भाषा, लिपि, कोश – १

श्री अरुण कुमार उपाध्याय

ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥

विश्वेभ्यो हि त्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नःसाम्नः कविः।
स ऋण(-)चिद्-ॠणया (विन्दु चिह्नेन) ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्ता मह ऋतस्य धर्तरि ॥१७॥(ऋक्संहिता २/२३)॥

ब्रह्माने सर्व-प्रथम गणपतिको कवियोंमें श्रेष्ठकवि के रूपमें अधिकृत किया अतः उनको ज्येष्ठराज तथा ब्रह्मणस्पति कहा। उन्होंने श्रव्यवाक् (सत्तासिद्ध सहृदय सशरीरी सत्य) का (भातिसिद्ध अहृदय अशरीरी) ऋत के रूप में स्थापित (विस्तार) किया (सदन – घर, सीद – प्रतिष्ठा, सीद-सादनम् – घर में प्रतिष्ठित होना। श्रव्यवाक्य लुप्त होता है, लिपि बना रहता है।)। सम्पूर्ण विश्वका निरीक्षण कर (हित्वा) त्वष्टाने साम (गान, महिमा – वाक् का वितान भाव) के कविको जन्म दिया। उन्होंने ऋणचिह्न (-) तथा उसके चिद्-भाग बिन्दु द्वारा पूर्णवाक् को (जिसे हित्वा – अध्ययन कर साम बना था) ऋत (लेखन) के रूपमें धारण (स्थायी) किया।

वर्णों के संकेत से १४सूत्र महेश्वर ने बनाये (१४ माहेश्वरसूत्र) जिनसे क्रमशः व्याकरण परम्परा चली। यह सूत्र है –

१. अ इ उ ण्। २. ॠ ॡ क्। ३. ए ओ ङ्। ४. ऐ औ च्। ५. ह य व र ट्। ६. ल ण् ७. ञ म ङ ण न म्। ८. झ भ ञ्। ९. घ ढ ध ष्। १०. ज ब ग ड द श्। ११. ख फ छ ठ थ च ट त व्। १२. क प य्। १३. श ष स र्। १४. ह ल्।
कथित है कि –
समुद्रवत् व्याकरणे महेश्वरे ततोऽम्बु कुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ।
तद्भाग भागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्र विन्दूत्पतितं हि पाणिनौ॥ (सारस्वत भाष्य) ॥

महेश्वरके शब्दज्ञानको यदि समुद्रके रूपसे कल्पना कियाजाय, तो वृहस्पतिका ज्ञान एककलश जलके समान होगा। व्याकरणके स्रष्टा इन्द्रका ज्ञान वृहस्पतिका एकशतांश (१ प्रतिशत) होगा और पाणिनिका ज्ञान कुशाग्रमात्र होगा। तभी तो पाणिनिने अनेक प्रत्याहारोंमें से केवल ४२ प्रत्याहारों का प्रयोग किया।

ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्यः, ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः। (ऋक्तन्त्र)। महेश्वरसे ज्ञानप्राप्तकर ब्रह्माने इसका ज्ञान वृहस्पतिको दिया, वृहस्पतिने इन्द्रको, इन्द्रने भरद्वाजको और भरद्वाजने ब्राह्मणोंको इसका उपदेश दिया। कथित है कि –

येनाक्षर समाम्नायं अधिगम्य महेश्वरात्।
कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नम्ः॥ (पाणिनीय शिक्षा, अन्तिम श्लोक) ॥
नृत्यावसाने नटराजराजः ननाद ढक्वां नवपञ्च वारम्।
उद्धर्तु कामाद् सनकादिसिद्धैः एतत्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥

नृत्यकी समाप्तिपर भगवान शिवने अपने डमरूको विशेषनाद (दिशा) में चौदहवार (नौ+पञ्च – चौदह प्रकारकी स्वर में) बजाया। उस शब्दसे जो चौदहसूत्र निकले उन्हें ही “शिवसूत्र” अथवा माहेश्वरसूत्र के नामसे जाना जाता है।

जब भगवान शिवने डमरूबजाना बंदकिया तो भी कुछ देरतक उसकी स्वर गूंजती रही। वही अंतिमगूँज महर्षिकी समझमें नहीं आया। उसे व्याकरण शास्त्र की पूर्ती की दृष्टि से लोप की संज्ञा देते हुए (हलन्त्यम् – अष्टाध्यायी) लुप्त करदिया गया। महर्षि पतंजलिने भी सूत्रोंकी व्याख्या करतेहुए विलुप्त होनेकी अवस्थाको “अग्रे अजा भक्षिता”- अर्थात आगेका सूत्र छागी खागई, लिखकर छोड़दिया है।

प्रत्याहारका अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन। अष्टाध्यायीके प्रथमअध्यायके प्रथमपाद के 71वें सूत्र “आदिरन्त्येन सहेता” (१-१-७१) सूत्रद्वारा प्रत्याहार बनानेकी विधिका पाणिनिने निर्देश किया है। (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्णके साथ (सह) मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदिवर्ण (पहला) एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिमवर्णके पूर्व आए हुए वर्णोंका समष्टिरूपमें बोधकराता है। जैसे अच् – अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ। उसीप्रकार हल् प्रत्याहारकी सिद्धि ५वें सूत्र हयवरट् के आदिअक्षर “ह” को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः हल् – ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द,ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।

देवलक्ष्मं वै त्र्यालिखिता तामुत्तर लक्ष्माण देवा उपादधत (तैत्तिरीय संहिता ५/२/८/३)

ब्रह्माद्वारा इसप्रकार लेखनका आरम्भ हुआ –

नाकरिष्यद् यदि ब्रह्मा लिखितम् चक्षुरुत्तमम्।
तत्रेयमस्य लोकस्य नाभविष्यत् शुभा गतिः॥ (नारद स्मृति) ॥
षण्मासिके तु समये भ्रान्तिः सञ्जायते यतः।
धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढ़ान् यतः परां॥ (बृहस्पति-आह्निक तत्त्व) ॥
ब्रह्माद्वारा अधिकृत बृहस्पतिने प्रतिपद केलिये अलगचिह्न बनाये थे।
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत नामधेयं दधानाः।
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥ (ऋक् १०/७१/१)

पहले समस्त वस्तुओंके केवल नाम ही दियेगये। गुहाके भीतर वाक् के जो ३पद थे, उनको उसीप्रकार वैखरीवाक् (उच्चरित और लिखित) में व्यक्तकिया। अव्यक्त वाणीको व्यक्तरूपमें यथा-तथ्य उपसर्ग-प्रत्यय, कारक, विराम चिह्नों (पाप-विद्ध) आदि द्वारा वाक्यमें प्रकटकरनेसे वह शाश्वत होती है –

स पर्यगात् शुक्रं अकायं अव्रणं अस्नाविरं शुद्धं अपापविद्धम्।
कविः मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथा-तथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥ (ईशावास्योपनिषद्) ॥

वाल्मीकिने भी रामायण कथाके माध्यमसे तात्कालिक घटनाको सनातनवेदार्थ रूपमें प्रकटकिया। अतः वह शाश्वती समा – आदिकाव्य बना।

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥ (मनुस्मृति १/२१) ॥
ऋष्यस्तपसा वेदानध्यैषन्त दिवानिशम्। अनादिनिधना विद्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा॥
नाना रूपं च भूतानां कर्मणां च प्रवर्तनम्। वेद शब्देभ्य एवादौ निर्मिमीते स ईश्वरः॥
(महाभारत शान्ति पर्व २३२/२४-२६) ॥

प्रतिशब्द के अध्ययन को शब्द-पारायण कहते थे। पूरे जीवन पढ़ने पर भी से समझना सम्भव नहीं था, अतः शुक्र (उशना) ने इसे मारणान्तक व्याधि कहा।

बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यवर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दपारायणं प्रोवाच।
(पतञ्जलि-व्याकरण महाभाष्य १/१/१)
तथा च बृहस्पतः-प्रतिपदं अशक्यत्वात् लक्षणस्यापि अव्यवस्थितत्वात् तत्रापि स्खलित दर्शनात् अनवस्था प्रसंगाच्च मरणान्तो व्याधिः व्याकरणमिति औशनसा इति। (न्याय मञ्जरी)।

इसमें सुधार केलिये इन्द्रने ध्वनि-विज्ञानके आचार्य मरुत् की सहायतसे शब्दोंको अक्षरों और वर्णोंमें बांटा तथा वर्णोको उच्चारण स्थानके आधारपर वर्गीकृत किया (व्याकरोत्)।

वाक् वै पराची अव्याकृता अवदत्।
ते देवा इन्द्रं अब्रुवन्। इमां नो वाचं व्याकुरुत-इति। … तां इन्द्रो मध्यत अपक्रम्य व्याकरोत्। तस्मादिदं व्याकृता वाग् उद्यते इति। (तैत्तिरीय संहिता ६/४/७)। सायण भाष्य – तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृति-प्रत्यय विभागं सर्वत्राकरोत्।
स (इन्द्रो) वाचैव व्यवर्तयद् (मैत्रायणी संहिता ४/५/८)।

इसमें क से ह तक ३३ व्यञ्जन सौरमण्डल के ३३ भागों के प्राण रूप ३३ देवों के चिह्न हैं। १६ स्वर मिलाने पर ४९ वर्ण ४९ मरुतों के चिह्न हैं जो पूरी आकाशगंगा के क्षेत्र हैं। चिह्न रूप में देवों का नगर होने के कारण इसे देवनागरी कहा गया।

व्यक्त, व्युत्पन्न एवं सार्थक शब्द ही संस्कृतभाषाको अन्यतरीभाषासे विशेष वनाता है। शब्द तथा अर्थका सम्पूर्ण समन्वय ही वागार्थ है। कोश तथा व्याकरणके द्वारा उस शव्दभण्डारकी सृष्टि तथा चयन एवं समीचिन प्रयोग का यत्किञ्चित शक्ति आती है।

शब्दोऽपि वाचकस्तावत् लक्षको व्यञ्जकस्तथा। वाच्य, लक्ष तथा व्यङ्ग्य भेदसे शब्द त्रिविध है। व्युत्पत्तिके आधार पर कुछलोग पद का रुढ, यौगिक, योगरुढ तथा यौगिकरुढ – यह चार भेद किया जाता है। परन्तु नागेश रुढ, यौगिक, योगरुढको ही मानते हैं (मञ्जूषा)। पण्डित जगन्नाथ केवलसमुदायशक्ति, केवलअवयवशक्ति, समुदायअवयवशक्ति संकर – यह मानते हैं। ॠ ॡ क् सूत्रके भाष्यमें पतञ्जलिने जाति, गुण, क्रिया, यदृच्छा रूपमें चारप्रकार शब्दप्रवृत्तिके विषयमें कहा है।

(क्रमशः)