पाण्डवोंके पासवृष्णिवंशी और पांचाल आये। पाण्डवोंने उन सबके साथ वार्तालाप किया।। १५० ।।

श्रुत्वा शकुनिना द्यूते निकृत्या निर्जितांश्च तान् ।

क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना ।। १५१ ।।

जब श्रीकृष्णने यह सुना कि शकुनिने जूएमें पाण्डवोंको कपटसे हरा दिया है, तब वेअत्यन्त क्रोधित हुए; परंतु अर्जुनने हाथ जोड़कर उन्हें शान्त किया।। १५१ ।।

परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य संनिरधौ ।

आश्वासनं च कृष्णेन दुःखात्तायाः प्रकीर्तितम् ।। १५२ ।।

द्रौपदी श्रीकृष्णके पास बहुत रोयी-कलपी। श्रीकृष्णने दुःखार्त द्रौपदीको आश्वासनदिया। यह सब कथा वनपर्वमें है ।। १५२ ।।

तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोत्तं महर्षिणा।

सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेन द्वारकां पुरीम् ।। १५३ ।।

नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह ।

प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः । १५४ ।।

इसी पर्वमें महर्षि व्यासने सौभवधकी कथा कही है। श्रीकृष्ण सुभद्राको पुत्रसहितद्वारकामें ले गये। धृष्टद्युम्न द्रौपदीके पुत्रोंको अपने साथ लिवा ले गये। तदनन्तर पाण्डवोंनेपरम रमणीय द्वैतवनमें प्रवेश किया ।। १५३-१५४ ।।

धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह ।

संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः ।। १५५ ।।

इसी पर्वमें युधिष्ठिर एवं द्रौपदीका संवाद तथा युधिष्ठिर और भीमसेनके संवादकाभलीभाँति वर्णन किया गया है ।। १५५ ।।

समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा।

प्रतिस्मृत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा ।। १५६ ।।

महर्षि व्यास पाण्डवोंके पास आये और उन्होंने राजा युधिष्ठिरको प्रतिस्मृति नामकमन्त्रविद्याका उपदेश दिया ।। १५६ ।।

गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः ।

अस्त्रहेतोर्विवासश्च पार्थस्यामिततेजसः ।। १५७ ।।

व्यासजीके चले जानेपर पाण्डवोंने काम्यकवनकी यात्रा की। इसके बादअमिततेजस्वी अर्जुन अस्त्र प्राप्त करनेके लिये अपने भाइयोंसे अलग चले गये ।। १५७ ।।

महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह ।दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च ।। १५८ ।।

वहीं किरातवेशधारी महादेवजीके साथ अर्जुनका युद्ध हुआ, लोकपालोंके दर्शन हुएऔर अस्त्रकी प्राप्ति हुई ।। १५८ ।।

महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः ।यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी । १५९ ।।

इसके बाद अर्जुन अस्त्रके लिये इन्द्रलोकमें गये यह सुनकर धृतराष्ट्रको बड़ी चिन्ताहुई ।। १५९ ।।दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मनः।

युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसनं परिदेवनम् ।। १६० ।।

इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको शुद्धहृदय महर्षि बृहदश्वका दर्शन हुआ। युधिष्ठिरनेआर्त होकर उन्हें अपनी दुःखगाथा सुनायी और विलाप किया।। १६० ।।

नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम् ।

दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा ।। १६१ ।।

इसी प्रसंगमें नलोपाख्यान आता है, जिसमें धर्मनिष्ठाका अनुपम आदर्श है और जिसेपढ़-सुनकर हृदयमें करुणाकी धारा बहने लगती है। दमयन्तीका दृढ़ धैर्य और नलका चरित्रयहीं पढ़नेको मिलते हैं ।। १६१ ।।

तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः ।

लोमशस्यागमस्तत्र स्वर्गात् पाण्डुसुतान् प्रति ।। १६२ ।।

वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम् ।

स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता लोमशेनार्जुनस्य वै ।। १६३ ।।

उन्हीं महर्षिसे पाण्डवोंको अक्षहृदय (जूएके रहस्य) – की प्राप्ति हुई। यहीं स्वर्गसे महर्षिलोमश पाण्डवोंके पास पधारे। लोमशने ही वनवासी महात्मा पाण्डवोंको यह बात बतलायीकि अर्जुन स्वर्गमें किस प्रकार अस्त्र-विद्या सीख रहे हैं ।। १६२-१६३ ।।

संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया ।

तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम् ।। १६४ ।।

इसी पर्वमें अर्जुनका संदेश पाकर पाण्डवोंने तीर्थयात्रा की। उन्हें तीर्थयात्राका फलप्राप्त हुआ और कौन तीर्थ कितने पुण्यप्रद होते हैं-इस बातका वर्णन हुआ है ।। १६४ ।।

पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा ।

तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनाम् ।। १६५ ।।

कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात् ।

तथा यज्ञविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता ।। १६६ ।।

इसके बाद महर्षि नारदने पुलस्त्यतीर्थकी यात्रा करनेकी प्रेरणा दी और महात्मापाण्डवोंने वहाँकी यात्रा की। यहीं इन्द्रके द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वंचित करनेका तथाराजा गयके यज्ञवैभवका वर्णन किया गया है । १६५-१६६ ।।

आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम् ।

लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेस्तथा ।। १६७ ।।

इसके बाद अगस्त्य-चरित्र है, जिसमें उनके वातापिभक्षण तथा संतानके लियेलोपामुद्राके साथ समागमका वर्णन है ।। १६७ ।।

ऋष्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः ।

जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः ।। १६८ ।।

इसके पश्चात् कौमार ब्रह्मचारी ऋष्यशृंगका चरित्र है । फिर परम तेजस्वीजमदग्निनन्दन परशुरामका चरित्र है ।। १६८ ।।

कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते ।

प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः ।। १६९ ।।

इसी चरित्रमें कार्तवीर्य अर्जुन तथा हैहयवंशी राजाओंके वधका वर्णन किया गया है।प्रभासतीर्थमें पाण्डवों एवं यादवोंके मिलनेकी कथा भी इसीमें है।। १६९ ।।

सीकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः ।

शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान् सोमपीतिनौ ।। १७० ।।

इसके बाद सुकन्याका उपाख्यान है। इसीमें यह कथा है कि भृगुनन्दन च्यवननेशर्यातिके यज्ञमें अश्विनीकुमारोंको सोमपानका अधिकारी बना दिया।। १७० ।।

ताभ्यां च यत्र स मुनियौँवनं प्रतिपादितः ।

मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैव प्रकीर्तितम् ।। १७१ ।।

उन्हीं दोनोंने च्यवन मुनिको बूढ़ेसे जवान बना दिया। राजा मान्धाताकी कथा भी इसीपर्वमें कही गयी है ।। १७१ ।।

जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः ।

पुत्रार्थमयजद् राजा लेभे पुत्रशतं च सः ।। १७२ ।।

यहीं जन्तूपाख्यान है। इसमें राजा सोमकने बहुत-से पुत्र प्राप्त करनेके लिये एक पुत्रसेयजन किया और उसके फलस्वरूप सौ पुत्र प्राप्त किये ।। १७२ ।।

ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम् ।

इन्द्राग्नी यत्र धर्मस्य जिज्ञासार्थं शिबिं नृपम् ।। १७३ ।।

इसके बाद श्येन (बाज) और कपोत (कबूतर) – का सर्वोत्तम उपाख्यान है। इसमें इन्द्रऔर अग्नि राजा शिबिके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये आये हैं ।। १७३ ।।

अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना ।

अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेऽभवत् ।। १७४ ।।

नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च ।

पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना ।। १७५ ।।

विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः ।

यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः ।

गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे ।। १७६ ।।

इसी पर्वमें अष्टावक्रका चरित्र भी है। जिसमें बन्दीके साथ जनकके यज्ञमें ब्रह्मर्षिअष्टावक्रके शास्त्रार्थका वर्णन है। वह बन्दी वरुणका पुत्र था और नैयायिकोंमें प्रधान था ।उसे महात्मा अष्टावक्रने वाद-विवादमें पराजित कर दिया। महर्षि अष्टावक्रने बन्दीकोहराकर समुद्रमें डाले हुए अपने पिताको प्राप्त कर लिया । इसके बाद यवक्रीत और महात्मारैभ्यका उपाख्यान है। तदनन्तर पाण्डवोंकी गन्धमादनयात्रा और नारायणाश्रममें निवासकावर्णन है ।। १७४-१७६ ।।

नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने ।

व्रजन् पथि महाबाहुर्दृष्टवान् पवनात्मजम् ।। १७७ ।।

कदलीखण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम् ।

यत्र सौगन्धिकार्थेऽसौ नलिनीं तामधर्षयत् ।। १७८ ।।

द्रौपदीने सौगन्धिक कमल लानेके लिये भीमसेनको गन्धमादन पर्वतपर भेजा। यात्राकरते समय महाबाहु भीमसेनने मार्गमें कदलीवनमें महाबली पवननन्दन श्रीहनुमान्जीकादर्शन किया। यहीं सौगन्धिक कमलके लिये भीमसेनने सरोवरमें घुसकर उसे मथडाला ।। १७७-१७८ ।।

यत्रास्य युद्धमभवत् सुमहद् राक्षसैः सह ।

यक्षैश्चैव महावीर्येर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा ।। १७९ ।।

वहीं भीमसेनका राक्षसों एवं महाशक्तिशाली मणिमान् आदि यक्षोंके साथ घमासानयुद्ध हुआ ।। १७९ ।।

जटासुरस्य च वरधो राक्षसस्य वृकोदरात् ।

वृषपर्वणश्च राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम् ।। १८० ।।

आर्ट्िषेणाश्रमे चैषां गमनं वास एव च ।

प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः ।। १८१ ।।

कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैर्बलोत्कटैः ।

युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह ।। १८२ ।।

तत्पश्चात् भीमसेनके द्वारा जटासुर राक्षसका वध हुआ। फिर पाण्डव क्रमश: राजर्षिवृषपर्वा और आर्ट्िषेणके आश्रमपर गये और वहीं रहने लगे । यहीं द्रौपदी महात्माभीमसेनको प्रोत्साहित करती रही। भीमसेन कैलासपर्वतपर चढ़ गये। यहीं अपनी शक्तिकेनशेमें चूर मणिमान् आदि यक्षोंके साथ उनका अत्यन्त घोर युद्ध हुआ ।। १८०-१८२ ।।

समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च ।

समागमश्चार्जुनस्य त्रैव भ्रातृभिः सह ।॥ १८३ ।।

यहीं पाण्डवोंका कुबेरके साथ समागम हुआ। इसी स्थानपर अर्जुन आकर अपनेभाइयोंसे मिले ।। १८३ ।।

अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थं सव्यसाचिना ।

निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः ।। १८४ ।।

इधर सव्यसाची अर्जुनने अपने बड़े भाईके लिये दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये औरहिरण्यपुरवासी निवातकवच दानवोंके साथ उनका घोर युद्ध हुआ ।। १८४ ।।

निवातकवचैर्घोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः ।पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः ।। १८५ ।।

वधश्चैषां समाख्यातों राज्ञस्तेनैव धीमता ।

अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य संनिधौ ।। १८६ ।।

वहाँ देवताओंके शत्रु भयंकर दानव निवातकवच, पौलोम और कालकेयोंके साथअर्जुनने जैसा युद्ध किया और जिस प्रकार उन सबका वध हुआ था, वह सब बुद्धिमान्अर्जुनने स्वयं राजा युधिष्ठिरको सुनाया इसके बाद अर्जुनने धर्मराज युधिष्ठिरके पास अपनेअस्त्र-शस्त्रोंका प्रदर्शन करना चाहा । १८५-१८६ ।।

पार्थस्य प्रतिषेधश्च नारदेन सुरर्षिणा ।

अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात् ।। १८७ ।।

इसी समय देवर्षि नारदने आकर अर्जुनको अस्त्र-प्रदर्शनसे रोक दिया। अब पाण्डवगन्धमादन पर्वतसे नीचे उतरने लगे ।। १८७ ।।

भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवष्म्मणा ।

भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन् सुगहने वने ।। १८८ ।।

फिर एक बीहड़ वनमें पर्वतके समान विशाल शरीरधारी बलवान् अजगरने भीमसेनकोपकड़ लिया ।। १८८ ।।

अमोक्षयद् यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिषठिरः ।

काम्यकागमनं चैव पुन्तेषां महात्मनाम् ।। १८९ ।।

धर्मराज युधिष्ठिरने अजगर-वेशधारी नहुषके प्रश्नोंका उत्तर देकर भीमसेनको छुड़ालिया। इसके बाद महानुभाव पाण्डव पुनः काम्यकवनमें आये ।। १८९ ।।

तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान् पुरुषर्षभान् ।

वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम् ।॥ १९० ।।

जब नरपुंगव पाण्डव काम्यकवनमें निवास करने लगे, तब उनसे मिलनेके लियेवसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण उनके पास आये-यह कथा इसी प्रसंगमें कही गयी है ।। १९० ।।

मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः ।

पृथोर्वैन्यस्य यत्रोतक्तमाख्यानं परमर्षिणा ।। १९१ ।।

पाण्डवोंका महामुनि मार्कण्डेयके साथ समागम हुआ। वहाँ महर्षिने बहुत सेउपाख्यान सुनाये। उनमें वेनपुत्र पृथुका भी उपाख्यान है ।। १९१ ।।

संवादश्च सरस्वत्यास्ताक्ष्यर्षेः सुमहात्मनः।

मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम् ।। १९२ ।।

इसी प्रसंगमें प्रसिद्ध महात्मा महर्षि ताक्ष्ष्य और सरस्वतीका संवाद है। तदनन्तरमत्स्योपाख्यान भी कहा गया है ।। १९२ ।।

मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते ।

ऐन्द्रद्युम्नमुपाख्यानं धौन्धुमारं तथैव च ।। १९३ ।।

इसी मार्कण्डेय-समागममें पुराणोंकी अनेक कथाएँ, राजा इन्द्रद्युम्नका उपाख्यान तथाधुन्धुमारकी कथा भी है ।। १९३ ।।

पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम् ।

द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया ।। १९४ ।।

पतिव्रताका और आंगिरसका उपाख्यान भी इसी प्रसंगमें है। ट्रौपदीका सत्यभामाकेसाथ संवाद भी इसीमें है ।। १९४ ।।

पुनर्द्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः ।

घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः ।। १९५ ।।

तदनन्तर धर्मात्मा पाण्डव पुनः द्वैतवनमें आये। कौरवोंने घोषयात्रा की और गन्धर्वोनेदुर्योधनको बन्दी बना लिया ।। १९५ ।।

हियमाणस्तु मन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटिना।

धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनम् ।। १९६ ।।

करके उसे छुड़ा वे मन्दमति दुर्योधनको कैद करके लिये जा रहे थे कि अर्जुनने युद्ध

लिया। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरको स्वप्रमें हरिणके दर्शन हुए ।। १९६ ।।

काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते ।

व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् ।। १९७ ।।

इसके पश्चात् पाण्डवगण काम्यक नामक श्रेष्ठ वनमें फिरसे गये। इसी प्रसंगमें अत्यन्तविस्तारके साथ व्रीहिद्रौणिक उपाख्यान भी कहा गया है ।। १९७ ।।

दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।

जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात् ।। १९८ ।।

इसीमें दुर्वासाजीका उपाख्यान और जयद्रथके द्वारा आश्रमसे द्रौपदीके हरणकी कथाभी कही गयी है ।। १९८ ।।

यत्रैनमन्वयाद् भीमो वायुवेगसमो जवे ।

चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः ।। १९९ ।।

उस समय महाबली भयंकर भीमसेनने वायुवेगसे दौड़कर उसका पीछा किया था तथाजयद्रथके सिरके सारे बाल मूँड़कर उसमें पाँच चोटियाँ रख दी थीं ।। १९९ ।।

रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् ।

यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि ।। २०० ।।

वनपर्वमें बड़े ही विस्तारके साथ रामायणका उपाख्यान है, जिसमें भगवान्श्रीरामचन्द्रजीने युद्धभूमिमें अपने पराक्रमसे रावणका वध किया है ।। २०० ।।

सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।

कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरन्दरात् ।। २०१ ।।

इसके बाद ही सावित्रीका उपाख्यान और इन्द्रके द्वारा कर्णको कुण्डलोंसे वंचित करदेनेकी कथा है ।। २०१ ।।

यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽसावदादेकवधाय च ।

आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात् सुतम् ।। २०२ ।।

इसी प्रसंगमें इन्द्रने प्रसन्न होकर कर्णको एक शक्ति दी थी, जिससे कोई भी एक वीरमारा जा सकता था। इसके बाद है आरणेय उपाख्यान, जिसमें धर्मराजने अपने पुत्रयुधिष्ठिरको शिक्षा दी है ।। २०२ ।।

जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम् ।

एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम् ।। २०३ ।।

अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते ।

एकोनसप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः ।। २०४ ।।

और उनसे वरदान प्राप्तकर पाण्डवोंने पश्चिम दिशाकी यात्रा की। यह तीसरे वनपर्वकीसूची कही गयी। इस पर्वमें गिनकर दो सौ उनहत्तर (२६९) अध्याय कहे गयेहै ।। २०३-२०४ ।।

एकादशसहस्राणि श्लोकानां षट् शतानि च।

चतुःषष्टिस्तथाश्लोकाः पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिताः ।। २०५ ।।

ग्यारह हजार छः सौ चौंसठ (११,६६४) श्लोक इस पर्वमें हैं ।। २०५ ।।

अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम् ।

विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम् ।। २०६ ।।

दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत ।

यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते ।। २०७ ।।

इसके बाद विराटपर्वकी विस्तृत सूची सुनो। पाण्डवोंने विराटनगरमें जाकर श्मशानकेपास एक विशाल शमीका वृक्ष देखा। उसीपर उन्होंने अपने सारे अस्त्र शस्त्र रख दिये।तदनन्तर उन्होंने नगरमें प्रवेश किया और छद्मवेशमें वहाँ निवास करनेलगे ।। २०६-२०७ ।।

पाञ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः ।

दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात् ।। २०८ ।।

कीचक स्वभावसे ही दुष्ट था। द्रौपदीको देखते ही उसका मन कामबाणसे घायल होगया। वह द्रौपदीके पीछे पड़ गया। इसी अपराधसे भीमसेनने उसे मार डाला। यह कथाइसी पर्वमें है ।। २०८ ।।

पाण्डवान्वेषणार्थं च राज्ञो दुर्योधनस्य च ।

चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशम् ।। २०९ ।।

राजा दुर्योधनने पाण्डवोंका पता चलानेके लिये बहुत-से निपुण गुप्तचर सब ओरभेजे ।। २०९ ।।

न च प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम् ।

गोग्रहश्च विराटस्य त्रिगत्तैः प्रथमं कृतः ।। २१० ।।

परंतु उन्हें महात्मा पाण्डवोंकी गतिविधिका कोई हालचाल न मिला। इन्हीं दिनोंत्रिगर्तोंने राजा विराटकी गौओंका प्रथम बार अपहरण कर लिया ।। २१० ।।

यत्रास्य युद्धं सुमहत् तैरासील्लोमहर्षणम् ।

ह्रियमाणश्च यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः ।। २११ ।।

राजा विराटने त्रिगत्तोंके साथ रोंगटे खड़े कर देनेवाला घमासान युद्ध किया। त्रिगर्तविराटको पकड़कर लिये जा रहे थे; किंतु भीमसेनने उन्हें छुड़ा लिया ।। २११ ।।

गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः ।

अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम् ।। २१२ ।।

साथ ही पाण्डवोंने उनके गोधनको भी त्रिगतोंसे छुड़ा लिया। इसके बाद ही कौरवोंनेविराटनगरपर चढ़ाई करके उनकी (उत्तर दिशाकी) गायोंको लूटना प्रारम्भ करदिया ।। २१२ ।।

समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि ।

प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना ॥ २१३ ।।

इसी अवसरपर किरीटधारी अर्जुनने अपना पराक्रम प्रकट करके संग्रामभूमिमें सम्पूर्णकौरवोंको पराजित कर दिया और विराटके गोधनको लौटा लिया ।। २१३ ।।

विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः।

अभिमन्युं समुद्दिश्य सौभद्रमरिघातिनम् ।। २१४ ।।

(पाण्डवोंके पहचाने जानेपर) राजा विराटने अपनी पुत्री उत्तरा शत्रुघाती सुभद्रानन्दनअभिमन्युसे विवाह करनेके लिये पुत्रवधूके रूपमें अर्जुनको दे दी ।। २१४ ।।

चतुर्थमेतद् विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम् ।

अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा ।। २१५ ।।

सप्तरषष्टिरथो पूर्णा श्लोकानामपि मे शृणु ।

श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु ।। २१६ ।।

उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन् महर्षिणा ।

उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम् ।। २१७ ।।

इस प्रकार इस चौथे विराटपर्वकी सूचीका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया। परमर्षिव्यासजी महाराजने इस पर्वमें गिनकर सड़सठ (६७) अध्याय रखे हैं। अब तुम मुझसेश्लोकोंकी संख्या सुनो। इस पर्वमें दो हजार पचास (२ ,०५०) श्लोक वेदवेत्ता महर्षिवेदव्यासने कहे हैं। इसके बाद पाँचवाँ उद्योगपर्व समझना चाहिये। अब तुम उसकी विषय-सूची सुनो ।। २१५-२१७ ।।

उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया ।

दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ ।। २१८ ।।

जब पाण्डव उपप्लव्यनगरमें रहने लगे, तब दुर्योधन और अर्जुन विजयकी आकांक्षासेभगवान् श्रीकृष्णके पास उपस्थित हुए ।। २१८ ।।

साहाय्यमस्मिन् समरे भवान् नौ कर्तुमर्हति ।

इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः ।। २१९ ।।

दोनोंने ही भगवान् श्रीकृष्णसे प्रार्थना की कि ‘आप इस युद्धमें हमारी सहायताकीजिये।’ इसपर महामना श्रीकृष्णने कहा- || २१९ |।

अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ ।

अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम् ।। २२० ।।

‘दुर्योधन और अर्जुन! तुम दोनों ही श्रेष्ठ पुरुष हो। मैं स्वयं युद्ध न करके एकका मन्त्रीबन जाऊँगा और दूसरेको एक अक्षौहिणी सेना दे दूँगा। अब तुम्हीं दोनों निश्चय करो किकिसे क्या दूँ?’ ।। २२० ।।

वव्रे दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः ।

अयुध्यमानं सचिवं वक्रे कृष्णं धनञ्जयः ।। २२१ ।।

अपने स्वार्थके सम्बन्धमें अनजान एवं खोटी बुद्धिवाले दुर्योधनने एक अक्षौहिणी सेनामाँग ली और अर्जुनने यह माँग की कि ‘श्रीकृष्ण युद्ध भले ही न करें, परंतु मेरे मन्त्री बनजायँ ।। २२१ ।।

मद्रराजं च राजानमायान्तं पाण्डवान् प्रति ।

उपहारैर्वञ्चयित्वा वत्त्मन्येव सुयोधनः ।। २२२ ।।

वरदं तं वरं वव्रे साहाय्यं क्रियतां मम ।

शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान् ।। २२३ ।।

शान्तिपूर्वं चाकथयद् यत्रेन्द्रविजयं नृपः ।

पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान् प्रति ।। २२४ ।।

मद्रदेशके अधिपति राजा शल्य पाण्डवोंकी ओरसे युद्ध करने आ रहे थे , परंतुदुर्योधनने मार्गमें ही उपहारोंसे धोखेमें डालकर उन्हें प्रसन्न कर लिया और उन वरदायकनरेशसे यह वर माँगा कि ‘मेरी सहायता कीजिये।’ शल्यने दुर्योधनसे सहायताकी प्रतिज्ञाकर ली। इसके बाद वे पाण्डवोंके पास गये और बड़ी शान्तिके साथ सब कुछ समझा-बुझाकर सब बात कह दी। राजाने इसी प्रसंगमें इन्द्रकी विजयकी कथा भी सुनायी।पाण्डवोंने अपने पुरोहितको कौरवोंके पास भेजा ।। २२२-२२४ ।।

वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः ।

तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः । २२५ ।।

संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान् प्रति ।

यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान् । २२६ ।।

धृतराष्ट्रने पाण्डवोंके पुरोहितके इन्द्रविजयविषयक वचनको सादर श्रवण करते हुएउनके आगमनके औचित्यको स्वीकार किया। तत्पश्चात् परम प्रतापी महाराज धृतराष्ट्रने भीशान्तिकी इच्छासे दूतके रूपमें संजयको पाण्डवोंके पास भेजा ।। २२५-२२६ ।।

श्रुत्वा च पाण्डवान् यत्र वासुदेवपुरोगमान् ।

प्रजागरः सम्प्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया ।। २२७ ।।

विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च ।

श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम् ।। २२८ ।।

जब धृतराष्ट्रने सुना कि पाण्डवोंने श्रीकृष्णको अपना नेता चुन लिया है और वे उन्हेंआगे करके युद्धके लिये प्रस्थान कर रहे हैं, तब चिन्ताके कारण उनकी नींद भाग गयी -वेरातभर जागते रह गये। उस समय महात्मा विदुरने मनीषी राजा धृतराष्ट्रको विविध प्रकारसेअत्यन्त आश्चर्यजनक नीतिका उपदेश किया है (वही विदुरनीतिके नामसे प्रसिद्धहै) ।। २२७-२२८ ।।तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम् ।मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः ।। २२९ ।।

उसी समय महर्षि सनत्सुजातने खिन्नचित्त एवं शोकविह्वल राजा धृतराष्ट्रको सर्वोत्तमअध्यात्मशास्त्रका श्रवण कराया ।| २२९ ।।

प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभोः।

ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च ।। २३० ।।

प्रातःकाल राजसभामें संजयने राजा धृतराष्ट्रसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके ऐकात्म्य अथवामित्रताका भलीभाँति वर्णन किया ।। २३० ।।

यत्र कृष्णो दयापन्नः संधिमिच्छन् महामतिः।

स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम् ।। २३१ ।।

इसी प्रसंगमें यह कथा भी है कि परम दयालु सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण दया-भावसे युक्तहो शान्ति-स्थापनके लिये सन्धि करानेके उद्देश्यसे स्वयं हस्तिनापुर नामक नगरमेंपधारे ।। २३१ ।।

प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै ।

शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम् ।। २३२ ।।

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण दोनों ही पक्षोंका हित चाहते थे और शान्तिके लिये प्रार्थनाकर रहे थे, परंतु राजा दुर्योधनने उनका विरोध कर दिया।। २३२ ।।

दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम् ।

वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः ।। २३३ ।।

इसी पर्वमें दम्भोद्भवकी कथा कही गयी है और साथ ही महात्मा मातलिका अपनीकन्याके लिये वर ढूँढ़नेका प्रसंग भी है ।। २३३ ।।

महर्षेश्वापि चरितं कथितं गालवस्य वै ।

विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम् ।। २३४ ।।

इसके बाद महर्षि गालवके चरित्रका वर्णन है । साथ ही विदुलाने अपने पुत्रको जोशिक्षा दी है, वह भी कही गयी है ।। २३४ ।।

कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मनत्रितम् ।

योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम् ।। २३५ ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कर्ण और दुर्योधन आदिकी दूषित मन्त्रणाको जानकर राजाओंकीभरी सभामें अपने योगैश्वर्यका प्रदर्शन किया ।। २३५ ।।

रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः ।

उपायपूर्वं शौटीर्यात् प्रत्याख्यातश्च तेन सः ।। २३६ ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कर्णको अपने रथपर बैठाकर उसे (पाण्डवोंके पक्षमें आनेके लिये)अनेक युक्तियोंसे बहुत समझाया बुझाया, परंतु कर्णने अहंकारवश उनकी बात अस्वीकारकर दी ।। २३६ ।।

आगम्य ह्यस्तिनपुरादुपप्लव्यमरिन्दमः ।

पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान् हरिः ।। २३७ ।।

शत्रुसूदन श्रीकृष्णने हस्तिनापुरसे उपप्लव्यनगर आकर जैसा कुछ वहाँ हुआ था, सबपाण्डवोंको कह सुनाया ।। २३७ ।।

ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम् ।

सांग्रामिकं ततः सर्वं सज्जं चक्रुः परंतपाः ।। २३८ ।।

शत्रुघाती पाण्डव उनके वचन सुनकर और क्या करनेमें हमारा हित है-यह परामर्शकरके युद्ध-सम्बन्धी सब सामग्री जुटानेमें लग गये ।। २३८ ।।

ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः ।

नगराद्धास्तिनपुराद् बलसंख्यानमेव च ।। २३९ ।।

इसके पश्चात् हस्तिनापुर नामक नगरसे युद्धके लिये मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियोंकीचतुरंगिणी सेनाने कूच किया। इसी प्रसंगमें सेनाकी गिनती की गयी है ।। २३९ ।|

यत्र राज्ञा हयुलूकस्य प्रेषणं पाण्डवान् प्रति ।

श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान् प्रभुः ।। २४० ।।

फिर यह कहा गया है कि शक्तिशाली राजा दुर्योधनने दूसरे दिन प्रातःकालसे होनेवालेमहायुद्धके सम्बन्धरमें उलूकको दूत बनाकर पाण्डवोंके पास भेजा।। २४० ।।

रथातिरथसंख्यानमम्बोपाख्यानमेव च ।

एतत् सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते । २४१ ।।

इसके अनन्तर इस पर्वमें रथी, अतिरथी आदिके स्वरूपका वर्णन तथा अम्बाकाउपाख्यान आता है। इस प्रकार महाभारतमें उद्योगपर्व पाँचवाँ पर्व है और इसमें बहुत-सेसुन्दर-सुन्दर वृत्तान्त है।। २४१ ।।

उद्योगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहमिश्रितम् ।

अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिर्महर्षिणा ।। २४२ ।।

श्लोकानां षट्सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च ।

श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना ।। २४३ ।।

व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः।

इस उद्योगपर्वमें श्रीकृष्णके द्वारा सन्धि-संदेश और उलूकके विग्रह-संदेशका महत्त्वपूर्णवर्णन हुआ है। तपोधन महर्षियो! विशालबुद्धि महर्षि व्यासने इस पर्वमें एक सौ छियासी(१८६) अध्याय रखे हैं और श्लोकोंकी संख्या छः हजार छः सौ अट्ठानबे (६,६९८) बतायीहै ।। २४२-२४३३ ।।

अतः परं विचित्रार्थं भीष्मपर्व प्रचक्षते ।। २४४ ।।

जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह।यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत् परम् ।। २४५ ।।

यत्र युद्धमभूद् घोरं दशाहानि सुदारुणम् ।

कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः ।। २४६ ।।

मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः ।

समीक्ष्याधोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः ।। २४७ ।।

रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः।

प्रतोदपाणिराधावद् भीष्मं हन्तु व्यपेतभीः ।। २४८ ।।

इसके बाद विचित्र अर्थोसे भरे भीष्मपर्वकी विषय -सूची कही जाती है, जिसमें संजयनेजम्बूद्वीपकी रचनासम्बन्धी कथा कही है। इस पर्वमें दस दिनोंतक अत्यन्त भयंकर घोरयुद्ध होनेका वर्णन आता है, जिसमें धर्मराज युधिष्ठिरकी सेनाके अत्यन्त दुःखी होनेकीकथा है। इसी युद्धके प्रारम्भमें महातेजस्वी भगवान् वासुदेवने मोक्षत्त्वका ज्ञानकरानेवाली युक्तियोंद्वारा अर्जुनके मोहजनित शोक-संतापका नाश किया था (जो किभगवद्गीताके नामसे प्रसिद्ध है) । इसी पर्वमें यह कथा भी है कि युधिष्ठिरके हितमें संलग्नरहनेवाले निर्भय, उदारबुद्धि, अधोक्षज, भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनकी शिथिलतादेख शीघ्र ही हाथमें चाबुक लेकर भीष्मको मारनेके लिये स्वयं रथसे कूद पड़े और बड़ेवेगसे दौड़े ।। २४४-२४८ ।।

वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः ।

गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः ।। २४९ ।।

साथ ही सब शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ गाण्डीवधन्वा अर्जुनको युद्धभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णनेव्यंग्य-वाक्यके चाबुकसे मार्मिक चोट पहुँचायी ।। २४९ |॥

शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थों महाधनुः ।

विनिघ्नन् निशितैर्बाणै रथाद् भीष्ममपातयत् ।। २५० ।।

तब महाधनुर्धर अर्जुनने शिखण्डीको सामने करके तीखे बाणोंसे घायल करते हुएभीष्मपितामहको रथसे गिरा दिया।। २५० ।।

शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह ।

षष्ठमेतत् समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम् ।। २५१ ।।

जबकि भीष्मपितामह शरशय्यापर शयन करने लगे। महाभारतमें यह छठा पर्वविस्तारपूर्वक कहा गया है ।। २५१ ।।

अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे ।

पञ्च श्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च ।। २५२ ।

श्लोकाश्च चतुराशीतिरस्मिन् पर्वणि कीर्तिताः ।

व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि ।। २५३ ।।

वेदके मर्मज्ञ विद्वान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासने इस भीष्मपर्वमें एक सौ सत्रह ( ११७ )अध्याय रखे हैं। श्लोकोंकी संख्या पाँच हजार आठ सौ चौरासी (५,८८४) कही गयीहै ।। २५२-२५३ ।।

द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते ।

सैनापत्येऽभिषितक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान् ।। २५४ ।।

तदनन्तर अनेक वृत्तान्तोंसे पूर्ण अद्भुत ट्रोणपर्वकी कथा आरम्भ होती है, जिसमेंपरम प्रतापी आचार्य द्रोणके सेनापतिपदपर अभिषिक्त होनेका वर्णन है ।। २५४ ।।

दुर्योधनस्य प्रीत्यर्थं प्रतिजज्ञे महास्त्रवित् ।

ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः ।। २५५ ।।

वहीं यह भी कहा गया है कि अस्त्रविद्याके परमाचार्य द्रोणने दुर्योधनको प्रसन्न करनेकेलिये बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरको पकड़नेकी प्रतिज्ञा कर ली ।। २५५ ।।

यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात् ।

भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि ।। २५६ ।।

सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना।

इसी पर्वमें यह बताया गया है कि संशप्तक योद्धा अर्जुनको रणांगणसे दूर हटा ले गये।वहीं यह कथा भी आयी है कि ऐरावतवंशीय सुप्रतीक नामक हाथीके साथ महाराजभगदत्त भी, जो युद्धमें इन्द्रके समान थे, किरीटधारी अर्जुनके द्वारा मौतके घाट उतार दियेगये ।। २५६ई ।।

यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः ।। २५७ ।।

जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम् ।

इसी पर्वमें यह भी कहा गया है कि शूरवीर बालक अभिमन्युको, जो अभी जवान भीनहीं हुआ था और अकेला था, जयद्रथ आदि बहुत-से विश्वविख्यात महारथियोंने मारडाला ।। २५७३ ।।

हतेऽभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे ।। २५८ ।।

अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः ।

अभिमन्युके वधसे कुपित होकर अर्जुनने रणभूमिमें सात अक्षौहिणी सेनाओंका संहारकरके राजा जयद्रथको भी मार डाला ।। २५८ई ।।

यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः ।। २५९ ।।

अन्वेषणार्थं पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया ।

प्रविष्टौ भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि ।। २६० ।।

उसी अवसरपर महाबाहु भीमसेन और महारथी सात्यकि धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञासेअर्जुनको ढूँढ़नेके लिये कौरवोंकी उस सेनामें घुस गये, जिसकी मोर्चेंन्दी बड़े-बड़े देवताभी नहीं तोड़ सकते थे ।। २५९-२६० ।।संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे ।

संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम् ।। २६१ ।।

किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम् ।

धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाणयोधिनः ।। २६२ ।।

नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः ।

अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान् ।। २६३ ।।

सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ।

घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि ।। २६४ ।।

अर्जुनने संशप्तकोंमेंसे जो बच रहे थे, उन्हें भी युद्धभूमिमें निःशेष कर दिया। महामनासंशप्तक वीरोंकी संख्या नौ करोड़ थी; परंतु किरीटधारी अर्जुनने आक्रमण करके अकेलेही उन सबको यमलोक भेज दिया। धृतराष्ट्रपुत्र, बड़े-बड़े पाषाणखण्ड लेकर युद्धकरनेवाले म्लेच्छ-सैनिक, समरांगणमें युद्धके विचित्र कला-कौशलका परिचय देनेवालेनारायण नामक गोप, अलम्बुष, श्रुतायु, पराक्रमी जलसन्ध, भूरिश्रवा, विराट, महारथीद्रुपद तथा घटोत्कच आदि जो बड़े-बड़े वीर मारे गये हैं, वह प्रसंग भी इसी पर्वमें है ।। २६१-२६४ ।।

अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते ।

अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः ।। २६५ ।।

इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि युद्धमें जब पिता द्रोणाचार्य मार गिराये गये, तबअश्वत्थामाने भी शत्रुओंके प्रति अमर्षमें भरकर ‘नारायण’ नामक भयानक अस्त्रको प्रकटकिया था ।। २६५ ।।

आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम् ।

व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः ।। २६६ ।।

इसीमें आग्नेयास्त्र तथा भगवान् रुद्रके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया गया है।व्यासजीके आगमन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके माहात्म्यकी कथा भी इसीमें है ।। २६६ ।।

सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम् ।

यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः ।। २६७ ।।

द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः ।

अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः ।। २६८ ।।

अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च ।

श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। २६९ ।

पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि ।महाभारतमें यह सातवाँ महान् पर्व बताया गया है। कौरव- पाण्डवयुद्धमें जो नरश्रेष्ठनरेश शूरवीर बताये गये हैं, उनमेंसे अधिकांशके मारे जानेका प्रसंग इस द्रोणपर्वमें ही आयाहै। तत्त्वदर्शी पराशरनन्दन मुनिवर व्यासने भलीभाँति सोच विचारकर द्रोणपर्वमें एक सौसत्तर (१७०) अध्यायों और आठ हजार नौ सौ नौ (८,९०९) श्लोकोंकी रचना एवं गणनाकी है ।। २६७-२६९३

अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम् । २७० ।।

सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः ।

आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम् ।। २७१ ।।

इसके बाद अत्यन्त अद्भुत कर्णपर्वका परिचय दिया गया है। इसीमें परम बुद्धिमान्मद्रराज शल्यको कर्णके सारथि बनानेका प्रसंग है फिर त्रिपुरके संहारकी पुराणप्रसिद्धकथा आरयी है ।। २७०-२७१ ।।

प्रयागे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः ।

हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम् ।। २७२ ।।

युद्धके लिये जाते समय कर्ण और शल्यमें जो कठोर संवाद हुआ है, उसका वर्णन भीइसी पर्वमें है। तदनन्तर हंस और कौएका आक्षेपपूर्ण उपाख्यान है ।। २७२ ।।

वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना ।

दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा ।। २७३ ।।

उसके बाद महात्मा अश्वत्थामाके द्वारा राजा पाण्ड्यके वधकी कथा है। फिर दण्डसेनऔर दण्डके वधका प्रसंग है ।। २७३ ।।

द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः ।

संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम् ।। २७४ ।।

इसी पर्वमें कर्णके साथ युधिष्ठिरके द्वैरथ (द्वनद्ध) युद्धका वर्णन है, जिसमें कर्णने सबधनुर्धर वीरोंके देखते-देखते धर्मराज युधिष्ठिरके प्राणोंको संकटमें डाल दिया था। २७४ ।।

अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः ।

यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि ।। २७५ ।।

तत्पश्चात् युधिष्ठिर और अर्जुनके एक-दूसरेके प्रति क्रोधयुक्त उद्गार हैं, जहाँ भगवान्श्रीकृष्णने अर्जुनको समझा-बुझाकर शान्त किया है ।। २७५ ।।

प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च।

भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान् यत्र संयुगे ।। २७६ ।।

इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि भीमसेनने पहलेकी की हुई प्रतिज्ञाके अनुसारदुःशासनका वक्षःस्थल विदीर्ण करके रक्त पीया था ।। २७६ ।।

द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णों महारथः ।

अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद् भारतचिन्तकैः ।। २७७ ।।

तदनन्तर द्वन्द्वयुद्धमें अर्जुनने महारथी कर्णको जो मार गिराया, वह प्रसंग भी कर्णपर्वमें ही है। महाभारतका विचार करनेवाले विद्वानोंने इस कर्णपर्वको आठवाँ पर्व कहा है ।। २७७ ।।

एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि।

चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च ।। २७८ ।।

चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिताः । कर्णपर्वमें उनहत्तर (६९) अध्याय कहे गये हैं और चार हजार नौ सौ चौंसठ (४,९६४) श्लोकोंका पाठ इस पर्वमें किया गया है ।। २७८३ ।।

अतः परं विचित्रार्थं शल्यपर्व प्रकीर्तितम् ।। २७९ ।।

तत्पश्चात् विचित्र अर्थयुक्त विषयोंसे भरा हुआ शल्यपर्व कहा गया है ।। २७९ ।।

हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत् ।

यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च ।। २८० ।।

इसीमें यह कथा आयी है कि जब कौरवसेनाके सभी प्रमुख वीर मार दिये गये, मद्रराज शल्य सेनापति गया है ।। २८० ।।

वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः ।

विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते ।। २८१ ।

शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः ।

शकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे ।। २८२ ।।

साथ ही वहाँ रथियोंके युद्धका भी विभागपूर्वक वर्णन किया गया है। शल्यपर्वमें ही कुरुकुलके प्रमुख वीरोंके विनाशका तथा महात्मा धर्मराजद्वारा शल्यके वधका वर्णन किया गया है। इसीमें सहदेवके द्वारा युद्धमें शकुनिके मारे जानेका प्रसंग है ।। २८१-२८२ ।।

सैन्ये च हतभूयिष्टे किंचिच्छिष्टे सुयोधनः ।

ह्रदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापो व्यवस्थितः ।। २८३ ।।

जब अधिक-से-अधिक कौरवसेना नष्ट हो गयी और थोड़ी-सी बच रही, तब दुर्योधन सरोवरमें प्रवेश करके पानीको स्तम्भित कर वहीं विश्रामके लिये बैठ गया ।। २८३ ।।

प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुढ्धकैः ।

क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः ।। २८४ ।।

हृदात् समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः ।

भीमेन गदया युद्धं यत्रासी कृतवान् सह ।। २८५ ।।

किंतु व्याधोंने भीमसेनसे दुर्योधनकी यह चेष्टा बतला दी। तब बुद्धिमान् धर्मराजके आक्षेपयुक्त वचनोंसे अत्यन्त अमर्षमें भरकर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन सरोवरसे बाहर निकला और उसने भीमसेनके साथ गदायुद्ध किया। ये सब प्रसंग शल्यपर्वमें ही हैं ।। २८४-२८५ ।। तब हुए। वहीं कुमार कार्तिकेयका उपाख्यान और अभिषेककर्म कहासमवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम् ।

सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता ।। २८६ ।।

गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम् ।

उसीमें युद्धके समय बलरामजीके आगमनकी बात कही गयी है। इसी प्रसंगमेंसरस्वतीतटवर्ती तीर्थोंके पावन माहात्म्यका परिचय दिया गया है। शल्यपर्वमें ही भयंकरगदायुद्धका वर्णन किया गया है ।। २८६।।

दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे । २८७ ।।

ऊरू भरनी प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया।

नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत् ।। २८८ ।।

जिसमें युद्ध करते समय भीमसेनने हठपूर्वक (युद्धके नियमको भंग करके) अपनीभयानक वेग-शालिनी गदासे राजा दुर्योधनकी दोनों जाँघें तोड़ डालीं, यह अद्भुत अर्थसेयुक्त नवाँ पर्व बताया गया है ।। २८७-२८८ ।।

एकोनषष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः ।

संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्यात्र कथ्यते ।। २८९ ।।

इस पर्वमें उनसठ (५९) अध्याय कहे गये हैं, जिसमें बहुत-से वृत्तान्तोंका वर्णन आयाहै। अब इसकी श्लोक-संख्या कही जाती है ।। २८९ ।।

त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा ।

मुनिना सम्प्रणीतानि कौरवाणां यशोभृता ।। २९० ।।

कौरव-पाण्डवोंके यशका पोषण करनेवाले मुनिवर व्यासने इस पर्वमें तीन हजार दोसौ बीस (३,२२०) श्लोकोंकी रचना की है ।। २९० ।।

अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम् ।

भग्नोरुं यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम् ।। २९१ ।।

अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः ।

कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षितम् ॥ २९२ ।।

इसके पश्चात् मैं अत्यन्त दारुण सौप्तिकपर्वकी सूची बता रहा हूँ, जिसमें पाण्डवोंकेचले जानेपर अत्यन्त अमर्षमें भरे हुए टूटी जाँघवाले राजा दुर्योधनके पास, जो खूनसेलथपथ हुआ पड़ा था, सायंकालके समय कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा- ये तीनमहारथी आये ।। २९१-२९२ ।।

समेत्य ददृशुभूमौ पतितं रणमूर्धनि ।

प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्यत्र महारथः ।। २९३ ।।

अहत्वा सर्वपञ्चालान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान् ।

पाण्डवांश्च सहामात्यान् न विमोक्ष्यामि दंशनम् ।। २९४ ।।

निकट आकर उन्होंने देखा, राजा दुर्योधन युद्धके मुहानेपर इस दुर्दशामें पड़ा था। यहदेखकर महारथी अश्वत्थामाको बड़ा क्रोध हुआ और उसने प्रतिज्ञा की कि ‘मैं धृष्टद्युम्नआदि सम्पूर्ण पांचालों और मन्त्रियोंसहित समस्त पाण्डवोंका वध किये बिना अपना कवचनहीं उतारूँगा’ ।। २९३-२९४ ।।

यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः ।

सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद् बनम् ।। २९५ ।।

सौप्तिकपर्वमें राजा दुर्योधनसे ऐसी बात कहकर वे तीनों महारथी वहाँसे चले गये औरसूर्यास्त होते-होते एक बहुत बड़े वनमें जा पहुँचे ।। २९५ ।।

न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद् व्यवस्थिताः ।

ततः काकान् बहून् रात्रौ दृष्ट्वोलूकेन हिंसितान् ।। २९६ ।।

द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन् ।

पञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे ।। २९७ ।।

वहाँ तीनों एक बहुत बड़े बरगदके नीचे विश्रामके लिये बैठे। तदनन्तर वहाँ एक उल्लूनेआकर रातमें बहुत-से कौओंको मार डाला। यह देखकर क्रोधमें भरे अश्वत्थामाने अपनेपिताके अन्यायपूर्वक मारे जानेकी घटनाको स्मरण करके सोते समय ही पांचालोंके वधकानिश्चय कर लिया ।। २९६-२९७ ।।

गत्वा च शिविरद्वारि दुर्दृशं तत्र राक्षसम् ।

घोररूपमपश्यत् स दिवमावृत्य धिष्ठितम् ।। २९८ ।।

तत्पश्चात् पाण्डवोंके शिविरके द्वारपर पहुँचकर उसने देखा, एक बड़ा भयंकर राक्षस,जिसकी ओर देखना अत्यन्त कठिन है, वहाँ खड़ा है। उसने पृथ्वीसे लेकर आकाशतककेप्रदेशको घेर रखा था ।। २९८ ।।

तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च ।

द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः ।। २९९ ।।

अश्वत्थामा जितने भी अस्त्र चलाता, उन सबको वह राक्षस नष्ट कर देता था। यहदेखकर द्रोणकुमारने तुरंत ही भयंकर नेत्रोंवाले भगवान् रुद्रकी आराधना करके उन्हें प्रसन्नकिया ।। २९९ ।।

प्रसुप्तान् निशि विश्वस्तान् धृष्टद्युम्नपुरोगमान् ।

पञ्चालान् सपरीवारान् द्रौपदेयांश्च सर्वशः ।। ३०० ।।

कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजघ्निवान् ।

यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात् ।। ३०१ ।।

सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः ।

पञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद् वधः ।। ३०२ ।।

धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः ।

द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता ।। ३०३ ।।

तत्पश्चात् अश्वत्थामाने रातमें निःशंक सोये हुए धृष्टद्युम्न आदि पांचालों तथाद्रौपदीपुत्रोंको कृतवर्मा और कृपाचार्यकी सहायतासे परिजनोंसहित मार डाला। भगवान्श्रीकृष्णकी शक्तिका आश्रय लेनेसे केवल पाँच पाण्डव और महान् धनुर्धर सात्यकि बचगये, शेष सभी वीर मारे गये। यह सब प्रसंग सौप्तिकपर्वमें वर्णित है। वहीं यह भी कहागया है कि धृष्टद्युम्नके सारथिने जब पाण्डवोंको यह सूचित किया कि द्रोणपुत्रने सोये हुएपांचालोंका वध कर डाला है, तब द्रौपदी पुत्रशोकसे पीड़ित तथा पिता और भाईकी हत्यासेव्यथित हो उठी ।। ३००-३०३ ।।

कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तुनुपाविशत् ।

द्रौपदीवचनाद् यत्र भीमो भीमपराक्रमः ।। ३०४ ।।

प्रियं तस्याश्चिकीर्षन् वै गदामादाय वीर्यवान् ।

अन्वधावत् सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम् ।। ३०५ ।।

वह पतियोंको अश्वत्थामासे इसका बदला लेनेके लिये उत्तेजित करती हुई आमरणअनशनका संकल्प ले अन्न-जल छोड़कर बैठ गयी । द्रौपदीके कहनेसे भयंकर पराक्रमीमहाबली भीमसेन उसका प्रिय करनेकी इच्छासे हाथमें गदा ले अत्यन्त क्रोधमें भरकरगुरुपुत्र अश्वत्थामाके पीछे दौड़े ।। ३०४-३०५ ।।

भीमसेनभयाद् यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः ।

अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत् ।। ३०६ ।।

तब भीमसेनके भयसे घबराकर दैवकी प्रेरणासे पाण्डवोंके विनाशके लियेअश्वत्थामाने रोषपूर्वक दिव्यास्त्रका प्रयोग किया।। ३०६ ।।

मैवमित्यब्रवीत् कृष्णः शमयंस्तस्य तद् वचः।

यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः ।। ३०७ ।।

किंतु भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामाके रोषपूर्ण वचनको शान्त करते हुए कहा- ‘मैवम्’ – ‘ पाण्डवोंका विनाश न हो।’ साथ ही अर्जुनने अपने दिव्यास्त्रद्वारा उसकेअस्त्रको शान्त कर दिया ।। ३०७ ।।

द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा ।

द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः ।। ३०८ ।।

उस समय पापात्मा द्रोणपुत्रके द्रोहपूर्ण विचारको देखकर ह्वैपायन व्यास एवंश्रीकृष्णने अश्वत्थामाको और अश्वत्थामाने उन्हें शाप दिया। इस प्रकार दोनों ओरसे एक-दूसरेको शाप प्रदान किया गया ।। ३०८ ।।

मणिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात् ।

पाण्डवाः प्रददुर्हृष्टा द्रौपद्यै जितकाशिनः ।। ३०९ ।।

महारथी अश्वत्थामासे मणि छीनकर विजयसे सुशोभित होनेवाले पाण्डवोंने प्रसन्नतापूर्वक द्रौपदीको दे दी ।। ३०९ ।।

एतद् वै दशामं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम् ।

अष्टादशास्मिन्नध्यायाः पर्वण्युक्ता महात्मना ।। ३१० ।।

इन सब वृत्तान्तोंसे युक्त सौप्तिकपर्व दसवाँ कहा गया है। महात्मा व्यासने इसमें अठारह (१८) अध्याय कहे हैं ।। ३१० ।।

श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया ।

श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना ।। ३११ ।।

इसी प्रकार उन ब्रह्मवादी मुनिने इस पर्वमें श्लोकोंकी संख्या आठ सौ सत्तर (८७०) बतायी है ।। ३११ ।।

सौप्तिकैषीके सम्बद्धे पर्वण्युत्तमतेजसा ।

अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम् । ३१२ ।।

उत्तम तेजस्वी व्यासजीने इस पर्वमें सौप्तिक और ऐषीक दोनोंकी कथाएँ सम्बद्ध कर दी हैं। इसके बाद विद्वानोंने स्त्रीपर्व कहा है, जो करुणरसकी धारा बहानेवाला है ।। ३१२ ।।

पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः ।

कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढाम् ।। ३१३ ।।

भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्ट्रो बभञ्ज ह ।

तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः ।। ३१४ ।।

संसारगहनं बुद्धया हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः ।

विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम् ।। ३१५ ।।

प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्रने पुत्रशोकसे संतप्त हो भीमसेनके प्रति द्रोहबुद्धि कर ली और श्रीकृष्णद्वारा अपने समीप लायी हुई लोहेकी मजबूत प्रतिमाको भीमसेन समझकर भुजाओंमें भर लिया तथा उसे दबाकर टूक-टूक कर डाला। उस समय पुत्रशोकसे पीड़ित बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रको विदुरजीने मोक्षका साक्षात्कार करानेवाली युक्तियों तथा विवेकपूर्ण बुद्धिके द्वारा संसारकी दुःखरूपताका प्रतिपादन करते हुए भलीभाँति समझा- बुझाकर शान्त किया ।। ३१३-३१५ ।।

धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा ।

सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम् ।। ३१६ ।।

इसी पर्वमें शोकाकुल धृतराष्ट्रका अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ कौरवोंके युद्धस्थानमें जानेका वर्णन है ।। ३१६ ।।

विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः ।

क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारीधृतराष्ट्रयोः । ३१७ ।।

3,वहीं वीरपत्नियोंके अत्यन्त करुणापूर्ण विलापका कथन है। वहीं गान्धारी औरधृतराष्ट्रके क्रोधावेश तथा मूर्च्छित होनेका उल्लेख है ।। ३१७ ।।

यत्र तान् क्षत्रियाः शूरान् संग्रामेष्वनिरवर्तिनः ।

पुत्रान् भ्रातृन् पितृंश्चैव ददृशुर्निहतान् रणे । ३१८ ।।

उस समय उन क्षत्राणियोंने युद्धमें पीठ न दिखानेवाले अपने शूरवीर पुत्रों, भाइयों औरपिताओंको रणभूमिमें मरा हुआ देखा ।। ३१८ ।।

पुत्रपौत्रवधातर्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता ।

गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया ।। ३१९ ।।

पुत्रों और पौत्रोंके वधसे पीड़ित गान्धारीके पास आकर भगवान् श्रीकृष्णने उनकेक्रोधको शान्त किया। इस प्रसंगका भी इसी पर्वमें वर्णन किया गया है ।। ३१९ |।

यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः ।

राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः ।। ३२० ।।

वहीं यह भी कहा गया है कि परम बुद्धिमान् और सम्पूर्ण धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजायुधिष्ठिरने वहाँ मारे गये समस्त राजाओंके शरीरोंका शास्त्रविधिसे दाह-संस्कार किया औरकराया ।। ३२० ।।

तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके ।

गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयाऽऽत्मनः ।। ३२१ ।।

सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा ।

एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम् ।। ३२२ ।।

प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम् ।

सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन् प्रकीर्तिताः ।। ३२३ ।

श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता ।

संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता ।। ३२४ ।।

तदनन्तर राजाओंको जलांजलिदानके प्रसंगमें उन सबके लिये तर्पणका आरम्भ होतेही कुन्तीद्वारा गुप्तरूपसे उत्पन्न हुए अपने पुत्र कर्णका गूढ़ वृत्तान्त प्रकट किया गया, यहप्रसंग आता है। महर्षि व्यासने ये सब बातें स्त्रीपर्वमें कही हैं। शोक और विकलताका संचारकरनेवाला यह ग्यारहवाँ पर्व श्रेष्ठ पुरुषोंके चित्तको भी विह्वल करके उनके नेत्रोंसे आँसूकीधारा प्रवाहित करा देता है। इस पर्वमें सत्ताईस (२७) अध्याय कहे गये हैं। इसके श्लोकोंकीसंख्या सात सौ पचहत्तर (७७५) कही गयी है। इस प्रकार परम बुद्धिमान् व्यासजीनेमहाभारतका यह उपाख्यान कहा है ।। ३२१-३२४ ।।

अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम् ।

यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः ।। ३२५ ।।

घातयित्वा पितृन् भ्रातृन् पुत्रान् सम्बन्धिमातुलान् ।

शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताः शारतल्पिकाः ।। ३२६ ।।

स्त्रीपर्वके पश्चात् बारहवाँ पर्व शान्तिपर्वके नामसे विख्यात है। यह बुद्धि और विवेकको बढ़ानेवाला है। इस पर्वमें यह कहा गया है कि अपने पितृतुल्य गुरुजनों, भाइयों, पुत्रों, सगे- सम्बन्धी एवं मामा आदिको मरवाकर राजा युधिष्ठिरके मनमें बड़ा निर्वेद ( दुःख एवं वैराग्य) हुआ। शान्तिपर्वमें बाणशय्यापर शयन करनेवाले भीष्मजीके द्वारा उपदेश किये हुए वर्णन है ।। ३२५-३२६ ।।

राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञानबुभुत्सुभिः।

आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः ।। ३२७ ।।

यान् बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक् सर्वज्ञत्वमवाप्नयात् ।

मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः ।। ३२८ ।।

उत्तम ज्ञानकी इच्छा रखनेवाले राजाओंको उन्हें भलीभाँति जानना चाहिये। उसी पर्वमें काल और कारणकी अपेक्षा रखनेवाले देश और कालके अनुसार व्यवहारमें लानेयोग्य आपद्धर्मोका भी निरूपण किया गया है, जिन्हें अच्छी तरह जान लेनेपर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। शान्तिपर्वमें विविध एवं अद्भुत मोक्ष-धर्मोका भी बड़े विस्तारके साथ प्रतिपादन किया गया है ।। ३२७-३२८ ।।

द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत् प्राज्ञजनप्रियम् ।

अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम् ।। ३२९ ।।

त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधनाः ।

धर्मोकाचतुर्दश सहस्राणि तथा सप्त शतानि च ।। ३३० ।।

सप्त श्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया।

अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम् ।। ३३१ ।।

इस प्रकार यह बारहवाँ पर्व कहा गया है, जो ज्ञानीजनोंको अत्यन्त प्रिय है। इस पर्वमें तीन सौ उन्तालीस (३३९) अध्याय हैं और तपोधनो! इसकी श्लोक-संख्या चौदह हजार सात सौ बत्तीस (१४,७३२) है । इसके बाद उत्तम अनुशासनपर्व है, यह जानना चाहिये ।। ३२९-३३१ ।।

यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम् ।

भीष्माद् भागीरथीपुत्रात् कुरुराजो युधिष्ठरः ।। ३३२ ।।

जिसमें कुरुराज युधिष्ठिर गंगानन्दन भीष्मजीसे धर्मका निश्चित सिद्धान्त सुनकर प्रकृतिस्थ हुए, यह बात कही गयी है ।। ३३२ ।।

व्यवहारोऽत्र कात्स्न्येन धर्मार्थी यः प्रकीर्तितः ।

विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः ।। ३३३ ।।

इसमें धर्म और अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाले हितकारी आचार-व्यवहारका निरूपण किया गया है। साथ ही नाना प्रकारके दानोंके फल भी कहे गये हैं ।। ३३३ ।।

तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः ।

आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः ।॥ ३३४ ।।

महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च ।

रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम् ।॥ ३३५ ।।

एतत् सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम् ।

भीष्मस्यात्रैव सम्प्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता ।। ३३६ ।।

दानके विशेष पात्र, दानकी उत्तम विधि, आचार और उसका विधान, सत्यभाषणकीपराकाष्ठा, गौओं और ब्राह्मणोंका माहात्म्य, धर्मोका रहस्य तथा देश और काल (तीर्थ औरपर्व)-की महिमा-ये सब अनेक वृत्तान्त जिसमें वर्णित हैं, वह उत्तम अनुशासन-पर्व है।इसीमें भीष्मको स्वर्गकी प्राप्ति कही गयी है ।। ३३४ – ३३६ ।।

एतत् त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम् ।

अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु ॥ ३३७ ।।

धर्मका निर्णय करनेवाला यह पर्व तेरहवाँ है। इसमें एक सौ छियालीस (१४६) अध्यायहै ।। ३३७ ।।

श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया ।

ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम् ।। ३३८ ।।

और पूरे आठ हजार (८,०००) श्लोक कहे गये हैं। तदनन्तर चौदहवें आश्वमेधिकनामक पर्वकी कथा है ।। ३३८ ।।

तत् संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम् ।

सुवर्णकोषसम्प्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः ।। ३३९ ।।

जिसमें परम उत्तम योगी संवर्त तथा राजा मरुत्तका उपाख्यान है। युधिष्ठिरको सुवर्णकेखजानेकी प्राप्ति और परीक्षित्के जन्मका वर्णन है ।। ३३९ ||

दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात् संजीवनं पुनः ।

चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः ।। ३४० ।।

तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः ।

चित्राङ्गदायाः पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजयः ॥ ३४१ ।।

संग्रामे बभ्रुवाहेण संशयं चात्र दर्शितः ।

अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च ।। ३४२ ।।

इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम्।

अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः ।। ३४३ ।।

त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च ।

विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। ३४४ ।

पहले अश्वत्थामाके अस्त्रकी अग्निसे दग्ध हुए बालक परीक्षित्का पुनः श्रीकृष्णकेअनुग्रहसे जीवित होना कहा गया है। सम्पूर्ण राष्ट्रोंमें घूमनेके लिये छोड़े गयेअश्वमेधसम्बन्धी अश्वके पीछे पाण्डुनन्दन अर्जुनके जाने और उन-उन देशोंमें कुपितराजकुमारोंके साथ उनके युद्ध करनेका वर्णन है। पुत्रिकाधर्मके अनुसार उत्पन्न हुएचित्रांगदाकुमार बभ्रुवाहनने युद्धमें अर्जुनको प्राणसंकटकी स्थितिमें डाल दिया था; यहकथा भी अश्वमेधपर्वमें ही आयी है। वहीं अश्वमेध-महायज्ञमें नकुलोपाख्यान आया है। इसप्रकार यह परम अद्भुत आश्वमेधिकपर्व कहा गया है। इसमें एक सौ तीन अध्याय पढ़े गयेहैं। तत्त्वदर्शी व्यासजीने इस पर्वमें तीन हजार तीन सौ बीस (३, ३२०) श्लोकोंकी रचना कीहै ।। ३४०-३४४ ।।

ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम् ।

यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः ।। ३४५ ।।

धृतराष्ट्रोऽऽश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह ।

यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा ।। ३४६ ।।

तदनन्तर आश्रमवासिक नामक पंद्रहवें पर्वका वर्णन है। जिसमें गान्धारीसहित राजाधृतराष्ट्र और विदुरके राज्य छोड़कर वनके आश्रममें जानेका उल्लेख हुआ है। उस समयधृतराष्ट्रको प्रस्थान करते देख सती साध्वी कुन्ती भी गुरुजनोंकी सेवामें अनुरक्त हो अपनेपुत्रका राज्य छोड़कर उन्हींके पीछे-पीछे चली गयीं । ३४५-३४६ ।

पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता ।

यत्र राजा हतान् पुत्रान् पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान् ।। ३४७ ।।

लोकान्तरगतान् वीरानपश्यत् पुनरागतान् ।

ऋषेः प्रसादात् कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम् ।। ३४ ८ ।

त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः ।

यत्र धर्मं समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः ।। ३४९ ।।

संजयश्च सहामात्यो विद्वान् गावल्गणिर्वशी ।

ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः ।। ३५० ।।

जहाँ राजा धृतराष्ट्रने युद्धमें मरकर परलोकमें गये हुए अपने वीर पुत्रों , पौत्रों तथाअन्यान्य राजाओंको भी पुनः अपने पास आया हुआ देखा। महर्षि व्यासजीके प्रसादसे यहउत्तम आश्चर्य देखकर गान्धारीसहित धृतराष्ट्रने शोक त्याग दिया और उत्तम सिद्धि प्राप्तकर ली। इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि विदुरजीने धर्मका आश्रय लेकर उत्तम गतिप्राप्त की। साथ ही मन्त्रियोंसहित जितेन्द्रिय विद्वान् गवल्गणपुत्र संजयने भी उत्तम पदप्राप्त कर लिया। इसी पर्वमें यह बात भी आयी है कि धर्मराज युधिष्ठिरको नारदजीकादर्शन हुआ ।। ३४७-३५० ।।

नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत् ।एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भुतम् ।। ३५१ ।।

नारदजीसे ही उन्होंने यदुवंशियोंके महान् संहारका समाचार सुना। यह अत्यन्तअद्भुत आश्रमवासिकपर्व कहा गया है ।। ३५१ ।।

द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया ।

सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्च श्लोकशतानि च ।। ३५२ ।।

षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।

अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम् ।। ३५३ ।।

इस पर्वमें अध्यायोंकी संख्या बयालीस (४२) है । तत्त्वदर्शी व्यासजीने इसमें एक हजारपाँच सौ छः (१,५०६) श्लोक रखे हैं। इसके बाद मौसलपर्वकी सूची सुनो-यह पर्वअत्यन्त दारुण है ।। ३५२-३५३ ।।

यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शहता युधि ।

ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः ।। ३५४ ।।

इसीमें यह बात आयी है कि वे श्रेष्ठ यदुवंशी वीर क्षारसमुद्रके तटपर आपसके युद्धमेंअस्त्र-शस्त्रोंके स्पर्शमात्रसे मारे गये। ब्राह्मणोंके शापने उन्हें पहले ही पीस डालाथा ।। ३५४ ।।

आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः।

एरकारूपिभिर्वज्रैर्निजघ्नुरितरेतरम् ।। ३५५ ।।

उन सबने मधुपानके स्थानमें जाकर खूब पीया और नशेसे होश-हवास खो बैठे। फिरदैवसे प्रेरित हो परस्पर संघर्ष करके उन्होंने एरकारूपी वज्रसे एक-दूसरेको मारडाला ।। ३५५ ।।

यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ ।

नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत् ।। ३५६ ।।

वहीं सबका संहार करके बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाइयोंने समर्थ होते हुए भीअपने ऊपर आये हुए सर्वसंहारकारी महान् कालका उल्लंघन नहीं किया ( महर्षियोंकीवाणी सत्य करनेके लिये कालका आदेश स्वेच्छासे अंगीकार कर लिया) ।। ३५६ ।।

यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम् ।

दृष्ट्वा विषादमगमत् परां चार्ति नरर्षभः ।। ३५७ ।।

वहीं यह प्रसंग भी है कि नरश्रेष्ठ अर्जुन द्वारकामें आये और उसे वृष्णिवंशियोंसे सूनीदेखकर विषादमें डूब गये। उस समय उनके मनमें बड़ी पीड़ा हुई ।। ३५७ ।।

स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः ।

ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत् ।। ३५८ ।।

उन्होंने अपने मामा नरश्रेष्ठ वसुदेवजीका दाहसंस्कार करके आपानस्थानमें जाकरयदुवंशी वीरोंके विकट विनाशका रोमांचकारी दृश्य देखा ।। ३५८ ।।शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः ।

संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः ।। ३५९ ।।

वहाँसे भगवान् श्रीकृष्ण, महात्मा बलराम तथा प्रधान-प्रधान वृष्णिवंशी वीरोंकेशरीरोंको लेकर उन्होंने उनका संस्कार सम्पन्न किया ।। ३५९ ।।

स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम् ।

ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम् ।। ३६० ।।

तदनन्तर अर्जुनने द्वारकाके बालक, वृद्ध तथा स्त्रियोंको साथ ले वहाँसे प्रस्थान किया;परंतु उस दुःखदायिनी विपत्तिमें उन्होंने अपने गाण्डीव धनुषकी अभूतपूर्व पराजयदेखी ।। ३६० ।।

सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम् ।

नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रभावाणामनित्यताम् ।। ३६१ ।।

दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः ।

धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत् ।। ३६२ ।।

उनके सभी दिव्यास्त्र उस समय अप्रसन्न -से होकर विस्मृत हो गये। वृष्णिकुलकीस्त्रियोंका देखते-देखते अपहरण हो जाना और अपने प्रभावोंका स्थिर न रहना- यह सबदेखकर अर्जुनको बड़ा निर्वेद (दुःख) हुआ। फिर उन्होंने व्यासजीके वचनोंसे प्रेरित होधर्मराज युधिष्ठिरसे मिलकर संन्यासमें अभिरुचि दिखायी ।। ३६१-३६२ ।।

इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम् ।

अध्यायाष्टौ समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम् ।। ३६३ ।।

श्लोकानां विंशतिश्चैव संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।

महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम् ।। ३६४ ।।

इस प्रकार यह सोलहवाँ मौसलपर्व कहा गया है। इसमें तत्त्वज्ञानी व्यासने गिनकरआठ (८) अध्याय और तीन सौ बीस (३२०) श्लोक कहे हैं। इसके पश्चात् सत्रहवाँमहाप्रस्थानिकपर्व कहा गया है ।। ३६३-३६४ ।।

यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः ।

द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः ।। ३६५ ।।

जिसमें नरश्रेष्ठ पाण्डव अपना राज्य छोड़कर द्रौपदीके साथ महाप्रस्थानके* पथपरआ गये ।। ३६५ ।।

यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम् ।

यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने ।। ३६६ ।।

ददौ सम्पूज्य तद् दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम् ।

यत्र भ्रातून् निपतितान् द्रौपदीं च युधिष्ठिरः ।। ३६७ ।।

दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन् ।एतत् सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम् ।। ३६८ ।।

उस यात्रामें उन्होंने लाल सागरके पास पहुँचकर साक्षात् अग्निदेवको देखा औरउन्हींकी प्रेरणासे पार्थने उन महात्माको आदरपूर्वक अपना उत्तम एवं दिव्य गाण्डीव धनुषअर्पण कर दिया। उसी पर्वमें यह भी कहा गया है कि राजा युधिष्ठिरने मार्गमें गिरे हुए अपनेभाइयों और द्रौपदीको देखकर भी उनकी क्या दशा हुई यह जाननेके लिये पीछेकी ओरफिरकर नहीं देखा और उन सबको छोड़कर आगे बढ गये। यह सत्रहवाँ महाप्रस्थानिकपर्वकहा गया है ।। ३६६-३६८ ।।

यत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शत्रयम् ।

विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना ।। ३६९ ।।

इसमें तत्त्वज्ञानी व्यासजीने तीन (३) अध्याय और एक सौ तेईस (१२३) श्लोकगिनकर कहे हैं ।। ३६९ ।।

स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत् तदमानुषम् ।

प्राप्तं दैवरथं स्वर्गान्नेष्टवान् यत्र धर्मराट् ।। ३७० ।।

आरोढुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना ।

तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः ।। ३७१ ।।

श्वरूपं यत्र तत् त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वितः ।

स्वर्गं प्राप्तः स च तथा यातना विपुला भृशम् ।। ३७२ ।।

देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम् ।

शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातृणां करुणा गिरः ।। ३७३ ।।

निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम् ।

अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराजेन पाण्डवः ।। ३७४ ।।

तदनन्तर स्वर्गारोहणपर्व जानना चाहिये। जो दिव्य वृत्तान्तोंसे युक्त और अलौकिक है।उसमें यह वर्णन आया है कि स्वर्गसे युधिष्ठिरको लेनेके लिये एक दिव्य रथ आया, किंतुमहाज्ञानी धर्मराज युधिष्ठिरने दयावश अपने साथ आये हुए कुत्तेको छोड़कर अकेले उसपरचढ़ना स्वीकार नहीं किया। महात्मा युधिष्ठिरकी धर्में इस प्रकार अविचल स्थिति जानकरकुत्तेने अपने मायामय स्वरूपको त्याग दिया और अब वह साक्षात् धर्मके रूपमें स्थित होगया। धर्मके साथ युधिष्ठिर स्वर्गमें गये। वहाँ देवदूतने व्याजसे उन्हें नरककी विपुलयातनाओंका दर्शन कराया। वहीं धर्मात्मा युधिष्ठिरने अपने भाइयोंकी करुणाजनक पुकारसुनी थी। वे सब वहीं नरकप्रदेशमें यमराजकी आज्ञाके अधीन रहकर यातना भोगते थे ।तत्पश्चात् धर्मराज तथा देवराजने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको वास्तवमें उनके भाइयोंको जोसद्गति प्राप्त हुई थी, उसका दर्शन कराया ।। ३७०- ३७४ ।।

आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम् ।

स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट् ।। ३७५ ।।

मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रैः सुरगणैः सह ।

एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता ।। ३७६ ।।

इसके बाद धर्मराजने आकाशगंगामें गोता लगाकर मानवशरीरको त्याग दिया औरस्वर्गलोकमें अपने धर्मसे उपार्जित उत्तम स्थान पाकर वे इन्द्रादि देवताओंके साथ उनसेसम्मानित हो आनन्दपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार बुद्धिमान् व्यासजीने यह अठारहवाँ पर्वकहा है ।। ३७५-३७६ ।।

अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वण्यस्मिन् महात्मना ।

श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधनाः ।। ३७७ ।।

नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा ।

अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषतः ।। ३७८ ।।

तपोधनो! परम ऋषि महात्मा व्यासजीने इस पर्वमें गिने-गिनाये पाँच (५) अध्याय औरदो सौ नौ (२०९) श्लोक कहे हैं। इस प्रकार ये कुल मिलाकर अठारह पर्व कहे गयेहै ।। ३७७-३७८ ।।

खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम् ।

दशश्लोकसहस्राणि विंशच्छ्लोकशतानि च ।। ३७९ ॥

खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा ।

एतत् सर्वं समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः ।। ३८० ।।

खिलपर्वोंमें हरिवंश तथा भविष्यका वर्णन किया गया है। हरिवंशके खिलपर्ोंमें महर्षिव्यासने गणनापूर्वक बारह हजार (१२,०००) श्लोक रखे हैं। इस प्रकार महाभारतमें यहसब पर्वोका संग्रह बताया गया है ।। ३७९-३८० ।।

अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया ।

तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत् ।। ३८१ ।।

कुरुक्षेत्रमें युद्धकी इच्छासे अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थीं और वहमहाभयंकर युद्ध अठारह दिनोंतक चलता रहा ।। ३८१ ।।

यो विद्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विजः ।

न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद् विचक्षणः ।। ३८२ ।।

जो द्विज अंगों और उपनिषदोंसहित चारों वेदोंको जानता है, परंतु इस महाभारत-इतिहासको नहीं जानता, वह विशिष्ट विद्वान् नहीं है ।। ३८२ ।।

अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत् ।

कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना ।। ३८३ ।।

असीम बुद्धिवाले महात्मा व्यासने यह अर्थशास्त्र कहा है। यह महान् धर्मशास्त्र भी है,इसे कामशास्त्र भी कहा गया है (और मोक्षशास्त्र तो यह है ही) ।। ३८३ ।।

श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते ।

पुंस्कोकिलरुतं श्रुत्वा रूक्षा ध्वाङ्क्षस्य वागिव ।। ३८४ ।।

इस उपाख्यानको सुन लेनेपर और कुछ सुनना अच्छा नहीं लगता। भला कोकिलकाकलरव सुनकर कौओंकी कठोर ‘काँय-काँय’ किसे पसंद आयेगी? ।। ३८४ ।।

इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः ।

पञ्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः । ३८५ ।।

जैसे पाँच भूतोंसे त्रिविध (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधि भौतिक) लोकसृष्टियाँप्रकट होती हैं, उसी प्रकार इस उत्तम इतिहाससे कवियोंको काव्यरचनाविषयक बुद्धियाँप्राप्त होती है ।। ३८५ ।।

अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः ।

अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः ।। ३८६ ।।

द्विजवरो! इस महाभारत-इतिहासके भीतर ही अठारह पुराण स्थित हैं, ठीक उसीतरह, जैसे आकाशमें ही चारों प्रकारकी प्रजा (जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज)विद्यमान हैं ।। ३८६ ।।

क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः ।

इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रियाः ।। ३८७ ।।

जैसे विचित्र मानसिक क्रियाएँ ही समस्त इन्द्रियोंकी चेष्टाओंका आधार हैं उसी प्रकारसम्पूर्ण लौकिक-वैदिक कर्मोंके उत्कृष्ट फल-साधनोंका यह आख्यान ही आधारहै ।। ३८७ ।।

अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते ।

आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम् ।। ३८८ ।।

जैसे भोजन किये बिना शरीर नहीं रह सकता, वैसे ही इस पृथ्वीपर कोई भी ऐसी कथानहीं है जो इस महाभारतका आश्रय लिये बिना प्रकट हुई हो ।। ३८८ ।।

इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते ।

उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः ।। ३८९ ।।

अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे ।

साधोरिव शेषास्त्रय इवाश्रमाः ।। ३९० ।।

‘गृहस्थस्य सभी श्रेष्ठ कवि इस महाभारतकी कथाका आश्रय लेते हैं और लेंगे। ठीक वैसे ही, जैसेउन्नति चाहनेवाले सेवक श्रेष्ठ स्वामीका सहारा लेते हैं। जैसे शेष तीन आश्रम उत्तम गृहस्थआश्रमसे बढ़कर नहीं हो सकते, उसी प्रकार संसारके कवि इस महाभारत काव्यसे बढ़करकाव्य-रचना करनेमें समर्थ नहीं हो सकते ।। ३८९ -३९० ।।

धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थिताना स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः ।

अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमानानैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम् ।। ३९१ ।।

तपस्वी महर्षियो! (तथा महाभारतके पाठको!) आप सब लोग सदा सांसारिकआसक्तियोंसे ऊँचे उठें और आपका मन सदा धर्में लगा रहे; क्योंकि परलोकमें गये हुएजीवका बन्धु या सहायक एकमात्र धर्म ही है। चतुर मनुष्य भी धन और स्त्रियोंका सेवन तोकरते हैं, किंतु वे उनकी श्रेष्ठतापर विश्वास नहीं करते और न उन्हें स्थिर ही मानतेहै ।। ३९१ ।।

द्वैपायनोष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च ।

यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ।। ३९२ ।।

जो व्यासजीके मुखसे निकले हुए इस अप्रमेय ( अतुलनीय ) पुण्यदायक, पवित्र,पापहारी और कल्याणमय महाभारतको दूसरोंके मुखसे सुनता है, उसे पुष्करतीर्थके जलमेंगोता लगानेकी क्या आवश्यकता है? ।। ३९२ ।।

यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन् ।

महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम् । । ३९३ ।।

ब्राह्मण दिनमें अपनी इन्द्रियोंद्वारा जो पाप करता है, उससे सायंकाल महाभारतकापाठ करके मुक्त हो जाता है ।। ३९३ ।।

यद् रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा ।

महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते ।। ३९४ ।।

इसी प्रकार वह मन, वाणी और क्रियाद्वारा रातमें जो पाप करता है, उससे प्रातःकालमहाभारतका पाठ करके छूट जाता है ।। ३९४ ।।

यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति

विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय ।

पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं

तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव ।। ३९५ ।।

जो गौओंके सींगमें सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्राह्मणको प्रतिदिन सौ गौएँ दानदेता है और जो केवल महाभारत-कथाका श्रवणमात्र करता है, इन दोनोंमेंसे प्रत्येककोबराबर ही फल मिलता है ।। ३९५ ।।

आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं

विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण ।

श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं

विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन ।। ३९६ ।।

यह महान् अर्थसे भरा हुआ परम उत्तम महाभारत-आख्यान यहाँ पर्वसंग्रहाध्यायकेद्वारा समझना चाहिये। इस अध्यायको पहले सुन लेनेपर मनुष्योंके लिये महाभारत-जैसेमहासमुद्रमें प्रवेश करना उसी प्रकार सुगम हो जाता है जैसे जहाजकी सहायतासे अनन्तजल-राशिवाले समुद्रमें प्रवेश सहज हो जाता है ।। ३९६ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसंग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पर्वसंग्रहपर्वमें दूसरा अध्याय पूरा

हुआ ।। २ ।।

१. अधिक नीचा-ऊँचा होना, काँटेदार वृक्षोंसे व्याप्तहोना तथा कंकड़-पत्थरोंकी अधिकताका होना आदिभूमिसम्बन्धी दोष माने गये हैं।

२. समन्त नामक क्षेत्रमें पाँच कुण्ड या सरोवर होनेसे उस क्षेत्र और उसके समीपवर्ती प्रदेशका भी समन्तपंचक नामहुआ। परंतु उसका समन्त नाम क्यों पड़ा, इसका कारण इस श्लोकमें बता रहे हैं-‘समेतानाम् अन्तो यस्मिन् ससमन्तः’-समागत सेनाओंका अन्त हुआ हो जिस स्थानपर, उसे समन्त कहते हैं। इसी व्युत्पत्तिके अनुसार वह क्षेत्रसमन्त कहलाता है।* घर छोड़कर निराहार रहते हुए, स्वेच्छासे मृत्युका वरण करनेके लिये निकल जाना और विभिन्न दिशाओंमें भ्रमणकरते हुए अन्तरमें उत्तर दिशा-हिमालयकी ओर जाना-महाप्रस्थान कहलाता है-पाण्डवोंने ऐसा ही किया।(पौष्यपर्व)

तृतीयोऽध्यायः

जनमेजयको सरमाका शाप, जनमेजयद्वारा सोमश्रवाकापुरोहितके पदपर वरण, आरुणि, उपमन्यु, वेद औरउत्तंककी गुरुभक्ति तथा उत्तंकका सर्पयज्ञके लिये

जनमेजयको प्रोत्साहन देना

सौतिरुवाच

जनमेजयः पारीक्षितः सह भ्रातृभिः कुरुक्षेत्रे दीर्घसत्रमुपास्ते ।

तस्य भ्रातरस्त्रयःश्रुतसेन उग्रसेनो भीमसेन इति ।

तेषु तत्सत्रमुपासीनेष्वागच्छत् सारमेयः ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-परीक्षित्के पुत्र जनमेजय अपने भाइयोंके साथ कुरुक्षेत्रमेंदीर्घकालतक चलनेवाले यज्ञका अनुष्ठान करते थे। उनके तीन भाई थे – श्रुतसेन, उग्रसेनऔर भीमसेन। वे तीनों उस यज्ञमें बैठे थे। इतनेमें ही देवताओंकी कुतिया सरमाका पुत्रसारमेय वहाँ आया ।। १ ।।

स जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतो।

रोरूयमाणो मातुः समीपमुपागच्छत् ।। २ ।।

जनमेजयके भाइयोंने उस कुत्तेको मारा। तब वह रोता हुआ अपनी माँके पासगया ।। २ ।।

तं माता रोरूयमाणमुवाच ।

किं रोदिषि केनास्यभिहत इति ।। ३ ।।

बार-बार रोते हुए अपने उस पुत्रसे माताने पूछा-‘बेटा! क्यों रोता है? किसने तुझेमारा है?’ ।। ३ ।।

स एवमुक्तो मातरं प्रत्युवाच।

जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतोऽस्मीति ।। ४ ।।

माताके इस प्रकार पूछनेपर उसने उत्तर दिया- ‘माँ! मुझे जनमेजयके भाइयोंने माराहै’ ।। ४ ।।

तं माता प्रत्युवाच व्यक्तं त्वया ।

तत्रापराद्धं येनास्यभिहत इति ।। ५ ।।

तब माता उससे बोली-‘बेटा! अवश्य ही तूने उनका कोई प्रकटरूपमें अपराध कियाहोगा, जिसके कारण उन्होंने तुझे मारा है’ ।। ५ ।।

स तां पुनरुवाच नापराध्यामि किंचिन्नावेक्षे हवींषि नावलिह इति ।। ६ ।।

तब उसने मातासे पुनः इस प्रकार कहा-‘मैंने कोई अपराध नहीं किया है। न तोउनके हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही है’ ।। ६ ।।

तच्छुत्वा तस्य माता सरमा पुत्रदुःखाता तत् सत्रमुपागच्छद् यत्र स जनमेजयःसह भ्रातृभिर्दीर्घ-सत्रमुपास्ते ।। ७ ।।

यह सुनकर पुत्रके दुःखसे दुःखी हुई उसकी माता सरमा उस सत्रमें आयी, जहाँजनमेजय अपने भाइयोंके साथ दीर्घकालीन सत्रका अनुष्ठान कर रहे थे ।। ७ ।।

स तया क्रुद्धया तत्रोत्तोऽयं मे पुत्रो न किंचिदपराध्यति नावेक्षते हवींषि नावलेढिकिमर्थमभिहत इति ।। ८ ।।

वहाँ क्रोधमें भरी हुई सरमाने जनमेजयसे कहा-‘मेरे इस पुत्रने तुम्हारा कोई अपराधनहीं किया था, न तो इसने हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही था, तब तुमने इसेक्यों मारा?’ ।। ८ ।।

न किञ्चिदुक्तवन्तस्ते सा तानुवाच यस्मादयमभिहतोऽनपकारी तस्माददृष्टं त्वांभयमागमिष्यतीति ।। ९ ।।

किंतु जनमेजय और उनके भाइयोंने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब सरमानेउनसे कहा, ‘मेरा पुत्र निरपराध था, तो भी तुमने इसे मारा है; अतः तुम्हारे ऊपर अकस्मात्ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहलेसे कोई सम्भावना न रही हो’ ।। ९ ।।

जनमेजय एवमुक्तो देवशुन्या सरमया भृशं सम्भ्रान्तो विषण्णश्चासीत् ।। १० ।।

देवताओंकी कुतिया सरमाके इस प्रकार शाप देनेपर जनमेजयको बड़ी घबराहट हुईऔर वे बहुत दुःखी हो गये ।। १० ।।

स तस्मिन् सत्रे समाप्ते हास्तिनपुरं प्रत्येत्य पुरोहितमनुरूपमन्विच्छमानः परंयत्नमकरोद् यो मे पापकृत्यां शमयेदिति ।। ११ ।।

उस सत्रके समाप्त होनेपर वे हस्तिनापुरमें आये और अपनेयोग्य पुरोहितकी खोजकरते हुए इसके लिये बड़ा यत्न करने लगे। पुरोहितके ढूँढ़नेका उद्देश्य यह था कि वह मेरीइस शापरूप पापकृत्याको (जो बल, आयु और प्राणका नाश करनेवाली है) शान्त करदे ।। ११ ।।

स कदाचिन्मृगयां गतः पारीक्षितो जनमेजयः कस्मिंश्चित् स्वविषयआश्रममपश्यत् ।। १२ ।।

एक दिन परीक्षितूपुत्र जनमेजय शिकार खेलनेके लिये वनमें गये। वहाँ उन्होंने एकआश्रम देखा, जो उन्हींके राज्यके किसी प्रदेशमें विद्यमान था ।। १२ ।।

तत्र कश्चिदृषिरासांचक्रे श्रुतश्रवा नाम । तस्य तपस्यभिरतः पुत्र आस्ते सोमश्रवानाम ।। १३ ।।

उस आश्रममें श्रुतश्रवा नामसे प्रसिद्ध एक ऋषि रहते थे। उनके पुत्रका नाम थासोमश्रवा। सोमश्रवा सदा तपस्यामें ही लगे रहते थे ।। १३ ।।

तस्य तं पुत्रमभिगम्य जनमेजयः पारीक्षितः पौरोहित्याय वक्रे ।। १४ ।।

परीक्षित्कुमार जनमेजयने महर्षि श्रुतश्रवाके पास जाकर उनके पुत्र सोमश्रवाकापुरोहितपदके लिये वरण किया ।। १४ ।।

स नमस्कृत्य तमृषिमुवाच भगवन्नयं तव पुत्रो मम पुरोहितोऽस्त्विति ।। १५ ।।

राजाने पहले महर्षिको नमस्कार करके कहा- ‘भगवन्! आपके ये पुत्र सोमश्रवा मेरेपुरोहित हों ।। १५ ।।

स एवमुक्तः प्रत्युवाच जनमेजयं भो जनमेजय पुत्रोऽयं मम सप्यां जातोमहातपस्वी स्वाध्याय-सम्पन्नो मत्तपोवीर्यसम्भृतो मच्छुक्रं पीतवत्यास्तस्याः कुक्षौजातः ।। १६ ।।

उनके ऐसा कहनेपर श्रुतश्रवाने जनमेजयको इस प्रकार उत्तर दिया- ‘ महाराजजनमेजय! मेरा यह पुत्र सोमश्रवा सर्पिणीके गर्भसे पैदा हुआ है। यह बड़ा तपस्वी औरस्वाध्यायशील है। मेरे तपोबलसे इसका भरण-पोषण हुआ है। एक समय एक सर्पिणीनेमेरा वीर्यपान कर लिया था, अतः उसीके पेटसे इसका जन्म हुआ है ।। १६ ।।

समर्थोऽयं भवतः सर्वाः पापकृत्याः शर्मयितु-मन्तरेण महादेवकृत्याम् |। १७ ।

यह तुम्हारी सम्पूर्ण पापकृत्याओं (शापजनित उपद्रवों) – का निवारण करनेमें समर्थ है।केवल भगवान् शंकरकी कृत्याको यह नहीं टाल सकता ।। १७ ।।

अस्य त्वेकमुपांशुव्रतं यदेनं कश्चिद् ब्राह्मणः कंचिदर्थमभियाचेत् तं तस्मै दद्यादयंयद्येतदुत्सहसे ततो नयस्वैनमिति ।। १८ ।।

किंतु इसका एक गुप्त नियम है। यदि कोई ब्राह्मण इसके पास आकर इससे किसीवस्तुकी याचना करेगा तो यह उसे उसकी अभीष्ट वस्तु अवश्य देगा। यदि तुम उदारतापूर्वकइसके इस व्यवहारको सहन कर सको अथवा इसकी इच्छापूर्तिका उत्साह दिखा सको तोइसे ले जाओ’ ।। १८ ।।

तेनैवमुक्तो जनमेजयस्तं प्रत्युवाच भगवंस्तत् तथा भविष्यतीति ।| १९ ||

श्रुतश्रवाके ऐसा कहनेपर जनमेजयने उत्तर दिया – ‘भगवन्! सब कुछ उनकी रुचिकेअनुसार ही होगा’ ।। १९ ।।

स तं पुरोहितमुपादायोपावृत्तो भ्रातृनुवाच मयायं वृत उपाध्यायो यदयं ब्रूयात् तत्कार्यमविचारयद्भिर्भवद्धिरिति । तेनैवमुक्ता भ्रातरस्तस्य तथा चक्रुः । स तथा भ्रातृन्संदिश्य तक्षशिलां प्रत्यभिप्रतस्थे तं च देशं वशे स्थापयामास ।। २० ।।

फिर वे सोमश्रवा पुरोहितको साथ लेकर लौटे और अपने भाइयोंसे बोले-‘इन्हें मैंनेअपना उपाध्याय (पुरोहित) बनाया है। ये जो कुछ भी कहें, उसे तुम्हें बिना किसी सोच-विचारके पालन करना चाहिये।’ जनमेजयके ऐसा कहनेपर उनके तीनों भाई पुरोहितकीप्रत्येक आज्ञाका ठीक-ठीक पालन करने लगे। इधर राजा जनमेजय अपने भाइयोंकोपूर्वोक्त आदेश देकर स्वयं तक्षशिला जीतनेके लिये चले गये और उस प्रदेशको अपने अधिकारमें कर लिया ।। २० ।।

एतस्मिन्नन्तरे बभूवुरुपमन्युरारुणिर्वेदश्चेति ।। २१ ।।

(गुरुकी आज्ञाका किस प्रकार पालन करना चाहिये, इस विषयमें आगेका प्रसंग कहा जाता है-) इन्हीं दिनों आयोदधौम्य नामसे प्रसिद्ध एक महर्षि थे । उनके तीन शिष्य हुए- उपमन्यु, आरुणि पांचाल तथा वेद ।। २१ ।।

स एकं शिष्यमारुणिं पाञ्चाल्यं प्रेषयामास गच्छ केदारखण्डं बधानेति ।। २२ ।।

एक दिन उपाध्यायने अपने एक शिष्य पांचालदेशवासी आरुणिको खेतपर भेजा और कहा-‘वत्स! जाओ, क्यारियोंकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो’ ।। २२ ।।

स उपाध्यायेन संदिष्ट आरुणिः पाञ्चाल्यस्तत्र गत्वा तत् केदारखण्डं बद्धुं नाशकत् ।

स क्लिश्यमानोऽपश्यदुपायं भवत्वेवं करिष्यामि ।। २३ ।।

उपाध्यायके इस प्रकार आदेश देनेपर पांचालदेशवासी आरुणि वहाँ जाकर उस धानकी क्यारीकी मेड़ बाँधने लगा; परंतु बाँध न सका। मेड़ बाँधनेके प्रयत्नमें ही परिश्रम करते-करते उसे एक उपाय सूझ गया और वह मन-ही-मन बोल उठा-‘अच्छा; ऐसा ही कू ।। २३ ।।

स तत्र संविवेश केदारखण्डे शयाने च तथा तस्मिंस्तदुदकं तस्थौ ।। २४ ।।

वह क्यारीकी टूटी हुई मेड़की जगह स्वयं ही लेट गया। उसके लेट जानेपर वहाँका बहता हुआ जल रुक गया ।। २४ ।।

ततः कदाचिदुपाध्याय आयोदो धौम्यः शिष्यानपृच्छत् क्व आरुणिः पाञ्चाल्यो कश्चिदृषिधौंम्यो नामायोदस्तस्य शिष्यास्त्रयोगत इति ।। २५ ।।

फिर कुछ कालके पश्चात् उपाध्याय आयोदधौम्यने अपने शिष्योंसे पूछा -‘पांचालनिवासी आरुणि कहाँ चला गया?’ ।। २५ ।।

ते तं प्रत्यूचुर्भगवंस्त्वयैव प्रेषितो गच्छ केदारखण्डं बधानेति ।

स एवमुक्तस्ताज्छिष्यान् प्रत्युवाच तस्मात् तत्र सर्वे गच्छामो यत्र स गत इति ।। २६ ।।

शिष्योंने उत्तर दिया-‘भगवन्! आपहीने तो उसे यह कहकर भेजा था कि ‘ जाओ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो।’ शिष्योंके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उनसे कहा-‘तो चलो, हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ आरुणि गया है’ ।। २६ ।।

स तत्र गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार ।

भो आरुणे पाञ्चाल्य क्वासि वत्सैहीति ।। २७ ।।

वहाँ जाकर उपाध्यायने उसे आनेके लिये आवाज दी -‘ पांचालनिवासी आरुणि! कहाँ हो वत्स! यहाँ आओ’ ।। २७ ।।

स तच्छुत्वा आरुणिरुपाध्यायवाक्यं तस्मात् केदारखण्डात् सहसोत्थाय तमुपाध्यायमुपतस्थे ।। २८ ।।

उपाध्यायका यह वचन सुनकर आरुणि पांचाल सहसा उस क्यारीकी मेड़से उठा और उपाध्यायके समीप आकर खड़ा हो गया ।। २८ ।।

प्रोवाच चैनमयमस्म्यत्र केदारखण्डे निःसरमाणमुदकमवारणीयं संरोद्धुं संविष्टो भगवच्छब्दं श्रुत्वैव सहसा विदार्य केदारखण्डं भवन्तमुपस्थितः ।। २९ ।।

फिर उनसे विनयपूर्वक बोला-‘भगवन्! मैं यह हूँ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़से निकलते हुए अनिवार्य जलको रोकनेके लिये स्वयं ही यहाँ लेट गया था । इस समय आपकी आवाज सुनते ही सहसा उस मेड़को विदीर्ण करके आपके पास आ खड़ा हुआ ।। २९ ।॥।

तदभिवादये भगवन्तमाज्ञापयतु भवान् कमर्थं करवाणीति ।। ३० ।।

‘मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ, आप आज्ञा दीजिये, मैं कौन-सा कार्य कू?’ ।। ३० ।।

एवमुक्त यस्माद् भवान् केदारखण्डं स उपाध्यायः प्रत्युवाच विदार्योत्थितस्तस्मादुद्दालक भविष्यतीत्युपाध्यायेनानुगृहीतः ।। ३१ ।।

आरुणिके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया- ‘तुम क्यारीके मेड़को विदीर्ण करके उठे हो, अतः इस उद्दलनकर्मके कारण उद्दालक नामसे ही प्रसिद्ध होओगे।’ ऐसा कहकर उपाध्यायने आरुणिको अनुगृहीत किया।। ३१ ।।

यस्माच्च त्वया मद्वचनमनुष्ठितं तस्माच्छ्रेयोऽवाप्स्यसि ।

सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति ।। ३२ ।।

साथ ही यह भी कहा कि, ‘तुमने मेरी आज्ञाका पालन किया है, इसलिये तुम कल्याणके भागी होओगे। सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धिमें स्वयं प्रकाशित हो जायँगे’ ।। ३२ ।।

स एवमुक्त उपाध्यायेनेष्टं देशं जगाम ।

अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्योपमन्युन्नाम ।। ३३ ।।

उपाध्यायके इस प्रकार आशीर्वाद देनेपर आरुणि कृतकृत्य हो अपने अभीष्ट देशको चला गया। उन्हीं आयोदधौम्य उपाध्यायका उपमन्यु नामक दूसरा शिष्य था ।। ३३ ।।

तं चोपाध्यायः प्रेषयामास वत्सोपमन्यो गा रक्षस्वेति ।। ३४ ।।

उसे उपाध्यायने आदेश दिया-‘वत्स उपमन्यु! तुम गौओंकी रक्षा करो’ ।। ३४ ।।

एव नाम्ना भवान् स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये उपाध्यायवचनादरक्षद् गाः; गुरुगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे || ३५| ।

उपाध्यायकी आज्ञासे उपमन्यु गौओंकी रक्षा करने लगा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहकर संध्याके समय गुरुजीके घरपर आता और उनके सामने खड़ा हो नमस्कार सकरता ।। ३५ ।।

तमुपाध्यायः पीवानमपश्यदुवाच चैनं वत्सोपमन्यो केन वृत्तिं कल्पयसिपीवानसि दृढमिति ।। ३६ ।।

उपाध्यायने देखा उपमन्यु खूब मोटा-ताजा हो रहा है, तब उन्होंने पूछा – ‘ बेटाउपमन्यु! तुम कैसे जीविका चलाते हो, जिससे इतने अधिक हृष्ट-पुष्ट हो रहे हो?’ ।। ३६ ।।

स उपाध्यायं प्रत्युवाच भो भैक्ष्यैण वृत्तिं कल्पयामीति ।। ३७ ।।

उसने उपाध्यायसे कहा-‘गुरुदेव! मैं भिक्षासे जीवन-निर्वाह करता हूँ’।। ३७ ।।

तमुपाध्यायः प्रत्युवाच मय्यनिवेद्य भैक्ष्यं नोपयोक्तव्यमिति।

स तथेत्युक्त्वाभैक्ष्यं चरित्वोपाध्यायाय न्यवेदयत् ।। ३८ ।।

यह सुनकर उपाध्याय उपमन्युसे बोले-‘मुझे अर्पण किये बिना तुम्हें भिक्षाका अन्नअपने उपयोगमें नहीं लाना चाहिये।’ उपमन्युने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञास्वीकार कर ली। अब वह भिक्षा लाकर उपाध्यायको अर्पण करने लगा ।। ३८ ।।

स तस्मादुपाध्यायः सर्वमेव भैक्ष्यमगृह्णात् ।

स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद् गाः ।

अहनि रक्षित्वा निशामुखे गुरुकुलमागम्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे |। ३९ ।।

उपाध्याय उपमन्युसे सारी भिक्षा ले लेते थे। उपमन्यु ‘तथास्तु’ कहकर पुनः पूर्ववत्गौओंकी रक्षा करता रहा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहता और (संध्याके समय) पुनःगुरुके घरपर आकर गुरुके सामने खड़ा हो नमस्कार करता था ।। ३९ ।।

तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो सर्वमशेषतस्ते भैक्ष्यंगृल्णामि केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति ।। ४० ।।

उस दशामें भी उपमन्युको पूर्ववत् हृष्ट-पुष्ट ही देखकर उपाध्यायने पूछा- ‘बेटाउपमन्यु! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं ले लेता हूँ, फिर तुम इस समय कैसे जीवन-निर्वाह करतेहो?’ ।। ४० ।।

स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि तेन वृत्तिंकल्पयामीति ।। ४१ ।।

उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उन्हें उत्तर दिया- ‘भगवन् ! पहलेकी लायी हुईभिक्षा आपको अर्पित करके अपने लिये दूसरी भिक्षा लाता हूँ और उसीसे अपनी जीविकाचलाता हूँ’ ।। ४१ ।।

तमुपाध्यायः प्रत्युवाच नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिरन्येषामपि भैक्ष्योपजीविनांवृत्त्युपरोधं करोषि इत्येवं वर्तमानो लुब्धोऽसीति ।। ४२ ।।

यह सुनकर उपाध्यायने कहा-‘यह न्याययुक्त एवं श्रेष्ठ वृत्ति नहीं है । तुम ऐसा करकेदूसरे भिक्षाजीवी लोगोंकी जीविकामें बाधा डालते हो; अतः लोभी हो (तुम्हें दुबारा भिक्षानहीं लानी चाहिये)’ ।। ४२ ।।

स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत् ।

रक्षित्वा च पुनरुपाध्यायगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतःस्थित्वा नमश्चक्रे ।। ४३ ।।

उसने ‘तथास्तु’ कहकर गुरुकी आज्ञा मान ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करने लगा।एक दिन गायें चराकर वह फिर (सायंकालको) उपाध्यायके घर आया और उनके सामनेखड़े होकर उसने नमस्कार किया ।। ४३ ।।

तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वा पुनरुवाच वत्सोपमन्यो अहं ते सर्वं भैक्ष्यंगृल्णामि न चान्यच्चरसि पीवानसि भृशं केन वृत्तिं कल्पयसीति ।। ४४ ।।

उपाध्यायने उसे फिर भी मोटा-ताजा ही देखकर पूछा- ‘ बेटा उपमन्यु! मैं तुम्हारीसारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा नहीं माँगते, फिर भी बहुत मोटे हो।आजकल कैसे खाना-पीना चलाते हो?’ ।। ४४ ।।

स एवमुक्तस्तमुपाध्यायं प्रत्युवाच भो एतासां गवां पयसा वृत्तिं कल्पयामीति ।

तमुवाचोपाध्यायो नैतन्न्याय्यं पय उपयोक्तुं भवतो मया नाभ्यनुज्ञातमिति ॥ ४५ ।।

इस प्रकार पूछनेपर उपमन्युने उपाध्यायको उक्तर दिया- ‘भगवन् ! मैं इन गौओंके दूधसे जीवन-निर्वाह करता हूँ। (यह सुनकर) उपाध्यायने उससे कहा-‘मैंने तुम्हें दूधपीनेकी आज्ञा नहीं दी है, अतः इन गौओंके दूधका उपयोग करना तुम्हारे लिये अनुचितहै’ ।। ४५ ।।

स तथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनरुपाध्यायगृहमेत्य गुरोरग्रतः स्थित्वानमश्चक्रे ।। ४६ ।।

उपमन्युने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दूध न पीनेकी भी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत्गोपालन करता रहा। एक दिन गोचारणके पश्चात् वह पुनः उपाध्यायके घर आया औरउनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया ।। ४६ ।।

तमुपाध्यायः पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो भैक्ष्यं नाश्नासि न चान्यच्चरसिपयो न पिबसि पीवानसि भृशं केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति ।। ४७ ।।

उपाध्यायने अब भी उसे हृष्ट-पुष्ट ही देखकर पूछा- ‘बेटा उपमन्यु! तुम भिक्षाका अन्ननहीं खाते, दुबारा भिक्षा भी नहीं माँगते और गौओंका दूध भी नहीं पीते; फिर भी बहुत मोटेहो। इस समय कैसे निर्वाह करते हो?’ ।। ४७ ।।

स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भोः फेनं पिबामि यमिमे वत्सा मातृणां स्तनात्पिबन्त उद्गिरन्ति ।। ४८ ।।

इस प्रकार पूछनेपर उसने उपाध्यायको उत्तर दिया- ‘भगवन् ! ये बछड़े अपनीमाताओंके स्तनोंका दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, उसीको पी लेता हूँ’ ।। ४८ ।।

तमुपाध्यायः प्रत्युवाच-एते त्वदनुकम्पया गुणवन्तो वत्साः प्रभूततरंफेनमुद्गिरन्ति ।

तदेषामपि वत्सानां वृत्त्युपरोधं करोष्येवं वर्तमानः। फेनमपि भवान्न पातुमर्हतीति ।

स तथेति प्रतिश्रुत्य पुनररक्षद् गाः ।। ४९ ।।

यह सुनकर उपाध्यायने कहा-‘ये बछड़े उत्तम गुणोंसे युक्त हैं, अतः तुमपर दयाकरके बहुत-सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ोंकीजीविकामें बाधा उपस्थित करते हो, अतः आजसे फेन भी न पिया करो ।’ उपमन्युने ‘बहुतअच्छा’ कहकर उसे न पीनेकी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करनेलगा ।। ४९ ।।

तथा प्रतिषिद्धो भैक्ष्यं नाश्नाति न चान्यच्चरति परयो न पिबति फेनं नोपयुङ्क्ते ।

स कदाचिदरण्ये क्षुधात्तोऽर्कपत्राण्यभक्षयत् ।। ५० ।।

इस प्रकार मना करनेपर उपमन्यु न तो भिक्षाका अन्न खाता, न दुबारा भिक्षा लाता, नगौओंका दूध पीता और न बछड़ोंके फेनको ही उपयोगमें लाता था (अब वह भूखा रहनेलगा)। एक दिन वनमें भूखसे पीड़ित होकर उसने आकके पत्ते चबा लिये ।। ५० ।।

स तैरर्कपत्रैर्भक्षितैः क्षारतिक्तकटुरूक्षैस्तीक्ष्णविपाकैश्चक्षुष्युपहतोऽन्धो बभूव ।ततः सोऽन्धोऽपि चङ्क्रम्यमाणः कूपे पपात ।। ५१ ।।

आकके पत्ते खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है।(पाचनकालमें वे पेटके अंदर आगकी ज्वाला-सी उठा देते हैं); अतः उनको खानेसेउपमन्युकी आँखोंकी ज्योति नष्ट हो गयी। वह अन्धा हो गया। अन्धा होनेपर भी वह इधर-उधर घूमता रहा; अतः कुएँमें गिर पड़ा ।। ५१ ।।

अथ तस्मिन्ननागच्छति सूर्ये चास्ताचलावलम्बिनि उपाध्यायः शिष्यानवोचत्-नायात्युपमन्युस्त ऊचुर्वनं गतो गा रक्षितुमिति ।। ५२ ।।

तदनन्तर जब सूर्यदेव अस्ताचलकी चोटीपर पहुँच गये, तब भी उपमन्यु गुरुके घरपरनहीं आया, तो उपाध्यायने शिष्योंसे पूछा-‘उपमन्यु क्यों नहीं आया ?’ वे बोले- ‘वह तोगाय चरानेके लिये वनमें गया था’ ।। ५२ ।।

तानाह उपाध्यायो मयोपमन्युः सर्वतः प्रतिषिद्धः स नियतं कुपितस्ततोनागच्छति चिरं ततोऽन्वेष्य इत्येवमुक्त्वा शिष्यैः सार्धमरण्यं गत्वा तस्याह्वानाय शब्दंचकार भो उपमन्यो क्वासि वर्सैहीति ।। ५३ ।।

तब उपाध्यायने कहा-‘मैंने उपमन्युकी जीविकाके सभी मार्ग बंद कर दिये हैं, अतःनिश्चय ही वह रूठ गया है; इसीलिये इतनी देर हो जानेपर भी वह नहीं आया, अतः हमेंचलकर उसे खोजना चाहिये।’ ऐसा कहकर शिष्योंके साथ वनमें जाकर उपाध्यायने उसेबुलानेके लिये आवाज दी-‘ओ उपमन्यु! कहाँ हो बेटा ! चले आओ’ || ५३ ।।

स उपाध्यायवचनं श्रुत्वा प्रत्युवाचोच्चैरयमस्मिन् कूपे पतितोsहमितितमुपाध्यायः प्रत्युवाच कथं त्वमस्मिन् कूपे पतित इति ।। ५४ ।।

उसने उपाध्यायकी बात सुनकर उच्च स्वरसे उत्तर दिया-‘गुरुजी! मैं कुएँमें गिर पड़ाहूँ।’ तब उपाध्यायने उससे पूछा- ‘वत्स! तुम कुएँमें कैसे गिर गये?’ ।। ५४ ।।

स उपाध्यायं प्रत्युवाच-अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतोऽस्म्यतः कूपे पतितइति ।। ५५ ।।

उसने उपाध्यायको उत्तर दिया- ‘भगवन्! मैं आकके पत्ते खाकर अन्धा हो गया हूँ;इसीलिये कुएँमें गिर गया’ ।। ५५ ।।

तमुपाध्यायः प्रत्युवाच-अश्विनौ स्तुहि ।

तौ देवभिषजौ त्वां चक्षुष्मन्तंकर्ताराविति ।

स एवमुक्त उपाध्यायेनोपमन्युरश्चिनौ स्तोतुमुपचक्रमे देवावश्विनौवाग्भित्ऋग्भिः ।। ५६ ।।

तब उपाध्यायने कहा-‘वत्स! दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके वैद्य हैं। तुम उन्हींकीस्तुति करो। वे तुम्हारी आँखें ठीक कर देंगे।’ उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युनेअश्विनीकुमार नामक दोनों देवताओंकी ऋग्वेदके मन्त्रोंद्वारा स्तुति प्रारम्भ की ।। ५६ ।।

प्रपूर्वगौ पूर्वजौ चित्रभानगिरा वाऽऽशंसामि तपसा ह्यनन्तौ ।

दिव्यौ सुपर्णो विरजौ विमाना-वधिक्षिपन्तौ भुवनानि विश्वा ।। ५७ ।।

हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों सृष्टिसे पहले विद्यमान थे। आप ही पूर्वज हैं। आप हीचित्रभानु हैं। मैं वाणी और तपके द्वारा आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि आप अनन्त हैं।दिव्यस्वरूप हैं। सुन्दर पंखवाले दो पक्षीकी भाँति सदा साथ रहनेवाले हैं। रजोगुणशून्यतथा अभिमानसे रहित हैं। सम्पूर्ण विश्वमें आरोग्यका विस्तार करते हैं ।। ५७ ।।

हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ नासत्यदस्त्रौ सुनसौ वै जयन्तौ ।

शुक्लं वयन्तौ तरसा सुवेमा-वधिव्ययन्तावसितं विवस्वतः ।। ५८ ।।

सुनहरे पंखवाले दो सुन्दर विहंगमोंकी भाँति आप दोनों बन्धु बड़े सुन्दर हैं।पारलौकिक उन्नतिके साधनोंसे सम्पन्न हैं। नासत्य तथा दस्र- ये दोनों आपके नाम हैं।आपकी नासिका बड़ी सुन्दर है। आप दोनों निश्चितरूपसे विजय प्राप्त करनेवाले हैं। आपही विवस्वान् (सूर्यदेव)-के सुपुत्र हैं; अतः स्वयं ही सूर्यरूपमें स्थित हो दिन तथा रात्रिरूपकाले तन्तुओंसे संवत्सररूप वस्त्र बुनते रहते हैं और उस वस्त्रद्वारा वेगपूर्वक देवयान औरपितृयान नामक सुन्दर मार्गोको प्राप्त कराते हैं।। ५८ ।।

ग्रस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिका-ममुञ्चतामश्विनौ सौभगाय ।

तावत् सुवृत्तावनमन्त मायया वसत्तमा गा अरुणा उदावहन्॥५९॥

परमात्माकी कालशक्तिने जीवरूपी पक्षीको अपना ग्रास बना रखा है। आप दोनोंअश्विनीकुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषोंने ज्ञान देकर कैवल्यरूप महान् सौभाग्यकीप्राप्तिके लिये उस जीवको कालके बन्धनसे मुक्त किया है । मायाके सहवासी अत्यन्तअज्ञानी जीव जबतक राग आदि विषयोंसे आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियोंके समक्ष नत-मस्तकरहते हैं, तबतक वे अपने-आपको शरीरसे आबद्ध ही मानते हैं ।। ५९ ।।

षष्टिश्च गावस्त्रिशताश्च धेनव एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति ।

नानागोष्ठा विहिता एकदोहना-स्तावश्विनौ दुहतो घर्ममुक्थ्यम् ।। ६० ।।

दिन एवं रात-ये मनोवांछित फल देनेवाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं। वे सब एकही संवत्सररूपी बछड़ेको जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबकाउत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़ेको निमित्त बनाकर उन गौओंसेविभिन्न फल देनेवाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं; उन सब क्रियाओंका एक(तत्त्वज्ञानकी इच्छा) ही दोहनीय फल है। पूर्वोक्त गौओंको आप दोनों अश्विनीकुमार हीदुहते हैं ।। ६० ।।

एकां नाभिं सप्तशता अराः श्रिताः प्रधिष्वन्या विंशतिरर्पिता अराः ।

अनेमि चक्रं परिवर्ततेऽजरं मायाश्विनौ समनत्ति चर्षणी ।। ६१ ।।

हे अश्विनीकुमारो! इस कालचक्रकी एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिसपर रात औरदिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं। वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरोंकोथामनेवाले पुट्टों)-में जुड़े हुए हैं। अश्विनीकुमारो! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्रबिना नेमिके ही अनियत गतिसे घूमता तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकोंकीप्रजाओंका विनाश करता रहता है ।। ६१ ।।

एकं चक्रं वर्तते द्वादशारं षण्णाभिमेकाक्षमृतस्य धारणम् ।

यस्मिन् देवा अधि विश्वे विषक्ता-स्तावश्विनौ मुञ्चतं मा विषीदतम् ।। ६२ ।।

अश्विनीकुमारो! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छःनाभियाँ हैं और संवत्सर जिसकी एक धुरी है, वह एकमात्र कालचक्र सब ओर चल रहा है।यही कर्मफलको धारण करनेवाला आधार है। इसीमें सम्पूर्ण कालाभिमानी देवता स्थित हैं।आप दोनों मुझे इस कालचक्रसे मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदिके दुःखसे अत्यन्तकष्ट पा रहा हूँ ।। ६२ ।।

अश्विनाविन्दुममृतं वृत्तभूयौ तिरोधत्तामश्विनौ दासपत्नी ।

हित्वा गिरिमश्विनौ गा मुदा चरन्तौ तद्वृष्टिमह्वा प्रस्थितौ बलस्य ।। ६३ ।।

हे अश्विनीकुमारो! आप दोनोंमें सदाचारका बाहुल्य है। आप अपने सुयशसे चन्द्रमा,अमृत तथा जलकी उज्ज्वलताको भी तिरस्कृत कर देते हैं। इस समय मेरु पर्वतकोछोड़कर आप पृथ्वीपर सानन्द विचर रहे हैं। आनन्द और बलकी वर्षा करनेके लिये हीआप दोनों भाई दिनमें प्रस्थान करते हैं ।। ६३ ।।

युवां दिशो जनयथो दशाग्रे समानं मूर्ध्नि रथयानं वियन्ति ।

तासां यातमृषयोऽनुप्रयान्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ।। ६४ ।।

हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों ही सृष्टिके प्रारम्भकालमें पूर्वादि दसों दिशाओंको प्रकटकरते-उनका ज्ञान कराते हैं। उन दिशाओंके मस्तक अर्थात् अन्तरिक्ष-लोकमें रथसे यात्राकरनेवाले तथा सबको समानरूपसे प्रकाश देनेवाले सूर्यदेवका और आकाश आदि पाँचभूतोंका भी आप ही ज्ञान कराते हैं। उन उन दिशाओं में सूर्यका जाना देखकर ऋषिलोग भीउनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकारके अनुसार) स्वर्ग यामर्त्यलोककी भूमिका उपयोग करते हैं ।। ६४ ।।

युवां वर्णान् विकुरुथो विश्वरूपां-स्तेऽधिक्षियन्ते भुवनानि विश्वा ।

ते भानवोऽप्यनुसृताश्चरन्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ।। ६५ ।।

हे अश्विनीकुमारो! आप अनेक रंगकी वस्तुओंके सम्मिश्रणसे सब प्रकारकी ओषधियाँतैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्वका पोषण करती हैं। वे प्रकाशमान ओषधियाँ सदा आपकाअनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपनेअधिकारके अनुसार स्वर्ग और मत्त्यलोककी भूमिमें रहकर उन ओषधियोंका सेवन करतेहैं ।। ६५ ।।

तौ नासत्यावश्विनौ वां महेऽहं स्रजं च यां बिभृथः पुष्करस्य।

तौ नासत्यावमृतावृतावृधा-वृते देवास्तत्प्रपदे न सूते ।। ६६ ।।

अश्विनीकुमारो! आप ही दोनों ‘नासत्य’ नामसे प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जोकमलकी माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होनेके साथ हीसत्यका पोषण और विस्तार करनेवाले हैं। आपके सहयोगके बिना देवता भी उस सनातनसत्यकी प्राप्तिमें समर्थ नहीं हैं ।। ६६ ।।

मुखेन गर्भ लभेतां युवानौ गतासुरेतत् प्रपदेन सूते ।

सद्यो जातो मातरमत्ति गर्भ-स्तावश्विनौ मुञ्चथो जीवसे गाः ।। ६७ ।।

युवक माता-पिता संतानोत्पत्तिके लिये पहले मुखसे अन्नरूप गर्भ धारण करते हैं।तत्पश्चात् पुरुषोंमें वीर्यरूपमें और स्त्रीमें रजोरूपसे परिणत होकर वह अन्न जड शरीर बनजाता है। तत्पश्चात् जन्म लेनेवाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही माताके स्तनोंकालगता है। हे अश्विनीकुमारो! पूर्वोक्त रूपसे संसार- बन्धनमें बँधे हुए जीवोंको आपतत्त्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाहके लिये मेरी नेत्रेन्द्रियको भी रोगसे मुक्तकरें ।। ६७ ।।

दूध पीने स्तोतुं न शक्नोमि गुणैर्भवन्तौ चक्षुर्विहीनः पथि सम्प्रमोहः ।

दुर्गेऽहमस्मिन् पतितोऽस्मि कूपे युवां शरण्यौ शरणं प्रपद्ये || ६८ ॥

अश्विनीकुमारो! मैं आपके गुणोंका बखान करके आप दोनोंकी स्तुति नहीं कर सकता।इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचाननेमें भी भूल हो जाती है; इसीीलियेइस दुर्गम कूपमें गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं; अतः मैं आपकी शरणलेता हूँ ।। ६८ ।।

इत्येवं तेनाभिष्टुतावश्चिनावाजग्मतुराहतुश्चैनं प्रीतौ स्व एष तेऽपूपोऽशानैनमिति।। ६९ ।।

इस प्रकार उपमन्युके स्तवन करनेपर दोनों अश्विनीकुमार वहाँ आये और उससे बोले-उपमन्यु! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। यह तुम्हारे खानेके लिये पूआ है, इसे खालो’ ।। ६९ ।।

स एवमुक्तः प्रत्युवाच नानृतमूचतुर्भगवन्तौ न त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहेगुरवेऽनिवेद्येति ।। ७० ।।

उनके ऐसा कहनेपर उपमन्यु बोला – ‘भगवन्! आपने ठीक कहा है, तथापि मैंगुरुजीको निवेदन किये बिना इस पूएको अपने उपयोगमें नहीं ला सकता’ ।। ७० ।।

ततस्तमश्विनावूचतुः-आवाभ्यांउपाध्यायेनैवमेवाभिष्टुताभ्यामपूपो दत्त उपयुक्तः स तेनानिवेद्य गुरवे त्वमपि तथैवकुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति ।॥ ७१ ।।

पुरस्ताद् भवततब दोनों अश्विनीकुमार बोले-‘वत्स! पहले तुम्हारे उपाध्यायने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हमने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरुजीको निवेदन किये बिना ही काममें ले लिया था। तुम्हारे उपाध्यायने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करो’ ।। ७१ ।।

स एवमुक्तः प्रत्युवाच-एतत् प्रत्यनुनये भवन्तावश्विनौ नोत्सहेऽहमनिवेद्य गुरवेऽपूपमुपयोत्तुमिति ।। ७२ ।।

उनके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उत्तर दिया -‘इसके लिये तो आप दोनों अश्विनीकुमारोंकी मैं बड़ी अनुनय-विनय करता हूँ। गुरुजीके निवेदन किये बिना मैं इस पूएको नहीं खा सकता’ ।। ७२ ।।

तमश्विनावाहतुः प्रीतौ स्वस्तवानया गुरुभक्त्या उपाध्यायस्य ते काष्णायसा भवतोऽपि श्रेयश्चावाप्स्यसीति ।। ७३ ।।

तब अश्विनीकुमार उससे बोले, ‘तुम्हारी इस गुरु-भक्तिसे हम बड़े प्रसन्न हैं । तुम्हारे उपाध्यायके दाँत काले लोहेके समान हैं। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायँगे तुम्हारी आँखें भी ठीक हो जायँगी और तुम कल्याणके भागी भी होओगे’ ।। ७३ ।।

स एवमुक्तोऽश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्याभ्यवादयत् ।। ७४ ।।

अश्विनीकुमारोंके ऐसा कहनेपर उपमन्युको आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्यायके समीप आकर उन्हें प्रणाम किया ।। ७४ ।।

आचचक्षे च स चास्य प्रीतिमान् बभूव ।। ७५ ।।

तथा सब बातें गुरुजीसे कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए ।। ७५ ।।

आह चैनं यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोऽवाप्स्यसि ।। ७६ ।।

और उससे बोले-‘जैसा अश्विनीकुमारोंने कहा है, उसी प्रकार तुम कल्याणके भागी होओगे ।। ७६ ।।

सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति ।

एषा तस्यापि परीक्षोपमन्योः ।। ७७ ।।

‘तुम्हारी बुद्धिमें सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे ‘ इस प्रकार यह उपमन्युकी परीक्षा बतायी गयी।। ७७ ।।

अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्यायः समादिदेश वत्स वेद इहास्यतां तावन्मम गृहे कंचित् कालं शुश्रूषुणा च भवितव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति ।। ७८ ।।

उन्हीं आयोदधौम्यके तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें उपाध्यायने आज्ञा दी, ‘वत्स वेद! तुम कुछ कालतक यहाँ मेरे घरमें निवास करो। सदा शुश्रूषामें लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा’ ।। ७८ ।।

दन्ता हिरण्मया भविष्यन्ति चक्षुष्मांश्च भविष्यसीतिस तथेत्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरोऽवसद् गौरिव नित्यं गुरुणा धूर्षुनियोज्यमानः शीतोष्णक्षुत्तृष्णादुःखसहः सर्वत्राप्रतिकूलस्तस्य महता कालेन गुरुःपरितोषं जगाम ।। ७९ ।।

वेद ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरुके घरमें रहने लगे। उन्होंने दीर्घकालतक गुरुकी सेवाकी। गुरुजी उन्हें बैलकी तरह सदा भारी बोझ ढोनेमें लगाये रखते थे और वेद सरदी-गरमीतथा भूख-प्यासका कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओंमें गुरुके अनुकूल ही रहते थे। इसप्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरुजी उनपर पूर्णतः संतुष्ट हुए ।। ७९ ।।

तत्परितोषाच्च श्रेयः सर्वज्ञतां चावाप ।

एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य |। ८० ।।

गुरुके संतोषसे वेदने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली। इस प्रकार यह वेदकी परीक्षाकावृत्तान्त कहा गया।। ८० ।।

स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृतस्तस्माद् गुरुकुलवासाद् गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत ।तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रयः शिष्या बभूवुः स शिष्यान् न किंचिदुवाच कर्म वा क्रियतांगुरुशुश्रूषा चेति ।

दुःखाभिज्ञो हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान् परिक्लेशेन योजयितुंनेयेष ।। ८१ ।।

तदनन्तर उपाध्यायकी आज्ञा होनेपर वेद समावर्तन- संस्कारके पश्चात् स्नातक होकर गुरुगृहसे लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया अपने घरमें निवास करतेसमय आचार्य वेदके पास तीन शिष्य रहते थे , किंतु वे ‘काम करो अथवा गुरुसेवामें लगेरहो’ इत्यादि रूपसे किसी प्रकारका आदेश अपने शिष्योंको नहीं देते थे; क्योंकि गुरुकेघरमें रहनेपर छात्रोंको जो कष्ट सहन करना पड़ता है, उससे वे परिचित थे। इसलिये उनकेमनमें अपने शिष्योंको क्लेशदायक कार्यमें लगानेकी कभी इच्छा नहीं होती थी ।। ८१ ।।

अथ कस्मिंश्चित् काले वेदं ब्राह्मणं जनमेजयः पौष्यश्च क्षत्रियावुपेत्यवरयित्वोपाध्यायं चक्रतुः ।। ८२ ।॥

स कदाचिद् याज्यकार्येणाभिप्रस्थितउत्तङ्कनामानं शिष्यं नियोजयामास ।। ८३ ।।

भो यत् किंचिदस्मद्गृहे परिहीयतेतदिच्छाम्यहमपरिहीयमानं भवता क्रियमाणमिति स एवं प्रतिसंदिश्योत्तङ्कं वेदःप्रवासं जगाम ।। ८४ ।।

एक समयकी बात है-ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेदके पास आकर ‘जनमेजय और पौष्य ‘नामवाले दो क्षत्रियोंने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तरएक दिन उपाध्याय वेदने यजमानके कार्यसे बाहर जानेके लिये उद्यत हो उत्तंक नामवालेशिष्यको अग्निहोत्र आदिके कार्यमें नियुक्त किया और कहा -‘वत्स उत्तंक! मेरे घरमें मेरेबिना जिस किसी वस्तुकी कमी हो जाय, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।उत्तंकको ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये ।। ८२-८४ ।।

अथोत्तङ्कः शुश्रूषुर्गुरुनियोगमनुतिष्ठमानो गुरुकुले वसति स्म ।

स तत्र वसमानउपाध्यायस्त्रीभिः सहिताभिराहूयोक्तः ।। ८५ ।।

उत्तंक गुरुकी आज्ञाका पालन करते हुए सेवापरायण हो गुरुके घरमें रहने लगे। वहाँरहते समय उन्हें उपाध्यायके आश्रयमें रहनेवाली सब स्त्रियोंने मिलकर बुलाया और कहा

।। ८५ ।। –

उपाध्यायानी ते ऋतुमती, उपाध्यायश्च प्रोषितोऽस्या यथायमृतुर्वन्ध्यो न भवतितथा क्रियतामेषा विषीदतीति ।। ८६ ।।

तुम्हारी गुरुपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकालजिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो; इसके लिये गुरुपत्नी बड़ी चिन्तामें पड़ी हैं ।। ८६ ।।

एवमुक्तस्ताः स्त्रियः प्रत्युवाच न मया स्त्रीणां वचनादिदमकार्यं करणीयम् ।

नह्यहमुपाध्यायेन संदिष्टोऽकार्यमपि त्वया कार्यमिति ।। ८७ ।।

यह सुनकर उत्तंकने उत्तर दिया-‘मैं स्त्रियोंके कहनेसे यह न करनेयोग्य निन्द्य कर्मनहीं कर सकता। उपाध्यायने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी है कि ‘तुम न करनेयोग्य कार्य भीकर डालना’ ।। ८७ ।।

तस्य पुनरुपाध्यायः कालान्तरेण गृहमाजगाम तस्मात् प्रवासात् ।

स तु तद् वृत्तंतस्याशेषमुपलभ्य प्रीतिमानभूत् ।। ८८ ।।

इसके बाद कुछ काल बीतनेपर उपाध्याय वेद परदेशसे अपने घर लौट आये। आनेपरउन्हें उत्तंकका सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, इससे वे बड़े प्रसन्न हुए ।। ८८ ।।

उवाच चैनं वत्सोत्तङ्क किं ते प्रियं करवाणीति । धर्मतो हि शुश्रूषितोऽस्मिभवता तेन प्रीतिः परस्परेण नौ संवृद्धा तदनुजाने भवन्तं सर्वानेव कामानवाप्स्यसिगम्यतामिति ।। ८९ ।।

और बोले-‘बेटा उत्तंक! तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य कररूँ? तुमने धर्मपूर्वक मेरी सेवाकी है। इससे हम दोनोंकी एक-दूसरेके प्रति प्रीति बहुत बढ़ गयी है। अब मैं तुम्हें घरलौटनेकी आज्ञा देता हूँ-जाओ, तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी’ || ८९ ।।

स एवमुक्तः प्रत्युवाच किं ते प्रियं करवाणीति, एवमाहुः ।। ९० ।।

गुरुके ऐसा कहनेपर उत्तंक बोले-‘भगवन्! मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करू?वृद्ध पुरुष कहते भी हैं ।। ९० ।।

यश्चाधर्मेण वै ब्रूयाद् यश्चाधर्मेण पृच्छति ।

तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति ।। ९१ ।।

जो अधर्मपूर्वक अध्यापन या उपदेश करता है अथवा जो अधर्मपूर्वक प्रश्न या अध्ययनकरता है, उन दोनोंमेंसे एक (गुरु अथवा शिष्य) मृत्यु एवं विद्वेषको प्राप्त होता है ।। ९१ ।।

सोऽहमनुज्ञातो भवतेच्छामीष्टं गुर्वर्थमुपहर्तुमिति । तेनैवमुक्त उपाध्यायःप्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क उष्यतां तावदिति ।॥ ९२ ।।

अतः आपकी आज्ञा मिलनेपर मैं अभीष्ट गुरुदक्षिणा भेंट करना चाहता हूँ।’ उत्तंककेऐसा कहनेपर उपाध्याय बोले-‘बेटा उत्तंक! तब कुछ दिन और यहीं ठहरो’ ।। ९२ ।।

स कदाचिदुपाध्यायमाहोत्तङ्क आज्ञापयतु भवान् किं ते प्रियमुपाहरामिगुर्वर्थमिति ।। ९३ ।।

तदनन्तर किसी दिन उत्तंकने फिर उपाध्यायसे कहा -‘भगवन् ! आज्ञा दीजिये, मैंआपको कौन-सी प्रिय वस्तु गुरुदक्षिणाके रूपमें भेंट कर?’ ।। ९३ ।।

तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क बहुशो मां चोदयसि गुर्वर्थमुपाहरामीति तद्गच्छैनां प्रविश्योपाध्यायानीं पृच्छ किमुपाहरामीति ।। ९४ ।।

एषा यद् ब्रवीतितदुपाहरस्वेति ।यह सुनकर उपाध्यायने उनसे कहा-‘वत्स उत्तंक! तुम बार-बार मुझसे कहते हो कि’मैं क्या गुरुदक्षिणा भेंट करू?’ अतः जाओ, घरके भीतर प्रवेश करके अपनी गुरुपत्नीसेपूछ लो कि ‘मैं क्या गुरुदक्षिणा भेंट करू?’ ।| ९४ ।।

‘वे जो बतावें वही वस्तु उन्हें भेंटकरो। स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छद् भगवत्युपाध्यायेनास्म्यनुज्ञातो गृहंगन्तुमिच्छामीष्टं ते गुर्वर्थमुपहृत्यानृणो गन्तुमिति ।। ९५ ।।

तदाज्ञापयतु भवतीकिमुपाहरामि गुर्वर्थमिति ।उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उत्तंकने गुरुपत्नीसे पूछा- ‘ देवि! उपाध्यायने मुझे घरजानेकी आज्ञा दी है, अतः मैं आपको कोई अभीष्ट वस्तु गुरुदक्षिणाके रूपमें भेंट करकेगुरुके ऋणसे उऋण होकर जाना चाहता हूँ ।। ९५ ।।

अतः आप आज्ञा दें; मैं गुरुदक्षिणाकेरूपमें कौन-सी वस्तु ला दूँ।

सैवमुक्तोपाध्यायानी तमुत्तङ्कं प्रत्युवाच गच्छ पौष्यं प्रति राजानं कुण्डलेभिक्षितुं तस्य क्षत्रियया पिनद्धे ॥ ९६ ।

उत्तंकके ऐसा कहनेपर गुरुपत्नी उनसे बोलीं- ‘ वत्स! तुम राजा पौष्यके यहाँ, उनकीक्षत्राणी पत्नीने जो दोनों कुण्डल पहन रखे हैं, उन्हें माँग लानेके लिये जाओ ।। १६ ।।

ते आनयस्व चतुर्थेऽहनि पुण्यकं भविता ताभ्यामाबद्धाभ्यां शोभमाना ब्राह्मणान्परिवेष्टुमिच्छामि ।

तत् सम्पादयस्व, एवं हि कुर्वतः श्रेयो भवितान्यथा कुतः श्रेयइति ।। ९७ ।।

‘और उन कुण्डलोंको शीघ्र ले आओ। आजके चौथे दिन पुण्यक व्रत होनेवाला है, मैंउस दिन कानोंमें उन कुण्डलोंको पहनकर सुशोभित हो ब्राह्मणोंको भोजन परोसना चाहतीहूँ; अतः तुम मेरा यह मनोरथ पूर्ण करो। तुम्हारा कल्याण होगा। अन्यथा कल्याणकी प्राप्तिकैसे सम्भव है?’ ।। ९७ ।।

स एवमुक्तस्तया प्रातिष्ठतोत्तङ्कः स पथि गच्छन्नपश्यदृषभमतिप्रमाणंतमधिरूढं च पुरुषमतिप्रमाणमेव स पुरुष उत्तङ्कमभ्यभाषत ।। ९८ ।।

गुरुपत्नीके ऐसा कहनेपर उत्तंक वहाँसे चल दिये। मार्गमें जाते समय उन्होंने एक बहुतबड़े बैलको और उसपर चढ़े हुए एक विशालकाय पुरुषको भी देखा । उस पुरुषने उत्तंकसेकहा-।। ९८ ।।

भो उत्तङ्कैतत् पुरीषमस्य ऋषभस्य भक्षयस्वेति स एवमुक्तो नैच्छत् ।। ९९ ।।

‘उत्तंक! तुम इस बैलका गोबर खा लो।’ किंतु उसके ऐसा कहनेपर भी उत्तंकको वहगोबर खानेकी इच्छा नहीं हुई ।। ९९ ।।

तमाह पुरुषो भूयो भक्षयस्वोत्तङ्क मा विचारयोपाध्यायेनापि ते भक्षितंपूर्वमिति ।। १०० ।।

तब वह पुरुष फिर उनसे बोला-‘उत्तंक! खा लो, विचार न करो । तुम्हारे उपाध्यायनेभी पहले इसे खाया था’ ।। १०० ।।

स एवमुक्तो बाढमित्युक्त्वा तदा तद् वृषभस्य मूत्रं पुरीषं च भक्षयित्वोत्तङ्कःसम्भ्रमादुत्थित एवाप उपस्पृश्य प्रतस्थे ।। १०१ ।।

उसके पुनः ऐसा कहनेपर उत्तंकने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसकी बात मान ली औरउस बैलके गोबर तथा मूत्रको खा-पीकर उतावलीके कारण खड़े-खड़े ही आचमन किया।फिर वे चल दिये ।। १०१ ।।

क्षत्रियः पौष्यस्तमुपेत्यासीनमपश्यदुत्तङ्कः यत्र स स

उत्तङ्कस्तमुपेत्याशीर्भिरभिनन्द्योवाच । १०२ ।।

जहाँ वे क्षत्रिय राजा पौष्य रहते थे, वहाँ पहुँचकर उत्तंकने देखा- वे आसनपर बैठे हुएहैं, तब उत्तंकने उनके समीप जाकर आशीर्वादसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा-।। १०२ ।।

अर्थी भवन्तमुपागतोऽस्मीति स एनमभिवाद्योवाच भगवन् पौष्यः खल्वहं किंकरवाणीति ।। १०३ ।।

‘राजन्! मैं याचक होकर आपके पास आया हूँ।’ राजाने उन्हें प्रणाम करके कहा- ‘भगवन्! मैं आपका सेवक पौष्य हूँ; कहिये, किस आज्ञाका पालन करूँ?’ ।। १०३ ।।

तमुवाच गुर्वर्थं कुण्डलयोरथ्थेनाभ्यागतोऽस्मीति ।

ये वै ते क्षत्रियया पिनढ्धेकुण्डले ते भवान् दातुमर्हतीति ।। १०४ ।।

उत्तंकने पौष्यसे कहा-‘राजन्! मैं गुरुदक्षिणाके निमित्त दो कुण्डलोंके लिये आपकेयहाँ आया हूँ। आपकी क्षत्राणीने जिन्हें पहन रखा है, उन्हीं दोनों कुण्डलोंको आप मुझे देदें। यह आपके योग्य कार्य है’ ।। १०४ ।।

तं प्रत्युवाच पौष्यः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रिया याच्यतामिति ।

स तेनैवमुक्तःप्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रियां नापश्यत् ।। १०५ ।।

यह सुनकर पौष्यने उत्तंकसे कहा-‘ब्रह्मन्! आप अन्तःपुरमें जाकर क्षत्राणीसे वेकुण्डल माँग लें।’ राजाके ऐसा कहनेपर उत्तंकने अन्तःपुरमें प्रवेश किया, किंतु वहाँ उन्हेंक्षत्राणी नहीं दिखायी दी ।। १०५ ।।

स पौष्यं पुनरुवाच न युक्तं भवताहमनृतेनोपचरितुं न हि तेऽन्तःपुरे क्षत्रियासन्निहिता नैनां पश्यामि ।। १०६ ।।

तब वे पुनः राजा पौष्यके पास आकर बोले-‘राजन्! आप मुझे संतुष्ट करनेके लिये झूठी बात कहकर मेरे साथ छल करें, यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके अन्तःपुरमें क्षत्राणी नहीं हैं, क्योंकि वहाँ वे मुझे नहीं दिखायी देती हैं’ ।। १०६ ।।

स एवमुक्तः पौष्यः क्षणमात्रं विमृश्योत्तङ्कं प्रत्युवाच नियतं भवानुच्छिष्टः स्मर तावन्न हि सा क्षत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना शक्या द्रष्टुं पतिव्रतात्वात् सैषा नाशुचेर्दर्शनमुपैतीति ।। १०७ ।।

उत्तंकके ऐसा कहनेपर पौष्यने एक क्षणतक विचार करके उन्हें उत्तर दिया- ‘निश्चय ही आप जूँठे मुँह हैं, स्मरण तो कीजिये, क्योंकि मेरी क्षत्राणी पतिव्रता होनेके कारण उच्छिष्ट- अपवित्र मनुष्यके द्वारा नहीं देखी जा सकती हैं। आप उच्छिष्ट होनेके कारण अपवित्र हैं, इसलिये वे आपकी दृष्टिमें नहीं आ रही हैं’ ।। १०७ ।।

अथैवमुक्त उत्तङ्कः स्मृत्वोवाचास्ति खलु मयोत्थितेनोपस्पृष्टं गच्छतां चेति ।

तं पौष्यः प्रत्युवाच-एष ते व्यतिक्रमो नोत्थितेनोपस्पृष्टं भवतीति शीघ्रं गच्छता चेति ।। १०८ ।।

उनके ऐसा कहनेपर उत्तंकने स्मरण करके कहा-‘हाँ, अवश्य ही मुझमें अशुद्धि रह गयी है। यहाँकी यात्रा करते समय मैंने खड़े होकर चलते-चलते आचमन किया है।’ तब पौष्यने उनसे कहा-‘ब्रह्मन्! यही आपके द्वारा विधिका उल्लंघन हुआ है। खड़े होकर और शीघ्रतापूर्वक चलते-चलते किया हुआ आचमन नहींके बराबर है’ ।। १०८ ।।

अथोत्तङ्कस्तं तथेत्युक्त्वा प्राङ्मुख उपविश्य सुप्रक्षालितपाणिपादवदनो निःशब्दाभिरफेनाभिरनुष्णाभिर्हृद्गताभिरद्भिेस्त्रि खान्यद्भिरुपस्पृश्य चान्तःपुरं प्रविवेश ।। १०९ ।।

तत्पश्चात् उत्तंक राजासे ‘ठीक है’ ऐसा कहकर हाथ, पैर और मुँह भलीभाँति धोकर पूर्वाभिमुख हो आसनपर बैठे और हृदयतक पहुँचनेयोग्य शब्द तथा फेनसे रहित शीतल जलके द्वारा तीन बार आचमन करके उन्होंने दो बार अँगूठेके मूल भागसे मुख पोंछा और नेत्र, नासिका आदि इन्द्रिय-गोलकोंका जलसहित अंगुलियोंद्वारा स्पर्श करके अन्तःपुरमें प्रवेश किया ।। १०९ ।।

ततस्तां क्षत्रियामपश्यत्, सा च दृष्ट्वैवोत्तङ्कं प्रत्युत्थायाभिवाद्योवाच स्वागतं ते भगवन्नाज्ञापय किं करवाणीति ।। ११० ।।

तब उन्हें क्षत्राणीका दर्शन हुआ। महारानी उत्तंकको देखते ही उठकर खड़ी हो गयीं और प्रणाम करके बोलीं-‘भगवन्! आपका स्वागत है, आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा क?’ ।। ११० ।।

पीत्वा द्विः परिमृज्यस तामुवाचैते कुण्डले गुर्वर्थं मे भिक्षिते दातुमर्हसीति । सा प्रीता तेन तस्य सद्भावेन पात्रमयमनतिक्रमणीयश्चेति मत्वा ते कुण्डलेऽवमुच्यास्मै प्रायच्छदाह तक्षको नागराजः सुभृशं प्रार्थयत्यप्रमत्तो नेतुमर्हसीति ।॥ १११ ।

उत्तंकने महारानीसे कहा-‘देवि! मैंने गुरुके लिये आपके दोनों कुण्डलोंकी याचना कीहै। वे ही मुझे दे दें।’ महारानी उत्तंकके उस सद्भाव ( गुरुभक्ति)-से बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंनेयह सोचकर कि ‘ये सुपात्र ब्राह्मण हैं, इन्हें निराश नहीं लौटाना चाहिये’- अपने दोनोंकुण्डल स्वयं उतारकर उन्हें दे दिये और उनसे कहा-‘ब्रह्मन्! नागराज तक्षक इनकुण्डलोंको पानेके लिये बहुत प्रयत्नशील हैं। अतः आपको सावधान होकर इन्हें ले जानाचाहिये’ ।। १११ ।।

स एवमुक्तस्तां क्षत्रियां प्रत्युवाच भगवति सुनिर्वृता भव ।

न मां शक्तस्तक्षकोनागराजो धर्षयितुमिति ।। ११२ ।।

रानीके ऐसा कहनेपर उत्तंकने उन क्षत्राणीसे कहा – ‘ देवि! आप निश्चिन्त रहें । नागराजतक्षक मुझसे भिड़नेका साहस नहीं कर सकता’ ।। ११२ ।।

स एवमुक्त्वा तां क्षत्रियामामन्त्र्य पौष्यसकाशमागच्छत् ।

आह चैनं भोः पौष्यप्रीतोऽस्मीति तमुत्तङ्कं पौष्यः प्रत्युवाच ।। ११३ ।।

महारानीसे ऐसा कहकर उनसे आज्ञा ले उत्तंक राजा पौष्यके निकट आये और बोले- ‘महाराज पौष्य ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ (और आपसे विदा लेना चाहता हूँ)।’ यह सुनकरपौष्यने उत्तंकसे कहा-।। ११३ ।।

भगवंश्चिरेण पात्रमासाद्यते भवांश्च गुणवानतिथिस्तदिच्छे श्राद्धं कर्तुं क्रियतांक्षण इति ।। ११४ ।।

‘भगवन्! बहुत दिनोंपर कोई सुपात्र ब्राह्मण मिलता है। आप गुणवान् अतिथि पधारेहैं, अतः मैं श्राद्ध करना चाहता हूँ। आप इसमें समय दीजिये’ ।। ११४ ।।

तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच कृतक्षण एवास्मि शीघ्रमिच्छामि यथोपपन्नमन्नमुपस्कृतंभवतेति स तथेत्युक्त्वा यथोपपन्नेनान्नेनैनं भोजयामास ।। ११५ ।।

तब उत्तंकने राजासे कहा-‘मेरा समय तो दिया ही हुआ है, किंतु शीघ्रता चाहता हूँ।आपके यहाँ जो शुद्ध एवं सुसंस्कृत भोजन तैयार हो उसे मँगाइये।’ राजाने ‘बहुत अच्छा’कहकर जो भोजन-सामग्री प्रस्तुत थी, उसके द्वारा उन्हें भोजन कराया ।। ११५ ।।

अथोत्तङ्कः सकेशं शीतमन्नं दृष्ट्वा अशुच्येतदिति मत्वा तं पौष्यमुवाचयस्मान्मेऽशुच्यन्नं ददासि तस्मादन्धो भविष्यसीति ।। ११६ ।।

परंतु जब भोजन सामने आया, तब उत्तंकने देखा, उसमें बाल पड़ा है और वह ठण्डाहो चुका है। फिर तो ‘यह अपवित्र अन्न है’ ऐसा निश्चय करके वे राजा पौष्यसे बोले-‘ आपमुझे अपवित्र अन्न दे रहे हैं, अतः अन्धे हो जायँगे’ ।। ११६ ।।

तं पौष्यः प्रत्युवाच यस्मात्त्वमप्यदुष्टमन्नं दूषयसि तस्मात्त्वमनपत्यो भविष्यसीतितमुत्तङ्कः प्रत्युवाच ।। ११७ ।।

तब पौष्यने भी उन्हें शापके बदले शाप देते हुए कहा – ‘आप शुद्ध अन्नको भी दूषितबता रहे हैं, अतः आप भी संतानहीन हो जायँगे।’ तब उत्तंक राजा पौष्यसे बोले।। ११७ ।।

न युक्तं भवतान्नमशुचि दत्त्वा प्रतिशापं दातुं तस्मादन्नमेव प्रत्यक्षीकुरु । ततः पौष्यस्तदन्नमशुचि दृष्ट्वा तस्याशुचिभावमपरोक्षयामास ।। ११८ ।।

‘महाराज! अपवित्र अन्न देकर फिर बदलेमें शाप देना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। अतः पहले अन्नको ही प्रत्यक्ष देख लीजिये।’ तब पौष्यने उस अन्नको अपवित्र देखकर उसकी अपवित्रताके कारणका पता लगाया ।। ११८ ।।

अथ तदन्नं मुक्तकेश्या स्त्रिया यत् कृतमनुष्णं सकेशं चाशुच्येतदिति मत्वा तमृषिमुत्तङ्कं प्रसादयामास ।। ११९ ।।

वह भोजन खुले केशवाली स्त्रीने तैयार किया था। अतः उसमें केश पड़ गया था। देरका बना होनेसे वह ठण्डा भी हो गया था। इसलिये वह अपवित्र है, इस निश्चयपर पहुँचकर राजाने उत्तंक ऋषिको प्रसन्न करते हुए कहा-।। ११९ ।।

भगवन्नेतदज्ञानादन्नं सकेशमुपाहृतं शीतं तत् क्षामये भवन्तं न भवेयमन्ध इति तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच ।। १२० ।।

‘भगवन्! यह केशयुक्त और शीतल अन्न अनजानमें आपके पास लाया गया है। अतःइस अपराधके लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। आप ऐसी कृपा कीजिये , जिससे मैं अन्धा न होऊँ।’ तब उत्तंकने राजासे कहा- ।। १२० ।।

न मृषा ब्रवीमि भूत्वा त्वमन्धो न चिरादनन्धो भविष्यसीति । ममापि शापो भवता दत्तो न भवेदिति ।। १२१ ।।

‘राजन्! मैं झूठ नहीं बोलता। आप पहले अन्धे होकर फिर थोड़े ही दिनोंमें इस दोषसे रहित हो जायँगे। अब आप भी ऐसी चेष्टा करें, जिससे आपका दिया हुआ शाप मुझपर लागू न हो’ ।। १२१ ।।

तं पौष्यः प्रत्युवाच न चाहं शक्तः शापं प्रत्यादातुं न हि मे मन्युरद्याप्युपशमं गच्छति किं चैतद् भवता न ज्ञायते यथा- । १२२ ।।

नवनीतं हृदयं ब्राह्मणस्य वाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः । तदुभयमेतद् विपरीतं क्षत्रियस्य वाङ्नवनीतं हृदयं तीक्ष्णधारम् । इति ।। १२३ ।।

यह सुनकर पौष्यने उत्तंकसे कहा-‘मैं शापको लौटानेमें असमर्थ हूँ, मेरा क्रोधअभीतक शान्त नहीं हो रहा है। क्या आप यह नहीं जानते कि ब्राह्मणका हृदय मक्खनकेसमान मुलायम और जल्दी पिघलनेवाला होता है? केवल उसकी वाणीमें ही तीखी धारवाले छुरेका-सा प्रभाव होता है। किंतु ये दोनों ही बातें क्षत्रियके लिये विपरीत हैं। उसकी वाणी तो नवनीतके समान कोमल होती है, लेकिन हृदय पैनी धारवाले छुरेके समान तीखा होताहै ।। १२२-१२३ ।।

तदेवं गते न शक्तोऽहं तीक्ष्णहृदयत्वात् तं शापमन्यथा कर्तुं गम्यतामिति ।

तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच भवताहमन्नस्याशुचिभावमालक्ष्य प्रत्यनुनीतः प्राक् चतेऽभिहितम् ।। १२४ ।।

यस्माददुष्टमन्नं दूषयसि तस्मादनपत्यो भविष्यसीति । दुष्टेचान्ने नैष मम शापो भविष्यतीति ।। १२५ ।।

‘अतः ऐसी दशामें कठोरहृदय होनेके कारण मैं उस शापको बदलनेमें असमर्थ हूँ।इसलिये आप जाइये।’ तब उत्तंक बोले-‘राजन्! आपने अन्नकी अपवित्रता देखकर मुझसेक्षमाके लिये अनुनय-विनय की है, किंतु पहले आपने कहा था कि ‘तुम शुद्ध अन्नको दूषितबता रहे हो, इसलिये संतानहीन हो जाओगे।’ इसके बाद अन्नका दोषयुक्त होना प्रमाणितहो गया, अतः आपका यह शाप मुझपर लागू नहीं होगा’ ।। १२४-१२५ ।।

साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथिनग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च ।। १२६ ।।

‘अब हम अपना कार्यसाधन कर रहे हैं।’ ऐसा कहकर उत्तंक दोनों कुण्डलोंको लेकरवहाँसे चल दिये। मार्गमें उन्होंने अपने पीछे आते हुए एक नग्न क्षपणकको देखा जो बार-बार दिखायी देता और छिप जाता था।। १२६ ।।

अथोत्तङ्कस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदका्थं प्रचक्रमे ।

एतस्मिन्नन्तरे सक्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत् ।। १२७ ।।

कुछ दूर जानेके बाद उत्तंकने उन कुण्डलोंको एक जलाशयके किनारे भूमिपर रखदिया और स्वयं जलसम्बन्धी कृत्य (शौच, स्नान, आचमन, संध्यातर्पण आदि) करने लगे।इतनेमें ही वह क्षपणक बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आया और दोनों कुण्डलोंको लेकरचंपत हो गया ।। १२७ ।।

तमुत्तङ्कोऽभिसृत्य कृतोदककार्यः शुचिः प्रयतो नमो देवेभ्यो गुरुभ्यश्च कृत्वामहता जवेन तमन्वयात् ।। १२८ ।।

उत्तंकने स्नान-तर्पण आदि जलसम्बन्धी कार्य पूर्ण करके शुद्ध एवं पवित्र होकरदेवताओं तथा गुरुओंको नमस्कार किया और जलसे बाहर निकलकर बड़े वेगसे उसक्षपणकका पीछा किया ।। १२८ ।।

तस्य तक्षको दृढमासन्नः स तं जग्राह गृहीतमात्रः स तद्रूपं विहाय तक्षकस्वरूपंकृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं प्रविवेश ॥ १२९ ।।

वास्तवमें वह नागराज तक्षक ही था। दौड़नेसे उत्तंकके अत्यन्त समीपवर्ती हो गया।उत्तंकने उसे पकड़ लिया। पकड़में आते ही उसने क्षपणकका रूप त्याग दिया और तक्षकनागका रूप धारण करके वह सहसा प्रकट हुए पृथ्वीके एक बहुत बड़े विवरमें घुसगया ।। १२९ ।।

प्रविश्य च नागलोकं स्वभवनमगच्छत् । अथोत्तङ्कस्तस्याः क्षत्रियाया वचःस्मृत्वा तं तक्षकमन्वगच्छत् ।। १३० ।।

बिलमें प्रवेश करके वह नागलोकमें अपने घर चला गया। तदनन्तर उस क्षत्राणीकीबातका स्मरण करके उत्तंकने नागलोकतक उस तक्षकका पीछा किया। १३० ।।

स तद् बिलं दण्डकाष्ठेन चखान न चाशकत् ।

तं क्लिश्यमानमिन्द्रोऽपश्यत् स वज्रं प्रेषयामास ।। १३१ ।।

पहले तो उन्होंने उस विवरको अपने डंडेकी लकड़ीसे खोदना आरम्भ किया, किंतु इसमें उन्हें सफलता न मिली। उस समय इन्द्रने उन्हें क्लेश उठाते देखा तो उनकी सहायताके लिये अपना वज्र भेज दिया ।। १३१ ।।

गच्छास्य ब्राह्मणस्य साहाय्यं कुरुष्वेति ।

अथ वज्रं दण्डकाष्ठमनुप्रविश्य तद् बिलमदारयत् ।। १३२ ।।

उन्होंने वज्रसे कहा-‘जाओ, इस ब्राह्मणकी सहायता करो ।’ तब वज्रने डंडेकी लकड़ीमें प्रवेश करके उस बिलको विदीर्ण कर दिया (इससे पाताललोकमें जानेके लिये मार्ग बन गया) ।। १३२ ।।

तमुत्तङ्कोऽनुविवेश नागलोकमपर्यन्तमनेकविधप्रासादहम्म्यवलभीनिर्यूहशतसंकुलमुच्चावचक्रीडाश्चर्य स्थानावकीर्णमपश्यत् ।। १३३ ।।

स तत्र नागांस्तानस्तुवदेभिः श्लोकैः-

य ऐरावतराजानः सर्पाः समितिशोभनाः ।

क्षरन्त इव जीमूताः सविद्युत्पवनेरिताः ।। १३४ ।।

तब उत्तंक उस बिलमें घुस गये और उसी मार्गसे भीतर प्रवेश करके उन्होंने नागलोकका दर्शन किया, जिसकी कहीं सीमा नहीं थी। जो अनेक प्रकारके मन्दिरों, महलों, झुके हुए छज्जोंवाले ऊँचे-ऊँचे मण्डपों तथा सैकड़ों दरवाजोंसे सुशोभित और छोटे-बड़ेअद्भुत क्रीडास्थानोंसे व्याप्त था। वहाँ उन्होंने इन श्लोकोंद्वारा उन नागोंका स्तवन किया -ऐरावत जिनके राजा हैं, जो समरांगणमें विशेष शोभा पाते हैं, बिजली और वायुसे प्रेरित हो जलकी वर्षा करनेवाले बादलोंकी भाँति बाणोंकी धारावाहिक वृष्टि करते हैं, उन सर्पोकी तेनैव बिलेन प्रविश्य च तंजय हो ।। १३३-१३४ ।।

सुरूपा बहुरूपाश्च तथा कल्माषकुण्डलाः ।

आदित्यवन्नाकपृष्ठे रेजुरैरावतोद्भवाः ।। १३५ ।।

ऐरावतकुलमें उत्पन्न नागगणोंमेंसे कितने ही सुन्दर रूपवाले हैं, उनके अनेक रूप हैं, वे विचित्र कुण्डल धारण करते हैं तथा आकाशमें सूर्यदेवकी भाँति स्वर्गलोकमें प्रकाशित होतेहैं ।। १३५ ।।

बहुनि नागवेश्मानि गङ्गायास्तीर उत्तरे ।

तत्रस्थानपि संस्तौमि महतः पन्नगानहम् ।। १३६ ।।

गंगाजीके उत्तर तटपर बहुत-से नागोंके घर हैं, वहाँ रहनेवाले बड़े-बड़े सर्पोंकी भी मैं स्तुति करता हूँ ।। १३६ ।।

इच्छेत् कोऽर्काशुसेनायां चर्तुमैरावतं विना ।

शतान्यशीतिरष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः ।। १३७ ।।

सर्पाणां प्रग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रो यदैजति ।

ये चैनमुपसर्पन्ति ये च दूरपथं गताः ।। १३८ ।।

अहमैरावतज्येष्ठभ्रातृभ्योऽकरवं नमः ।

यस्य वासः कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत् पुरा ।। १३९ ।।

तं नागराजमस्तौषं कुण्डलार्थाय तक्षकम् ।

तक्षकश्चाश्वसेनश्च नित्यं सहचरावुभौ ।। १४० ।।

कुरुक्षेत्रं च वसतां नदीमिक्षुमतीमनु ।

जघन्यजस्तक्षकस्य श्रुतसेनेति यः श्रुतः ।। १४१ ।।

अवसद् यो महद्युम्नि प्रार्थयन् नागमुख्यताम् ।

करवाणि सदा चाहूं नमस्तस्मै महात्मने ।। १४२ ।।

ऐरावत नागके सिवा दूसरा कौन है, जो सूर्यदेवकी प्रचण्ड किरणोंके सैन्यमें विचरनेकीइच्छा कर सकता है? ऐरावतके भाई धृतराष्ट्र जब सूर्यदेवके साथ प्रकाशित होते और चलतेहैं, उस समय अट्ठाईस हजार आठ सर्प सूर्यके घोड़ोंकी बागडोर बनकर जाते हैं। जो इनकेसाथ जाते हैं और जो दूरके मार्गपर जा पहुँचे हैं, ऐरावतके उन सभी छोटे बन्धुओंकों मैंनेनमस्कार किया है। जिनका निवास सदा कुरुक्षेत्र और खाण्डववनमें रहा है, उन नागराजतक्षककी मैं कुण्डलोंके लिये स्तुति करता हूँ। तक्षक और अश्वसेन-ये दोनों नाग सदासाथ विचरनेवाले हैं। ये दोनों कुरुक्षेत्रमें इक्षुमती नदीके तटपर रहा करते थे। जो तक्षककेछोटे भाई हैं, श्रुतसेन नामसे जिनकी ख्याति है तथा जो पाताललोकमें नागराजकी पदवीपानेके लिये सूर्यदेवकी उपासना करते हुए कुरुक्षेत्रमें रहे हैं, उन महात्माको मैं सदानमस्कार करता हूँ ।। १३७-१४२ ।।

एवं स्तुत्वा स विप्रर्षिरुत्तङ्को भुजगोत्तमान् ।

नैव ते कुण्डले लेभे ततश्चिन्तामुपागमत् ।। १४३ ।।

इस प्रकार उन श्रेष्ठ नागोंकी स्तुति करनेपर भी जब ब्रह्मर्षि उत्तंक उन कुण्डलोंको नपा सके तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई ।। १४३ ।।

एवं स्तुवन्नपि नागान् यदा ते कुण्डले नालभत तदापश्यत् स्त्रियौ तन्त्रे अधिरोप्यसुवेमे पटं वयन्त्यौ । तस्मिंस्तन्त्रे कृष्णाः सिताश्च तन्तवश्चक्रं चापश्यद् द्वादशांषड्भिः कुमारैः परिवर्त्यमानं पुरुषं चापश्यदश्वं च दर्शनीयम् ।। १४४ ।।

स तान्सर्वांस्तुष्टाव एभिर्मन्त्रवदेव श्लोकैः ।। १४५ ।।

इस प्रकार नागोंकी स्तुति करते रहनेपर भी जब वे उन दोनों कुण्डलोंको प्राप्त न करसके, तब उन्हें वहाँ दो स्त्रियाँ दिखायी दीं, जो सुन्दर करघेपर रखकर सूतके तानेमें वस्त्रबुन रही थीं, उस तानेमें उत्तंक मुनिने काले और सफेद दो प्रकारके सूत और बारह अरोंकाएक चक्र भी देखा, जिसे छः कुमार घुमा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ पुरुष भी दिखायी दिये।जिनके साथ एक दर्शनीय अश्व भी था। उत्तंकने इन मन्त्रतुल्य श्लोकोंद्वारा उनकी स्तुति की।। १४४-१४५ ।।

त्रीण्यर्पितान्यत्र शतानि मध्ये षष्टिश्च नित्यं चरति ध्रुवेऽस्मिन् ।

चक्रे चतुर्विंशतिपर्वयोगे षड् वै कुमाराः परिवर्तयन्ति ।। १४६ ।

यह जो अविनाशी कालचक्र निरन्तर चल रहा है, इसके भीतर तीन सौ साठ अरे हैं,चौबीस पर्व हैं और इस चक्रको छः कुमार घुमा रहे हैं ।। १४६ ।।

तन्त्रं चेदं विश्वरूपे युवत्यौ वयतस्तन्तून् सततं वर्तयन्त्यौ ।

कृष्णान् सितांश्चैव विवर्तयन्त्यौ भूतान्यजस्रं भुवनानि चैव ।। १४७ ।।

यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, ऐसी दो युवतियाँ सदा काले और सफेदतन्तुओंको इधर-उधर चलाती हुई इस वासना-जालरूपी वस्त्रको बुन रही हैं तथा वे हीसम्पूर्ण भूतों और समस्त भुवनोंका निरन्तर संचालन करती हैं ।। १४७ ।।

वज्रस्य भर्ता भुवनस्य गोप्ता वृत्रस्य हन्ता नमुचेर्निहन्ता ।

कृष्णे वसानो वसने महात्मा सत्यानृते यो विविनक्ति लोके ।। १४८ ।।

यो वाजिनं गर्भमपां पुराणं वैश्वानरं वाहनमभ्युपैति ।

नमोऽस्तु तस्मै जगदीश्वराय लोकत्रयेशाय पुरन्दराय ।। १४९ ।।

जो महात्मा वज्र धारण करके तीनों लोकोंकी रक्षा करते हैं, जिन्होंने वृत्रासुरका वधतथा नमुचि दानवका संहार किया है, जो काले रंगके दो वस्त्र पहनते और लोकमें सत्य एवंअसत्यका विवेचन करते हैं; जलसे प्रकट हुए प्राचीन वैश्वानररूप अश्वको वाहन बनाकरउसपर चढ़ते हैं तथा जो तीनों लोकोंके शासक हैं, उन जगदीश्वर पुरन्दरको मेरा नमस्कारहै ।। १४८-१४९ ।।

ततः स एनं पुरुषः प्राह प्रीतोऽस्मि तेऽहमनेन स्तोत्रेण किं ते प्रियं करवाणीति सतमुवाच ।। १५० ।।

तब वह पुरुष उत्तंकसे बोला-‘ब्रह्मन्! मैं तुम्हारे इस स्तोत्रसे बहुत प्रसन्न हूँ। कहो,तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करू?’ यह सुनकर उत्तंकने कहा-I| १५० ।।

नागा मे वशमीयुरिति धमस्वेति ।। १५१ ।।

‘सब नाग मेरे अधीन हो जायँ’-उनके ऐसा कहनेपर वह पुरुष पुनः उत्तंकसे बोला-‘इस घोड़ेकी गुदामें फूँक मारो’ ।। १५१ ।।

ततोऽश्वस्यापानमधमत् ततोऽश्वाद्धम्यमानात् सर्वस्रोतोभ्यः पावकार्चिषः सधूमा निष्पेतुः ।। १५२ ।।

यह सुनकर उत्तंकने घोड़ेकी गुदामें फूँक मारी। फूँकनेसे घोड़ेके शरीरके समस्त छिद्रोंसे धूएँसहित आगकी लपटें निकलने लगीं ।। १५२ ।।

ताभिर्नागलोक उपधूपितेऽथ सम्भ्रान्तस्तक्षकोऽग्नेस्तेजोभयाद् विषण्णः कुण्डले गृहीत्वा सहसा भवनान्निष्क्रम्योत्तङ्कमुवाच । १५३ |।

उस समय सारा नागलोक धूएँसे भर गया। फिर तो तक्षक घबरा गया और आगकी ज्वालाके भयसे दुःखी हो दोनों कुण्डल लिये सहसा घरसे निकल आया और उत्तंकसे बोला चैनं पुरुषः पुनरुवाच एतमश्वमपाने स।। १५३ ।।

इमे कुण्डले गृह्णातु भवानिति स ते प्रतिजग्राहोत्तङ्कः प्रतिगृह्य च कुण्डलेऽचिन्तयत् ।। १५४ ।।

‘ब्रह्मन्! आप ये दोनों कुण्डल ग्रहण कीजिये।’ उत्तंकने उन कुण्डलोंको ले लिया।कुण्डल लेकर वे सोचने लगे-।। १५४ ।।

अद्य तत् पुण्यकमुपाध्यायान्या दूरं चाहमभ्यागतः स कथं सम्भावयेयमिति तत एनं चिन्तयानमेव स पुरुष उवाच ।। १५५ ।।

‘अहो! आज ही गुरुपत्नीका वह पुण्यकव्रत है और मैं बहुत दूर चला आया हूँ। ऐसी दशामें किस प्रकार इन कुण्डलोंद्वारा उनका सत्कार कर सकूँगा?’ तब इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए उत्तंकसे उस पुरुषने कहा-।। १५५ ।।

उत्तङ्क एनमेवाश्वमधिरोह त्वां क्षणेनैवोपाध्यायकुलं प्रापयिष्यतीति ।। १५६ ।।

‘उत्तंक! इसी घोड़ेपर चढ़ जाओ। यह तुम्हें क्षणभरमें उपाध्यायके घर पहुँचा देगा’ ।। १५६ ।।

स तथेत्युक्त्वा तमश्वमधिरुह्य प्रत्याजगामोपाध्यायकुलमुपाध्यायानी च स्नाता केशानावापयन्त्युपविष्टोत्तङ्को नागच्छतीति शापायास्य मनो दधे ।। १५७ ।।

‘बहुत अच्छा’ कहकर उत्तंक उस घोड़ेपर चढ़े और तुरंत उपाध्यायके घर आ पहुँचे।इधर गुरुपत्नी स्नान करके बैठी हुई अपने केश सँवार रही थीं । ‘उत्तंक अबतक नहीं आया’-यह सोचकर उन्होंने शिष्यको शाप देनेका विचार कर लिया ।। १५७ ।।

अथ तस्मिन्नन्तरे स उत्तङ्कः प्रविश्य उपाध्यायकुलमुपाध्यायानीमभ्यवादयत् ते चास्यै कुण्डले प्रायच्छत् सा चैनं प्रत्युवाच ।। १५८ ।।

इसी बीचमें उत्तंकने उपाध्यायके घरमें प्रवेश करके गुरुपत्नीको प्रणाम किया और उन्हें। वे दोनों कुण्डल दे दिये। तब गुरुपत्नीने उत्तंकसे कहा – I| १५८।।

उत्तङ्क देशे कालेऽभ्यागतः स्वागतं ते वत्स त्वमनागसि मया न शप्तः श्रेयस्तवोपस्थितं सिद्धिमाप्नुहीति ।। १५९ ।।

ठीक समयपर उचित स्थानमें आ पहुँचा। वत्स! तेरा स्वागत है। अच्छा ‘उत्तंक! हुआ जो बिना अपराधके ही तुझे शाप नहीं दिया । तेरा कल्याण उपस्थित है, तुझे सिद्धि प्राप्त हो’ ।। १५९ ।।

अरथोत्तङ्क उपाध्यायमभ्यवादयत् ।

तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क स्वागतं ते किं चिरं कृतमिति ।। १६० ।।

तदनन्तर उत्तंकने उपाध्यायके चरणोंमें प्रणाम किया। उपाध्यायने उससे कहा -‘वत्स उत्तंक! तुम्हारा स्वागत है। लौटनेमें देर क्यों लगायी?’ ।। १६० ।।

तमुत्तङ्क कर्मणि तेनास्मि नागलोकं गतः ।। १६१ ।।

तब उत्तंकने उपाध्यायको उत्तर दिया-‘भगवन्! नागराज तक्षकने इस कार्यमें विघ्न डाल दिया था। इसलिये मैं नागलोकमें चला गया था ।। १६१ ।।

तत्र च मया दृष्टे स्त्रियौ तन्त्रेऽधिरोप्य पटं वयन्त्यौ तस्मिंश्च कृष्णाः सिताश्च तन्तवः किं तत् ।। १६२ ।।

‘वहीं मैंने दो स्त्रियाँ देखीं, जो करघेपर सूत रखकर कपड़ा बुन रही थीं । उस करघेमें काले और सफेद रंगके सूत लगे थे। वह सब क्या था? ।। १६२ ।।

तत्र च मया चक्रं दृष्टं द्वादशारं षट् चैनं कुमाराः परिवर्तयन्ति तदपि किम् । पुरुषश्चापि मया दृष्टः स चापि कः । अश्वश्वातिप्रमाणो दृष्टः स चापि कः ।। १६३ ।।

‘वहीं मैंने एक चक्र भी देखा, जिसमें बारह अरे थे। छः कुमार उस चक्रको घुमा रहे थे । वह भी क्या था? वहाँ एक पुरुष भी मेरे देखनेमें आया था। वह कौन था? तथा एक बहुत बड़ा अश्व भी दिखायी दिया था। वह कौन था? ।। १६३ ।।

पथि गच्छता च मया ऋषभो दृष्टस्तं च पुरुषोऽधिरूढस्तेनास्मि सोपचारमुक्त उत्तङ्कास्य ऋषभस्य पुरीषं भक्षय उपाध्यायेनापि ते भक्षितमिति ।। १६४ ।।

इधरसे जाते समय मार्गमें मैंने एक बैल देखा, उसपर एक पुरुष सवार था। उस पुरुषने मुझसे आग्रहपूर्वक कहा-‘उत्तंक! इस बैलका गोबर खा लो। तुम्हारे उपाध्यायने भी पहले इसे खाया है’ ।। १६४ ।।

ततस्तस्य वचनान्मया तदृषभस्य पुरीषमुपयुक्तं स चापि कः भवतोपदिष्टमिच्छेयं श्रोतुं किं तदिति । स तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच ।। १६५ ।।

‘तब उस पुरुषके कहनेसे मैंने उस बैलका गोबर खा लिया। अतः वह बैल और पुरुष कौन थे? मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ, वह सब क्या था?’ उत्तंकके इस प्रकार तूउपाध्यायं प्रत्युवाच भोस्तक्षकेण मे नागराजेन विघ्नः कृतोऽस्मिन् तदेतद्पूछनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया-।। १६५ ।।

ये ते स्त्रियौ धाता विधाता च ये च ते कृष्णाः सितास्तन्तवस्ते रात्र्यहनी । यदपितच्चक्रं द्वादशारं षड् वै कुमाराः परिवर्तयन्ति तेऽपि षड् ऋतवः द्वादशारा द्वादशमासाः संवत्सरश्चक्रम् ।। १६६ ।।

‘वे जो दोनों स्त्रियाँ थीं, वे धाता और विधाता हैं। जो काले और सफेद तन्तु थे, वे रातऔर दिन हैं। बारह अरोंसे युक्त चक्रको जो छः कुमार घुमा रहे थे , वे छः ऋतुएँ हैं। बारहमहीने ही बारह अरे हैं। संवत्सर ही वह चक्र है ।। १६६ ।।

यः पुरुषः स पर्जन्यो योऽश्वः सोऽग्निर्य ऋषभस्त्वया पथि गच्छता दृष्टः सऐरावतो नागराट् ।। १६७ ।।

‘जो पुरुष था, वह पर्जन्य (इन्द्र) है। जो अश्व था वह अग्नि है। इधरसे जाते समयमार्गमें तुमने जिस बैलको देखा था, वह नागराज ऐरावत हैं ।। १६७ ।।

यश्चैनमधिरूढः पुरुषः स चेन्द्रो यदपि ते भक्षितं तस्य ऋषभस्य पुरीषं तदमृतंतेन खल्वसि तस्मिन् नागभवने न व्यापन्नस्त्वम् ।। १६८ ।।

‘और जो उसपर चढ़ा हुआ पुरुष था, वह इन्द्र है। तुमने बैलके जिस गोबरको खायाहै, वह अमृत था। इसीलिये तुम नागलोकमें जाकर भी मरे नहीं । १६८ ।।

स हि भगवानिन्द्रो मम सखा त्वदनुक्रोशादि-ममनुग्रहं कृतवान् ।

तस्मात् कुण्डलेगृहीत्वा पुनरागतोऽसि ।। १६९ ।।

‘वे भगवान् इन्द्र मेरे सखा हैं। तुमपर कृपा करके ही उन्होंने यह अनुग्रह किया है । यहीकारण है कि तुम दोनों कुण्डल लेकर फिर यहाँ लौट आये हो ।। १६९ ।।

तत् सौम्य गम्यतामनुजाने भवन्तं श्रेयोऽवाप्स्यसीति ।

स उपाध्यायेनानुज्ञातोभगवानुत्तङ्कः क्रुद्धस्तक्षकं प्रतिचिकीर्षमाणो हास्तिनपुरं प्रतस्थे ।। १७० ।।

‘अतः सौम्य! अब तुम जाओ, मैं तुम्हें जानेकी आज्ञा देता हूँ। तुम कल्याणके भागीहोओगे।’ उपाध्यायकी आज्ञा पाकर उत्तंक तक्षकके प्रति कुपित हो उससे बदला लेनेकीइच्छासे हस्तिनापुरकी ओर चल दिये ।। १७० ।।

स हास्तिनपुरं प्राप्य न चिराद् विप्रसत्तमः ।

समागच्छत राजानमुत्तङ्को जनमेजयम् ।। १७१ ।।

हस्तिनापुरमें शीघ्र पहुँचकर विप्रवर उत्तंक राजा जनमेजयसे मिले ।। १७१ ।।

पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम् ।

सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम् ।। १७२ ।।

तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः ।

उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा ।। १७३ ।।

जनमेजय पहले तक्षशिला गये थे। वे वहाँ जाकर पूर्ण विजय पा चुके थे। उत्तंकनेमन्त्रियोंसे घिरे हुए उत्तम विजयसे सम्पन्न राजा जनमेजयको देखकर पहले उन्हें न्यायपूर्वकजयसम्बन्धी आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् उचित समयपर उपयुक्त शब्दोंसे विभूषितवाणीद्वारा उनसे इस प्रकार कहा-।। १७२-१७३ ।।

उत्तङ्क उवाच

अन्यस्मिन् करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम ।बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम ।। १७४ ।।

उत्तंक बोले-नृपश्रेष्ठ! जहाँ तुम्हारे लिये करनेयोग्य दूसरा कार्य उपस्थित हो, वहाँअज्ञानवश तुम कोई और ही कार्य कर रहे हो ।। १७४ ।।

सौतिरुवाच

एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः।

अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम् ।। १७५ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-विप्रवर उत्तंकके ऐसे कहनेपर राजा जनमेजयने उनद्विजश्रेष्ठका विधिपूर्वक पूजन किया और इस प्रकार कहा ।। १७५ ।।

जनमेजय उवाच

आसां प्रजानां परिपालनेनस्वं क्षत्रधर्मं परिपालयामि ।

प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्ययेनासि कार्येण समागतस्त्वम् ।। १७६ ।।

जनमेजय बोले-ब्रह्मन्! मैं इन प्रजाओंकी रक्षाद्वारा अपने क्षत्रियधर्मका पालनकरता हूँ। बताइये, आज मेरे करनेयोग्य कौन-सा कार्य उपस्थित है? जिसके कारण आपयहाँ पधारे हैं ।। १७६ ।।

सौतिरुवाच

स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेनद्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः ।

उवाच राजानमदीनसत्त्वंस्वमेव कार्यं नृपते कुरुष्व ।। १७७ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयके इस प्रकार कहनेपर पुण्यात्माओंमेंअग्रगण्य विप्रवर उत्तंकने उन उदार हृदयवाले नरेशसे कहा-‘महाराज ! वह कार्य मेरानहीं, आपका ही है, आप उसे अवश्य कीजिये’ ।। १७७ ।।

उत्तङ्क उवाच

तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता ।तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने ।। १७८ ।।

इतना कहकर उत्तंक फिर बोले-भूपालशिरोमणे! नागराज तक्षकने आपकेपिताकी हत्या की है; अतः आप उस दुरात्मा सर्पसे इसका बदला लीजिये ।। १७८ ।।

कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः ।

तद्गच्छापचितिं राजन् पितुस्तस्य महात्मनः ।। १७९ ।।

मैं समझता हूँ, शत्रुनाशन-कार्यकी सिद्धिके लिये जो सर्पयज्ञरूप कर्म शास्त्रमें देखागया है, उसके अनुष्ठानका यह उचित अवसर प्राप्त हुआ है। अतः राजन्! अपने महात्मापिताकी मृत्युका बदला आप अवश्य लें ।। १७९ ।।

तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना ।

पञ्चत्वमगमद् राजा वज्राहत इव द्रुमः ।। १८० ।।

यद्यपि आपके पिता महाराज परीक्षित्ने कोई अपराध नहीं किया था तो भी उसदुष्टात्मा सर्पने उन्हें डँस लिया और वे वज्रके मारे हुए वृक्षकी भाँति तुरंत ही गिरकर कालकेगालमें चले गये ।। १८० ।।

बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षकः पन्नगाधमः ।

अकार्यं कृतवान् पापो योऽदशत् पितरं तव ।। १८१ ।।

सर्पोमें अधम तक्षक अपने बलके घमण्डसे उन्मत्त रहता है। उस पापीने यह बड़ा भारीअनुचित कर्म किया जो आपके पिताको डँस लिया ।। १८१ ।।

राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम् ।

यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत पापकृत् ।।॥ १८२ ।।

वे महाराज परीक्षित् राजर्षियोंके वंशकी रक्षा करनेवाले और देवताओंके समानतेजस्वी थे, काश्यप नामक एक ब्राह्मण आपके पिताकी रक्षा करनेके लिये उनके पासआना चाहते थे, किंतु उस पापाचारीने उन्हें लौटा दिया।। १८२ ।।

होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने ।

सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद् विधीयताम् ।। १८३ ।।

अतः महाराज! आप सर्पयज्ञका अनुष्ठान करके उसकी प्रज्वलित अग्निमें उस पापीकोहोम दीजिये; और जल्दी-से-जल्दी यह कार्य कर डालिये ।। १८३ ।।

एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि ।

मम प्रियं च सुमहत् कृतं राजन् भविष्यति ।। १८४ ।।

कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना ।

विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थं चरतोऽनघ ।। १८५ ।।

ऐसा करके आप अपने पिताकी मृत्युका बदला चुका सकेंगे एवं मेरा भी अत्यन्त प्रियकार्य सम्पन्न हो जायगा। समूची पृथ्वीका पालन करनेवाले नरेश! तक्षक बड़ा दुरात्मा है।पापरहित महाराज! मैं गुरुजीके लिये एक कार्य करने जा रहा था, जिसमें उस दुष्टने बहुतविघ्न डाल दिया था ।। १८४-१८५ ।। बड़ा

सौतिरुवाच

एतच्छ्रुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह।

उत्तङ्कवाक्यहविषा दीप्तोऽग्निर्हविषा यथा ।। १८६ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-महर्षियो! यह समाचार सुनकर राजा जनमेजय तक्षकपरकुपित हो उठे। उत्तंकके वाक्यने उनकी क्रोधाग्निमें घीका काम किया। जैसे घीकी आहुतिपड़नेसे अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वे क्रोधसे अत्यन्त कुपित होगये ।। १८६ ।।

अपृच्छत् स तदा राजा मन्त्रिणस्तान् सुदुःखितः ।

उत्तङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगतिं प्रति ।। १८७ ।।

उस समय राजा जनमेजयने अत्यन्त दुःखी होकर उत्तंकके निकट ही मन्त्रियोंसेपिताके स्वर्गगमनका समाचार पूछा ।। १८७ ।।

तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत् ।

यदैव वृत्तं पितरमुत्तङ्कादशृणोत् तदा ।। १८८ ।।

उत्तंकके मुखसे जिस समय उन्होंने पिताके मरनेकी बात सुनी, उसी समय वे महाराजदुःख और शोकमें डूब गये ।। १८८ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौष्यपर्वणि तृतीयोsध्यायः ।। ३इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौष्यपर्वमें (पौष्याख्यानविषयक) तीसरा अध्याय पूरा हुआ ।। ३ ।।(पौलोमपर्व)

चतुर्थोऽध्यायः

कथा-प्रवेश

लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः कुलपतेद्द्वादशवार्षिके सत्रे ऋषीनभ्यागतानुपतस्थे ।। १ ।।

नैमिषारण्यमें कुलपति शौनकके बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाले सत्रमें उपस्थित महर्षियोंके समीप एक दिन लोमहर्षणपुत्र सूतनन्दन उग्रश्रवा आये। वे पुराणोंकी कथा कहनेमें कुशल थे ।। १ ।।

पौराणिकः पुराणे कृतश्रमः स कृताञ्जलिस्तानुवाच ।

किं भवन्तः श्रोतुमिच्छन्ति किमहं ब्रवाणीति ।। २ ।।

वे पुराणोंके ज्ञाता थे। उन्होंने पुराणविद्यामें बहुत परिश्रम किया था । वे नैमिषारण्यवासी महर्षियोंसे हाथ जोड़कर बोले- ‘पूज्यपाद महर्षिगण! आपलोग क्या सुनना चाहते हैं? मैं किस प्रसंगपर बोलूँ?’ ।। २ ।।

तमृषय ऊचुः परमं लौमहर्षणे वक्ष्यामस्त्वां नः प्रतिवक्ष्यसि वचः शुश्रूषतां कथायोगं नः कथायोगे ।। ३ ।।

तब ऋषियोंने उनसे कहा-लोमहर्षणकुमार! हम आपको उत्तम प्रसंग बतलायेंगे और कथा-प्रसंग प्रारम्भ होनेपर सुननेकी इच्छा रखनेवाले हमलोगोंके समक्ष आप बहुत-सी कथाएँ कहेंगे ।। ३ ।।

तत्र भगवान् कुलपतिस्तु शौनकोऽग्निशरणमध्यास्ते ।। ४ ।।

किंतु पूज्यपाद कुलपति भगवान् शौनक अभी अग्निकी उपासनामें संलग्न हैं ।। ४ ।।

योऽसौ दिव्याः कथा वेद देवतासुरसंश्रिताः ।

मनुष्योरगगन्धर्वकथा वेद च सर्वशः ।। ५ ।।

वे देवताओं और असुरोंसे सम्बन्ध रखनेवाली बहुत-सी दिव्य कथाएँ जानते हैं । मनुष्यों, नागों तथा गन्धर्वोकी कथाओंसे भी वे सर्वथा परिचित हैं ।। ५ ।।

स चाप्यस्मिन् मखे सौते विद्वान् कुलपतिर्द्विजः ।

दक्षो धृतव्रतो धीमाञ्छास्त्रे चारण्यके गुरुः: । ६ । ।

सूतनन्दन! वे विद्वान् कुलपति विप्रवर शौनकजी भी इस यज्ञमें उपस्थित हैं। वे चतुर, उत्तम व्रतधारी तथा बुद्धिमान् हैं। शास्त्र ( श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण ) तथा आरण्यक सौतिः पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य(बृहदारण्यक आदि)-के तो वे आचार्य ही हैं ।। ६ ।।

सत्यवादी शमपरस्तपस्वी नियतव्रतः ।

सर्वेषामेव नो मान्यः स तावत् प्रतिपाल्यताम् ।। ७ ।।

उग्रश्रवाजीके द्वारा महाभारतकी कथा वे सदा सत्य बोलनेवाले, मन और इन्द्रियोंके संयममें तत्पर, तपस्वी और नियमपूर्वकव्रतको निबाहनेवाले हैं। वे हम सभी लोगोंके लिये सम्माननीय हैं; अतः जबतक उनकाआना न हो, तबतक प्रतीक्षा कीजिये ।। ७ ।।

तस्मिन्नध्यासति गुरावासनं परमार्चितम् ।

ततो वक्ष्यसि यत्त्वां स प्रक्ष्यति द्विजसत्तमः ।। ८ ।।

गुरुदेव शौनक जब यहाँ उत्तम आसनपर विराजमान हो जायँ, उस समय वे द्विजश्रेष्ठआपसे जो कुछ पूछें, उसी प्रसंगको लेकर आप बोलियेगा ।। ८ ।।

सौतिरुवाच

एवमस्तु गुरौ तस्मिन्नुपविष्टे महात्मनि ।

तेन पृष्टः कथाः पुण्या वक्ष्यामि विविधाश्रयाः ।। ९ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-एवमस्तु (ऐसा ही होगा), गुरुदेव महात्मा शौनकजीके बैठजानेपर उन्हींके पूछनेके अनुसार मैं नाना प्रकारकी पुण्यदायिनी कथाएँ कहूँगा ।। ९ ।।

सोऽथ विप्रर्षभः सर्वं कृत्वा कार्यं यथाविधि ।देवान् वाग्भिः पितृनद्भिस्तर्पयित्वाऽऽजगाम ह ।। १० ।।

यत्र ब्रह्मर्षयः सिद्धाः सुखासीना धृतव्रताः ।

यज्ञायतनमाश्रित्य सूतपुत्रपुरःसराः ।। ११ ।।

तदनन्तर विप्रशिरोमणि शौनकजी क्रमशः सब कार्योंका विधिपूर्वक सम्पादन करकेवैदिक स्तुतियोंद्वारा देवताओंको और जलकी अंजलिद्वारा पितरोंको तृप्त करनेके पश्चात्उस स्थानपर आये, जहाँ उत्तम व्रतधारी सिद्ध-ब्रह्मर्षिगण यज्ञमण्डपमें सूतजीको आगेविराजमान करके सुखपूर्वक बैठे थे ।। १०-११ ।।

ऋत्विक्ष्वथ सदस्येषु स वै गृहपतिस्तदा ।

उपविष्टेषूपविष्टः शौनकोऽथाब्रवीदिदम् ।। १२ ।।

ऋत्विजों और सदस्योंके बैठ जानेपर कुलपति शौनकजी भी वहाँ बैठे और इस प्रकारबोले ।। १२ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि कथाप्रवेशो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।। ४इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें कथा-प्रवेश नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ।। ४ ।।

पञ्चमोऽध्यायः

भृगुके आश्रमपर पुलोमा दानवका आगमन और उसकी

अग्निदेवके साथ बातचीत

शौनक उवाच

पुराणमखिलं तात पिता तेऽधीतवान् पुरा ।

कच्चित् त्वमपि तत् सर्वमधीषे लौमहर्षणे ।। १ ।।

शौनकजीने कहा-तात लोमहर्षणकुमार! पूर्वकालमें आपके पिताने सब पुराणोंकाअध्ययन किया था। क्या आपने भी उन सबका अध्ययन किया है? ।। १ ।।

पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम् ।

कथ्यन्ते ये पुरास्माभिः श्रुतपूर्वाः पितुस्तव ।। २ ।।

पुराणमें दिव्य कथाएँ वर्णित हैं। परम बुद्धिमान् राजर्षियों और ब्रह्मर्षियोंके आदिवंशभी बताये गये हैं। जिनको पहले हमने आपके पिताके मुखसे सुना है ।। २ ।।

तत्र वंशमहं पूर्वं श्रोतुमिच्छामि भार्गवम् ।

कथयस्व कथामेतां कल्याः स्म श्रवणे तव ।। ३ ।।

उनमेंसे प्रथम तो मैं भृगुवंशका ही वर्णन सुनना चाहता हूँ। अतः आप इसीसे सम्बन्धरखनेवाली कथा कहिये। हम सब लोग आपकी कथा सुननेके लिये सर्वथा उद्यत हैं ।। ३ ।।

सौतिरुवाच

यदधीतं पुरा सम्यग् द्विजश्रेष्ठैर्महात्मभिः ।

वैशम्पायनविप्राग्र्यैस्तैश्चापि कथितं यथा ।। ४ ।।

सूतपुत्र उग्रश्रवाने कहा-भृगुनन्दन! वैशम्पायन आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महात्माद्विजवरोंने पूर्वकालमें जो पुराण भलीभाँति पढा था और उन विद्वानोंने जिस प्रकारपुराणका वर्णन किया है, वह सब मुझे ज्ञात है ।। ४ ।।

यदधीतं च पित्रा मे सम्यक् चैव ततो मया ।

तावच्छृणुष्व यो देवैः सेन्द्रैः सर्षिमरुद्गणैः ।। ५ ।।

पूजितः प्रवरो वंशो भार्गवो भृगुनन्दन ।

इमं वंशमहं पूर्व भार्गवं ते महामुने ।। ६ ।

निगदामि यथा युक्तं पुराणाश्रयसंयुतम् ।

भृगुर्महर्षिर्भगवान् ब्रह्मणा वै स्वयम्भुवा ।। ७ ।।

वरुणस्य क्रतौ जातः पावकादिति नः श्रुतम् ।

भृगोः सुदयितः पुत्रश्च्यवनो नाम भार्गवः ।। ८ ।।

मेरे पिताने जिस पुराणविद्याका भलीभाँति अध्ययन किया था, वह सब मैंने उन्हींकेमुखसे पढ़ी और सुनी है। भृगुनन्दन! आप पहले उस सर्वश्रेष्ठ भृगुवंशका वर्णन सुनिये, जोदेवता, इन्द्र, ऋषि और मरुद्गणोंसे पूजित है। महामुने! आपके इस अत्यन्त दिव्यभार्गववंशका परिचय देता हूँ। यह परिचय अद्भुत एवं युक्तियुक्त तो होगा ही, पुराणोंकेआश्रयसे भी संयुक्त होगा। हमने सुना है कि स्वयम्भू ब्रह्माजीने वरुणके यज्ञमें महर्षिभगवान् भृगुको अग्निसे उत्पन्न किया था। भृगुके अत्यन्त प्रिय पुत्र च्यवन हुए, जिन्हें भार्गवभी कहते हैं ।। ५-८।।

च्यवनस्य च दायादः प्रमतिन्नाम धार्मिकः ।

प्रमतेरप्यभूत् पुत्रो घृताच्यां रुरुरित्युत ।। ९ ।।

च्यवनके पुत्रका नाम प्रमति था, जो बड़े धर्मात्मा हुए। प्रमतिके घृताची नामकअप्सराके गर्भसे रुरु नामक पुत्रका जन्म हुआ ।। ९ ।।

रुरोरपि सुतो जज्ञे शुनको वेदपारगः ।

प्रमद्वरायां धर्मात्मा तव पूर्वपितामहः ।। १० ।।

रुरुके पुत्र शुनक थे, जिनका जन्म प्रमद्वराके गर्भसे हुआ था। शुनक वेदोंके पारंगतविद्वान् और धर्मात्मा थे। वे आपके पूर्व पितामह थे ।। १० ।।

तपस्वी च यशस्वी च श्रुतवान् ब्रह्मवित्तमः ।

धार्मिकः सत्यवादी च नियतो नियताशनः ।। ११ ।।

वे तपस्वी, यशस्वी, शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ थे। धर्मात्मा, सत्यवादी और मन-इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले थे। उनका आहार- विहार नियमित एवं परिमित था ।। ११ ।।

शौनक उवाच

सूतपुत्र यथा तस्य भार्गवस्य महात्मनः ।

च्यवनत्वं परिख्यातं तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ।। १२ ।।

शौनकजी बोले-सूतपुत्र! मैं पूछता हूँ कि महात्मा भार्गवका नाम च्यवन कैसेप्रसिद्ध हुआ? यह मुझे बताइये ।। १२ ।।

सौतिरुवाच

भृगोः सुदयिता भार्या पुलोमेत्यभिविश्रुता ।

तस्यां समभवद् गर्भो भृगुवीर्यसमुद्भवः ।। १३ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-महामुने! भृगुकी पत्नीका नाम पुलोमा था । वह अपने पतिकोबहुत ही प्यारी थी। उसके उदरमें भृगुजीके वीर्यसे उत्पन्न गर्भ पल रहा था।। १३ ।।

तस्मिन् गर्भेऽथ सम्भूते पुलोमायां भृगूद्धह।

समये समशीलिन्यां धर्मपत्न्यां यशस्विनः ।। १४ ।।

अभिषेकाय निष्क्रान्ते भृगौ धर्मभृतां वरे ।

आश्रमं तस्य रक्षोऽथ पुलोमाभ्याजगाम ह ।। १५ ।।

भृगुवंशशिरोमणे! पुलोमा यशस्वी भृगुकी अनुकूल शील- स्वभाववाली धर्मपत्नी थी।उसकी कुक्षिमें उस गर्भके प्रकट होनेपर एक समय धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भृगुजी स्नान करनेकेलिये आश्रमसे बाहर निकले। उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उनकेआश्रमपर आया ।। १४-१५ ।।

तं प्रविश्याश्रमं दृष्ट्वा भृगोर्भार्यामनिन्दिताम् ।

हच्छयेन समाविष्टो विचेताः समपद्यत ।। १६ ।।

आश्रममें प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षिे भृगुकी पतिव्रता पत्नीपर पड़ी और वहकामदेवके वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा ।। १६ ।।

अभ्यागतं तु तद्रक्षः पुलोमा चारुदर्शना ।

न्यमन्त्रयत वन्येन फलमूलादिना तदा ।। १७ ।।

सुन्दरी पुलोमाने उस राक्षसको अभ्यागत अतिथि मानकर वनके फल-मूल आदिसेउसका सत्कार करनेके लिये उसे न्योता दिया।। १७ ।।

तां तु रक्षस्तदा ब्रह्मन् हच्छयेनाभिपीडितम् ।

दृष्ट्वा हृष्टमभूद् राजन् जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम् ।। १८ ।।

ब्रह्मन्! वह राक्षस कामसे पीड़ित हो रहा था। उस समय उसने वहाँ पुलोमाको अकेलीदेख बड़े हर्षका अनुभव किया, क्योंकि वह सती-साध्वी पुलोमाको हर ले जाना चाहताथा ।। १८ ।।

जातमित्यब्रवीत् कार्यं जिहीर्षुर्मुदितः शुभाम् ।

सा हि पूर्व वृता तेन पुलोम्ना तु शुचिस्मिता ।। १९ ।।

मनमें उस शुभलक्षणा सतीके अपहरणकी इच्छा रखकर वह प्रसन्नतासे फूल उठा औरमन-ही-मन बोला, ‘मेरा तो काम बन गया।’ पवित्र मुसकानवाली पुलोमाको पहले उसपुलोमा नामक राक्षसने वरण* किया था ।। १९ ।।

तां तु प्रादात् पिता पश्चाद् भृगवे शास्त्रवत्तदा ।

तस्य तत् किल्बिषं नित्यं हृदि वर्तति भार्गव ।। २० ।।

किंतु पीछे उसके पिताने शास्त्रविधिके अनुसार महर्षि भृगुके साथ उसका विवाह करदिया। भृगुनन्दन! उसके पिताका वह अपराध राक्षसके हृदयमें सदा काँटे-सा कसकतारहता था ।। २० ।।

इदमन्तरमित्येवं हर्तुं चक्रे मनस्तदा ।

अथाग्निशरणेऽपश्यज्ज्वलन्तं जातवेदसम् ।। २१ ।।

यही अच्छा मौका है, ऐसा विचारकर उसने उस समय पुलोमाको हर ले जानेका पक्कानिश्चय कर लिया। इतनेहीमें राक्षसने देखा, अग्निहोत्र-गृहमें अग्निदेव प्रज्वलित हो रहेहैं ।। २१ ।।

तमपृच्छत् ततो रक्षः पावकं ज्वलितं तदा ।

शंस मे कस्य भार्येयमग्ने पृच्छे ऋतेन वै ।। २२ ।।

तब पुलोमाने उस समय उस प्रज्वलित पावकसे पूछा- ‘ अग्निदेव ! मैं सत्यकी शपथदेकर पूछता हूँ, बताओ, यह किसकी पत्नी है?’ ।। २२ ।।

मुखं त्वमसि देवानां वद पावक पृच्छते ।

मया हीयं वृता पूर्व भार्यार्थे वरवर्णिनी ।। २३ ।।

‘पावक! तुम देवताओंके मुख हो। अतः मेरे पूछनेपर ठीक-ठीक बताओ। पहले तोमैंने ही इस सुन्दरीको अपनी पत्नी बनानेके लिये वरण किया था ।। २३ ।।

पश्चादिमां पिता प्रादाद् भृगवेऽनृतकारकः ।

सेयं यदि वरारोहा भृगोर्भार्या रहोगता ।। २४ ।।

तथा सत्यं समाख्याहि जिहीर्षाम्याश्रमादिमाम् ।

स मन्युस्तत्र हृदयं प्रदहन्निव तिष्ठति ।

मत्पूर्वभार्यां यदिमां भृगुराप सुमध्यमाम् ।। २५ ।।

‘किंतु बादमें असत्य व्यवहार करनेवाले इसके पिताने भृगुके साथ इसका विवाह करदिया। यदि यह एकान्तमें मिली हुई सुन्दरी भृगुकी भार्या है तो वैसी बात सच-सच बता दो;क्योंकि मैं इसे इस आश्रमसे हर ले जाना चाहता हूँ। वह क्रोध आज मेरे हृदयको दग्ध-साकर रहा है; इस सुमध्यमाको, जो पहले मेरी भार्या थी, भृगुने अन्यायपूर्वक हड़प लियाहै’ ।। २४-२५ ।।

सौतिरुवाच

एवं रक्षस्तमामन्त्र्य ज्वलितं जातवेदसम् ।

शङ्कमानं भृगोर्भार्यां पुनः पुनरपृच्छत ।। २६ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-इस प्रकार वह राक्षस भृगुकी पत्नीके प्रति, यह मेरी है याभृगुकी-ऐसा संशय रखते हुए, प्रज्वलित अग्निको सम्बोधित करके बार-बार पूछने लगा |।। २६ ।।

त्वमग्ने सर्वभूतानामन्तश्चरसि नित्यदा ।

साक्षिवत् पुण्यपापेषु सत्यं ब्रूहि कवे वचः ।। २७ ।।

‘अग्निदेव! तुम सदा सब प्राणियोंके भीतर निवास करते हो। सर्वज्ञ अग्ने! तुम पुण्यऔर पापके विषयमें साक्षीकी भाँति स्थित रहते हो; अतः सच्ची बात बताओ ।। २७ ।।

मत्पूर्वापहृता भार्या भृगुणानृतकारिणा।

सेयं यदि तथा मे त्वं सत्यमाख्यातुमर्हसि ।। २८ ।।

‘असत्य बर्ताव करनेवाले भृगुने, जो पहले मेरी ही थी, उस भार्याका अपहरण कियाहै। यदि यह वही है, तो वैसी बात ठीक-ठीक बता दो ।। २८ ।।

श्रुत्वा त्वत्तो भृगोर्भार्यां हरिष्याम्याश्रमादिमाम् ।

जातवेदः पश्यतस्ते वद सत्यां गिरं मम ।। २९ ।।

‘सर्वज्ञ अग्निदेव! तुम्हारे मुखसे सब बातें सुनकर मैं भृगुकी इस भार्याको तुम्हारेदेखते-देखते इस आश्रमसे हर ले जाऊँगा; इसलिये मुझसे सच्ची बात कहो’ ।। २९ ।।

सौतिरुवाच

तस्यैतद् वचनं श्रुत्वा सप्तार्चिरुःखितोऽभवत् ।

भीतोऽनृताच्च शापाच्च भृगोरित्यब्रवीच्छनैः ।। ३० ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-राक्षसकी यह बात सुनकर ज्वालामयी सात जिह्वाओंवालेअग्निदेव बहुत दुःखी हुए। एक ओर वे झूठसे डरते थे तो दूसरी ओर भृगुके शापसे; अतःधीरेसे इस प्रकार बोले ।। ३० ।।

अग्निनरुवाच

त्वया वृता पुलोमेयं पूर्वं दानवनन्दन ।

किन्त्वियं विधिना पूर्वं मन्त्रवन्न वृता त्वया ।। ३१ ।।

अग्निदेव बोले-दानवनन्दन! इसमें संदेह नहीं कि पहले तुम्हींने इस पुलोमाका वरणकिया था, किंतु विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए इसके साथ तुमने विवाह नहीं कियाथा ।। ३१ ।।

पित्रा तु भृगवे दत्ता पुलोमेयं यशस्विनी ।

ददाति न पिता तुभ्यं वरलोभान्महायशाः ।। ३२ ।।

पिताने तो यह यशस्विनी पुलोमा भृगुको ही दी है। तुम्हारे वरण करनेपर भी इसकेमहायशस्वी पिता तुम्हारे हाथमें इसे इसलिये नहीं देते थे कि उनके मनमें तुमसे श्रेष्ठ वरमिल जानेका लोभ था ।। ३२ ।।

अथेमां वेददृष्टेन कर्मणा विधिपूर्वकम् ।

भार्यामृषिर्भृगुः प्राप मां पुरस्कृत्य दानव ।। ३३ ।।

दानव! तदनन्तर महर्षि भृगुने मुझे साक्षी बनाकर वेदोत्त क्रियाद्वारा विधिपूर्वक इसकापाणिग्रहण किया था।। ३३ ।।

सेयमित्यवगच्छामि नानृतं वत्तुमुत्सहे ।

नानृतं हि सदा लोके पूज्यते दानवोत्तम ।। ३४ ।।

यह वही है, ऐसा मैं जानता हूँ। इस विषयमें मैं झूठ नहीं बोल सकता। दानवश्रेष्ठ!लोकमें असत्यकी कभी पूजा नहीं होती है ।। ३४ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि पुलोमाग्निसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें पुलोमा-अग्निसंवादविषयकपाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ५ ।।

बाल्यावस्थामें पुलोमा रो रही थी। उसके रोदनकी निवृत्तिके लिये पिताने डराते हुए कहा-‘रे राक्षस! तू इसे पकड़ले।’ घरमें पुलोमा राक्षस पहलेसे ही छिपा हुआ था। उसने मन- ही- मन वरण कर लिया – ‘ यह मेरी पत्नी है।’ बात केवलइतनी ही थी। इसका अभिप्राय यह है कि हँसी-खेलमें भी या डाँटने-डपटनेके लिये भी बालकोंसे ऐसी बात नहीं कहनीचाहिये और राक्षसका नाम भी नहीं रखना चाहिये।

षष्ठोऽध्यायः

महर्षि च्यवनका जन्म, उनके तेजसे पुलोमा राक्षसका भस्म होना तथा भृगुका अग्निदेवको शाप देना

सौतिरुवाच

अग्नेरथ वचः श्रुत्वा तद् रक्षः प्रजहार ताम् ।

ब्रह्मन् वराहरूपेण मनोमारुतरंहसा ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-ब्रह्मन्! अग्निका यह वचन सुनकर उस राक्षसने वराहका रूपधारण करके मन और वायुके समान वेगसे उसका अपहरण किया।। १ ।।

ततः स गर्भो निवसन् कुक्षौ भृगुकुलोद्धह ।

रोषान्मातुश्च्युतः कुक्षेश्च्यवनस्तेन सोऽभवत् ।। २ ।।

भृगुवंशशिरोमणे! उस समय वह गर्भ जो अपनी माताकी कुक्षिमें निवास कर रहा था,अत्यन्त रोषके कारण योगबलसे माताके उदरसे च्युत होकर बाहर निकल आया। च्युतहोनेके कारण ही उसका नाम च्यवन हुआ ।। २ ।।

तं दृष्ट्वा मातुरुदराच्च्युतमादित्यवर्चसम् ।

तद् रक्षो भस्मसाद्भूतं पपात परिमुच्य ताम् ।। ३ ।।

माताके उदरसे च्युत होकर गिरे हुए उस सूर्यके समान तेजस्वी गर्भको देखते ही वहराक्षस पुलोमाको छोड़कर गिर पड़ा और तत्काल जलकर भस्म हो गया ।। ३ ।।

सा तमादाय सुश्रोणी ससार भृगुनन्दनम् ।

च्यवनं भार्गवं पुत्रं पुलोमा दुःखमूच्च्छिता ।। ४ ।।

सुन्दर कटिप्रदेशवाली पुलोमा दुःखसे मूर्च्छित हो गयी और किसी तरह सँभलकरभृगुकुलको आनन्दित करनेवाले अपने पुत्र भाग्गव च्यवनको गोदमें लेकर ब्रह्माजीके पासचली ।। ४ ।।

तां ददर्श स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ।

रुदतीं बाष्पपूर्णाक्षीं भृगोर्भार्यामनिन्दिताम् ।। ५ ।।

सान्त्वयामास भगवान् वधूं ब्रह्मा पितामहः ।

अश्रुबिन्दूद्भवा तस्याः प्रावर्तत महानदी ।। ६ ।।

सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजीने स्वयं भृगुकी उस पतिव्रता पत्नीको रोती औरनेत्रोंसे आँसू बहाती देखा। तब पितामह भगवान् ब्रह्माने अपनी पुत्रवधूको सान्त्वना दी -उसे धीरज बँधाया। उसके आँसुओंकी बूंदोंसे एक बहुत बड़ी नदी प्रकट हो गयी।। ५-६ ।।

आवर्तन्ती सृतिं तस्या भृगोः पन्त्यास्तपस्विनः ।

तस्या मार्गं सृतवतीं दृष्ट्वा तु सरितं तदा ।। ७ ।।

नाम तस्यास्तदा नद्याश्चक्रे लोकपितामहः ।

वधूसरेति भगवांश्च्यवनस्याश्रमं प्रति ।। ८।।

वह नदी तपस्वी भृगुकी उस पत्नीके मार्गको आप्लावित किये हुए थी। उस समयलोकपितामह भगवान् ब्रह्माने पुलोमाके मार्गका अनुसरण करनेवाली उस नदीको देखकरउसका नाम वधूसरा रख दिया, जो च्यवनके आश्रमके पास प्रवाहित होती है ।। ७-८ ।।

स एव च्यवनो जज्ञे भृगोः पुत्रः प्रतापवान् ।

तं ददर्श पिता तत्र च्यवनं तां च भामिनीम् ।

स पुलोमां ततो भार्या पप्रच्छ कुपितो भृगुः ।। ९ ।।

इस प्रकार भृगुपुत्र प्रतापी च्यवनका जन्म हुआ। तदनन्तर पिता भृगुने वहाँ अपनेच्यवन तथा पत्नी पुलोमाको देखा और सब बातें जानकर उन्होंने अपनी भार्या पुलोमासेकुपित होकर पूछा- ।। ९ ।। पुत्र

भृगुरुवाच

केनासि रक्षसे तस्मै कथिता त्वं जिहीर्षते ।

न हि त्वां वेद तद् रक्षो मद्भार्यां चारुहासिनीम् ।। १० ।।

भृगु बोले-कल्याणी! तुम्हें हर लेनेकी इच्छासे आये हुए उस राक्षसको किसनेतुम्हारा परिचय दे दिया? मनोहर मुसकानवाली मेरी पत्नी तुझ पुलोमाको वह राक्षस नहींजानता था ।। १० ।।

तत्त्वमाख्याहि तं ह्यद्य शप्तुमिच्छाम्यहं रुषा ।

बिभेति को न शापान्मे कस्य चायं व्यतिक्रमः ।। ११ ।।

प्रिये! ठीक-ठीक बताओ। आज मैं कुपित होकर अपने उस अपराधीको शाप देनाचाहता हूँ। कौन मेरे शापसे नहीं डरता है? किसके द्वारा यह अपराध हुआ है? ।। ११ ।।

पुलोमोवाच

अग्निना भगवंस्तस्मै रक्षसेऽहं निवेदिता ।

ततो मामनयद् रक्षः क्रोशन्तीं कुररीमिव ।। १२ ।।

पुलोमा बोली-भगवन्! अग्निदेवने उस राक्षसको मेरा परिचय दे दिया। इससेकुररीकी भाँति विलाप करती हुई मुझ अबलाको वह राक्षस उठा ले गया।। १२ ।।

साहं तव सुतस्यास्य तेजसा परिमोक्षिता ।

भस्मीभूतं च तद् रक्षो मामुत्सृज्य पपात वै ।। १३ ।।

आपके इस पुत्रके तेजसे मैं उस राक्षसके चंगुलसे छूट सकी हूँ। राक्षस मुझे छोड़करगिरा और जलकर भस्म हो गया ।। १३ ।

सौतिरुवाचइति श्रुत्वा पुलोमाया भृगुः परममन्युमान् ।

शशापाग्निरमतिक्रुद्धः सर्वभक्षो भविष्यसि ।। १४ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-पुलोमाका यह वचन सुनकर परम क्रोधी महर्षि भृगुका क्रोधऔर भी बढ़ गया। उन्होंने अग्निदेवको शाप दिया- ‘ तुम सर्वभक्षी हो जाओगे’ ।। १४ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि अग्निशापे षष्ठोऽध्यायः ।। ६ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें अग्निशापविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ ।। ६ ।।

सप्तमोऽध्यायः

शापसे कुपित हुए अग्निदेवका अदृश्य होना औरब्रह्माजीका उनके शापको संकुचित करके उन्हें प्रसन्न

करना

सौतिरुवाच

शप्तस्तु भृगुणा वह्निः क्रुद्धो वाक्यमथाब्रवीत् ।

किमिदं साहसं ब्रह्मन् कृतवानसि मां प्रति ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-महर्षि भृगुके शाप देनेपर अग्निदेवने कुपित होकर यह बातकही-‘ब्रह्मन्! तुमने मुझे शाप देनेका यह दुस्साहसपूर्ण कार्य क्यों किया हे?’ ।। १ ।।

धर्मे प्रयतमानस्य सत्यं च वदतः समम्।

पृष्टो यदब्रवं सत्यं व्यभिचारोऽत्र को मम ।। २ ।।

‘मैं सदा धर्मके लिये प्रयत्नशील रहता और सत्य एवं पक्षपातशून्य वचन बोलता हूँ;अतः उस राक्षसके पूछनेपर यदि मैंने सच्ची बात कह दी तो इसमें मेरा क्या अपराधहै? ।। २ ।।

पृष्टो हि साक्षी यः साक्ष्यं जानानोऽप्यन्यथा वदेत् ।

स पूर्वानात्मनः सप्त कुले हन्यात् तथा परान् ।। ३ ।।

‘जो साक्षी किसी बातको ठीक-ठीक जानते हुए भी पूछनेपर कुछ-का-कुछ कह देता- बोलता है, वह अपने कुलमें पहले और पीछेकी सात -सात पीढ़ियोंका नाश करता झूठ-उन्हें नरकमें ढकेलता है ।। ३ ।।

यश्च कार्यार्थतत्त्वज्ञो जानानोऽपि न भाषते ।

सोऽपि तेनैव पापेन लिप्यते नात्र संशयः ।। ४ ।।

‘इसी प्रकार जो किसी कार्यके वास्तविक रहस्यका ज्ञाता है, वह उसके पूछनेपर यदिजानते हुए भी नहीं बतलाता-मौन रह जाता है तो वह भी उसी पापसे लिप्त होता है;इसमें संशय नहीं है ।। ४ ।।

शक्तोऽहमपि शप्तुं त्वां मान्यास्तु ब्राह्मणा मम ।

जानतोऽपि च ते ब्रह्मन् कथयिष्ये निबोध तत् ।। ५ ।।

‘मैं भी तुम्हें शाप देनेकी शक्ति रखता हूँ तो भी नहीं देता हूँ; क्योंकि ब्राह्मण मेरे मान्यहैं। ब्रह्मन्! यद्यपि तुम सब कुछ जानते हो, तथापि मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ, उसे ध्यान देकरसुनो-।। ५ ।।

योगेन बहुधात्मानं कृत्वा तिष्ठामि मूर्तिषु ।

अग्निहोत्रेषु सत्रेषु क्रियासु च मखेषु च ।। ६ ।।

‘मैं योगसिद्धिके बलसे अपने-आपको अनेक रूपोंमें प्रकट करके गार्हपत्य औरदक्षिणाग्नि आदि मूर्तियोंमें, नित्य किये जानेवाले अग्निहोत्रोंमें, अनेक व्यक्तियोंद्वारासंचालित सत्रोंमें, गर्भाधान आदि क्रियाओंमें तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों (यज्ञों)-में सदानिवास करता हूँ ।। ६ ।।

वेदोक्तेन विधानेन मयि यद् हुयते हविः ।

देवताः पितरश्चैव तेन तृप्ता भवन्ति वै ।। ७ ।।

‘मुझमें वेदोतक्त विधिसे जिस हविष्यकी आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय हीदेवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं ।। ७ ।।

आपो देवगणाः सर्वे आपः पितृगणास्तथा।

दर्श्च पौर्णमासश्च देवानां पितृभिः सह ।। ८ ।।

‘जल ही देवता हैं तथा जल ही पितृगण हैं। दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथादेवताओंके लिये किये जाते हैं ।। ८ ।।

देवताः पितरस्तस्मात् पितरश्चापि देवताः ।

एकीभूताश्च पूज्यन्ते पृथक्त्वेन च पर्वसु ।। ९ ।।

‘अतः देवता पितर हैं और पितर ही देवता हैं। विभिन्न पर्वोपर ये दोनों एक रूपमें भीपूजे जाते हैं और पृथक्-पृथक् भी ।। ९ ।।

देवताः पितरश्चैव भुञ्जते मयि यद् हुतम् ।देवतानां पितृणां च मुखमेतदहं स्मृतम् ।। १० ।।

‘मुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवता और पितर दोनों भक्षण करते हैं। इसीलियेमैं देवताओं और पितरोंका मुख माना जाता हूँ ।। १० ।।

अमावास्यां हि पितरः पौर्णमास्यां हि देवताः ।

मन्मुखेनैव हूयन्ते भुञ्जते च हुतं हविः ।। ११ ।।

‘अमावास्याको पितरोंके लिये और पूर्णिमाको देवताओंके लिये मेरे मुखसे ही आहुतिदी जाती है और उस आहुतिके रूपमें प्राप्त हुए हविष्यका वे देवता और पितर उपभोगकरते हैं, सर्वभक्षी होनेपर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ?’ ।। ११३ ।।

सौतिरुवाच

सर्वभक्षः कथं त्वेषां भविष्यामि मुखं त्वहम् ।

चिन्तयित्वा ततो वह्निश्वक्रे संहारमात्मनः ।। १२ ।।

द्विजानामग्निहोत्रेषु यज्ञसत्रक्रियासु च ।

निरोंकारवषट्काराः स्वधास्वाहाविवर्जिताः ।। १३ ।।

विनाग्निना प्रजाः सर्वास्तत आसन् सुदुःखिताः ।

अथर्षयः समुद्विग्ना देवान् गत्वाब्रुवन् वचः ।। १४ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-महर्षियो! तदनन्तर अग्निदेवने कुछ सोच विचारकर द्विजोंकेअग्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कारसम्बन्धी क्रियाओंमेंसे अपने-आपको समेट लिया। फिरतो अग्निके बिना समस्त प्रजा ॐकार, वषट्कार, स्वधा और स्वाहा आदिसे वंचित होकरअत्यन्त दुःखी हो गयी। तब महर्षिगण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओंके पास जाकर बोले

।। १२-१४ ।।

अग्निनाशात् क्रियाभ्रंशाद् भ्रान्ता लोकास्त्रयोऽनघाः ।

विदध्वमत्र यत् कार्यं न स्यात् कालात्ययो यथा ।। १५ ।।

‘पापरहित देवगण! अग्निके अदृश्य हो जानेसे अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओंकालोप हो गया है। इससे तीनों लोकोंके प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं; अतः इस विषयमेंजो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आपलोग करें। इसमें अधिक विलम्ब नहीं होनाचाहिये’ ।। १५ ।।

अथर्षयश्च देवाश्च ब्रह्माणमुपगम्य तु ।

अग्नेरावेदयञ्छापं क्रियासंहारमेव च ।। १६ ।।

तत्पश्चात् ऋषि और देवता ब्रह्माजीके पास गये और अग्निको जो शाप मिला था एवंअग्निने सम्पूर्ण क्रियाओंसे जो अपने-आपको समेटकर अदृश्य कर लिया था, वह सबसमाचार निवेदन करते हुए बोले- ।। १६ ।।

भृगुणा वै महाभाग शप्तोऽग्निः कारणान्तरे ।

कथं देवमुखो भूत्वा यज्ञभागाग्रभुक् तथा ।। १७ ।।

‘महाभाग! किसी कारणवश महर्षि भृगुने अग्निदेवको सर्वभक्षी होनेका शाप दे दियाहै, किंतु वे सम्पूर्ण देवताओंके मुख, यज्ञभागके अग्रभोक्ता तथा सम्पूर्ण लोकोंमें दी हुईआहुतियोंका उपभोग करनेवाले होकर भी सर्वभक्षी कैसे हो सकेंगे?’ ।। १७ ।।

हुतभुक् सर्वलोकेषु सर्वभक्षत्वमेष्यति ।

श्रुत्वा तु तद् वचस्तेषामग्निमाहूय विश्वकृत् ।। १८ ।।

उवाच वचनं श्लक्ष्णं भूताभावनमव्ययम् ।

लोकानामिह सर्वेषां त्वं कर्ता चान्त एव च ।। १९ ।।

त्वं धारयसि लोकांस्त्रीन् क्रियाणां च प्रवर्तकः ।

स तथा कुरु लोकेश नोच्छिद्येरन् यथा क्रियाः ।। २० ।।

कस्मादेवं विमूढस्त्वमीश्वरः सन् हुताशन ।

त्वं पवित्रं सदा लोके सर्वभूतगतिश्च ह ।। २१ ।।

देवताओं तथा ऋषियोंकी बात सुनकर विश्वविधाता ब्रह्माजीने प्राणियोंको उत्पन्नकरनेवाले अविनाशी अग्निको बुलाकर मधुर वाणीमें कहा-‘हुताशन! यहाँ समस्तलोकोंके स्रष्टा और संहारक तुम्हीं हो, तुम्हीं तीनों लोकोंको धारण करनेवाले हो, सम्पूर्णक्रियाओंके प्रवर्तक भी तुम्हीं हो। अतः लोकेश्वर! तुम ऐसा करो जिससे अग्निहोत्र आदिक्रियाओंका लोप न हो। तुम सबके स्वामी होकर भी इस प्रकार मूढ़ ( मोहग्रस्त) कैसे होगये? तुम संसारमें सदा पवित्र हो, समस्त प्राणियोंकी गति भी तुम्हीं हो ।। १८ २१ ।।

न त्वं सर्वशरीरेण सर्वभक्षत्वमेष्यसि ।

अपाने ह्यर्चिषो यास्ते सर्वं भक्ष्यन्ति ताः शिखिन् ।। २२ ।।

‘तुम सारे शरीरसे सर्वभक्षी नहीं होओगे। अग्निदेव! तुम्हारे अपानदेशमें जो ज्वालाएँहोंगी, वे ही सब कुछ भक्षण करेंगी ।। २२ ।।

क्रव्यादा च तनुर्या ते सा सर्वं भक्षयिष्यति ।

यथा सूर्यांशुभिः स्मृष्टं सर्वं शुचि विभाव्यते ।। २३ ।।

तथा त्वदर्चिर्निर्दग्धं सर्वं शुचि भविष्यति ।

त्वमग्ने परमं तेजः स्वप्रभावाद् विनिर्गतम् ।। २४ ।।

स्वतेजसैव तं शापं कुरु सत्यमृषेर्विभो ।

देवानां चात्मनो भागं गृहाण त्वं मुखे हुतम् ।। २५ ।।

‘इसके सिवा जो तुम्हारी क्रव्याद मूर्ति है (कच्चा मांस या मुर्दा जलानेवाली जोचिताकी आग है) वही सब कुछ भक्षण करेगी। जैसे सूर्यकी किरणोंसे स्पर्श होनेपर सबवस्तुएँ शुद्ध मानी जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारी ज्वालाओंसे दग्ध होनेपर सब कुछ शुद्ध होजायगा। अग्निदेव! तुम अपने प्रभावसे ही प्रकट हुए उत्कृष्ट तेज हो; अतः विभो! अपनेतेजसे ही महर्षिके उस शापको सत्य कर दिखाओ और अपने मुखमें आहुतिके रूपमें पड़ेहुए देवताओंके तथा अपने भागको भी ग्रहण करो’ ।। २३-२५ ।।

सौतिरुवाच

एवमस्त्विति तं वह्निः प्रत्युवाच पितामहम् ।

जगाम शासनं कर्तुं देवस्य परमेष्ठिनः ।। २६ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-यह सुनकर अग्निदेवने पितामह ब्रह्माजीसे कहा-‘एवमस्तु(ऐसा ही हो)।’ यों कहकर वे भगवान् ब्रह्माजीके आदेशका पालन करनेके लिये चलदिये ।। २६ ।।

देवर्षयश्च मुदितास्ततो जग्मुर्यथागतम् ।

ऋषयश्च यथापूर्वं क्रियाः सर्वाः प्रचक्रिरे । २७ ।।

इसके बाद देवर्षिंगण अत्यन्त प्रसन्न हो जैसे आये थे वैसे ही चले गये। फिर ऋषि-महर्षि भी अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण कर्मोंका पूर्ववत् पालन करने लगे ।। २७ ।।

दिवि देवा मुमुदिरे भूतसङ्घाश्च लौकिकाः ।

अग्निश्च परमां प्रीतिमवाप हतकल्मषः ।। २८ ।।

देवतालोग स्वर्गलोकमें आनन्दित हो गये और इस लोकके समस्त प्राणी भी बड़े प्रसन्नहुए। साथ ही शापजनित पाप कट जानेसे अग्निदेवको भी बड़ी प्रसन्नता हुई ।। २८ ।।

एवं स भगवाञ्छापं लेभेऽग्निर्भृगुतः पुरा ।

एवमेष पुरावृत्त इतिहासोऽग्निशापजः।

पुलोम्नश्च विनाशोऽयं च्यवनस्य च सम्भवः ।। २९ ।।

इस प्रकार पूर्वकालमें भगवान् अग्निदेवको महर्षि भृगुसे शाप प्राप्त हुआ था। यहीअग्निशापसम्बन्धी प्राचीन इतिहास है। पुलोमा राक्षसके विनाश और च्यवन मुनिकेजन्मका वृत्तान्त भी यही है ।। २९ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि अग्निशापमोचने सप्तमोऽध्यायः ॥७॥इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें अग्निशापमोचनसम्बन्धी सातवाँअध्याय पूरा हुआ॥ ७ ॥

अष्टमोऽध्यायः

प्रमद्वराका जन्म, रुरुके साथ उसका वाग्दान तथा

विवाहके पहले ही साँपके काटनेसे प्रमद्वराकी मृत्यु

सौतिरुवाच

स चापि च्यवनो ब्रह्मन् भार्गवोऽजनयत् सुतम् ।

सुकन्यायां महात्मानं प्रमतिं दीप्ततेजसम् ।। १ ।।

प्रमतिस्तु रुरुं नाम घृताच्यां समजीजनत् ।

रुरुः प्रमद्वरायां तु शुनकं समजीजनत् ।। २ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-ब्रह्मन्! भृगुपुत्र च्यवनने अपनी पत्नी सुकन्याके गर्भसे एकपुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम प्रमति था। महात्मा प्रमति बड़े तेजस्वी थे। फिर प्रमतिनेघृताची अप्सरासे रुरु नामक पुत्र उत्पन्न किया तथा रुरुके द्वारा प्रमद्वराके गर्भसे शुनककाजन्म हुआ ।। १-२ ।।

(शौनकस्तु महाभाग शुनकस्य सुतो भवान् ।)

शुनकस्तु महासत्त्वः सर्वभार्गवनन्दनः ।

जातस्तपसि तीव्रे च स्थितः स्थिरयशास्ततः ।। ३ ।।

महाभाग शौनकजी! आप शुनकके ही पुत्र होनेके कारण ‘शौनक’ कहलाते हैं। शुनकमहान् सत्त्वगुणसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण भृगुवंशका आनन्द बढ़ानेवाले थे वे जन्म लेते हीतीव्र तपस्यामें संलग्न हो गये। इससे उनका अविचल यश सब ओर फैल गया ।। ३ ।।

तस्य ब्रह्मन् रुरोः सर्वं चरितं भूरितेजसः।

विस्तरेण प्रवक्ष्यामि तच्छृणु त्वमशेषतः ।। ४ ।।

ब्रह्मन्! मैं महातेजस्वी रुरुके सम्पूर्ण चरित्रका विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा। वह सब-का-सब आप सुनिये ।। ४ ।।

ऋषिरासीन्महान् पूर्वं तपोविद्यासमन्वितः ।

स्थूलकेश इति ख्यातः सर्वभूतहिते रतः ।। ५ ।।

पूर्वकालमें स्थूलकेश नामसे विख्यात एक तप और विद्यासे सम्पन्न महर्षि थे; जोसमस्त प्राणियोंके हितमें लगे रहते थे ।। ५ ।।

एतस्मिन्नेव काले तु मेनकायां प्रजज्ञिवान् ।

गन्धर्वराजो विप्रर्षे विश्वावसुरिति स्मृतः ।। ६ ।।

विप्रर्षे! इन्हीं महर्षिके समयकी बात हैं-गन्धर्वराज विश्वावसुने मेनकाके गर्भसे एकसंतान उत्पन्न की ।। ६ ।।

अप्सरा मेनका तस्य तं गर्भं भृगुनन्दन ।

उत्ससर्ज यथाकालं स्थूलकेशाश्रमं प्रति ।। ७ ।।

भृगुनन्दन! मेनका अप्सराने गन्धर्वराजद्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भको समय पूराहोनेपर स्थूलकेश मुनिके आश्रमके निकट जन्म दिया ।। ७ ।।

उत्सृज्य चैव तं गर्भ नद्यास्तीरे जगाम सा ।

अप्सरा मेनका ब्रह्मन् निर्दया निरपत्रपा ।। ८।।

ब्रह्मन्! निर्दय और निर्लज्ज मेनका अप्सरा उस नवजात गर्भको वहीं नदीके तटपरछोड़कर चली गयी ।। ८ ।।

कन्याममरगर्भाभां ज्वलन्तीमिव च श्रिया।

तां ददर्श समुत्सृष्टां नदीतीरे महानृषिः ।। ९ ।।

स्थूलकेशः स तेजस्वी विजने बन्धुरवर्जिताम् ।

स तां दृष्ट्वा तदा कन्यां स्थूलकेशो महाद्विजः ।। १० ।।

जग्राह च मुनिश्रेष्ठः कृपाविष्टः पुपोष च ।

ववृधे सा वरारोहा तस्याश्रमपदे शुभे ।। ११ ।।

तदनन्तर तेजस्वी महर्षि स्थूलकेशने एकान्त स्थानमें त्यागी हुई उस बन्धुहीन कन्याकोदेखा, जो देवताओंकी बालिकाके समान दिव्य शोभासे प्रकाशित हो रही थी। उस समयउस कन्याको वैसी दशामें देखकर द्विजश्रेष्ठ मुनिवर स्थूलकेशके मनमें बड़ी दया आयी;अत: वे उसे उठा लाये और उसका पालन-पोषण करने लगे। वह सुन्दरी कन्या उनके शुभआश्रमपर दिनोदिन बढ़ने लगी ।। ९-११ |।

जातकाद्याः क्रियाश्चास्या विधिपूर्व यथाक्रमम् ।

स्थूलकेशो महाभागश्चकार सुमहानृषिः ।। १२ ।।

महाभाग महर्षि स्थूलकेशने क्रमश: उस बालिकाके जात -कर्मादि सब संस्कारविधिपूर्वक सम्पन्न किये ।। १२ ।।

प्रमदाभ्यो वरा सा तु सत्त्वरूपगुणान्विता।

ततः प्रमद्वरेत्यस्या नाम चक्रे महानृषिः ।। १३ ।।

वह बुद्धि, रूप और सब उत्तम गुणोंसे सुशोभित हो संसारकी समस्त प्रमदाओं (सुन्दरीस्त्रियों)-से श्रेष्ठ जान पड़ती थी; इसलिये महर्षिेने उसका नाम ‘प्रमद्वरा ‘ रख दिया ।। १३ ।।

तामाश्रमपदे तस्य रुरुर्दृष्ट्वा प्रमद्वराम् ।

बभूव किल धर्मात्मा मदनोपहतस्तदा ।। १४ ।।

एक दिन धर्मात्मा रुरुने महर्षिके आश्रममें उस प्रमद्वराको देखा। उसे देखते ही उनकाहृदय तत्काल कामदेवके वशीभूत हो गया ।। १४ ।।

पितरं सखिभिः सोऽथ श्रावयामास भार्गवम् ।

प्रमतिश्चाभ्ययाचत् तां स्थूलकेशं यशस्विनम् ।। १५ ।।

तब उन्होंने मित्रोंद्वारा अपने पिता भृगुवंशी प्रमतिको अपनी अवस्था कहलायी ।तदनन्तर प्रमतिने यशस्वी स्थूलकेश मुनिसे ( अपने पुत्रके लिये) उनकी वह कन्यामाँगी ।। १५ ।।

ततः प्रादात् पिता कन्यां रुरवे तां प्रमद्वराम् ।

विवाहं स्थापयित्वाग्रे नक्षत्रे भगदैवते ।। १६ ।।

तब पिताने अपनी कन्या प्रमद्वराका रुरुके लिये वाग्दान कर दिया और आगामीउत्तरफाल्गुनी नक्षत्रमें विवाहका मुहूर्त निश्चित किया।। १६ ।।

ततः कतिपयाहस्य विवाहे समुपस्थिते ।

सखीभिः क्रीडती सार्धं सा कन्या वरवर्णिनी ।। १७ ।।

तदनन्तर जब विवाहका मुहूर्त निकट आ गया, उसी समय वह सुन्दरी कन्या सखियोंकेसाथ क्रीड़ा करती हुई वनमें घूमने लगी ।। १७ ।।

नापश्यत् सम्प्रसुप्तं वै भुजङ्गं तिर्यगायतम् ।

पदा चैनं समाक्रामन्मुमूर्षुः कालचोदिता ।। १८ ।।

मार्गमें एक साँप चौड़ी जगह घेरकर तिरछा सो रहा था। प्रमद्वराने उसे नहीं देखा। वहकालसे प्रेरित होकर मरना चाहती थी, इसलिये सर्पको पैरसे कुचलती हुई आगे निकलगयी ।। १८ ।।

स तस्याः सम्प्रमत्तायाश्चोदितः कालधर्मणा ।

विषोपलिप्तान् दशनान् भृशमङ्गे न्यपातयत् ।। १९ ।।

उस समय कालधर्मसे प्रेरित हुए उस सर्पने उस असावधान कन्याके अंगमें बड़े जोरसेअपने विषभरे दाँत गड़ा दिये ।। १९ ।।

सा दष्टा तेन सर्पेण पपात सहसा भुवि ।

विवर्णा विगतश्रीका भ्रष्टाभरणचेतना । २० ।।

निरानन्दकरी तेषां बन्धूनां मुक्तमूर्धजा ।

व्यसुरप्रेक्षणीया सा प्रेक्षणीयतमाभवत् ।। २१ ।।

उस सर्पके डँस लेनेपर वह सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी। उसके शरीरका रंग उड़ गया ,शोभा नष्ट हो गयी, आभूषण इधर-उधर बिखर गये और चेतना लुप्त हो गयी | उसके बालखुले हुए थे। अब वह अपने उन बन्धुजनोंके हृदयमें विषाद उत्पन्न कर रही थी। जो कुछ हीक्षण पहले अत्यन्त सुन्दरी एवं दर्शनीय थी, वही प्राणशून्य होनेके कारण अब देखनेयोग्यनहीं रह गयी ।। २०-२१ ।।

प्रसुप्ते वाभवच्चापि भुवि सर्पविषार्दिता ।

भूयो मनोहरतरा बभूव तनुमध्यमा ।। २२ ।।

वह सर्पके विषसे पीड़ित होकर गाढ़ निद्रामें सोयी हुईकी भाँति भूमिपर पड़ी थी।उसके शरीरका मध्यभाग अत्यन्त कृश था। वह उस अचेतनावस्थामें भी अत्यन्त 1.मनोहारिणी जान पड़ती थी ।। २२ ।।

ददर्श तां पिता चैव ये चैवान्ये तपस्विनः ।

विचेष्टमानां पतितां भूतले पद्मवर्चसम् ।। २३ ।।

उसके पिता स्थूलकेशने तथा अन्य तपस्वी महात्माओंने भी आकर उसे देखा। वह कमलकी-सी कान्तिवाली किशोरी धरतीपर चेष्टारहित पड़ी थी ।। २३ ।।

ततः सर्वे द्विजवराः समाजग्मुः कृपान्विताः ।

स्वस्त्यात्रेयो महाजानुः कुशिकः शङ्खमेखलः ।। २४ ।।

उद्दालकः कठश्चैव श्वेतश्चैव महायशाः ।

भरद्वाजः कौणकुत्स्य आर्ष्टिषेणोऽथ गौतमः ।। २५ ।।

तदनन्तर स्वस्त्यात्रेय, महाजानु, कुशिक, शंखमेखल, उद्दालक, कठ, महायशस्वी श्वेत,भरद्वाज, कौणकुत्स्य, आर्ट्षिषेण, गौतम, अपने पुत्र रुरुसहित प्रमति तथा अन्य सभीवनवासी श्रेष्ठ द्विज दयासे द्रवित होकर वहाँ आये ।। २४-२५ ।।

प्रमतिः सह पुत्रेण तथान्ये वनवासिनः ।

तां ते कन्यां व्यसुं दृष्ट्वा भुजङ्गस्य विषारदिदिताम् ।। २६ ।।

रुरुदुः कृपयाविष्टा रुरुस्त्वातों बहिर्ययौ।

ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठास्तत्रैवोपाविशंस्तदा ।। २७ ।।

वे सब लोग उस कन्याको सर्पके विषसे पीड़ित हो प्राणशून्य हुई देख करुणावश रोनेलगे। रुरु तो अत्यन्त आर्त होकर वहाॉँसे बाहर चला गया और शेष सभी द्विज उस समय वहीं बैठे रहे ।। २६-२७ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वरासर्पदंशेऽष्टमोऽध्यायः ।। ८ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें प्रमद्वराके सर्पदंशनसे सम्बन्ध रखनेवाला आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ८ ।।

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल २७ श्लोक हैं)

नवमोऽध्यायः

रुरुकी आधी आयुसे प्रमद्धराका जीवित होना, रुरुके साथउसका विवाह, रुरुका सर्पोको मारनेका निश्चय तथा रुरु-

डुण्डुभ-संवाद

सौतिरुवाच

तेषु तत्रोपविष्टेषु ब्राह्मणेषु महात्मसु ।

रुरुश्षुक्रोश गहनं वनं गत्वातिदुःखितः ।। १ ।।

शोकेनाभिहतः सोऽथ विलपन् करुणं बहु ।

अब्रवीद् वचनं शोचन् प्रियां स्मृत्वा प्रमद्वराम् ।। २ ।।

शेते सा भुवि तन्वङ्गी मम शोकविवर्धिनी ।

बान्धवानां च सर्वेषां किं नु दुःखमतः परम् ।। ३ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकजी! वे ब्राह्मण प्रमद्वराके चारों ओर वहाँ बैठे थे, उसीसमय रुरु अत्यन्त दुःखित हो गहन वनमें जाकर जोर-जोरसे रुदन करने लगा। शोकसेपीड़ित होकर उसने बहुत करुणाजनक विलाप किया और अपनी प्रियतमा प्रमद्वराकास्मरण करके शोकमग्न हो इस प्रकार बोला-‘हाय! वह कृशांगी बाला मेरा तथा समस्तबान्धवोंका शोक बढ़ाती हुई भूमिपर सो रही है; इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकताहै? ।। १-३ ।।

यदि दत्तं तपस्तप्तं गुरवो वा मया यदि ।

सम्यगाराधितास्तेन संजीवतु मम प्रिया ।। ४ ।।

‘यदि मैंने दान दिया हो, तपस्या की हो अथवा गुरुजनोंकी भलीभाँति आराधना की होतो उसके पुण्यसे मेरी प्रिया जीवित हो जाय ।। ४ ।।

यथा च जन्मप्रभृति यतात्माहं धृतव्रतः ।

प्रमद्वरा तथा ह्येषा समुक्तिष्ठतु भामिनी । ५।।

‘यदि मैंने जन्मसे लेकर अबतक मन और इन्द्रियोंपर संयम रखा हो और ब्रह्मचर्यआदि व्रतोंका दृढ़तापूर्वक पालन किया हो तो यह मेरी प्रिया प्रमद्वरा अभी जी उठे’ ।। ५ ।।

(कृष्णे विष्णौ हृषीकेशे लोकेशेऽसुरविद्विषि ।यदि मे निश्चला भक्तिर्मम जीवतु सा प्रिया ।।)’यदि पापी असुरोंका नाश करनेवाले, इन्द्रियोंके स्वामी जगदीश्वर एवं सर्वव्यापीभगवान् श्रीकृष्णमें मेरी अविचल भक्ति हो तो यह कल्याणी प्रमद्वरा जी उठे’ ।एवं लालप्यतस्तस्य भार्यार्थे दुःखितस्य च ।देवदूतस्तदाभ्येत्य वाक्यमाह रुरुं वने ।। ६ ।।

इस प्रकार जब रुरु पत्नीके लिये दुःखित हो अत्यन्त विलाप कर रहा था, उस समयएक देवदूत उसके पास आया और वनमें रुरुसे बोला ।। ६ ।।

देवदूत उवाच

अभिधत्से ह यद् वाचा रुरो दुःखेन तन्मृषा ।

यतो मत्त्यस्य धर्मात्मन् नायुरस्ति गतायुषः ।। ७ ।।

गतायुरेषा कृपणा गन्धर्वाप्सरसोः सुता ।

तस्माच्छोके मनस्तात मा कृथास्त्वं कथंचन ।। ८ ।।

देवदूतने कहा-धर्मात्मा रुरु! तुम दुःखसे व्याकुल हो अपनी वाणीद्वारा जो कुछकहते हो, वह सब व्यर्थ है; क्योंकि जिस मनुष्यकी आयु समाप्त हो गयी है, उसे फिर आयुनहीं मिल सकती। यह बेचारी प्रमद्वरा गन्धर्व और अप्सराकी पुत्री थी। इसे जितनी आयुमिली थी, वह पूरी हो चुकी है। अतः तात! तुम किसी तरह भी मनको शोकमें नडालो ।। ७-८ ।।

उपायश्चात्र विहितः पूर्वं देवैर्महात्मभिः ।

तं यदीच्छसि कर्तुं त्वं प्राप्स्यसीह प्रमद्वराम् ।। ९ ।।

इस विषयमें महात्मा देवताओंने एक उपाय निश्चित किया है । यदिचाहो तो इस लोकमें प्रमद्वराको पा सकोगे ।। ९ ।।

रुरुरुवाच

तुम उसे करना उपायः कृतो देवै्ूहि तत्त्वेन खेचर ।

करिष्येऽहं तथा श्रुत्वा त्रातुमर्हति मां भवान् ।। १० ।।

रुरु बोला-आकाशचारी देवदूत! देवताओंने कौन-सा उपाय निश्चित किया है,ठीक-ठीक बताओ? उसे सुनकर मैं अवश्य वैसा ही करूंगा। तुम मुझे इस दुःखसेबचाओ ।। १० ।। उसे

देवदूत उवाच

आयुषोउर्धं प्रयच्छ त्वं कन्यायै भृगुनन्दन ।

एवमुत्थास्यति रुरो तव भार्या प्रमद्वरा ।। ११ ।।

देवदूतने कहा-भृगुनन्दन रुरु! तुम उस कन्याके लिये अपनी आधी आयु दे दो। ऐसाकरनेसे तुम्हारी भार्या प्रमद्वरा जी उठेगी ।। ११ ।।

रुरुरुवाच

आयुषोऽर्धं प्रयच्छामि कन्यायै खेचरोत्तम ।

शृङ्गाररूपाभरणा समुत्तिष्ठतु मे प्रिया ॥ १२ ।।

रुरु बोला-देवश्रेष्ठ! मैं उस कन्याको अपनी आधी आयु देता हूँ। मेरी प्रिया अपनेशृंगार, सुन्दर रूप और आभूषणोंके साथ जीवित हो उठे ।। १२ ।।

सौतिरुवाच

ततो गन्धर्वराजश्च देवदूतश्च सत्तमौ ।

धर्मराजमुपेत्येदं वचनं प्रत्यभाषताम् ।। १३ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-तब गन्धर्वराज विश्वावसु और देवदूत दोनों सत्पुरुषोंनेधर्मराजके पास जाकर कहा-।। १३ ।।

धर्मराजायुषोऽर्धेन रुरोर्भार्या प्रमद्वरा ।

समुक्तिष्ठतु कल्याणी मृतैवं यदि मन्यसे ।। १४ ।।

‘धर्मराज! रुरुकी भार्या कल्याणी प्रमद्धरा मर चुकी है। यदि आप मान लें तो वहरुरुकी आधी आयुसे जीवित हो जाय’ ।। १४ ।।

धर्मराज उवाच

प्रमद्वरां रुरोर्भार्या देवदूत यदीच्छसि ।

उत्तिष्ठत्वायुषोऽर्धेन रुरोरेव समन्विता ।। १५ ।।

धर्मराज बोले-देवदूत! यदि तुम रुरुकी भाय्या प्रमद्वराको जिलाना चाहते हो तो वहरुरुकी ही आधी आयुसे संयुक्त होकर जीवित हो उठे ।। १५ ।।

सौतिरुवाच

एवमुक्ते ततः कन्या सोदतिष्ठत् प्रमद्वरा।

रुरोस्तस्यायुषोऽर्धेन सुप्तेव वरवर्णिनी ।। १६ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-धर्मराजके ऐसा कहते ही वह सुन्दरी मुनिकन्या प्रमद्वरा रुरुकीआधी आयुसे संयुक्त हो सोयी हुईकी भाँति जाग उठी ।। १६ ।।

एतद् दृष्टं भविष्ये हि रुरोरुत्तमतेजसः ।

आयुषोऽतिप्रवृद्धस्य भार्यार्थेऽर्धमलुप्यत ।। १७ ।।

तत इष्टेऽहनि तयोः पितरौ चक्रतुर्मुदा ।

विवाहं तौ च रेमाते परस्परहितैषिणौ ।। १८ ।।

उत्तम तेजस्वी रुरुके भाग्यमें ऐसी बात देखी गयी थी| उनकी आयु बहुत बढ़ी-चढ़ीथी। जब उन्होंने भार्याके लिये अपनी आधी आयु दे दी, तब दोनोंके पिताओंने निश्चितदिनमें प्रसन्नतापूर्वक उनका विवाह कर दिया। वे दोनों दम्पति एक-दूसरेके हितैषी होकरआनन्दपूर्वक रहने लगे ।। १७-१८ ।।

स लब्ध्वा दुर्लभां भार्यां पद्मकिञ्जल्कसुप्रभाम् ।

व्रतं चक्रे विनाशाय जिह्मगानां धृतव्रतः ।। १९ ।।

कमलके केसरकी-सी कान्तिवाली उस दुर्लभ भार्याको पाकर व्रतधारी रुरुने सर्पोकेविनाशका निश्चय कर लिया ।। १९ ।।

स दृष्ट्वा जिह्मगान् सर्वास्तीव्रकोपसमन्वितः ।

अभिहन्ति यथासत्त्वं गृह्य प्रहरणं सदा ।। २० ।।

वह सर्पोको देखते ही अत्यन्त क्रोधमें भर जाता और हाथमें डंडा ले उनपर यथाशक्तिप्रहार करता था ।। २० ।।

स कदाचिद् वनं विप्रो रुरुरभ्यागमन्महत् ।

शयानं तत्र चापश्यद् डुण्डुभं वयसान्वितम् ।। २१ ।।

एक दिनकी बात है, ब्राह्मण रुरु किसी विशाल वनमें गया, वहाँ उसने डुण्डुभ जातिकेएक बूढ़े साँपको सोते देखा ।। २१ ।।

तत उद्यम्य दण्डं स कालदण्डोपमं तदा।

जिघांसुः कुपितो विप्रस्तमुवाचाथ डुण्डुभः ।। २२ ।।

उसे देखते ही उसके क्रोधका पारा चढ़ गया और उस ब्राह्मणने उस समय सर्पको मारडालनेकी इच्छासे कालदण्डके समान भयंकर डंडा उठाया। तब उस डुण्डुभने मनुष्यकीबोलीमें कहा-I। २२ ।।

नापराध्यामि ते किञ्चिदहमद्य तपोधन।

संरम्भाच्च किमर्थं मामभिहंसि रुषान्वितः ।। २३ ।।

‘तपोधन! आज मैंने तुम्हारा कोई अपराध तो नहीं किया है ? फिर किसलिये क्रोधकेआवेशमें आकर तुम मुझे मार रहे हो’ ।। २३ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्धराजीवने नवमोऽध्यायः ।। ९ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें प्रमद्वराके जीवित होनेसे सम्बन्ध रखनेवाला नवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ९ ।।

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं)

दशमोऽध्यायः

रुरु मुनि और डुण्डुभका संवाद

रुरुरुवाच

मम प्राणसमा भार्या दष्टासीद् भुजगेन ह ।

तत्र मे समयो घोर आत्मनोरग वै कृतः ।। १ ।।

भुजङ्गं वै सदा हन्यां यं यं पश्येयमित्युत ।

ततोऽहं त्वां जिघांसामि जीवितेनाद्य मोक्ष्यसे ।। २ ।।

रुरु बोला-सर्प! मेरी प्राणोंके समान प्यारी पत्नीको एक साँपने डँस लिया था । उसीसमय मैंने यह घोर प्रतिज्ञा कर ली कि जिस-जिस सर्पको देख लँगा, उसे-उसे अवश्य मारडालूँगा। उसी प्रतिज्ञाके अनुसार मैं तुम्हें मार डालना चाहता हूँ। अतः आज तुम्हें अपनेप्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा ।। १-२ ।।

डुण्डुभ उवाच

अन्ये ते भुजगा ब्रह्मन् ये दशन्तीह मानवान् ।

डुण्डुभानहिगन्धेन न त्वं हिंसितुमर्हसि ।। ३ ।।

डुण्डुभने कहा-ब्रह्मन्! वे दूसरे ही साँप हैं जो इस लोकमें मनुष्योंको डँसते हैं।साँपोंकी आकृति-मात्रसे ही तुम्हें डुण्डुभोंको नहीं मारना चाहिये ।। ३ ।।

रुरुके दर्शनसे सहस्रपाद ऋषिकी सर्पयोनिसे मुक्तिएकानर्थान् पृथगर्थानेकदुःखान् पृथक्सुखान् ।

डुण्डुभान् धर्मविद् भूत्वा न त्वं हिंसितुमर्हसि ।। ४ ।।

अहो! आश्चर्य है, बेचारे डुण्डुभ अनर्थ भोगनेमें सब सर्पोंके साथ एक हैं; परंतु उनकास्वभाव दूसरे सर्पोंसे भिन्न है तथा दुःख भोगनेमें तो वे सब सर्पोंके साथ एक हैं; किंतु सुखसबका अलग-अलग है। तुम धर्मज्ञ हो, अतः तुम्हें डुण्डुभोंकी हिंसा नहीं करनीचाहिये ।। ४ ।।

सौतिरुवाच

इति श्रुत्वा वचस्तस्य भुजगस्य रुरुस्तदा ।

नावधीद् भयसंविग्नमृषिं मत्वाथ डुण्डुभम् ।। ५ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-डुण्डुभ सर्पका यह वचन सुनकर रुरुने उसे कोई भयभीतऋषि समझा, अत: उसका वध नहीं किया ।। ५ ।।

उवाच चैनं भगवान् रुरुः संशमरयन्निव ।

कामं मां भुजग ब्रूहि कोऽसीमां विक्रियां गतः ।। ६ ।।

इसके सिवा, बड़भागी रुरुने उसे शान्ति प्रदान करते हुए – से कहा -‘भुजंगम! बताओ,इस विकृत (सर्प)-योनिमें पड़े हुए तुम कौन हो?’ ।। ६ ।।

डुण्डुभ उवाच

अहं पुरा रुरो नाम्ना ऋषिरासं सहस्रपात् ।

सोऽहं शापेन विप्रस्य भुजगत्वमुपागतः ।| ७ ।।

डुण्डुभने कहा-रुरो! मैं पूर्वजन्ममें सहस्रपाद नामक ऋषि था; किंतु एक ब्राह्मणकेशापसे मुझे सर्पयोनिमें आना पड़ा है ।। ७ ।।

रुरुरुवाच

किमर्थं शप्तवान् क्रुद्धो द्विजस्त्वां भुजगोत्तम ।

कियन्तं चैव कालं ते वपुरेतद् भविष्यति ।। ८।।

रुरुने पूछा-भुजगोत्तम! उस ब्राह्मणने किसलिये कुपित होकर तुम्हें शाप दिया?तुम्हारा यह शरीर अभी कितने समयतक रहेगा? ।। ८ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि रुरुडुण्डुभसंवादे दशमोऽध्यायः ।। १०इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें रुरु-डुण्डुभसंवादविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १० ।।

एकादशोऽध्यायः

डुण्डुभकी आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुरुको अहिंसाका उपदेश

डुण्डुभ उवाच

सखा बभूव मे पूर्व खगमो नाम वै द्विजः ।

भृशं संशितवाक् तात तपोबलसमन्वितः ।। १ ।।

स मया क्रीडता बाल्ये कृत्वा तार्णं भुजङ्गमम् ।

अग्निहोत्रे प्रसक्तस्तु भीषितः प्रमुमोह वै ।। २ ॥

डुण्डुभने कहा-तात! पूर्वकालमें खगम नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्हण मेरा मित्र था ।वह महान् तपोबलसे सम्पन्न होकर भी बहुत कठोर वचन बोला करता था। एक दिन वहअग्निहोत्रमें लगा था। मैंने खिलवाड़में तिनकोंका एक सर्प बनाकर उसे डरा दिया। वहभयके मारे मूच्च्छित हो गया ।। १-२ ।।

लब्ध्वा स च पुनः संज्ञां मामुवाच तपोधनः ।

निर्दहन्निव कोपेन सत्यवाक् संशितव्रतः ।॥ ३ ।।

फिर होशमें आनेपर वह सत्यवादी एवं कठोरव्रती तपस्वी मुझे क्रोधसे दग्ध-सा करताहुआ बोला- ।। ३ ।।

यथावीर्यस्त्वया सर्पः कृतोऽयं मद्बिभीषया ।

तथावीर्यों भुजङ्गस्त्वं मम शापाद् भविष्यसि ।। ४ ।।

‘अरे! तूने मुझे डरानेके लिये जैसा अल्प शक्तिवाला सर्प बनाया था, मेरे शापवश ऐसाही अल्पशक्तिसम्पन्न सर्प तुझे भी होना पड़ेगा’ ।। ४ ।।

तस्याहं तपसो वीर्यं जानन्नासं तपोधन ।

भृशमुद्विग्नहृदयस्तमवोचमहं तदा ।। ५ ।।

प्रणतः सम्भ्रमाच्चैव प्राञ्जलिः पुरतः स्थितः ।

सखेति सहसेदं ते नर्मार्थं वै कृतं मया ।। ६ ।।

क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मन् शापोऽयं विनिवर्त्यताम् ।

सोऽथ मामब्रवीद् दृष्ट्वा भृशमुद्धिग्नचेतसम् ।। ७ ।।

मुहुरुष्णं विनिःश्वस्य सुसम्भ्रान्तस्तपोधनः ।

नानृतं वै मया प्रोक्तं भवितेदं कथंचन ।। ८।॥

तपोधन! मैं उसकी तपस्याका बल जानता था, अतः मेरा हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठाऔर बड़े वेगसे उसके चरणोंमें प्रणाम करके, हाथ जोड़, सामने खड़ा हो, उस तपोधनसेबोला-सखे! मैंने परिहासके लिये सहसा यह कार्य कर डाला है। ब्रह्मन्! इसके लिये क्षमा करो और अपना यह शाप लौटा लो। मुझे अत्यन्त घबराया हुआ देखकर सम्भ्रममें पड़े हुए उस तपस्वीने बार-बार गरम साँस खींचते हुए कहा-‘मेरी कही हुई यह बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती’ ।। ५-८।।

यत्तु वक्ष्यामि ते वाक्यं शृणु तन्मे तपोधन ।

श्रुत्वा च हदि ते वाक्यमिदमस्तु सदानघ ।। ९ ।।

‘निष्पाप तपोधन! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो और सुनकर अपने हृदयमें सदा धारण करो ।। ९ ।।

उत्पत्स्यति रुरुन्नाम प्रमतेरात्मजः शुचिः।

तं दृष्ट्वा शापमोक्षस्ते भविता नचिरादिव ।। १० ।।

‘भविष्यमें महर्षि प्रमतिके पवित्र पुत्र रुरु उत्पन्न होंगे, उनका दर्शन करके तुम्हें शीघ्र ही इस शापसे छुटकारा मिल जायगा’ ।। १० ।।

स त्वं रुरुरिति ख्यातः प्रमतेरात्मजोऽपि च ।

स्वरूपं प्रतिपद्याहमद्य वक्ष्यामि ते हितम् ।। ११ ।।

जान पड़ता है तुम वही रुरु नामसे विख्यात महर्षि प्रमतिके पुत्र हो। अब मैं अपना स्वरूप धारण करके तुम्हारे हितकी बात बताऊँगा ।। ११ ।।

स डौण्डुभं परित्यज्य रूपं विप्रर्षभस्तदा।

स्वरूपं भास्वरं भूयः प्रतिपेदे महायशाः ।। १२ ।।

इदं चोवाच वचनं रुरुमप्रतिमौजसम् ।

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वर ।। १३ ।।

इतना कहकर महायशस्वी विप्रवर सहस्रपादने डुण्डुभका रूप त्यागकर पुनः अपने प्रकाशमान स्वरूपको प्राप्त कर लिया । फिर अनुपम ओजवाले रुरुसे यह बात कही -‘समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है ।। १२ – १३ ।।

तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् न हिंस्याद् ब्राह्मणः क्वचित् ।

ब्राह्मणः सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुतिः ।। १४ ।।

‘अतः ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंमेंसे किसीकी कभी और कहीं भी हिंसा नहीं करनी चाहिये। ब्राह्मण इस लोकमें सदा सौम्य स्वभावका ही होता है, ऐसा श्रुतिका उत्तम वचन है ।। १४ ।।

वेदवेदाङ्गविन्नाम सर्वभूताभयप्रदः ।

अहिंसा सत्यवचनं क्षमा चेति विनिश्चितम् ।। १५ ।।

ब्राह्मणस्य परो धर्मों वेदानां धारणापि च ।

क्षत्रियस्य हि यो धर्मः स हि नेष्येत वै तव ।। १६ ।।

‘वह वेद-वेदांगोंका विद्वान् और समस्त प्राणियोंको अभय देनेवाला होता है। अहिंसा,सत्यभाषण, क्षमा और वेदोंका स्वाध्याय निश्चय ही ये ब्राह्मणके उत्तम धर्म हैं। क्षत्रियका जोधर्म है वह तुम्हारे लिये अभीष्ट नहीं है ।। १५-१६ ।।

दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम् ।

तदिदं क्षत्रियस्यासीत् कर्म वै शृणु मे रुरो ।। १७ ।।

जनमेजयस्य यज्ञेऽस्मिन् सर्पाणां हिंसनं पुरा।

परित्राणं च भीतानां सर्पाणां ब्राह्मणादपि ।। १८ ।।

तपोवीर्यबलोपेताद् वेदवेदाङ्गपारगात् ।

आस्तीकाद् द्विजमुख्याद् वै सर्पसत्रे द्विजोत्तम् ।। १९ ।।

‘रुरो! दण्डधारण, उग्रता और प्रजापालन-ये सब क्षत्रियोंके कर्म रहे हैं। मेरी बातसुनो, पहले राजा जनमेजयके यज्ञमें सर्पोंकी बड़ी भारी हिंसा हुई। द्विजश्रेष्ठ! फिर उसीसर्पसत्रमें तपस्याके बल-वीर्यसे सम्पन्न, वेद वेदांगोंके पारंगत विद्वान् विप्रवर आस्तीकनामक ब्राह्मणके द्वारा भयभीत सर्पोंकी प्राणरक्षा हुई’ ।। १७- १९ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि डुण्डुभशापमोक्षे एकादशोऽध्यायः ।।११ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें डुण्डुभशापमोक्षविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ११ ।।

द्वादशोऽध्यायः

जनमेजयके सर्पसत्रके विषयमें रुरुकी जिज्ञासा और

पिताद्वारा उसकी पूर्ति

रुरुरुवाच

कथं हिंसितवान् सर्पान् स राजा जनमेजयः ।

सर्पा वा हिंसितास्तत्र किमर्थं द्विजसत्तम ।। १ ।।

रुरुने पूछा-द्विजश्रेष्ठ! राजा जनमेजयने सर्पोकी हिंसा कैसे की? अथवा उन्होंनेकिसलिये यज्ञमें स्पोंकी हिंसा करवायी? ।। १ ।।

किमर्थं मोक्षिताश्चैव पन्नगास्तेन धीमता ।

आस्तीकेन द्विजश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः ।। २ ।।

विप्रवर! परम बुद्धिमान् महात्मा आस्तीकने किसलिये सर्पोको उस यज्ञसे बचाया था?यह सब मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। २ ।।

ऋषिरुवाच

श्रोष्यसि त्वं रुरो सर्वमास्तीकचरितं महत् ।

ब्राह्मणानां कथयतामित्युक्त्वान्तरधीयत ।। ३ ।।

ऋषिने कहा-‘रुरो! तुम कथावाचक ब्राह्मणोंके मुखसे आस्तीकका महान् चरित्रसुनोगे।’ ऐसा कहकर सहस्रपाद मुनि अन्तर्धान हो गये।। ३ ।।

सौतिरुवाच

रुरुश्चापि वनं सर्वं पर्यधावत् समन्ततः ।

तमृषिं नष्टमन्विच्छन् संश्रान्तो न्यपतद् भुवि ।। ४ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-तदनन्तर रुरु वहाँ अदृश्य हुए मुनिकी खोजमें उस वनकेभीतर सब ओर दौड़ता रहा और अन्तमें थककर पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। ४ ।।

स मोहं परमं गत्वा नष्टसंज्ञ इवाभवत् ।

तदृषेर्वचनं तथ्यं चिन्तयानः पुनः पुनः ।। ५ ।।

लब्धसंज्ञो रुरुश्चायात् तदाचख्यौ पितुस्तदा ।

पिता चास्य तदाख्यानं पृष्टः सर्वं न्यवेदयत् ।। ६ ।।

गिरनेपर उसे बड़ी भारी मूच्छ्छाने दबा लिया। उसकी चेतना नष्ट-सी हो गयी। महर्षिकेयथार्थ वचनका बार-बार चिन्तन करते हुए होशमें आनेपर रुरु घर लौट आया। उस समयउसने पितासे वे सब बातें कह सुनायीं और पितासे भी आस्तीकका उपाख्यान पूछा। रुरुकेपूछनेपर पिताने सब कुछ बता दिया ।। ५-६ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि सर्पसत्रप्रस्तावनायां द्वादशोऽध्यायः ।।१२ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें सर्पसत्रप्रस्तावनाविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १२ ।।(आस्तीकपर्व)

त्रयोदशोऽध्यायः

जरत्कारुका अपने पितरोंके अनुरोधसे विवाहके

लिये उद्यत होना

शौनक उवाच

किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः ।

सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद् वदस्व मे ।। १ ।।

निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः ।

आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः ।। २ ।।

मोक्षयामास भुजगान् प्रदीप्ताद् वसुरेतसः ।

कस्य पुत्रः स राजासीत् सर्पसत्रं य आहरत् ।। ३ ।।

स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे।शौनकजीने पूछा-सूतजी! राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयने किसलियेसर्पसत्रद्वारा सर्पोका अन्त किया ? यह प्रसंग मुझसे कहिये। सूतनन्दन! इसविषयकी सब बातोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये। जप-यज्ञ करनेवाले पुरुषोंमेंश्रेष्ठ विप्रवर आस्तीकने किसलिये सर्पोंको प्रज्वलित अग्निरमें जलनेसे बचायाऔर वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्रका आयोजन किया था, किसके पुत्रथे? तथा द्विजवंशशिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? यह मुझे बताइये ।। १-३॥

ह है- सौतिरुवाचमहदाख्यानमास्तीकं यथैतत् प्रोच्यते द्विज ।। ४ ।।

सर्वमेतदशेषेणउग्रश्रवाजीने कहा-ब्रह्मन्! आस्तीकका उपाख्यान बहुत बड़ा है।वक्ताओंमें श्रेष्ठ! यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो ।। ४ ।।

शौनक उवाच

शृणु में वदतां वर ।

श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् ।। ५ ।।

आस्तीकस्य पुराणर्षेब्र्राह्मणस्य यशस्विनः ।शौनकजीने कहा-सूतनन्दन! पुरातन ॠषि एवं यशस्वी ब्राह्मणआस्तीककी इस मनोरम कथाको मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। ५ ।।

सौतिरुवाच

इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते ।। ६ ।।

कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु ।

पूर्वं प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः ।। ७ ।।

शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान् ।

तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम् ।। ८ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-शौनकजी! ब्राह्मणलोग इस इतिहासको बहुत पुरानाबताते हैं। पहले मेरे पिता लोमहर्षणजीने, जो व्यासजीके मेधावी शिष्य थे,ऋषियोंके पूछनेपर साक्षात् श्रीकृष्णद्वैपायन (व्यास)- के कहे हुए इसइतिहासका नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणोंके समुदायमें वर्णन किया था । उन्हींकेमुखसे सुनकर मैं भी इसका यथावत् वर्णन करता हूँ ।। ६-८।।

इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पूच्छते ।

कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम् ।। ९ ।।

शौनकजी! यह आस्तीक मुनिका उपाख्यान सब पापोंका नाश करनेवालाहै। आपके पूछनेपर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ ।। ९ ।।

आस्तीकस्य पिता ह्यासीत् प्रजापतिसमः प्रभुः ।

ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा ।। १० ।।

आस्तीकके पिता प्रजापतिके समान प्रभावशाली थे। ब्रह्मचारी होनेके साथही उन्होंने आहारपर भी संयम कर लिया था। वे सदा उग्र तपस्यामें संलग्न रहतेथे ।। १० ।।

जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरेता महातपाः ।

यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञः संशितव्रतः ।| ११ ।।

स कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः ।

चचार पृथिवीं सर्वां यत्रसायंगृहो मुनिः ।। १२ ।।

उनका नाम था जरत्कारु। वे ऊर्ध्वरेता और महान् ऋषि थे। यायावरोंमेंउनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे धर्मके ज्ञाता थे। एक समय तपोबलसे सम्पन्नउन महाभाग जरत्कारुने यात्रा प्रारम्भ की। वे मुनि-वृत्तिसे रहते हुए जहाँ शामहोती वहीं डेरा डाल देते थे ।। ११-१२ ।।

तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः ।

चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ।॥ १३ ।।

वे सब तीर्थोंमें स्नान करते हुए घूमते थे। उन महातेजस्वी मुनिने कठोरव्रतोंकी ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लियेअत्यन्त दुःसाध्य थी ।। १३ ।।

वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्ननिमिषो मुनिः ।

इतस्ततः परिचरन् दीप्तपावकसप्रभः ।| १४ ।।

अटमानः कदाचित् स्वान् स ददर्श पितामहान् ।

लम्बमानान् महागत्ते पादैरूर्ध्वैरवाङ्मुखान् ।। १५ ।।

वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजनका सर्वथा त्याग करके अपनेशरीरको सुखाते रहते थे। उन महर्षिने निद्रापर भी विजय प्राप्त कर ली थी,इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। इधर-उधर विचरण करते हुए वेप्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। घूमते-घूमते किसी समयउन्होंने अपने पितामहोंको देखा जो ऊपरको पैर और नीचेको सिर किये एकविशाल गड्ढेमें लटक रहे थे ।। १४-१५ ।।

तानब्रवीत् स दृष्ट्वैव जरत्कारुः पितामहान् ।

के भवन्तोऽवलम्बन्ते गर्ते ह्यस्मिन्नधोमुखाः ।। १६ ।।

उन्हें देखते ही जरत्कारुने उनसे पूछा-‘आपलोग कौन हैं, जो इस गड्ढेमेंनीचेको मुख किये लटक रहे हैं ।। १६ ।।

वीरणस्तम्बके लग्नाः सर्वतः परिभक्षिते ।

मूषकेन निगूढेन गर्तेऽस्मिन् नित्यवासिना ।। १७ ।।

‘आप जिस वीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकोंके समूह) -को पकड़करलटक रहे हैं, उसे इस गड्ढेमें गुप्तरूपसे नित्य निवास करनेवाले चूहेने सबओरसे प्रायः खा लिया है’ ।। १७ ।।३ 1.

पितर ऊचुः

यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः ।

संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन्नधो गच्छाम मेदिनीम् ।। १८ ।।

पितर बोले-ब्रह्मन्! हमलोग कठोर व्रतका पालन करनेवाले यायावरनामक मुनि हैं। अपनी संतान-परम्पराका नाश होनेसे हम नीचे-पृथ्वीपरगिरना चाहते हैं ।। १८ ।।

अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति स्मृतः ।

मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एव समास्थितः ।। १९ ।।

हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारु। हमभाग्यहीनोंकी वह अभागी संतान केवल तपस्यामें ही संलग्न है ।। १९ ।।

न स पुत्राञ्जनयितुं दारान् मूढश्चिकीर्षति ।

तेन लम्बामहे गर्ते संतानस्य क्षयादिह ।। २० ।।

अनाथास्तेन नाथेन यया दुष्कृतिनस्तथा ।

कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ।। २१ ।।

ज्ञातुमिच्छामहे ब्रह्मन् को भवानिह नः स्थितः ।

किमर्थं चैव नः शोच्याननुशोचसि सत्तम ।। २२ ।।

वह मूढ़ पुत्र उत्पन्न करनेके लिये किसी स्त्रीसे विवाह करना नहीं चाहता है।अतः वंशपरम्पराका विनाश होनेसे हम यहाँ इस गड्ढेमें लटक रहे हैं। हमारीरक्षा करनेवाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्योंकी भाँति हमअनाथ हो गये हैं। साधुशिरोमणे! तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बान्धवोंकी भाँतिहमलोगोंकी इस दयनीय दशाके लिये शोक कर रहे हो? ब्रह्मन्! हम यह जाननाचाहते हैं कि तुम कौन हो जो आत्मीयकी भाँति यहाँ हमारे पास खड़े हो?सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ! हम शोचनीय प्राणियोंके लिये तुम क्यों शोकमग्न होतेहो ।। २०-२२ ।।

जरत्कारुरुवाच

मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः ।

ब्रूत किं करवाण्यद्य जरत्कारुरहं स्वयम् ।। २३ ।।

जरत्कारुने कहा-महात्माओ! आपलोग मेरे ही पितामह और पूर्वजपितृगण हैं। स्वयं मैं ही जरत्कारु हूँ। बताइये, आज आपकी क्या सेवाकू? ।। २३ ।।

पितर ऊचुः

यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः ।

आत्मनोऽर्थेऽस्मदर्थे च धर्म इत्येव वा विभो ।। २४ ।।

पितर बोले-तात! तुम हमारे कुलकी संतान-परम्पराको बनाये रखनेकेलिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाहके लिये प्रयत्न करो। प्रभो! तुम अपनेलिये, हमारे लिये अथवा धर्मका पालन हो, इस उद्देश्यसे पुत्रकी उत्पत्तिके लियेयत्न करो ।। २४ ।।

न हि धर्मफलैस्तात न तपोभिः सुसंचितैः ।

तां गतिं प्राप्नुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति वै ।। २५ ।।

तात! पुत्रवाले मनुष्य इस लोकमें जिस उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं, उसेअन्य लोग धर्मानुकूल फल देनेवाले भलीभाँति संचित किये हुए तपसे भी नहींपाते ।। २५ ।।

तद् दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मनः कुरु ।

पुत्रकास्मन्नियोगात् त्वमेतन्नः परमं हितम् ।। २६ ।।

अतः बेटा! तुम हमारी आज्ञासे विवाह करनेका प्रयत्न करो औरसंतानोत्पादनकी ओर ध्यान दो। यही हमारे लिये सर्वोत्तम हितकी बातहोगी ।। २६ ।।

जरत्कारुरुवाच

न दारान् वै करिष्येऽहं न धनं जीवितार्थतः ।

भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम् ।। २७ ।।

जरत्कारुने कहा-पितामहगण! मैंने अपने मनमें यह निश्चय कर लिया थाकि मैं जीवनके सुख-भोगके लिये कभी न तो पत्नीका परिग्रह करूँगा और नधनका संग्रह ही; परंतु यदि ऐसा करनेसे आपलोगोंका हित होता है तो उसकेलिये अवश्य विवाह कर लँगा ।। २७ ।।

समयेन च कर्ताहमनेन विधिपूर्वकम् ।

तथा यद्युपलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा ह्यहम् ।। २८ ।।

किंतु एक शर्तके साथ मुझे विधिपूर्वक विवाह करना है। यदि उस शर्तकेअनुसार किसी कुमारी कन्याको पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथाविवाह करूँगा ही नहीं ।। २८ ।।

सनाम्नी या भवित्री मे दित्सिता चैव बन्धुभिः ।

भैक्ष्यवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः ।। २९ ।।

(वह शर्त यों है-) जिस कन्याका नाम मेरे नामके ही समान हो, जिसेउसके भाई-बन्धु स्वयं मुझे देनेकी इच्छासे रखते हों और जो भिक्षाकी भाँतिस्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्याका मैं शा्त्रीय विधिके अनुसार पाणिग्रहणकूँगा ।। २९ ।।

दरिद्राय हि मे भार्यां को दास्यति विशेषत: ।

प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित् प्रदास्यति ।। ३० ।।

विशेष बात तो यह है कि मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगनेपर भी कौन अपनीकन्या पत्नीरूपमें प्रदान करेगा? इसलिये मेरा विचार है कि यदि कोई भिक्षाकेतौरपर अपनी कन्या देगा तो उसे ग्रहण करूगा ।। ३० ।।

एवं दारक्रियाहेतोः प्रयतिष्ये पितामहाः ।

अनेन विधिना शश्वन्न करिष्येऽहमन्यथा ।। ३१ ।।

पितामहो! मैं इसी प्रकार, इसी विधिसे विवाहके लिये सदा प्रयत्न करतारहूँगा। इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा ।। ३१ ।।

तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै।

शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम ।। ३२ ।।

इस प्रकार मिली हुई पत्नीके गर्भसे यदि कोई प्राणी जन्म लेगा तो वहआपलोगोंका उद्धार करेगा, अत: आप मेरे पितर अपने सनातन स्थानपर जाकरवहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें ।। ३२ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुतत्पितृसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः ।। १३ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारु तथा उनके पितरोंका संवाद नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १३ ।।