भाषा, लिपि, कोश – १
श्री अरुण कुमार उपाध्याय ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥ विश्वेभ्यो हि त्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नःसाम्नः कविः।स ऋण(-)चिद्-ॠणया (विन्दु चिह्नेन) ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्ता मह ऋतस्य धर्तरि ॥१७॥(ऋक्संहिता २/२३)॥ ब्रह्माने सर्व-प्रथम गणपतिको कवियोंमें श्रेष्ठकवि के रूपमें अधिकृत किया अतः उनको ज्येष्ठराज तथा ब्रह्मणस्पति कहा। उन्होंने श्रव्यवाक् (सत्तासिद्ध सहृदय सशरीरी […]
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