Mahabharata Gita Press Vol I Page 1-300 Webpage 3

।। श्रीहरिः ।।

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श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत

महाभारत (प्रथम खण्ड)

MAHABHARATA

[आदिपर्व और सभापर्व]

(सचित्र, सरल हिंदी-अनुवाद)

त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव

त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।

चतुर्दशोऽध्यायः

१. यायावरका अर्थ है सदा विचरनेवाला मुनि। मुनिवृत्तिसे रहते हुए सदा इधर-उधर घूमते रहनेवालेगृहस्थ ब्राह्मणोंके एक समूहविशेषकी यायावर संज्ञा है । ये लोग एक गाँवमें एक रातसे अधिक नहीं ठहरतेऔर पक्षमें एक बार अग्निहोत्र करते हैं। पक्षहोम सम्प्रदायकी प्रवृत्ति इन्हींसे हुई है । इनके विषयमेंभारद्वाजका वचन इस प्रकार मिलता है-यायावरा नाम ब्राह्मणा आसंस्ते अर्धमासादग्निहोत्रमजुह्वन् । यायावरलोग घूमते-घूमते जहाँ संध्या हो जाती है वहीं ठहर जाते हैं।

२. यहाँ भूलोक ही गड्ढा है। स्वर्गवासी पितरोंको जो नीचे गिरनेका भय लगा रहता है उसीको सूचितकरनेके लिये यह कहा गया है कि उनके पैर ऊपर थे और सिर नीचे। काल ही चूहा है और वंशपरम्परा हीवीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकोंका समुदाय ) है | उस वंशमें केवल जरत्कारु बच गये थे और अन्य सबपुरुष कालके अधीन हो चुके थे। यही व्यक्त करनेके लिये चूहेके द्वारा तिनकोंके समुदायको सब ओरसेखाया हुआ बताया गया है। जरत्कारुके विवाह न करनेसे उस वंशका वह शेष अंश भी नष्ट होना चाहताथा। इसीलिये पितर व्याकुल थे और जरत्कारुको इसका बोध करानेके लिये उन्होंने इस प्रकार दर्शन दियाथा।

चतुर्दशोऽध्यायः जरत्कारुद्वारा वासुकिकी बहिनका पाणिग्रहण ।

सौतिरुवाच

ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः ।

महीं चरचार दारार्थी न च दारानविन्दत ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-तदनन्तर वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण भार्याकीप्राप्तिके लिये इच्छुक होकर पृथ्वीपर सब ओर विचरने लगे; किंतु उन्हें पत्नीकी उपलब्धिनहीं हुई ।। १ ।।

स कदाचिद् वनं गत्वा विप्रः पितृवचः स्मरन् ।

चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाचः शनैरिव ।। २ ।।

एक दिन किसी वनमें जाकर विप्रवर जरत्कारुने पितरोंके वचनका स्मरण करकेकन्याकी भिक्षाके लिये तीन बार धीरे-धीरे पुकार लगायी -‘कोई भिक्षारूपमें कन्या देजाय’ ।। २ ।।

तं वासुकिः प्रत्यगृह्णादुद्यम्य भगिनीं तदा ।

न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन् ।। ३ ।।

इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिनको लेकर मुनिकी सेवामें उपस्थित हो गयेऔर बोले, ‘यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।’ किंतु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे-जैसेनामवाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया।। ३ ।।

सनाम्नीं चोद्यतां भार्यां गृह्णीयामिति तस्य हि ।

मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मनः ।। ४ ।।

उन महात्मा जरत्कारुका मन इस बातपर स्थिर हो गया था कि मेरे-जैसे नामवालीकन्या यदि उपलब्ध हो तो उसीको पत्नीरूपमें ग्रहण करू ।। ४ ।।

तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः ।

किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम ।। ५ ।।

ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान् एवं महान् तपस्वी जरत्कारुने पूछा – ‘नागराज!सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिनका क्या नाम है? ‘ ।। ५ ।।

वासुकिरुवाच

जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम ।

प्रतिगृह्णीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम् ।

त्वदर्थं रक्षिता पूर्व प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम ।। ६ ।।

वासुकिने कहा-जरत्कारो! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारु नामसे ही प्रसिद्ध है। इससुन्दर कटिप्रदेशवाली कुमारीको पत्नी बनानेके लिये मैंने स्वयं आपकी सेवामें समर्पितकिया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ! यह बहुत पहलेसे आपहीके लिये सुरक्षित रखीगयी है, अतः इसे ग्रहण करें ।। ६ ।।

एवमुक्त्वा ततः प्रादाद् भार्यार्थे वरवर्णिनीम्।

स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ।। ७ ।।

ऐसा कहकर वासुकिने वह सुन्दरी कन्या मुनिको पत्नीरूपमें प्रदान की। मुनिने भीशास्त्रीय विधिके अनुसार उसका पाणिग्रहण किया।। ७ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशोऽध्यायः।। १४ ।। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वासुकिकी बहिनके वरणसे सम्बन्ध रखनेवाला चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १४ ।।

पञ्चदशोऽध्यायः

आस्तीकका जन्म तथा मातृशापसे सर्पसत्रमें नष्ट होनेवाले नागवंशकी उनके द्वारा रक्षा

सौतिरुवाच

मात्रा हि भुजगाः शप्ताः पूर्वं ब्रह्मविदां वर ।

जनमेजयस्य वो यज्ञे धक्ष्यत्यनिलसारथिः ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ शौनक! पूर्वकालमें नागमाता कदूने सर्पोकोयह शाप दिया था कि तुम्हें जनमेजयके यज्ञमें अग्नि भस्म कर डालेगी ।। १ ।।

तस्य शापस्य शान्त्यर्थं प्रददौ पन्नगोत्तमः ।

स्वसारमृषये तस्मै सुव्रताय महात्मने ।। २ ।।

स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ।

आस्तीको नाम पुत्रश्च तस्यां जज्ञे महामनाः ।। ३ ।।

उसी शापकी शान्तिके लिये नागप्रवर वासुकिने सदाचारका पालन करनेवाले महात्माजरत्कारुको अपनी बहिन ब्याह दी थी। महामना जरत्कारुने शास्त्रीय विधिके अनुसार उसनागकन्याका पाणिग्रहण किया और उसके गर्भसे आस्तीक नामक पुत्रको जन्मदिया ।। २-३ ।।

तपस्वी च महात्मा च वेदवेदाङ्गपारगः ।

समः सर्वस्य लोकस्य पितृमातृभयापहः ।। ४ ।।

आस्तीक वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान्, तपस्वी, महात्मा, सब लोगोंके प्रति समानभावरखनेवाले तथा पितृकुल और मातृकुलके भयको दूर करनेवाले थे ।। ४ ।।

अथ दीर्घस्य कालस्य पाण्डवेयो नराधिपः ।

आजहार महायज्ञं सर्पसत्रमिति श्रुतिः ।। ५ ।।

तस्मिन् प्रवृत्ते सत्रे तु सर्पाणामन्तकाय वै ।

मोचयामास तान् नागानास्तीकः सुमहातपाः ।। ६ ।।

तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् पाण्डववंशीय नरेश जनमेजयने सर्पसत्र नामक महान्यज्ञका आयोजन किया, ऐसा सुननेमें आता है। सर्पोके संहारके लिये आरम्भ किये हुए उससत्रमें आकर महातपस्वी आस्तीकने नागोंको मौतसे छुड़ाया ।। ५-६ ।।

भ्रातृंश्च मातुलांश्चैव तथैवान्यान् स पन्नगान् ।

पितृश्च तारयामास संतत्या तपसा तथा ।। ७ ।।

उन्होंने मामा तथा ममेरे भाइयोंको एवं अन्यान्य सम्बन्धोंमें आनेवाले सब नागोंकोसंकटमुक्त किया। इसी प्रकार तपस्या तथा संतानोत्पादनद्वारा उन्होंने पितरोंका भी उद्धारकिया ।। ७ ।।

व्रतैश्च विविधैर्ब्रह्मन् स्वाध्यायैश्चानृणोऽभवत् ।

देवांश्च तर्पयामास यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ।। ८ ।।

ऋषींश्च ब्रह्मचर्येण संतत्या च पितामहान् ।

अपहृत्य गुरुं भारं पितृणां संशितव्रतः ।। ९ ।।

जरत्कारुर्गतः स्वर्गं सहितः स्वैः पितामहैः।

आस्तीकं च सुतं प्राप्य धर्मं चानुत्तमं मुनिः ।। १० ।।

जरत्कारुः सुमहता कालेन स्वर्गमेयिवान् ।

एतदाख्यानमास्तीकं यथावत् कथितं मया।

प्रब्रूहि भृगुशार्दूल किमन्यत् कथयामि ते ।। ११ ।।

ब्रह्मन्! भाँति-भाँतिके व्रतों और स्वाध्यायोंका अनुष्ठान करके वे सब प्रकारके ऋणोंसेउऋण हो गये। अनेक प्रकारकी दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करके उन्होंने देवताओं,ब्रह्मचर्यव्रतके पालनसे ऋषियों और संतानकी उत्पत्तिद्वारा पितरोंको तृप्त किया। कठोरव्रतका पालन करनेवाले जरत्कारु मुनि पितरोंकी चिन्ताका भारी भार उतारकर अपने उनपितामहोंके साथ स्वर्गलोकको चले गये। आस्तीक-जैसे पुत्र तथा परम धर्मकी प्राप्ति करकेमुनिवर जरत्कारुने दीर्घकालके पश्चात् स्वर्गलोककी यात्रा की। भृगुकुलशिरोमणे! इसप्रकार मैंने आस्तीकके उपाख्यानका यथावत् वर्णन किया है। बताइये, अब और क्या कहाजाय? ।। ८-११ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पाणां मातृशापप्रस्तावे पञ्चदशोऽध्यायः ।। १५ ।। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पोंको मातृशाप प्राप्त होनेकी प्रस्तावनासे युक्त पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १५ ।।

षोडशोऽध्यायः

कट्टू और विनताको कश्यपजीके वरदानसे अभीष्ट पुत्रोंकी प्राप्ति

शौनक उवाच

सौते त्वं कथयस्वेमां विस्तरेण कथां पुनः ।

आस्तीकस्य कवेः साधोः शुश्रूषा परमा हि नः ।। १ ।।

शौनकजी बोले-सूतनन्दन! आप ज्ञानी महात्मा आस्तीककी इस कथाको पुनःविस्तारके साथ कहिये। हमें उसे सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है ।। १ ।।

मधुरं कथ्यते सौम्य श्लक्ष्णाक्षरपदं त्वया ।

प्रीयामहे भृशं तात पितेवेदं प्रभाषसे ।। २ ।।

सौम्य! आप बड़ी मधुर कथा कहते हैं। उसका एक- एक अक्षर और एक-एक पदकोमल है। तात! इसे सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आप अपने पिता लोमहर्षणकीभाँति ही प्रवचन कर रहे हैं ।। २ ।।

अस्मच्छुश्रूषणे नित्यं पिता हि निरतस्तव ।

आचष्टैतद् यथाख्यानं पिता ते त्वं तथा वद ।। ३ ।।

आपके पिता सदा हमलोगोंकी सेवामें लगे रहते थे। उन्होंने इस उपाख्यानको जिसप्रकार कहा है, उसी रूपमें आप भी कहिये ।। ३ ।।

सौतिरुवाच

आयुष्मन्निदमाख्यानमास्तीकं कथयामि ते ।

यथाश्रुतं कथयतः सकाशाद् वै पितुर्मया ।। ४ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-आयुष्मन्! मैंने अपने कथावाचक पिताजीके मुखसे यहआस्तीककी कथा, जिस रूपमें सुनी है, उसी प्रकार आपसे कहता हूँ ।। ४ ।।

पुरा देवयुगे ब्रह्मन् प्रजापतिसुते शुभे ।

आस्तां भगिन्यौ रूपेण समुपेतेऽद्भुतेऽनघ ।। ५ ।।

ते भार्ये कश्यपस्यास्तां कद्रुश्च विनता च ह ।

प्रादात् ताभ्यां वरं प्रीतः प्रजापतिसमः पतिः ।। ६ ।।

कश्यपो धर्मपत्नीभ्यां मुदा परमया युतः ।

वरातिसर्ग श्रुत्वैवं कश्यपादुत्तमं च ते ।। ७ ।।

हर्षादप्रतिमां प्रीतिं प्रापतुः स्म वरस्त्रियौ ।

वत्रे कट्रूः सुतान् नागान् सहस्रं तुल्यवर्चसः ।। ८ ।।

ब्रह्मन्! पहले सत्ययुगमें दक्ष प्रजापतिकी दो शुभलक्षणा कन्याएँ थीं-कट्दू औरविनता। वे दोनों बहिनें रूप-सौन्दर्यसे सम्पन्न तथा अद्भुत थीं। अनघ! उन दोनोंका विवाहमहर्षि कश्यपजीके साथ हुआ था। एक दिन प्रजापति ब्रह्माजीके समान शक्तिशाली पतिमहर्षि कश्यपने अत्यन्त हर्षमें भरकर अपनी उन दोनों धर्मपत्नियोंको प्रसन्नतापूर्वक वर देतेहुए कहा-‘तुममेंसे जिसकी जो इच्छा हो वर माँग लो।’ इस प्रकार कश्यपजीसे उत्तमवरदान मिलनेकी बात सुनकर प्रसन्नताके कारण उन दोनों सुन्दरी स्त्रियोंको अनुपम आनन्दप्राप्त हुआ। कदूने समान तेजस्वी एक हजार नागोंको पुत्ररूपमें पानेका वर माँगा ।। ५-८ ।।

द्वौ पुत्रौ विनता व्रे कटद्रूपुत्राधिकौ बले ।

तेजसा वपुषा चैव विक्रमेणाधिकौ च तौ ।। ९।।

विनताने बल, तेज, शरीर तथा पराक्रममें कद्रूके पुत्रोंसे श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्रमाँगे ।। ९ ।।

तस्यै भर्ता वरं प्रादादत्यर्थं पुत्रमीप्सितम् ।

एवमस्त्विति तं चाह कश्यपं विनता तदा ।। १० ।।

विनताको पतिदेवने, अत्यन्त अभीष्ट दो पुत्रोंके होनेका वरदान दे दिया। उस समयविनताने कश्यपजीसे ‘एवमस्तु ‘कहकर उनके दिये हुए वरको शिरोधार्य किया। १० ।।

यथावत् प्रार्थितं लब्ध्वा वरं तुष्टाभवत् तदा ।

कृतकृत्या तु विनता लब्ध्वा वीर्याधिकौ सुतौ ।। ११ ।।

अपनी प्रार्थनाके अनुसार ठीक वर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। कदूरूके पुत्रोंसे अधिकबलवान् और पराक्रमी-दो पुत्रोंके होनेका वर प्राप्त करके विनता अपनेको कृतकृत्यमानने लगी ।। ११ ।।

कदरूश्च लब्ध्वा पुत्राणां सहस्रं तुल्यवर्चसाम्

धार्यौ प्रयत्नतो गर्भावित्युक्त्वा स महातपाः ।। १२ ।।

समान तेजस्वी एक हजार पुत्र होनेका वर पाकर कद्ू भी अपना मनोरथ सिद्ध हुआसमझने लगी। वरदान पाकर संतुष्ट हुई अपनी उन धर्मपत्नियोंसे यह कहकर कि ‘ तुम दोनोंयत्नपूर्वक अपने-अपने गर्भकी रक्षा करना’ महातपस्वी कश्यपजी वनमें चले गये ।। १२ ||

सौतिरुवाच

ते भार्ये वरसंतुष्टे कश्यपो वनमाविशत् ।

कालेन महता कट्ूरण्डानां दशतीर्दश ।। १३ ।।

जनयामास विप्रेन्द्र द्वे चाण्डे विनता तदा ।उग्रश्रवाजीने कहा-ब्रह्मन्! तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् कद्रूने एक हजार औरविनताने दो अण्डे दिये ।। १३ ।।

तयोरण्डानि निदधुः प्रहृष्टाः परिचारिकाः ।। १४ ।।

सोपस्वेदेषु भाण्डेषु पञ्चवर्षशतानि च ।

ततः पञ्चशते काले कद्रूपुत्रा विनिःसृताः ।। १५ ।।

दासियोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनोंके अण्डोंको गरम बर्तनोंमें रख दिया। वे अण्डेपाँच सौ वर्षोंतक उन्हीं बर्तनोंमें पड़े रहे। तत्पश्चात् पाँच सौ वर्ष पूरे होनेपर कदूके एकहजार पुत्र अण्डोंको फोड़कर बाहर निकल आये; परंतु विनताके अण्डोंसे उसके दो बच्चेनिकलते नहीं दिखायी दिये ।।१४-१५।।

अण्डाभ्यां विनतायास्तु मिथुनं न व्यदृश्यत ।

ततः पुत्रार्थिनी देवी व्रीडिता च तपस्विनी ।। १६ ।।

अण्डं बिभेद विनता तत्र पुत्रमपश्यत ।

पूर्वार्धकायसम्पन्नमितरेणाप्रकाशता ।। १७ ।।

इससे पुत्रार्थिनी और तपस्विनी देवी विनता सौतके सामने लज्जित हो गयी। फिरउसने अपने हाथोंसे एक अण्डा फोड़ डाला। फूटनेपर उस अण्डेमें विनताने अपने पुत्रकोदेखा, उसके शरीरका ऊपरी भाग पूर्णरूपसे विकसित एवं पुष्ट था, किंतु नीचेका आधाअंग अभी अधूरा रह गया था ।। १६-१७ ।।

स पुत्रः क्रोधसंरब्धः शशापैनामिति श्रुतिः ।

योऽहमेवं कृतो मातस्त्वया लोभपरीतया ।। १८ ।।

शरीरेणासमग्रेण तस्माद् दासी भविष्यसि।

पञ्चवर्षशतान्यस्या यया विस्पर्धसे सह ।। १९ ।।

सुना जाता है, उस पुत्रने क्रोधके आवेशमें आकर विनताको शाप दे दिया- ‘माँ! तूनेलोभके वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीरका बना दिया-मेरे समस्त अंगोंकोपूर्णतः विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया; इसलिये जिस सौतके साथ तू लाग-डाँट रखती है,उसीकी पाँच सौ वर्षोंतक दासी बनी रहेगी ।। १८-१९ ।।

एष च त्वां सुतो मातर्दासीत्वान्मोचयिष्यति ।

यद्येनमपि मातस्त्वं मामिवाण्डविभेदनात् ।। २० ।।

‘और मा! यह जो दूसरे अण्डेमें तेरा पुत्र है, यही तुझे दासीभावसे छुटकारा दिलायेगा;किंतु माता! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्रको मेरी ही तरह अण्डा फोड़करअंगहीन या अधूरे अंगोंसे युक्त न बना देगी।। २० ।।

न करिष्यस्यनङ्गं वा व्यङ्गं वापि तपस्विनम् ।

प्रतिपालयितव्यस्ते जन्मकालोऽस्य धीरया । २१ ।।

विशिष्टं बलमीप्सन्त्या पञ्चवर्षशतात् परः ।’इसलिये यदि तू इस बालकको विशेष बलवान् बनाना चाहती है तो पाँच सौ वर्षकेबादतक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्मकी प्रतीक्षा करनी चाहिये’ ।। २१ । । ।।

एवं शप्त्वा ततः पुत्रो विनतामन्तरिक्षगः ।। २२ ।।

अरुणो दृश्यते ब्रह्मन् प्रभातसमये सदा।

आदित्यरथमध्यास्ते सारथ्यं समकल्पयत् ।। २३ ।।

इस प्रकार विनताको शाप देकर वह बालक अरुण अन्तरिक्षमें उड़ गया। ब्रह्मन्!तभीसे प्रातःकाल (प्राची दिशामें) सदा जो लाली दिखायी देती है, उसके रूपमें विनताकेपुत्र अरुणका ही दर्शन होता है। वह सूर्यदेवके रथपर जा बैठा और उनके सारथिका कामसँभालने लगा ।। २२-२३ ।।

गरुडोऽपि यथाकालं जज्ञे पन्नगरभोजनः ।

स जातमात्रो विनतां परित्यज्य खमाविशत् ।। २४ ।।

आदास्यन्नात्मनो भोज्यमन्नं विहितमस्य यत् ।

विधात्रा भृगुशा्दूल क्षुधितः पतगेश्वरः ।। २५ ।।

तदनन्तर समय पूरा होनेपर सर्पसंहारक गरुडका जन्म हुआ। भृगुश्रेष्ठ! पक्षिराज गरुडजन्म लेते ही क्षुधासे व्याकुल हो गये और विधाताने उनके लिये जो आहार नियत किया था,अपने उस भोज्य पदार्थको प्राप्त करनेके लिये माता विनताको छोड़कर आकाशमें उड़गये ।। २४-२५ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पादीनामुत्पत्तौ षोडशोऽध्यायः ।।१६ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्प आदिकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाला सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १६ ।।

सप्तदशोऽध्यायः

मेरुपर्वतपर अमृतके लिये विचार करनेवाले देवताओंको

भगवान् नारायणका समुद्रमन्थनके लिये आदेश

सौतिरुवाच

एतस्मिन्नेव काले तु भगिन्यौ ते तपोधन ।

अपश्यतां समायाते उच्चैःश्रवसमन्तिकात् ।। १ ।।

यं तं देवगणाः सर्वे हृष्टरूपमपूजयन् ।

मध्यमानेऽमृते जातमश्वरत्नमनुत्तमम् ।। २ ।।

अमोघबलमश्वानामुत्तमं जगतां वरम् ।

श्रीमन्तमजरं दिव्यं सर्वलक्षणपूजितम् ।। ३ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-तपोधन! इसी समय कद्रू और विनता दोनों बहनें एक साथ हीघूमनेके लिये निकलीं। उस समय उन्होंने उच्चैःश्रवा नामक घोड़ेको निकटसे जाते देखा।वह परम उत्तम अश्वरत्न अमृतके लिये समुद्रका मन्थन करते समय प्रकट हुआ था। उसमेंअमोघ बल था। वह संसारके समस्त अश्वोंमें श्रेष्ठ, उत्तम गुणोंसे युक्त, सुन्दर, अजर,एवं सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे संयुक्त था। उसके अंग बड़े हृष्ट-पुष्ट थे। सम्पूर्ण देवताओंनेउसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी ।। १-३ ।।

शौनक उवाच

दिव्य कथं तदमृतं देवैर्मथितं क्व च शंस मे ।

यत्र जज्ञे महावीर्यः सोऽश्वराजो महाद्युतिः ।। ४ ।।

शौनकजीने पूछा-सूतनन्दन! अब मुझे यह बताइये कि देवताओंने अमृत-मन्थनकिस प्रकार और किस स्थानपर किया था, जिसमें वह महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न औरअत्यन्त तेजस्वी अश्वराज उच्चैःश्रवा प्रकट हुआ? ।। ४ ।।

सौतिरुवाच

ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम् ।

आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गैः काञ्चनोज्ज्वलैः ।। ५ ।।

कनकाभरणं चित्रं देवगन्धर्वसेवितम् ।

अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः ।। ६ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-शौनकजी! मेरु नामसे प्रसिद्ध एक पर्वत है, जो अपनी प्रभासेप्रज्वलित होता रहता है। वह तेजका महान् पुंज और परम उत्तम है। अपने अत्यन्तप्रकाशमान सुवर्णमय शिखरोंसे वह सूर्यदेवकी प्रभाको भी तिरस्कृत किये देता है। उसस्वर्णभूषित विचित्र शैलपर देवता और गन्धर्व निवास करते हैं। उसका कोई माप नहीं है । जिनमें पापकी मात्रा अधिक है, ऐसे मनुष्य वहाँ पैर नहीं रख सकते ।। ५-६ ।।

व्यालैरावारितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम् ।

नाकमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छरयेण महागिरिम् ।। ७ ।।

अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम् ।

नानापतगसङ्घैश्च नादितं सुमनोहरैः ।। ८ ।।

वहाँ सब ओर भयंकर सर्प भरे पड़े हैं। दिव्य ओषधियाँ उस तेजोमय पर्वतको और भी उद्भासित करती रहती हैं। वह महान् गिरिराज अपनी ऊँचाईसे स्वर्गलोकको घेरकर खड़ा है। प्राकृत मनुष्योंके लिये वहाँ मनसे भी पहुँचना असम्भव है । वह गिरिप्रदेश बहुत-सी नदियों और असंख्य वृक्षोंसे सुशोभित है। भिन्न-भिन्न प्रकारके अत्यन्त मनोहर पक्षियोंके समुदाय अपने कलरवसे उस पर्वतको कोलाहलपूर्ण किये रहते हैं ।। ७ – ८ ।।

तस्य शृङ्गमुपारुह्य बहुरत्नाचितं शुभम् ।

अनन्तकल्पमुद्विद्धं सुराः सर्वे महौजसः ।। ९ ।।

ते मन्त्रयितुमारब्धास्तत्रासीना दिवौकसः ।

अमृताय समागम्य तपोनियमसंयुताः ।। १० ।।

तत्र नारायणो देवो ब्रह्माणमिदमब्रवीत् ।

चिन्तयत्सु सुरेष्वेवं मन्त्रयत्सु च सर्वशः ।। ११ ।।

देवैरसुरसङ्घैश्च मथ्यतां कलशोदधिः ।

भविष्यत्यमृतं तत्र मथ्यमाने महोदधौ ।। १२ ।।

उसके शुभ एवं उच्चतम शृंग असंख्य चमकीले रत्नोंसे व्याप्त हैं। वे अपनी विशालताके कारण आकाशके समान अनन्त जान पड़ते हैं। समस्त महातेजस्वी देवता मेरुगिरिके उस महान् शिखरपर चढ़कर एक स्थानमें बैठ गये और सब मिलकर अमृत- प्राप्तिके लिये क्या उपाय किया जाय, इसका विचार करने लगे। वे सभी तपस्वी तथा शौच- संतोष आदि नियमोंसे संयुक्त थे। इस प्रकार परस्पर विचार एवं सबके साथ मन्त्रणामें लगे हुए देवताओंके समुदायमें उपस्थित हो भगवान् नारायणने ब्रह्माजीसे यों कहा- ‘समस्त देवता और असुर मिलकर महासागरका मन्थन करें। उस महासागरका मन्थन आरम्भ होनेपर उसमेंसे अमृत प्रकट होगा ।। ९-१२ ।।

सर्वोषधीः समावाप्य सर्वरत्नानि चैव ह ।

मन्थध्वमुदधिं देवा वेत्स्यध्वममृतं ततः ।। १३ ।।

‘देवताओ! पहले समस्त ओषधियों, फिर सम्पूर्ण रत्नोंको पाकर भी समुद्रका मन्थन जारी रखो। इससे अन्तरमें तुमलोगोंको निश्चय ही अमृतकी प्राप्ति होगी’ ।। १३ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थने सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थनविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १७ ।।

अष्टादशोऽध्यायः

देवताओं और दैत्योंद्वारा अमृतके लिये समुद्रका मन्थन,अनेक रत्नोंके साथ अमृतकी उत्पत्ति और भगवानुकामोहिनीरूप धारण करके दैत्योंके हाथसे अमृत ले लैना

सौतिरुवाच

ततोऽभ्रशिखराकारैर्गिरिशृङ्गैरलंकृतम् ।

मन्दरं पर्वतवरं लताजालसमाकुलम् ।। १ ।।

नानाविहगसंघुष्टं नानादं्ट्रिसमाकुलम् ।

किन्नरैरप्सरोभिश्च देवैरपि च सेवितम् ।। २ ।।

एकादश सहस्राणि योजनानां समुच्छ्रितम् ।

अधो भूमेः सहस्रेषु तावत्स्वेव प्रतिष्ठितम् । ३ ।।

तमुद्धर्तुमशक्ता वै सर्वे देवगणास्तदा ।

विष्णुमासीनमभ्येत्य ब्रह्माणं चेदमब्रुवन् ।। ४ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकजी! तदनन्तर सम्पूर्ण देवता मिलकर पर्वतश्रेष्ठमन्दराचलको उखाड़नेके लिये उसके समीप गये। वह पर्वत श्वेत मेघखण्डोंके समान प्रतीतहोनेवाले गगनचुम्बी शिखरोंसे सुशोभित था सब ओर फैली हुई लताओंके समुदायने उसेआच्छादित कर रखा था। उसपर चारों ओर भाँति-भाँतिके विहंगम कलरव कर रहे थे।बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले व्याघ्र-सिंह आदि अनेक हिंसक जीव वहाँ सर्वत्र भरे हुए थे। उसपर्वतके विभिन्न प्रदेशोंमें किन्नरगण, अप्सराएँ तथा देवतालोग निवास करते थे। उसकीऊँचाई ग्यारह हजार योजन थी और भूमिके नीचे भी वह उतने ही सहस्र योजनोंमें प्रतिष्ठितथा। जब देवता उसे उखाड़ न सके, तब वहाँ बैठे हुए भगवान् विष्णु और ब्रह्माजीसे इसप्रकार बोले- ।। १-४ ।।

भवन्तावत्र कुर्वीतां बुद्धिं नैःश्रेयसीं पराम् ।

मन्दरोद्धरणे यत्नः क्रियतां च हिताय नः ।। ५ ।।

‘आप दोनों इस विषयमें कल्याणमयी उत्तम बुद्धि प्रदान करें और हमारे हितके लियेमन्दराचल पर्वतको उखाड़नेका यत्न करें’ ।। ५ ।।

सौतिरुवाच

तथेति चाब्रवीद् विष्णुर्ब्रह्मणा सह भार्गव ।

अचोदयदमेयात्मा फणीन्द्रं पद्मलोचनः ॥ ६ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-भृगुनन्दन! देवताओंके ऐसा कहनेपर ब्रह्माजीसहित भगवान्विष्णुने कहा-‘तथास्तु (ऐसा ही हो) । तदनन्तर जिनका स्वरूप मन, बुद्धि एवं प्रमाणोंकीपहुँचसे परे है, उन कमलनयन भगवान् विष्णुने नागराज अनन्तको मन्दराचल उखाड़नेकेलिये आज्ञा दी ।। ६ ।।

ततोऽनन्तः समुत्थाय ब्रह्मणा परिचोदितः ।

नारायणेन चाप्युक्तस्तस्मिन् कर्मणि वीर्यवान् ।। ७ ।।

जब ब्रह्माजीने प्रेरणा दी और भगवान् नारायणने भी आदेश दे दिया, तबअतुलपराक्रमी अनन्त (शेषनाग) उठकर उस कार्यमें लगे ।। ७ ।।

अथ पर्वतराजानं तमनन्तो महाबलः।

उज्जहार बलाद् ब्रह्मन् सवनं सवनौकसम् ।। ८ ।।

ब्रह्मन्! फिर तो महाबली अनन्तने जोर लगाकर गिरिराज मन्दराचलको वन औरवनवासी जन्तुओंसहित उखाड़ लिया ।। ८ ।।

ततस्तेन सुराः सार्धं समुद्रमुपतस्थिरे ।

तमूचुरमृतस्यार्थे निर्मथिष्यामहे जलम् ।। ९ ।।

अपां पतिरथोवाच ममाप्यंशो भवेत् ततः ।

सोढास्मि विपुलं मर्द मन्दरभ्रमणादिति ।। १० ।।

तत्पश्चात् देवतालोग उस पर्वतके साथ समुद्रतटपर उपस्थित हुए और समुद्रसे बोले-हम अमृतके लिये तुम्हारा मन्थन करेंगे।’ यह सुनकर जलके स्वामी समुद्रने कहा-‘यदि अमृतमें मेरा भी हिस्सा रहे तो मैं मन्दराचलको घुमानेसे जो भारी पीड़ा होगी, उसेसह लँगा’ ।। ९-१० ।।

ऊचुश्च कूर्मराजानमकूपारे सुरासुराः ।

अधिष्ठानं गिरेरस्य भवान् भवितुमर्हति ।। ११ ।।

तब देवताओं और असुरोंने (समुद्रकी बात स्वीकार करके) समुद्रतलमें स्थितकच्छपराजसे कहा-‘भगवन्! आप इस मन्दराचलके आधार बनिये’ ।। ११ ।।

कूर्मेण तु तथेत्युक्त्वा पृष्ठमस्य समर्पितम् ।

तं शैलं तस्य पृष्ठस्थं वज्रेणेन्द्रो न्यपीडयत् ।। १२ ।।

तब कच्छपराजने ‘तथास्तु’ कहकर मन्दराचलके नीचे अपनी पीठ लगा दी। देवराजइन्द्रने उस पर्वतको वज्रद्वारा दबाये रखा ।। १२ ।।

मन्थानं मन्दरं कृत्वा तथा नेत्रं च वासुकिम् ।

देवा मथितुमारब्धाः समुद्रं निधिमम्भसाम् ।। १३ ।।

अमृतार्थे पुरा ब्रह्मंस्तथैवासुरदानवाः ।

एकमन्तमुपाश्लिष्टा नागराज्ञो महासुराः ।। १४ ।।

विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं ततः स्थिताः।ब्रह्मन्! इस प्रकार पूर्वकालमें देवताओं, दैत्यों और दानवोंने मन्दराचलको मथानी औरवासुकि नागको डोरी बनाकर अमृतके लिये जलनिधि समुद्रको मथना आरम्भ किया। उनमहान् असुरोंने नागराज वासुकिके मुखभागको दृढतापूर्वक पकड़ रखा था और जिस ओरउसकी पूँछ थी उधर सम्पूर्ण देवता उसे पकड़कर खड़े थे ।। १३-१४।।

अनन्तो भगवान् देवो यतो नारायणस्ततः ।

शिर उत्क्षिप्य नागस्य पुनः पुनरवाक्षिपत् ।। १५ ।।

भगवान् अनन्तदेव उधर ही खड़े थे, जिधर भगवान् नारायण थे। वे वासुकि नागकेसिरको बार-बार ऊपर उठाकर झटकते थे ।। १५ ।।

वासुकेरथ नागस्य सहसाऽऽक्षिप्यतः सुरैः ।

सधूमाः सार्चिषो वाता निष्पेतुरसकृन्मुखात् ।। १६ ।।

तब देवताओंद्वारा बार-बार खींचे जाते हुए वासुकि नागके मुखसे निरन्तर धूएँ तथाआगकी लपटोंके साथ गर्म-गर्म साँसें निकलने लगीं ।। १६ ।।

ते धूमसङ्घाः सम्भूता मेघसङ्घाः सविद्युतः ।

अभ्यवर्षन् सुरगणान् श्रमसंतापकर्शितान् ।। १७ ।।

वे धूमसमुदाय बिजलियोंसहित मेघोंकी घटा बनकर परिश्रम एवं संतापसे कष्टपानेवाले देवताओंपर जलकी धारा बरसाते रहते थे ।। १७ ।।

तस्माच्च गिरिकूटाग्रात् प्रच्युताः पुष्पवृष्टयः ।

सुरासुरगणान् सर्वान् समन्तात् समवाकिरन् ।। १८ ।

उस पर्वतशिखरके अग्रभागसे सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंपर सब ओरसे फूलोंकीवर्षा होने लगी ।। १८ ।।

बभूवात्र महानादो महामेघरवोपमः ।

उदधेर्मथ्यमानस्य मन्दरेण सुरासुरैः ।। १९ ।।

देवताओं और असुरोंद्वारा मन्दराचलसे समुद्रका मन्थन होते समय वहाँ महान् मेघोंकीगम्भीर गर्जनाके समान जोर-जोरसे शब्द होने लगा ।। १९ ।।

तत्र नाना जलचरा विनिष्पिष्टा महाद्रिणा ।

विलयं समुपाजग्मुः शतशो लवणाम्भसि ।। २० ।।

उस समय उस महान् पर्वतके द्वारा सैकड़ों जलचर जन्तु पिस गये और खारे पानीकेउस महासागरमें विलीन हो गये।। २० ।।

वारुणानि च भूतानि विविधानि महीधरः ।

पातालतलवासीनि विलयं समुपानयत् ।। २१ ।।

मन्दराचलने वरुणालय (समुद्र) तथा पातालतलमें निवास करनेवाले नाना प्रकारकेप्राणियोंका संहार कर डाला ।। २१ ।।

तस्मिंश्च भ्राम्यमाणेऽद्रौ संघृष्यन्तः परस्परम् ।

न्यपतन् पतगोपेताः पर्वताग्रान्महाद्रुमाः ।। २२ ।।

जब वह पर्वत घुमाया जाने लगा, उस समय उसके शिखरसे बड़े-बड़े वृक्ष आपसमेंटकराकर उनपर निवास करनेवाले पक्षियोंसहित नीचे गिर पड़े ।। २२ ।।

तेषां संघर्षजश्चाग्निर्चिर्भिः प्रज्वलन् मुहुः ।

विद्युद्भिरिव नीलाभ्रमावृणोन्मन्दरं गिरिम् ।। २३ ।।

उनकी आपसकी रगड़से बार-बार आग प्रकट होकर ज्वालाओंके साथ प्रज्वलित होउठी और जैसे बिजली नीले मेघको ढक ले, उसी प्रकार उसने मन्दराचलको आच्छादितकर लिया ।। २३ ।।

ददाह कुञ्जरांस्तत्र सिंहांश्चैव विनिर्गतान् ।

विगतासूनि सर्वाणि सत्त्वानि विविधानि च ।। २४ ।।

उस दावानलने पर्वतीय गजराजों, गुफाओंसे निकले हुए सिंहों तथा अन्यान्य सहस्रोंजन्तुओंको जलाकर भस्म कर दिया। उस पर्वतपर जो नाना प्रकारके जीव रहते थे, वे सबअपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे ।। २४ ।।

तमग्निममरश्रेष्ठः प्रदहन्तमितस्ततः ।

वारिणा मेघजेनेन्द्रः शमयामास सर्वशः ।। २५ ।।

तब देवराज इन्द्रने इधर-उधर सबको जलाती हुई उस आगको मेघोंके द्वारा जलबरसाकर सब ओरसे बुझा दिया ।। २५ ।।

ततो नानाविधास्तत्र सुस्ुवुः सागराम्भसि ।

महाद्रुमाणां निर्यासा बहवश्चौषधीरसाः ।। २६ ।।

तदनन्तर समुद्रके जलमें बड़े-बड़े वृक्षोंके भाँति-भाँतिके गोंद तथा ओषधियोंके प्रचुररस चू-चूकर गिरने लगे ।। २६ ।।

तेषाममृतवीर्याणां रसानां पयसैव च ।

अमरत्वं सुरा जग्मुः काञ्चनस्य च निः:स्रवात् ।। २७ ।।

वृक्षों और ओषधियोंके अमृततुल्य प्रभावशाली रसोंके जलसे तथा सुवर्णमयमन्दराचलकी अनेक दिव्य प्रभावशाली मणियोंसे चूनेवाले रससे ही देवतालोग अमरत्वकोप्राप्त होने लगे ।। २७ ।।

ततस्तस्य समुद्रस्य तज्जातमुदकं पयः ।

रसोत्तमैर्विमिश्रं च ततः क्षीरादभूद् घृतम् ।। २८ ।।

उन उत्तम रसोंके सम्मिश्रणसे समुद्रका सारा जल दूध बन गया और दूधसे घी बननेलगा।। २८ ।।

ततो ब्रह्माणमासीनं देवा वरदमब्रुवन् ।

श्रान्ताः स्म सुभृशं ब्रह्मन् नोद्भवत्यमृतं च तत् ।। २९ ।।

विना नारायणं देवं सर्वेऽन्ये देवदानवाः ।

चिरारब्धमिदं चापि सागरस्यापि मन्थनम् ।। ३० ।।

तब देवतालोग वहाँ बैठे हुए वरदायक ब्रह्माजीसे बोले-‘ब्रह्मन्! भगवान् नारायणकेअतिरिक्त हम सभी देवता और दानव बहुत थक गये हैं; किंतु अभीतक वह अमृत प्रकटनहीं हो रहा है। इधर समुद्रका मन्थन आरम्भ हुए बहुत समय बीत चुका है’ ।। २९ -३० ।।

ततो नारायणं देवं ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ।

विधत्स्वैषां बलं विष्णो भवानत्र परायणम् ।। ३१ ।।

यह सुनकर ब्रह्माजीने भगवान् नारायणसे यह बात कही- ‘ सर्वव्यापी परमात्मन्! इन्हेंबल प्रदान कीजिये, यहाँ एकमात्र आप ही सबके आश्रय हैं’ ।। ३१ ।।

विष्णुरुवाच

बलं ददामि सर्वेषां कर्मैतद् ये समास्थिताः।

क्षोभ्यतां कलशः सर्वैर्मन्दरः परिवर्त्यताम् ।। ३२ ।।

श्रीविष्णु बोले-जो लोग इस कार्यमें लगे हुए हैं, उन सबको मैं बल दे रहा हूँ। सबलोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचलको घुमावें और इस सागरको क्षुब्ध कर दें ।। ३२ ।।

सौतिरुवाच

नारायणवचः श्रुत्वा बलिनस्ते महोदधेः ।

तत् पयः सहिता भूयश्चक्रिरे भृशमाकुलम् ।। ३३ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकजी! भगवान् नारायणका वचन सुनकर देवताओं औरदानवोंका बल बढ़ गया। उन सबने मिलकर पुनः वेगपूर्वक महासागरका वह जल मथनाआरम्भ किया और उस समस्त जलराशिको अत्यन्त क्षुब्ध कर डाला ।। ३३ ।।

ततः शतसहस्रांशुर्मथ्यमानात्तु सागरात् ।

प्रसन्नात्मा समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्ज्वल: । ३४ ।।

फिर तो उस महासागरसे अनन्त किरणोंवाले सूर्यके समान तेजस्वी, शीतल प्रकाशसेयुक्त, श्वेतवर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ ।। ३४ ।।

श्रीरनन्तरमुत्पन्ना घृतात् पाण्डुरवासिनी ।

सुरादेवी समुत्पन्ना तुरगः पाण्डुरस्तथा ।। ३५ ।।

तदनन्तर उस घृतस्वरूप जलसे श्वेतवस्त्रधारिणी लक्ष्मीदेवीका आविर्भाव हुआ। इसकेबाद सुरादेवी और श्वेत अश्व प्रकट हुए ।। ३५ ।।

कौस्तुभस्तु मणिर्दिव्य उत्पन्नो घृतसम्भवः ।

मरीचिविकचः श्रीमान् नारायण उरोगतः ।। ३६ ।।

फिर अनन्त किरणोंसे समुज्ज्वल दिव्य कौस्तुभमणिका उस जलसे प्रादुर्भाव हुआ, जोभगवान् नारायणके वक्षःस्थलपर सुशोभित हुई।। ३६ ।।

(पारिजातश्च तत्रैव सुरभिश्च महामुने ।

जज्ञाते तौ तदा ब्रह्मन् सर्वकामफलप्रदौ ।।)

श्रीः सुरा चैव सोमश्च तुरगश्च मनोजवः ।

यतो देवास्ततो जग्मुरादित्यपथमाश्रिताः ॥ ३७ ।।

ब्रह्मन्! महामुने! वहाँ सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाले पारिजात वृक्ष एवं सुरभिगौकी उत्पत्ति हुई। फिर लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा तथा मनके समान वेगशाली उच्चै:श्रवा घोड़ा-ये सब सूर्यके मार्ग आकाशका आश्रय ले, जहाँ देवता रहते हैं, उस लोकमें चलेगये ।। ३७ ।।

धन्वन्तरिस्ततो देवो वपुष्मानुदतिष्ठत ।

श्वेतं कमण्डलुं बिभ्रदमृतं यत्र तिष्ठति ।। ३८ ।।

इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए । वे अपने हाथमें श्वेत कलश लियेहुए थे, जिसमें अमृत भरा था ।। ३८ ।।

एतदत्यद्भुतं दृष्ट्वा दानवानां समुत्थितः ।

अमृतार्थे महान् नादो ममेदमिति जल्पताम् ।। ३९ ।।

यह अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखकर दानवोंमें अमृतके लिये कोलाहल मच गया। वे सबकहने लगे ‘यह मेरा है, यह मेरा है’ ।। ३९ ।।

श्वेतैर्दन्तैश्चतुर्भिस्तु महाकायस्ततः परम् ।

ऐरावतो महानागोऽभवद् वज्रभृता धृतः ।। ४० ।।

तत्पश्चात् श्वेत रंगके चार दाँतोंसे सुशोभित विशालकाय महानाग ऐरावत प्रकट हुआ,जिसे वज्रधारी इन्द्रने अपने अधिकारमें कर लिया ।। ४० ।।

अतिनिर्मथनादेव कालकूटस्ततः परः ।

जगदावृत्य सहसा सधूमोऽग्निरिव ज्वलन् ।। ४१ ।।

तदनन्तर अत्यन्त वेगसे मथनेपर कालकूट महाविष उत्पन्न हुआ, वह धूमयुक्त अग्निकीभाँति एकाएक सम्पूर्ण जगत्को घेरकर जलाने लगा ।। ४१ ।।

त्रैलोक्यं मोहितं यस्य गन्धमाघ्राय तद् विषम् ।

प्राग्रसल्लोकरक्षार्थं ब्रह्मणो वचनाच्छिवः ।। ४२ ।।

उस विषकी गन्ध सूँघते ही त्रिलोकीके प्राणी मूर्च्छित हो गये। तब ब्रह्माजीके प्रार्थनाकरनेपर भगवान् श्रीशंकरने त्रिलोकीकी रक्षाके लिये उस महान् विषको पी लिया ।। ४२ ।।

दधार भगवान् कण्ठे मन्त्रमूर्तिर्महेश्वरः ।

तदाप्रभृति देवस्तु नीलकण्ठ इति श्रुतिः ।। ४३ ।।

मन्त्रमूर्ति भगवान् महेश्वरने विषपान करके उसे अपने कण्ठमें धारण कर लिया।तभीसे महादेवजी नीलकण्ठके नामसे विख्यात हुए, ऐसी जनश्रुति है ।। ४३ ।।

एतत् तदद्भुतं दृष्ट्वा निराशा दानवाः स्थिताः ।

अमृतार्थे च लक्ष्म्यर्थे महान्तं वैरमाश्रिताः ।। ४४ ।।

ये सब अद्भुत बातें देखकर दानव निराश हो गये और अमृत तथा लक्ष्मीके लियेउन्होंने देवताओंके साथ महान् वैर बाँध लिया ।।४४॥

ततो नारायणो मायां मोहिनीं समुपाश्रितः।

स्त्रीरूपमद्भुतं कृत्वा दानवानभिसंश्रितः ॥ ४५ ।।

उसी समय भगवान् विष्णुने मोहिनी मायाका आश्रय ले मनोहारिणी स्त्रीका अद्भुतरूप बनाकर, दानवोंके पास पदार्पण किया ।। ४५ ।।

ततस्तदमृतं तस्यै ददुस्ते मूढचेतसः ।

स्त्रियै दानवदैतेयाः सर्वे तद्गतमानसाः ।। ४६ ।।

समस्त दैत्यों और दानवोंने उस मोहिनीपर अपना हृदय निछावर कर दिया। उनकेचित्तमें मूढ़ता छा गयी। अतः उन सबने स्त्रीरूपधारी भगवान्को वह अमृत सौंपदिया ।। ४६ ।।

(सा तु नारायणी माया धारयन्ती कमण्डलुम् ।

आस्यमानेषु दैत्येषु पङ्क्त्या च प्रति दानवैः ।

देवानपाययद् देवी न दैत्यांस्ते च चुक्रुशुः ।।)

भगवान् नारायणकी वह मूर्तिमती माया हाथमें कलश लिये अमृत परोसने लगी। उससमय दानवोंसहित दैत्य पंगत लगाकर बैठे ही रह गये, परंतु उस देवीने देवताओंको हीअमृत पिलाया; दैत्योंको नहीं दिया, इससे उन्होंने बड़ा कोलाहल मचाया।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थनेऽष्टादशोऽध्यायः॥१८॥ इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थनविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १८ ।।

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४८ ३ श्लोक हैं)

एकोनविंशोऽध्यायः

देवताओंका अमृतपान, देवासुरसंग्राम तथा देवताओंकी विजय

सौतिरुवाच

अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च ।

प्रगृह्याभ्यद्रवन् देवान् सहिता दैत्यदानवाः ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-अमृत हाथसे निकल जानेपर दैत्य और दानव संगठित हो गयेऔर उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओंपर टूट पड़े ।। १ ।।

ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान् ।

जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः ।। २ ।।

ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा ।

विष्णोः सकाशात् सम्प्राप्य सम्भ्रमे तुमुले सति ।। ३ ।।

उधर अनन्त शक्तिशाली नरसहित भगवान् नारायणने जब मोहिनीरूप धारण करकेदानवेन्द्रोंके हाथसे अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान् विष्णुसे अमृत ले-लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्धकी सम्भावना हो गयी थी ।। २-३ ।।

ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम् ।

राहुर्विबुधरूपेण दानवः प्रापिबत् तदा ।। ४ ।।

जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृतका पान कर रहे थे, ठीक उसी समय राहु नामकदानवने देवतारूपसे आकर अमृत पीना आरम्भ किया। ४ ।।

तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा ।

आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया ।। ५ ।।

वह अमृत अभी उस दानवके कण्ठतक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्यनेदेवताओंके हितकी इच्छासे उसका भेद बतला दिया।। ५ ।।

ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम् ।

चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा ।। ६ ।।

तब चक्रधारी भगवान् श्रीहरिने अमृत पीनेवाले उस दानवका मुकुटमण्डित मस्तकचक्रद्वारा बलपूर्वक काट दिया ।। ६ ।।

भगवान् विष्णुने चक्रसे राहुका सिर काट दियातच्छैलशृङ्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत् ।

चक्रच्छिन्नं खमुत्पत्य ननादातिभयंकरम् ।। ७ ।।

चक्रसे कटा हुआ दानवका महान् मस्तक पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वहआकाशमें उछल-उछलकर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा ।। ७ ।।

तत् कबन्धं पपातास्य विस्फुरद् धरणीतले ।

सपर्वतवनद्वीपां दैत्यस्याकम्पयन् महीम् ।।८।।

किंतु उस दैत्यका वह धड़ धरतीपर गिर पड़ा और पर्वत, वन तथा द्वीपोंसहित समूचीपृथ्वीको कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा ।। ८ ।।

ततो वैरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै ।

शाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तौ ।। ९ ।।

तभीसे राहुके मुखने चन्द्रमा और सूर्यके साथ भारी एवं स्थायी वैर बाँध लिया;इसीलिये वह आज भी दोनोंपर ग्रहण लगाता है ।। ९ ।।

विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः ।

नानाप्रहरणैर्भीमैर्दानवान् समकम्पयत् ।। १० ।।

(देवताओंको अमृत पिलानेके बाद) भगवान् श्रीहरिने भी अपना अनुपम मोहिनीरूपत्यागकर नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा दानवोंको अत्यन्त कम्पित करदिया ।। १० ।।

ततः प्रवृत्तः संग्रामः समीपे लवणाम्भसः ।

सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान् ।। ११ ।।

फिर तो क्षारसागरके समीप देवताओं और असुरोंका सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़गया ।। ११ ।।

प्रासाश्च विपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रशः ।

तोमराश्च सुतीक्ष्णाग्राः शस्त्राणि विविधानि च ।। १२ ।।

दोनों दलोंपर सहस्रों तीखी धारवाले बड़े-बड़े भालोंकी मार पड़ने लगी। तेज नोकवालेतोमर तथा भाँति-भाँतिके शस्त्र बरसने लगे ।। १२ ।।

ततोऽसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु ।

असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले ।॥ १३ ।।

छिन्नानि पट्टिशैश्चैव शिरांसि युधि दारुणैः ।

तप्तकाञ्चनमालीनि निपेतुरनिशं तदा ।। १४ ।।

भगवान्के चक्रसे छिन्न-भिन्न तथा देवताओंके खड्ग, शक्ति और गदासे घायल हुएअसुर मुखसे अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर लोटने लगे। उस समय तपाये हुएसुवर्णकी मालाओंसे विभूषित दानवोंके सिर भयंकर पट्टिशोंसे कटकर निरन्तर युद्धभूमिमेंगिर रहे थे ।। १३-१४ ।।

रुधिरेणानुलिप्ताङ्गा निहताश्च महासुराः ।

अद्रीणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते ।। १५ ।।

वहाँ खूनसे लथपथ अंगवाले मरे हुए महान् असुर, जो समरभूमिमें सो रहे थे, गेरुआदि धातुओंसे रँगे हुए पर्वत-शिखरोंके समान जान पड़ते थे ।। १५ ।।

हाहाकारः समभवत् तत्र तत्र सहस्रशः ।

अन्योन्यं छिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति ।। १६ ।।

संध्याके समय जब सूर्यमण्डल लाल हो रहा था, एक- दूसरेके शस्त्रोंसे कटनेवालेसहस्रों योद्धाओंका हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूँज उठा ।। १६ ।।

परिघैरायसैस्तीक्ष्णैः संनिकर्षे च मुष्टिभिः ।

निघ्नतां समरेऽन्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत् ।। १७ ।।

उस समरांगणमें दूरवर्ती देवता और दानव लोहेके तीखे परिघोंसे एक-दूसरेपर चोटकरते थे और निकट आ जानेपर आपसमें मुक्का-मुक्की करने लगते थे । इस प्रकार उनकेपारस्परिक आघात-प्रत्याघातका शब्द मानो सारे आकाशमें गूँज उठा ।। १७ ।।

छिन्धि भिन्धि प्रधाव त्वं पातयाभिसरेति च ।

व्यश्रूयन्त महाघोराः शब्दास्तत्र समन्ततः ।। १८ ।।

उस रणभूमिमें चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि ‘टुकड़े-टुकड़े कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो’ ।। १८ ।।

एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने महाभये ।

नरनारायणौ देवौ समाजग्मतुराहवम् ।। १९ ।।

इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान् विष्णुके दो रूप नरऔर नारायणदेव भी युद्धभूमिमें आ गये ।। १९ ।।

तत्र दिव्यं धनुर्दृष्ट्वा नरस्य भगवानपि ।

चिन्तयामास तच्चक्रं विष्णुर्दानवसूदनम् ।। २० ।।

भगवान् नारायणने वहाँ नरके हाथमें दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानवसंहारक दिव्यचक्रका चिन्तन किया ।। २० ।।

ततोऽम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं महाप्रभं चक्रममित्रतापनम् ।

विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलं सुदर्शनं संयति भीमदर्शनम् ।। २१ ।।

चिन्तन करते ही शत्रुओंको संताप देनेवाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाशमार्गसे उनकेहाथमें आ गया। वह सूर्य एवं अग्निके समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकारचक्रकी गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किंतु वह युद्धमेंशत्रुओंके लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था ।। २१ ।।

तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभं भयंकरं करिकरबाहुरच्युतः ।

मुमोच वै प्रबलवदुग्रवेगवान् महाप्रभं परनगरावदारणम् ।। २२ ।।

वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओंके बड़े-बड़े नगरोंको विध्वंस कर डालनेकी शक्ति थी। हाथीकी सूँड़के समान विशाल भुजदण्डवाले उग्रवेगशाली भगवान् नारायणने उस महातेजस्वी एवं महाबलशालीचक्रको दानवोंके दलपर चलाया ।। २२ ।।

तदन्तकज्वलनसमानवर्चसं पुनः पुनन्यपतत वेगवत्तदा ।

विदारयद् दितिदनुजान् सहस्रशः करेरितं पुरुषवरेण संयुगे ।। २३ ।।

उस महासमरमें पुरुषोत्तम श्रीहरिके हाथोंसे संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीनअग्निके समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्रों दैत्यों तथा दानवोंको विदीर्ण करता हुआ बड़े वेगसे बारम्बार उनकी सेनापर पड़ने लगा ।। २३ ।।

दहत् क्वचिज्ज्वलन इवावलेलिहत् प्रसह्य तानसुरगणान् न्यकृन्तत ।

प्रवेरितं वियति मुहुः क्षितौ तथा पपौ रणे रुधिरमथो पिशाचवत् ।। २४ ।।

श्रीहरिके हाथोंसे चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्निकी भाँति अपनी लपलपाती लपटोंसे असुरोंको चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनकेटुकड़े-टुकड़े कर डालता था। इस प्रकार रणभूमिके भीतर पृथ्वी और आकाशमेंघूमकर वह पिशाचकी भाँति बार-बार रक्त पीने लगा ।। २४ ।।

तथासुरा गिरिभिरदीनचेतसो मुहुर्मुहुः सुरगणमार्दयंस्तदा ।

महाबला विगलितमेघवर्चसः सहस्रशो गगनमभिप्रपद्य ह ।। २५ ।।

इसी प्रकार उदार एवं उत्साहभरे हृदयवाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलोंकेसमान श्वेत रंगके दिखायी देते थे, उस समय सहस्रोंकी संख्यामें आकाशमें उड़-उड़कर शिलाखण्डोंकी वर्षासे बार-बार देवताओंको पीड़ित करने लगे ।। २५ ।।

अथाम्बराद् भयजननाः प्रपेदिरे सपादपा बहुविधमेघरूपिणः ।

महाद्रयः परिगलिताग्रसानवः घूम-परस्परं द्रुतमभिहत्य सस्वनाः ।। २६ ।।

तत्पश्चात् आकाशसे नाना प्रकारके लाल, पीले, नीले आदि रंगवाले बादलों-जैसे बड़े-बड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षोंसहित पृथ्वीपर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखरगलते जा रहे थे और वे एक-दूसरेसे टकराकर बड़े जोरका शब्द करते थे ।। २६ ।।

ततो मही प्रविचलिता सकानना महाद्रिपाताभिहता समन्ततः ।

परस्परं भृशमभिगर्जतां मुहू रणाजिरे भृशमभिसम्प्रवर्तिते ।। २७ ।।

उस समय एक-दूसरेको लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोरसे गरजनेवाले देवताओं औरअसुरोंके उस समरांगणमें सब ओर भयंकर मार-काट मच रही थी; बड़े-बड़े पर्वतोंकेगिरनेसे आहत हुई वनसहित सारी भूमि काँपने लगी ।। २७ ।।

नरस्ततो वरकनकाग्रभूषणै-र्महेषुभिर्गनपथं समावृणोत् ।

विदारयन् गिरिशिखराणि पत्रिभिः महाभयेऽसुरगणविग्रहे तदा ।। २८ ।।

तब उस महाभयंकर देवासुर-संग्राममें भगवान् नरने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभागवालेपंखयुक्त बड़े-बड़े बाणोंद्वारा पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण करते हुए समस्त आकाशमार्गकोआच्छादित कर दिया ।। २८ ।।

ततो महीं लवणजलं च सागरं महासुराः प्रविविशुरर्दिताः सुरैः ।

वियद्गतं ज्वलितहुताशनप्रभं सुदर्शनं परिकुपितं निशम्य ते ।। २९ ।।

इस प्रकार देवताओंके द्वारा पीड़ित हुए महादैत्य आकाशमें जलती हुई आगके समानउद्भासित होनेवाले सुदर्शन चक्रको अपने ऊपर कुपित देख पृथ्वीके भीतर और खारेपानीके समुद्रमें घुस गये ।। २९ ।।

ततः सुरैर्विजयमवाप्य मन्दरः स्वमेव देशं गमितः सुपूजितः ।

विनाद्य खं दिवमपि चैव सर्वशः ततो गताः सलिलधरा यथागतम् ।। ३० ।।

तदनन्तर देवताओंने विजय पाकर मन्दराचलको सम्मानपूर्वक उसके पूर्वस्थानपर हीपहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करनेवाले देवता अपने सिंहनादसे अन्तरिक्ष औरस्वर्गलोकको भी सब ओरसे गुँजाते हुए अपने- अपने स्थानको चले गये ।। ३० ।।

ततोऽमृतं सुनिहितमेव चक्रिरेसुराः परां मुदमभिगम्य पुष्कलाम् ।

ददौ च तं निधिममृतस्य रक्षितुंकिरीटिने बलभिदथामरैः सह ।। ३१ ।।

देवताओंको इस विजयसे बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृतको बड़ीसुव्यवस्थासे रखा। अमरोंसहित इन्द्रने अमृतकी वह निधि किरीटधारी भगवान् नरकोरक्षाके लिये सौंप दी ।। ३१ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि

अमृतमन्थनसमाप्तिर्नामैकोनविंशोऽध्यायः ।। १९ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थन-समाप्ति नामक

उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १९ ।।

विंशोऽध्यायः

कट्टू और विनताकी होड़, कद्ूद्वारा अपने पुत्रोंको शाप एवं ब्रह्माजीद्वारा उसका अनुमोदन

सौतिरुवाच

एतत् ते कथितं सर्वममृतं मथितं यथा ।

यत्र सोऽश्वः समुत्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः ।। १ ।।

यं निशम्य तदा कद्दूर्विनतामिदमब्रवीत् ।

उच्चैःश्रवा हि किं वर्णों भद्रे प्रब्रूहि माचिरम् ।। २ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकादि महर्षियो! जिस प्रकार अमृत मथकर निकाला गया,वह सब प्रसंग मैंने आपलोगोंसे कह सुनाया। उस अमृत-मन्थनके समय ही वह अनुपमवेगशाली सुन्दर अश्व उत्पन्न हुआ था, जिसे देखकर कटूने विनतासे कहा-‘भद्रे! शीघ्रबताओ तो यह उच्चैःश्रवा घोड़ा किस रंगका है?’ ।। १-२ ।।

विनतोवाच

श्वेत एवाश्वराजोऽयं किं वा त्वं मन्यसे शुभे ।

ब्रूहि वर्णं त्वमप्यस्य ततोऽत्र विपणावहे ।। ३ ।।

विनता बोली-शुभे! यह अश्वराज श्वेत वर्णका ही है। तुम इसे कैसा समझती हो?तुम भी इसका रंग बताओ, तब हम दोनों इसके लिये बाजी लगायेंगी ।। ३ ।।

कद्ूरुवाच

कृष्णवालमहं मन्ये हयमेनं शुचिस्मिते ।

एहि सार्धं मया दीव्य दासीभावाय भामिनि ।। ४ ।।

कद्ूने कहा-पवित्र मुसकानवाली बहन! इस घोड़े (का रंग तो अवश्य सफेद है, किंतुइस)-की पूँछको मैं काले रंगकी ही मानती हूँ। भामिनि! आओ, दासी होनेकी शर्त रखकरमेरे साथ बाजी लगाओ (यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी; अन्यथा तुम्हेंमेरी दासी बनना होगा) ।। ४ ।।

सौतिरुवाच

एवं ते समयं कृत्वा दासीभावाय वै मिथः ।

जग्मतुः स्वगृहानेव श्वो द्रक्ष्याव इति स्म ह ।। ५ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-इस प्रकार वे दोनों बहनें आपसमें एक-दूसरेकी दासी होनेकीशर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयीं और उन्होंने यह निश्चय किया कि कल आकरघोड़ेको देखेंगी।। ५ ।।

ततः पुत्रसहस्रं तु कट्दूर्जिह्मं चिकीर्षती ।

आज्ञापयामास तदा वाला भूत्वाञ्जनप्रभाः ।। ६ ।।

आविशध्वं हयं क्षिप्रं दासी न स्यामहं यथा।

नावपद्यन्त ये वाक्यं ताञ्छशाप भुजङ्गमान् ।। ७ ।।

सर्पसत्रे वर्तमाने पावको वः प्रधक्ष्यति ।

जनमेजयस्य राजर्षेः पाण्डवेयस्य धीमतः ।। ८ ।।

कद्रू कुटिलता एवं छलसे काम लेना चाहती थी। उसने अपने सहस्र पुत्रोंको इस समयआज्ञा दी कि तुम काले रंगके बाल बनकर शीघ्र उस घोड़ेकी पूँछमें लग जाओ , जिससे मुझेदासी न होना पड़े। उस समय जिन सर्पोने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें उसने शाप दिया कि,’जाओ, पाण्डववंशी बुद्धिमान् राजर्षि जनमेजयके सर्पयज्ञका आरम्भ होनेपर उसमेंप्रज्वलित अग्नि तुम्हें जलाकर भस्म कर देगी’ ।। ६-८।।

शापमेनं तु शुश्राव स्वयमेव पितामहः ।

अतिक्रूरं समुत्सृष्टं कद्र्वा दैवादतीव हि ।। ९ ।।

इस शापको स्वयं ब्रह्माजीने सुना। यह दैवसंयोगकी बात है कि सर्पोंको उनकी माताकट्रूकी ओरसे ही अत्यन्त कठोर शाप प्राप्त हो गया ।। ९ ।।

सार्धं देवगणैः सर्वैर्वाचं तामन्वमोदत ।

बहुत्वं प्रेक्ष्य स्पाणां प्रजानां हितकाम्यया ।। १० ।।

सम्पूर्ण देवताओंसहित ब्रह्माजीने सर्पोंकी संख्या बढ़ती देख प्रजाके हितकी इच्छासेकद्रूकी उस बातका अनुमोदन ही किया।। १० ।।

तिग्मवीर्यविषा ह्येते दन्दशूका महाबलाः ।

तेषां तीक्ष्णविषत्वाद्धि प्रजानां च हिताय च ।। ११ ।।

युक्तं मात्रा कृतं तेषां परपीडोपसर्पिणाम् ।

अन्येषामपि सत्त्वानां नित्यं दोषपरास्तु ये ।। १२ ।।

तेषां प्राणान्तको दण्डो देवेन विनिपात्यते ।

एवं सम्भाष्य देवस्तु पूज्य कदूं च तां तदा ।। १३ ।।

आहूय कश्यपं देव इदं वचनमब्रवीत् ।

यदेते दन्दशूकाश्च सर्पा जातास्त्वयानघ ।। १४ ।।

विषोल्बणा महाभोगा मात्रा शप्ताः परंतप ।

तत्र मन्युस्त्वया तात न कर्तव्यः कथंचन ।। १५ ।।

दृष्टं पुरातनं ह्येतद् यज्ञे सर्पविनाशनम् ।

इत्युक्त्वा सृष्टिकृद् देवस्तं प्रसाद्य प्रजापतिम् ।

प्रादाद् विषहरीं विद्यां कश्यपाय महात्मने ।। १६ ।।

‘ये महाबली दुःसह पराक्रम तथा प्रचण्ड विषसे युक्त हैं। अपने तीखे विषके कारण ये सदा दूसरोंको पीड़ा देनेके लिये दौड़ते-फिरते हैं। अतः समस्त प्राणियोंके हितकी दृष्टिसे इन्हें शाप देकर माता कद्रूने उचित ही किया है। जो सदा दूसरे प्राणियोंको हानि पहुँचाते रहते हैं, उनके ऊपर दैवके द्वारा ही प्राणनाशक दण्ड आ पड़ता है।’ ऐसी बात कहकर ब्रह्माजीने कद्रूकी प्रशंसा की और कश्यपजीको बुलाकर यह बात कही-‘अनघ! तुम्हारे द्वारा जो ये लोगोंको डँसनेवाले सर्प उत्पन्न हो गये हैं, इनके शरीर बहुत विशाल और विष बड़े भयंकर हैं। परंतप! इन्हें इनकी माताने शाप दे दिया है, इसके कारण तुम भी उसपर क्रोध न करना। तात! यज्ञमें सर्पोंका नाश होनेवाला है, यह पुराणवृत्तान्त तुम्हारी दृष्टिमें भी है ही।’ ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने प्रजापति कश्यपको प्रसन्न करके उन महात्माको सर्पोंका विष उतारनेवाली विद्या प्रदान की ।। ११-१६ ।।

(एवं शप्तेषु नागेषु कद्रवा च द्विजसत्तम ।

उद्विग्नः शापतस्तस्याः कद्ूं कर्कोटकोऽब्रवीत् ।।

मातरं परमप्रीतस्तदा भुजगसत्तमः ।

आविश्य वाजिनं मुख्यं वालो भूत्वाञ्जनप्रभः ।।

दर्शयिष्यामि तत्राहमात्मानं काममाश्वस ।

एवमस्त्विति तं पुत्रं प्रत्युवाच यशस्विनी ।।)

द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार माता कदूने जब नागोंको शाप दे दिया, तब उस शापसे उद्विग्न हो भुजंगप्रवर कर्कोटकने परम प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी मातासे कहा-‘मा! तुम धैर्य रखो, मैं काले रंगका बाल बनकर उस श्रेष्ठ अश्वके शरीरमें प्रविष्ट हो अपने- आपको ही इसकी काली पूँछके रूपमें दिखाऊँगा।’ यह सुनकर यशस्विनी कदूने पुत्रको उत्तर दिया -‘बेटा! ऐसा ही होना चाहिये’। किसी तरह।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकप्वणि सौपर्णे विंशोऽध्यायः ।। २० ।। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरितविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २० ।। (दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल १९ श्लोक हैं)

एकविंशोऽध्यायः

समुद्रका विस्तारसे वर्णन

सौतिरुवाच

ततो रजन्यां व्युष्टायां प्रभातेऽभ्युदिते रवौ।

कद्रुश्च विनता चैव भगिन्यौ ते तपोधन ।। १ ।।

अमर्षिते सुसंरब्धे दास्ये कृतपणे तदा ।

जग्मतुस्तुरगं द्रष्टुमुच्चैःश्रवसमन्तिकात् ।। २ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-तपोधन! तदनन्तर जब रात बीती, प्रात:काल हुआ औरभगवान् सूर्यका उदय हो गया, उस समय कद्रू और विनता दोनों बहनें बड़े जोश और रोषकेसाथ दासी होनेकी बाजी लगाकर उच्चैःश्रवा नामक अश्वको निकटसे देखनेके लियेगयीं ।। १-२ ।।

ददृशातेऽथ ते तत्र समुद्रं निधिमम्भसाम् ।

महान्तमुदकागाधं क्षोभ्यमाणं महास्वनम् ।। ३ ।।

कुछ दूर जानेपर उन्होंने मार्गमें जलनिधि समुद्रको देखा , जो महान् होनेके साथ हीअगाध जलसे भरा था। मगर आदि जल-जन्तु उसे विक्षुब्ध कर रहे थे और उससे बड़ेजोरकी गर्जना हो रही थी ।। ३ ।।

तिमिङ्गिलझषाकीर्ण मकरैरावृतं तथा ।

सत्त्वैश्च बहुसाहस्रैर्नानारूपैः समावृतम् ।। ४ ।।

वह तिमि नामक बड़े-बड़े मत्स्योंको भी निगल जानेवाले तिमिंगिलों, मत्स्यों तथा मगरआदिसे व्याप्त था। नाना प्रकारकी आकृतिवाले सहस्रों जल-जन्तु उसमें भरे हुए थे ।। ४ ।

भीषणैर्विकृतैरन्यैर्घोरैर्जलचरैस्तथा ।

उग्रैर्नित्यमनाधृष्यं कूर्मग्राहसमाकुलम् ।। ५ ।।

विकट आकारवाले दूसरे-दूसरे घोर डरावने जलचरों तथा उग्र जल-जन्तुओंके कारणवह महासागर सदा सबके लिये दुर्धर्ष बना हुआ था। उसके भीतर बहुत-से कछुए और ग्राहनिवास करते थे ।। ५ ।।

आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च।

नागानामालयं रम्यमुत्तमं सरितां पतिम् ।। ६ ।।

सरिताओंका स्वामी वह महासागर सम्पूर्ण रत्नोंकी खान, वरुणदेवका निवासस्थानऔर नागोंका रमणीय उत्तम गृह है ।। ६ ।।

पातालज्वलनावासमसुराणां च बान्धवम् ।

भयंकरं च सत्त्वानां पयसां निधिमर्णवम् ।। ७ ।।

पातालकी अग्नि-बड़वानलका निवास भी उसीमें है। असुरोंको तो वह जलनिधिसमुद्र भाई-बन्धुकी भाँति शरण देनेवाला है तथा दूसरे थलचर जीवोंके लिये अत्यन्तभयदायक है ।। ७ ।।

शुभं दिव्यममत्यांनाममृतस्याकरं परम् ।

अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलमद्भुतम् । ८।।

अमरोंके अमृतकी खान होनेसे वह अत्यन्त शुभ एवं दिव्य माना जाता है। उसका कोईमाप नहीं है। वह अचिन्त्य, पवित्र जलसे परिपूर्ण तथा अद्भुत है ।। ८ ।।

घोरं जलचरारावरौद्रं भैरवनिःस्वनम् ।

गम्भीरावर्तकलिलं सर्वभूतभयंकरम् ।। ९ ॥

वह घोर समुद्र जल-जन्तुओंके शब्दोंसे और भी भयंकर प्रतीत होता था, उससे भयंकरगर्जना हो रही थी, उसमें गहरी भँवरें उठ रही थीं तथा वह समस्त प्राणियोंके लिये भय-साउत्पन्न करता था ।। ९ ।।

वेलादोलानिलचलं क्षोभोद्वेगसमुच्छ्रितम् ।

वीचीहस्तैः प्रचलितैर्नृत्यन्तमिव सर्वतः ।। १० ।।

तटपर तीव्रवेगसे बहनेवाली वायु मानो झूला बनकर उस महासागरको चंचल कियेदेती थी। वह क्षोभ और उद्वेगसे बहुत ऊँचेतक लहरें उठाता था और सब ओर चंचलतरंगरूपी हाथोंको हिला-हिलाकर नृत्य-सा कर रहा था ।। १० ।।

चन्द्रवृद्धिक्षयवशादुद्वृत्तोर्मिसमाकुलम् ।

पाञ्चजन्यस्य जननं रत्नाकरमनुत्तमम् ।। ११ ।।

चन्द्रमाकी वृद्धि और क्षयके कारण उसकी लहरें बहुत ऊँचे उठतीं और उतरती थीं(उसमें ज्वार-भाटे आया करते थे), अतः वह उत्ताल-तरंगोंसे व्याप्त जान पड़ता था। उसीनेपांचजन्य शंखको जन्म दिया था। वह रत्नोंका आकर और परम उत्तम था ।। ११ ।।

गां विन्दता भगवता गोविन्देनामितौजसा ।

वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम् ।। १२ ।।

अमिततेजस्वी भगवान् गोविन्दने वराहरूपसे पृथ्वीको उपलब्ध करते समय उससमुद्रको भीतरसे मथ डाला था और उस मथित जलसे वह समस्त महासागर मलिन-साजान पड़ता था ।। १२ ।।

ब्रह्मर्षिणा व्रतवता वर्षाणां शतमत्रिणा ।

अनासादितगाधं च पातालतलमव्ययम् ।। १३ ।।

व्रतधारी ब्रह्मर्षि अत्रिने समुद्रके भीतरी तलका अन्वेषण करते हुए सौ वर्षोंतक चेष्टाकरके भी उसका पता नहीं पाया। वह पातालके नीचेतक व्याप्त है और पातालके नष्टहोनेपर भी बना रहता है, इसलिये अविनाशी है ।। १३ ।।

अध्यात्मयोगनिद्रां च पद्मनाभस्य सेवतः ।

युगादिकालशयनं विष्णोरमिततेजसः ।। १४ ।।

आध्यात्मिक योगनिद्राका सेवन करनेवाले अमित-तेजस्वी कमलनाभ भगवान् विष्णुके लिये वह (युगान्तकालसे लेकर) युगादिकालतक शयनागार बना रहता है ।। १४ ।।

वज्रपातनसंत्रस्तमैनाकस्याभयप्रदम् ।

डिम्बाहवार्दितानां च असुराणां परायणम् ।। १५ ।।

उसीने वज्रपातसे डरे हुए मैनाक पर्वतको अभयदान दिया है तथा जहाँ भयके मारे हाहाकार करना पड़ता है, ऐसे युद्धसे पीड़ित हुए असुरोंका वह सबसे बड़ा आश्रय है ।। १५ ।।

वडवामुखदीप्ताग्नेस्तोयहव्यप्रदं शिवम् ।

अगाधपारं विस्तीर्णमप्रमेयं सरित्पतिम् ॥ १६ ।।

बड़वानलके प्रज्वलित मुखमें वह सदा अपने जलरूपी हविष्यकी आहुति देता रहता है। और जगत्के लिये कल्याणकारी है। इस प्रकार वह सरिताओंका स्वामी समुद्र अगाध, अपार, विस्तृत और अप्रमेय है ।। १६ ।।

महानदीभिर्बह्वीभिः स्पर्धयेव सहस्रशः ।

अभिसार्यमाणमनिशं ददृशाते महार्णवम् ।

आपूर्यमाणमत्यर्थं नृत्यमानमिवोर्मिभिः ॥ १७ ।।

सहस्रों बड़ी-बड़ी नदियाँ आपसमें होड़-सी लगाकर उस विस्तृत महासागरमें निरन्तर मिलती रहती हैं और अपने जलसे उसे सदा परिपूर्ण किया करती हैं। वह ऊँची-ऊँची लहरोंकी भुजाएँ ऊपर उठाये निरन्तर नृत्य करता-सा जान पड़ता है ।। १७ ।।

गम्भीरं तिमिमकरोग्रसंकुलं तं गर्जन्तं जलचररावरौद्रनादैः ।

विस्तीर्ण ददृशतुरम्बरप्रकाशं तेऽगाधं निधिमुरुमम्भसामनन्तम् ।। १८ ।।

इस प्रकार गम्भीर, तिमि और मकर आदि भयंकर जल-जन्तुओंसे व्याप्त, जलचर जीवोंके शब्दरूप भयंकर नादसे निरन्तर गर्जना करनेवाले, अत्यन्त विस्तृत, आकाशके समान स्वच्छ, अगाध, अनन्त एवं महान् जलनिधि समुद्रको कद्रू और विनताने देखा ।। १८ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकविंशोऽध्यायः ।। २१ ।। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरितके प्रसंगमें इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २१ ।।

द्वाविंशोऽध्यायः

नागोंद्वारा उच्चैःश्रवाकी पूँछको काली बनाना; कद्रू और विनताका समुद्रको देखते हुए आगे बढ़ना

सौतिरुवाच

नागाश्च संविदं कृत्वा कर्तव्यमिति तद्वचः ।

नि:स्नेहा वै दहेन्माता असम्प्राप्तमनोरथा ।। १ ।।

प्रसन्ना मोक्षयेदस्मांस्तस्माच्छापाच्च भामिनी ।

कृष्णं पुच्छं करिष्यामस्तुरगस्य न संशयः ।। २ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-महर्षियो! इधर नागोंने परस्पर विचार करके यह निश्चय कियाकि ‘हमें माताकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। यदि इसका मनोरथ पूरा न होगा तो वहस्नेहभाव छोड़कर रोषपूर्वक हमें जला देगी। यदि इच्छा पूर्ण हो जानेसे प्रसन्न हो गयी तोवह भामिनी हमें अपने शापसे मुक्त कर सकती है; इसलिये हम निश्चय ही उस घोड़ेकीपूँछको काली कर देंगे’ ।। १-२ ।।

तथा हि गत्वा ते तस्य पुच्छे वाला इव स्थिताः।

एतस्मिन्नन्तरे ते तु सपत्न्यौ पणिते तदा ।। ३ ।।

ततस्ते पणितं कृत्वा भगिन्यौ द्विजसत्तम ।

जग्मतुः परया प्रीत्या परं पारं महोदधेः ।। ४ ।।

कद्रूश्च विनता चैव दाक्षायण्यौ विहायसा।

आलोकयन्त्यावक्षोभ्यं समुद्रं निधिमम्भसाम् ।। ५ ।।

वायुनातीव सहसा क्षोभ्यमाणं महास्वनम् ।

तिमिंगिलसमाकीर्ण मकरैरावृतं तथा ।। ६ ।।

संयुतं बहुसाहस्रैः सत्त्वैन्नानाविधैरपि ।

घोरैर्घोरमनाधृष्यं गम्भीरमतिभैरवम् ।। ७ ।

ऐसा विचार करके वे वहाँ गये और काले रंगके बाल बनकर उसकी पूँछमें लिपट गये।द्विजश्रेष्ठ! इसी बीचमें बाजी लगाकर आयी हुई दोनों सौतें और सगी बहनें पुनः अपनीशर्तको दुहराकर बड़ी प्रसन्नताके साथ समुद्रके दूसरे पार जा पहुँचीं। दक्षकुमारी कद्रू औरविनता आकाशमार्गसे अक्षोभ्य जलनिधि समुद्रको देखती हुई आगे बढ़ीं। वह महासागरअत्यन्त प्रबल वायुके थपेड़े खाकर सहसा विक्षुब्ध हो रहा था। उससे बड़े जोरकी गर्जनाहोती थी। तिमिंगिल और मगरमच्छ आदि जलजन्तु उसमें सब ओर व्याप्त थे। नानाप्रकारके भयंकर जन्तु सहस्रोंकी संख्यामें उसके भीतर निवास करते थे। इन सबके कारणवह अत्यन्त घोर और दुर्धर्ष जान पड़ता था तथा गहरा होनेके साथ ही अत्यन्त भयंकरथा ।। ३-७ ।।

आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च।

नागानामालयं चापि सुरम्यं सरितां पतिम् ।। ८ ।।

नदियोंका वह स्वामी सब प्रकारके रत्नोंकी खान, वरुणका निवासस्थान तथा नागोंकासुरम्य गृह था ।। ८ ।।

पातालज्वलनावासमसुराणां तथाऽऽलयम् ।

भयंकराणां सत्त्वानां पयसो निधिमव्ययम् ।। ९ ।।

वह पातालव्यापी बड़वानलका आश्रय, असुरोंके छिपनेका स्थान, भयंकर जन्तुओंकाघर, अनन्त जलका भण्डार और अविनाशी था ।। ९ ।।

शुभ्रं दिव्यममत्यांनाममृतस्याकरं परम् ।

अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलसम्मितम् ।। १० ।।

वह शुभ्र, दिव्य, अमरोंके अमृतका उत्तम उत्पत्ति-स्थान, अप्रमेय, अचिन्त्य तथा परमपवित्र जलसे परिपूर्ण था ।। १० ।।

महानदीभिर्बह्वीभिस्तत्र तत्र सहस्रशः ।

आपूर्यमाणमत्यर्थं नृत्यन्तमिव चोर्मिभिः ।। ११ ।।

बहुत-सी बड़ी-बड़ी नदियाँ सहस्रोंकी संख्यामें आकर उसमें यत्र- तत्र मिलतीं और उसेअधिकाधिक भरती रहती थीं। वह भुजाओंके समान ऊँची लहरोंको ऊपर उठाये नृत्य-साकर रहा था ।। ११ ।।

इत्येवं तरलतरोर्मिसंकुलं तं गम्भीरं विकसितमम्बरप्रकाशम् ।

पातालज्वलनशिखाविदीपिताङ्गं गर्जन्तं द्रुतमभिजग्मतुस्ततस्ते ।। १२ ।।

इस प्रकार अत्यन्त तरल तरंगोंसे व्याप्त, आकाशके समान स्वच्छ, बड़वानलकीशिखाओंसे उद्भासित, गम्भीर, विकसित और निरन्तर गर्जन करनेवाले महासागरको देखतीहुई वे दोनों बहनें तुरंत आगे बढ़ गयीं ।। १२ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौप्णे समुद्रदर्शनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ।। २२ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गात आस्तीकपर्वमें गरुडचरितके प्रसंगमें समुद्रदर्शन नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २२ ।।

त्रयोविंशोऽध्यायः

पराजित विनताका कद्रूकी दासी होना, गरुडकी उत्पत्ति तथा देवताओंद्वारा उनकी स्तुति

सौतिरुवाच

तं समुद्रमतिक्रम्य कद्ूर्विनतया सह ।

न्यपतत् तुरगाभ्याशे नचिरादिव शीघ्रगा ।। १ ।।

ततस्ते तं हयश्रेष्ठं ददृशाते महाजवम् ।

शशाङ्ककिरणप्रख्यं कालवालमुभे तदा ।। २ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! तदनन्तर शीघ्रगामिनी कद्रू विनताके साथ उससमुद्रको लाँघकर तुरंत ही उच्चैःश्रवा घोड़ेके पास पहुँच गयीं| उस समय चन्द्रमाकीकिरणोंके समान श्वेत वर्णवाले उस महान् वेगशाली श्रेष्ठ अश्वको उन दोनोंने कालीपूँछवाला देखा ।। १-२ ।।

निशम्य च बहून् बालान् कृष्णान् पुच्छसमाश्रितान् ।

विषण्णरूपां विनतां कद्रुर्दास्ये न्ययोजयत् ।। ३ ।।

पूँछके घनीभूत बालोंको काले रंगका देखकर विनता विषादकी मूर्ति बन गयी औरकद्ूने उसे अपनी दासीके काममें लगा दिया ।। ३ ।।

ततः सा विनता तस्मिन् पणितेन पराजिता ।

अभवद् दुःखसंतप्ता दासीभावं समास्थिता ।। ४ ।।

पहलेकी लगायी हुई बाजी हारकर विनता उस स्थानपर दुःखसे संतप्त हो उठी औरउसने दासीभाव स्वीकार कर लिया ।। ४ ।।

एतस्मिन्नन्तरे चापि गरुडः काल आगते ।

विना मात्रा महातेजा विदार्याण्डमजायत ।। ५ ।।

इसी बीचमें समय पूरा होनेपर महातेजस्वी गरुड माताकी सहायताके बिना ही अण्डाफोड़कर बाहर निकल आये ।। ५ ।।

महासत्त्वबलोपेतः सर्वा विद्योतयन् दिशः ।

कामरूपः कामगमः कामवीर्यो विहंगमः ।। ६ ।।

वे महान् साहस और पराक्रमसे सम्पन्न थे। अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशितकर रहे थे। उनमें इच्छानुसार रूप धारण करनेकी शक्ति थी। वे जहाँ जितनी जल्दी जानाचाहें जा सकते थे और अपनी रुचिके अनुसार पराक्रम दिखला सकते थे। उनका प्राकट्यआकाशचारी पक्षीके रूपमें हुआ था ।। ६ ।।

अग्निराशिरिवोद्भासन् समिद्धोऽतिभयंकरः ।

विद्युद्धिस्पष्टपिङ्गाक्षो युगान्ताग्निसमप्रभः ।। ७ ।।

वे प्रज्वलित अग्नि-पुंजके समान उद्भासित होकर अत्यन्त भयंकर जान पड़ते थे ।उनकी आँखें बिजलीके समान चमकनेवाली और पिंगलवर्णकी थीं। वे प्रलयकालकीअग्निके समान प्रज्वलित एवं प्रकाशित हो रहे थे ।। ७ ।।

प्रवृद्धः सहसा पक्षी महाकायो नभोगतः ।

घोरो घोरस्वनो रौद्रो वह्निरौर्व इवापरः ।।८।।

उनका शरीर थोड़ी ही देरमें बढ़कर विशाल हो गया। पक्षी गरुड आकाशमें उड़ चले।वे स्वयं तो भयंकर थे ही, उनकी आवाज भी बड़ी भयानक थी। वे दूसरे बड़वानलकी भाँतिबड़े भीषण जान पड़ते थे ।। ८ ।।

तं दृष्ट्वा शरणं जग्मुर्देवाः सर्वे विभावसुम् ।

प्रणिपत्याब्रुवंश्चैनमासीनं विश्वरूपिणम् ।। ९ ।।

उन्हें देखकर सब देवता विश्वरूपधारी अग्निदेवकी शरणमें गये और उन्हें प्रणाम करकेबैठे हुए उन अग्निदेवसे इस प्रकार बोले-।। ९ ।।

अग्ने मा त्वं प्रवर्धिष्ठाः कच्चिन्नो न दिधक्षसि ।

असौ हि राशिः सुमहान् समिद्धस्तव सर्पति ।। १० ।।

‘अग्ने! आप इस प्रकार न बढ़े। आप हमलोगोंको जलाकर भस्म तो नहीं कर डालनाचाहते हैं? देखिये, वह आपका महान्, प्रज्वलित तेज: पुंज इधर ही फैलता आ रहाहै’ ।। १० ।।

अग्निरुवाच

नैतदेवं यथा यूयं मन्यध्वमसुरार्दनाः ।

गरुडो बलवानेष मम तुल्यश्च तेजसा । ११ ।।

अग्निदेवने कहा-असुरविनाशक देवताओ! तुम जैसा समझ रहे हो, वैसी बात नहींहै। ये महाबली गरुड हैं, जो तेजमें मेरे ही तुल्य हैं ।। ११ ।।

जातः परमतेजस्वी विनतानन्दवर्धनः।

तेजोराशिमिमं दृष्ट्वा युष्मान् मोहः समाविशत् ।। १२ ।।

विनताका आनन्द बढ़ानेवाले ये परम तेजस्वी गरुड इसी रूपमें उत्पन्न हुए हैं। तेजकेपुंजरूप इन गरुडको देखकर ही तुमलोगोंपर मोह छा गया है ।। १२ ।।

नागक्षयकरश्चैव काश्यपेयो महाबलः ।

देवानां च हिते युक्तस्त्वहितो दैत्यरक्षसाम् ।। १३ ।।

कश्यपनन्दन महाबली गरुड नागोंके विनाशक, देवताओंके हितैषी और दैत्यों तथाराक्षसोंके शत्रु हैं ।। १३ ।।

न भीः कार्या कथं चात्र पश्यध्वं सहिता मम ।

एवमुक्तास्तदा गत्वा गरुडं वाग्भिरस्तुवन् ।। १४ ।।

इनसे किसी प्रकारका भय नहीं करना चाहिये। तुम मेरे साथ चलकर इनका दर्शनकरो। अग्निदेवके ऐसा कहनेपर उस समय देवताओं तथा ऋषियोंने गरुडके पास जाकरअपनी वाणीद्वारा उनका इस प्रकार स्तवन किया (यहाँ परमात्माके रूपमें गरुडकी स्तुतिकी गयी है) ।। १४।।

देवा ऊचुः

ते दूसदभ्युपेत्यैनं देवाः सर्षिगणास्तदा ।

त्वमृषिस्त्वं महाभागस्त्वं देवः पतगेश्वरः ।। १५ ।।

देवता बोले-प्रभो! आप मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं; आप ही महाभाग देवता तथा आप हीपतगेश्वर (पक्षियों तथा जीवोंके स्वामी) हैं ।। १५ ।।

त्वं प्रभुस्तपनः सूर्यः परमेष्ठी प्रजापतिः ।

त्वमिन्द्रस्त्वं हयमुखस्त्वं शर्वस्त्वं जगत्पतिः । १६ ।।

आप ही प्रभु, तपन, सूर्य, परमेष्ठी तथा प्रजापति हैं। आप ही इन्द्र हैं, आप ही हयग्रीवहैं, आप ही शिव हैं तथा आप ही जगत्के स्वामी हैं ।। १६ ।।

त्वं मुखं पद्मजो विप्रस्त्वमग्निः पवनस्तथा।

त्वं हि धाता विधाता च त्वं विष्णुः सुरसत्तमः ।। १७ ।।

आप ही भगवान्के मुखस्वरूप ब्राह्मण, पद्मयोनि ब्रह्मा और विज्ञानवान् विप्र हैं, आपही अग्नि तथा वायु हैं, आप ही धाता, विधाता और देवश्रेष्ठ विष्णु हैं ।। १७ ।

त्वं महानभिभूः शश्वदमृतं त्वं महद् यशः ।

त्वं प्रभास्त्वमभिप्रेतं त्वं नस्त्राणमनुत्तमम् ।। १८ ।।

आप ही महत्तत्त्व और अहंकार हैं। आप ही सनातन, अमृत और महान् यश हैं। आपही प्रभा और आप ही अभीष्ट पदार्थ हैं। आप ही हमलोगोंके सर्वोत्तम रक्षक हैं ।। १८ ।।

बलोर्मिमान् साधुरदीनसत्त्वः समृद्धिमान् दुर्विषहस्त्वमेव ।

त्वत्तः सृतं सर्वमहीनकीर्ते ह्यनागतं चोपगतं च सर्वम् ।। १९ ।।

आप बलके सागर और साधु पुरुष हैं। आपमें उदार सत्त्वगुण विराजमान है। आपमहान् ऐश्वर्यशाली हैं। युद्धमें आपके वेगको सह लेना सभीके लिये सर्वथा कठिन है।पुण्यश्लोक! यह सम्पूर्ण जगत् आपसे ही प्रकट हुआ है। भूत, भविष्य और वर्तमान सबकुछ आप ही है ।। १९ ।।

त्वमुत्तमः सर्वमिदं चराचरंगरभस्तिभिर्भानुरिवावभाससे ।

समाक्षिपन् भानुमतः प्रभां मुहु-स्त्वमन्तकः सर्वमिदं ध्रुवाध्रुवम् ।। २० ।।

आप उत्तम हैं। जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे सबको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आपइस सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करते हैं। आप ही सबका अन्त करनेवाले काल हैं और बारम्बार सूर्यकी प्रभाका उपसंहार करते हुए इस समस्त क्षर और अक्षररूप जगत्का संहार करते हैं ।। २० ।।

दिवाकरः परिकुपितो यथा दहेत् प्रजास्तथा दहसि हुताशनप्रभ।

भयंकरः प्रलय इवाग्निरुत्थितो विनाशयन् युगपरिवर्तनान्तकृत् ।। २१ ।।

अग्निके समान प्रकाशित होनेवाले देव! जैसे सूर्य क्रुद्ध होनेपर सबको जला सकते हैं,उसी प्रकार आप भी कुपित होनेपर सम्पूर्ण प्रजाको दग्ध कर डालते हैं। आप युगान्तकारी कालके भी काल हैं और प्रलयकालमें सबका विनाश करनेके लिये भयंकर संवर्तकाग्निके रूपमें प्रकट होते हैं ।। २१ ।।

खगेश्वरं शरणमुपागता वयं महौजसं ज्वलनसमानवर्चसम् ।

तडित्प्रभं वितिमिरमभ्रगोचरं महाबलं गरुडमुपेत्य खेचरम् ।। २२ ।।

आप सम्पूर्ण पक्षियों एवं जीवोंके अधीश्वर हैं। आपका ओज महान् है । आप अग्निकेसमान तेजस्वी हैं। आप बिजलीके समान प्रकाशित होते हैं। आपके द्वारा अज्ञानपुंजका निवारण होता है। आप आकाशमें मेघोंकी भाँति विचरनेवाले महापराक्रमी गरुड हैं। हम यहाँ आकर आपके शरणागत हो रहे हैं ।। २२ ।।

परावरं वरदमजय्यविक्रमं तवौजसा सर्वमिदं प्रतापितम् ।

जगत्प्रभो तप्तसुवर्णवर्चसा त्वं पाहि सर्वाश्च सुरान् महात्मनः ।। २३ ।।

आप ही कार्य और कारणरूप हैं। आपसे ही सबको वर मिलता है। आपका पराक्रमअजेय है। आपके तेजसे यह सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो उठा है। जगदीश्वर! आप तपाये हुए सुवर्णके समान अपने दिव्य तेजसे सम्पूर्ण देवताओं और महात्मा पुरुषोंकी रक्षा करें ।। २३ ।।

भयान्विता नभसि विमानगामिनो विमानिता विपथगतिं प्रयान्ति ते ।

ऋषेः सुतस्त्वमसि दयावतः प्रभो महात्मनः खगवर कश्यपस्य ह ।। २४ ।।

पक्षिराज! प्रभो! विमानपर चलनेवाले देवता आपके तेजसे तिरस्कृत एवं भयभीत होआकाशमें पथभ्रष्ट हो जाते हैं। आप दयालु महात्मा महर्षि कश्यपके पुत्र हैं ।। २४ ।।

स मा क्रुधः कुरु जगतो दयां परां त्वमीश्वरः प्रशममुपैहि पाहि नः ।

महाशनिस्फुरितसमस्वनेन ते दिशोऽम्बरं त्रिदिवमियं च मेदिनी ।। २५ ।।

चलन्ति नः खग हृदयानि चानिशं निगृह्यतां वपुरिदमग्निसंनिभम् ।

तव द्युतिं कुपितकृतान्तसंनिरभां निशम्य नश्चलति मनोऽव्यवस्थितम् ।

प्रसीद नः पतगपते प्रयाचतां शिवश्च नो भव भगवन् सुखावहः ।। २६ ।।

प्रभो! आप कुपित न हों, सम्पूर्ण जगत्पर उत्तम दयाका विस्तार करें। आप ईश्वर हैं,अतः शान्ति धारण करें और हम सबकी रक्षा करें। महान् वज्रकी गड़गड़ाहटके समानआपकी गर्जनासे सम्पूर्ण दिशाएँ, आकाश, स्वर्ग तथा यह पृथ्वी सब के सब विचलित होउठे हैं और हमारा हृदय भी निरन्तर काँपता रहता है। अतः खगश्रेष्ठ! आप अग्निके समानतेजस्वी अपने इस भयंकर रूपको शान्त कीजिये। क्रोधमें भरे हुए यमराजके समानआपकी उग्र कान्ति देखकर हमारा मन अस्थिर एवं चंचल हो जाता है। आप हम याचकोंपरप्रसन्न होइये। भगवन्! आप हमारे लिये कल्याणस्वरूप और सुखदायक होजाइये ।। २५-२६ ।।

एवं स्तुतः सुपर्णस्तु देवैः सर्षिगणैस्तदा ।

तेजसः प्रतिसंहारमात्मनः स चकार ह ।। २७ ।।

ऋषियोंसहित देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर उत्तम पंखोंवाले गरुडने उस समयअपने तेजको समेट लिया ।। २७ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयोविंशोऽध्यायः ।। २३ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २३ ।।

चतुर्विंशोऽध्यायः

गरुडके द्वारा अपने तेज और शरीरका संकोच तथा सूर्यकेक्रोधजनित तीव्र तेजकी शान्तिके लिये अरुणका उनके रथपर स्थित होना

सौतिरुवाच

स श्रुत्वाथात्मनो देहं सुपर्णः प्रेक्ष्य च स्वयम् ।

शरीरप्रतिसंहारमात्मनः सम्प्रचक्रमे ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकादि महर्षियो! देवताओंद्वारा की हुई स्तुति सुनकरगरुडजीने स्वयं भी अपने शरीरकी ओर दृष्टिपात किया और उसे संकुचित कर लेनेकीतैयारी करने लगे ।। १ ।।

सुपर्ण उवाच

न मे सर्वाणि भूतानि विभियुर्देहदर्शनात् ।

भीमरूपात् समुद्धिग्नास्तस्मात् तेजस्तु संहरे ।। २ ।।

गरुडजीने कहा-देवताओ! मेरे इस शरीरको देखनेसे संसारके समस्त प्राणी उसभयानक स्वरूपसे उद्विग्न होकर डर न जायँ इसलिये मैं अपने तेजको समेट लेताहूँ ।। २ ।।

सौतिरुवाच

ततः कामगमः पक्षी कामवीर्यो विहंगमः ।

अरुणं चात्मनः पृष्ठमारोप्य स पितुर्गृहात् ।। ३ ।।

मातुरन्तिकमागच्छत् परं तीरं महोदधेः ।उग्रश्रवाजी कहते हैं-तदनन्तर इच्छानुसार चलने तथा रुचिके अनुसार पराक्रमप्रकट करनेवाले पक्षी गरुड अपने भाई अरुणको पीठपर चढ़ाकर पिताके घरसे माताकेसमीप महासागरके दूसरे तटपर आये ।। ३ ।।

तत्रारुणश्च निक्षिप्तो दिशं पूर्वां महाद्युतिः ।। ४ ।।

सूर्यस्तेजोभिरत्युग्रैल्लोकान् दग्धुमना यदा ।जब सूर्यने अपने भयंकर तेजके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध करनेका विचार किया,उस समय गरुडजी महान् तेजस्वी अरुणको पुनः पूर्व दिशामें लाकर सूर्यके समीप रखआये ।। ४ ।।

रुरुरुवाचकिमर्थं भगवान् सूर्यो लोकान् दग्धुमनास्तदा ।। ५ ।।

किमस्यापहृतं देवैर्येनेमं मन्युराविशत् ।रुरुने पूछा-पिताजी! भगवान् सूर्यने उस समय सम्पूर्ण लोकोंको दग्ध कर डालनेकाविचार क्यों किया? देवताओंने उनका क्या हड़प लिया था, जिससे उनके मनमें क्रोधकासंचार हो गया? ।। ५ ।।

प्रमतिरुवाच

चन्द्रार्काभ्यां यदा राहुराख्यातो ह्यमृतं पिबन् ।। ६ ।।

वैरानुबन्धं कृतवांश्चन्द्रादित्यौ तदानघ ।

वध्यमाने ग्रहेणाथ आदित्ये मन्युराविशत् ।। ७ ।।

प्रमतिने कहा-अनघ! जब राहु अमृत पी रहा था, उस समय चन्द्रमा और सूर्यनेउसका भेद बता दिया; इसीलिये उसने चन्द्रमा और सूर्यसे भारी वैर बाँध लिया और उन्हेंसताने लगा। राहुसे पीड़ित होनेपर सूर्यके मनमें क्रोधका आवेश हुआ ।। ६-७ ।।

सुरार्थाय समुत्पन्नो रोषो राहोस्तु मां प्रति ।

बह्ननर्थकरं पापमेकोऽहं समवाप्नुयाम् ।। ८ ।।

वे सोचने लगे, ‘देवताओंके हितके लिये ही मैंने राहुका भेद खोला था जिससे मेरे प्रति रोष बढ़ गया। अब उसका अत्यन्त अनर्थकारी परिणाम दुःखके रूपमें अकेले मुझे राहुकाप्राप्त होता है ।। ८ ।।

सहाय एव कार्येषु न च कृच्छ्रेषु दृश्यते ।

पश्यन्ति ग्रस्यमानं मां सहन्ते वै दिवौकसः ॥ ९ ।।

‘संकटके अवसरोंपर मुझे अपना कोई सहायक ही नहीं दिखायी देता। देवतालोग मुझेराहुसे ग्रस्त होते देखते हैं तो भी चुपचाप सह लेते हैं ।। ९ ।।

तस्माल्लोकविनाशार्थं ह्युवतिष्ठे न संशयः ।

एवं कृतमतिः सूर्यों ह्यस्तमभ्यगमद् गिरिम् ।। १० ।।

‘अतः सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेके लिये निःसंदेह मैं अस्ताचलपर जाकर वहींठहर जाऊँगा।’ ऐसा निश्चय करके सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये ।। १० ।।

तस्माल्लोकविनाशाय संतापयत भास्करः ।

ततो देवानुपागम्य प्रोचुरेवं महर्षयः ।। ११ ।।

और वहींसे सूर्यदेवने सम्पूर्ण जगत्का विनाश करनेके लिये सबको संताप देना आरम्भकिया। तब महर्षिगण देवताओंके पास जाकर इस प्रकार बोले- I। ११ ।।

अद्यार्धरात्रसमये सर्वलोकभयावहः ।

उत्पत्स्यते महान् दाहस्त्रैलोक्यस्य विनाशनः ।। १२ ।।

‘देवगण! आज आधी रातके समय सब लोकोंको भयभीत करनेवाला महान् दाहउत्पन्न होगा, जो तीनों लोकोंका विनाश करनेवाला हो सकता है’ ।। १२ ।।

ततो देवाः सर्षिगणा उपगम्य पितामहम् ।

अब्रुवन् किमिवेहाद्य महद् दाहकृतं भयम् ॥ १३ ।।

न तावद् दृश्यते सूर्यः क्षयोऽयं प्रतिभाति च ।

उदिते भगवन् भानौ कथमेतद् भविष्यति ॥ १४ ।।

तदनन्तर देवता ऋषियोंको साथ ले ब्रह्माजीके पास जाकर बोले- ‘भगवन् ! आज यहकैसा महान् दाहजनित भय उपस्थित होना चाहता है? अभी सूर्य नहीं दिखायी देते तो भीऐसी गरमी प्रतीत होती है मानो जगत्का विनाश हो जायगा। फिर सूर्योदय होनेपर गरमीकैसी तीव्र होगी, यह कौन कह सकता है?’ ।। १३-१४ ।।

पितामह उवाच

एष लोकविनाशाय रविरुद्यन्तुमुद्यतः ।

दृश्यन्नेव हि लोकान् स भस्मराशीकरिष्यति ।। १५ ।।

ब्रह्माजीने कहा-ये सूर्यदेव आज सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेके लिये ही उद्यतहोना चाहते हैं। जान पड़ता है, ये दृष्टिमें आते ही सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देंगे ।। १५ ।।

तस्य प्रतिविधानं च विहितं पूर्वमेव हि ।

कश्यपस्य सुतो धीमानरुणेत्यभिविश्रुतः ।। १६ ।।

किंतु उनके भीषण संतापसे बचनेका उपाय मैंने पहलेसे ही कर रखा है। महर्षिकश्यपके एक बुद्धिमान् पुत्र हैं, जो अरुण नामसे विख्यात हैं ।। १६ ।।

महाकायो महातेजाः स स्थास्यति पुरो रवेः ।

करिष्यति च सारथ्यं तेजश्चास्य हरिष्यति ।। १७ ।।

लोकानां स्वस्ति चैवं स्वाद् ऋषीणां च दिवौकसाम् ।उनका शरीर विशाल है। वे महान् तेजस्वी हैं। वे ही सूर्यके आगे रथपर बैठेंगे। उनकेसारथिका कार्य करेंगे और उनके तेजका भी अपहरण करेंगे। ऐसा करनेसे सम्पूर्ण लोकों,ऋषि-महर्षियों तथा देवताओंका भी कल्याण होगा ।। १७ ।।

प्रमतिरुवाच

ततः पितामहाज्ञातः सर्वं चक्रे तदारुणः ।। १८ ।।

उदितश्चैव सविता ह्यरुणेन समावृतः ।

एतत् ते सर्वमाख्यातं यत् सूर्यं मन्युराविशत् ।। १९ ।।

प्रमति कहते हैं-तत्पश्चात् पितामह ब्रह्माजीकी आज्ञासे अरुणने उस समय सब कार्यउसी प्रकार किया। सूर्य अरुणसे आवृत होकर उदित हुए । वत्स! सूर्यके मनमें क्यों क्रोधकाआवेश हुआ था, इस प्रश्नके उत्तरमें मैंने ये सब बातें कही हैं ।। १८ -१९ ।।

अरुणश्च यथैवास्य सारथ्यमकरोत् प्रभुः ।

भूय एवापरं प्रश्नं शृणु पूर्वमुदाहृतम् ।। २० ।।

शक्तिशाली अरुणने सूर्यके सारथिका कार्य क्यों किया, यह बात भी इस प्रसंगमें स्पष्टहो गयी है। अब अपने पूर्वकथित दूसरे प्रश्नका पुनः उत्तर सुनो ।। २० ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे चतुर्विंशोऽध्यायः ।। २४ ।। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २४ ।।

पञ्चविंशोऽध्यायः

सूर्यके तापसे मूर्च्छित हुए सर्पोकी रक्षाके लिये कद्दूद्वारा इन्द्रदेवकी स्तुति

सौतिरुवाच

ततः कामगमः पक्षी महावीर्यों महाबलः ।

मातुरन्तिकमागच्छत् परं पारं महोदधेः ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकादि महर्षियो! तदनन्तर इच्छानुसार गमन करनेवालेमहान् पराक्रमी तथा महाबली गरुड समुद्रके दूसरे पार अपनी माताके समीप आये ।। १ ।।

यत्र सा विनता तस्मिन् पणितेन पराजिता।

अतीव दुःखसंतप्ता दासीभावमुपागता ।। २ ।।

जहाँ उनकी माता विनता बाजी हार जानेसे दासी-भावको प्राप्त हो अत्यन्त दुःखसेसंतप्त रहती थीं ।। २ ।।

ततः कदाचिद् विनतां प्रणतां पुत्रसंनिधौ ।

काले चाहूय वचनं कद्रूरिदमभाषत ।। ३ ।।

एक दिन अपने पुत्रके समीप बैठी हुई विनय-शील विनताको किसी समय बुलाकरकद्रूने यह बात कही-।। ३ ।।

नागानामालयं भट्रे सुरम्यं चारुदर्शनम् ।

समुद्रकुक्षावेकान्ते तत्र मां विनते नय ।। ४ ।।

‘कल्याणी विनते! समुद्रके भीतर निर्जन प्रदेशमें एक बहुत रमणीय तथा देखनेमेंअत्यन्त मनोहर नागोंका निवासस्थान है। तू वहाँ मुझे ले चल’ ।। ४ ।।

ततः सुपर्णमाता तामवहत् सर्पमातरम् ।

पन्नगान् गरुडश्चापि मातुर्वचनचोदितः ।। ५ ।।

तब गरुडकी माता विनता सर्पोंकी माता कद्ूको अपनी पीठपर ढोने लगी। इधरमाताकी आज्ञासे गरुड भी सर्पोको अपनी पीठपर चढ़ाकर ले चले ।। ५ ।।

स सूर्यमभितो याति वैनतेयो विहंगमः ।

सूर्यरश्मिप्रतप्ताश्च मूर्च्छिताः पन्नगाभवन् ।। ६ ।।

पक्षिराज गरुड आकाशमें सूर्यके निकट होकर चलने लगे। अतः सर्प सूर्यकी किरणोंसेसंतप्त हो मूच्च्छित हो गये ।। ६ ।।

तदवस्थान् सुतान् दृष्ट्वा कद्रूः शक्रमथास्तुवत् ।

नमस्ते सर्वदेवेश नमस्ते बलसूदन ।। ७ ।।

अपने पुत्रोंको इस दशामें देखकर कद्ू इन्द्रकी स्तुति करने लगी-‘सम्पूर्ण देवताओंकेईश्वर! तुम्हें नमस्कार है। बलसूदन! तुम्हें नमस्कार है ।। ७ ।।

नमुचिघ्न नमस्तेऽस्तु सहस्राक्ष शचीपते।

सर्पाणां सूर्यतप्तानां वारिणा त्वं प्लवो भव ।। ८ ।।

‘सहस्र नेत्रोंवाले नमुचिनाशन! शचीपते! तुम्हें नमस्कार है । तुम सूर्यके तापसे संतप्तहुए सर्पोंको जलसे नहलाकर नौकाकी भाँति उनके रक्षक हो जाओ ।। ८ ।।

त्वमेव परमं त्राणमस्माकममरोक्तम ।

ईशो ह्यसि पयः स्रषटुं त्वमनल्पं पुरन्दर ।। ९ ।।

‘अमरोत्तम! तुम्हीं हमारे सबसे बड़े रक्षक हो । पुरन्दर! तुम अधिक-से -अधिक जलबरसानेकी शक्ति रखते हो ।। ९ ।।

त्वमेव मेघस्त्वं वायुस्त्वमग्निर्विद्युतोऽम्बरे।

त्वमभ्रगणविक्षेप्ता त्वामेवाहुर्महाघनम् ।। १० ।।

‘तुम्हीं मेघ हो, तुम्हीं वायु हो और तुम्हीं आकाशमें बिजली बनकर प्रकाशित होते हो।तुम्हीं बादलोंको छिन्न-भिन्न करनेवाले हो और विद्वान् पुरुष तुम्हें ही महामेघ कहतेहैं ।। १० ।।

त्वं वज्रमतुलं घोरं घोषवांस्त्वं बलाहकः ।

स्रष्टा त्वमेव लोकानां संहर्ता चापराजितः ।। ११ ।।

‘संसारमें जिसकी कहीं तुलना नहीं है, वह भयानक वज्र तुम्हीं हो, तुम्हीं भयंकरगर्जना करनेवाले बलाहक (प्रलयकालीन मेघ) हो। तुम्हीं सम्पूर्ण लोकोंकी सृष्टि और संहारकरनेवाले हो। तुम कभी परास्त नहीं होते ।। ११ ।।

त्वं ज्योतिः सर्वभूतानां त्वमादित्यो विभावसुः ।

त्वं महद्भूतमाश्चर्य त्वं राजा त्वं सुरोत्तमः ।। १२ ।।

‘तुम्हीं समस्त प्राणियोंकी ज्योति हो। सूर्य और अग्नि भी तुम्हीं हो । तुम आश्चर्यमयमहान् भूत हो, तुम राजा हो और तुम देवताओंमें सबसे श्रेष्ठ हो ।। १२ ।।

त्वं विष्णुस्त्वं सहस्राक्षस्त्वं देवस्त्वं परायणम् ।

त्वं सर्वममृतं देव त्वं सोमः परमार्चितः ।। १३ ।

‘तुम्हीं सर्वव्यापी विष्णु, सहस्रलोचन इन्द्र, द्युतिमान् देवता और सबके परम आश्रयहो। देव! तुम्हीं सब कुछ हो। तुम्हीं अमृत हो और तुम्हीं परम पूजित सोम हो ।। १३ ।।

त्वं मुहूर्तस्तिथिस्त्वं च त्वं लवस्त्वं पुनः क्षणः ।

शुक्लस्त्वं बहुलस्त्वं च कला काष्ठा त्रुटिस्तथा ।

संवत्सरर्तवो मासा रजन्यश्च दिनानि च ।। १४ ।।

‘तुम मुहूर्त हो, तुम्हीं तिथि हो, तुम्हीं लव तथा तुम्हीं क्षण हो। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षभी तुमसे भिन्न नहीं हैं। कला, काष्ठा और त्रुटि सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं। संवत्सर, ऋतु,मास, रात्रि तथा दिन भी तुम्हीं हो ।। १४ ।।

त्वमुत्तमा सगिरिवना वसुन्धरा सभास्करं वितिमिरमम्बरं तथा ।

महोदधिः सतिमितिमिंगिलस्तथा महोर्मिमान् बहुमकरो झषाकुलः ।। १५ ।।

‘तुम्हीं पर्वत और वनोंसहित उत्तम वसुन्धरा हो और तुम्हीं अन्धकाररहित एवंसूर्यसहित आकाश हो। तिमि और तिमिंगिलोंसे भरपूर, बहुतेरे मगरों और मत्स्योंसे व्याप्ततथा उत्ताल तरंगोंसे सुशोभित महासागर भी तुम्हीं हो ।। १५ ।।

महायशास्त्वमिति सदाभिपूज्यसे मनीषिभिर्मुदितमना महर्षिभिः ।

अभिष्टुतः पिबसि च सोममध्वरे वषट्कृतान्यपि च हवींषि भूतये ।। १६ ।।

‘तुम महान् यशस्वी हो। ऐसा समझकर मनीषी पुरुष सदा तुम्हारी पूजा करते हैं ।महर्षिगण निरन्तर तुम्हारा स्तवन करते हैं। तुम यजमानकी अभीष्टसिद्धि करनेके लियेयज्ञमें मुदित मनसे सोमरस पीते हो और वरषट्कारपूर्वक समर्पित किये हुए हविष्य भीग्रहण करते हो ।। १६ ।।

त्वं विप्रैः सततमिहेज्यसे फलार्थ वेदाङ्गेष्वतुलबलौघ गीयसे च ।

त्वद्धेतोर्यजनपरायणा द्विजेन्द्रा वेदाङ्गान्यभिगमयन्ति सर्वयत्नैः ।। १७ ।।

‘इस जगत्में अभीष्ट फलकी प्राप्तिके लिये विप्रगण तुम्हारी पूजा करते हैं। अतुलितबलके भण्डार इन्द्र! वेदांगोंमें भी तुम्हारी ही महिमाका गान किया गया है। यज्ञपरायण श्रेष्ठद्विज तुम्हारी प्राप्तिके लिये ही सर्वथा प्रयत्न करके वेदांगोंका ज्ञान प्राप्त करते हैं (यहाँकट्रूके द्वारा ईश्वररूपसे इन्द्रकी स्तुति की गयी है)’ ।। १७ ।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे पञ्चविंशोऽध्यायः ।। २५ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक परचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २५ ।।

षड्विंशोऽध्यायः

इन्द्रद्वारा की हुई वर्षासे सर्पोंकी प्रसन्नता

सौतिरुवाच

एवं स्तुतस्तदा कद्र्वा भगवान् हरिवाहनः ।

नीलजीमूतसंघातैः सर्वमम्बरमावृणोत् ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-नागमाता कदूरूके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् इन्द्रनेमेघोंकी काली घटाओंद्वारा सम्पूर्ण आकाशको आच्छादित कर दिया ।। १ ।।

मेघानाज्ञापयामास वर्षध्वममृतं शुभम् ।

ते मेघा मुमुचुस्तोयं प्रभूतं विद्युदुज्ज्वलाः ।। २ ।।

साथ ही मेघोंको आज्ञा दी – ‘ तुम सब शीतल जलकी वर्षा करो।’ आज्ञा पाकरबिजलियोंसे प्रकाशित होनेवाले उन मेघोंने प्रचुर जलकी वृष्टि की ।। २ ।।

परस्परमिवात्यर्थं गर्जन्तः सततं दिवि ।

संवर्तितमिवाकाशं जलदैः सुमहाद्भुतैः ।। ३ ।।

सृजद्भिरतुलं तोयमजस्तरं सुमहारवैः ।

सम्प्रनृत्तमिवाकाशं धारोर्मिभिरनेकशः ।। ४ ।।

वे परस्पर अत्यन्त गर्जना करते हुए आकाशसे निरन्तर पानी बरसाते रहे। जोर-जोरसेगर्जने और लगातार असीम जलकी वर्षा करनेवाले अत्यन्त अद्भुत जलधरोंने सारेआकाशको घेर-सा लिया था। असंख्य धारारूप लहरोंसे युक्त वह व्योमसमुद्र मानो नृत्य-साकर रहा था ।। ३-४ ।।

मेघस्तनितनिर्घोषैर्विद्युत्पवनकम्पितैः ।

तैर्मेधैः सततासारं वर्षद्भिरनिशं तदा ।। ५ ।।

नष्टचन्द्रार्ककिरणमम्बरं समपद्यत ।

नागानामुत्तमो हर्षस्तथा वर्षति वासवे ।। ६ ।।

भयंकर गर्जन-तर्जन करनेवाले वे मेघ बिजली और वायुसे प्रकम्पित हो उस समयनिरन्तर मूसलाधार पानी गिरा रहे थे। उनके द्वारा आच्छादित आकाशमें चन्द्रमा औरसूर्यकी किरणें भी अदृश्य हो गयी थीं। इन्द्रदेवके इस प्रकार वर्षा करनेपर नागोंको बड़ा हर्षहुआ ।। ५-६ ।।

आपूर्यत मही चापि सलिलेन समन्ततः ।

रसातलमनुप्राप्तं शीतलं विमलं जलम् ।। ७ ।।

पृथ्वीपर सब ओर पानी-ही-पानी भर गया। वह शीतल और निर्मल जल रसातलतकपहुँच गया ।। ७ ।।

तदा भूरभवच्छन्ना जलोर्मिभिरनेकशः ।

रामणीयकमागच्छन् मात्रा सह भुजङ्गमाः ।। ८ ।।

उस समय सारा भूतल जलकी असंख्य तरंगोंसे आच्छादित हो गया था। इस प्रकारवर्षासे संतुष्ट हुए सर्प अपनी माताके साथ रामणीयक द्वीपमें आ गये ।। ८ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे षड्विंशोऽध्यायः ।। २६ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २६ ।।

सप्तविंशोऽध्यायः

रामणीयक द्वीपके मनोरम वनका वर्णन तथा गरुडका

दास्यभावसे छूटनेके लिये सर्पोंसे उपाय पूछना

सौतिरुवाच

सम्प्रहृष्टास्ततो नागा जलधाराप्लुतास्तदा।

सुपर्णेनोह्यमानास्ते जग्मुस्तं द्वीपमाशु वै ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-गरुडपर सवार होकर यात्रा करनेवाले वे नाग उस समयजलधारासे नहाकर अत्यन्त प्रसन्न हो शीघ्र ही रामणीयक द्वीपमें जा पहुँचे ।। १ ।।

तं द्वीपं मकरावासं विहितं विश्वकर्मणा।

तत्र ते लवणं घोरं ददृशुः पूर्वमागताः ।। २ ।।

विश्वकर्माजीके बनाये हुए उस द्वीपमें, जहाँ अब मगर निवास करते थे, जब पहली बारनाग आये थे तो उन्हें वहाँ भयंकर लवणासुरका दर्शन हुआ था ।। २ ।।

सुपर्णसहिताः सर्पाः काननं च मनोरमम् ।

सागराम्बुपरिक्षिप्तं पक्षिसङ्घनिनादितम् ।। ३ ।।

सर्प गरुडके साथ उस द्वीपके मनोरम वनमें आये जो चारों ओरसे समुद्रद्वारा घिरकर उसके जलसे अभिषिक्त हो रहा था। वहाँ झुंड-के-झुंड पक्षी कलरव कर रहे थे ।। ३ ।।

विचित्रफलपुष्पाभिर्वनराजिभिरावृतम् ।

भवनैरावृतं रम्यैस्तथा पद्माकरैरपि ।। ४ ।।

विचित्र फूलों और फलोंसे भरी हुई वनश्रेणियाँ उस दिव्य वनको घेरे हुए थीं। वह वनबहुत-से रमणीय भवनों और कमलयुक्त सरोवरोंसे आवृत था ।। ४ ।।

प्रसन्नसलिलैश्चापि हरदैर्दिव्यैर्विभूषितम् ।

दिव्यगन्धवहैः पुण्यैर्मारुतैरुपवीजितम् ।। ५ ।।

स्वच्छ जलवाले कितने ही दिव्य सरोवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य सुगन्धकाभार वहन करनेवाली पावन वायु मानो वहाँ चॅवर डुला रही थी ।। ५ ।।

उत्पतद्भिरिवाकाशं वृक्षैर्मलयजैरपि ।

शोभितं पुष्पवर्षाणि मुञ्चद्भिर्मारुतोद्धतैः ।। ६ ॥

वहाँ ऊँचे-ऊँचे मलयज वृक्ष ऐसे प्रतीत होते थे, मानो आकाशमें उड़े जा रहे हों । वेवायुके वेगसे विकम्पित हो फूलोंकी वर्षा करते हुए उस प्रदेशकी शोभा बढ़ा रहे थे ।। ६ । ।

वायुविक्षिप्तकुसुमैस्तथान्यैरपि पादपैः ।

किरद्भिरिव तत्रस्थान् नागान् पुष्पाम्बुवृष्टिभिः ।। ७ ।।

हवाके झोंकेसे दूसरे-दूसरे वृक्षोंके भी फूल झड़ रहे थे, मानो वहाँके वृक्षसमूह वहाँउपस्थित हुए नागोंपर फूलोंकी वर्षा करते हुए उनके लिये अर्घ्य दे रहे हों ।। ७ ।।

मनःसंहर्षजं दिव्यं गन्धर्वाप्ससां प्रियम् ।

मत्तभ्रमरसंघुष्टं मनोज्ञाकृतिदर्शनम् ।। ८ ।।

वह दिव्य वन हृदयके हर्षको बढ़ानेवाला था। गन्धर्व और अप्सराएँ उसे अधिक पसंदकरती थीं। मतवाले भ्रमर वहाँ सब ओर गूँज रहे थे। अपनी मनोहर छटाके द्वारा वहअत्यन्त दर्शनीय जान पड़ता था ।। ८ ।।

रमणीयं शिवं पुण्यं सर्वैर्जनमनोहरैः ।

नानापक्षिरुतं रम्यं कद्रूपुत्रप्रहर्षणम् ।। ९ ।।

वह वन रमणीय, मंगलकारी और पवित्र होनेके साथ ही लोगोंके मनको मोहनेवालेसभी उत्तम गुणोंसे युक्त था। भाँति भाँतिके पक्षियोंके कलरवोंसे व्याप्त एवं परम सुन्दरहोनेके कारण वह कद्रूके पुत्रोंका आनन्द बढ़ा रहा था ।। ९ ।।

तत् ते वनं समासाद्य विजहुः पन्नगास्तदा ।

अब्रुवंश्च महावीर्यं सुपर्ण पतगेश्वरम् ।। १० ।।

उस वनमें पहुँचकर वे सर्प उस समय सब ओर विहार करने लगे और महापराक्रमीपक्षिराज गरुडसे इस प्रकार बोले-। १० ।।

वहास्मानपरं द्वीपं सुरम्यं विमलोदकम् ।

त्वं हि देशान् बहून् रम्यान् व्रजन् पश्यसि खेचर ।। ११ ।।

‘खेचर! तुम आकाशमें उड़ते समय बहुत-से रमणीय प्रदेश देखा करते हो; अतः हमेंनिर्मल जलवाले किसी दूसरे रमणीय द्वीपमें ले चलो’ ।। ११ ।।

स विचिन्त्याब्रवीत् पक्षी मातरं विनतां तदा ।

किं कारणं मया मातः कर्तव्यं सर्पभाषितम् ।। १२ ।।

गरुडने कुछ सोचकर अपनी माता विनतासे पूछा – ‘माँ! क्या कारण है कि मुझेस्पोंकी आज्ञाका पालन करना पड़ता है?’ ।। १२ ।।

विनतोवाच

दासीभूतास्मि दुर्योगात् सपत्न्याः पतगोत्तम।

पणं वितथमास्थाय सर्पैरुपधिना कृतम् ।। १३ ।।

विनता बोली-बेटा पक्षिराज! मैं दुर्भाग्यवश सौतकी दासी हूँ, इन सर्पोने छल करकेमेरी जीती हुई बाजीको पलट दिया था ।। १३ ।।

तस्मिंस्तु कथिते मात्रा कारणे गगनेचरः ।

उवाच वचनं सर्पास्तेन दुःखेन दुःखितः ।। १४ ।।

माताके यह कारण बतानेपर आकाशचारी गरुडने उस दुःखसे दुःखी होकर सर्पोंसेकहा-।। १४ ।।

किमाहृत्य विदित्वा वा किं वा कृत्वेह पौरुषम् ।

दास्याद् वो विप्रमुच्येयं तथ्यं वदत लेलिहाः ।। १५ ।।

‘जीभ लपलपानेवाले सर्पो! तुमलोग सच-सच बताओ मैं तुम्हें क्या लाकर दे दूँ? किसविद्याका लाभ करा दूँ अथवा यहाँ कौन-सा पुरुषार्थ करके दिखा दूँ; जिससे मुझे तथा मेरीमाताको तुम्हारी दासतासे छुटकारा मिल जाय’ ।। १५ ।।

सौतिरुवाच

श्रुत्वा तमब्रुवन् सर्पा आहरामृतमोजसा ।

ततो दास्याद् विप्रमोक्षो भविता तव खेचर ।। १६ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-गरुडकी बात सुनकर सर्पोने कहा-‘गरुड! तुम पराक्रमकरके हमारे लिये अमृत ला दो। इससे तुम्हें दास्यभावसे छुटकारा मिल जायगा’ ।। १६ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे सप्तविंशोऽध्यायः ।। २७ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २७ ।।

अष्टाविंशोऽध्यायः

गरुडका अमृतके लिये जाना और अपनी माताकी आज्ञाके अनुसार निषादोंका भक्षण करना

सौतिरुवाच

इत्युक्तो गरुडः सर्पैस्ततो मातरमब्रवीत् ।

गच्छाम्यमृतमाहर्तुं भक्ष्यमिच्छामि वेदितुम् ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-सर्पोकी यह बात सुनकर गरुड अपनी मातासे बोले-‘माँ! मैंअमृत लानेके लिये जा रहा हूँ, किंतु मेरे लिये भोजन-सामग्री क्या होगी? यह मैं जाननाचाहता हूँ’ ।। १ ।।

विनतोवाच

समुद्रकुक्षावेकान्ते निषादालयमुत्तमम् ।

निषादानां सहस्राणि तान् भुक्त्वामृतमानय ।। २ ।।

विनताने कहा-समुद्रके बीचमें एक टापू है, जिसके एकान्त प्रदेशमें निषादों(जीवहिंसकों)-का निवास है। वहाँ सहस्रों निषाद रहते हैं। उन्हींको मारकर खा लो औरअमृत ले आओ ।। २ ।।

न च ते ब्राह्मणं हन्तुं कार्या बुद्धिः कथंचन ।

अवध्यः सर्वभूतानां ब्राह्मणो ह्यनलोपमः ।। ३ ।।

किंतु तुम्हें किसी प्रकार ब्राह्मणको मारनेका विचार नहीं करना चाहिये; क्योंकि ब्राह्मणसमस्त प्राणियोंके लिये अवध्य है। वह अग्निके समान दाहक होता है ।। ३ ।।

अग्निरको विषं शस्त्रं विप्रो भवति कोपितः ।

गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः परिकीर्तितः ॥४।॥

कुपित किया हुआ ब्राह्मण अग्नि, सूर्य, विष एवं शस्त्रके समान भयंकर होता है।ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंका गुरु कहा गया है ।। ४ ।।

एवमादिस्वरूपैस्तु सतां वै ब्राह्मणो मतः ।

स ते तात न हन्तव्यः संक्रुद्धेनापि सर्वथा ।। ५ ।।

इन्हीं रूपोंमें सत्पुरुषोंके लिये ब्राह्मण आदरणीय माना गया है । तात! तुम्हें क्रोध आजाय तो भी ब्राह्मणकी हत्यासे सर्वथा दूर रहना चाहिये ।। ५ ।।

ब्राह्मणानामभिद्रोहो न कर्तव्यः कथंचन ।

न ह्येवमग्निर्नादित्यो भस्म कुर्यात् तथानघ ।। ६ ।।

यथा कुर्यादभिक्रुद्धो ब्राह्मणः संशितव्रतः ।

तदेतैर्विविधैर्लिङ्गैस्त्वं विद्यास्तं द्विजोत्तमम् ।। ७ ।।

भूतानामग्रभूर्विप्रो वर्णश्रेष्ठः पिता गुरुः ।ब्राह्मणोंके साथ किसी प्रकार द्रोह नहीं करना चाहिये। अनघ! कठोर व्रतका पालनकरनेवाला ब्राह्मण क्रोधमें आनेपर अपराधीको जिस प्रकार जलाकर भस्म कर देता है, उसतरह अग्नि और सूर्य भी नहीं जला सकते। इस प्रकार विविध चिह्नोंके द्वारा तुम्हें ब्राह्मणकोपहचान लेना चाहिये। ब्राह्मण समस्त प्राणियोंका अग्रज, सब वर्णोंमें श्रेष्ठ, पिता औरहै ।। ६-७ ।।

गरुड उवाच

गुरु किंरूपो ब्राह्मणो मातः किंशीलः किंपराक्रमः ।। ८ ।।

गरुडने पूछा-माँ! ब्राह्मणका रूप कैसा होता है? उसका शील – स्वभाव कैसा है?तथा उसमें कौन-सा पराक्रम है ।। ८ ।।

किंस्विदग्निनिभो भाति किंस्वित् सौम्यप्रदर्शनः ।

यथाहमभिजानीयां ब्राह्मणं लक्षणैः शुभैः ।। ९ ।।

तन्मे कारणतो मातः पृच्छतो वक्तुमर्हसि ।वह देखनेमें अग्नि-जैसा जान पड़ता है? अथवा सौम्य दिखायी देता है? माँ! जिसप्रकार शुभ लक्षणोंद्वारा मैं ब्राह्मणको पहचान सकूँ, वह सब उपाय मुझे बताओ ।। ९ ।।

विनतोवाच

यस्ते कण्ठमनुप्राप्तो निगीर्णं बडिशं यथा ।। १० ।।

दहेदङ्गारवत् पुत्र तं विद्या ब्राह्मणर्षभम् ।

विप्रस्त्वया न हन्तव्यः संक्रुद्धेनापि सर्वदा ।। ११ ।।

विनता बोली-बेटा! जो तुम्हारे कण्ठमें पड़नेपर अंगारकी तरह जलाने लगे औरमानो बंसीका काँटा निगल लिया गया हो, इस प्रकार कष्ट देने लगे, उसे वर्गोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मणसमझना। क्रोधरमें भरे होनेपर भी तुम्हें ब्रह्महत्या नहीं करनी चाहिये ।। १० – ११ ।।

प्रोवाच चैनं विनता पुत्रहार्दादिदं वचः ।

जठरे न च जीर्येद् यस्तं जानीहि द्विजोत्तमम् ।। १२ ।।

विनताने पुत्रके प्रति स्नेह होनेके कारण पुनः इस प्रकार कहा-‘बेटा! जो तुम्हारे पेटमेंपच न सके, उसे ब्राह्मण जानना’ ।। १२ ।।

पुनः प्रोवाच विनता पुत्रहार्दादिदं वचः ।

जानन्त्यप्यतुलं वीर्यमाशीर्वादपरायणा ।। १३ ।।

प्रीता परमदुःखात्ता नागैर्विप्रकृता सती ।पुत्रके प्रति स्नेह होनेके कारण विनताने पुनः इस प्रकार कहा-वह पुत्रके अनुपमबलको जानती थी तो भी नागोंद्वारा ठगी जानेके कारण बड़े भारी दुःखसे आतुर हो गयीथी। अतः अपने पुत्रको प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देने लगी ।। १३ ।।

विनतोवाच

पक्षौ ते मारुतः पातु चन्द्रसूर्यौ च पृष्ठतः ।। १४ ।।

विनताने कहा-बेटा! वायु तुम्हारे दोनों पंखोंकी रक्षा करें, चन्द्रमा और सूर्यपृष्ठभागका संरक्षण करें ।। १४ ।।

शिरश्च पातु वह्निस्ते वसवः सर्वतस्तनुम् ।

अहं च ते सदा पुत्र शान्तिस्वस्तिपरायणा ।। १५ ।।

इहासीना भविष्यामि स्वस्तिकारे रता सदा ।

अरिष्टं व्रज पन्थानं पुत्र कार्यार्थसिद्धये ॥ १६ ।।

अग्निदेव तुम्हारे सिरकी और वसुगण तुम्हारे सम्पूर्ण शरीरकी सब ओरसे रक्षा करें।पुत्र! मैं भी तुम्हारे लिये शान्ति एवं कल्याणसाधक कर्में संलग्न हो यहाँ निरन्तरमनाती रहूँगी। वत्स! तुम्हारा मार्ग विघ्नरहित हो, तुम अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये यात्राकरो ।। १५-१६ ।।

सौतिरुवाच

कुशल ततः स मातुर्वचनं निशम्य वितत्य पक्षौ नभ उत्पपात ।

ततो निषादान् बलवानुपागतो बुभुक्षितः काल इवान्तकोऽपरः ।। १७ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकादि महर्षियो! माताकी बात सुनकर महाबली गरुडपंख पसारकर आकाशमें उड़ गये तथा क्षुधातुर काल या दूसरे यमराजकी भाँति उननिषादोंके पास जा पहुँचे ।। १७ ।।

स तान् निषादानुपसंहरंस्तदा रजः समुद्धूय नभःस्पृशं महत् ।

समुद्रकुक्षौ च विशोषयन् पयः समीपजान् भूधरजान् विचालयन् ।। १८ ।।

उन निषादोंका संहार करनेके लिये उन्होंने उस समय इतनी अधिक धूल उड़ायी, जोपृथ्वीसे आकाशतक छा गयी। वहाँ समुद्रकी कुक्षिमें जो जल था , उसका शोषण करकेउन्होंने समीपवर्ती पर्वतीय वृक्षोंको भी विकम्पित कर दिया।। १८ ।।

ततः स चक्रे महदाननं तदा निषादमार्ग प्रतिरुध्य पक्षिराट् ।

ततो निषादास्त्वरिताः प्रवक्रजुः यतो मुखं तस्य भुजङ्गभोजिनः ।। १९ ।।

इसके बाद पक्षिराजने अपना मुख बहुत बड़ा कर लिया और निषादोंका मार्ग रोककरखड़े हो गये। तदनन्तर वे निषाद उतावलीमें पड़कर उसी ओर भागे, जिधर सर्पभोजीगरुडका मुख था ।। १९ ।।

तदाननं विवृतमतिप्रमाणवत् समभ्ययुर्गगनमिवार्दिताः खगाः ।

सहस्रशः पवनरजोविमोहिता यथानिलप्रचलितपादपे वने ।। २० ।।

जैसे आँधीसे कम्पित वृक्षवाले वनमें पवन और धूलसे विमोहित एवं पीड़ित सहस्रोंपक्षी उन्मुक्त आकाशमें उड़ने लगते हैं, उसी प्रकार हवा और धूलकी वर्षासे बेसुध हुएहजारों निषाद गरुडके खुले हुए अत्यन्त विशाल मुखमें समा गये ।। २० ।।

ततः खगो वदनममित्रतापनः समाहरत् परिचपलो महाबलः ।

निषूदयन् बहुविधमत्स्यजीविनो बुभुक्षितो गगनचरेश्वरस्तदा ।। २१ ।।

तत्पश्चात् शत्रुओंको संताप देनेवाले, अत्यन्त चपल, महाबली और क्षुधातुर पक्षिराजगरुडने मछली मारकर जीविका चलानेवाले उन अनेकानेक निषादोंका विनाश करनेकेलिये अपने मुखको संकुचित कर लिया ।। २१ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे अष्टाविंशोऽध्यायः ।। २८ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २८ ।।

एकोनत्रिंशोऽध्यायः

कश्यपजीका गरुडको हाथी और कछुएके पूर्वजन्मकीकथा सुनाना, गरुडका उन दोनोंको पकड़कर एक दिव्यवटवृक्षकी शाखापर ले जाना और उस शाखाका टूटना

सौतिरुवाच

तस्य कण्ठमनुप्राप्तो ब्राह्मणः सह भार्यया ।

दहन् दीप्त इवाङ्गारस्तमुवाचान्तरिक्षगः ।। १ ।।

द्विजोत्तम विनिर्गच्छ तूर्णमास्यादपावृतात् ।

न हि मे ब्राह्मणो वध्यः पापेष्वपि रतः सदा ।। २ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-निषादोंके साथ एक ब्राह्मण भी भार्यासहित गरुडके कण्ठमेंचला गया था। वह दहकते हुए अंगारकी भाँति जलन पैदा करने लगा। तब आकाशचारीगरुडने उस ब्राह्मणसे कहा-‘द्विजश्रेष्ठ! तुम मेरे खुले हुए मुखसे जल्दी निकल जाओ।ब्राह्मण पापपरायण ही क्यों न हो मेरे लिये सदा अवध्य है’ ।। १-२ ।।

ब्रुवाणमेवं गरुडं ब्राह्मणः प्रत्यभाषत ।

निषादी मम भार्येयं निर्गच्छतु मया सह ।। ३ ।।

ऐसी बात कहनेवाले गरुडसे वह ब्राह्मण बोला – ‘ यह निषाद-जातिकी कन्या मेरीभार्या है; अतः मेरे साथ यह भी निकले (तभी मैं निकल सकता हूँ)’ ।। ३ ।।

गरुड उवाच

एतामपि निषादीं त्वं परिगृह्याशु निष्पत ।

तूर्णं सम्भावयात्मानमजीर्ण मम तेजसा ।। ४ ।।

गरुडने कहा-ब्राह्मण! तुम इस निषादीको भी लेकर जल्दी निकल जाओ | तुमअभीतक मेरी जठराग्निके तेजसे पचे नहीं हो; अतः शीघ्र अपने जीवनकी रक्षाकरो ।। ४ ।।

सौतिरुवाच

ततः स विप्रो निष्क्रान्तो निषादीसहितस्तदा ।

वर्धयित्वा च गरुडमिष्टं देशं जगाम ह ।। ५ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-उनके ऐसा कहनेपर वह ब्राह्हण निषादीसहित गरुडके मुखसेनिकल आया और उन्हें आशीर्वाद देकर अभीष्ट देशको चला गया ।। ५ ।।

सहभार्ये विनिष्क्रान्ते तस्मिन् विप्रे च पक्षिराट् ।

वितत्य पक्षावाकाशमुत्पपात मनोजवः ।। ६ ।।

भार्यासहित उस ब्राह्मणके निकल जानेपर पक्षिराज गरुड पंख फैलाकर मनके समानतीव्र वेगसे आकाशमें उड़े ।। ६ ।।

ततोऽपश्यत् स पितरं पृष्टश्चाख्यातवान् पितु: ।

यथान्यायममेयात्मा तं चोवाच महानृषिः ।। ७ ।।

तदनन्तर उन्हें अपने पिता कश्यपजीका दर्शन हुआ। उनके पूछनेपर अमेयात्मा गरुडनेपितासे यथोचित कुशल-समाचार कहा। महर्षि कश्यप उनसे इस प्रकार बोले ।। ७ ।।

कश्यप उवाच

कच्चिद् वः कुशलं नित्यं भोजने बहुलं सुत ।

कच्चिच्च मानुषे लोके तवान्नं विद्यते बहु ।। ८।।

कश्यपजीने पूछा-बेटा! तुमलोग कुशलसे तो हो न? विशेषतः प्रतिदिन भोजनकेसम्बन्धमें तुम्हें विशेष सुविधा है न? क्या मनुष्यलोकमें तुम्हारे लिये पर्याप्त अन्न मिल जाताहै ।। ८ ।।

गरुड उवाच

माता में कुशला शाश्वत् तथा भ्राता तथा ह्यहम् ।

न हि मे कुशलं तात भोजने बहुले सदा ।। ९ ।।

गरुडने कहा-मेरी माता सदा कुशलसे रहती हैं। मेरे भाई तथा मैं दोनों सकुशल हैं।परंतु पिताजी! पर्याप्त भोजनके विषयमें तो सदा मेरे लिये कुशलका अभाव ही है ।। ९ ।।

अहं हि सर्पैः प्रहितः सोममाहर्तुमुत्तमम् ।

मातुर्दास्यविमोक्षार्थमाहरिष्ये तमद्य वै ।। १० ।।

मुझे सर्पोने उत्तम अमृत लानेके लिये भेजा है । माताको दासीपनसे छुटकारा दिलानेकेलिये आज मैं निश्चय ही उस अमृतको लाऊँगा ।। १० ।।

मात्रा चात्र समादिष्टो निषादान् भक्षयेति ह ।

न च मे तृप्तिरभवद् भक्षयित्वा सहस्रशः ।। ११ ।।

भोजनके विषयमें पूछनेपर माताने कहा- ‘निषादोंका भक्षण करो’, परंतु हजारोंनिषादोंको खा लेनेपर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई है ।। ११ ।।

तस्माद् भक्ष्यं त्वमपरं भगवन् प्रदिशस्व मे ।

यद् भुक्त्वामृतमाहर्तुं समर्थः स्यामहं प्रभो ।। १२ ।।

क्षुत्पिपासाविघातार्थं भक्ष्यमाख्यातु मे भवान् ।अत: भगवन्! आप मेरे लिये कोई दूसरा भोजन बताइये। प्रभो! वह भोजन ऐसा होजिसे खाकर मैं अमृत लानेमें समर्थ हो सकूँ। मेरी भूख-प्यासको मिटा देनेके लिये आपपर्याप्त भोजन बताइये ।। १२ ।।

कश्यप उवाच

इदं सरो महापुण्यं देवलोकेऽपि विश्रुतम् ।। १३ ।।

कश्यपजी बोले-बेटा! यह महान् पुण्यदायक सरोवर है, जो देवलोकमें भी विख्यातहै ।। १३ ।।

यत्र कूर्माग्रजं हस्ती सदा कर्षत्यवाङ्मुखः ।

तयोर्जन्मान्तरे वैरं सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ।। १४ ।।

उसमें एक हाथी नीचेको मुँह किये सदा सूँडसे पकड़कर एक कछुएको खींचता रहताहै। वह कछुआ पूर्वजन्ममें उसका बड़ा भाई था। दोनोंमें पूर्वजन्मका वैर चला आ रहा है।उनमें यह वैर क्यों और कैसे हुआ तथा उन दोनोंके शरीरकी लम्बाई- चौड़ाई और ऊँचाईकितनी है, ये सारी बातें मैं ठीक-ठीक बता रहा हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो ।। १४।।

तन्मे तत्त्वं निबोधत्स्व यत्प्रमाणौ च तावुभौ।

आसीद् विभावसुनर्नाम महर्षिः कोपनो भृशम् । १५ ।।

भ्राता तस्यानुजश्चासीत् सुप्रतीको महातपाः ।

स नेच्छति धनं भ्राता सहैकस्थं महामुनिः ।। १६ ।।

पूर्वकालमें विभावसु नामसे प्रसिद्ध एक महर्षि थे वे स्वभावके बड़े क्रोधी थे। उनकेछोटे भाईका नाम था सुप्रतीक। वे भी बड़े तपस्वी थे। महामुनि सुप्रतीक अपने धनको बड़ेभाईके साथ एक जगह नहीं रखना चाहते थे ।। १५-१६ ।।

विभागं कीर्तयत्येव सुप्रतीको हि नित्यशः

अथाब्रवीच्च तं भ्राता सुप्रतीकं विभावसुः ।। १७ ।।

सुप्रतीक प्रतिदिन बँटवारेके लिये आग्रह करते ही रहते थे। तब एक दिन बड़े भाईविभावसुने सुप्रतीकसे कहा-।। १७ ।।

विभागं बहवो मोहात् कर्तुमिच्छन्ति नित्यशः ।

ततो विभक्तास्त्वन्योन्यं विक्रुध्यन्तेऽर्थमोहिताः ।। १८ ।।

‘भाई! बहुत-से मनुष्य मोहवश सदा धनका बँटवारा कर लेनेकी इच्छा रखते हैं।तदनन्तर बँटवारा हो जानेपर धनके मोहमें फँसकर वे एक-दूसरेके विरोधी हो परस्पर क्रोधकरने लगते हैं ।। १८ ।।

ततः स्वार्थपरान् मूढान् पृथग्भूतान् स्वकैध्धनैः ।

विदित्वा भेदयन्त्येतानमित्रा मित्ररूपिणः ।। १९ ।।

‘वे स्वार्थपरायण मूढ़ मनुष्य अपने धनके साथ जब अलग-अलग हो जाते हैं,उनकी यह अवस्था जानकर शत्रु भी मित्ररूपमें आकर मिलते और उनमें भेद डालते रहतेहैं ।। १९ ।।

विदित्वा चापरे भिन्नानन्तरेषु पतन्त्यथ ।

तबभिन्नानामतुलो नाशः क्षिप्रमेव प्रवर्तते ।। २० ।।

‘टूसरे लोग, उनमें फूट हो गयी है, यह जानकर उनके छिद्र देखा करते हैं एवं छिद्रमिल जानेपर उनमें परस्पर वैर बढ़ानेके लिये स्वयं बीचमें आ पड़ते हैं। इसलिये जो लोगअलग-अलग होकर आपसमें फूट पैदा कर लेते हैं, उनका शीघ्र ही ऐसा विनाश हो जाता है,जिसकी कहीं तुलना नहीं है ।। २० ।।

तस्माद् विभागं भ्रातृणां न प्रशंसन्ति साधवः ।

गुरुशास्त्रे निबद्धानामन्योन्येनाभिशङ्किनाम् ।। २१ ।।

‘अतः साधु पुरुष भाइयोंके बिलगाव या बँटवारेकी प्रशंसा नहीं करते; क्योंकि इसप्रकार बँट जानेवाले भाई गुरुस्वरूप शास्त्रकी अलंघनीय आज्ञाके अधीन नहीं रह जातेऔर एक-दूसरेको संदेहकी दृष्टिसे देखने लगते हैं’ ।। २१ ।। *

नियन्तुं न हि शक्यस्त्वं भेदतो धनमिच्छसि ।

यस्मात् तस्मात् सुप्रतीक हस्तित्वं समवाप्स्यसि ।। २२ ।।

‘सुप्रतीक! तुम्हें वशमें करना असम्भव हो रहा है और तुम भेदभावके कारण हीबँटवारा करके धन लेना चाहते हो, इसलिये तुम्हें हाथीकी योनिमें जन्म लेनापड़ेगा’ ।। २२ ।।

शप्तस्त्वेवं सुप्रतीको विभावसुमथाब्रवीत् ।

त्वमप्यन्तर्जलचरः कच्छपः सम्भविष्यसि ।। २३ ।।

इस प्रकार शाप मिलनेपर सुप्रतीकने विभावसुसे कहा -‘तुम भी पानीके भीतरविचरनेवाले कछुए होओगे’ ।। २३ ।।

एवमन्योन्यशापात् तौ सुप्रतीकविभावसू ।

गजकच्छपतां प्राप्तावर्थार्थं मूढचेतसौ ।। २४ ।।

इस प्रकार सुप्रतीक और विभावसु मुनि एक-दूसरेके शापसे हाथी और कछुएकीयोनिमें पड़े हैं। धनके लिये उनके मनमें मोह छा गया था ।। २४ ।।

रोषदोषानुषङ्गेण तिर्यग्योनिगतावुभौ ।

परस्परद्वेषरतौ प्रमाणबलदर्पितौ ।। २५ ।।

सरस्यस्मिन् महाकायौ पूर्ववैरानुसारिणौ ।

तयोरन्यतरः श्रीमान् समुपैति महागजः ।। २६ ।।

यस्य बृंहितशब्देन कूर्मोऽप्यन्तर्जलेशयः ।

उत्थितोऽसौ महाकायः कृत्स्नं विक्षोभयन् सरः ।। २७ ।।

रोष और लोभरूपी दोषके सम्बन्धसे उन दोनोंको तिर्यक्-योनिमें जाना पड़ा है। वेदोनों विशालकाय जन्तु पूर्व जन्मके वैरका अनुसरण करके अपनी विशालता और बलकेघमण्डमें चूर हो एक-दूसरेसे द्वेष रखते हुए इस सरोवरमें रहते हैं। इन दोनोंमें एक जो सुन्दरमहान् गजराज है, वह जब सरोवरके तटपर आता है, तब उसके चिग्घाड़नेकी आवाजसुनकर जलके भीतर शयन करनेवाला विशालकाय कछुआ भी पानीसे ऊपर उठता है। उस समय वह सारे सरोवरको मथ डालता है ।। २५-२७ ।।

यं दृष्ट्वा वेष्टितकरः पतत्येष गजो जलम् ।

दन्तहस्ताग्रलाङ्कूलपादवेगेन वीर्यवान् ।। २८॥

विक्षोभयंस्ततो नागः सरो बहुझषाकुलम् ।

कूर्मोऽप्यभ्युद्यतशिरा युद्धायाभ्येति वीर्यवान् ।। २९ ।।

उसे देखते ही यह पराक्रमी हाथी अपनी सूँड़ लपेटे हुए जलमें टूट पड़ता है तथा दाँत, सूँड़, पूँछ और पैरोंके वेगसे असंख्य मछलियोंसे भरे हुए समूचे सरोवरमें हलचल मचा देता है। उस समय पराक्रमी कच्छप भी सिर उठाकर युद्धके लिये निकट आ जाता है ।। २८-२९ ।।

षडुच्छ्रितो योजनानि गजस्तद्द्विगुणायतः ।

कूर्मस्त्रियोजनोत्सेधो दशयोजनमण्डलः ।। ३० ।।

हाथीका शरीर छः योजन ऊँचा और बारह योजन लंबा है। कछुआ तीन योजन ऊँचा और दस योजन गोल है ।। ३० ।।

तावुभौ युद्धसम्मत्तौ परस्परवधैषिणौ ।

उपयुज्याशु कर्मेदं साधयेप्सितमात्मनः ।। ३१ ।।

वे दोनों एक-दूसरेको मारनेकी इच्छासे युद्धके लिये मतवाले बने रहते हैं। तुम शीघ्र जाकर उन्हीं दोनोंको भोजनके उपयोगमें लाओ और अपने इस अभीष्ट कार्यका साधन करो ।। ३१ ।।

महाभ्रघनसंकाशं तं भुक्त्वामृतमानय ।

महागिरिसमप्रख्यं घोररूपं च हस्तिनम् ।। ३२ ।।

कछुआ महान् मेघ-खण्डके समान है और हाथी भी महान् पर्वतके समान भयंकर है। उन्हीं दोनोंको खाकर अमृत ले आओ ।। ३२ ।।

सौतिरुवाच इत्युक्त्वा गरुडं सोऽथ माङ्गल्यमकरोत् तदा ।

युध्यतः सह देवैस्ते युद्धे भवतु मङ्गलम् । ३३ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकजी! कश्यपजी गरुडसे ऐसा कहकर उस समय उनके लिये मंगल मनाते हुए बोले-‘गरुड! युद्धमें देवताओंके साथ लड़ते हुए तुम्हारा मंगल हो ।। ३३ ।।

पूर्णकुम्भो द्विजा गावो यच्चान्यत् किंचिदुत्तमम् ।

शुभं स्वस्त्ययनं चापि भविष्यति तवाण्डज ।। ३४ ।।

‘पक्षिप्रवर! भरा हुआ कलश, ब्राह्मण, गौएँ तथा और जो कुछ भी मांगलिक वस्तुएँ हैं,वे तुम्हारे लिये कल्याणकारी होंगी ।। ३४ ।।

युध्यमानस्य संग्रामे देवैः सार्धं महाबल ।

ऋचो यजूंषि सामानि पवित्राणि हवींषि च ।। ३५ ।।

रहस्यानि च सर्वाणि सर्वे वेदाश्च ते बलम् ।

इत्युक्तो गरुडः पित्रा गतस्तं ह्रदमन्तिकात् ।। ३६ ।।

‘महाबली पक्षिराज! संग्राममें देवताओंके साथ युद्ध करते समय ऋग्वेद, यजुर्वेद,सामवेद, पवित्र हविष्य, सम्पूर्ण रहस्य तथा सभी वेद तुम्हें बल प्रदान करें।’ पिताके ऐसाकहनेपर गरुड उस सरोवरके निकट गये ।। ३५-३६ ।।

अपश्यन्निर्मलजलं नानापक्षिसमाकुलम् ।

स तत् स्मृत्वा पितुर्वाक्यं भीमवेगोऽन्तरिक्षगः ।। ३७ ।।

नखेन गजमेकेन कूर्ममेकेन चाक्षिपत् ।

समुत्पपात चाकाशं तत उच्चैर्विहंगमः ।। ३८ ।।

उन्होंने देखा, सरोवरका जल अत्यन्त निर्मल है और नाना प्रकारके पक्षी इसमें सबओर चहचहा रहे हैं। तदनन्तर भयंकर वेगशाली अन्तरिक्षगामी गरुडने पिताके वचनकास्मरण करके एक पंजेसे हाथीको और दूसरेसे कछुएको पकड़ लिया। फिर वे पक्षिराजआकाशमें ऊँचे उड़ गये ।। ३७-३८ ।।

सोऽलम्बं तीर्थमासाद्य देववृक्षानुपागमत् ।

ते भीताः समकम्पन्त तस्य पक्षानिलाहताः ।। ३९ ।।

न नो भञ्ज्यादिति तदा दिव्याः कनकशाखिनः ।

प्रचलाङ्गान् स तान् दृष्ट्वा मनोरथफलद्रुमान् ।। ४० ।।

अन्यानतुलरूपाङ्गानुपचक्राम खेचरः ।

काञ्चनै राजतैश्चैव फलैर्वेदूर्यशाखिनः ।

सागराम्बुपरिक्षिप्तान् भ्राजमानान् महाद्रुमान् ।। ४१ ।।

उड़कर वे फिर अलम्बतीर्थमें जा पहुँचे। वहाँ (मेरुगिरिपर) बहुत-से दिव्य अपनीसुवर्णमय शाखा-प्रशाखाओंके साथ लहलहा रहे थे। जब गरुड उनके पास गये, तब उनकेपंखोंकी वायुसे आहत होकर वे सभी दिव्य वृक्ष इस भयसे कम्पित हो उठे कि कहीं ये हमेंतोड़ न डालें। गरुड रुचिके अनुसार फल देनेवाले उन कल्पवृक्षोंको काँपते देख अनुपमरूप-रंग तथा अंगोंवाले दूसरे-दूसरे महावृक्षोंकी ओर चल दिये। उनकी शाखाएँ वैदूर्यमणिकी थीं और वे सुवर्ण तथा रजतमय फलोंसे सुशोभित हो रहे थे। वे सभीसमुद्रके जलसे अभिषिक्त होते रहते थे ।। ३९-४१ ।।

तमुवाच खगश्रेष्ठं तत्र रौहिणपादपः ।

अतिप्रवृद्धः सुमहानापतन्तं मनोजवम् ।। ४२ ।।

वृक्ष महावृक्षवहीं एक बहुत बड़ा विशाल वटवृक्ष था। उसने मनके समान तीव्र-वेगसे आते हुएपक्षियोंके सरदार गरुडसे कहा ।। ४२ ।।

रौहिण उवाच

यैषा मम महाशाखा शतयोजनमायता ।

एतामास्थाय शाखां त्वं खादेमौ गजकच्छपौ ।। ४३ ।।

वटवृक्ष बोला-पक्षिराज! यह जो मेरी सौ योजनतक फैली हुई सबसे बड़ी शाखा है,इसीपर बैठकर तुम इस हाथी और कछुएको खा लो ।। ४३ ।।

ततो द्रुमं पतगसहस्रसेवितं महीधरप्रतिमवपुः प्रकम्पयन् ।

खगोत्तमो द्रुतमभिपत्य वेगवान् बभञ्ज तामविरलपत्रसंचयाम् ।। ४४ ।।

तब पर्वतके समान विशाल शरीरवाले, पक्षियोंमें श्रेष्ठ, वेगशाली गरुड सहस्रोंविहंगमोंसे सेवित उस महान् वृक्षको कम्पित करते हुए तुरंत उसपर जा बैठे। बैठते हीअपने असह्य वेगसे उन्होंने सघन पल्लवोंसे सुशोभित उस विशाल शाखाको तोड़डाला ।। ४४ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।। २९ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्र-विषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २९ ।।

‘कनिष्ठान् पुत्रवत् पश्येज्ज्येष्ठो भ्राता पितुः सम ः ‘ अर्थात् ‘बड़ा भाई पिताके समान होता है। वह अपने छोटेभाइयोंको पुत्रके समान देखे।’ यह शास्त्रकी आज्ञा है। जिनमें फूट हो जाती है, वे पीछे इस आज्ञाका पालन नहीं कर पाते।

त्रिंशोऽध्यायः

गरुडका कश्यपजीसे मिलना, उनकी प्रार्थनासे वालखिल्यऋषियोंका शाखा छोड़कर तपके लिये प्रस्थान और गरुडका निर्जन पर्वतपर उस शाखाको छोड़ना

सौतिरुवाच

स्पृष्टमात्रा तु पद्भयां सा गरुडेन बलीयसा ।

अभज्यत तरोः शाखा भग्नां चैनामधारयत् ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकादि महर्षियो! महाबली गरुडके पैरोंका स्पर्श होते हीउस वृक्षकी वह महाशाखा टूट गयी; किंतु उस टूटी हुई शाखाको उन्होंने फिर पकड़लिया ।। १ ।।

तां भङ्क्त्वा स महाशाखां स्मयमानो विलोकयन् ।

अथात्र लम्बतोऽपश्यद् वालखिल्यानधोमुखान् ॥ २ ॥

उस महाशाखाको तोड़कर गरुड मुसकराते हुए उसकी ओर देखने लगे। इतनेहीमेंउनकी दृष्टि वालखिल्य नामवाले महर्षियोंपर पड़ी, जो नीचे मुँह किये उसी शाखामें लटकरहे थे ।। २ ।।

ऋषयो ह्यत्र लम्बन्ते न हन्यामिति तानृषीन् ।

तपोरतान् लम्बमानान् ब्रह्मर्षीनभिवीक्ष्य सः ।। ३ ।।

हन्यादेतान् सम्पतन्ती शाखेत्यथ विचिन्त्य सः ।

नखैर्दृढतरं वीरः संगृह्य गजकच्छपौ ।। ४ ।।

स तद्विनाशसंत्रासादभिपत्य खगाधिपः ।

शाखामास्येन जग्राह तेषामेवान्ववेक्षया ।। ५ ।।

तपस्यामें तत्पर हुए उन ब्रह्मर्षियोंको वटकी शाखामें लटकते देख गरुडने सोचा-‘इसमें ऋषि लटक रहे हैं। मेरे द्वारा इनका वध न हो जाय। यह गिरती हुई शाखा इनऋषियोंका अवश्य वध कर डालेगी।’ यह विचारकर वीरवर पक्षिराज गरुडने हाथी औरकछुएको तो अपने पंजोंसे दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया और उन महर्षियोंके विनाशके भयसेझपटकर वह शाखा अपनी चोंचमें ले ली। उन मुनियोंकी रक्षाके लिये ही गरुडने ऐसाअद्भुत पराक्रम किया था ।। ३-५ ।।

अतिदैवं तु तत् तस्य कर्म दृष्ट्वा महर्षयः।

विस्मयोत्कम्पहृदया नाम चक्रुर्महाखगे ।। ६ ।।

जिसे देवता भी नहीं कर सकते थे, गरुडका ऐसा अलौकिक कर्म देखकर वे महर्षि आश्चर्यसे चकित हो उठे। उनके हृदयमें कम्प छा गया और उन्होंने उस महान् पक्षीका नाम इस प्रकार रखा (उनके गरुड नामकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की) – ॥ ६ ॥

गुरुं भारं समासाद्योड्डीन एष विहंगमः ।

गरुडस्तु खगश्रेष्ठस्तस्मात् पन्नगरभोजनः ।। ७ ।।

ये आकाशमें विचरनेवाले सर्पभोजी पक्षिराज भारी भार लेकर उड़े हैं; इसलिये (‘गुरुम् आदाय उड्डीन इति गरुडः’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार) ये गरुड कहलायेंगे ।। ७ ।।

ततः शनैः पर्यपतत् पक्षैः शैलान् प्रकम्पयन् ।

एवं सोऽभ्यपतद् देशान् बहून् सगजकच्छपः ।। ८ ।।

तदनन्तर गरुड अपने पंखोंकी हवासे बड़े-बड़े पर्वतोंको कम्पित करते उड़ने लगे। इस प्रकार वे हाथी और कछुएको साथ लिये हुए ही अनेक देशोंमें उड़ते फिरे ।। ८ ।।

दयार्थं वालखिल्यानां न च स्थानमविन्दत ।

स गत्वा पर्वतश्रेष्ठं गन्धमादनमञ्जसा ।। ९ ।।

वालखिल्य ऋषियोंके ऊपर दयाभाव होनेके कारण ही वे कहीं बैठ न सके और उड़ते- उड़ते अनायास ही पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादनपर जा पहुँचे ।। ९ ।।

ददर्श कश्यपं तत्र पितरं तपसि स्थितम् ।

ददर्श तं पिता चापि दिव्यरूपं विहंगमम् ।। १० ।।

तेजोवीर्यबलोपेतं मनोमारुतरंहसम् ।

शैलशृङ्गप्रतीकाशं ब्रह्मदण्डमिवोद्यतम् ।। ११ ।।

वहाँ उन्होंने तपस्यामें लगे हुए अपने पिता कश्यपजीको देखा । पिताने भी अपने पुत्रको देखा। पक्षिराजका स्वरूप दिव्य था । वे तेज, पराक्रम और बलसे सम्पन्न तथा मन और वायुके समान वेगशाली थे। उन्हें देखकर पर्वतके शिखरका भान होता था। वे उठे हुए ब्रह्मदण्डके समान जान पड़ते थे ।। १०-११ ।।

अचिन्त्यमनभिध्येयं सर्वभूतभयंकरम् ।

महावीर्यधरं रौद्रं साक्षादग्निमिवोद्यतम् ।। १२ ।।

उनका स्वरूप ऐसा था, जो चिन्तन और ध्यानमें नहीं आ सकता था। वे समस्त प्राणियोंके लिये भय उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अपने भीतर महान् पराक्रम धारण कर रखा था। वे बहुत भयंकर प्रतीत होते थे। जान पड़ता था, उनके रूपमें स्वयं अग्निदेव प्रकट हो गये हैं ।। १२ ।।

अप्रधृष्यमजेयं च देवदानवराक्षसैः ।

भेत्तारं गिरिशृङ्गाणां समुद्रजलशोषणम् ॥ १३ ।।

हुए धीरे-धीरेदेवता, दानव तथा राक्षस कोई भी न तो उन्हें दबा सकता था और न जीत ही सकताथा। वे पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण करने और समुद्रके जलको सोख लेनेकी शक्ति रखतेथे ।। १३ ।।

लोकसंलोडनं घोरं कृतान्तसमदर्शनम् ।

तमागतमभिप्रेक्ष्य भगवान् कश्यपस्तदा ।

विदित्वा चास्य संकल्पमिदं वचनमब्रवीत् ।। १४ ।।

वे समस्त संसारको भयसे कम्पित किये देते थे उनकी मूर्ति बड़ी भयंकर थी। वेसाक्षात् यमराजके समान दिखायी देते थे। उन्हें आया देख उस समय भगवान् कश्यपनेउनका संकल्प जानकर इस प्रकार कहा ।। १४ ।।

कश्यप उवाच

पुत्र मा साहसं कार्षीर्मा सद्यो लप्स्यसे व्यथाम् ।

मा त्वां दहेयुः संक्रुद्धा वालखिल्या मरीचिपाः ।। १५ ।।

कश्यपजी बोले-बेटा! कहीं दुःसाहसका काम न कर बैठना, नहीं तो तत्काल भारीदुःखमें पड़ जाओगे। सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले वालखिल्य महर्षि कुपित होकरतुम्हें भस्म न कर डालें ।। १५ ।।

सौतिरुवाच

ततः प्रसादयामास कश्यपः पुत्रकारणात् ।

वालखिल्यान् महाभागांस्तपसा हतकल्मषान् ।। १६ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-तदनन्तर पुत्रके लिये महर्षि कश्यपने तपस्यासे निष्पाप हुएमहाभाग वालखिल्य मुनियोंको इस प्रकार प्रसन्न किया ।। १६ ।।

कश्यप उवाच

प्रजाहितार्थमारम्भो गरुडस्य तपोधनाः ।

चिकीर्षति महत्कर्म तदनुज्ञातुमर्हथ ।। १७ ।।

कश्यपजी बोले-तपोधनो! गरुडका यह उद्योग प्रजाके हितके लिये हो रहा है। येमहान् पराक्रम करना चाहते हैं, आपलोग इन्हें आज्ञा दें ।। १७ ।।

सौतिरुवाच

एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययुः ।

मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्तं तपोऽर्थिनः ।। १८ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-भगवान् कश्यपके इस प्रकार अनुरोध करनेपर वे वालखिल्यमुनि उस शाखाको छोड़कर तपस्या करनेके लिये परम पुण्यमय हिमालयपर चलेगये ।। १८ ।।

ततस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतासुतः ।

शाखाव्याक्षिप्तवदनः पर्यपृच्छत कश्यपम् ।। १९ ।।

उनके चले जानेपर विनतानन्दन गरुडने, जो मुँहमें शाखा लिये रहनेके कारणकठिनाईसे बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजीसे पूछा- I| १९ ।।

भगवन् क्व विमुञ्चामि तरोः शाखामिमामहम् ।

वर्जितं मानुषैर्देशमाख्यातु भगवान् मम ।। २० ।।

‘भगवन्! इस वृक्षकी शाखाको मैं कहाँ छोड़दूँ? आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावेंजहाँ बहुत दूरतक मनुष्य न रहते हों’ ।। २० ।।

ततो निःपुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम् ।

अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्याचख्यौ स कश्यपः ।। २१ ।।

तब कश्यपजीने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया , जो सर्वथा निर्जन था। जिसकीकन्दराएँ बर्फसे ढँकी हुई थीं और जहाँ दूसरा कोई मनसे भी नहीं पहुँच सकताथा ।। २१ ।।

तं पर्वतं महाकुक्षिमुद्दिश्य स महाखगः ।

जवेनाभ्यपतत् ताक्ष्यः सशाखागजकच्छपः ।। २२ ।।

उस बड़े पेटवाले पर्वतका पता पाकर महान् पक्षी गरुड उसीको लक्ष्य करके शाखा,हाथी और कछुएसहित बड़े वेगसे उड़े ।। २२ ।

न तां वध्री परिणहेच्छतचर्मा महातनुभ् ।

शाखिनो महतीं शाखां यां प्रगृह्य ययौ खगः ।। २३ ।।

गरुड वटवृक्षकी जिस विशाल शाखाको चोंचमें लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थीकि सौ पशुओंके चमड़ोंसे बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी ।। २३ ।।

स ततः शतसाहस्रं योजनान्तरमागतः ।

कालेन नातिमहता गरुडः पतगेश्वरः ।। २४ ।।

पक्षिराज गरुड उसे लेकर थोड़ी ही देरमें वहाँसे एक लाख योजन दूर चलेआये ।। २४ ।।

स तं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनात् पितुः ।

अमुञ्चन्महतीं शाखां सस्वनं तत्र खेचरः ।। २५ ।।

पिताके आदेशसे क्षणभरमें उस पर्वतपर पहुँचकर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़दी। गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ ।। २५ ।।

पक्षानिलहतश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट् ।

मुमोच पुष्पवर्षं च समागलितपादपः ।। २६ ।।

वह पर्वतराज उनके पंखोंकी वायुसे आहत होकर कॉप उठा। उसपर उगे हुए बहुतेरेवृक्ष गिर पड़े और वह फूलोंकी वर्षा-सी करने लगा ।। २६ ।।

शृङ्गाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्य समन्ततः ।

मणिकाज्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम् ।। २७ ।।

उस पर्वतके मणिकांचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान् शैलकी शोभा बढ़ा रहे थे सब ओरसे चूर-चूर होकर गिर पड़े ।। २७ ।।

शाखिनो बहवश्वापि शाखयाभिहतास्तया।

काञ्चनैः कुसुमैर्भान्ति विद्युत्वन्त इवाम्बुदाः ।। २८ ।।

उस विशाल शाखासे टकराकर बहुत-से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमयफूलोंके कारण बिजलीसहित मेघोंकी भाँति शोभा पाते थे ।। २८ ।।

ते हेमविकचा भूमौ युताः पर्वतधातुभिः ।

व्यराजञ्छाखिनस्तत्र सूर्यांशुप्रतिरञ्जिताः ।। २९ ।।

सुवर्णमय पुष्पवाले वे वृक्ष धरतीपर गिरकर पर्वतके गेरू आदि धातुओंसे संयुक्त होसूर्यकी किरणोंद्वारा रँगे हुए-से सुशोभित होते थे ।। २९ ।।

ततस्तस्य गिरेः शृङ्गमास्थाय स खगोत्तमः ।

भक्षयामास गरुडस्तावुभौ गजकच्छपौ ।। ३० ।।

तदनन्तर पक्षिराज गरुडने उसी पर्वतकी एक चोटीपर बैठकर उन दोनों- हाथी औरकछुएको खाया ।। ३० ।।

तावुभौ भक्षयित्वा तु स ताक्ष्यः कूर्मकुञ्जरौ ।

ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात महाजवः ।। ३१ ।।

इस प्रकार कछुए और हाथी दोनोंको खाकर महान् वेगशाली गरुड पर्वतकी उसचोटीसे ही ऊपरकी ओर उड़े ।। ३१ ।।

प्रावर्तन्ताथ देवानामुत्पाता भयशंसिनः ।

इन्द्रस्य वज्रं दयितं प्रजज्वाल भयात् ततः ।। ३२ ।।

उस समय देवताओंके यहाँ बहुत-से भयसूचक उत्पात होने लगे। देवराज इन्द्रका प्रियआयुध वज्र भयसे जल उठा ।। ३२ ।।

सधूमा न्यपतत् सार्चिर्दिवोल्का नभसश्च्युता ।

तथा वसूनां रुद्राणामादित्यानां च सर्वशः ।। ३३ ।।

साध्यानां मरुतां चैव ये चान्ये देवतागणाः ।

स्वं स्वं प्रहरणं तेषां परस्परमुपाद्रवत् ।। ३४ ।।

अभूतपूर्वं संग्रामे तदा देवासुरेऽपि च ।

ववुर्वाताः सनिर्घाताः पेतुरुल्काः सहस्रशः ।। ३५ ।।

आकाशसे दिनमें ही धूएँ और लपटोंके साथ उल्का गिरने लगी। वसु, रुद्र, आदित्य,साध्य, मरुद्गण तथा और जो-जो देवता है, उन सबके आयुध परस्पर इस प्रकार उपद्रवकरने लगे, जैसा पहले कभी देखनेमें नहीं आया था । देवासुर-संग्रामके समय भी ऐसीअनहोनी बात नहीं हुई थी। उस समय वज्रकी गड़गड़ाहटके साथ बड़े जोरकी आँधी उठनेलगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं ।। ३३-३५ ।।

निरभ्रमेव चाकाशं प्रजगर्ज महास्वनम् ।

देवानामपि यो देवः सोऽप्यवर्षत शोणितम् ।। ३६ ।।

आकाशमें बादल नहीं थे तो भी बड़ी भारी आवाजमें विकट गर्जना होने लगी।देवताओंके भी देवता पर्जन्य रक्तकी वर्षा करने लगे ।। ३६ ।।

मम्लुर्माल्यानि देवानां नेशुस्तेजांसि चैव हि ।

उत्पातमेघा रौद्राश्च ववृषुः शोणितं बहु ।। ३७ ।।

देवताओंके दिव्य पुष्पहार मुरझा गये, उनके तेज नष्ट होने लगे। उत्पातकालिक बहुत-से भयंकर मेघ प्रकट हो अधिक मात्रामें रुधिरकी वर्षा करने लगे ।। ३७ ।।

रजांसि मुकुटान्येषामुत्थितानि व्यधर्षयन् ।

ततस्त्राससमुद्विग्नः सह देवैः शतक्रतुः ।

उत्पातान् दारुणान् पश्यन्नित्युवाच बृहस्पतिम् ।। ३८ ।।

बहुत-सी धूलें उड़कर देवताओंके मुकुटोंको मलिन करने लगीं। ये भयंकर उत्पातदेखकर देवताओं-सहित इन्द्र भयसे व्याकुल हो गये और बृहस्पतिजीसे इस प्रकारबोले ।। ३८ ।।

इन्द्र उवाच

किमर्थं भगवन् घोरा उत्पाताः सहसोत्थिताः ।

न च शत्रुं प्रपश्यामि युधि यो नः प्रधर्षयेत् ।। ३९ ।

इन्द्रने पूछा-भगवन्! सहसा ये भयंकर उत्पात क्यों होने लगे हैं? मैं ऐसा कोई शुत्रनहीं देखता, जो युद्धमें हम देवताओंका तिरस्कार कर सके ।। ३९ ।।

बृहस्पतिरुवाच

तवापराधाद् देवेन्द्र प्रमादाच्च शतक्रतो ।

तपसा वालखिल्यानां महर्षीणां महात्मनाम् ।। ४० ।।

कश्यपस्य मुनेः पुत्रो विनतायाश्च खेचरः ।

हर्तुं सोममभिप्राप्तो बलवान् कामरूपधृक् ।। ४१ ।।

बृहस्पतिजीने कहा-देवराज इन्द्र! तुम्हारे ही अपराध और प्रमादसे तथा महात्मावालखिल्य महर्षियोंके तपके प्रभावसे कश्यप मुनि और विनताके पुत्र पक्षिराज गरुडअमृतका अपहरण करनेके लिये आ रहे हैं। वे बड़े बलवान् और इच्छानुसार रूप धारणकरनेमें समर्थ हैं ।। ४०-४१ ।।

समर्थों बलिनां श्रेष्ठो हर्तुं सोमं विहंगमः ।

सर्वं सम्भावयाम्यस्मिन्नसाध्यमपि साधयेत् ।। ४२ ।।

बलवानों में श्रेष्ठ आकाशचारी गरुड अमृत हर ले जानेमें समर्थ हैं। मैं उनमें सबप्रकारकी शक्तियोंके होनेकी सम्भावना करता हूँ। वे असाध्य कार्य भी सिद्ध कर सकतेहैं ।। ४२ ।।

सौतिरुवाच

श्रुत्वैतद् वचनं शक्रः प्रोवाचामृतरक्षिणः ।

महावीर्यबलः पक्षी ह्तुं सोममिहोद्यतः ।। ४३ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-बृहस्पतिजीकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्र अमृतकी रक्षाकरनेवाले देवताओंसे बोले-‘रक्षको! महान् पराक्रमी और बलवान् पक्षी गरुड यहाँसेअमृत हर ले जानेको उद्यत हैं ।। ४३ ।।

युष्मान् सम्बोधयाम्येष यथा न स हरेद् बलात् ।

अतुलं हि बलं तस्य बृहस्पतिरुवाच ह ।। ४४ ।।

‘मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ, जिससे वे बलपूर्वक इस अमृतको न ले जा सकें।बृहस्पतिजीने कहा है कि उनके बलकी कहीं तुलना नहीं है’ ।। ४४ ।।

तच्छुत्वा विबुधा वाक्यं विस्मिता यत्नमास्थिताः।

परिवार्यामृतं तस्थुर्वज्री चेन्द्रः प्रतापवान् ।। ४५ ।।

इन्द्रकी यह बात सुनकर देवता बड़े आश्चर्यमें पड़ गये और यत्नपूर्वक अमृतको चारोंओरसे घेरकर खड़े हो गये। प्रतापी इन्द्र भी हाथमें वज्र लेकर वहाँ डट गये ।। ४५ ।।

धारयन्तो विचित्राणि काञ्चनानि मनस्विनः ।

कवचानि महाह्ाणि वैदूर्यविकृतानि च ।। ४६ ।।

मनस्वी देवता विचित्र सुवर्णमय तथा बहुमूल्य वैदूर्य मणिमय कवच धारण करनेलगे ।। ४६ ।।

चर्माण्यपि च गात्रेषु भानुमन्ति दृढानि च ।

विविधानि च शस्त्राणि घोररूपाण्यनेकशः ।। ४७ ।।

शिततीक्ष्णाग्रधाराणि समुद्यम्य सुरोत्तमाः।

सविस्फुलिङ्गज्वालानि सधूमानि च सर्वशः ।। ४८ ।।

चक्राणि परिघांश्चैव त्रिशूलानि परश्वधान् ।

शक्तीश्च विविधास्तीक्ष्णाः करवालांश्च निर्मलान् ।

स्वदेहरूपाण्यादाय गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः ।। ४९ ।।

उन्होंने अपने अंगोंमें यथास्थान मजबूत और चमकीले चमड़ेके बने हुए हाथके मोजेआदि धारण किये। नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। उन सब आयुधोंकी धारबहुत तीखी थी। वे श्रेष्ठ देवता सब प्रकारके आयुध लेकर युद्धके लिये उद्यत हो गये। उनकेपास ऐसे-ऐसे चक्र थे, जिनसे सब ओर आगकी चिनगारियाँ और धूमसहित लपटें प्रकटहोती थीं। उनके सिवा परिघ, त्रिशूल, फरसे, भाँति-भाँतिकी तीखी शक्तियाँ चमकीले खड्गऔर भयंकर दिखायी देनेवाली गदाएँ भी थीं। अपने शरीरके अनुरूप इन अस्त्र-शस्त्रोंकोलेकर देवता डट गये ।। ४७-४९ ।।

तैः शस्त्रैर्भानुमद्भिस्ते दिव्याभरणभूषिताः ।

भानुमन्तः सुरगणास्तस्थुर्विगतकल्मषाः ।। ५० ।।

दिव्य आभूषणोंसे विभूषित निष्पाप देवगण तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रोंके साथ अधिकप्रकाशमान हो रहे थे ।। ५० ।।

अनुपमबलवीर्यतेजसो धृतमनसः परिरक्षणेऽमृतस्य ।

असुरपुरविदारणाः सुरा ज्वलनसमिद्धवपुःप्रकाशिनः । ५१ ।।

उनके बल, पराक्रम और तेज अनुपम थे, जो असुरोंके नगरोंका विनाश करनेमें समर्थएवं अग्निके समान देदीप्यमान शरीरसे प्रकाशित होनेवाले थे; उन्होंने अमृतकी रक्षाके लियेअपने मनमें दृढ़ निश्चय कर लिया था ।। ५१ ।।

इति समरवरं सुराः स्थितास्ते परिघसहस्रशतैः समाकुलम् ।

विगलितमिव चाम्बरान्तरं तपनमरीचिविकाशितं बभासे ।। ५२ ।।

इस प्रकार वे तेजस्वी देवता उस श्रेष्ठ समरके लिये तैयार खड़े थे। वह रणांगण लाखोंपरिघ आदि आयुधोंसे व्याप्त होकर सूर्यकी किरणोंद्वारा प्रकाशित एवं टूटकर गिरे हुए दूसरेआकाशके समान सुशोभित हो रहा था ।। ५२ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रिंशोऽध्यायः ।। ३० ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ३० ।।

एकत्रिंशोऽध्यायः

इन्द्रके द्वारा वालखिल्योंका अपमान और उनकी तपस्याके प्रभावसे अरुण एवं गरुडकी उत्पत्ति

शौनक उवाच

कोऽपराधो महेन्द्रस्य कः प्रमादश्च सूतज ।

तपसा वालखिल्यानां सम्भूतो गरुडः कथम् ।। १ ।।

शौनकजीने पूछा-सूतनन्दन! इन्द्रका क्या अपराध और कौन-सा प्रमाद था?वालखिल्य मुनियोंकी तपस्याके प्रभावसे गरुडकी उत्पत्ति कैसे हुई थी? ।। १ ।।

कश्यपस्य द्विजातेश्च कथं वै पक्षिराट् सुतः ।

अधृष्यः सर्वभूतानामवध्यश्चाभवत् कथम् ।। २ ।।

कश्यपजी तो ब्राह्मण हैं, उनका पुत्र पक्षिराज कैसे हुआ? साथ ही वह समस्तप्राणियोंके लिये दुर्धर्ष एवं अवध्य कैसे हो गया? ।। २ ।।

कथं च कामचारी स कामवीर्यश्व खेचरः ।

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पुराणे यदि पठ्यते ।। ३ ।।

उस पक्षीमेंगयी? मैं यह सब सुनना चाहता हूँ। यदि पुराणमें कहीं इसका वर्णन हो तो सुनाइये इच्छानुसार चलने तथा रुचिके अनुसार पराक्रम करनेकी शक्ति कैसे आ।। ३ ।। 

सौतिरुवाच

विषयोऽयं पुराणस्य यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।

शृणु मे वदतः सर्वमेतत् संक्षेपतो द्विज ।। ४ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-ब्रह्मन्! आप मुझसे जो पूछ रहे हैं, वह पुराणका ही विषय है। मैंसंक्षेपमें ये सब बातें बता रहा हूँ, सुनिये ।। ४ ।।

यजतः पुत्रकामस्य कश्यपस्य प्रजापतेः ।

साहाय्यमृषयो देवा गन्धर्वाश्च ददुः किल ।। ५ ।।

कहते हैं, प्रजापति कश्यपजी पुत्रकी कामनासे यज्ञ कर रहे थे, उसमें ऋषियों,देवताओं तथा गन्धर्वोने भी उन्हें बड़ी सहायता दी ।। ५ ।।

तत्रेध्मानयने शक्रो नियुक्तः कश्यपेन ह।

मुनयो वालखिल्याश्च ये चान्ये देवतागणाः ।। ६ ।।

उस यज्ञमें कश्यपजीने इन्द्रको समिधा लानेके कामपर नियुक्त किया था । वालखिल्यमुनियों तथा अन्य देवगणोंको भी यही कार्य सौंपा गया था ।। ६ ।।

शक्रस्तु वीर्यसदृशमिध्यभारं गिरिप्रभम् ।

समुद्यम्यानयामास नातिकृच्छ्रादिव प्रभुः ।। ७ ।।

इन्द्र शक्तिशाली थे। उन्होंने अपने बलके अनुसार लकड़ीका एक पहाड़-जैसा बोझउठा लिया और उसे बिना कष्टके ही वे ले आये ।। ७ ।।

अथापश्यदृषीन् हरस्वानङ्गुष्ठोदरवरष्म्मणः ।

पलाशवर्तिकामेकां वहतः संहतान् पथि ।। ८ ।।

उन्होंने मार्गमें बहुत-से ऐसे ऋषियोंको देखा जो कदमें बहुत ही छोटे थे। उनका साराशरीर अँगूठेके मध्यभागके बराबर था। वे सब मिलकर पलाशकी एक बाती (छोटी-सीटहनी) लिये आ रहे थे ।। ८ ।।

प्रलीनान् स्वेष्विवाङ्गेषु निराहारांस्तपोधनान् ।

क्लिश्यमानान् मन्दबलान् गोष्पदे सम्प्लुतोदके ।। ९ ।।

उन्होंने आहार छोड़ रखा था। तपस्या ही उनका धन था। वे अपने अंगोंमें ही समायेहुए-से जान पड़ते थे। पानीसे भरे हुए गोखुरके लाँघनेमें भी उन्हें बड़ा क्लेश होता था।उनमें शारीरिक बल बहुत कम था ।। ९ ।।

तान् सर्वान् विस्मयाविष्टो वीर्योन्मत्तः पुरन्दरः ।

अवहस्याभ्यगाच्छीघ्रं लङ्घयित्वावमन्य च ।। १० ।।

अपने बलके घमंडमें मतवाले इन्द्रने आश्चर्य-चकित होकर उन सबको देखा औरउनकी हँसी उड़ाते हुए वे अपमानपूर्वक उन्हें लाँघकर शीघ्रताके साथ आगे बढ़गये ।। १० ।।

तेऽथ रोषसमाविष्टाः सुभृशं जातमन्यवः ।

आरेभिरे महत् कर्म तदा शक्रभयंकरम् ।। ११ ।।

इन्द्रके इस व्यवहारसे वालखिल्य मुनियोंको बड़ा रोष हुआ। उनके हृदयमें भारीक्रोधका उदय हो गया। अतः उन्होंने उस समय एक ऐसे महान् कर्मका आरम्भ किया,जिसका परिणाम इन्द्रके लिये भयंकर था ।। ११ ।।

जुहुवुस्ते सुतपसो विधिवज्जातवेदसम् ।

मन्त्रैरुच्चावचैर्विप्रा येन कामेन तच्छृणु ।। १२ ।।

ब्राह्मणो! वे उत्तम तपस्वी वालखिल्य मनमें जो कामना रखकर छोटे-बड़े मन्त्रोंद्वाराविधिपूर्वक अग्निरमें आहुति देते थे, वह बताता हूँ, सुनिये ।। १२ ।।

कामवीर्यः कामगमो देवराजभयप्रदः ।

इन्द्रोऽन्यः सर्वदेवानां भवेदिति यतव्रताः ।। १३ ।।

संयमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे महर्षि यह संकल्प करते थे कि-सम्पूर्ण देवताओंके लिये कोई दूसरा ही इन्द्र उत्पन्न हो, जो वर्तमान देवराजके लियेभयदायक, इच्छानुसार पराक्रम करने-वाला और अपनी रुचिके अनुसार चलनेकी शक्तिरखनेवाला हो ।। १३ ।।

इन्द्राच्छतगुणः शौर्ये वीर्ये चैव मनोजवः।

तपसो नः फलेनाद्य दारुणः सम्भवत्वचिति ।। १४ ।।

‘शौर्य और वीर्यमें इन्द्रसे वह सौगुना बढ़कर हो। उसका वेग मनके समान तीव्र हो।हमारी तपस्याके फलसे अब ऐसा ही वीर प्रकट हो जो इन्द्रके लिये भयंकर हो’ ।। १४ ।।

तद् बुद्ध्वा भृशसंतप्तो देवराजः शतक्रतुः ।

जगाम शरणं तत्र कश्यपं संशितव्रतम् ।। १५ ।।

उनका यह संकल्प सुनकर सौ यज्ञोंका अनुष्ठान पूर्ण करनेवाले देवराज इन्द्रको बड़ासंताप हुआ और वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले कश्यपजीकी शरणमें गये ।। १५ ।।

तच्छरुत्वा देवराजस्य कश्यपोऽथ प्रजापतिः ।

वालखिल्यानुपागम्य कर्मसिद्धिमपृच्छत ।। १६ ।।

देवराज इन्द्रके मुखसे उनका संकल्प सुनकर प्रजापति कश्यप वालखिल्योंके पास गयेऔर उनसे उस कर्मकी सिद्धिके सम्बन्धमें प्रश्न किया।। १६ ।।

एवमस्त्विति तं चापि प्रत्यूचु: सत्यवादिनः ।

तान् कश्यप उवाचेदं सान्त्वपूर्वं प्रजापतिः ।। १७ ।।

सत्यवादी महर्षि वालखिल्योंने ‘हाँ ऐसी ही बात है’ कहकर अपने कर्मकी सिद्धिकाप्रतिपादन किया। तब प्रजापति कश्यपने उन्हें सान्त्वनापूर्वक समझाते हुए कहा।। १७ ।।

अयमिन्द्रस्त्रिभुवने नियोगाद् ब्रह्मणः कृतः ।

इन्द्रार्थे च भवन्तोऽपि यत्नवन्तस्तपोधनाः ।। १८ ।।

‘तपोधनो! ब्रह्माजीकी आज्ञासे ये पुरन्दर तीनों लोकोंके इन्द्र बनाये गये हैं औरआपलोग भी दूसरे इन्द्रकी उत्पत्तिके लिये प्रयत्नशील हैं ।। १८ ।।

न मिथ्या ब्रह्मणो वाक्यं कर्तुमर्हथ सत्तमाः ।

भवतां हि न मिथ्यायं संकल्पो वै चिकीर्षितः ।। १९ ।।

‘संत-महात्माओ! आप ब्रह्माजीका वचन मिथ्या न करें । साथ ही मैं यह भी चाहता हूँकि आपके द्वारा किया हुआ यह अभीष्ट संकल्प भी मिथ्या न हो ।। १९ ।।

भवत्वेष पतत्त्रीणामिन्द्रोऽतिबलसत्त्ववान् ।

प्रसादः क्रियतामस्य देवराजस्य याचतः ।॥ २० ।।

‘अतः अत्यन्त बल और सत्त्वगुणसे सम्पन्न जो यह भावी पुत्र है,हो। देवराज इन्द्र आपके पास याचक बनकर आये हैं, आप इनपर अनुग्रह करें’ ।। २० ।।

एवमुक्ताः कश्यपेन वालखिल्यास्तपोधनाः।

प्रत्यूचुरभिसम्पूज्य मुनिश्रेष्ठं प्रजापतिम् ।। २१ ।।

महर्षि कश्यपके ऐसा कहनेपर तपस्याके धनी वालखिल्य मुनि उन मुनिश्रेष्ठप्रजापतिका सत्कार करके बोले ।। २१ ।

यह पक्षियोंका इन्द्रवालखिल्या ऊचुः

इन्द्रार्थोऽयं समारम्भः सर्वेषां नः प्रजापते ।

अपत्यार्थं समारम्भो भवतश्चायमीप्सितः ।। २२ ।।

तदिदं सफलं कर्म त्वयैव प्रतिगृह्यताम् ।

तथा चैवं विधत्स्वात्र यथा श्रेयोऽनुपश्यसि ।। २३ ।।

वालखिल्योंने कहा-प्रजापते! हम सब लोगोंका यह अनुष्ठान इन्द्रके लिये हुआ थाऔर आपका यह यज्ञसमारोह संतानके लिये अभीष्ट था। अतः इस फलसहित कर्मको आपही स्वीकार करें और जिसमें सबकी भलाई दिखायी दे, वैसा ही करें ।। २२-२३ ।।

सौतिरुवाच

एतस्मिन्नेव काले तु देवी दाक्षायणी शुभा ।

विनता नाम कल्याणी पुत्रकामा यशस्विनी ।। २४ ।।

तपस्तप्त्वा व्रतपरा स्नाता पुंसवने शुचिः ।

उपचक्राम भर्तारं तामुवाचाथ कश्यपः ।। २५ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-इसी समय शुभलक्षणा दक्षकन्या कल्याणमयी विनता देवी,जो उत्तम यशसे सुशोभित थी, पुत्रकी कामनासे तपस्यापूर्वक ब्रह्मचर्य -व्रतका पालन करनेलगी। आनेपर जब वह स्नान करके शुद्ध हुई, तब अपने स्वामीकी सेवामें गयी। ऋतुकालउस समय कश्यपजीने उससे कहा-।। २४-२५ ।।

आरम्भः सफलो देवि भविता यस्त्वयेप्सितः ।

जनयिष्यसि पुत्रौ द्वौ वीरौ त्रिभुवनेश्वरौ ।। २६ ।।

‘देवि! तुम्हारा यह अभीष्ट समारम्भ अवश्य सफल होगा। तुम ऐसे दो पुत्रोंको जन्मदोगी, जो बड़े वीर और तीनों लोकोंपर शासन करनेकी शक्ति रखनेवाले होंगे ।। २६ ।।

तपसा वालखिल्यानां मम संकल्पजौ तथा ।

भविष्यतो महाभागौ पुत्रौ त्रैलोक्यपूजितौ ।। २७ ।।

‘वालखिल्योंकी तपस्या तथा मेरे संकल्पसे तुम्हें दो परम सौभाग्यशाली पुत्र प्राप्त होंगे,जिनकी तीनों लोकोंमें पूजा होगी’ ।। २७ ।।

उवाच चैनांधार्यतामप्रमादेन गर्भोऽयं सुमहोदयः ।। २८ ।।

इतना कहकर भगवान् कश्यपने पुनः विनतासे कहा-‘देवि! यह गर्भ महान्अभ्युदयकारी होगा, अतः इसे सावधानीसे धारण करो ।। २८ ।।

एतौ सर्वपतत्त्रीणामिन्द्रत्वं कारयिष्यतः ।

लोकसम्भावितौ वीरौ कामरूपौ विहंगमौ ।। २९ ।।

वान् कश्यपः पुनरेव ह ।’तुम्हारे ये दोनों पुत्र सम्पूर्ण पक्षियोंके इन्द्रपदका उपभोग करेंगे। स्वरूपसे पक्षी होतेहुए भी इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ और लोक-सम्भावित वीर होंगे’ ।। २९ ।।

शतक्रतुमथोवाच प्रीयमाणः प्रजापतिः ।

त्वत्सहायौ महावीर्यौ भ्रातरौ ते भविष्यतः ।। ३० ।।

नैताभ्यां भविता दोषः सकाशात् ते पुरन्दर ।

व्येतु ते शक्र संतापस्त्वमेवेन्द्रो भविष्यसि ।। ३१ ।।

विनतासे ऐसा कहकर प्रसन्न हुए प्रजापतिने शतक्रतु इन्द्रसे कहा -‘पुरन्दर! ये दोनोंमहापराक्रमी भ्राता तुम्हारे सहायक होंगे। तुम्हें इनसे कोई हानि नहीं होगी। इन्द्र! तुम्हारासंताप दूर हो जाना चाहिये। देवताओंके इन्द्र तुम्हीं बने रहोगे ।। ३० – ३१ ।।

न चाप्येवं त्वया भूयः क्षेप्तव्या ब्रह्मवादिनः ।

न चावमान्या दर्पात् ते वाग्वज्रा भृशकोपनाः ।। ३२ ।।

‘एक बात ध्यान रखना-आजसे फिर कभी तुम घमंडमें आकर ब्रह्मवादीमहात्माओंका उपहास और अपमान न करना; क्योंकि उनके पास वाणीरूप अमोघ वज्र हैतथा वे तीक्ष्ण कोपवाले होते हैं’ ।। ३२ ।।

एवमुक्तो जगामेन्द्रो निर्विशङ्कस्त्रिविष्टपम् ।

विनता चापि सिद्धार्था बभूव मुदिता तथा ।। ३३ ।।

कश्यपजीके ऐसा कहनेपर देवराज इन्द्र निःशंक होकर स्वर्गलोकमें चले गये। अपनामनोरथ सिद्ध होनेसे विनता भी बहुत प्रसन्न हुई ।। ३३ ।।

जनयामास पुत्रौ द्वावरुणं गरुडं तथा।

विकलाङ्गोऽरुणस्तत्र भास्करस्य पुरःसरः ।। ३४ ।।

उसने दो पुत्र उत्पन्न किये-अरुण और गरुड। जिनके अंग कुछ अधूरे रह गये थे,अरुण कहलाते हैं, वे ही सूर्यदेवके सारथि बनकर उनके आगे- आगे चलते हैं ।। ३४ ।।

पतत्त्रीणां च गरुडमिन्द्रत्वेनाभ्यषिञ्चत ।

तस्यैतत् कर्म सुमहच्छरूयतां भृगुनन्दन ।। ३५ ।।

भृगुनन्दन! दूसरे पुत्र गरुडका पक्षियोंके इन्द्र-पदपर अभिषेक किया गया| अब तुमगरुडका यह महान् पराक्रम सुनो ।। ३५ ।।

वेइति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकत्रिंशोऽध्यायः ।। ३१ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ३१ ।।

द्वात्रिंशोऽध्यायः

गरुडका देवताओके साथ युद्ध और देवताओंकी पराजय

सौतिरुवाच

ततस्तस्मिन् द्विजश्रेष्ठ समुदीर्णे तथाविधे ।

गरुडः पक्षिराट् तूर्णं सम्प्राप्तो विबुधान् प्रति ।। १ ।।

तं दृष्ट्वातिबलं चैव प्राकम्पन्त सुरास्ततः ।

परस्परं च प्रत्यघ्नन् सर्वप्रहरणान्युत ।। २ ।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-द्विजश्रेष्ठ! देवताओंका समुदाय जब इस प्रकार भाँति-भाँतिकेअस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न हो युद्धके लिये उद्यत हो गया, उसी समय पक्षिराज गरुड तुरंत हीदेवताओंके पास जा पहुँचे। उन अत्यन्त बलवान् गरुडको देखकर सम्पूर्ण देवता काँप उठे।उनके सभी आयुध आपसमें ही आघात-प्रत्याघात करने लगे ।। १-२ ।।

तत्र चासीदमेयात्मा विद्युदग्निसमप्रभः ।

भौमनः सुमहावीर्यः सोमस्य परिरक्षिता ।। ३ ।।

वहाँ विद्युत् एवं अग्निके समान तेजस्वी और महापराक्रमी अमेयात्मा भौमन(विश्वकर्मा) अमृतकी रक्षा कर रहे थे ।। ३ ।।

स तेन पतगेन्द्रेण पक्षतुण्डनखक्षतः ।

मुहूर्तमतुलं युद्धं कृत्वा विनिहतो युधि ।। ४ ।।

वे पक्षिराजके साथ दो घड़ीतक अनुपम युद्ध करके उनके पंख, चोंच और नखोंसेघायल हो उस रणांगणमें मृतकतुल्य हो गये ।। ४ ।।

रजश्चोद्धूय सुमहत् पक्षवातेन खेचरः ।

कृत्वा लोकान् निरालोकांस्तेन देवानवाकिरत् ।। ५ ।।

तदनन्तर पक्षिराजने अपने पंखोंकी प्रचण्ड वायुसे बहुत धूल उड़ाकर समस्त लोकोंमेंअन्धकार फैला दिया और उसी धूलसे देवताओंको ढक दिया।। ५ ।।

तेनावकी्णा रजसा देवा मोहमुपागमन् ।

न चैवं ददृशुश्छन्ना रजसामृतरक्षिणः ।। ६ ।।

उस धूलसे आच्छादित होकर देवता मोहित हो गये। अमृतकी रक्षा करनेवाले देवता भीइसी प्रकार धूलसे ढक जानेके कारण कुछ देख नहीं पाते थे ।। ६ ।।

एवं संलोडयामास गरुडस्त्रिदिवालयम् ।

पक्षतुण्डप्रहारैस्तु देवान् स विददार ह ।। ७ ।।

इस तरह गरुडने स्वर्गलोकको व्याकुल कर दिया और पंखों तथा चोंचोंकी मारसेदेवताओंका अंग-अंग विदीर्ण कर डाला ।। ७ ।।

ततो देवः सहस्राक्षस्तूर्णं वायुमचोदयत् ।

विक्षिपेमां रजोवृष्टिं तवेदं कर्म मारुत ।। ८ ।।

तब सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रदेवने तुरंत ही वायुको आज्ञा दी – ‘मारुत! तुम इस धूलकीवृष्टिको दूर हटा दो; क्योंकि यह काम तुम्हारे ही वशका है’ ।। ८ ।।

अथ वायुरपोवाह तद् रजस्तरसा बली ।

ततो वितिमिरे जाते देवाः शकुनिमार्दयन् ।। ९ ।।

तब बलवान् वायुदेवने बड़े वेगसे उस धूलको दूर उड़ा दिया। इससे वहाँ फैला हुआअन्धकार दूर हो गया। अब देवता अपने अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा पक्षी गरुडको पीडित करनेलगे ।। ९ ।।

ननादोच्चैः स बलवान् महामेघ इवाम्बरे ।

वध्यमानः सुरगणैः सर्वभूतानि भीषयन् ।॥ १० ।।

देवताओंके प्रहारको सहते हुए महाबली गरुड आकाशमें छाये हुए महामेघकी भाँतिसमस्त प्राणियोंको डराते हुए जोर-जोरसे गर्जना करने लगे ।। १० ।।

उत्पपात महावीर्यः पक्षिराट् परवीरहा ।

समुत्पत्यान्तरिक्षस्थं देवानामुपरि स्थितम् ।। ११ ।।

वर्मिणो विबुधाः सर्वे नानाशस्त्रैरवाकिरन् ।

पट्टिशैः परिघैः शूलैर्गदाभिश्च सवासवाः ।। १२ ।।

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पक्षिराज बड़े पराक्रमी थे। वे आकाशमें बहुत ऊँचे उड़गये। उड़कर अन्तरिक्षमें देवताओंके ऊपर (ठीक सिरकी सीधमे) खड़े हो गये। उस समयकवच धारण किये इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उनपर पट्टिश, परिघ, शूल और गदा आदि नानाप्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा प्रहार करने लगे ।। ११-१२ ।।

क्षुरप्रैज्ज्वलितैश्चापि चक्रैरादित्यरूपिभिः ।

नानाशस्त्रविसर्गैस्तैर्वध्यमानः समन्ततः ।। १३ ।।

अग्निके समान प्रज्वलित क्षुरप्र, सूर्यके समान उद्भासित होनेवाले चक्र तथा नानाप्रकारके दूसरे-दूसरे शस्त्रोंके प्रहारद्वारा उनपर सब ओरसे मार पड़ रही थी ।। १३ ।।

कुर्वन् सुतुमुलं युद्धं पक्षिराण्न व्यकम्पत ।

निर्दहन्निव चाकाशे वैनतेयः प्रतापवान् ।

पक्षाभ्यामुरसा चैव समन्ताद् व्याक्षिपत् सुरान् ।। १४ ।।

तो भी पक्षिराज गरुड देवताओंके साथ तुमुल युद्ध करते हुए तनिक भी विचलित नहुए। परम प्रतापी विनतानन्दन गरुडने, मानो देवताओंको दग्ध कर डालेंगे, इस प्रकाररोषमें भरकर आकाशमें खड़े-खड़े ही पंखों और छातीके धक्केसे उन सबको चारों ओरमार गिराया ।। १४ ।।

ते विक्षिप्तास्ततो देवा दुद्रुवुर्गरुडार्दिताः ।

नखतुण्डक्षताश्चैव सुस्रुवुः शोणितं बहु ।। १५ ।।

गरुडसे पीड़ित और दूर फेंके गये देवता इधर-उधर भागने लगे। उनके नखों औरचोंचसे क्षत-विक्षत हो वे अपने अंगोंसे बहुत-सा रक्त बहाने लगे ।। १५ ।।

साध्याः प्राचीं सगन्धर्वा वसवो दक्षिणां दिशम् ।

प्रजग्मुः सहिता रुद्राः पतगेन्द्रप्रधर्षिताः ।। १६ ।।

पक्षिराजसे पराजित हो साध्य और गन्धर्व पूर्व दिशाकी ओर भाग चले। वसुओं तथारुद्रोंने दक्षिण दिशाकी शरण ली ।। १६ ।।

दिशं प्रतीचीमादित्या नासत्यावुत्तरां दिशम् ।

मुहुर्मुहुः प्रेक्षमाणा युध्यमाना महौजसः ।। १७ ।।

आदित्यगण पश्चिम दिशाकी ओर भागे तथा अश्विनीकुमारोंने उत्तर दिशाका आश्रयलिया। ये महा-पराक्रमी योद्धा बार-बार पीछेकी ओर देखते हुए भाग रहे थे ।। १७ ।।

अश्वक्रन्देन वीरेण रेणुकेन च पक्षिराट् ।

क्रथनेन च शूरेण तपनेन च खेचरः ।। १८ ।।

उलूकश्वसनाभ्यां च निमेषेण च पक्षिराट् ।

प्ररुजेन च संग्रामं चकार पुलिनेन च ।। १९ |।

इसके बाद आकाशचारी पक्षिराज गरुडने वीर अश्वक्रन्द, रेणुक, शूरवीर क्रथन, तपन,उलूक, श्वसन, निरमेष, प्ररुज तथा पुलिन- इन नौ यक्षोंके साथ युद्ध किया ।। १८-१९ ।।

तान् पक्षनखतुण्डाग्रैरभिनद् विनतासुतः ।

युगान्तकाले संक्रुद्धः पिनाकीव परंतपः ।। २० ।।

शत्रुओंका दमन करनेवाले विनताकुमारने प्रलय-कालमें कुपित हुए पिनाकधारी रुद्रकीभाँति क्रोधमें भरकर उन सबको पंखों, नखों और चोंचके अग्रभागसे विदीर्ण करडाला ।। २० ।।

महाबला महोत्साहास्तेन ते बहुधा क्षताः ।

रेजुरभ्रघनप्रख्या रुधिरौघप्रवर्षिणः ।। २१ ।।

वे सभी यक्ष बड़े बलवान् और अत्यन्त उत्साही थे; उस युद्धमें गरुडद्वारा बार-बारक्षत-विक्षत होकर वे सूनकी धारा बहाते हुए बादलोंकी भाँति शोभा पा रहे थे ।। २१ ।।

तान् कृत्वा पतगश्रेष्ठः सर्वानुत्क्रान्तजीवितान् ।

अतिक्रान्तोऽमृतस्यार्थे सर्वतोऽग्निमपश्यत ।। २२ ।।

पक्षिराज उन सबके प्राण लेकर जब अमृत उठानेके लिये आगे बढ़े, तब उसके चारोंओर उन्होंने आग जलती देखी ।। २२ ।।

आवृण्वानं महाज्वालमर्चिर्भिः सर्वतोऽम्बरम् ।

दहन्तमिव तीक्ष्णांशुं चण्डवायुसमीरितम् ।। २३ ।।

थी। उससे बड़ी वह आग अपनी लपटोंसे वहाँके समस्त आकाशको ऊँची ज्वालाएँ उठ रही थीं। वह सूर्यमण्डलकी भाँति दाह उत्पन्न करती और प्रचण्ड वायुसे प्रेरित हो अधिकाधिक प्रज्वलित होती रहती थी ।। २३ ।।

ततो नवत्या नवतीर्मुखानां कृत्वा महात्मा गरुडस्तरस्वी ।

नदीः समापीय मुखैस्ततस्तैः सुशीघ्रमागम्य पुनर्जवेन । २४ ।।

ज्वलन्तमग्निं तममित्रतापनः समास्तरत्पत्ररथो नदीभिः ।

ततः प्रचक्रे वपुरन्यदल्पं प्रवेष्टुकामोऽग्निर्मभिप्रशाम्य ।। २५ ।।

तब वेगशाली महात्मा गरुडने अपने शरीरमें आठ हजार एक सौ मुख प्रकट करके उनके द्वारा नदियोंका जल पी लिया और पुनः बड़े वेगसे शीघ्रतापूर्वक वहाँ आकर उस जलती हुई आगपर वह सब जल उड़ेल दिया। इस प्रकार शत्रुओंको ताप देनेवाले पक्षवाहन गरुडने नदियोंके जलसे उस आगको बुझाकर अमृतके पास पहुँचनेकी इच्छासे एक दूसरा बहुत छोटा रूप धारण कर लिया ।। २४-२५ ।।

आवृत किये ‘हुए

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे द्वात्रिंशोऽध्यायः ।। ३२ ।। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक बत्तीसर्ाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ३२ ।।

त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः

गरुडका अमृत लेकर लौटना, मार्गमें भगवान् विष्णुसे वर पाना एवं उनपर इन्द्रके द्वारा वज्र-प्रहार

सौतिरुवाच

जाम्बूनदमयो भूत्वा मरीचिनिकरोज्ज्वलः।

प्रविवेश बलात् पक्षी वारिवेग इवार्णवम् ।। १ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-तदनन्तर जैसे जलका वेग समुद्रमें प्रवेश करता है, उसी प्रकारपक्षिराज गरुड सूर्यकी किरणोंके समान प्रकाशमान सुवर्णमय स्वरूप धारण करकेबलपूर्वक जहाँ अमृत था, उस स्थानमें घुस गये ।। १ ।।

सचक्र क्षुरपर्यन्तमपश्यदमृतान्तिके ।

परिभ्रमन्तमनिशं तीक्ष्णधारमयस्मयम् ।। २ ।।

उन्होंने देखा, अमृतके निकट एक लोहेका चक्र घूम रहा है। उसके चारों ओर छुरे लगेहुए हैं। वह निरन्तर चलता रहता है और उसकी धार बड़ी तीखी है ।। २ ।।

ज्वलनार्कप्रभं घोरं छेदनं सोमहारिणाम् ।

घोररूपं तदत्यर्थं यन्त्रं देवैः सुनिर्मितम् ।। ३ ।।

वह घोर चक्र अग्नि और सूर्यके समान जाज्वल्यमान था। देवताओंने उस अत्यन्तभयंकर यन्त्रका निर्माण इसलिये किया था कि वह अमृत चुरानेके लिये आये हुए चोरोंकेटुकड़े-टुकड़े कर डाले ।। ३ ।।

तस्यान्तरं स दृष्ट्वैव पर्यवर्तत खेचरः ।

अरान्तरेणाभ्यपतत् संक्षिप्याङ्गं क्षणेन ह ।। ४ ।।

पक्षी गरुड उसके भीतरका छिद्र-उसमें घुसनेका मार्ग देखते हुए खड़े रहे। फिर एकक्षणमें ही वे अपने शरीरको संकुचित करके उस चक्रके अरोंके बीचसे होकर भीतर घुसगये ।। ४ ।।

अधश्चक्रस्य चैवात्र दीप्तानलसमद्युती ।

विद्युज्जिह्हौ महावीर्यौ दीप्तास्यौ दीप्तलोचनौ ।। ५ ।।

चक्षुर्विषौ महाघोरौ नित्यं क्रुद्धौ तरस्विनौ ।

रक्षार्थमेवामृतस्य ददर्श भुजगोत्तमौ ।। ६ ।।

वहाँ चक्रके नीचे अमृतकी रक्षाके लिये ही दो श्रेष्ठ सर्प नियुक्त किये गये थे। उनकीकान्ति प्रज्वलित अग्निके समान जान पड़ती थी। बिजलीके समान उनकी लपलपाती हुईजीभें, देदीप्यमान मुख और चमकती हुई आँखें थीं । वे दोनों सर्प बड़े पराक्रमी थे। उनकेनेत्रोंमें ही विष भरा था। वे बड़े भयंकर, नित्य क्रोधी और अत्यन्त वेगशाली थे। गरुडने उनदोनोंको देखा ।। ५-६ ।।

सदा संरब्धनयनौ सदा चानिमिषेक्षणौ ।

तयोरेकोऽपि यं पश्येत् स तूर्ण भस्मसाद् भवेत् ।। ७ ।।

उनके नेत्रोंमें सदा क्रोध भरा रहता था। वे निरन्तर एकटक दृष्टिसे देखा करते थे(उनकी आँखें कभी बंद नहीं होती थीं)। उनमेंसे एक भी जिसे देख ले, वह तत्काल भस्महो सकता था ।। ७ ।।

तयोश्चक्षूंषि रजसा सुपर्णः सहसावृणोत् ।

ताभ्यामदृष्टरूपोऽसौ सर्वतः समताडयत् ।। ८।।

सुंदर पंखवाले गरुडजीने सहसा धूल झोंककर उनकी आँखें बंद कर दीं और उनसेअदृश्य रहकर ही वे सब ओरसे उन्हें मारने और कुचलने लगे ।। ८ ।।

तयोरङ्गे समाक्रम्य वैनतेयोऽन्तरिक्षगः ।

आच्छिनत् तरसा मध्ये सोममभ्यद्रवत् ततः ।। ९ ।।

समुत्पाट्यामृतं तत्र वैनतेयस्ततो बली ।

उत्पपात जवेनैव यन्त्रमुन्मथ्य वीर्यवान् ।। १० ।।

आकाशमें विचरनेवाले महापराक्रमी विनता-कुमारने वेगपूर्वक आक्रमण करके उनदोनों सर्पोंके शरीरको बीचसे काट डाला; फिर वे अमृतकी ओर झपटे और चक्रको तोड़-फोड़कर अमृतके पात्रको उठाकर बड़ी तेजीके साथ वहाँसे उड़ चले ।। ९-१० ।।

अपीत्वैवामृतं पक्षी परिगृह्याशु निःसृतः ।

आगच्छदपरिश्रान्त आवार्यार्कप्रभां ततः ।। ११ ।।

उन्होंने स्वयं अमृतको नहीं पीया, केवल उसे लेकर शीघ्रतापूर्वक वहाँसे निकल गयेऔर सूर्यकी प्रभाका तिरस्कार करते हुए बिना थकावटके चले आये ।। ११ ।।

विष्णुना च तदाकाशे वैनतेयः समेयिवान् ।

तस्य नारायणस्तुष्टस्तेनालौल्येन कर्मणा ।। १२ ।।

उस समय आकाशमें विनतानन्दन गरुडकी भगवान् विष्णुसे भेंट हो गयी। भगवान्नारायण गरुडके लोलुपतारहित पराक्रमसे बहुत संतुष्ट हुए थे ।। १२ ।।

तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम्।

स वव्रे तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरिक्षगः ।। १३ ।।

अतः उन अविनाशी भगवान् विष्णुने आकाशचारी गरुडसे कहा-‘मैं तुम्हें वर देनाचाहता हूँ।’ अन्तरिक्षमें विचरनेवाले गरुडने यह वर माँगा – ‘प्रभो! मैं आपके ऊपर(ध्वजमें) स्थित होऊँ’ ।। १३ ।।

उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः ।

अजरश्चामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम् ।। १४ ।।

इतना कहकर वे भगवान् नारायणसे फिर यों बोले-‘भगवन्! मैं अमृत पीये बिना हीअजर-अमर हो जाऊँ’ ।। १४ ।।

एवमस्त्विति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम् ।

प्रतिगृह्य वरौ तौ च गरुडो विष्णुमब्रवीत् ।। १५ ।।

तब भगवान् विष्णुने विनतानन्दन गरुडसे कहा – ‘एवमस्तु’- ऐसा ही हो। वे दोनों वरग्रहण करके गरुडने भगवान् विष्णुसे कहा- I| १५ ।।

भवतेऽपि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपि ।

तं व्रे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम्।। १६ ।।

‘देव! मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ। भगवान् भी कोई वर माँगें।’ तब श्रीहरिनेमहाबली गरुत्मान्से अपना वाहन होनेका वर माँगा ।। १६ ।।

ध्वजं च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम् ।

एवमस्त्विति तं देवमुक्त्वा नारायणं खगः ।। १७ ।।

वव्राज तरसा वेगाद् वायुं स्पर्धन् महाजवः ।

तं व्रजन्तं खगश्रेष्ठं वज्रेणेन्द्रोऽभ्यताडयत् ।। १८ ।।

भगवान् विष्णुने गरुडको अपना ध्वज बना लिया-उन्हें ध्वजके ऊपर स्थान दियाऔर कहा-‘इस प्रकार तुम मेरे ऊपर रहोगे।’ तदनन्तर उन भगवान् नारायणसे ‘एवमस्तु’कहकर पक्षी गरुड वहाँसे वेग-पूर्वक चले गये। महान् वेगशाली गरुड उस समय वायुसेहोड़ लगाते चल रहे थे। पक्षियोंके सरदार उन खगश्रेष्ठ गरुडको अमृतका अपहरण करकेलिये जाते देख इन्द्रने रोषमें भरकर उनके ऊपर वज्रसे आघात किया।। १७-१८।।

हरन्तममृतं रोषाद् गरुडं पक्षिणां वरम् ।

तमुवाचेन्द्रमाक्रन्दे गरुडः पततां वरः ।। १९ ।।

प्रहसञ्श्लक्ष्णया वाचा तथा वज्रसमाहतः ।

ऋषेर्मानं करिष्यामि वज्रं यस्यास्थिसम्भवम् ।। २० ।।

वज्रस्य च करिष्यामि तवैव च शतक्रतो।

एतत् पत्रं त्यजाम्येकं यस्यान्तं नोपलप्स्यसे ।। २१ ।।

विहंगप्रवर गरुडने उस युद्धमें वज्राहत होकर भी हँसते हुए मधुर वाणीमें इन्द्रसे कहा-‘देवराज! जिनकी हड्डीसे यह वज्र बना है, उन महर्षिका सम्मान मैं अवश्य करूँगा।शतक्रतो! ऋषिके साथ-साथ तुम्हारा और तुम्हारे वज्रका भी आदर करूँगा; इसीलिये मैंअपनी एक पाँख, जिसका तुम कहीं अन्त नहीं पा सकोगे, त्याग देता हूँ ।। १९-२१ ।।

न च वज्रनिपातेन रुजा मेऽस्तीह काचन ।

एवमुक्त्वा ततः पत्रमुत्ससर्ज स पक्षिराट् ।। २२ ।।

‘तुम्हारे वज्रके प्रहारसे मेरे शरीरमें कुछ भी पीड़ा नहीं हुई है।’ ऐसा कहकर पक्षिराजनेअपना एक पंख गिरा दिया ।। २२ ।।

तदुत्सृष्टमभिप्रेक्ष्य तस्य पर्णमनुत्तमम् ।

हृष्टानि सर्वभूतानि नाम चक्रुर्गरुत्मतः ।। २३ ।।

उस गिरे हुए परम उत्तम पंखको देखकर सब प्राणियोंको बड़ा हर्ष हुआ और उसीकेआधारपर उन्होंने गरुडका नामकरण किया ।। २३ ।।

सुरूपं पत्रमालक्ष्य सुपर्णोऽयं भवत्विति।

तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं सहस्राक्षः पुरन्दरः ।

खगो महदिदं भूतमिति मत्वाभ्यभाषत ।। २४ ।।

वह सुन्दर पाँख देखकर लोगोंने कहा-‘जिसका यह सुन्दर पर्ण ( पंख) है, वह पक्षीसुपर्ण नामसे विख्यात हो।’ (गरुडपर वज्र भी निष्फल हो गया) यह महान् आश्वर्यकी बातदेखकर सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रने मन-ही-मन विचार किया-अहो! यह पक्षीरूपमें कोई महान्प्राणी है, ऐसा सोचकर उन्होंने कहा ।। २४ ।।

शक्र उवाच

बलं विज्ञातुमिच्छामि यत् ते परमनुत्तमम् ।

सख्यं चानन्तमिच्छामि त्वया सह खगोत्तम ।। २५ ।।

इन्द्रने कहा-विहंगप्रवर! मैं तुम्हारे सर्वोत्तम उत्कृष्ट बलको जानना चाहता हूँ औरतुम्हारे साथ ऐसी मैत्री स्थापित करना चाहता हूँ, जिसका कभी अन्त न हो ।। २५ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३३ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ३३ ।।

चतुस्त्रिंशोऽध्यायः

इन्द्र और गरुडकी मित्रता, गरुडका अमृत लेकर नागोंकेपास आना और विनताको दासीभावसे छुड़ाना तथा इन्द्रद्वारा अमृतका अपहरण

गरुड उवाच

सख्यं मेऽस्तु त्वया देव यथेच्छसि पुरन्दर ।

बलं तु मम जानीहि महच्चासह्यमेव च ।। १ ।।

गरुडने कहा-देव पुरन्दर! जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार तुम्हारे साथ (मेरी)मित्रता स्थापित हो। मेरा बल भी जान लो, वह महान् और असह्य है ।। १ ।।

कामं नैतत् प्रशंसन्ति सन्तः स्वबलसंस्तवम् ।

गुणसंकीर्तनं चापि स्वयमेव शतक्रतो ।। २ ।।

शतक्रतो! साधु पुरुष स्वेच्छासे अपने बलकी स्तुति और अपने ही मुखसे अपनेगुणोंका बखान अच्छा नहीं मानते ।। २ ।।

सखेति कृत्वा तु सखे पृष्टो वक्ष्याम्यहं त्वया ।

न ह्यात्मस्तवसंयुक्तं वक्तव्यमनिमित्ततः ।॥ ३ ।।

किंतु सखे! तुमने मित्र मानकर पूछा है, इसलिये मैं बता रहा हूँ; क्योंकि अकारण हीअपनी प्रशंसासे भरी हुई बात नहीं कहनी चाहिये ( किंतु किसी मित्रके पूछनेपर सच्ची बातकहनेमें कोई हर्ज नहीं है।) ।। ३ ।।

सपर्वतवनामुर्वीं ससागरजलामिमाम् ।

वहे पक्षेण वै शक्र त्वामप्यत्रावलम्बिनम् ।। ४ ।।

इन्द्र! पर्वत, वन और समुद्रके जलसहित सारी पृथ्वीको तथा इसके ऊपर रहनेवालेआपको भी अपने एक पंखपर उठाकर मैं बिना परिश्रमके उड़ सकता हूँ ।। ४ ।।

सर्वान् सम्पिण्डितान् वापि लोकान् सस्थाणुजङ्गमान् ।

वहेयमपरिश्रान्तो विद्धीदं मे महद् बलम् ।। ५ ।।

अथवा सम्पूर्ण चराचर लोकोंको एकत्र करके यदि मेरे ऊपर रख दिया जाय तो मैंसबको बिना परिश्रमके ढो सकता हूँ। इससे तुम मेरे महान् बलको समझ लो ।। ५ ।।

सौतिरुवाच

इत्युक्तवचनं वीरं किरीटी श्रीमतां वरः ।

आह शौनक देवेन्द्रः सर्वलोकहितः प्रभुः ।॥ ६ ।।

एवमेव यथात्थ त्वं सर्वं सम्भाव्यते त्वयि ।

संगृह्यतामिदानीं मे सख्यमत्यन्तमुत्तमम् ।। ७ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! वीरवर गरुडके इस प्रकार कहनेपर श्रीमानोंमें श्रेष्ठकिरीटधारी सर्वलोक-हितकारी भगवान् देवेनद्रने कहा – ‘ मित्र! तुम जैसा कहते हो, वैसी हीबात है। तुममें सब कुछ सम्भव है। इस समय मेरी अत्यन्त उत्तम मित्रता स्वीकारकरो ।। ६-७ ।।

न कार्यं यदि सोमेन मम सोमः प्रदीयताम् ।

अस्मांस्ते हि प्रबाधेयुर्येभ्यो दद्याद् भवानिमम् ।।८ ।।

‘यदि तुम्हें स्वयं अमृतकी आवश्यकता नहीं है तो वह मुझे वापस दे दो। तुम जिनकोयह अमृत देना चाहते हो, वे इसे पीकर हमें कष्ट पहुँचावेंगे’ ।। ८ ।।

गरुड उवाच

किंचित् कारणमुद्दिश्य सोमोऽयं नीयते मया ।

न दास्यामि समादातुं सोमं कस्मैचिदप्यहम् ।। ९ ।।

यत्रेमं तु सहस्राक्ष निक्षिपेयमहं स्वयम् ।

त्वमादाय ततस्तूर्णं हरेथास्त्रिदिवेश्वर ।। १० ।।

गरुडने कहा-स्वर्गके सम्राट् सहस्राक्ष! किसी कारणवश मैं यह अमृत ले जाता हूँ।इसे किसीको भी पीनेके लिये नहीं दूँगा। मैं स्वयं जहाँ इसे रख दूँ, वहाँसे तुरंत तुम उठा लेजा सकते हो ।। ९-१० ।।

शक्र उवाच

वाक्येनानेन तुष्टोऽहं यत् त्वयोक्तमिहाण्डज ।

यमिच्छसि वरं मत्तस्तं गृहाण खगोत्तम ।। ११ ।।

इन्द्र बोले-पक्षिराज! तुमने यहाँ जो बात कही है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। खगश्रेष्ठ!तुम मुझसे जो चाहो, वर माँग लो ।। ११ ।।

सौतिरुवाच

इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं कद्ूपुत्राननुस्मरन् ।

स्मृत्वा चैवोपधिकृतं मातुर्दास्यनिमित्ततः ।॥ १२ ।।

ईशोऽहमपि सर्वस्य करिष्यामि तु तेऽर्थिताम् ।

भवेयुर्भुजगाः शक्र मम भक्ष्या महाबलाः ।। १३ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-इन्द्रके ऐसा कहनेपर गरुडको कटूपुत्रोंकी दुष्टताका स्मरण होआया। साथ ही उनके उस कपटपूर्ण बर्तावकी भी याद आ गयी, जो माताको दासी बनानेमेंकारण था। अतः उन्होंने इन्द्रसे कहा-‘इन्द्र! यद्यपि मैं सब कुछ करनेमें समर्थ हूँ, तो भीतुम्हारी इस याचनाको पूर्ण करूँगा कि अमृत दूसरोंको न दिया जाय । साथ ही तुम्हारेकथनानुसार यह वर भी माँगता हूँ कि महाबली सर्प मेरे भोजनकी सामग्री होजायँ ।। १२-१३ ।।

तथेत्युक्त्वान्वगच्छत् तं ततो दानवसूदनः।

देवदेवं महात्मानं योगिनामीश्वरं हरिम् ।। १४ ।।

तब दानवशत्रु इन्द्र ‘तथास्तु’ कहकर योगीश्वर देवाधिदेव परमात्मा श्रीहरिके पासगये ।। १४ ।।

स चान्वमोदत् तं चार्थं यथोक्तं गरुडेन वै ।

इदं भूयो वचः प्राह भगवांस्त्रिदशेश्वरः ।। १५ ।।

हरिष्यामि विनिक्षिप्तं सोममित्यनुभाष्य तम् ।

आजगाम ततस्तूर्ण सुपर्णो मातुरन्तिकम् ॥ १६ ।।

श्रीहरिने भी गरुडकी कही हुई बातका अनुमोदन किया। तदनन्तर स्वर्गलोकके स्वामीभगवान् इन्द्र पुनः गरुडको सम्बोधित करके इस प्रकार बोले-‘तुम जिस समय इसअमृतको कहीं रख दोगे उसी समय मैं इसे हर ले आऊँगा’ (ऐसा कहकर इन्द्र चले गये)।फिर सुन्दर पंखवाले गरुड तुरंत ही अपनी माताके समीप आ पहुँचे ।। १५-१६ ।।

अथ सर्पानुवाचेदं सर्वान् परमहृष्टवत् ।

इदमानीतममृतं निक्षेप्स्यामि कुशेषु वः ।। १७ ।।

स्नाता मंगलसंयुक्तास्ततः प्राश्नीत पन्नगाः ।

भवद्भिरिदमासीनैर्यदुक्तं तद्वचस्तदा ।। १८ ।।

अदासी चैव मातेयमद्यप्रभृति चास्तु मे।

यथोक्तं भवतामेतद् वचो मे प्रतिपादितम् ॥ १९ ।।

तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न-से होकर वे समस्त सर्पोसे इस प्रकार बोले-‘पन्नगो! मैंनेतुम्हारे लिये यह अमृत ला दिया है। इसे कुशोंपर रख देता हूँ। तुम सब लोग स्नान औरमंगल-कर्म (स्वस्ति-वाचन आदि) करके इस अमृतका पान करो। अमृतके लिये भेजतेसमय तुमने यहाँ बैठकर मुझसे जो बातें कही थीं, उनके अनुसार आजसे मेरी ये मातादासीपनसे मुक्त हो जायँ; क्योंकि तुमने मेरे लिये जो काम बताया था , उसे मैंने पूर्ण करदिया है’ ।। १७-१९ |।

ततः स्नातुं गताः सर्पाः प्रत्युक्त्वा तं तथेत्युत ।

शक्रोऽप्यमृतमाक्षिप्य जगाम त्रिदिवं पुनः ।। २० ।।

तब सर्पगण ‘तथास्तु’ कहकर स्नानके लिये गये। इसी बीचमें इन्द्र वह अमृत लेकरपुनः स्वर्गलोकको चले गये ।। २० ।।

अथागतास्तमुद्देशं सर्पाः सोमार्थिनस्तदा ।

स्नाताश्च कृतजप्याश्च प्रहृष्टाः कृतमंगलाः ।। २१ ।।

यत्रैतदमृतं चापि स्थापितं कुशसंस्तरे ।तद् विज्ञाय हृतं सर्पाः प्रतिमायाकृतं च तत् ।। २२ ।।

इसके अनन्तर अमृत पीनेकी इच्छावाले सर्प स्नान, जप और मंगल- कार्य करके प्रसन्नतापूर्वक उस स्थानपर आये, जहाँ कुशके आसनपर अमृत रखा गया था। आनेपरउन्हें मालूम हुआ कि कोई उसे हर ले गया। तब सर्पोंने यह सोचकर संतोष किया कि यहहमारे कपटपूर्ण बर्तावका बदला है ।। २१-२२ ।।

सोमस्थानमिदं चेति दर्भांस्ते लिलिहुस्तदा ।

ततो द्विधाकृता जिह्वाः सर्पाणां तेन कर्मणा ।। २३ ।।

फिर यह समझकर कि यहाँ अमृत रखा गया था, इसलिये सम्भव है इसमें उसका कुछअंश लगा हो, सर्पोंने उस समय कुशोंको चाटना शुरू किया। ऐसा करनेसे सर्पोंकी जीभकेदो भाग हो गये ।। २३ ।।

अभवंश्चामृतस्पर्शाद् दर्भास्तेऽथ पवित्रिणः ।

एवं तदमृतं तेन हृतमाहृतमेव च ।

द्विजिह्वाश्च कृताः सर्पा गरुडेन महात्मना ।। २४ ।।

तभीसे पवित्र अमृतका स्पर्श होनेके कारण कुशोंकी ‘पवित्री’ संज्ञा हो गयी। इसप्रकार महात्मा गरुडने देवलोकसे अमृतका अपहरण किया और सर्पोंके समीपतक उसेपहुँचाया; साथ ही सर्पोको द्विजिह्व (दो जिह्वाओंसे युक्त) बना दिया।। २४ । ।

ततः सुपर्णः परमप्रहर्षवान् विहृत्य मात्रा सह तत्र कानने ।

भुजङ्गभक्षः परमार्चितः खगै-रहीनकीर्तिर्विनतामनन्दयत् ।। २५ ।।

उस दिनसे सुन्दर पंखवाले गरुड अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी माताके साथ रहकर वहाँवनमें इच्छानुसार घूमने-फिरने लगे। वे सर्पोको खाते और पक्षियोंसे सादर सम्मानित होकरअपनी उज्ज्वल कीर्ति चारों ओर फैलाते हुए माता विनताको आनन्द देने लगे ।। २५ ।।

इमां कथां यः शृणुयान्नरः सदा पठेत वा द्विजगणमुख्यसंसदि ।

असंशयं त्रिदिवमियात् स पुण्यभाक् महात्मनः पतगपतेः प्रकीर्तनात् ।। २६ ।।

जो मनुष्य इस कथाको श्रेष्ठ द्विजोंकी उत्तम गोष्ठीमें सदा पढ़ता अथवा सुनता है, वहपक्षिराज महात्मा गरुडके गुणोंका गान करनेसे पुण्यका भागी होकर निश्चय ही स्वर्गलोकमेंजाता है ।। २६ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३४ ।।इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गात आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्रविषयक चौंतीसरवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ३४ ।।

पञ्चत्रिंशोऽध्यायः

मुख्य-मुख्य नागोंके नाम

शौनक उवाच

भुजङ्गमानां शापस्य मात्रा चैव सुतेन च।

विनतायास्त्वया प्रोक्तं कारणं सूतनन्दन ।। १ ।।

शौनकजीने कहा-सूतनन्दन! सर्पोको उनकी मातासे और विनता देवीको उनकेपुत्रसे जो शाप प्राप्त हुआ था, उसका कारण आपने बता दिया ।। १ ।।

वरप्रदानं भत्त्रा च कद्दूविनतयोस्तथा ।

नामनी चैव ते प्रोक्ते पक्षिणोर्वैनतेययोः ।। २ ।।

कद्रू और विनताको उनके पति कश्यपजीसे जो वर मिले थे, वह कथा भी कह सुनायीतथा विनताके जो दोनों पुत्र पक्षीरूपमें प्रकट हुए थे, उनके नाम भी आपने बतायेहैं ।। २ ।।

पन्नगानां तु नामानि न कीर्तयसि सूतज ।

प्राधान्येनापि नामानि श्रोतुमिच्छामहे वयम् ।। ३ ।।

किंतु सूतपुत्र! आप सपोंके नाम नहीं बता रहे हैं। यदि सबका नाम बताना सम्भव नहो, तो उनमें जो मुख्य-मुख्य सर्प हैं, उन्हींके नाम हम सुनना चाहते हैं ।। ३ ।।

सौतिरुवाच

बहुत्वान्नामधेयानि पन्नगानां तपोधन ।

न कीर्तयिष्ये सर्वेषां प्राधान्येन तु मे शृणु ।। ४ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-तपोधन! सर्पोकी संख्या बहुत है; अतः उन सबके नाम तो नहींकहूँगा, किंतु उनमें जो मुख्य-मुख्य सर्प हैं, उनके नाम मुझसे सुनिये ।। ४ ।

शेषः प्रथमतो जातो वासुकिस्तदनन्तरम् ।

ऐरावतस्तक्षकश्च कर्कोटकधनंजयौ ।। ५ ।।

कालियो मणिनागश्च नागश्चापूरणस्तथा।

नागस्तथा पिञ्जरक एलापत्रोऽथ वामनः ।। ६ ।।

नीलानीलौ तथा नागौ कल्माषशबलौ तथा ।

आर्यकश्चोग्रकश्चैव नागः कलशपोतकः ।। ७ ।।

सुमनाख्यो दधिमुखस्तथा विमलपिण्डकः।

आप्तः कर्कोटकश्चैव शङ्खो वालिशिखस्तथा ।। ८।।

निष्टानको हेमगुहो नहुषः पिङ्गलस्तथा ।

बाह्यकर्णो हस्तिपदस्तथा मुद्गरपिण्डकः ।। ९ ।।

कम्बलाश्वतरौ चापि नागः कालीयकस्तथा।

वृत्तसंवर्तकौ नागौ द्वौ च पद्माविति श्रुतौ ।। १० ।।

नागः शङ्खमुखश्चैव तथा कूष्माण्डकोऽपरः ।

क्षेमकश्च तथा नागो नागः पिण्डारकस्तथा ।। ११ ।।

करवीरः पुष्पदंष्ट्रो बिल्चको बिल्चपाण्डुरः ।

मूषकादः शङ्खशिराः पूर्णभद्रो हरिद्रकः ।। १२ ।।

अपराजितो ज्योतिकश्च पन्नगः श्रीवहस्तथा।

कौरव्यो धृतराष्ट्रश्च शङ्खपिण्डश्च वीर्यवान् ।। १३ ।।

विरजाश्च सुबाहुश्च शालिपिण्डश्च वीर्यवान् ।

हस्तिपिण्डः पिठरकः सुमुखः कौणपाशनः ।। १४ ।।

कुठरः कुञ्जरश्चैव तथा नागः प्रभाकरः ।

कुमुदः कुमुदाक्षश्च तित्तिरिर्हलिकस्तथा ।। १५ ।।

कर्दमश्च महानागो नागश्च बहुमूलकः ।

कर्कराकर्करौ नागौ कुण्डोदरमहोदरौ ।। १६ ।।

नागोंमें सबसे पहले शेषजी प्रकट हुए हैं। तदनन्तर वासुकि, ऐरावत, तक्षक, कर्कोटक,धनंजय, कालिय, मणिनाग, आपूरण, पिंजरक, एलापत्र, वामन, नील, अनील, कल्माष,शबल, आर्यक, उग्रक, कलशपोतक, सुमनाख्य, दधिमुख, विमलपिण्डक, आप्त, कर्कोटक(द्वितीय), शंख, वालिशिख, निष्टानक, हेमगुह, नहुष, पिंगल, बाह्यकर्ण, हस्तिपद,मुद्गरपिण्डक, कम्बल, अश्वतर, कालीयक, वृत्त, संवर्तक, पद्म ( प्रथम), पद्म ( द्वितीय),शंखमुख, कूष्माण्डक, क्षेमक, पिण्डारक, करवीर, पुष्पदंष्ट्र, बिल्वक, बिल्वपाण्डुर,मूषकाद, शंखशिरा, पूर्णभद्र, हरिद्रक, अपराजित, ज्योतिक, श्रीवह, कौरव्य, धृतराष्ट्रपराक्रमी शंखपिण्ड, विरजा, सुबाहु, वीर्यवान् शालिपिण्ड, हस्तिपिण्ड, पिठरक, सुमुख,कौणपाशन, कुठर, कुंजर, प्रभाकर, कुमुद, कुमुदाक्ष, तिक्तिरि, हलिक, महानाग कर्दम,बहुमूलक, कर्कर, अकर्कर, कुण्डोदर और महोदर – ये नाग उत्पन्न हुए ।। ५-१६ ।।

एते प्राधान्यतो नागाः कीर्तिता द्विजसत्तम् ।

बहुत्वान्नामधेयानामितरे नानुकीर्तिताः ।। १७ ।।

द्विजश्रेष्ठ! ये मुख्य-मुख्य नाग यहाँ बताये गये हैं । सर्पोकी संख्या अधिक होनेसे उनकेनाम भी बहुत हैं। अतः अन्य अप्रधान नागोंके नाम यहाँ नहीं कहे गये हैं ।। १७ ।।

एतेषां प्रसवो यश्च प्रसवस्य च संततिः ।

असंख्येयेति मत्वा तान् न ब्रवीमि तपोधन ।। १८ ।।

तपोधन! इन नागोंकी संतान तथा उन संतानोंकी भी संतति असंख्य हैं। ऐसासमझकर उनके नाम मैं नहीं कहता हूँ ।। १८ ।।

बहूनीह सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च ।

अशक्यान्येव संख्यातुं पन्नगानां तपोधन ।। १९ ।।

तपस्वी शौनकजी! नागोंकी संख्या यहाँ कई हजारोंसे लेकर लाखों-अरबोंतक पहुँचजाती है। अतः उनकी गणना नहीं की जा सकती है ।। १९ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पनामकथने पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।।३५ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पनामकथनविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ३५ ।।

षट्त्रिंशोऽध्यायः

शेषनागकी तपस्या, ब्रह्माजीसे वर-प्राप्ति तथा पृथ्वीको सिरपर धारण करना

शौनक उवाच

आख्याता भुजगास्तात वीर्यवन्तो दुरासदाः ।

शापं तं तेऽभिविज्ञाय कृतवन्तः किमुत्तरम् ।। १ ।।

शौनकजीने पूछा-तात सूतनन्दन! आपने महापराक्रमी और दुर्धर्ष नागोंका वर्णन किया। अब यह बताइये कि माता कद्ूुके उस शापकी बात मालूम हो जानेपर उन्होंने उसके निवारणके लिये आगे चलकर कौन-सा कार्य किया ? ।। १ ।।

सौतिरुवाचतेषां तु भगवाञ्च्छेषः कद्ं त्यक्त्वा महायशाः ।

उग्रं तपः समातस्थे वायुभक्षो यतव्रतः ।। २ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा-शौनक! उन नागोंमेंसे महा-यशस्वी साथ छोड़कर कठोर तपस्या प्रारम्भ की। वे केवल वायु पीकर रहते और संयमपूर्वक व्रतका पालन करते थे ।। २ ।।

गन्धमादनमासाद्य बदर्यां च तपोरतः ।

गोकर्णे पुष्करारण्ये तथा हिमवतस्तटे ।। ३ ।।

तेषु तेषु च पुण्येषु तीर्थेष्वायतनेषु च ।

एकान्तशीलो नियतः सततं विजितेन्द्रियः ।। ४ ।।

अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके सदा नियमपूर्वक रहते हुए शेषजी गन्धमादन पर्वतपरजाकर बदरिकाश्रम तीर्थमें तप करने लगे। तत्पश्चात् गोकर्ण, पुष्कर, हिमालयके तटवती प्रदेश तथा भिन्न-भिन्न पुण्य-तीर्थों और देवालयोंमें जा-जाकर संयम-नियमके साथ एकान्तवास करने लगे ।। ३-४ ।।

तप्यमानं तपो घोरं तं ददर्श पितामहः ।

संशुष्कमांसत्वक्स्नायुं जटाचीरधरं मुनिम् ।। ५ ।।

तमब्रवीत् सत्यधृतिं तप्यमानं पितामहः ।

किमिदं कुरुषे शेष प्रजानां स्वस्ति वै कुरु ।। ६ ।।

ब्रह्माजीने देखा, शेषनाग घोर तप कर रहे हैं। उनके शरीरका मांस, त्वचा और नाड़ियाँसूख गयी हैं। वे सिरपर जटा और शरीरपर वर्कल वस्त्र धारण किये मुनिवृत्तिसे रहते हैं। भगवान् शेषनागने कदूकाउनमें सच्चा धैर्य है और वे निरन्तर तपमें संलग्न हैं। यह सब देखकर ब्रह्माजी उनके पासआये और बोले-‘शेष! तुम यह क्या कर रहे हो? समस्त प्रजाका कल्याण करो ।। ५-६ ।।

त्वं हि तीव्रेण तपसा प्रजास्तापयसेऽनघ ।

ब्रूहि कामं च मे शेष यस्ते हदि व्यवस्थितः ॥ ७ ।

‘अनघ! इस तीव्र तपस्याके द्वारा तुम सम्पूर्ण प्रजावर्गको संतप्त कर रहे हो। शेषनाग!तुम्हारे हृदयमें जो कामना हो वह मुझसे कहो ।। ७ ।।

शेष उवाच

सोदर्या मम सर्वे हि भ्रातरो मन्दचेतसः ।

सह तैन्नोत्सहे वस्तुं तद् भवाननुमन्यताम् ।। ८ ।।

शेषनाग बोले-भगवन्! मेरे सब सहोदर भाई बड़े मन्दबुद्धि हैं, अतः मैं उनके साथनहीं रहना चाहता। आप मेरी इस इच्छाका अनुमोदन करें ।। ८ ।।

अभ्यसूरयन्ति सततं परस्परममित्रवत् ।

ततोऽहं तप आतिष्ठं नैतान् पश्येयमित्युत ।। ९ ।।

वे सदा परस्पर शत्रुकी भाँति एक-दूसरेके दोष निकाला करते हैं। इससे ऊबकर मैंतपस्यामें लग गया हूँ; जिससे मैं उन्हें देख न सकूँ ।। ९ ।।

न मर्षयन्ति ससुतां सततं विनतां च ते ।

अस्माकं चापरो भ्राता वैनतेयोऽन्तरिक्षगः । १० ।।

वे विनता और उसके पुत्रोंसे डाह रखते हैं, इसलिये उनकी सुख-सुविधा सहन नहीं करपाते। आकाशमें विचरने-वाले विनतापुत्र गरुड भी हमारे दूसरे भाई ही हैं ।। १० ।।

तं च द्विषन्ति सततं स चापि बलवत्तरः ।

वरप्रदानात् स पितुः कश्यपस्य महात्मनः ।। ११ ।।

किंतु वे नाग उनसे भी सदा द्वेष रखते हैं। मेरे पिता महात्मा कश्यपजीके वरदानसेगरुड भी बड़े ही बलवान् है ।। ११ ।।

सोऽहं तपः समास्थाय मोक्ष्यामीदं कलेवरम् ।

कथं मे प्रेत्यभावेऽपि न तैः स्यात् सह संगमः ।। १२ ।।

इन सब कारणोंसे मैंने यही निश्चय किया है कि तपस्या करके मैं इस शरीरको त्यागदूँगा, जिससे मरनेके बाद भी किसी तरह उन दुष्टोंके साथ मेरा समागम न हो ।। १२ ।।

तमेवंवादिनं शेषं पितामह उवाच ह ।

जानामि शेष सर्वेषां भ्रातृणां ते विचेष्टितम् ।। १३ ।।

ऐसी बातें करनेवाले शेषनागसे पितामह ब्रह्माजीने कहा- ‘शेष! मैं तुम्हारे सबभाइयोंकी कुचेष्टा जानता हूँ’ ।। १३ ।।

मातुश्चाप्यपराधाद् वै भ्रातृणां ते महद् भयम् ।

कृतोऽत्र परिहारश्च पूर्वमेव भुजङ्गम ।। १४ ।।

‘माताका अपराध करनेके कारण निश्चय ही तुम्हारे उन सभी भाइयोंके लिये महान् भयउपस्थित हो गया है; परंतु भुजंगम! इस विषयमें जो परिहार अपेक्षित है, उसकी व्यवस्थामैंने पहलेसे ही कर रखी है ।। १४ ।।

भ्रातृणां तव सर्वेषां न शोकं कर्तुमर्हसि ।

वृणीष्व च वरं मत्तः शेष यत् तेऽभिकाङ्क्षितम् ।। १५ ।।

‘अतः अपने सम्पूर्ण भाइयोंके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। शेष! तुम्हें जोअभीष्ट हो, वह वर मुझसे माँग लो ।। १५ ।।

दास्यामि हि वरं तेऽद्य प्रीतिमं परमा त्वयि ।

दिष्ट्या बुद्धिश्च ते धर्मे निविष्टा पन्नगोत्तम ।

भूयो भूयश्च ते बुद्धिर्धर्मे भवतु सुस्थिरा ।। १६ ।।

‘तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम है; अत: आज मैं तुम्हें अवश्य वर दूँगा। पन्नगोत्तम! यहसौभाग्यकी बात है कि तुम्हारी बुद्धि धर्ममें दृढ़तापूर्वक लगी हुई है। मैं भी आशीर्वाद देता हूँकि तुम्हारी बुद्धि उत्तरोत्तर धर्ममें स्थिर रहे’ ।। १६ ।।

शेष उवाच

एष एव वरो देव काङ्क्षितो मे पितामह ।

धर्मे मे रमतां बुद्धिः शमे तपसि चेश्वर ।। १७ ।।

शेषजीने कहा-देव! पितामह! परमेश्वर! मेरे लिये यही अभीष्ट वर है कि मेरी बुद्धिसदा धर्म, मनोनिग्रह तथा तपस्यामें लगी रहे ।। १७ ।।

ब्रह्मोवाच

प्रीतोऽस्म्यनेन ते शेष दमेन च शमेन च ।

त्वया त्विदं वचः कार्यं मन्नियोगात् प्रजाहितम् ।। १८ ।।

ब्रह्माजी बोले-शेष! तुम्हारे इस इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ।अब मेरी आज्ञासे प्रजाके हितके लिये यह कार्य, जिसे मैं बता रहा हूँ, तुम्हें करनाचाहिये ।। १८ ।।

इमां महीं शैलवनोपपन्नां ससागरग्रामविहारपत्तनाम् ।

त्वं शेष सम्यक् चलितां यथावत् संगृह्य तिष्ठस्व यथाचला स्यात् ।। १९ ।।

शेषनाग! पर्वत, वन, सागर, ग्राम, विहार और नगरोंसहित यह समूची पृथ्वी प्रायःहिलती-डुलती रहती है। तुम इसे भलीभाँति धारण करके इस प्रकार स्थित रहो, जिससे यहपूर्णतः अचल हो जाय ।। १९ ।।

ब्रह्माजीने शेषजीको वरदान तथा पृथ्वी धारण करनेकी आज्ञा दीशेष उवाच यथाह देवो वरदः प्रजापति-र्महीपतिर्भूतपतिर्जगत्पतिः ।

तथा महीं धारयितास्मि निश्चलांप्रयच्छतां मे शिरसि प्रजापते ।। २० ।।

शेषनागने कहा-प्रजापते! आप वरदायक देवता, समस्त प्रजाके पालक, पृथ्वीकेरक्षक, भूत-प्राणियोंके स्वामी और सम्पूर्ण जगत्के अधिपति हैं। आप जैसी आज्ञा देते हैं,उसके अनुसार मैं इस पृथ्वीको इस तरह धारण करूँगा, जिससे यह हिले-डुले नहीं। आपइसे मेरे सिरपर रख दें ।। २० ।।

ब्रह्मोवाच

अधो महीं गच्छ भुजङ्गमोत्तमस्वयं तवैषा विवरं प्रदास्यति ।

इमां धरां धारयता त्वया हि मेमहत् प्रियं शेष कृतं भविष्यति ।। २१ ।।

ब्रह्माजीने कहा-नागराज शेष! तुम पृथ्वीके नीचे चले जाओ। यह स्वयं तुम्हें वहाँजानेके लिये मार्ग दे देगी। इस पृथ्वीको धारण कर लेनेपर तुम्हारे द्वारा मेरा अत्यन्त प्रियकार्य सम्पन्न हो जायगा ।। २१ ।।

सौतिरुवाच

तथैव कृत्वा विवरं प्रविश्य सप्रभुर्भुवो भुजगवराग्रजः स्थितः ।

बिभर्ति देवीं शिरसा महीमिमांसमुद्रनेमिं परिगृह्य सर्वतः ।। २२ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-नागराज वासुकिके बड़े भाई सर्वसमर्थ भगवान् शेषने ‘बहुतअच्छा’ कहकर ब्रह्माजीकी आज्ञा शिरोधार्य की और पृथ्वीके विवरमें प्रवेश करके समुद्रसेघिरी हुई इस वसुधा-देवीको उन्होंने सब ओरसे पकड़कर सिरपर धारण कर लिया ( तभीसेयह पृथ्वी स्थिर हो गयी)।। २२ ।।

ब्रह्मोवाच

शेषोऽसि नागोत्तम धर्मदेवोमहीमिमां धारयसे यदेकः ।

अनन्तभोगैः परिगृह्य सर्वांयथाहमेवं बलभिद् यथा वा ।। २३ ।।

तदनन्तर ब्रह्माजी बोले-नागोत्तम! तुम शेष हो, धर्म ही तुम्हारा आराध्यदेव है, तुमअकेले अपने अनन्त फणोंसे इस सारी पृथ्वीको पकड़कर उसी प्रकार धारण करते हो, जैसेमैं अथवा इन्द्र ।। २३ ।।

सौतिरुवाच

अधोभूमौ वसत्येवं नागोऽनन्तः प्रतापवान् ।

धारयन् वसुधामेकः शासनाद् ब्रह्मणो विभुः ।। २४ ।।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनक! इस प्रकार प्रतापी नाग भगवान् अनन्त अकेले हीब्रह्माजीके आदेशसे इस सारी पृथ्वीको धारण करते हुए भूमिके नीचे पाताल -लोकमेंनिवास करते हैं ।। २४ ।।

सुपर्ण च सहायं वै भगवानमरोत्तमः ।

प्रादादनन्ताय तदा वैनतेयं पितामहः ।। २५ ।।

तत्पश्चात् देवताओं में श्रेष्ठ भगवान् पितामहने शेषनागके लिये विनतानन्दन गरुडकोसहायक बना दिया ।। २५ ।।

(अनन्ते च प्रयाते तु वासुकिः सुमहाबलः ।

अभ्यषिच्यत नागैस्तु दैवतैरिव वासवः ।।)

अनन्त नागके चले जानेपर नागोंने महाबली वासुकिका नागराजके पदपर उसी प्रकारअभिषेक किया, जैसे देवताओंने इन्द्रका देवराजके पदपर अभिषेक किया था ।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि शेषवृत्तकथने षट्त्रिंशोऽध्यायः ।।३६ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें शेषनागवृत्तान्त-कथनविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ३६ ।।

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं)