Prashastapada Bhashya Hindi 1

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Prashastapada Bhashya Hindi 1

प्रशस्तपादाचार्य प्रणीतम्

प्रशस्तपादभाष्यम् [ पदार्थधर्म्मसङ्ग्रहाख्यम् ]

श्रीधर भट्टकृत

न्यायकन्दलीव्याख्योपेतम्

श्रीदुर्गाधरझाकृत-हिन्दीभाषानुवादसहितम्

प्रशस्तपादभाष्यम्

प्रणम्य हेतुमीश्वरं मुनिं कणादमन्वतः | पदार्थधर्म्य सङ्ग्रहः प्रवक्ष्यते महोदयः ॥

( सभी जन्यपदार्थों के ) कारण ईश्वर को प्रणाम करने के पश्चात् कणाद मुनि को प्रणाम करके ‘महोदय’ अर्थात् मोक्ष देनेवाले पदार्थधर्म्मसङ्ग्रह ‘ नाम के ग्रन्थ को लिख रहा हूँ।

न्यायकन्दली

अनादिनिधनं देवं जगत्कारणमीश्वरम् ।

प्रद्य सत्यसङ्कल्पं नित्यविज्ञानविग्रहम् ॥ १॥

ध्यानैकतानमनसो विगतप्रचाराः

पश्यन्ति यं कमपि निर्मलमद्वितीयम् ।

ज्ञानात्मने विघटिताखिलबन्धनाय

पुरुषोत्तमाय ॥२॥

तस्मै नमो भगवते

आदि और विनाश से रहित एवं जगत् के निमित्तकारण, तथा जिनके संकल्प

कभी विफल नहीं होते, नित्यविज्ञानस्वरूप उन परमेश्वर की शरण को मैं प्राप्त होऊ ॥१॥ सभी दोषों से रहित एवं सांसारिक सभी वस्तुओं से सर्वथा विलक्षण जिस वस्तु को योगिगण एकाग्र होने पर देखते हैं, सभी बन्धनों से शून्य, ज्ञान स्वरूप उन भगवान् पुरुषोत्तम को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २ ॥

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्त पावभाष्यम्

न्यायकन्दली

[ मङ्गलाचरण

शास्त्रारम्भेऽभिमतां देवतां शास्त्रस्य प्रणेतारं गुरुञ्च श्लोकस्य पूर्वार्द्धन नमस्यति – प्रणम्येति । कम्मरम्भे हि देवता गुरवश्च इति शिष्टाचारोऽयम् । फलं च नमस्कारस्य तावदयमफलः, प्रेक्षावद्भिरनुष्ठेयत्वात् । अन्यफलोऽपि नमस्क्रियन्ते विघ्नोपशमः । न न कम्मरम्भे नियमेनानुष्ठीयेत, अविघ्नेन प्रारीप्सितपरिसमाप्तेस्तदानीमपेक्षितत्वात्, फलान्त रस्यानभिसंहितत्वाच्च ।

ननु किं नमस्कारादेव विघ्नोपशम: ? उत अन्यस्मादपि भवति ? न तावन्नमस्कारादेवेत्यस्ति नियमः, असत्यपि नमस्कारे न्यायमीमांसा भाष्ययोः परिसमाप्तत्वात् । यदा चान्यस्मादपि तदा नियमेनोपादानं निरुपपत्तिकम् । अत्रोच्यते नमस्कारादेव विघ्नोपशमः, कम्मरम्भे सद्भिनियमेन तस्योपादानात् । न च न्यायमीमांसाभाष्यकाराभ्यां न कृतो नमस्कार:, किन्तु तत्रानुपनिबद्धः ।

शास्त्र के आदि में इष्टदेवता तथा शास्त्र के रचयिता और अपने गुरु कणाद मुनि को ‘प्रणम्य” इत्यादि श्लोक के पूर्वार्द्ध से नमस्कार किया गया है। किसी कार्य के आरम्भ में देवता और गुरु को नमस्कार करना शिष्टजनों का आचार है। इसका फल विघ्नों का नाश (ही) है। यह निष्फल तो हो नहीं सकता, क्योंकि शिष्टों से आचरित है। विघ्नों के नाश को छोड़ कर और (स्वर्गादि) फल भी इसके नहीं हो सकते, क्योंकि उस दशा में शास्त्रों के आरम्भ में ही नियम से इसका अनुष्ठान नहीं होता। एवं मङ्गलाचरण के समय “ग्रन्थ निर्विघ्न समाप्त हो जाय” यही मङ्गला चरण करनेवाले को अभिप्रेत भी होता है। दूसरे (स्वर्गादि) फल वहाँ उपस्थित भी नहीं हैं।

( प्रश्न ) (१) विघ्नों का विनाश नमस्कार से ही होता है ? या (२) और भी किसी कारण से ? यह नियम तो नहीं है कि नमस्कार से ही विघ्नों का नाश हो, क्योंकि न्यायभाष्य और मीमांसाभाष्य दोनों ही निर्विघ्न समाप्त हैं, यद्यपि उनमें नमस्कार नहीं है। अगर नमस्कार को छोड़ कर और भी किसी कारण से विघ्नों का नाश हो सकता है तो फिर ग्रन्थ के आरम्भ में नमस्कार करना ही चाहिए, यह नियम युक्ति-शून्य हो जाता है । (उत्तर) उक्त प्रश्न के समाधान में कहना है कि नमस्कार से ही विघ्नों का नाश होता है, क्योंकि सभी कार्यों के आरम्भ में शिष्टों ने नियम से मङ्गलाचरण किया है। न्यायभाष्यकार और मीमांसाभाष्यकार इन दोनों ने मङ्गलाचरण नहीं किया है, यह बात नहीं है, किन्तु उन लोगोंने अपने मङ्गलाचरण को अपने ग्रन्थों में लिखा नहीं है।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहित म्

न्यायकन्दली

कथमेषा प्रतीतिरिति चेत् ? कर्तुः शिष्टतयैव । अस्तु वा तावदपरः । प्रेक्षावान् म्लेच्छोऽपि तावद् गुर्वारम्भे कर्म्मणि न प्रवर्त्तते यावदिष्टान्न नमस्यति । यदिमौ परमास्तिकौ पक्षिलशबरस्वामिनौ नानुतिष्ठत इत्यसम्भावनमिदम् ।

अक्षरार्थो व्याहियते-प्रणम्येति । प्रकर्षवाचिना प्रशब्देन भक्तिश्रद्धा तिशयपूर्वकं नमस्कारमाचष्टे । स हि धर्मोत्पादकस्तिरयत्यन्तरायबीजं नापरः । अत एव कृतनमस्कारस्यापि कादम्बर्थ्यादेरपरिसमाप्तिः, विशिष्टनमस्काराभावात् तद वैशिष्ट्यस्य कार्य्यगम्यत्वात् । अत्रैव च नमस्कारः क्रियमाणोऽपि करिष्यमाण पदार्थधर्म्म सङ्ग्रहप्रवचनापेक्षया पूर्वकालभावीति क्त्वाप्रत्ययेनाभिधीयते तदेक वाक्यतामापादयितुम्, न त्वस्य पूर्वकालमात्रतामनूद्यते, अनुवादे वा प्रयोजना भावात् । हेतुमिति निविशेषणेन हेतुपदेन सर्वोत्पत्तिमतां निमित्ततां प्रति जानीते। ईश्वरमिति विशिष्टदेवताया अभिधानम्, लोके तद्विषयत्वेनैवास्य पदस्य प्रसिद्धेः, लोकप्रसिद्धार्थोपसङ्ग्रहत्वादस्य शास्त्रस्य । मुनिमिति

( प्रश्न ) यह कैसे समझा जाय ? (उत्तर) उन लोगों की शिष्टता से ही अथवा और भी इसका हेतु हो सकता है। किन्तु बुद्धिमान् म्लेच्छ भी इस प्रकार के बड़े काम में तब तक प्रवृत्त नहीं होता है, जब तक अपने इष्टदेवता को नमस्कार न कर ले। फिर परम आस्तिक पक्षिलस्वामी (वात्स्यायन) और शबरस्वामी ग्रन्थनिर्माण से पहिले मङ्गलाचरण न करें यह बात सम्भावना के बाहर है।

मङ्गल-श्लोक में प्रयुक्त प्रत्येक पद की व्याख्या करते हैं। ‘प्रणम्य’ पद में प्रयुक्त प्रकर्षवाची ‘प्र’ शब्द से भक्ति और श्रद्धा से युक्त नमस्कार का बोध होता है । वही (भक्ति श्रद्धा पूर्वक) नमस्कार धमजनक होकर विघ्नों को मूल सहित नष्ट करता है, भक्ति और श्रद्धा से रहित नमस्कार नहीं। इसीलिए कादम्बरी प्रभृति ग्रन्थों में नमस्कार होने पर भी समाप्ति नहीं हुई। नमस्कार में भक्तिश्रद्धायुक्तत्व का अभाव कार्य से ही समझा जा सकता है। नमस्कार भी यद्यपि इस ग्रन्थ में ही किया जा रहा है, तथापि आगे प्रतिपादित की जानेवाली वस्तु को अपेक्षा वह पहिले है । मङ्गलग्रन्थ और वस्तुविवेचनग्रन्थ दोनों में एकवाक्यता लाने के अभिप्राय से ‘क्त्वा’ प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। इससे मङ्गल-ग्रन्थ में विषय-ग्रन्थ से पूर्वकालतामात्र अभिप्रेत नहीं है, क्योंकि उसका यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। बिना विशेषण के केवल ‘हेतु’ शब्द से ईश्वर में सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं की कारणता समझायी गई है यहाँ ‘ईश्वर’ शब्द विशेष प्रकार के देवता का वाचक है, क्योंकि लोक में ईश्वर शब्द इसी अर्थ में प्रसिद्ध है एवं यह शास्त्र लोक में प्रसिद्ध अर्थों का ही विवेचक है। उग्र तपस्या और सभी विषयों के यथार्थ ज्ञान से युक्त जिस व्यक्ति का अज्ञानरूप अन्धकार विशुद्ध आत्मज्ञानरूप

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्त पावभाव्यम्

न्यायकन्दली

[ मङ्गलाचरण

शुद्धात्मज्ञानप्रदीपक्षपिततमसमत्युग्रतपसं साक्षादशेषतत्त्वावबोधयुक्तं पुरुषविशेष माह, इत्थम्मूत एवार्थे मुनिशब्दस्य लोके दर्शनात् । कणादमिति तस्य कापोतीं वृत्तिमनुतिष्ठतो रथ्यानिपतितांस्तण्डुलकणानादाय प्रत्यहं कृताहारनिमित्ता संज्ञा । अत एव “निरवकाशः कणान् वा भक्षयतु” इत्युपालम्भस्तत्रभवताम् । इदं हि तस्य नामेति तच्छब्दसङ्कीर्त्तनं कृतं प्रशस्तदेवेन, न त्वियं तदुपनिबन्धवं शिष्टचख्याप नाय युक्तिरभिहिता, तदुपनिबन्धवैशिष्टयस्य मन्वादिवाक्यवन्महाजनपरिग्रहाव प्रतीतेः । न चास्य कणादशास्त्रख्यापनेन किञ्चित् प्रयोजनमस्ति ।

तावता तत्पूर्वकस्य ग्रन्थस्य वैशिष्ट्य सिद्धिरिति चेन्न, अवश्यं तत्पूर्वकत्वेन स्वग्रन्थस्य वैशिष्ट्यसिद्धिः, कत्तृ दोषेणाऽयथार्थस्यापि निबन्धस्य सम्भावना स्पदत्वात् । सम्भावितप्रामाण्ये प्रशस्तदेवे पुरुषदोषाणामसम्भव इति चेत् ? एवं तहि यथा कणाददशिनां तच्छिष्याणां पुरुषप्रत्ययादेव तथात्व निश्चयात् तदुपनिबन्धे प्रवृत्तिः, अपरेषाञ्च पुरुषान्तरसंवादात् । एवं प्रशस्तदेवकृतो पनिबन्धेऽपि तच्छिष्याणामपरेषाञ्च प्रवृत्तिर्भविष्यतीति नार्थस्तत्पूर्वकत्वख्यापनेन ।

प्रदीप से नष्ट हो गया है, वही विशिष्ट पुरुष ‘मुनि’ शब्द से अभिप्रेत है, क्योंकि इसी प्रकार के अर्थ में ‘मुनि’ शब्द का प्रयोग लोक में देखा जाता है। उन (शास्त्रकर्ता ) का यह ‘कणाद’ नाम रास्ते में गिरे हुए अन्नकणों को कपोत की तरह चुन-चुन कर आहार करने का कारण है। अत एव उनके खण्डन ग्रन्थों में जहां तहाँ “अब कोई उपाय न रहने के कारण कणों को खाइये” यह आक्षेपयुक्त उक्ति उनके लिए देखी जाती है। यह ( कणाद) इनका नाम है, इसीलिए प्रशस्तदेव ने ‘कणाद’ शब्द का प्रयोग किया है, अपने ग्रन्थ में ख्याति दिखलाने की दृष्टि से नहीं। इस निबन्ध रूप वाक्यों के वैशिष्ट्य की प्रतीति मनु इत्यादि स्मृतिकारों के वाक्य की तरह महापुरुषों के इसके अनुसार चलने से ही हो जाती है। यह निबन्ध कणादकृत शास्त्रमूलक है, यह प्रसिद्ध करने का कोई प्रयोजन भी नहीं है।

( प्र०) इस प्रसिद्धि से ग्रन्थ में उत्कर्ष की सिद्धि होगी। ( उ०) यह ठीक है कि इस प्रसिद्धि से ग्रन्थ में उत्कर्ष की सिद्धि होगी, किन्तु कर्त्ता के दोष से उत्कृष्ट निबन्ध में भी वैशिष्ट्य संशयास्पद हो जाता है। (प्र०) प्रशस्तदेव में प्रामाण्य निश्चित है, अतः उनमें पुरुष-दोष की सम्भावना नहीं हैं। (उ०) अगर ऐसी बात है तो फिर जैसे (कणादरूप) पुरुष में प्रामाण्यनिश्चय के कारण कणाददर्शन के अनुगामी उनके शिष्यों की प्रवृत्ति उनके ग्रन्थ के अध्ययन में होती है, एवं औरों की प्रवृत्ति उन प्रवृत्त पुरुषों की सफलता सुनकर होती है, उसी प्रकार उनके शिष्यों की एवं औरों की भी प्रवृत्ति इस ग्रन्थ के अध्ययन में भी होगी। तस्मात् “यह निबन्ध कणादसूत्रमूलक है” इसे प्रसिद्ध करने का कोई प्रयोजन नहीं है।

प्रकरणम् ]

भाषानुदावसहितम्

न्यायकन्दली

किमर्थं तहि कणादर्षेर्नमस्कार: ? विघ्नोपशमायेत्युक्तम् यथेश्वरस्य नमस्कारः । सोऽपि हि न तत्पूर्वकत्वख्यापनाय, व्यभिचारात् । यस्य हि या देवता स तां प्रणम्य सर्वकम्र्म्माणि प्रस्तौति, न कर्म्मणस्तत्पूर्वकत्वेन, भक्तिश्रद्धामात्र निबन्धनत्वान्नमस्कारस्य । यथा मीमांसावातिककृता नमस्कृतः सोमावतंसः | न च तत्पूविका मीमांसेत्यस्ति प्रवादः । अन्विति ईश्वरप्रणामादनन्तरतां कणादप्रणा मस्य परामृशति, ईश्वरमादौ प्रणम्य ईश्वरप्रणामादनु पश्चात् कणादं प्रणम्येत्यर्थः । सम्बन्ध प्रयोजनोरनभिधाने श्रोता न प्रवर्त्तते प्रयोजनाधिगतिपूर्व

कत्वात् सर्वप्रेक्षावत्प्रवृत्तेः । तस्याप्रवृत्तौ च शास्त्रं कृतमकृतं स्यात् । शास्त्रारम्भमादधानः प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यङ्गं तस्य अतः सम्बन्धं प्रयोजनञ्चादौ श्लोकस्योत्तरार्द्धन कथयति पदार्थधर्मेत्यादि । पदार्था षट्, तेषां धर्माः साधारणासाधारणस्वभावाः संगृह्यन्ते संक्षेपेणाभि धीयन्तेऽनेनेति पदार्थधर्म्म सङ्ग्रहः | प्रवक्ष्यत इति । पदार्थधम्मणां

द्रव्यादयः

( प्र ० ) फिर कणाद ऋषि को ही नमस्कार करने की क्या आवश्यकता है ? (उ०) यह कहा जा चुका है कि ईश्वर को नमस्कार करने की तरह कणाद ऋषि को नमस्कार करना भी विघ्नों के नाश के लिए ही है, ग्रन्थ में इस प्रसिद्धि के लिए नहीं कि यह ग्रन्थ कणादकृत ग्रन्थमूलक है, क्योंकि यह नियम व्यभिचरित है। जिसके जो देवता हैं, उनको नमस्कार करके ही वह व्यक्ति अपने सभी कामों को आरम्भ करता। (कोई भी) ‘सभी काम उस देवतामूलक हैं” इस अभिप्राय से अपने इष्टदेवता को प्रणाम नहीं करता है। नमस्कार तो केवल भक्ति-श्रद्धामूलक है। जैसे मीमांसावार्त्तिककार (कुमारिलभड) ने सोमावतंस (शिव) को नमस्कार किया है, किन्तु इससे कोई यह नहीं कहता कि मीमांसा सोमावतंसकृत है। ‘अन्वतः’ यह पद ‘ईश्वरप्रणाम के बाद कणाद ऋषि को प्रणाम करते हैं? इस आनन्तर्य को दिखाता है। अभिप्राय यह है कि पहिले ईश्वर को प्रणाम कर ‘अनु’ अर्थात् उसके बाद कणाद ऋषि को प्रणाम करके इस ग्रन्थ को आरम्भ करते हैं ।

( वक्तव्य विषय के साथ ग्रन्थ का ) सम्बन्ध और (ग्रन्थ सुनने के प्रयोजन को न कहने से थोता (ग्रन्थ को सुनने में प्रवृत्त नहीं होते हैं क्योंकि बुद्धिमान् व्यक्ति प्रयोजन को बिना समझे हुए किसी भी काम में प्रवृत्त नहीं होते। वे अगर इस शास्त्र को पढ़ने या सुनने में प्रवृत्त न होंगे तो इसका निर्माण होना न होने के बराबर होगा। इसलिए शास्त्र को आरम्भ करते हुए (प्रशस्तदेव ने) बुद्धिमान् व्यक्तियों की प्रवृत्ति में कारणीभूत ‘सम्बन्ध’ और ‘प्रयोजन’ इन दोनों को “पदार्थधर्मसङ्ग्रहः” इत्यादि कथित श्लोक के उत्तरार्द्ध से दिखलाते हैं। जिसमें ‘पदार्थ’ अर्थात् द्रव्यादि छः वस्तुएँ और उनके साधारण और असाधारण स्वभाव ‘संगृहीत’ हों याने संक्षेप से कहे जायँ यही “पदार्थधर्म्य सङ्ग्रह:” शब्द का अर्थ है। “प्रवक्ष्यते” इस पद से “मैं पदार्थों और

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

न्यायकन्दली

मङ्गलाचरण

संक्षेपेणाभिवायको ग्रन्थः प्रकृष्टो मया वक्ष्यत इति ग्रन्थकर्तुः प्रतिज्ञा। ग्रन्थस्य चेयं प्रकृष्टता यदन्यत्र ग्रन्थे विस्तरेणेतस्ततोऽभिहितानामि हैकत्र तावतामेव पदार्थधर्माणां ग्रन्थे संक्षेपेण कथनम् । एतदेव चास्यारम्भः सत्स्वप्युपनिबन्धान्तरेषु पदार्थधर्माणां सङ्ग्रहः पदार्थधर्म्मप्रतीतिहेतुः । पदार्थधर्म्मप्रतीतिश्च न पुरुषार्थ:, सुखदुःखाप्तिहान्योः पुरुषप्रयोजकत्वात् । तस्मादयमपुरुषार्थ हेतुत्वादनुपादेय एवे त्याशङ्कय तस्य पुरुषार्थफलतां प्रतिपादयितुमुक्तं महोदय इति । महानुदयो महत्फलमपवर्गलक्षणं यस्मात् सङ्ग्रहादसौ महोदयः सङ्ग्रहः । एतेन सङ्ग्रहस्य पदार्थधम्म: सह वाच्यवाचकभावः, तत्प्रतिपत्त्या च महोदयेन सह साध्यसाधनभावः सम्बन्धो दर्शितः ।

ननु भोः क एष महोदयो नाम ?

(१) सजासनसमुच्छेदो ज्ञानोपरम इत्येके । तथा च पठन्ति संज्ञास्तीति । तदयुक्तम्, सर्वतः प्रियतमस्यात्मनः समुच्छेदाय प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, बन्धविच्छेदपर्य्यायस्य मुक्तिशब्दस्यातदर्थत्वाच्च । – न प्रेत्य

उनके धम्मों को संक्षेप में प्रतिपादित करनेवाले उत्तम ग्रन्थ की कहूँगा” ग्रन्थकार की ऐसी प्रतिज्ञा प्रतीत होती है । इस ग्रन्थ में और ग्रन्थों से उत्तमता यही है कि अन्य ग्रन्थों में जहाँ तहाँ विस्तृत रूप से कहे गये पदार्थ इस ग्रन्थ में एक ही स्थान में सक्षेप से कहे गये हैं। इसीलिए और निबन्धों के रहते हुए भी इसकी रचना सार्थक है । (प्र०) “पदार्थधर्माणां सङ्ग्रहः” इस वाक्य का अर्थ है पदार्थों और उनके धम्मों की सम्यक् प्रतीति का कारण किन्तु पदार्थों की या उनके धम्मों की सम्यक् (यथार्थ) प्रतीति तो पुरुष का अभीष्ट नहीं है, क्योंकि पुरुष (जीव) का य तो सुख प्राति एवं दुःख की निवृत्ति ये ही दोनों हैं। तस्मात् यह ग्रन्थ पुरुष के अभीष्ट का सम्पादक न होने के कारण अनुपादेय ही है। सही प्रश्न ( मन में ) रख कर ( इसके उत्तर स्वरूप) “यह ग्रन्थ पुरुष के उक्त प्रयोजन का सम्पादक है” यह कहने के लिए “महोदयः” यह पद लिखा है। “महान् उदय” अर्थात् अनवर्ग (मोक्ष) रूप महान् फल जिस सङ्ग्रह से हो वही “महोदय सङ्ग्रह” है । इससे इस “सङ्ग्रह” रूप ग्रन्थ का पदार्थ और उनके धम्मों के साथ कार्यकारणभाव सम्बन्ध दिखलाया गया है।

(प्र०) यह महोदय नाम की कौन बस्तु है ?

(१) कोई (बौद्धविशेष) कहते हैं कि वासनारूप मूलसहित ज्ञान का नाश ही ‘महोदय’ (निर्वाण) है। इसके प्रमाण में वे उपनिषद् का यह वाक्य उद्धृत करते हैं — “न प्रेत्य संज्ञास्ति’, अर्थात् मरने के बाद ‘संज्ञा’ (चेतना) नहीं रहती है। ( उ० ) किन्तु यह पक्ष अयुक्त है, क्योंकि (प्रश्नकर्त्ता के मत से आत्मा ज्ञानरूप है) आत्मा ही

प्रकरणम् ]

भाषानुवाद सहितम्

न्यायकन्दली

( २ ) निखिलवासनोच्छेदे विगतविषयाकारोपप्लव विशुद्धज्ञानोदयो महोदय इत्यपरे । तदयुक्तम्, कारणाभावे तदनुपपत्ते: । भावनाप्रचयो हि तस्य कारणमिष्यते स च स्थिरै काश्रयाभावाद्विशेषानाधायकः प्रतिक्षणमपूर्ववदु पजायमानो निरन्वयविनाशी लङ्घनाभ्यासवदनासादितप्रकर्षो न स्फुटाभज्ञान जननाय प्रभवतीत्यनुपपत्तिरेव तस्य । समलचित्तक्षणानां स्वाभाविक्याः सदृशा रम्भणशक्तेरसदृशारम्भं प्रत्यशक्तेश्चाकस्मादनुच्छेदात्, किश्व पूर्वे

सब से प्रिय है, उसका विनाश वस्तुतः आत्मा का विनाश ही है, तो अपने सब से अधिक प्रिय वस्तु का नाश करने के लिए कौन बुद्धिमान् प्रवृत्त होगा? और यह बात भी है कि महोदय का पर्य्याय ‘मुक्ति’ शब्द और ‘बन्धविच्छेद’ शब्द दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं।

( २ ) कोई कहते हैं कि सभी वासनाओं के नष्ट हो जाने पर विषयरूप आकार के मालिन्य से रहित ज्ञान की उत्पत्ति ही ‘महोदय’ है। किन्तु यह पक्ष भी कारण की अनुपपत्ति से अयुक्त है, क्योंकि इस पक्ष के माननेवाले भावना के ‘प्रचय’ अर्थात् बार-बार होने को इसका कारण मानते हैं । ( किन्तु इस मत में ) सभी वस्तु क्षणिक हैं । वस्तुओं का निरन्वय विनाश उत्पत्ति के द्वितीय क्षण में ही कूदने के अभ्यास की तरह हो जाता है, और दूसरे क्षण में बिलकुल अपूर्व अन्य व्यक्ति की उत्पत्ति होती है। जब पहिले विज्ञान से आगे के विज्ञान में कोई उपकार नहीं पहुँच सकता है तो ‘स्फुटाभ’ ज्ञान की उत्पत्ति ही नहीं होगी। इस प्रकार इस पक्ष में निर्वाण ही अनुपपन्न हो जाएगा। और भी बात है – ‘मल’ अर्थात् बन्ध सहित चित्त (ज्ञान) क्षण अपने उत्तर क्षण में अपने सदृश ही चित्त की उत्पत्ति का कारण हो सकता है, क्योंकि सहशारम्भकत्व ही उसका स्वभाव है। घटविज्ञान दूसरे घटविज्ञान को ही उत्पन्न कर सकता है, पटविज्ञान को नहीं, नीलघट विज्ञान को भी नहीं। तब घटादि विषयरूप मलसहित विज्ञान अपने से विसदृश शुद्ध ( निर्मल ) विज्ञानरूप मुक्ति का कारण कैसे हो सकता है ? विज्ञान का सदृशारम्भकत्व तो नष्ट नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि प्रत्येक क्षण अपने स्वभावसिद्ध निर्वाण से

१. अभिप्राय यह है कि जैसे कोई अपराधी राजा की आज्ञा से बँध जाता है और उसके उस बन्धन के खुल जाने पर “वह मुक्त हो गया” यह व्यवहार होता है। इस व्यवहार के लिए उस आदमी के मरने की आवश्यकता नहीं होती। वह आदमी रहता ही है, उसका बन्धन खुल जाता है। वैसे हो ‘यह जीव मुक्त हो गया” इस वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि वह स्वयं ही नष्ट हो गया। उससे इतनी हो प्रतीति होती है कि उसके मिथ्याज्ञानादि बन्धन खुल गये हैं। इसलिए ‘महोदय’ शब्द का अर्थ आत्मा से अभिन्न ज्ञान का उच्छेद कदापि नहीं हो सकता ।

२. अभिप्राय यह है कि इस मत में वास्तविक सत्ता ज्ञान की हो है। अन्य घटादि विषय ‘संवृति’ या अज्ञान से कल्पित हैं ( वेदान्ती लोग जिनकी व्यावहारिक सत्ता मानते हैं ) । वास्तविक सत्ताविशिष्ट ज्ञान निविकल्पक है। उसमें घटादि विषयों का

न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम्

न्यायकन्दली

[ मङ्गलाचरण

क्षणा: स्वरसनिर्वाणा: अयमपूर्वी जातः, सन्तानश्चैको न विद्यते, बन्धमोक्षौ चैकाधिकरणौ विषयभेदेन वर्तेते, य एव च प्रवर्त्तते प्राप्य च निवृत्तो भवति ।

( ३ ) प्रकृतिपुरुषविवेकदर्शनादुपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इत्यन्ये । तन्न, प्रवृत्तिस्वभावायाः प्रकृतेरौदासीन्यायोगात् । पुरुषार्थनिबन्धना तस्याः प्रवृत्तिः, विवेकख्यातिश्च पुरुषार्थ: । तस्यां सञ्जातायां सा निवर्त्तते कृतकार्य्यत्वादिति चेन्न, अस्या अचेतनाया विमृश्यकारित्वाभावात् । यथेयं कृतेऽपि शब्दाद्युपलम्भे पुनस्तदर्थं प्रवर्त्तते, तथा विवेकख्याती कृतायामपि पुनस्तदर्थं प्रवत्तिष्यते स्वभावस्यानपायित्वात् ।

( ४ ) नित्यनिरति शयसुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिरित्यपरे । तदप्यसारम्, निराकरिष्यमाणत्वात्। तस्मादहित निवृत्तिरात्यन्तिकी महोदय इति युक्तम् । अग्रे युक्त है (क्षण शब्द से क्षणिक-विज्ञान विवक्षित है), यह विशुद्धविज्ञान बिलकुल अपूर्व ही है।

संतान नाम की कोई विलक्षण वस्तु नहीं है। यह नियम है कि जो बद्ध रहता है वही मुक्त होता है। एवं यह भी स्वाभाविक है कि जो प्रवृत्त होता है वही प्राप्त करके निवृत्त होता है। ( ३ ) कोई कहते हैं कि जब प्रकृति और पुरुष के भेदज्ञान से प्रकृति अपने सृष्ट्यादि कार्यों से निवृत्त हो जाती है, उस समय पुरुष की अपने स्वरूप में अवस्थिति ही ‘मुक्ति’ है। किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रवृत्तिस्वभाववाली प्रकृति कभी उससे उदासीन नहीं हो सकती । प्र० ) पुरुष के प्रयोजन-सम्पादन के लिए ही प्रकृति प्रवृत्त होती है, एवं प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान ही पुरुष का परम प्रयोजन है। उसके सम्पादित हो जाने पर वह कृतकार्य्य हो जाती है और फिर कार्य में प्रवृत्त नहीं होती। (उ०) किन्तु उक्त कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि प्रकृति जड़ है। उसमें विचारकर काम करने की शक्ति नहीं है, ( अतः ) वह जिस प्रकार शब्दविज्ञान के उत्पन्न होने पर भी फिर उसके लिए प्रवृत्त होती है, उसी प्रकार “विवेकख्याति” अर्थात् प्रकृति पुरुष के विवेक-ज्ञान के उत्पन्न

होने पर भी फिर उसके लिए प्रवृत्त होगी। (तस्मात् इस पक्ष अनिर्मोक्ष प्रसङ्ग होगा ) | ( ४ ) यह भी कोई कहते हैं कि नित्य एवं निरतिशय ( सर्वोत्कृष्ट ) सुख की अभिव्यक्ति ही ‘मुक्ति’ है। इस मत के ठीक न होने की युक्ति आगे लिखी जाएगी। तस्मात् दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही ‘मुक्ति’ है।

सम्बन्ध ही सुख और दुःखजनक होने के कारण ‘बम्ध’ है अतः उक्त विशुद्धज्ञान में घटादि विषयों के सम्बन्ध का उच्छेद ही मुक्ति है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि “आत्माभिन्न ज्ञानोच्छेद” ही मुक्ति है. इस कथित पक्ष में नौ दोष दिखलाये गए हैं, ये दोष इस पक्ष में नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में मुक्तावस्था में ज्ञानरूप आत्मा का नाश नहीं होता, किन्तु उसमें घटादि विषयों के सम्बन्ध का ही नाश होता है।

प्रकरणम् ]

●भाषानुवादसहितम्

न्यायकन्दली

तस्या: सद्भावे किं प्रमाणम् ? दुःखसन्ततिर्धम्मणी अत्यन्तमुच्छिद्यते सन्ततित्वाद्दीपसन्ततिवदिति तार्किकाः । तदयुक्तम्, पार्थिवपरमाणुरूपादि सन्तानेन व्यभिचारात्। “अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत:” इत्यादयो वेदान्ताः प्रमाणमिति तु वयम् । भूतार्थाना मेषामप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेन्न, प्रत्यक्षेणानैकान्तिकत्वात् । अथ मतं भूतार्थप्रतिपादकं वचनमनुवादकं स्यात्, ततश्चाप्रमाणत्वं प्रमाणान्तरसापेक्षत्वात्, प्रमायां साधकतमत्वाभावादिति ।

( प्र०) इसमें क्या प्रमाण है कि दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है? इस प्रश्न के उत्तर में तार्किक लोग यह अनुमान उपस्थित करते हैं कि दुःखों की सन्तति (समूह) का अत्यन्त विनाश होता है, क्योंकि उसमें सन्ततित्व है, जैसे दीपसन्तति । किन्तु अत्यन्त विनाश के साधन के लिए जिस ‘सन्ततित्व’ हेतु को उपस्थित किया गया है, वह पार्थिव परमाणु के रूपादि में व्यभिचरित है। इसलिए हम लोग कहते हैं कि “अशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः” वेदान्त ही ( दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति में ) प्रमाण हैं । ( प्र० ) भूत अर्थात् निष्पन्न विषय के अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले वेदान्त के ये वाक्य प्रमाण नहीं हैं। ( उ० ) ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उस दशा में प्रत्यक्ष र प्रमाण में व्यभिचार होगा । अगर ऐसा कहें कि भूत अर्थ के प्रतिपादक वचन अनुवादक है, अतः वेदान्तों में दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा के कारण अप्रामाण्य की सिद्धि होगी। क्योंकि प्रमा का जो ‘साधकतम’ होगा, वही ‘करण’ होने से प्रमाण होगा। अनुवादक वाक्य अपने अर्थ के

१. अभिप्राय यह है कि वैशेषिक पार्थिव परमाणु को नित्य मानते हुए भी उसमें रूप; रस, गन्ध और स्पर्श को अनित्य मानते हैं। क्योंकि पाक से उनका परिवर्तन घटादि स्थूल वस्तुओं में प्रत्यक्ष सिद्ध है। किन्तु उनके मूल कारण परमाणुओं में रूपादि के परिवत्तित हुए बिना घटादि में उनका परिवर्तन सम्भव नहीं है। अतः वह मानना पड़ेगा कि पार्थिव परमाणु के रूपादि पाक से परिवत्तित होते हैं। रूपादि का यह परिवर्त्तन पहिले रूपादि का नाश और दूसरे रूपादि की उत्पत्ति के सिवाय और कुछ नहीं है। किन्तु परमाणु तो निश्य है, उसमें सभी समय कोई न कोई रूपादि अवश्य रहते हैं। तस्मात् एक ही परमाणु में नाना जातीय रूपादि की सत्ता माननी पड़ेगी। इस प्रकार पार्थिव परमाणुगत नानाजातीय रूपादि का समूह मानना पड़ेगा। किन्तु उस समूह का कभी अत्यन्त विनाश नहीं होता है, अतः उसमें कथित सन्ततित्व’ हेतु है। तस्मात् उक्त ‘सन्ततित्व’ हेतु व्यभिचार-दुष्ट है।

२. प्रत्यक्ष निष्पन्न वस्तु का ही होता है। अतः “वेदान्ता अप्रमाणम्, भूतार्थविषय करवात्” अर्थात् वेदान्त अप्रमाण है, क्योंकि वे भूतार्थ के प्रतिपादक हैं। इस अनुमान का भूतार्थ प्रतिपादकत्व हेतु प्रत्यक्ष प्रमाण में है, अथ च उसमें अप्रामाण्यरूप साध्य नहीं है। अतः उक्त हेतु व्यभचरित होने के कारण वेदान्तों में अप्रामाण्य का साधक नहीं हो सकता ।

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भ्यायकन्दलीस वलितप्रशस्तपादभाष्यम्

न्यायकन्दली

[ मङ्गलाचरण

न सिद्धार्थप्रतिपादकत्वमनुवादकत्वम्, प्रत्यक्षस्याप्यनुवादकत्वप्रसङ्गात् । किन्त्व धिगताधिगन्तृत्वम्, ईदृशश्च वेदान्तानामर्थो यदयं भूतोऽपि प्रत्यक्षादेः प्रमाणान्त रस्य न विषयः, कुतस्तेषामनुवादकता कुतश्च सापेक्षत्वम्, स्मृतेरिव तेभ्य: पूर्वाधिगमसंस्पर्शनार्थप्रतीतेरभावात् । अत एव पुरुषवाक्यमपि प्रमाणम् । नहि तदपि वक्तृप्रमाण्योत्थापनेनार्थं प्रतिपादयति, किन्त्वनपेक्षिततद्वयापारं स्वयमेव, उत्पत्तिमात्र एव तदपेक्षणात्। स्वाभाविकी हि पदानां पदार्थपरता, स्वाभाविकी च पदार्थानामाकाङ्क्षासन्निधियोग्यतावतामितरेतरान्वययोग्यता । तेन यथा वेदे प्रमाणान्तरानपेक्षः शब्द:, शब्दसामर्थ्यादेवार्थ प्रत्ययः, एवं लोकेऽपि ये लौकिका वैदिकास्त एव चार्था इति न्यायेनोभयत्रापि शब्दशक्ते

बोध का ‘साधकतम’ का अर्थात् कारण नहीं है। ( उ० ) किन्तु यह कथन भी असङ्गत ही है क्योंकि भूतार्थ का प्रतिपादक होना ही अनुवादक होना नहीं है। (ऐसा मान लेने पर ) प्रत्यक्ष प्रमाण भी अनुवादक होगा। किन्तु ज्ञात विषय का ज्ञापक ही अनुवादक होता है। वेदान्तों से प्रतिपादित होनेवाले अर्थ निष्पन्न होने पर भी प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों के विषय नहीं है। तत्र वेदान्तों में प्रमाणान्तरसापेक्षत्व कैसा ? और अनुवादकता कैसी १ क्योंकि वेदान्त वाक्यों से स्मरण की तरह अर्थों की प्रतीति पूर्वानुभव से नहीं होती। इसी लिए पुरुष के वाक्य भी प्रमाण हैं। वे भी अपने अर्थविषय बोध के उत्पादन में वक्ता के प्रामाण्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखते। अपनी उत्पत्ति में ही वक्ता की अपेक्षा रखते हैं। किन्तु सुनने के बाद ही वक्ता के प्रामाण्य-ज्ञानरूप व्यापार की अपेक्षा नहीं रखते हुए ही केवल अपने सामर्थ्य से अपने अर्थ का बोध करा देते हैं। पदों में अपने अर्थों के बोध के उत्पा दन की स्वाभाविक ‘शक्ति’ है। अतः जैसे वेदों में दूसरे प्रमाणों की सहायता के विना ही केवल उन शब्दों के सामर्थ्य से ही अर्थ का बोध होता है, वैसे ही लोक में भी — ” जो पद लोक में जिस अर्थ में प्रयुक्त है, सम्भव होने पर उस पद से वेद में भी उसी अर्थ का बोध होता है” (शाबरभाष्य), इस न्याय से लौकिक और वैदिक

१. अनवादक वाक्य का प्रसिद्ध उदाहरण है— “नधास्तीरे फलानि सन्ति” | इस वाक्य में प्रामाण्य तभी होता है, जब कि नदी किनारे के फलों को प्रत्यक्षादि प्रमाण के द्वारा जानने वाले पुरुष से वह प्रयुक्त हुआ हो । अतः उस बोध का ‘साधकतम’ अर्थात् ‘करण’ वहीं प्रमाण होगा, जिससे प्रयोक्ता को उक्त प्रमा का ज्ञान हुआ हो। अतः उक्त वाक्य अपने अर्थविषयक बोध का कारण होने पर भी साधकतम ‘करण’ रूप प्रमाण नहीं है। तस्मात् अनुवादक वाक्य दूसरे प्रमाण से सापेक्ष रहने के कारण प्रमाण नहीं है ।

२. स्मृति ( स्मरण ) के प्रति पूर्वानुभव कारण है। स्मृति का प्रमात्व उसके कारणीभूत पूर्वानुभव के प्रमात्व के अधीन है। अतः संस्कार स्मृति का कारण होते हुए भी

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

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न्यायकन्दली

र विशेषात् । वक्तृप्रामाण्यानुसरणन्तु स्वरूपविपर्थ्यासहेतोर्दोषस्याभावावगमाय । प्रत्यक्ष इव स्वकारणशुद्धेरनुगमो विपर्थ्यासशङ्कानिरासार्थ इत्येषा दिक् । विस्तर स्त्वद्वयसिद्धौ द्रष्टव्यः । ननु कार्य्योऽर्थे शब्दस्य प्रामाण्यं न स्वरूपे, वृद्धव्यवहारेण्वन्वयव्यतिरे

काम्यां कार्य्यान्वितेषु पदानां शक्त्यवगमात् । अतो वेदान्तानां न स्वरूपपरतेति

दोनों शब्दों के सामर्थ्य में कोई अन्तर नहीं है । ( प्रमात्व के ) स्वरूप के विपर्थ्यासरूप अप्रमात्व के प्रयोजक दोषों के अभाव को जानने के लिए ही लौकिक वाक्यों में वक्ता के प्रामाण्य का अनुसन्धान किया जाता है। जैसे प्रत्यक्ष में स्वरूप विपर्यास, अर्थात् अप्रमत्व की शङ्का को हटाने के लिए उसके कारणों की शुद्धि का अनुसन्धान किया जाता है। यह केवल इस विषय का दिग्दर्शन मात्र है इसका विशेष विचार हमारे ‘अद्वयसिद्धि’ नामक ग्रन्थ में देखना चाहिए ।

( प्र०) कोई ( प्रभाकर ) कहते हैं कि कार्य्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही शब्द की शक्ति है। ‘स्वरूप’ अर्थात् कार्यत्व से असम्बद्ध केवल अर्थ में ही नहीं। क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक से वृद्धों से व्यवहृत कार्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही शक्ति गृहीत होती है । अतः वेदान्त वाक्य भी ‘स्वरूप’ अर्थात् कार्यत्व से असम्बद्ध अर्थ के बोधक नहीं है |

‘साधकतम’ करण नहीं है । एवं यथार्थानुभव से उत्पन्न स्मृति अप्रमा न होती हुई भी प्रमाणजन्य न होने के कारण प्रमा नहीं है। जिस यथार्थानुभव से उत्पन्न होने के कारण जिस स्मृति में प्रमात्व की सम्भावना है, उस यथार्थ पूर्वानुभव का करण उस स्मृतिविषय-विषयक उसी यथार्थानुभव को उत्पन्न करने के कारण तज्जनित स्मृति की उत्पत्ति के समय में ज्ञातज्ञापक हो जाता है। सुतरां उससे स्मृति में प्रमात्व की सम्भावना नहीं है। तस्मात् उक्त स्मृति में अयथार्थभिन्नत्वप्रयुक्त कदाचित प्रमात्व का गौण व्यवहार हो भी, तथापि उसके करण में प्रमाणत्व के व्यवहार की सम्भावना नहीं है।

१. शब्द को शक्ति को ग्रहण करने की स्वाभाविक रीति यह है कि जिस स्थल में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कहता है कि ‘मामानय’, अर्थात् गाय ले आनो, अथवा ‘गां बन्धय’ अर्थात् गाय को बाँध दो। तब यह व्यक्ति गाय को ले जाता है या बाँध देता है। अगर उस स्थान पर कोई ऐसा व्यक्ति खड़ा रहता है जिसे ‘आनय’ या ‘बन्धय’ रूप क्रियापद के अर्थ का ज्ञान है किन्तु उस क्रिया के कर्म के बोधक ‘गाम्’ इस पद के अर्थ का ज्ञान नहीं है, वह व्यक्ति अनायास ही जिस व्यक्ति को लाया या बाँधा गया देखता है, उस व्यक्ति को गोपद का अर्थ समझ लेता है तब फिर दूसरे समय आनयनादि कार्यों को छोड़कर केवल ‘गो’ प्रभृति अर्थों में गोपद की शक्ति कैसे गृहोत हो सकती है १

२. अर्थात जिस “अशरीरम्” इत्यादि वेदान्तवाक्य को आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिरूप मोश

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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ मङ्गलाचरण

न्यायकन्दली

चेत्, वान्तमिदम्, स्वरूपपरस्यापि वाक्यस्य लोके प्रयोगदर्शनात् । यथा परिणाम सुरसमात्रं परिणतिविरसव पनसमिति । अत्रापि प्रवृत्तिनिवृत्योरुपदेशः, एवं हि वाक्यार्थ: परिणामसुरसाश्रं भक्षय, परिणतिविरसन्च मा भक्षयेति । न वैयर्थ्यात् । सुरसत्वप्रतीत्यैव स्वयमभिलाषात् पुरुष: प्रवर्त्तते, बिरसत्वप्रतीत्यैव द्वेषान्निवर्त्तते । का तत्र वस्तुसामर्थ्य भाविन्युपदेशापेक्षा, अप्राप्ते हि शास्त्रमर्थवद्भ वति । अथ प्रवृत्तिनिवृत्योरभिसन्धानेनास्य वाक्यस्य प्रयोगात् तादर्थ्यमिति चेत्, अस्ति प्रवृत्तिनिवृत्यर्थता, किन्तु जनकत्वान्न तु प्रतिपादकत्वेन । यस्माद् भूतार्थ विषय एव प्रामाण्यम् । यदि तु प्रवृत्तिनिवृत्त्योरभिसन्धानेन वाक्यप्रयोगात् तयोरप्रतीयमानयोरपि शाब्दता, आम्रभक्षणोत्तरकालीना तृप्तिर्धातुसाम्यञ्च

( 3 ) किन्तु यह कथन भी सारशून्य है, क्योंकि ‘स्वरूप’ कार्यत्व से असम्बद्ध अर्थ के बोधक वाक्य से भी लोक में अर्थ-बोध देखा जाता है। जैसे “परिणतिसुरसमाम्रम्, परिणतिविरसञ्च पनसम्” (आम परिणाम में सुखद है और कटहल परिणाम में दुःखद है) इत्यादि वाक्यों से अर्थ-बोध होता है । (प्र०) यहाँ पर भी प्रवृत्ति और निवृत्ति ही वक्ता के उन वाक्यों से अभीष्ट है। तदनुसार उन दोनों वाक्यों का अर्थ यह है कि “आम खाओ, क्योंकि वह परिणाम में दुख देनेवाला है, और कटहल मत खाओ, क्यों कि वह अन्त में दुःख देनेवाला है।” ( उ० ) नहीं, यह कल्पना व्यर्थ है। वाक्यों को प्रवृत्त्यर्थक या निवृत्त्यर्थक न मानने पर भी आम में परिणामतः दुःख देने की कारणता का ज्ञान ही पुरुष को आम खाने में प्रवृत्त करेगा। एवं कटहल में परिणामतः दुःख देने की कारणता का ज्ञान ही पुरुष को कटहल खाने से निवृत्त करेगा। फिर वस्तुओं के सामर्थ्य से ही उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्तियों एवं निवृत्तियों में उपदेश की आवश्यकता ही क्या है ? क्योंकि और सभी प्रमाणों से अज्ञात वस्तु को समझाना ही शास्त्र (शब्द) का असाधारण प्रयोजन है। ( प्र०) “लोग आम खाने में प्रवृत्त हों और कटहल खाने में नहीं” यह मन में रखकर ही वक्ता उन वाक्यों का प्रयोग करते हैं, अतः प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों उन वाक्यों के ही अर्थ हैं। (उ०) यह ठीक है कि उन वाक्यों से प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है किन्तु इससे केवल यही सिद्ध होता है कि वे वाक्य क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति के कारण हैं। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे दोनों उन दोनों वाक्यों के प्रतिपाद्य भी हैं। क्योंकि निष्पन्न अर्थों में ही शब्दों की शक्ति है। (अगर प्रवृत्ति और निवृत्ति के अभिप्राय से उन वाक्यों का प्रयोग किया गया है, केवल इसीलिए प्रवृत्ति और निवृत्ति को उन वाक्यों का अर्थ मान लिया जाय तो ) आम के खाने से जो तृप्ति होती है या शरीर का उपकार होता है, उनकी प्रतिपादकता भी उस वाक्य में माननी पड़ेगी। ( किसी प्रकार की

में प्रमाण माना है, उसका भी वह निष्पन्न अर्थ नहीं है। उसका भी घाय्यंत्वविशिष्ट कोई दूसरा ही अयं है। जिससे कि आपकी इच्छा पूर्ण नहीं होगी।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

१३

न्यायकन्दली

वाक्यार्थी स्याताम्, प्रत्यक्षस्य च काञ्चिदर्थक्रियामभिसन्धायोपलिप्सिते विषये प्रवृत्तस्यार्थक्रिया प्रमेया स्यात् । जनकत्वेन प्रवृत्तिपरत्वं वेदान्तानामपि विद्यते, तेभ्य: स्वरूपप्रतीतौ ध्यानाभ्यासादिप्रवृत्तस्य विगतविविधविकल्पविशदात्मज्ञानोदये सत्यपवर्गस्य भावात् । न चेदमावश्यकं यत्प्रवृत्तिनिवृत्त्यवधिक प्रमाणव्यापार इति तयोः पुरुषेच्छाप्रतिबद्धयोरनुत्पादेऽपि वस्तुपरिच्छेदमात्रेणापेक्षाबुद्धेः पर्य्यव सानात् । न च कार्य्यान्वित एवार्थे पदानां शक्तिः, अनन्वितेऽपि व्युत्पत्तिदर्शनात् । यथेह प्रभिन्नकमलोदरे मधूनि मधुकर पिबतीति वर्त्तमानापदेशे प्रसिद्धेतरपदार्थोऽ प्रसिद्ध मधुकरपदार्थस्तु यं मधुपानकर्त्तारं पश्यति तं मधुकरवाच्यत्वेन प्रत्येति । अत्राप्यस्ति पारम्पर्येण कार्यान्वयो वाक्यप्रयोक्तुः, वृद्धव्यवहारे कार्य्यान्वितपदाथ मधुकरपदस्य व्युत्पत्तिभावादिति चेत् ? न, अनिश्चयात् । वाक्यप्रयोक्तुः कि

कारणता से ही अगर प्रतिपादकता मान ली जाय तो ) मन में किसी कार्यविशेष की इच्छा से उत्पन्न तत्प्रयोजकीभूत किसी विषय के प्रत्यक्ष का वह विशेष कार्य प्रमेय होगा। कारणत्व रहने से ही अगर प्रतिपादकत्व मान लिया जाय तो फिर वेदान्त वाक्य भी प्रवृत्ति के वाचक ही हैं। क्योंकि उनसे भी स्वरूप अर्थविषयक बोध के बाद ध्यान, अभ्यासादि में प्रवृत्त पुरुष को अनेक प्रकार के विकल्पों से रहित आत्मा के यथार्थज्ञान के उदय से अपवर्ग की प्राप्ति अवश्य होती है। यह आवश्यक नहीं है कि ( शब्द ) प्रमाण के व्यापार की अवधि प्रवृत्ति और निवृत्ति ये ही दो मानी जाएँ। क्योंकि पुरुष की इच्छा से नियमतः प्रवृत्ति और निवृत्ति की उत्पत्ति न होने पर भी वस्तुओं का ‘परिच्छेद’ अर्थात् इष्टसाधकत्वादि का परिचय देकरके ही अपेक्षा बुद्धि चरितार्थ हो जाती है।

यह भी नियम नहीं है कि कार्य में अन्वित अर्थों में ही शब्दों की शक्ति है, क्योंकि कार्य में अनन्वित अर्थों में भी शब्दों की शक्ति देखने में आती है। जैसे “प्रभिन्नकमलोदरे मधूनि मधुकरः पिबति” ( अर्थात् फूले कमल के बीच ‘मधुकर’ मधु को पीता है ) इत्यादि वाक्य के ‘मधुकर’ शब्द से जिस व्यक्ति को पहिले से ( उक्त वृद्धव्यवहार की रीति से ) ‘मधुकर’ पद के अर्थ का ज्ञान नहीं भी है, वह भी वर्त्तमानकालिक उस मधुपान क्रिया में रत भ्रमर को ‘मधुकर’ शब्द का वाच्य समझ लेता है। (प्र० ) बोद्धा को कार्य्यान्वित अर्थ में शक्ति गृहीत न होने पर भी वक्ता को तो कार्य में अन्वित अर्थ में ही शक्ति गृहीत है, क्योंकि उसका शक्तिज्ञान वृद्ध व्यवहारमूलक हो है। अतः साक्षात् न सही, परम्परा से मधुकर शब्द की शक्ति कात्व विशिष्ट अर्थ में ही है। ( उ० ) यह आक्षेप भी अनिश्चय के कारण असङ्गत है,

१. पहिले प्रमाण से यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति होती है। तदनन्तर उस ज्ञात ईप्सित विषय की इच्छा उत्पन्न होती है, अथवा द्वेष उत्पन्न होता है । ईप्सित

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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

न्यायकन्दली

मङ्गलाचरण

वृद्धव्यवहारात् कार्य्यान्वितेऽर्थे व्युत्पत्तिरभूत् ? किमुत प्रसिद्धपदसामानाधिकरण्येनो पदेशाद्वा स्वरूपेऽर्थ इति निश्चयो नास्ति, इदम्प्रथमताया अभावात् । किञ्च प्रयोक्तु रन्विते व्युत्पत्तिः श्रोतुश्चानन्विते, अन्यव्युत्पत्त्याऽन्यो न शब्दार्थं प्रत्येति ततश्च मधुकरशब्दस्यानन्वितार्थत्वमन्वितार्थत्व व पुरुष मे देनेत्यर्द्ध वैशसमापतितम् । क्रिया काङ्क्षानिबन्धनः पदार्थानामन्योन्यसम्बन्धो नाख्यातपदरहितेषु वेदान्तवाक्येषु भवितुमर्हतीति चेत् ? न तावत्सर्वत्र क्रियाया अभावः, यत्र तु नास्ति तत्रोप संसर्गपरतया पदरभिहितानां पदार्थाना मेव योग्यता सन्निधिमतामन्योन्याकाङ्क्षानिब न्धनः सम्बन्धः । तथा च ‘काञ्च्यामिदानीं त्रिभुवनतिलको राजा’ इत्यत्रापि

क्योंकि वाक्य के प्रयोक्ता को वृद्ध व्यवहार से कार्यत्वविशिष्ट अर्थ में शक्ति गृहीत हुई थी, या प्रसिद्धपद के सामानाधिकरण्य के उपदेश से ‘स्वरूप’ अर्थात् कार्यत्व से असम्बद्ध अर्थ में ही शक्ति गृहीत हुई थी, इसका कोई निश्चय नहीं है। यह नियम भी नहीं है कि वृद्ध व्यवहार से ही उस परम्परा में शक्ति गृहीत हुई है और उसके पश्चात् प्रसिद्धपद के सामानाधिकरण्य से या उपदेश से। अगर यह मान भी लें कि वहाँ वक्ता को वृद्ध-व्यवहार से कार्य्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही शक्ति गृहीत हुई है, तब भी यह मानना ही पड़ेगा कि उक्त स्थल में बोद्धा को कार्यत्व से अनन्वित केवल स्वरूप में ही शक्ति गृहीत होती है। अतः इस वाक्य के ‘मधुकर’ शब्द का इस प्रकार कार्यत्व विशिष्ट अर्थ में एवं कार्यत्व से असम्बद्ध केवल स्वरूपार्थ में, दोनों जगह शक्ति की कल्पना करनी पड़ेगी। क्योंकि एक व्यक्ति के शक्ति ज्ञान से दूसरे व्यक्ति को शाब्दबोध नहीं होता है । तस्मात् इस पक्ष में अर्द्धजरतीय न्याय हो जायगा। (प्र० ) पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध क्रिया की आकाङ्क्षा से होता है। वेदान्तवाक्यों में क्रियापद नहीं रहते, अतः वे परस्पर अस म्बद्ध होने के कारण निराकाङ्क्ष हैं, फलतः अर्थ के बोधक न होने के कारण प्रमाण भी नहीं हैं । ( उ० ) यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि पहिले तो यही असत्य है कि वेदान्तों में क्रियापद नहीं रहते। क्योंकि “अशरीरम्” इत्यादि क्रियापद से युक्त वेदान्त का उल्लेख कर चुके हैं। दूसरी बात है कि यह नियम ही ठीक नहीं है कि वाक्यों का परस्पर सम्बन्ध क्रिया की आकाङ्क्षा से ही उत्पन्न होता है। अतः जहाँ क्रियापद नहीं है, वहाँ भी पदों में परस्पर सम्बद्ध रूप से कथित आकाङ्क्षा, योग्यता और संनिधि से युक्त पदार्थों में ही आकाङ्क्षामूलक परस्पर सम्बन्ध है। क्योंकि “काञ्च्यामिदानीं त्रिभुवन तिलको राजा”

वस्तुओं में जीव प्रवृत्त होता है, अथवा अनिष्टसाधनत्व के अनुसन्धान से उत्पन्न द्वेष से निवृत्त होता है। फलतः यथार्थ ज्ञान से उत्पन्न इच्छा और द्वेष इन दोनों से ही क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है। अगर ज्ञान के बाद किसी प्रतिबन्ध के कारण इष्टसाधनत्व या अनिष्टसाधनत्व का अनुसन्धान न हुआ तो फिर प्रवृत्ति और निवृत्ति की भी उत्पत्ति नही होती। किन्तु इससे ऐसा नहीं कह सकते कि उस शब्द से ज्ञान उत्पन्न ही नहीं हुआ।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

१५

प्रशस्तपादभाष्यम्

द्रव्यगुण कम्मं सामान्य विशेषसमवायानां षष्णां पदार्थानां साधर्म्य

वैधर्म्यतत्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुः ।

( १ ) द्रव्य, ( २ ) गुण, ३) कर्म्म, ( ४ ) सामान्य, ( ५ ) विशेष, और ( ६ ) समवाय, इन छ: पदार्थों के साधर्म्य और वैधर्म्य का तत्त्वज्ञान ‘निःश्रेयस’ अर्थात् अपवर्ग का कारण है। एवं उक्त तत्त्वज्ञान का जनक यह ग्रन्थ भी परम्परा से अपवर्ग का कारण है।

न्यायकन्दली

वाक्यार्थो गम्यत एव । भविष्यतीति यत्किश्चिदेतत् । अथवा तत्र श्रुतप्रयुज्यमानाऽस्ति भवतिक्रियानिबन्धनो

प्रकृतमनुसरामः । पवार्थधर्म्मज्ञानादेव पदार्थानामपि सङ्ग्रहो लभ्यते, स्वातन्त्र्येण धर्माणां सङ्ग्रहाभावात् । ननु पदार्थधर्माणां सङ्ग्रहपरो ग्रन्थो महोदयहेतुरिति नोपपद्यते, शब्दाना मर्थप्रतिपादनमन्तरेण कार्य्यान्तराभावादित्याशङ्कय पदार्थधर्म्म प्रतीतिहेतोः

अत्र

सङ्ग्रहस्य पारम्पर्येण महोदयहेतुत्वं प्रतिपादयन्नाह – द्रव्यगुणेत्यादि ।

इत्यादि वाक्यों से भी अर्थ-बोध अवश्य होता है। (अगर यह आग्रह मान भी लिया जाय कि क्रिया से ही पदों में परस्पराकाङ्क्षा होती है, तब भो) अस्ति, भवति इत्यादि क्रियाओं का अध्याहार कर लिया जा सकता है। तस्मात् वेदान्त वाक्यों में अप्रामाण्य की कोई भी शङ्का नहीं है। अब हम फिर प्रकृत विषय का अनुसन्धान करते हैं। यहाँ ‘पदार्थधर्म के ज्ञान से पदार्थों के भी ‘संग्रह’ अर्थात् ज्ञान का लाभ होता है।

पदार्थघम के यथार्थ ज्ञान का कारण ग्रन्थ (शब्दसमूह) महोदय अर्थात् अपवर्ग का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द में अपने अर्थों के प्रतिपादन को छोड़कर दूसरे कामों के करने का सामर्थ्य नहीं है । यह शङ्का मन में रखकर ( अपवर्ग के कारण ) पदार्थधर्म्म विषयक यथार्थ-ज्ञान के सम्पादक ग्रन्थ में (अपवर्ग की साक्षात्कारणता सम्भव न होने पर भी) परम्परया ( अपवर्ग की) कारणता का प्रतिपादन करते हुए ‘द्रव्यगुण’ इत्यादि भाष्य को कहते हैं ।

१. अभिप्राय यह है कि इस पुस्तक का नाम ‘पदार्थधर्मसंग्रह” है। ‘संग्रह ‘ शब्द का अर्थ सम्यक् ज्ञान या यथार्थज्ञान है। “प्रवक्ष्यते महोदयः” इत्यादि वाक्य से पदार्थधर्म के यथार्थज्ञान में ‘महोदय’ या अपवर्ग की कारणता कही गई है। आगे साघम्यं वैधम्यंयुक्त पदार्थ ज्ञान में ही महोदय की कारणता कही गई है। अतः दोनों उक्तियों में सामञ्जस्य नहीं होता। इसी को मिटाने के लिए इस अभिप्राय से उपर्युक्त शब्द कहना पड़ा कि धर्म का ज्ञान पम्मिज्ञान के बिना असम्भव है।

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न्यायकन्दलीसंबलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ उद्देश

न्यायकन्दली

यस्य वस्तुनो यो भावस्तत् तस्य तत्त्वम् । साधारणो धर्मः साधर्म्यम्, असाधारणो धर्मो वैधर्म्यम् । साधर्म्यवैधर्म्ये एव तत्त्वं साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वम् तस्य ज्ञानं निःश्रेयसहेतुः | विषयसम्भोगजं सुखं तावत् क्षणिकविनाशि दुःखबहुलं स्वर्गादिपद प्राप्यमपि सप्रक्षयं सातिशयश्च । तथा च कस्यचित् स्वर्गमात्रमपरस्य स्वर्गराज्यम् । अतस्तदपि सततं प्रच्युतिशङ्कया परसमुत्कर्षोपतापाच्च दुःखाक्रान्तं न निश्चितं श्रेयः । आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिरसह्यसंवेदननिखिलदुःखोपरमरूपत्वा दपरावृत्तेश्च निश्चितं श्रेयः । तस्य कारणं द्रव्यादिस्वरूपज्ञानम् । एतेन तत्प्रयुक्तं यदुक्तं मण्डनेन– “विशेषगुणनिवृत्तिलक्षणा मुक्तिरुच्छेदपक्षान

जिस वस्तु का जो ‘भाव’ है वही उसका ‘तत्त्व’ है। (अनेक वस्तुओं में रहनेवाले एक ) साधारण धर्म को धर्म्य’ कहते हैं। (प्रत्येक पदार्थ में ही रहनेवाले) असाधारण धर्म्म को ‘वैध’ कहते हैं। साधम्यं और वैधर्म्य रूप जो तत्त्व है. वही इस साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्व’ शब्द का अर्थ है। इसी का तत्त्वज्ञान निःश्रेयस का कारण है। सांसारिक विषयों के उपभोग से होनेवाला सुख क्षणमात्र में विनष्ट हो सकता है और अपनी अपेक्षा बहुत अधिक दुःखों से घिरा हुआ है। स्वर्गपद से व्यवहृत होनेवाला सुख भी विनाशशील है और न्यूनाधिक भाव युक्त है। जैसे किसी को स्वर्ग मिलता है और किसी को उसका अधिपत्य (स्वाराज्य) । अतः वह (स्वर्गरूप) सुख भी स्वर्ग से गिरने की आशङ्का से उत्पन्न दुःख और दूसरे के उत्कर्ष से उत्पन्न क्षोभ से आक्रमण होने के कारण निश्चित कल्याण नहीं है। दुःखों की अत्यन्तिक निवृत्तिरूप मोक्ष असह्य होनेवाले दुःखों के अत्यन्त विनाश रूप होने के कारण और इसलिए भी कि एक बार उस अवस्था की प्राप्ति हो जानेपर फिर दुख की अवस्था नहीं लौटती है, परम कल्याणमय है, अतः जीवों को परम अभीष्ट है। उसका कारण द्रव्यादि पदार्थों का तत्त्वज्ञान है। इसी से आचार्य मण्डन की यह उक्ति भी खण्डित हो जाती है कि- “(आत्मा के) सभी विशेष गुणों का नाश ही मोक्ष है, यह पक्ष ‘ज्ञानस्वरूप आत्मा का अत्यन्त उच्छेद ही मुक्ति है” बौद्धों के इस उच्छेद

अत: धम्मंज्ञान में मुक्तिजनकता कहने से ही धम्मसहित धम्मंज्ञान में मुक्तिजनकता कथित हो जाती है। तस्मात् कोई असामञ्जस्य नहीं है।

१. अभिप्राय यह है कि भाष्य में स्थित “साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वज्ञानम्” इस वाक्य का “साधर्म्य वैधव साधर्म्यवैधर्म्ये, ते एव सत्वं साधम्र्म्यवेधर्म्यतत्त्वम्” इस द्वन्द्वान्त कर्मधारय के बाद ‘तस्य ज्ञानम्’ यह षष्ठी समास है। किन्तु उक्त द्वन्द्वान्त पद का ‘तस्वम्’ इस पद के साथ षष्ठीतत्पुरुष समास नहीं है, क्योंकि इससे साधर्म्यवैधर्म्यरूप तत्व के ज्ञान में मुक्तिजनकता सिद्ध न होकर उस साधर्म्यवैषम्यं में रहनेवाले धर्मो के ज्ञान में ही मुक्ति जनकता कही जायगी, किन्तु यह असङ्गत है।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

न्यायकन्दली

१७

भिद्यते” इति। विशेषगुणोच्छेदे हि सत्यात्मनः स्वरूपेणावस्थानं नोच्छेदः, नित्यत्वात् । न चायमपुरुषार्थः, समस्तदुःखोपरमस्य परमपुरुषार्थत्वात् । समस्त सुखाभावादपुरुषार्थत्वमिति चेत् ? न, सुखस्यापि क्षयितया बहुलप्रत्यनीकतया च साधनप्रार्थनाशतपरिक्लिष्टतया च सदा दुःखानान्तस्य विषमिश्रस्येव मधुनो दुःख पक्षे निक्षेपात् । केषां साधर्म्यवधर्म्यतत्त्वपरिज्ञान मपवर्गकारणमित्यपेक्षायां द्रव्या दीनामिति सम्बन्धः । द्रव्याणि च गुणाश्च कर्माणि च सामान्यञ्च, विशेषाश्च, समवायश्चेति विभागवचनानुसारेण विग्रहः, उद्देशस्य विभागवचनेन समानविषयत्वात् । आदौ द्रव्यस्योद्देशः, सर्वाश्रयत्वेन प्राधान्यात्। गुणानाञ्च कर्म्मापेक्षया भूयस्त्वाद् द्रव्यानन्तरमभिधानम् । नियमेन गुणानुविधायित्वात् कर्म्मणां गुणानन्तरमुद्देशः । कर्म्मान्वित सामान्यस्य कर्मानन्तरमभिधानम् । पञ्च पदार्थवृत्तेः समवायस्य सर्वशेषेणाभिधाने प्राप्ते विशेषाणां मध्ये कथनम् ।

पक्ष से भिन्न नहीं है । ” क्योंकि विशेष गुणों के नष्ट हो जाने पर आत्मा का अपने स्वरूप में रहना आत्मा का नाश नहीं है। (और उसका नाश हो भी नहीं सकता है, क्योंकि) वह नित्य है। यह आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिरूप मोक्ष जीवों का अकाम्य भी नहीं है, क्योंकि यह दुःखों का अत्यन्त विनाशरूप है, अतः जीवों का परम अभीष्ट है। (प्र०) यह (मोक्ष) सभी सुखों का भी निवृत्तिरूप होने के कारण जीवों का काम्य नहीं है ? (उ०) नहीं, क्योंकि सुख भी विनाशशील अनेक विघ्नों से ओतप्रोत, अनेक कठिन उपायों से उत्पन्न होने के कारण अनेक दुःखों से आक्रान्त होने से त्याज्य ही है। जैसे विष से मिला हुआ मधु भी ग्राह्य नहीं होता। (प्र०) किन पदार्थों के साधर्म्य और बैधर्म्यरूप तत्त्व का ज्ञान मोक्ष का कारण है ? इस आकाङ्क्षा की पूर्ति के लिए “द्रव्यगुण कर्म सामान्य विशेषसमवायानां षण्णां पदार्थानाम्” इस वाक्य का उपादान है। पदार्थों के विभागवाक्य के अनुसार उक्त द्वन्द्व समासान्त वाक्य का विग्रह “द्रव्याणि च, गुणाश्च, कर्माणि च, सामान्यञ्च, विशेषाश्च समवायश्च” प्रकार का है । इस क्योंकि ‘उद्देश’ वाक्य में प्रयुक्त पदार्थबोधक पद की विभक्ति का वचन विभाग वाक्य के अनुसार होना चाहिए। द्रव्य सभी पदार्थों का आश्रय है, अतः सर्वप्रधान है। इस कारण उसका उल्लेख सबसे पहिले है। गुण कर्म्म से संख्या में अधिक हैं, अतः द्रव्य के बाद और कर्म्म से पहिले गुणों का उल्लेख है। कर्म्म नियमतः गुणों के साथ ही रहता है, अतः गुण के बाद कम्म का निरूपण है। कर्म्म के साथ रहने के कारण कर्म्म के बाद सासान्य का निरूपण किया है। समवाय द्रव्यादि पाचों पदार्थों में रहता है, सुतरां उसका निरूपण सबसे पीछे होना उचित है । अतः सामान्य निरूपण के बाद और समवाय से पहिले बीच में ‘विशेष’ का निरूपण किया है ।

१८

न्यायकन्दलीसंबलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ उद्देश

प्रशस्तपादभाष्यम्

तच्चेश्वर चोदनाभिव्यक्ताद्धर्म्मादेव ।

उस ‘निःश्रेयस’ ( या अपवर्ग) की प्राप्ति ईश्वर की विशेष प्रकार की इच्छा से कार्य करने में उन्मुख हुए धर्म से ही होती है।

न्यायकन्दली

अभावस्य पृथगनुपदेशो भावपारतन्त्र्यात्, न त्वभावात् । द्रव्याणामिति सम्बन्धे षष्ठी। अत्रापि साधर्म्याविज्ञानस्य निःश्रेयसहेतुत्वे कथिते द्रव्यादिज्ञानस्य कथितम्, साधर्म्यवैधर्म्ययोः स्वातन्त्र्येण ज्ञानाभावात् ।

ननु यदि तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुस्तहि धर्मो न कारणम् ? ततः सूत्रविरोध:- “यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्म:” इति तत आह- “तच्चेश्वर चोदनाभिव्यक्ताद्धम्मदेवेति । तन्निःश्रेयसं धम्मदेव भवति, द्रव्यादितत्त्वज्ञानं तस्य कारणत्वेन निःश्रेयससाधनमित्यभिप्रायः । तत्त्वतो ज्ञातेषु बाह्याध्यात्मिकेषु विषयेषु दोषदर्शनाद्विरक्तस्य समीहानिवृत्तावात्मज्ञस्य तदर्थानि कर्माण्यकुर्व्वत स्तत्परित्यागसाधनानि च श्रुतिस्मृत्युदितान्यसङ्कल्पितफलान्युपाददानस्यात्मज्ञान अभावों को स्वतन्त्र रूप से न कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि वे हैं ही नहीं, न कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि अभाव भावपरतन्त्र हैं। (अर्थात् “द्रव्य गुणकमसामान्य विशेषसमवायानाम्” इस समस्त वाक्यघटक पदरूप) ‘द्रव्याणाम्’ इत्यादि पदों में सम्बन्धसामान्य में षष्ठी विभक्ति है। “साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वज्ञानं निःश्रे यसहेतुः” इस वाक्य से यद्यपि द्रव्यादि पदार्थों के साधर्म्य और वैधर्म्यरूप तत्त्व के ज्ञान में ही मुक्ति की कारणता कही गयी है, तथापि द्रव्यादिविषयक ज्ञानों में भी मुक्ति की कारणता उसी वाक्य से कथित हो जाती है, क्योंकि द्रव्यादि रूप धम्मियों के ज्ञान के बिना उनके साधम्य और वैधर्म्यरूप तत्त्वों का ज्ञान असम्भव है ।

अगर मोक्ष का कारण ( साधर्म्यवैधर्म्यरूप) तत्त्व का ज्ञान ही है, तो फिर ‘धर्म’ उसका कारण नहीं है। किन्तु ऐसा मान लेने पर सूत्र का विरोध होता है। क्योंकि सूत्रकार ने कहा है कि- “यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः” । इसी विरोध को मिटाने के लिये भाष्यकार ने “तच्चेश्वरचोदनाभिव्य म्मदेव” यह वाक्य कहा है। अभिप्राय यह है कि ‘तत्’ अर्थात् मोक्ष, धर्म से ही ( उत्पन्न होता है। किन्तु द्रव्यादि तत्त्वज्ञान धर्म्म का कारण है, अतः परम्परा से मोक्ष का भी कारण है। पदार्थों के यथार्थज्ञान से बाह्य और आभ्यन्तर सभी वस्तुओं में (‘ये सभी दुःख के कारण हैं’ इस प्रकार की ) दोष बुद्धि उत्पन्न होती है। इस दोष-बुद्धि से वैराग्य की उत्पत्ति होती है और वैराग्य से उस पुरुष की सारी अभिलाषायें निवृत्त हो जाती हैं। फिर वह व्यक्ति अभिलाषाओं के पोषक सभी उपायरूप कम्मों को छोड़ देता है तथा अभिलाषा से पिण्ड छुड़ानेवाले वेद धर्मशास्त्रादि ग्रन्थों में कथित

१९

भाषानुवादसहितम्

प्रकरणम् ]

मभ्यस्यतः प्रकृष्टविनिवर्त्तकधर्मोपचये सति परिपक्वात्मज्ञानस्यात्यन्तिकशरीर वियोगस्य भावात् । दृष्टो विषयिणामहिकण्टकादीनां परित्यागो विशेषदोषदर्शन पूर्वकाभिसन्धिकृत निवर्त्तकात्मविशेषगुणात् प्रयत्नात् । तेन शरीरादीनामात्य न्तिकः परित्यागो विषयदोषदर्शनपूर्व्वकाभिसन्धिकृतनिवर्त्तकात्म विशेषगुणनिमित्तो विज्ञात इति मोक्षाधिकारे वक्ष्यामः ।

धर्मोऽपि तावन्न निःश्रेयसं करोति यावदीश्वरेच्छया नानुगृह्यते । तेनेद मुक्तम् – ईश्वरचोदनाभिव्यक्ताद्धर्म्मादेवेति । चोद्यन्ते प्रर्य्यन्ते स्वकार्येषु प्रवर्त्य न्तेऽनया भावा इति चोदना ईश्वरचोदना ईश्वरेच्छाविशेषः । अभिव्यक्तिः कार्य्या रम्भं प्रत्याभिमुख्यम् । ईश्वरचोदनयाभिव्यक्तादीश्वर चोदनाभिव्यक्ताद् ईश्वरे च्छाविशेषेण कार्य्यारभ्भाभिमुखीकृताद्धम्मदेव निःश्रेयसं भवतीति वाक्ययोजना | तच्चेति चकारो द्रव्यादिसाधर्म्यज्ञानेन सह घर्म्मस्य निःश्रेयसहेतुत्वं समुच्चिनोति ।

निष्काम कम्मों का अनुष्ठान करता हुआ आत्म-ज्ञान का अभ्यास करता है। इन आचरणों से निवृत्तिजनक धर्म की वृद्धि होने पर जब आत्मज्ञान परिपक्व हो जाता है, तब उससे ( आत्मा का ) शरीर के साथ अत्यन्त वियोग (मोक्ष) की उत्पत्ति 🙂 होती है। यह देखा जाता है कि सर्प और कण्टकादि पदार्थों में पहिले इस प्रकार के दोष का ज्ञान होता है कि ये सभी दुःखजनक हैं। फिर उन्हें त्यागने की इच्छा होती है। इस इच्छा से निवृत्तिजनक ( निवर्त्तक ) प्रयत्न की उत्पत्ति होती है। आत्मा के विशेषगुण इस प्रयत्न से जीव उन दुष्ट ( सर्पादि) पदार्थों को छोड़ देता है। यही बात हम मोक्ष निरूपण में कहेंगे ।

धर्म भी तब तक अकेला मोक्ष का सम्पादन नहीं कर सकता, जबतक उसे ईश्वर की इच्छा की सहायता न मिले। इसीलिए प्रशस्तपाद ने “तच्चेश्वरचोदना भिव्यक्ताद्धर्म्मादेव” यह वाक्य लिखा है। “बोद्यन्ते स्वकार्येषु प्रेर्य्यन्तेऽनया भावाः” इस •व्युत्पत्ति के अनुसार जिस ‘इच्छा’ से ( कारणरूप वस्तु अपने कार्यों में उसके उत्पादन के लिए प्रेरणा प्राप्त करे ) वही ‘इच्छा’ प्रकृत ‘चोदना’ शब्द का अर्थ है। ‘ईश्वरस्य चोदनां’ इस विग्रह के अनुसार ‘ईश्वर की इच्छा’ ही ‘ईश्वरचोदना’ शब्द का अर्थ है । प्रकृत ‘अभिव्यक्ति’ शब्द से कारणों की कार्य करने की उन्मुखता इष्ट है। “ईश्वर चोदनाभिव्यक्तात्” यह पञ्चम्यन्त पद “ईश्वरचोदनयाऽभिव्यक्तात्” इस तृतीया समास से बना है। उपर्युक्त व्युत्पत्तियों के अनुसार ‘तच्च’ इत्यादि वाक्य का फलित अर्थ यह है कि ईश्वर के इच्छाविशेष से कार्य के प्रति उन्मुख धर्म से ही ‘मुक्ति’ होती है । ‘तच्च’ इस वाक्य में प्रयुक्त ‘च’ शब्द इस समुच्चय का बोधक है कि पदार्थों के साधर्म्यादिरूप तत्त्व विषयक ज्ञान के साथ मिलकर ही धर्म में मोक्ष की साधनता है।

२०

न्यायकन्दली संवलिप्रशस्तपादभाष्यम्

[ उद्देश

प्रशस्तपादभाष्यम्

अथ के द्रव्यादयः पदार्थाः, किञ्च तेषां साधन्यं वैधमञ्चेति । तत्र द्रव्याणि पृथव्यप्तेजोवाय्वाकाशकाल दिगात्म मनांसि सामान्यविशेषसंज्ञयोक्तानि नवैवेति । तद्व्यतिरेकेणान्यस्य संज्ञा

नभिधानात् ।

द्रव्यादि कौन-कौन पदार्थ हैं? एवं उनके साधर्म्म और वैधर्म्य क्या हैं ? उन पदार्थों में ( १ ) पृथिवी, ( २ ) जल, ( ३ ) तेज, ( ४ ) वायु, ( ५ ) आकाश ( ६ ) काल, (७) दिक्, (८) आत्मा और (६) मन ये नौ ही द्रव्य सूत्र कार के द्वारा सामान्य ( द्रव्यसंज्ञा ) और विशेष ( पृथिव्यादिसंज्ञा ) संज्ञाओं से कहे गये हैं। क्योंकि पदार्थों के उपदेश के लिये सर्वज्ञ महर्षि ने इन नवों को छोड़ कर और किसी द्रव्य का नाम नहीं लिया है।

न्यायकन्दली

एवं षट्पदार्थज्ञानस्य पुरुषार्थोपायत्वं प्रतीत्य तेषां प्रत्येकं भेदजिज्ञासाथ परिपृच्छति -अथ के द्रव्यादय इति । कानि द्रव्याणि ? के गुणाः ? कानि कर्म्माणीत्यादि योजनीयम् । नावश्यं धम्मणि ज्ञाते धर्म्मा ज्ञायन्त इति, तेन धर्मेषु पृथक् प्रश्न: – किञ्च तेषामित्यादि । अत्रापि चः समुच्यये । उत्तरमाह – तत्रेत्यादि । तेषु द्रव्यादिषु मध्ये, द्रव्याणि पृथिव्यादीनि,

सामान्यविशेषसंज्ञया सामान्यसंज्ञया द्रव्यसंज्ञया, विशेषसंज्ञया प्रत्येकमसा

इस प्रकार द्रब्यादि छः पदार्थों में मुक्ति की कारणता को समझाकर, उन पदार्थों में से प्रत्येक की जिज्ञासा के लिये प्रशस्तदेव “अथ के द्रव्यादयः” इत्यादि प्रश्नभाष्य लिखते हैं-

‘अथ के द्रव्यादयः’ इत्यादि प्रश्नभाष्य की व्याख्या ‘ ‘-द्रव्य कितने हैं ?’ ‘गुण कितने हैं ?’ इत्यादि रीति से करनी चाहिए। धर्मी के ज्ञात हो जाने पर यह आवश्यक नहीं है कि धर्म भी ज्ञात हो जाएँ । अतः “किञ्च तेषाम्” इत्यादि से धर्म

के विषय में अलग प्रश्न करते हैं। यहाँ भी ‘च’ शब्द समुच्चय का ही बोधक है। ( कथित दोनों प्रश्नों का समाधान क्रमशः करते हैं ) ‘तत्र’ अर्थात् उन छः पदार्थों में, ‘द्रव्याणि’ अर्थात् पृथिव्यादि नौ द्रव्य, “सामान्यविशेषसंज्ञया” सामान्यसंज्ञा से अर्थात् द्रव्य नाम से, विशेषसंज्ञा से अर्थात् पृथिव्यादि विशेष नामों से- पृथिवीत्व, जलत्व,

१. अभिप्राय यह है कि इत्यादिभाग वाक्य के पहिले का ‘तत्र के द्रव्यादयः’ ? इत्यादि प्रश्नवाक्य केवल यहाँ के लिये ही नहीं है, किन्तु गुणादि के विभाग वार्या

प्रकरणम्

भाषानुवादसहितम्

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न्यायकन्दली

धारणसंज्ञया पृथिव्यप्तेजस्त्वादिरूपया उक्तानि सूत्रकारेण प्रतिपादितानि । किमेतावन्त्याहोस्विदपराण्यपि सन्तीत्याह नवैवेति ननु नवानां लक्षणाभिधाने सामर्थ्यादपरेषामभावो ज्ञातव्यः व्यर्थं नवैवेति । न, नवसु लक्षितेषु किमपरेषाम सत्त्वादुत सतामप्यनुपयोगित्वान्न लक्षणं कृतमिति संशयो न निवर्त्तेत । लक्षणस्य व्यवहारमात्रसारतया समानासमानजातीयव्यवच्छेदमात्रसाधनत्वेन चान्याभाव प्रतिपादिनासामर्थ्यात्, तदर्थमवधारणं कृतम् । इदमेव सामान्योद्दिष्टानां विशेष संज्ञाभिधानं तन्त्रान्तरे विभाग इति निर्देश इति च कथ्यते । कथमेतदवगतं नवैवेति ? अत आह-तद्व्यतिरेकेणेत्यादि । तेभ्यो नवभ्यो व्यतिरेकेण सर्वज्ञेन महर्षिणा सर्वार्थोपदेशाय प्रवृत्तेनान्यस्य संज्ञानभिधानात् ।

तमो नाम रूप-संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-परत्वापरत्व-संयोग-विभागवद् द्रव्यान्तर मस्तीति चेत् ? अत्रकश्चिदाह- यदि तमो द्रव्यम्, रूपवद्रव्यस्य स्पर्शाव्यभि

• तेजस्वादि विशेषरूप से सूत्रकार ने द्रव्यों का प्रतिपादन किया है । ( प्र० ) नौ प्रकार के द्रव्यों का लक्षण कह देने भर से सामर्थ्यवश यह ज्ञात हो ही जाएगा कि नौ से अधिक द्रव्य नहीं हैं, अतः (अवधारणार्थक) ‘नवैव’ शब्द का प्रयोग व्यर्थ है। ( उ० ) उक्त प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि नौ द्रव्यों का केवल लक्षण कह देने भर से यह सन्देह रह ही जाता है – “नौ द्रव्यों का ही लक्षण इस लिए किया गया है कि नौ से अधिक द्रव्यों की सत्ता ही नहीं है १” या “नौ से अधिक भी द्रव्य हैं, किन्तु प्रकृत में उनका कोई उपयोग नहीं है। अतः केवल नौ ही ( उपयोगी) द्रव्य के लक्षण कहे गये हैं।” लक्ष्य का व्यवहार ही लक्षण का मुख्य प्रयोजन है। अतः लक्षणवाक्य केवल ( व्यवहार के लिए) अपने लक्ष्यों को उनके सजातीय और विजातीय वस्तुओं के भिन्न रूप में केवल समझा सकते हैं। उनमें (अवधारणादि ) किसी और अर्थ को समझाने की क्षमता नहीं है। अतः (अवधारणार्थक ) ‘एव’ शब्दघटित ‘नवैव’ शब्द का प्रयोग ( भाष्य ) में है । सामान्य नामों से कहे हुए पदार्थों का विशेष नामों से यह कथन हो और शास्त्रों में ‘विभाग’ और ‘निर्देश’ शब्द से कहा गया है। यह कैसे समझा गया है कि नौ से अधिक द्रव्य नहीं है ? इसी प्रश्न का सभाधान ‘तद्व्यतिरेकेणान्यस्य” इत्यादि सन्दर्भ से कहते हैं। अभिप्राय यह है कि सभी पदार्थों का उपदेश करने के लिये प्रवृत्त सर्वज्ञ महर्षि (कणाद) ने इन नौ द्रव्यों से भिन्न किसी का भी उल्लेख द्रव्य नाम से नहीं किया है।

( प्र०) रूप, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, संयोग और विभाग, के पहिले भी ‘के गुणाः’ इत्यादि प्रश्न वाक्यों का ऊह करना चाहिए। अन्यथा उत्तररूप

सभी विभागवावय विना आकाङ्क्षा के ही कहे जाने के कारण उपेक्ष्य हो जायेंगे । १. अभिप्राय यह है कि द्रव्य का सामान्यलक्षण गुण ही है। अन्धकार में कथित रूपादि आठ गुणों की उपलब्धि सार्वजनीन है। अतः यह द्रव्य अवश्य है, किन्तु कथित पृथिम्यादि नौ

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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

न्यायकन्दली

[ उद्देश

चारात् स्पर्शवद्रव्यस्य महतः प्रतिघातधर्म्मत्वात् तमसि सञ्चरतः प्रतिबन्धः स्यात्, महान्धकारे च भूगोलकस्येव तदवयवभूतानि खण्डावयविद्रव्याणि प्रतीये रन्निति । तदयुक्तम्, यथा प्रदीपान्निर्गतैरवयवंरदृष्टवशादनुभूतस्पर्शमनिबिडाव यवमप्रतीयमानखण्डावयविद्रव्यप्रविभाग मप्रतिघातिप्रभामण्डलमारभ्यते, तम: परमाणुभिरपि तमो द्रव्यम् । तस्मादन्यथा समाधीयते । तथा तमः परमाणवः स्पर्शवन्तस्तद्रहिता वा ? न तावत् स्पर्शवन्तः, स्पर्शवतस्तत्कार्य्यस्य क्वचिदनुपल म्भात् । अदृष्टव्यापाराभावात् स्पर्शवद्रव्यानारम्भका इति चेत् ? रूपवन्तो वायु इन आठ गुणों से युक्त एवं इन नौद्रव्यों से भिन्न ‘तम’ (अन्धकार ) नाम का द्रव्य है ? इस प्रश्न का समाधान (१) कोई यह देते हैं कि यह निश्चित है कि जहाँ रूप रहे वहां स्पर्श भी अवश्य रहे । एवं स्पर्शवाले महान् द्रव्य का यह स्वभाव है कि वह प्रतिघात करें। अगर अन्धकार (रूपयुक्त ) द्रव्य (फिर स्पर्शयुक्त भी अवश्य ही है), तो उसका प्रतिघातघमक होना भी अनिवार्य है । अगर ऐसी बात है तो) अन्धकार में चलते हुए मनुष्य उससे टकरा कर अवश्य ही रुक जाते । (तस्मात् अन्धकार कोई द्रव्य नहीं है। अतः नवैव द्रव्याणि’ यह अवधारण ठीक है) । (२) कोई (यह दूसरा समाधान करते हैं कि जैसे किसी महाभूखण्ड की प्रतीति होने पर उसके अवयवों की भी प्रतीति अवश्य होती है। (वैसे हो) अन्धकार अगर कोई महान् द्रव्य होता तो ( उसकी प्रतीति की तरह ) उसके अवयतों को भी प्रतीति अवश्य होती। (किन्तु अन्धकार के अवयवों की प्रतांति नहीं होती है), अतः अन्धकार कोई द्रव्य नहीं है और इसीलिए वह महान् भी नहीं है। किन्तु ये दोनों ही समाधान असङ्गत है, क्योंकि जैसे प्रदीप से निकले हुए तेज के अवयवों से अदृष्टवश अनुद्भूत स्र्श से युक्त अनिविड़ (पतले) प्रभामण्डलरूप प्रकाश नाम के द्रव्य की उत्पत्ति होती है। एवं इस महान द्रव्य के अवयवों की उपलब्धि नहीं होती है और उस (आलोक ) में चलते हुए मनुष्य की गति रुकती भी नहीं है। इसी प्रकार अन्धकार के परमाणुओं से अन्धकार की उत्पत्ति होगी। इसमें अन्धकार के अवयवों की अनुपलब्धि और उससे मनुष्यों कान टकराना, ये दोनों बाधक नहीं हो सकते) अतः इसका दूसरी रीति से समाधान करना चाहिए। ( समाधान के लिए यह पूछना है कि) (प्र०) अन्धकार के परमाणुओं में स्पर्श है या नहीं ? ( उ०) नहीं है, क्योंकि उनके किसी भी कार्य में स्पर्श की उपलब्धि नहीं होती। (प्र०) अन्धकार के परमाणुओं में स्पर्श है, किन्तु उससे स्थूल अन्धकार में अदृष्टरूप कारण के अभाव से स्पर्श की उत्पत्ति नहीं होती। अतः अन्ध कार के परमाणु स्वयं स्पर्शयुक्त होते हुए भी स्पर्शयुक्त स्थूल अन्धकार को उत्पन्न नहीं करते। द्रव्यों में से वह किसी में भी अन्तर्भूत नहीं है। क्योंकि गन्ध की उपलब्धि न होने से वह पृथिवी नहीं है। स्पर्श की प्रतीति न होने के कारण वह जल, तेज और वायु भी नहीं है। उसमें रूप का प्रत्यक्ष होता है, अतः वह आकाश, काल, दिग्, आत्मा और मन भी नहीं है। इस प्रकार कथित नौ द्रव्यों में उसका अन्तर्भाव नहीं है। गुण प्रतीति के कारण द्रव्य अवश्य ही हैं। तस्मात् ‘तम’ कोई दशवां स्वतन्त्र द्रव्य ही है। किन्तु तब “नवैव द्रव्याणि” यह अवधारण असङ्गत हो जाता है।

प्रकरणम् ]

भावानुवादसहितम्

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न्यायकन्दली

परमाणवोऽदृष्टव्यापार वैगुण्याद्रपवत्कार्यं नारभन्त इति किं न कल्प्येत । किं वा न कल्पितमेतदेकजातीयादेव परमाणोरदृष्टोपग्रहाच्चतुर्धा कार्याणि जायन्त इति । काय्यँकसमधिगम्या: परमाणवो यथाकार्य्यमुनीयन्ते, न तद्विलक्षणाः, प्रमाणा भावादिति चेत् ? एवं तहि तामसाः परमाणवोऽप्यस्पर्शवन्तः कथं तमोद्रव्यमारभेरन् ? अस्पर्शवत्वस्य कार्य्यद्रव्यानारम्भकत्वेनाव्यभिचारोपलम्भात् । का दर्शनात् तदनुगुणं कारणं कल्प्यते, न तु कारणवैगुण्येन दृष्टकार्य्य विपर्य्यासो युज्यत इति चेत्, न वयमन्धकारस्य प्रत्यथन:, किन्त्वारम्भकानुपपत्तेर्नीलिममात्रप्रतीतेश्च द्रव्यमिदं न भवतीति ब्रूमः । तहि भासामभाव एवायं प्रतीयेत ? न, तस्य नीलाकारेण

(किन्तु स्पर्शशून्य स्थूल अन्धकार को ही उत्पन्न करते हैं) । (उ०) अगर ऐसी बात है तो फिर “वायु के परमाणुओं में रूप है, किन्तु अनुकूल अदृष्ट के न रहने से स्थूल वायु में रूप की उत्पत्ति नहीं होती है” ऐसी कल्पना भी क्यों नहीं कर लेते ? अथवा यही कल्पना क्यों नहीं करते कि किसी एकजातीय परमाणुओं से ही पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये तारों उत्पन्न होते हैं और अदृष्ट की विचित्रता से इनमें परस्पर वैचित्र्य है। ( प्र ० ) परमाणु प्रत्यक्ष सिद्ध वस्तु नहीं हैं, किन्तु पृथिव्यादि स्थूल कार्यों से ही उनका अनुमान होता है । स्थूल पृथिवी-जलादि द्रव्य परस्पर भिन्नरूपों से प्रत्यक्ष होते हैं, अतः उनके मूल कारण परमाणुओं को भी परस्पर विलक्षण मानना पड़ेगा। क्योंकि कार्य से समान जातीय कारण का अनुमान होता है । ( उ०) फिर स्पर्शशून्य रूप से प्रत्यक्ष होनेवाले अन्धकार के परमाणुओं में स्पर्श की कल्पना कैसी ? तस्मात् (स्पर्शशून्य) अन्धकार का परमाणु स्थूल अन्धकार को उत्पन्न कर ही नहीं सकता। क्योंकि यह अव्यभिचरित नियम है कि स्पर्शविशिष्ट द्रव्य ही द्रव्य का उत्पादक होता है। (प्र०) कार्य जिस रूप में देखे जाते हैं उनके अनुरूप कारणों की कल्पना की जाता है। यह तो नहीं होता कि एक विशेष प्रकार के कारण की कल्पना कर ली जाए और उसके अनुरोध से कायों को प्रत्यक्षसिद्ध अपने रूपों से भिन्न रूपों से माना ए । ( उ०) हम अन्धकार के विरोधी नहीं हैं। (अर्थात् प्रत्यक्षसिद्ध अन्धकार की सत्ता तो हम मानते हैं ) किन्तु मेरा कहना है कि दृष्ट अन्धकार में स्पर्श की उपलब्धि नहीं होती। एवं कार्य और कारण दोनों को समान गुण का ही होना उचित है। अतः अन्धकार के मूल कारण परमाणु में स्पर्श नहीं है। ‘एवं स्पर्शयुक्त द्रव्य ही द्रव्य का उत्पादक है’ इस नियम में कहीं व्यभिचार भी नहीं है। तस्मात् प्रत्यक्ष से सिद्ध अन्धकार ‘द्रव्य’ नहीं है। किन्तु अन्धकार को द्रव्य मानना सम्भव न होने पर भी उसको केवल तेज का अभाव ही मान लें यह पक्ष भी ठीक नहीं है। क्योंकि नील रूप से ही अन्ध

१. अभिप्राय यह है कि अन्धकार के प्रत्यक्ष में नीलरूप का भान होता है, स्पर्श का नहीं । अतः यह मानना पड़ेगा कि दृष्ट अन्धकार के मूलकारण

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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपाद भाष्यम्

[उद्देश

न्यायकन्दली

प्रतिभासायोगात्, मध्यन्दिनेऽपि दूरगगना भोगव्यापिनो नीलिम्नश्च प्रतीते किश्व गृह्यमाणे प्रतियोगिनि संयुक्तविशेषणतया तदन्यप्रतिषेधमुखेनाभावो गृह्यते, न स्वतन्त्रः । तमसि च गृह्यमाणे नान्यस्य ग्रहणमस्ति । न च प्रतिषेधमुख: प्रत्ययः । तस्मानाभावोऽयम् । न चालोका दर्शनमात्र मेवैतत् बहिर्मुखतया तम इति, छायेति च कृष्णाकार प्रतिभासनात् । तस्माद्रूपविशेषोऽयमत्यन्तं तेजो भावे सति सर्व्वतः समारोपितस्तम इति प्रतीयते। दिवा चोर्ध्वं नयन गोलकस्य नीलिमावभास इति वक्ष्याम: यदा तु नियतदेशाधिकरणो भासामभावस्तवा तद्देशसमारोपिते नीलिम्नि छायेत्यवगमः । अत एव दीर्घा, ह्रस्वा, महती, अल्पीयसी

कार का प्रत्यक्ष होता है। (अभाव में किसी भी रूप की मुख्य प्रतीति नहीं हो सकती ) । एवं दिन में दोपहर को ( सूर्य का पूर्ण प्रकाश रहते हुए भी ) गगनमण्डलभ्यापी नीलिमा की प्रतीति होती है। धर्मों की प्रतीति होने पर ( उस समय या किसी भी समय न रहनेवाले ) उससे भिन्न वस्तु को ‘स्वसंयुक्तविशेषणता’ नाम के सम्बन्ध से प्रतिषेधरूप से प्रतीति ही अभाव-प्रतीति है। किन्तु अन्धकार ज्ञान के उत्पन्न होने पर प्रतियोगिरूप से किसी अन्य वस्तु का ज्ञान नहीं होता तस्मात् अन्धकार तेज का अभाव ही है। (प्र०) ‘तेज’ क न देखना ही अन्धकार को प्रतीति है ? (उ० ) नहीं, बाहर की तरफ “यह अन्धकार है, यह छाया है” इत्यादि नीलाकार की प्रतीतियाँ होती हैं, (तस्मात् तेज की अप्रतीति ही ‘तम’ नहीं है। ), अतः ( अन्धकार नाम की ) यह वस्तु ‘रूप’ विशेष है, जो तेज का अत्यन्ताभाव रहने पर सभी ओर ‘समारोपित’ होकर ‘तम’ कहलाती है। दिन में भी ऊपर की तरफ (आकाशमण्डल में ) जो नीलिमा की प्रतीति होती है, वह नयनगोलक की हो नीलिमा है, यह हम आगे कहेंगे। जब जिस नियत देशरूप अधिकरण में तेज का अत्यन्ताभाव रहता है, उस देश में आरोपित नीलरूपाभिन्न तम ‘छाया’ कहलाती है। अत एव “यह छाया बड़ी है या छोटी है, यहाँ अधिक छाया है वहाँ कम” इत्यादि प्रतीतियाँ होती हैं। क्योंकि उन देशों में आरोपित नीलिमा की प्रतीति ही

परमाणुओं में रूप है, स्पर्श नहीं है। पृथ्व्यिादि द्रव्यों में रूप और स्पर्श को नियमित रूप के साथ देखना, या स्पर्शयुक्त द्रव्य हो द्रव्य को उत्पन्न करते हैं, यह नियम स्पर्श से शून्य अन्धकार के परमाणुओं में द्रव्यारम्भकत्थ का बाधक नहीं हो सकता।

१. अभिप्राय यह है कि चक्षु के संयोग से जब भूतल का ज्ञान होता है और घट नहीं दिखाई देता, तभी भूतल में “यहाँ घट नहीं है” इस आकार की प्रतीति होती है। फलतः निषिद्ध रूप से घट को यह प्रतीति हो ‘घटाभाव’ प्रतीति है। उससे भिन्न स्वतन्त्र घटाभाव की कोई प्रतीति नहीं है। प्रत्यक्ष इन्द्रियसम्बन्धमूलक होता है। प्रकृत में वह सम्बन्ध ‘स्वसंयुक्त विशेषणता’ नाम का है। ‘स्व’ शब्द से चक्षु, तत्संयुक्त भूतल, वहाँ विशेषण है – निषेध विशिष्ट घट ।

प्रकरणम् ]

भावानुवादसहितम्

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न्यायकन्दली

छायेत्यभिमानः, तद्देशव्यापिनो नीलिम्नः प्रतीतेः, अभावपक्षे च भावधर्म्मा ध्यारोपोऽपि दुरुपपाद: । तदुक्तम् न च भासामभावस्य तमस्त्वं वृद्धसम्मतम् ।

छायायाः कार्ण्य मित्येवं पुराणे भूगुणश्रुतेः ॥ द्वरासन्न प्रदेशादि महदल्प-चलाचला देहानुवत्तिनी छाया न वस्तुत्वाद्विना भवेत् ॥ इति ।

दुरुपपादश्च क्वचिच्छायायां कृष्णसर्पभ्रमः, चलतिप्रत्ययोऽपि गच्छत्यावरक द्रव्ये यत्र यत्र तेजसोऽभावस्तत्र तत्र रूपोपलब्धिकृतः एवं परत्वादयोऽप्यन्यथा सिद्धाः | तत्र चालोकाभावव्यञ्जनीयरूपविशेषे तमस्यालोकानपेक्षस्यैव

तो अन्धकार की प्रतीति है ? तम को अभाव रूप मान लेने से तो नील ‘रूप’ का आरोप कठिन होगा, क्योंकि ‘रूप’ भाव का धर्म है ( उसका आरोप भी अभाव में नहीं हो सकता।) जैसा कहा है कि – (१) तेज के अभाव में अन्धकार का व्यवहार वृद्धों से अनुमोदित

नहीं है, क्योंकि पुराणों में कहा गया है कि छाया में पृथ्वी का कृष्ण वर्ण वर्तमान है ।

(२) छाया को भावस्वरूप माने बिना छाया देह के साथ चलती है, छाया अभी

बहुत दूर है, अब समीप आई, यह छाया बहुत बड़ी है, या यह बहुत छोटी है, यह अब चल

रही है और वह अब खड़ी हो गयी, इन प्रतीतियों की उपपत्ति नहीं हो सकती।

छाया में काले साँप का भ्रम तो बिलकुल ही असम्भव होगा । ( प्र० ) अन्धकार को रूपविशेष मान लेने पर भी “अन्धकार चलता है”, अन्धकार में गमन की यह प्रतीति अनुपपन्न ही रहेगी। ( उ०) इसमें कोई अनुपपत्ति नहीं है। क्योंकि गमन को उक्त प्रतीति आलोक को ढंकनेवाले द्रव्य के चलने से जहाँ जहाँ तेज का अभाव हो जाता है, उन सभी जगहों में आरोपित रूप की उपलब्धि ही है । इसी प्रकार अन्धकार में प्रतीत होनेवाले परस्वादि गुणों की प्रतीति की उपपत्ति भी दूसरे प्रकार से की जा सकती है। (प्र०) रूपों का प्रत्यक्ष आलोक में ही चक्षु से होता है, अन्धकार की प्रतीति आलोक के न रहने से ही चक्षु से होती है, अतः अन्धकार ‘नीलरूप’ नहीं है । ( उ०) यह आपत्ति भी व्यर्थ है, क्योंकि वस्तुओं के स्वभाव के अनुसार ही कार्यकारणभाव की कल्पना की जाती है। अगर आलोक के न रहने से ही अन्धकार का प्रत्यक्ष चक्षु से होता है तो फिर और रूपों के प्रत्यक्ष में आलोकसहकृत चक्षु को (ही) कारण मानते हुए भी अन्धकारस्वरूप रूप के प्रत्यक्ष में आलोक से निरपेक्ष चक्षु को ही कारण मानना पड़ेगा। जैसे कि आप घटाभावादि के प्रत्यक्ष में आलोकसहकृत चक्षु को कारण

१. जैसे को चलते हुए मनुष्यादि के शरीर से या स्थावर वृक्षादि से मूतल के जो अंश सौर तेज को संयोग से बच जाते हैं, उनमें ही ‘छाया’ की प्रतीति होती है। एवं शरीरादि आवरक द्रव्यों का परिमाण जितना होता है, उतने ही परिमाण के अनुसार वे देशों को आवृत करते हैं। तदनुसार ही अन्धकाररूप छाया की प्रतीतियाँ होती हैं।

२६

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपाद भाष्यम्

[ उद्देश

प्रशस्तपादभाष्यम्

गुणाइच रूपरसगन्ध स्पर्श संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभाग परत्वापरत्व बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेष प्रयत्नाश्चेति कण्ठोक्ताः

स्वयं सूत्रकार के द्वारा कथित ये सत्रह गुण हैं

सप्तदश ।

( १ ) रूप, ( २ ) रस, ( ३ गन्ध, ( ४ ) स्पर्श ( ५ ) संख्या, ( ६ ) परिमाण, ( ७ ) पृथक्त्व ( ८ ) संयोग, ( ६ ) विभाग, ( १० ) परत्व ( ११ ) अपरत्व, ( १२ ) बुद्धि, ( १३ ) सुख, ( १४ ) दुःख ( १५ ) इच्छा, ( १६ ) द्वेष और ( १७ ) प्रयत्न |

न्यायकन्दली

चक्षुष: सामर्थ्यम्, तद्भावभावित्वात् यथालोकाभाव एव त्वन्मते । नन्वेवं तहि सूत्रविरोध: “द्रव्यगुणकर्म्मनिष्पत्तिर्वधर्म्याद्भाभावस्तमः” इति ? न विरोधः,

भाइभावे सति तमसः प्रतीतेर्भाभावस्तम इत्युक्तम् । ईश्वरोऽपि बुद्धिगुणत्वादात्मैव, न तु षड्गुणाधिकरणश्चतुर्द्दशगुणाधि करणाद् गुणभेदेन भिद्यते, मुक्तात्मभिर्व्यभिचारात् ।

कण्ठोक्ता सूत्रकारेण कथिता रूपरसेत्यादिना । मानते हुए भी तेज के अभावरूप अन्धकार के प्रत्यक्ष में आलोक से निरपेक्ष चक्षु को ही कारण मानते हैं । ( प्र०) अन्धकार को अगर तेज का अभाव न मानें तो सूत्र का विरोध होगा, क्योंकि उसमें कहा है कि द्रव्य, गुण और कम इन तीनों के उत्पत्तिकम से अन्धकार की उत्पत्ति का क्रम भिन्न है, अतः भा’ अर्थात् तेज का अभाव ही ‘तम’ है । ( उ०) तेज का अभाव होने पर ही अन्धकार की प्रतीति होती है अतः सूत्रकार ने ‘भाभावस्तमः’ ऐसा औपचारिक प्रयोग किया है ।

गुणा

रूपादयः

ईश्वर भी बुद्धियुक्त होने के कारण आत्मा ही है। बुद्धि प्रभृति छः गुणों से युक्त परमात्मा चौदह गुणों से युक्त जीवाश्मा से गुणभेद के कारण भिन्नजातीय द्रव्य नहीं हैं, क्योंकि ऐसा (नियम) मानने पर मुक्त जीव में व्यभिचार होगा ।

‘गुणा:’ अर्थात् रूपादि गुण ‘कण्ठोक्ताः’ अर्थात् सूत्रकार महर्षि कणाद के द्वारा “रूप रसगन्धस्पर्शा: संख्याः, परिमाणानि, पृथक्त्वम्, संयोगविभागों परत्वापरत्वे, बुद्धयः, सुख

१. ‘आयुर्व घृतम्,’ ‘लाङ्गलम्’ ‘जोवनम्, इत्यादि प्रयोग जैसे कारण और कार्य को एक समझकर लक्षणा के द्वारा होते हैं, वैसे ही प्रकृत में भी तेज के प्रभाव की प्रतीति के कारण में अन्धकार के अभेद का आरोप कर अन्धकार पद की ‘भाभाव’ में लक्षणा के द्वारा सूत्रकार ने ‘भाभाव’ अर्थात् तेज के अभाव को ‘तम’ कहा है।

२. अभिप्राय यह है कि पहिले “नवँव द्रव्याणि” ऐसा अवधारणात्मक प्रयोग है। किन्तु जीव और ईश्वर के परस्पर भिन्न द्रव्य होने के कारण द्रव्य दश हो

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

२७

प्रशस्तपादभाष्यम्

चशब्दसमुच्चिताश्च

सप्तैवेत्येवं चतुर्विशतिर्गुणाः ।

गुरुत्वद्रवत्वस्नेहसंस्कारादृष्टशब्दाः

एवं ( १ ) गुरुत्व, ( २ ) द्रवत्व, (३) स्नेह, (४) संस्कार, अदृष्ट (अर्थात् (५) धर्म, (६) अधर्म्म) और (७) शब्द, ये सात गुण सूत्रस्थ ‘च’ शब्द से संग्राह्य हैं। इस प्रकार मिलाकर गुण चौबीस प्रकार के हैं ।

न्यायकन्दली

‘च’ शब्देनात्रानुक्ता गुणत्वेन लोके प्रसिद्धा गुरुत्वादयः सप्त समुच्चिताः । एवं चतुर्विंशतिरेव गुणाः । ये तु शौय्यौ दार्थ्यकारुण्यदाक्षिण्यौग्र्यादयः, तेऽत्रैवान्त र्भवन्ति । शौयों बलवतोऽपि परस्य पराजयाय प्रत्युत्साहः स च प्रयत्नविशेष एव सततं सन्मार्गवर्तिनी बुद्धिरौदार्य्यम् । परदुःखप्रहाणेच्छा कारुण्यम् ।

दुःखे, इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणा: ” ( १ | १ | ६) इस सूत्र की रचना के द्वारा रूपादि सत्रह गुण ही ‘रूपादि’ शब्दों के द्वारा स्पष्ट रूप से कहे गये हैं। जो गुण इस सूत्र के द्वारा साक्षात् नहीं कहे गये हैं और लोक से गुणत्व के नाम से व्यवहृत हैं, वे सूत्र के ‘च’ शब्द से सूचित किये गये हैं। इस प्रकार कण्ठोक्त १७ और ‘च’ शब्द से समुचित्रत सात, दोनों को मिलाकर गुण चौबीस ही हैं। शौर्य औदार्य कारुण्य, दाक्षिण्य औग्य प्रभृति जितने भी गुणशब्द से को नाश लोक में व्यवहृत हैं, वे सभी इन्हीं गुणों में अन्तर्भूत हो जाते हैं। अपने से अधिक बलशाली शत्रु को पराजित करने के उत्साह को ‘शौर्य’ कहते हैं, जो वस्तुतः प्रयत्न विशेष ही है । बराबर सन्मार्ग में रहनेवाली ‘बुद्धि’ हो औदाय्यं कही जाती है। दूसरों के दुःख जाते हैं। आत्मत्वरूप से जीव और ईश्वर को एक द्रव्य नहीं मान सकते, क्योंकि जीव में चौदह गुण हैं एवं ईश्वर में केवल छः । तस्मात् द्रव्यविभागवाक्य का ‘आत्मा’ शब्द जीव या ईश्वर किसी एक का ही बोधक हो सकता है। जिससे कि उक्त अवधारण का प्रयोग असङ्गत हो जाता है । इसी आक्षेप का समाधान “ईश्वरेऽपि” इत्यादि सन्दर्भ से देते हैं। समाधान ग्रन्थ का अभिप्राय है कि चौदह गुण जीव के लक्षण नहीं हैं, क्योंकि इतने गुण मुक्त आत्माओं में नहीं रहते। आत्मा के सभी विशेष गुणों का अत्यन्त विनाश हो मुक्ति है । तस्मात् मुक्त जीवों में संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व और अपरत्व ये सात सामान्य गुण हो रहेंगे, क्योंकि मुक्ति के समय बुद्धि सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न और भावनाख्य संस्कार जीव के ये सात विशेष गुण नष्ट हो जाते हैं। अतः द्रव्यविभागवाक्य का ‘आत्मा’ शब्द चौदह गुणों से युक्त केवल जीव का ही बोधक नहीं है। किन्तु आत्मत्वजाति से युक्त द्रव्य का बोधक है । यह जाति बुद्धि से युक्त जीव और ईश्वर दोनों में है, क्योंकि आत्मत्वरूप से दोनों अभिन्न हैं। अत: “नवैव द्रव्याणि” यह अवधारण ठीक है।7

२८

न्यायकन्दली संबलित प्रशस्तपादभाष्यम्

[ उद्देश

प्रशस्तपादभाष्यम्

उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणगमनानि पञ्चैव कर्माणि | गमनग्रहणाद् भ्रमणरेचनस्यन्दनोवज्व नतिर्थक पतननमनोन्नमनादयो गमनविशेषा न जात्यन्तराणि ।

( १ ) उत्क्षेपण, ( २ ) अपक्षेपण ( ३ ) आकुञ्चन, प्रसारण और ( ५ ) गमन ये पाँच ही कर्म्म हैं। गमन पद से यह कहना है कि भ्रमण, रेचन, स्यन्दन, ऊर्ध्वज्वलन, तिर्य्यपतन, नमन और उन्नमन प्रभृति कर्म्म भी गमनविशेष ही हैं, दूसरी जाति के नहीं।

न्यायकन्दली

तत्त्वाभिनिवेशिनी बुद्धिर्दाक्षिण्यम् । औश्रयमात्मन्युत्कर्षाप्रत्यय इत्येवमादिः । अदृष्टशब्देन धर्म्माधर्म्मयोरुपसङ्ग्रहः । संस्कार इति । स च वेगस्य भावनाया: स्थितिस्थापकस्य चाभिधानम् | नन्वेवं तर्हाधिक्यम् ? न, संस्कारत्वजात्यपेक्षया वेगभावनास्थितिस्थापकानामेकत्वात् । एवं र्ताहि न चतुर्विंशतित्वम् ? अवृष्टत्वजात्यपेक्षया धर्म्माधर्म्मयोरेकत्वात् । न, अबृष्टत्वजात्यभावात् । निर्गु णेष्वपि गुणेष्वसाधारणधर्म्मयोगित्वेनोपचाराच्चतुर्विंशतिरिति व्यवहारः ।

कर्म्माणि विभजते- उत्क्षेपणोति । कियन्ति तानि ? तत्राह पञ्चैवेति । मनु भ्रमणादयोऽपि सन्ति ? कथं पञ्चैवेत्यवधारणमत आह-गमनग्रहणादिति ।

करने की ‘इच्छा’ ही कारुण्य है। यथार्थं वस्तु को ग्रहण करनेवाली ‘बुद्धि’ ही दाक्षिण्य है। अपने में उत्कर्ष की बुद्धि ही ओग्य है। ‘अदृष्ट’ शब्द से धर्म और अधर्म- दोनों अभिप्रेत है। ‘संस्कार’ शब्द से वेग, भावना और स्थितिस्थापक तीनों संग्राह्य हैं । ( प्र ० ) इस प्रकार गुण तो चौबीस से अधिक हो जायेंगे ? (उ) नहीं, संस्कारत्व जाति है और इस रूप से वेगादि तीनों संस्कार एक ही हैं। (प्र०) इस प्रकार भी गुण चौबीस ही नहीं होंगे, क्योंकि ( वेगादि की तरह) अष्टत्वजाति रूप से धर्म और अधर्म्म ये दोनों भी एक हो जाएँगे ? (उ०) नहीं, क्योंकि अदृष्टत्व नाम की कोई जाति नहीं है। गुणों में गुण के न रहने पर भी ‘गुण चौबीस हैं’ यह गौण व्यवहार होता है। जैसे कि पृथिवीत्वादि नौ धर्मों के सम्बन्ध से “द्रव्य पृथिव्यादि भेद से नो है” यह व्यवहार होता है, उसी प्रकार रूपादिगत असाधारण धर्मस्वरूप रूपत्वादि चौबीस धम्मों के सम्बन्ध से रूपादि गुणों में चौबीस संख्या का गोण व्यवहार होता है। (इससे रूपादि गुणों में संख्या गुण की सत्ता की सम्भावना नहीं है।)

“उत्क्षेपण” इत्यादि से कम पदार्थ का विभाग किया गया है। वे कितने हैं । इस प्रश्न का उत्तर है ‘पञ्चैव’, अर्थात् कर्म्म पाँच ही हैं । (प्र०) भ्रमणादि और

प्रकरणम् ]

●भावानुवादसहितम्

२१

प्रशस्तपादभाष्यम्

सामान्यं द्विविधं परमपरञ्चानुवृत्तिप्रत्ययकारणम् । तत्र महाविषयत्वात् । सा चानुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव । परं सत्ता,

( १ ) पर और ( २ ) अपर भेद से सामान्य दो प्रकार का है। वे ‘अनुवृत्तिप्रत्यय’ अर्थात् विभिन्न वस्तुओं में एक आकार की प्रतीति के कारण हैं। उनमें ‘सत्ता’ पर सामान्य ही है, क्योंकि वह ‘महाविषय’ अर्थात् और सभी सामान्यों से अधिक आश्रयों में विद्यमान है। सत्ता केवल सामान्य हो है ( विशेष नहीं), क्योंकि वह केवल अनुवृत्तिप्रत्यय का ही कारण है, अर्थात् परस्पर भिन्न अपने न्यायकन्दली

गमनग्रहणात् पञ्चैव कर्माणि । अत्रोपपत्तिमाह – भ्रमणरेचनस्यन्दनेत्यादि । यस्माद् भ्रमणादयोऽपि गमनविशेषा गमनप्रभेदा न जात्यन्तराणि, तस्माद् गमन ग्रहणेनैतेषामपि ग्रहह्णात् पञ्चैवेत्यवधारणं सिद्ध्यतीत्यर्थः ।

सामान्यं कथयति- सामान्यं द्विविधमिति । वैविध्यमेव कथयति परम परं चेति । चोऽवधारणे, परमपरमेवेत्यर्थः । तस्य रूपं कथयति —-अनुवृत्ति प्रत्ययकारणमिति । अत्यन्तव्यावृत्तानां पिण्डानां यतः कारणादन्योन्य स्वरूपानुगम: प्रतीयते तत्सामान्यम्। किं तत्परं सामान्यमित्याह- परं सत्तेति । भी तो कर्म हैं ? किर ‘कर्म्म पाँच ही हैं यह अवधारण असङ्गत है। इसी प्रश्न का समाधान ‘गमनग्रहणात्’ इत्यादि से करते हैं । अर्थात् चूंकि गमनरूप कर्म्म का ग्रहण किया गया है, इसलिए कर्म्म पाँच हो हैं। भ्रमणरेचन’ इत्यादि से इसी में युक्ति देते हैं। चूँकि भ्रमणादि गमनत्व जाति के ही हैं, दूसरी जाति के कम्मं नहीं हैं, अतः ‘गमन’ पद से भ्रमणादि कर्मों का भी संग्रह हो जाने से ‘कम्म पाँच ही हैं’ यह अवधारण ठीक है ।

“सामान्यं द्विविधम्” इत्यादि पङ्क्तियों से अब (अवसरप्राप्त ) सामान्य का निरूपण ‘परमपरच’ इस वाक्य से करते हैं । (१) पर और (२) अपर ये दो प्रकार सामान्य के कहे गये हैं। इस के ‘च’ शब्द से इस ‘अवधारण’ का बोध होता है कि सामान्य के पर और अपर भेद से दो ही प्रकार हैं। ‘अनुवृत्तिप्रत्ययकारणम्’ इत्यादि से सामान्य पदार्थ का लक्षण कहते हैं (अर्थात्) अत्यन्त विभिन्न दो वस्तुओं में जिस एक वस्तु के रहने से एक आकार की प्रतीति होती है, उसी को सामान्य’ कहते हैं। वह ‘पर’ सामान्य कौन सा

१. जैसे कि एक घट दूसरे घट से भिन्न है, फिर भी उन दोनों में ये घट है एक आकार की प्रतीति होती है और पट में यह प्रतीति नहीं होती । इसका कारण सभी घंटों में घटत्व नाम के सामान्य का रहना ही है। एवं घट और

३०

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ उद्देश

प्रशस्तपादभाष्यम्

द्रव्यत्वाद्यपरम्, अल्पविषयत्वात् । तच्च व्यावृत्तेरपि हेतुत्वात् सामान्यं सद्विशेष ख्यामपि लभते ।

आश्रयों में एकाकारप्रतीति को उत्पन्न करती है । किसी भी प्रकार की व्यावृत्तिबुद्धि अर्थात् अपने विभिन्न आश्रयों में परस्पर भेदबुद्धि को उत्पन्न नहीं करती । द्रव्यत्वादि सामान्य सत्ता की अपेक्षा थोड़े आश्रयों में रहने के कारण ‘अपर सामान्य’ हैं। ये द्रव्यत्वादि अनुवृत्तिप्रत्यय की तरह व्यावृत्तिप्रत्यय के भी कारण हैं, अत: वे सामान्य होते हुए ‘विशेष’ भी कहलाते हैं ।

न्यायकन्दली

अत्र युक्तिमाह – महाविषयत्वादिति । द्रव्यत्वाद्यपेक्षया बहुविषयत्वादित्यर्थः । सा चानुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव । द्रव्यत्वादिकं तु स्वाश्रयस्य विजाती येभ्योऽपि व्यावृत्तेरपि हेतुत्वाद्विशेषोऽपि भवति । सत्ता तु स्वाश्रयस्यानुवृत्तेरेव हेतुस्तेन सामान्यमेव । यद्यप्येषा सामान्यादिभ्यो व्यावर्त्तते तथापि न तेभ्यः

है ? इस प्रश्न का समाधान ‘परं सत्ता’ इस वाक्य से देते हैं। सत्ता ‘पर’ सामान्य ही क्यों है ? इसका हेतु ‘महाविषयत्वात्’ इस (पञ्चम्यन्त ) पद से दिखलाया है। अर्थात् ‘सत्ता’ जाति द्रव्यत्वादि और जातियों से अधिक आश्रयों में रहती है। यह ( सत्ता रूप सामान्य) केवल अनुवृत्ति बुद्धि ( अनेक वस्तुओं में एकाकारता की बुद्धि ) का ही कारण है, अतः वह केवल ‘सामान्य’ ही है (विशेष नहीं) । द्रव्यत्वादिरूप सामान्य (विभिन्न द्रव्यों में एकाकारता रूप अनुवृत्तिबुद्धि की तरह) अपने आश्रयीभूत द्रव्यादि में गुणादि से व्यावृत्तिबुद्धि, अर्थात् द्रव्य गुणादि से भिन्न हैं, इस प्रकार की विभिन्नाकारता प्रतीति का भी कारण हैं, अतः द्रव्यत्वादि जातियाँ विशेष’ भी हैं। सत्ता तो अपने आश्रयीभूत द्रव्य, गुण और कम्मं में “ये सत् हैं” इस प्रकार के अनुवृत्तिप्रत्यय का ही कारण है (किसी भी व्यावृत्तिबुद्धि का नहीं), अतः वह ‘सामान्य’ ही है। ( प्र०) यद्यपि यह कह सकते हैं कि सत्ता जाति सामान्यादि पदार्थों में नहीं है क्योंकि उनमें कोई भी सामान्य नहीं है), अतः ‘सत्ता जाति’ द्रव्य, गुण, और कभं, इन तीनों में ‘ये सत् हैं’ इस अनुवृत्तिबुद्धि की तरह ( सत्ताजातियुक्त) द्रव्यादि पदार्थ ( सत्ताशून्य) सामान्यादि पदार्थों से भिन्न हैं, इस व्यावृत्तिबुद्धि के भी कारण हैं। ( इस युक्ति से सत्ता भी द्रव्यत्वादि सामान्य की तरह ‘विशेष’ कहला सकती है) तथापि सामान्यादि पदार्थों में भी भावत्व अस्तित्वादि रूप सत्ता तो है ही, जिससे सामान्यादि पदार्थों में भी “ये सत् है” इस प्रकार की प्रतीति होती है। अतः सामान्यादि में जातिरूप सत्ता का सम्बन्ध न भी रहे, तथापि द्रव्यादि से सामान्यादि पदार्थों से भिन्नत्व प्रतीति का पट दोनों परस्पर भिन्न होते हुए भी दोनों में ‘ये द्रव्य है’। इस एक आकार की प्रतीति होती है। इसका भी कारण घट और पट में द्रव्यत्व नामक सामान्य का रहना ही है।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

३१

न्यायकन्दली

स्वाश्रयं व्यावर्त्तयितुं शक्नोति । तेषामपि स्वरूप सत्तासम्बुद्धिसंवेद्यत्वात् । बस्त्वपेक्षया चानुवृत्तिहेतुत्वं विवक्षितम् तेनाभावाद्वयावृत्तिहेतुत्वेऽपि न दोषः ।

यत्प्रमाणेन प्रतीयते तत्रास्ति व्यवहारो लोकानां विपर्य्यये तु नास्तीति । तेन प्रमाणगम्यैव सत्तेति केचित् । तदयुक्तम्, प्रमाणोत्पत्तेः प्राग् वस्तुनोऽसत्त्व प्रसङ्गादसतश्च खरविषाणस्येव ग्राह्यत्वाभावादन्योन्यसंश्रयापत्तेश्च सत: प्रमाणस्य ग्राहकत्वे सत्तायाः प्रमाणग्राह्यतालक्षणत्वे च ग्राहकस्य प्रमाणस्यापि ग्राहकान्तरानुसरणेनानवस्थापाताच्च ।

वह कारण नहीं हो सकती, (क्योंकि सत्ता के सम्बन्ध से जिस प्रकार द्रव्य, गुण और कम्म में ‘ये सत् हैं’ यह प्रतीति होती है, उसी प्रकार सामान्यादि भावपदार्थों से ‘भावत्व’ रूप सत्ता के बल से ये सत् हैं’ इस प्रकार की भी प्रतीति होती है। अतः द्रव्यादिधम्मक सत्त्व की प्रतीति में और सामान्यादिधम्मिक सत्त्व की प्रतीति में आकारगत कोई भेद नहीं है) । ( प्र० ) अभावों में किसी भी प्रकार की ‘सत्त्व’ बुद्धि (सत्ताजातिमूलक, या भावत्वमूलक ) नहीं होती है, अतः सत्ता जाति और किसी को न सही अपने आश्रयीभूत द्रव्यादि में अभाव भिन्नत्वरूप व्यावृत्ति के बोध को तो उत्पन्न कर ही सकती है। अतः सत्ता जाति भी द्रव्य वादि जातियों की तरह सामान्य और विशेष दोनों हो सकती हैं। ( उ०) नहीं, उक्त ‘अनुवृत्तिप्रत्यय’ शब्द का अर्थ है अनेक विभिन्न भावपदार्थों में एकाकारता की प्रतीति एवं ‘व्यावृत्तिबुद्धि’ शब्द का अर्थ है एक या अनेक भावों में दूसरे भावपदार्थ से भिन्नत्व को बुद्धि । इसी व्यावृत्तिबुद्धि का कारण है विशेष’ । विशेष का यह लक्षण सत्ता जाति में नहीं है । अतः द्रव्यादि में अभावभिन्नत्व बुद्धि की प्रयोजक होने पर भी सत्ता सामान्य ही है, ‘विशेष’ नहीं ।

( प्र ० ) कोई कहते हैं कि वस्तुत: ‘अस्तित्व’ ही ‘सत्ता’ है । प्रमाण के द्वारा ज्ञात अर्थ में ही अस्तित्व की प्रतीति होती है। जिस वस्तु की प्रतीति प्रमाण के द्वारा नहीं होती, उसमें अस्तित्व की बुद्धि भी नहीं होती है। अतः ‘प्रमाणगम्यत्व’ ( अर्थात् प्रमाण से ज्ञात होना) ही ‘सत्ता’ है । इस नाम की कोई अतिरिक्त जाति नहीं है । ( उ०) यह उक्ति असङ्गत है, क्योंकि इससे तो प्रमाण की प्रवृत्ति से पहले गदहे के सींग की तरह वस्तुओं को असत्ता माननी पड़ेगी। दूसरी बात यह है कि गदहे की सींग प्रभृति असत् वस्तुओं में प्रमाणों को प्रवृत्ति नहीं होती है। ‘सत्’ घटादि वस्तुओं में ही प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ) वस्तु ‘सत्’ तभी होगी, जब उसमें प्रमाण की प्रवृत्ति होगी। एवं. प्रमाणों की प्रवृत्ति सद्विषयों में ही होगी। अतः सत्त्व को प्रमाणगम्यत्वमूलक और प्रमाणों की प्रवृत्ति को सत्त्वमूलक मानना पड़ेगा, जिससे कि परस्पराश्रयत्व होगा। तीसरी बात है। कि ‘सत्’ प्रमाण ही वस्तुओं का ज्ञापक है, ‘असत्’ प्रमाण नहीं । एवं ‘सत्त्व’ को आपने

३२

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ उद्देश

न्यायकन्दली

अथ मतं न ब्रूमः प्रमाणसम्बन्धः सत्तेति, किन्तु प्रमाणसम्बन्धयोग्यं वस्तुस्वरूपमेव सत्ता । योऽपि सत्तासामान्यमिच्छति, तेनापि पदार्थस्वरूप. मभ्युपेयम्, निःस्वभावे शशविषाणादौ सत्ताया असमवायात् । एवं चेत् तदेवास्तु, कि सत्तयेति ।

अत्रोच्यते, प्रत्येकं पदार्थस्वरूपाणि भिन्नानि, कथं तेष्वेकाकारप्रतीति : ? एकशब्दप्रवृत्तिश्च ? अनन्तेषु सम्बन्धग्रहणाभावात् । अथ तेष्वेकं निमित्त मस्ति ? सिद्धं नः समीहितम् । यथा दृष्टैकगोपिण्डस्य पिण्डान्तरे पूर्व रूपानुकारिणी बुद्धिरुदेति, नैवं महीषरमुपलभ्य सर्वपमुपलभमानस्य पूर्वाकारा

प्रमाणगम्यत्वरूप माना है, अत: ग्राहकीभूत प्रमाणों में सत्त्वसम्पादन के लिए दूसरे प्रमाण का अलवम्बन करना पड़ेगा। इस पक्ष में अनवस्था दोष भी अनिवार्य होगा ।

( प्र ० ) प्रमाणों के सम्बन्ध को ही हम सत्ता नहीं कहते, किन्तु प्रमाणसम्बन्ध के योग्य वस्तु के ‘स्वरूप’ अर्थात् असाधारण धर्म को ही उस वस्तु की ‘सत्ता’ कहते हैं। जो कोई ‘सत्ता’ नाम की अतिरिक्त जाति मानने की इच्छा रखते हैं, वे भी वस्तुओं के असाधारण स्वभावरूप सत्त्व से शून्य खरगोश के सींग प्रभृति वस्तुओं में सत्ता जाति का समवाय नहीं मानते । नहीं है । अतः उस असाधारण धर्म को छोड़कर सत्ता नाम की कोई जाति हो

( उ० ) यह कहना भी कुछ ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य, गुण और कर्म्म इन तीनों के परस्पर भिन्न होते हुए भी तीनों में जो ‘ये सत् हैं’ इस एक आकार की प्रतीति होती है, वह अनुपपन्न हो जाएगी, चूंकि द्रव्यादि तीनों व्यक्तियों के ‘स्वरूप’ अर्थात् असा धारण धर्म्म भिन्न भिन्न है। यह सत्त्व अपने अपने आश्रय को छोड़कर किसी दूसरे में नहीं रह सकते। फिर द्रव्यादि तीनों में रहनेवाली किसी एक वस्तु से उक्त एक आकार की प्रतीति होगी, एवं द्रव्यादि तीनों को समझाने के लिए जिस एक ही ‘सत्’ शब्द की प्रवृत्ति होती है, वह भी अनुपपन्न हो जाएगी, क्योंकि व्यक्ति अनन्त हैं, उन सभी व्यक्तियों में शक्ति का ग्रहण ही असम्भव है। अगर उक्त अनुवृत्तिप्रत्यय के लिए अथवा शब्द के उक्त प्रयोग के लिए द्रव्यादि तीनों में रहनेव किसी एक कारण की कल्पना की जाय तो फिर इससे हमारा ही अभीष्ट सिद्ध होगा ( फलतः सत्ता जाति माननी ही पड़ेगी) । ( प्र०) जिस प्रकार एक गाय को देखने के बाद दूसरी गाय को देखने पर इस दूसरी गाय में भी ‘यह गाय है’ इस प्रकार की बुद्धि होती है, अतः सभी गायों में रहनेवाली एक गोत्व जाति की कल्पना करते हैं, उसी प्रकार से पर्वत को देखने के बाद सरसों को देखने पर दोनों में किसी एक आकार की बुद्धि नहीं होती, अतः इन दोनों में से किसी एक का धर्म दूसरे में नहीं है।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

३३

न्यायकन्दली

वभासोऽस्तीति कुतोऽत्र सामान्यकल्पनेति चेत् ? कि महीधरादिषु निखिल रूपानुगमो नास्ति ? उत मात्रयाऽपि न विद्यते ? यदि निखिलरूपानुगमा भावात् तेषु सामान्थप्रत्याख्यानम् ? तर्हि गोत्वमपि प्रत्याख्येयम्, तयोः शाब लेयबाहुलेययोः सर्वथा साधर्म्याभावात् । अथ मात्रयाऽपि स्वरूपानुगमो नास्ति ? तदसिद्धम्, सर्व्वेषामपि तेषामभावविलक्षणेन रूपेण तुल्यताप्रतिभासनात् । इयांस्तु विशेष:- गोपिण्डेषु झटिति तज्जातीयताबुद्धिः, भूयोऽवयवसामान्यानुगमात् । महीधरादिषु तु विलम्बिनी, स्तोकावयवसामान्यानुगमेन जातेरनुभूतत्वात्, यथा मणिकदर्शनाच्छरावे मृज्जातिबुद्धिः ।

एतेनार्थक्रियाकारित्वमपि सत्त्वं प्रत्युक्तम् असतोऽर्थक्रियाया अभा वात्, अर्थक्रियायाञ्च सत्यां तस्य सत्त्वात्, सत्त्वेनानवस्थाने सर्वस्यासत्त्वप्रसङ्गाच्च । अर्थक्रियायाश्चार्थक्रियापेक्षया

( उ०) (इस आक्षेप के समाधानार्थं यह पूछना है कि) (१) क्या पर्वतादि के सभी धर्म एक दूसरे में नहीं हैं ? (२) या पर्वतादि के कुछ धर्म्म एक दूसरे में नहीं है ? अगर पहिला पक्ष मानें तो फिर गायों में भी ” ये गायें हैं” इस प्रकार का अनुवृत्तिप्रत्यय नहीं होगा, क्योंकि प्रत्येक गाय में रहनेवाले शाबलेयत्वादि धर्म्य दूसरी गायों में नहीं हैं। अगर दूसरा पक्ष मानें तो हम कहेंगे कि यह असत्य है, क्योंकि अन्ततः भावभिन्नत्वरूप घर्म्म तो पर्वत और सरसों दोनों में अवश्य ही प्रतीत होता है । इतना अन्तर अवश्य है कि एक गाय को देखने के बाद दूसरी गाय को देखने पर सादृश्य की बुद्धि शीघ्र उत्पन्न होती है। क्योंकि दोनों गायों के अवयवों में बहुत से साध्य हैं। किन्तु पर्वत और सर्पप के अवयवों में उतने सादृश्य नहीं हैं। अतः पर्वत को देखने के बाद सर्पप में सादृश्य की बुद्धि देर से उत्पन्न होती है। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि पर्वत और सर्वप दोनों में रहनेवाली जाति परिस्फुट नहीं है । जैसे हड़िया को देखने के बाद पुरवे में मिट्टी में रहनेवाली पृथिवीत्व जाति की उप लब्ध होती है ।

कोई (बौद्ध) कहते हैं कि ‘अर्थक्रियाकारित्व’ ही ‘सत्त्व ‘ है। किन्तु ‘परस्पराश्रयत्व’ दोष से ग्रसित होने के कारण यह पक्ष भी असङ्गत ही है। शशविषाणादि असत् पदार्थों में सत्व इसलिए नहीं है कि उनमें अर्थक्रियाकारित्व नहीं है । और उनमें अर्थक्रियाकारित्व इसलिए नहीं है कि वे ‘सत्’ नहीं हैं। दूसरी बात है कि घटादि पदार्थों की सत्ता जिस अर्थक्रिया के अधीन है, उस अर्थक्रिया के सत्व की प्रयोजिका कोई दूसरी अर्थक्रिया नहीं है। अतः (घटादि वस्तुओं के सत्त्व की प्रयोजिका) अर्थक्रिया के असतू होने के कारण घटादि वस्तुओं की सत्ता ही उठ जाएगी । ५

३४

न्यायकन्दलीसं वलित प्रशस्त पादभाष्यम्

[ उद्देश

न्यायकन्दली

द्रव्यत्वाद्यपरम्, द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्म्मत्वञ्चापरम्, सत्तापेक्षयाल्प विषयत्वादित्यर्थः, तथा द्रव्यत्वाद्यपेक्षया पृथिवीत्वादिकमपरम्, तदपेक्षया घटत्वादिकमपरम्, गुणत्वाद्यपेक्षया रूपत्वादिकमपरम्, कर्म्मत्वाद्यपेक्षया चोत्क्षेप णत्वादिकं व्याख्येयम् ।

जलमुपलभ्य वह्निमुपलभमानस्य तदित्यनुगमाभावाद्

द्रव्यत्वं नास्तीति केचित् । तदसारम् द्वयोरपि तयोः स्वप्राधान्येन प्रतीतिसम्भवात् । स्वप्राधान्य प्रतीतिरेव द्रव्यत्वप्रतीतिः । उत्क्षेपणादिष्वपि चलनात्मकताप्रतीति रस्ति, सैव च कर्म्मत्वप्रतीतिः । रूपादिषु तु कृतसमयस्यानुवृत्तिप्रत्ययसम्भ वाद् गुणत्वस्याप्रत्याख्यानम् । व्यक्तिग्रहणमिव समयग्रहणमपि तस्य प्रतीति कारणम्, ब्राह्मणत्वस्येव योनिसम्बन्धज्ञानम् । तत्रापि विशुद्धब्राह्मणसन्ततिजस्यो त्पत्तिमात्रानुबद्धमपि ब्राह्मणत्वमिन्द्रियपातमात्रेण क्षत्रियादिविलक्षणतया न गृह्यते, अत्यन्तव्यक्तिसौसादृश्येनानुद्भूतत्वात् । यदा तु मातापित्रोस्तत्पूर्वेषाञ्च वृद्धपरम्परया विशुद्धब्राह्मणत्वमवसितम्, तदा ब्राह्मणोऽयमिति प्रत्यक्षेणैव प्रतीयते ।

“द्रव्यत्वाद्यपरम्” द्रव्यत्वादि जातियाँ अपर हैं। अर्थात् द्रव्यत्व, गुणत्व, कमंत्व इत्यादि जातियाँ सत्ता की अपेक्षा ‘अपर’ हैं। इसी प्रकार यह व्याख्या भी करनी चाहिए कि द्रव्यत्वादि जातियों की अपेक्षा पृथिवीत्वादि जातियाँ अपर’ हैं। पृथिवीत्वादि को अपेक्षा घटत्वादि जातियाँ अपर हैं। एवं गुणत्वादि सामान्यों की अपेक्षा रूपत्वादि सामान्य अपर हैं और कर्म्मत्वादि सामान्यों की अपेक्षा उत्क्षेपणत्वादि सामान्य अपर हैं।

कोई कहते हैं कि जल की उपलब्धि के बाद वह्नि की उपलब्धि होने पर “यह वही है” इस प्रकार की ( प्रत्यभिज्ञात्मक) प्रतीति नहीं होती है। अतः जलवह्नयादि साधारण द्रव्यत्व नाम की कोई जाति नहीं है। किन्तु यह असङ्गत है, क्योंकि स्वतन्त्र रूप से प्रतोति का विषय ही द्रव्य है। जल एवं वह्नि दोनों की हो स्वतन्त्ररूप से प्रतीति होती है। अतः अवश्य दोनों में रहनेवाली एक द्रव्यत्व जाति है। उत्क्षेप णादि सभी क्रियाओं में चलनरूपत्व की प्रतीति होती है । चलनरूपत्व की प्रतीति हां वस्तुतः कमंत्व की प्रतीति है (अतः कमंत्व जाति भी अवश्य है) । रूपादि चौबीस गुणों में जिस व्यक्ति को ‘गुण’ पद की शक्ति गृहीत हैं, उस व्यक्ति को रूपादि में भी अवश्य ही गुणत्व की प्रतीति होती है। अतः गुणत्व जाति का भी खण्डन नहीं कर सकते । सामान्य (जाति) की प्रतीति के लिए व्यक्ति के ज्ञान की तरह सामान्यवाचक शब्द की (व्यक्ति में ) शक्ति का ज्ञान भी कारण है। जैसे ब्राह्मणत्व जाति के ज्ञान में योनिसम्बन्ध का ज्ञान कारण है। ब्राह्मणत्व जाति भी ब्राह्मणजातीय माता पिता से उत्पन्न व्यक्ति में उत्पत्ति के समय से ही सम्बद्ध रहती है, किन्तु क्षत्रियादि व्यक्तियों के अवयवों के साथ ब्राह्मण जातीय व्यक्तियों के अवयवों का अत्यन्त सादृश्य होने के कारण

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

२५

न्यायकन्दली

यथा हि सुविदित रत्नपरीक्षाशास्त्रो रत्नजातिभेदं प्रत्यक्षतः प्रत्येति, नापरः । न च तावता रत्नजातिभेदो नास्ति, न च तत्प्रत्यक्षमप्रत्यक्षम् । यच्चोक्तम्-स्त्रीणां स्वभावचपलानां विशुद्धिर्दुरवबोधैवेति । तदसत्, अभियुक्तः सुरक्षितानां सुकर स्तदवबोध: कथितश्च तासां बहुविधो रक्षणोपाय इत्यास्तां तावत्प्रसक्तानुप्रसङ्गः ।

तच्च द्रव्यत्वादिकं स्वविषयस्य विजातीयेभ्यो व्यावृत्तेरपि हेतुत्वा द्विशेषाख्यां विशेषसंज्ञामपि लभते, न केवलमनुवृत्तिप्रत्यय हेतुत्वात् सामान्यसंज्ञां लभते, व्यावृतेरपि हेतुत्वाद्विशेषसंज्ञामपि किमुक्तं स्यात् ? द्रव्यत्वादिषु सामान्यशब्दो सामान्यलक्षणस्य सम्भवात्, लभत इत्यपिशब्दयोरर्थ: । मुख्यः, अनुवृत्तिहेतुत्वस्य विशेषशब्दश्च भाक्त:, स्वाश्रयो विशिष्यते सर्वतो व्यवच्छिद्यते येन स विशेष इति लक्षणस्यात्राभावात् इदन्तु लक्षणमन्त्यविशेषेष्वस्ति ।

केवल प्रथम दर्शन में ही क्षत्रियादि व्यक्तियों से विलक्षण रूप से ब्राह्मणों की प्रतीति नहीं होती है। क्योंकि ब्राह्मणत्व जाति व्यक्ति में सम्बद्ध रहने पर भी उद्भूत नहीं है। जब यह ज्ञान हो जाता है कि यह व्यक्ति ब्राह्मण माता पिता से उत्पन्न है, तब उस व्यक्ति के प्रत्यक्ष के साथ ही ब्राह्मणत्व जाति का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसे कि रत्नों की परीक्षा में निपुण व्यक्ति रत्नों की जातियों को प्रत्यक्ष ही देखता है। एवं उस परीक्षा से अनभिज्ञ व्यक्ति रत्नों की जातियों को समझाने पर भी नहीं समझ पाता है। किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि रत्नों की भिन्न जातियाँ ही नहीं हैं या उस निपुण पुरुष का प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष ही नहीं है । (प्र० ) कोई कहते हैं कि स्त्रियाँ चञ्चल होती हैं, अतः तन्मूलक वंशविशुद्धि का ज्ञान दुर्लभ है । ( उ०) किन्तु यह सर्वथा असङ्गत है, क्योंकि आय से सुरक्षित स्त्रियों को सन्तानों में विशुद्धि का बोध कठिन नहीं है। स्त्रियों की रक्षा के बहुत से उपाय शास्त्रों में कहे गये हैं। अब इस प्रसङ्ग से आये विषय को यहीं छोड़ देना चाहिये ।

द्रव्यत्वादि जातियाँ अपने आश्रयों को भिन्नजातीय वस्तुओं से पृथक् रूप से भी समझाती हैं, अतः वे ‘विशेष’ नाम से भी कही जाती हैं। अपने विभिन्न आश्रयों में एका कारप्रतीतिरूप अनुवृत्तिप्रत्यय-जनक होने से केवल ‘सामान्य’ शब्द से होती हैं। यही दोनों (व्यावृत्तेरपि विशेषाख्यामपि) ‘अपि’ शब्दों का अभिप्राय है । व्यवहृत नहीं इससे निष्कर्ष क्या निकला ? यही कि द्रव्यत्वादि जातियाँ ‘सामान्य’ शब्द के मुख्य अर्थ हैं। क्योंकि “अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्व” रूप सामान्य का सम्पूर्ण लक्षण उनमें है । विशेष’ शब्द का उनमें लाक्षणिक प्रयोग होता है, क्योंकि “जो अपने आश्रय व्यक्ति को और सभी पदार्थों से भिन्न रूप से समझावे वही ‘विशेष’ है”, विशेष का यह सम्पूर्ण लक्षण उनमें नहीं है, किन्तु वह अन्त्य विशेषों में (ही) है

३६

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्त पावभाध्यम्

[ उद्देश

प्रशस्तपादभाष्यम्

नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या

विशेषाः । ते खल्वत्यन्तव्यावृत्ति

हेतुत्वाद्विशेषा एव ।

सभी नित्य द्रव्यों में रहनेवाले ‘अन्त्य’ ही ‘विशेष’ हैं। वे ( अपने आश्रय को और पदार्थों से भिन्नत्व बुद्धिरूप ) व्यावृत्ति के ही कारण हैं । अतः वे ‘विशेष’ ही हैं ( अपने आश्रयों को परस्पर समानरूप से न समझाने के कारण ‘सामान्य’ शब्द के गौण अर्थ भी नहीं हैं ) ।

न्यायकन्दली

नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा इति । नित्यद्रव्येष्वेव वर्त्तन्त एव ये ते विशेषा इति । नित्यद्रव्येष्वेवेति द्रव्यगुणकर्म्मसामान्यानां व्यवच्छेदः । द्रव्यगुणकर्म्माणि द्रव्येष्वेव वर्त्तन्ते, न नित्येष्वेवेति । सामान्यानि तु न द्रव्ये ध्वेव न नित्येष्वेव वर्त्तन्त एवेति बुद्धिशब्दादीनां व्यवच्छेदः, तेषां समस्त नित्यद्रव्यप्राप्त्यभावात् । ननु कि विशेषा एव कि वा द्रव्यत्वादिवदुभयरूपा ? इति । तत्राह ते खल्विति । खलुशब्दो निश्चये, नित्यद्रव्यवृत्तयो ये विशेषास्ते विशेषा एव निश्चिता न तु सामान्यान्यपि भवन्तीत्यर्थः । अत्यन्तं सर्वदा, व्यावृत्ते रेव स्वाश्रयस्येतरस्माद्वयवच्छेदस्यैव हेतुत्वात् कारणत्वादिति । यथा चेदं तथोपरिष्टादुपपादनीयम् ।

जो (पदार्थ) केवल सभी नित्य द्रव्यों में रहें और अवश्य हो रहें वे ही ‘विशेष’ हैं । ‘नित्य द्रव्यों में ही रहें’ (नित्यद्रव्येष्वेव ) इस अंश से द्रव्य, गुण और कर्म्म इन तीनों में विशेष के लक्षण की अतिव्याप्ति की शङ्का मिट जाती है, क्योंकि वे यद्यपि द्रव्यों में ही रहते हैं, तथापि नित्य द्रव्यों में ही नहीं रहते ( किन्तु अनित्य द्रव्यों में भी रहते हैं) । सामान्य पदार्थ केवल द्रव्य में ही नहीं रहता है, (गुणादि में भी रहता है, अतः सामान्य में विशेष लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं है) । नित्यद्रव्येष्वेव वर्त्तत एवं’ इस वाक्य से शब्द और बुद्धि इन दोनों में विशेष लक्षण की अतिव्याप्ति वारित होती है; क्योंकि शब्दादि यद्यपि नित्य द्रव्यों में ही रहते हैं, किन्तु सभी नित्य द्रव्यों में नहीं रहते। क्या ये ‘विशेष’ ही हैं ? या द्रव्यत्यादि की तरह सामान्य और विशेष दोनों ही हैं ? इस संशय को ते खलु’ इत्यादि वाक्य से हटाते हैं । यहाँ ‘खलु’ शब्द ‘निश्चय’ अर्थ का बोधक है। अभिप्राय यह है कि नित्य द्रव्यों में रहनेवाले ये ‘विशेष’ निश्चित रूप से केवल ‘विशेष’ ही हैं, ये कभी सामान्य नहीं होते। क्योंकि ये बराबर अपने आश्रय को और पदार्थों से भिन्न रूप में ही समझाते हैं। यह जिस प्रकार उत्पन्न होता है, वह आगे दिखाया जाएगा।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

३७

प्रशस्तपादभाष्यम्

अयुत सिद्धानामाघार्य्याधारभूतानां यः सम्बध इइप्रत्ययहेतुः

स समवायः ।

आधार और आधेयरूप अयुतसिद्धों के ‘इहप्रत्यय’ अर्थात् इस आधार में यह आधेय है, इस बुद्धि का कारण जो सम्बन्ध वही समावाय है ।

न्यायकन्दली

समवायस्वरूपं निरूपयति अयुतसिद्धानामिति । युतसिद्धिः पृथसिद्धिः, पृथगवस्थितिरुभयोरपि सम्बन्धिनो: परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयाश्रयित्वम्, सा ययोर्नास्ति तावयुतसिद्धौ, , तयोः सम्बन्ध: समवायः । यथा तन्तुपटयो: ।

यद्यपि तन्तवः पटव्यतिरिक्ताश्रये समवयन्ति तथाप्युभयोः परस्पर परिहारेण पृथगाश्रयाश्रयित्वं नास्ति, पटस्य तन्तुष्वेवाश्रयित्वात् । यत्र तु द्वयोरपि सम्बन्धिनो: परस्परपरिहारेण व्यतिरिक्ताश्रयाश्रयित्वम्, तत्र युतसिद्धिः, यथा त्वगिन्द्रियशरीरयोः । शरीरं हि त्वगिन्द्रियपरिहारेण पृथगाश्रये स्वावयवे समाश्रितम्, तेनानयोः सँयोगो न समवायः । नित्यानान्तु युतसिद्धिः पृथग

‘अयुतसिद्धानाम्’ इत्यादि पङ्क्तियों से ‘समवाय’ के स्वरूप का निरूपण करते हैं। ‘युतसिद्धि’ शब्द से पृथक्सिद्धि अर्थात् अलग अलग स्वतन्त्र रूप से रहना अभिप्रेत है। कहने का तात्पर्य है कि जिन दो सम्बन्धियों का आश्रयत्व या आश्रितत्व एक दूसरे को छोड़कर किसी तीसरी वस्तु में भी रहे उन दो वस्तुओं की स्वतन्त्र रूप से विद्यमानता ही “युतसिद्धि” है। इस प्रकार की युतसिद्धि जिन दो वस्तुओं की न रहे वे दोनों वस्तु ‘अयुतसिद्ध’ हैं । इसी प्रकार की ( अयुतसिद्धि) दो वस्तुओं का सम्बन्ध समवाय है। जैसे सूत और कपड़े का ।

यद्यपि तन्तु पट से भिन्न अपने अंशु नाम के अवययों के साथ भी सम्बद्ध है। फिर भी परस्पर एक दूसरे को छोड़कर वे न कहीं आश्रित हैं एवं न कोई उनमें आश्रित हैं। जिन दो वस्तुओं में परस्पर एक दूसरे से असम्बद्ध होकर स्वतन्त्र रीति से किसी तीसरी वस्तु का आश्रयत्व या आश्रितत्व है, उन दो वस्तुओं की स्वतन्त्र रूप से विद्य मानता ही ‘युतसिद्धि’ है, जैसे कि त्वगिन्द्रिय और शरीर की विद्यमानता । शरीर त्वगिन्द्रिय को ड़कर खे अपने अवयवों में रहता है, अतः त्वगिन्द्रिय और शरीर का सम्बन्ध संयोग ही है, समवाय नहीं नित्य दो पदार्थों की ‘युतसिद्धि’

१. अभिप्राय यह है कि यद्यपि तन्तु पट से भिन्न अपने अंशु नाम के अवयवों में भी सम्बद्ध है, अतः तन्तु और पट में युतसिद्धि की शङ्का ठीक है। किन्तु पट चूँकि तन्तुओं में ही आश्रित है। अतः पट का आश्रयरूप तन्तु अंशु प्रभृति अन्य पदार्थों में सम्बद्ध भी हों तथापि पट को छोड़कर कहीं सम्बद्ध नहीं हो सकते । अतः पट समवाय से युत तन्तुओं की स्वतन्त्र सिद्धि सम्भव नहीं है ।

३८

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपाद भाष्यम्

[ उद्देश

न्यायकन्दली

वस्थितिः, पृथग्गमनयोग्यता, सा ययोर्नास्ति तावयुत सिद्धौ, तयोर्यः सम्बन्ध: स समवायः, यथाकाशद्रव्यत्वयोरिति । अयुतसिद्धयोः सम्बन्ध इत्युच्यमाने धर्मस्य सुखस्य च यः कार्य्यकारणभावलक्षण सम्बन्धः सोऽपि समवायः प्राप्नोति तयोरात्मैकाश्रितयोर्युतसिद्धयभावात् । तदर्थमाधार्य्याधारभूताना मिति पदम्, न त्वाकाशशकुनि सम्बन्धनिवृत्त्यर्थम्, अयुतसिद्धपदेनैव तस्य निर्वात्ततत्वात् । एवमप्या काशस्याकाशपदस्य च वाच्यवाचकभावः समवायः स्यात्, तन्निवृत्त्यर्थ मिहप्रत्ययहेतुरिति । वाच्यवाचकभावे हि तस्माच्छब्दात् तदर्थो ज्ञायते न त्विहेद मिति । आधार्थ्याधारभूतानामिहप्रत्ययहेतुरिति कुण्डबदरसम्बन्धो न व्यवच्छिद्यते, तदर्थसिद्धानामिति ।

अत्र केचिदयुतसिद्धिपदं विकल्पयन्ति – कि युतौ न सिद्धौ ? आहो स्विदयुतौ सिद्धौ ? यदि युतौ न सिद्धौ, कस्तयोः सम्बन्धः, धम्मिणोरभावात् ।

अर्थात् पृथक् सिद्धि का अर्थ है दोनों में परस्पर एक दूसरे को छोड़कर जाने की यह ‘योग्यता’। यह जिन नित्य दो वस्तुओं में नहीं है, उनका सम्बन्ध भी समवाय है, जैसे आकाश और द्रश्यत्व का अगर इतना ही कहें कि “अयुतसिद्ध दो वस्तुओं का सम्बन्ध ही समवाय है” तो पुण्य और सुख इन दोनों का जो कार्यकारणभाव सम्बन्ध है, उसमें समवाय लक्षण को अतिव्याप्ति होगी, क्योंकि वे दोनों केवल आत्मा में ही रहने के कारण युतसिद्ध नहीं हैं, अतः समवाय के लक्षणवाक्य में “आघार्थ्याधारभूतानाम्” यह पद देना आवश्यक है। किन्तु बाज पक्षी और आकाश के संयोग में अतिव्याप्ति वारण के लिए “आघार्थ्याधारभूतानाम्” यह पद नहीं है। क्योंकि इस अतिव्याप्ति का वारण ‘अयुतसिद्ध’ पद से ही हो जाता है। इसी प्रकार आकाश पद और आकाशरूप अर्थ इन दोनों के वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध में अतिव्याप्ति वारण के लिए प्रकृत समवाय लक्षण में इहप्रत्ययहेतुः यह पद दिया गया है। क्योंकि आकाश पद से आकाशरूप अर्थ की हो प्रतीति होती है। इससे यह प्रतीति नहीं होती कि ‘आकाशरूप अर्थ में आकाश पद है’ या ‘आकाशपद में आकाशरूप अर्थ है । ( प्रकृत समवाय लक्षण में) ‘आषार्थ्याधारभूतानाम्’ एवं ‘इहप्रत्ययहेतुः’ इन दोनों पदों का प्रयोग करने पर भी कुण्ड और बदर के संयोग सम्बन्ध में अतिव्याप्ति नहीं हटती है, अतः ‘अयुतसिद्धानाम्’ यह पद है।

यहाँ कुछ लोग अयुतसिद्ध पद के अर्थ के प्रसङ्ग में इन विरुद्ध पक्षों को उठाते हैं कि अयुतसिद्ध पद का (१) ‘युतो न सिद्धो’ एवं ‘अयुतौ सिद्धो’ इन दोनों में कौन सा विग्रह प्रकृत में इष्ट है ? इनमें प्रथम पक्ष तो इस लिए ठीक नहीं है कि प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों अगर असिद्ध हैं तो फिर यह समवाय सम्बन्ध

प्रकरणम् ]

भावानुवादसहितम्

३९

न्यायकन्दली

अथायुत सिद्धौ, तथापि कः सम्बन्धोऽपृथक् सिद्धत्वादेव । भिन्नयोहि सम्बन्धो यथा कुण्डबदरयोरिति ।

तदपरे न मृषन्ति । नास्यायमर्थो युतौ न सिद्धौ न निष्पन्नाविति, असतो: समवायानभ्युपगमात् । नाप्यस्यायमर्थः अयुतौ सिद्धाविति, एकात्मकत्वे ह्येकमेव वस्तु स्यान्नोभयम्, परस्परात्मकत्वाभावलक्षणत्वा दुभयरूपतायाः । न च तदेकं वस्तु परमार्थतः, परस्परविलक्षणेन रूपेण तयोराकारयोः प्रतिभासनात् । विलक्षणाकारबुद्धिवेद्यत्वस्यैव भेदलक्षणत्वात्, अन्यथा भेदाभेदव्यवस्थानुपपत्तेः । तस्मान्न स्वरूपाभेदोऽप्ययुतसिद्धिः, किन्तु अयुतसिद्धानामिति परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयानाश्रितानामित्यर्थः । तथा च सति सम्बन्धो नानुपपन्न:, स्वरूप भेदस्य सम्भवात्, भिन्नयोश्च परस्परोपश्लेषस्य दहनाय पिण्डयोरिव विना सम्बन्धेनास भवात् । इयांस्तु विशेष:- वह्निरुत्पत्तेः पश्चादयः पिण्डेन सह सम्बद्ध्यते, इह तु स्वकारणसामर्थ्यादुपजायमानमेव तत्र सम्बद्ध्यते, यथा छिदिक्रिया छेद्येनेत्यलम् ।

किसके साथ किसका होगा ? (क्योंकि सम्बन्ध से पहिले सम्बन्धियों की सिद्धि आव श्यक है), अगर “जिन दोनों की पृथक् सिद्धि न हो वे अयुतसिद्ध है’ यह दूसरा पक्ष मानें तो भी असङ्गति है ही क्योंकि जिन दो वस्तुओं की अलग अलग सिद्धि न हो, पृथक् सत्ता न रहे, उन दोनों का सम्बन्ध कैसा ? दो भिन्न वस्तुओं का ही सम्बन्ध होता है, जैसे कुण्ड और बैर का ।

इन दोनों ही आक्षेपों को दूसरे सम्प्रदाय नहीं मानते। इन लोगों का कहना है कि ‘युतो न सिद्धौ” इस विग्रह वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि “जिन दो वस्तुओं की (पृथक् ) सत्ता न रहे, वे प्रयुतसिद्ध हैं” क्योंकि हम लोग असत् वस्तुओं का समवाय नहीं मानते। “अयुतौ न सिद्धौ” इस विग्रहवाक्य के अनुसार यह अर्थ भी नहीं है कि ‘जिन दो वस्तुओं की अभिन्नरूप से सिद्धि हो वे अयुतसिद्ध हैं”, क्योंकि एक स्वरूप की वस्तु एक ही होगी, दो नहीं। दो वस्तुओं के दोनों असाधारण धर्मों का एक दूसरे में अभाव ही ‘उभयरूपत्व’ शब्द का अर्थ है। समवाय सम्बन्ध के अनुयोगी और प्रतियोगीरूप वे दोनों अयुतसिद्ध अभिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि परस्पर विलक्षण रूप से दोनों की यथार्थ प्रतीति होती है। विलक्षण रूप से ज्ञात होना ही वस्तुओं का ( परस्पर) भेद है। अगर विलक्षण रूप से ज्ञात होने पर भी वस्तुओं में भेद न मानें तो संसार से भेद और अभेद की बात ही उठ जाएगी। अयुतसिद्ध शब्द का अर्थ यह है कि जो अनेक वस्तुएँ परस्पर एक दूसरे को छोड़कर न रहें वे ‘अयुतसिद्ध’ हैं। (अयुतसिद्ध शब्द के ) इस प्रकार के अर्थ में सम्बन्ध की कोई अनुपपत्ति नहीं है। क्योंकि इस प्रकार के अयुतसिद्धों के स्वरूप

४०

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ उद्देश

प्रशस्तपादभाष्यम्

एवं धम्मैना धर्मिणामुद्देशः कृतः ।

इस प्रकार धर्मों को छोड़ कर केवल धम्मियों के नामों का उल्लेख किया गया है ।

न्यायकन्दली

ननु किमर्थं षडेव पदार्था उद्दिष्टा नापरे ? तेषामेव भावात्, तदन्येषा मभावाच्च। तदभावश्च सवें: प्रमाणैरनुपलभ्यमानत्वाच्छाविषाणवत् । षण्णां सामान्यलक्षणं विधिप्रत्ययविषयत्वम् व्यावृत्तन्तु लक्षणम् – यथा गुणाश्रयो द्रव्यम् । सामान्यवानगुणः संयोगविभागयोरनपेक्षो न कारणं गुण: । एक द्रव्यमगुणं संयोग विभागयोरनपेक्षकारणं कर्म्म । अनुवृत्तिप्रत्ययकारणं सामान्यम् । अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतु विशेषः । अयुतसिद्धयोराश्रयाश्रयिभावः समवाय इति ।

●अनुद्दिष्टेषु धम्म धर्म्मा न शक्यन्ते वक्तुम् अतो धर्माणामुद्देशं प्रक्रम यितुं सङ्गति प्रदर्शयति एवमिति । एवं पूर्वोक्तेन ग्रन्थेन धम्म विना भी भिन्न भिन्न हो सकते हैं। जैसे कि वह्नि और अयःपिण्ड का परस्पर सम्मिलन बिना संयोग रूप सम्बन्ध के असम्भव है, उसी प्रकार किन्हीं भी विभिन्न दो पदार्थों का बिना किसी सम्बन्ध के परस्पर सम्मिलन असम्भव है। अन्तर केवल इतना ही है कि उत्पन्न होने के बाद वह्नि अय:पिण्ड के साथ सम्बद्ध होता है किन्तु समवाय का प्रतियोगी अपने कारणों के बल से अपने अनुयोगी में सम्बद्ध ही उत्पन्न होता है जैसे कि काटने की क्रिया काटे जानेवाली वस्तु के साथ सम्बद्ध ही उत्पन्न होती है। इस विषय में इतना ही विचार पर्याप्त है।

( प्र०) छः पदार्थों का ही प्रतिपादन क्यों किया ? और पदार्थों का क्यों नहीं ? (उ०) इस लिए कि पदार्थ उतने ही हैं, उससे अधिक नहीं इन छः पदार्थों से भिन्न पदार्थों का अभाव इसलिए है कि वे किसी भी स्वीकृत प्रमाण से उपलब्ध नहीं हैं। जैसे कि खरहे को सींग | छः पदार्थों का सामान्य लक्षण यह है कि किसी प्रतियोगी की अपेक्षा के बिना भावत्वरूप से ज्ञात होना । प्रत्येक पदार्थ का औरों में न रहनेवाला लक्षण इस प्रकार है – (१) गुणों का आश्रय द्रव्य है । (२) जो सामान्य (जाति) से युक्त हो, गुणों से सर्वथा रहित हो, संयोग और विभाग का स्वतन्त्र कारण न हो वही गुण है। (३) जो एक समय में एक ही द्रथ्य में रहे, गुणों से सर्वथा शून्य हो, एवं संयोग और विभाग का स्वतन्त्र कारण हो वही कम है। (४) अपने विभिन्न आश्रयों में एकाकारता प्रतीतिरूप अनुवृत्तिप्रत्यय का कारण ‘जाति’ है । (५) अपने आश्रय में औरों से भिन्नत्व बुद्धिरूप व्यावृत्तिप्रत्यय का कारण ‘विशेष’ है । (६) अयुतसिद्धों के आधाराधेयभाव का नियामक सम्बन्ध ‘समवाय’ है ।

जब तक धर्मी न कहे जायँ तब तक उनके धर्म नहीं कहे जा सकते । अतः पदार्थों के उद्देश के बाद पदार्थ के धम्मं अर्थात् साधम्यं क्यों कहे गये ? इस प्रश्न का

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

४९

प्रशस्तपादभाष्यम्

•षण्णामपि पदार्थानामस्तित्वाभिधेयत्वज्ञेयत्वानि ।

( द्रव्यादि ) छहों पदार्थों का (१) अस्तित्व, (२) अभिषेयत्व और (३) ज्ञेयत्व ये तीन साधर्म्य हैं ।

न्यायकन्दली

धर्म्मान् परित्यज्य धर्मिणामुद्देशः कृतः, धम्मिणां संज्ञामात्रेण सङ्कीर्त्तनं कृतमिदानीं धर्म्मा उद्दिश्यन्त इति भावः । यद्यपि पूर्व द्रव्यादीनां विभागः कृतस्तथाप्युद्देशः कृत इत्युक्तम्, विभागस्य नामधेयसङ्कीर्त्तनमात्रेणोद्देशेऽन्तर्भावात् ।

यद्यपि धर्माः षट्पदार्थेभ्यो व्यतिरिच्यन्ते, किन्तु त न एव अन्योन्यापेक्षया धर्मा धम्मिणश्च भवन्तीति । तथापि तेषां धम्मिरूपतया परिज्ञानार्थं पृथगुद्देशं करोति षण्णामपीति अस्तित्वं स्वरूपवत्त्वम्, षण्णामपि साधर्म्यम्, यस्य वस्तुनो यत् स्वरूपं तदेव तस्यास्तित्वम् । अभिधेयत्व मप्यभिधानप्रतिपादनयोग्यत्वम्, तच्च वस्तुनः स्वरूपमेव । भावस्वरूपमेवावस्था भेदेन ज्ञेयत्वमभिधेयत्वञ्चोच्यते ।

आश्रितत्वञ्च

समवाये तदभावात् ।

परतन्त्रतयोपलब्धिः, समवायलक्षणा वृत्तिः,

इदञ्चाश्रितत्वं चतुर्विधेषु परमाणुषु आकाशकाल

समाधान सङ्गति प्रदर्शन के द्वारा ‘एवम्’ इत्यादि पङ्क्ति से दिखलाते हैं। ‘एवम्’ पहिले

कहे हुये सन्दर्भ से. ‘धम्मँविना’ धर्मों को छोड़कर ‘धम्मिणामुद्देशः कृतः’ अर्थात् धर्मियों को ही केवल उनके नाम के द्वारा कहा है, अब उनके धर्म्मो को उनके नाम से कहते हैं । यद्यपि पहिले के ग्रन्थों से पदार्थों का विभाग भी किया है, फिर भी ‘उद्देशः कृतः यही वाक्य कहा है, क्योंकि नामों के द्वारा पदार्थों के कथन रूप उद्देश में ही विभाग का भी अन्तर्भाव हो जाता है। यद्यपि ये धर्म भी इन छ: पदार्थों के ही अन्तर्गत हैं, तथापि वे ही यथासम्भव अपने में एक दूसरे के धर्म और धर्मी कहलाते हैं, फिर भी धर्मी रूप से उनको समझाने के लिए ‘षण्णाम्’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अलग से उनको कहते हैं । ‘अस्तित्व’ शब्द का अर्थ है ‘स्वरूप’ अर्थात् वस्तुओं का अपना असाधारण रूप ही अस्तित्व है । यह ‘अस्तित्व’ द्रव्याणि छहों पदार्थों में रहनेवाला धर्म है। ‘अभिधेयत्व’ शब्द का अर्थ है अभिधान, अर्थात् शब्द से कहे जाने की क्षमता, वह भी वस्तुओं का स्वरूप हो है । वस्तुओं का यह स्वरूप ही अवस्थाओं के भेद से अभिषेयत्व ज्ञयत्व प्रभृति पशब्दों से कहा जाता है।

परतन्त्र रूप से ज्ञात होना ही ‘आश्रितत्व’ शब्द का अर्थ है । समवाय सम्बन्ध से कहीं रहना (आश्रितत्व शब्द का अर्थ ) नहीं है, क्योंकि समवाय कहीं पर भी समवाय सम्बन्ध से नहीं रहता है। पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चारों पदार्थों के परमाणुओं ६

४२

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ साधर्म्यवैधम्र्म्य

प्रशस्तपादभाष्यम्

आश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः |

द्रव्यादीनां पञ्चानां समवायित्वमनेकत्वञ्च |

नित्य द्रव्यों को छोड़कर और सभी पदार्थों का आश्रितत्व साधर्म्य है । द्रव्य, गुण, कर्म्म, सामान्य और विशेष इन पाँच पदार्थों के समवायित्व और अनेकत्व ये दो साधर्म्य हैं ।

न्यायकन्दली

दिगात्ममन:सु नास्तीत्याह- अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति । ये तु धर्मान् व्यतिरिक्तानिच्छन्ति तेषामेकस्मिन् समस्तवस्तुव्यापिन्य स्तीतिप्रत्ययहेतावस्तित्वे कल्पिते द्रव्यादिषु सत्तावैयर्थ्यम् । अथास्तित्वं प्रतिवस्तु भिद्यते तदा तत्कल्पनावैयर्थ्यम्, सत्तायाः स्वरूपसत्तायाश्च सदिति प्रत्ययोपपत्तेः । घेषान्तु भावस्वरूपमेवास्तित्वं न तेषां व्यर्था सत्ता, स्वरूपस्यानुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वा भावात् । नाप्यस्तित्व मनर्थकं निःस्वरूपे सत्तायाः समवायाभावादित्युभयमुपपद्यते । द्रव्यादीनां विशेषान्तानां साधर्म्यं साधयति । समवायित्वं समवायलक्षणा वृत्तिः । अनेकत्वं परस्पर विभिन्नत्वमितरेतरव्यावृत्तं स्वरूपमेव । में, तथा आकाश, काल, दिकू, आत्मा और मन इन नौ नित्य द्रव्यों में ( इतने ही द्रव्य नित्य हैं) यह ‘आभितत्व’ नहीं है, अतः ‘ अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः” यह वाक्य कहा गया है ।

जो समुदाय व्यक्तिभेद से धर्मों को भिन्न ही मानना चाहते हैं ( वे भी अनेक वस्तुओं में रहनेवाले और घम को न भी मानें, किन्तु ) सभी वस्तुओं में एक प्रकार की ‘अस्ति’ प्रतीति को उत्पन्न करनेवाला ‘अस्तित्व’ नाम का धर्म उन्हें भी मानना ही पड़ेगा, किन्तु ऐसा मानने पर द्रव्यादि तीन पदार्थों में ही सत्व प्रतीति के लिए सत्ता’ जाति की कल्पना व्यर्थ हो जाएगी। अगर अस्तित्व धर्म को प्रतिव्यक्ति भिन्न मानें तो फिर इस प्रकार के अस्तित्व की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि सत्ता’ जाति एवं तत्तद्वयक्तिगत तद्वयक्तित्व ( रूप स्वरूपसत्ता ) से ही ‘सत्प्रतीति’ उपपन्न हो जाएगी। जो कोई ‘अस्तित्व’ को वस्तुओं का स्वरूप ही मानते हैं, उनके मत में भी ‘सत्ता’ जाति की कल्पना व्यर्थ नहीं है, क्योंकि (बिना सत्ता जाति माने) भिन्न रूप से प्रतीत होनेवाले द्रव्यादि तीन पदार्थों में एक आकार की सत्त्व की प्रतीति नहीं हो सकेगी। अस्तित्व की कल्पना भी व्यर्थ नहीं है, क्योंकि अपने अपने व्यक्तिगत स्वरूप (अस्तित्व) से शून्य वस्तुओं में सत्ता जाति का समवाय भो सम्भव नहीं है, अतः सत्ता जाति और सभी प्रकार को वस्तुओं में ‘अस्ति’ प्रतीति का

कारण अस्तित्व, इन दोनों को ही मानना आवश्यक है । द्रव्य से लेकर विशेष तक के पाँच पदार्थों के साधर्म्य का उपपादन करते हैं । ‘समवायित्व’ शब्द का अर्थ है समवाय रूप सम्बन्ध, (अर्थात् समवाय सम्बन्ध से कहीं

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

४३

प्रशस्तपादभाष्यम्

गुणादीनां पञ्चानामपि निर्गुणत्वनिष्क्रियत्वे ।

त्रयाणामपि

सत्तासम्बन्धः,

सामान्य विशेष

द्रव्यादीनां

गुण से लेकर समवाय तक अर्थात् गुण, कर्म्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन पाँच पदार्थों के निर्गुणत्व और निष्क्रियत्व साधर्म्य हैं ।

द्रव्यादि तीन वस्तुओं के अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म्म इन तीन पदार्थों के ये पाँच साधर्म्य हैं-( १ ) सत्ता का सम्बन्ध, ( २ ) सामन्यवत्त्व, ( ३ ) विशेष वत्त्व ( अर्थात् पर और अपर दोनों जातियों का सम्बन्ध ), (४) इस शास्त्र के सङ्केत

न्यायकन्दली

द्रव्यादीनामित्युक्ते समवायोऽपि गृह्येत, तदर्थं पञ्चानामित्युक्तम् । पञ्चाना मित्युक्ते च केषामिति न ज्ञायते तदर्थं द्रव्यादीनामिति ।

गुणादीनां समवायान्तानां साधर्म्यमाह-गुणादीनामिति । निर्गुणत्वं गुणाभावविशिष्टत्वम्, निष्क्रियत्वं क्रियाभाव विशिष्टत्वम् यथा भावोऽभावस्य विशेषणं स्वविशिष्टप्रत्ययजननादेवमभावोऽपि तथा चोपनिबद्धमघटं भूतलमिति । भावाभावयोरसम्बन्धात् कथमभावो विशेषणमिति चेदस्ति तावदयं विशिष्ट प्रत्ययः, तद्दर्शनात् सम्बन्धमपि कल्पयिष्यामः । यदि सम्बद्धमेव विशेषणं मन्यसे ।

रहना । ‘अनेकत्व’ शब्द का अर्थ है विभिन्नत्व वह परस्पर एक दूसरे में न रहनेवाला उन वस्तुओं का स्वरूप ही है । ‘द्रव्यादीनाम् केवल इतना कह देने से समवाय का भी ग्रहण हो जाता, अतः ‘पञ्चानाम्’ यह पद है। केवल ‘पानाम्’ इतना ही कहने से ‘कौन पाँच’ यह समझ में नहीं आता, अतः द्रव्यादीनाम्’ यह पद है ।

‘गुणादीनाम्’ इत्यादि सन्दर्भ से गुण से लेकर समवाय तक के पाँच पदार्थों का साधर्म्य कहते हैं । ‘निर्गुणत्व’ शब्द का अर्थ है गुणों का अभाव और ‘निष्क्रियत्व’ शब्द का अर्थ है क्रियाओं का अभाव | जिस प्रकार भाव’ अपने से युक्त अभाव प्रतीति का जनक होने से अभाव का विशेषण होता है, उसी प्रकार एवं उसी हेतु से अभाव भी भाव का विशेषण हो सकता है। एवं उसी के अनुकूल ‘अघटं भूतलम्’ इत्यादि विशिष्टप्रतीति के जनक प्रयोग भी होते हैं। (प्र०) भाव और अभाव दोनों ही परस्पर विरोधी हैं, अतः उन दोनों में परस्पर सम्बन्ध असम्भव है, एवं दोनों में परस्पर सम्बन्ध न रहने से विशेष्य विशेषणभाव सुतराम् असम्भव है। (उ०) उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि भाव विशिष्ट अभाव की, एवं अभाव विशिष्ट भाव की दोनों ही प्रतीतियाँ अवश्य है। अगर परस्पर सम्बद्ध दो वस्तुओं में से ही एक को विशेष्य और दूसरे को विशेषण मानना हो तो फिर उक्त विशिष्ट प्रतीतियों के बल से भाव और अभाव इन दोनों में भी किसी अनुकूल सम्बन्ध को कल्पना करनी ही पड़ेगी।

४४

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ साघम्यंवैधर्म्य

प्रशस्तपादभाष्यम्

वश्वम्, स्वसमपार्थ शब्दाभिधेयत्वम्, धर्म्माधर्म्म कत्तु त्वञ्च । रूप अभिधावृत्ति के द्वारा ‘अर्थ’ शब्द के द्वारा समझा जाना और ( ५ ) धर्मा धर्म्मकतृत्व ।

न्यायकन्दली

सत्तासम्बन्ध:

द्रव्यादीनां त्रयाणां सत्तया सामान्येन सबन्ध: समवायरूपो द्रव्यगुणकर्म्मणां साधर्म्यम् । यथा चैतेषु सत्तासम्बन्धस्तथोपपादितम् । इदन्त्विह निरूप्यते कि सत्तासम्बन्धः सतोऽसतो वा ? सतश्चेत् प्राक् सत्तासम्बन्धात् सन्नेवासावर्थ इति व्यर्था सत्ता ? अथासतः सम्बन्धः ? खरविषाणादिष्वपि सत्ता स्यात् । नित्येषु तावत्पूर्वापरभावानभ्युपगमः | अनित्येषु प्रागसत एव सत्ता, कारणसामर्थ्यात् । न च खरविषाणादिष्वतिप्रसङ्गः, तदुत्पत्तौ कस्यचित् साम र्थ्याभावात् ।

अन्यदपि साधर्म्य द्रव्यादीनां त्रयाणां कथयति सामान्य विशेषवत्त्वञ्चेति । अनुवृत्तिव्यावृत्तिहेतुत्वात् सामान्यविशेषा द्रव्यत्वादयस्तैः सह सम्बन्धो द्रव्यादीनाम्, स च समवाय एव ।

“द्रव्यादीनां त्रयाणां सत्तासम्बन्धः” अर्थात् सत्ता नाम की जाति के साथ समवाय नाम का सम्बन्ध द्रव्य, गुण और कर्म्म इन तीनों का साधर्म्य है। इन तीनों में सत्ता जाति का सम्बन्ध किस प्रकार है ? यह कह चुके हैं (प्र०) अब यहाँ विचार करना है कि सत्ता जाति ‘सत्’ अर्थात् पहिले से विद्यमान वस्तुओं के साथ सम्बद्ध होती है ? या असद्वस्तुओं के साथ ? अगर सत्ता सद्वस्तुओं के साथ सम्बद्ध होती है तो फिर सत्ता जाति की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि सत्ता सम्बन्ध के बिना भी वे सत् हैं ही। अगर असत् वस्तुओं के साथ सत्ता सम्बद्ध होती है तो फिर गदहे के सींग प्रभृति पदार्थों की भी सत्ता माननी पड़ेगी। ( उ०) नित्य वस्तुओं में तो पहिले पीछे की कोई बात ही नहीं उठती है। अनित्य वस्तुओं के प्रसङ्ग में यह कहना है कि पहिले से अविद्यमान वस्तुओं के साथ ही कारणों के (विशिष्ट) बल से सत्ता सम्बद्ध होती है। गदहे के सींग प्रभृति अलीक पदार्थों की आपत्ति का भी प्रसङ्ग नहीं आता है, क्योंकि किसी भी वस्तु में उनके उत्पादन का बल ही नहीं है ।

‘सामान्य विशेषवत्त्वव’ इत्यादि से द्रव्यादि तोन पदार्थों के और भी साधर्म्य कहते हैं । द्रव्यत्वादि जातियाँ अपने विभिन्न आश्रयों में ‘द्रव्यम्’ इस एक आकार की ( अनुवृत्ति) बुद्धि का कारण होने से ‘सामान्य’ हैं एवं अपने आश्रयों को औरों से भिन्न रूप में समझाने के कारण ‘विशेष’ भी हैं। सामान्य एवं विशेष इन दोनों शब्दों से समझी जानेवाली द्रव्यस्वादि जातियों के साथ द्रव्यत्वादि तीनों वस्तुओं का सम्बन्ध है । वह सम्बन्ध समवाय ही है

प्रकरणम् ]

●भाषानुवादसहितम्

૪५

न्यायकन्दली

स्वसमयार्थशब्दाभिधेयत्वञ्चेति । वैशेषिकैः स्वयं व्यवहाराय यः सङ्केतः कृतोऽस्मिन् शास्त्रे ‘अर्थशब्दाद् द्रव्यगुणकर्माणि प्रतिपत्तव्यानि इति तेन द्रव्यादीनि त्रीणि निरुपपदेनार्थशब्देनोच्यन्ते ।

धर्माधर्म्मकतृ त्वञ्चेति । धर्म्माधर्म्मोत्पत्तिनिमित्तत्वं त्रयाणाम्, यथा हि भूमिरेकैव दोयमानापह्रियमाणा च धर्म्माधर्म्मयोः कारणम् । एकः संयोगो द्वयोः कारणम्, यथा कपिलास्पर्शो नरास्थिस्पर्शश्च । एवं कम्मप्युभयकारणम्, यथा तीर्थगमनं शौण्डिकगृहगमनञ्च, एवमन्यदप्यूह्यम् | धर्माधर्म्मकर्तृ त्वमिति त्वप्रत्ययेन धर्म्माधर्म्मजननं प्रति तेषां निजा शक्तिरुच्यते । ननु जातिरपि तयोः कारणम् न, तस्याः स्वाश्रयव्यवच्छेदमात्रेण चरितार्थत्वात् । ?

स्वसमयार्थ शब्दाभिधेयत्वस्व’ अर्थात् वैशेषिक शास्त्र के आचार्यों ने सङ्केत किया है कि ‘अर्थ’ शब्द से द्रव्यादि न समझे जायें। इस सचेत के बल से विशेषण से शून्य केवल ‘अर्थ’ शब्द से द्रव्यादि तीन ही समझे जाते हैं । ( इस प्रकार वैशेषिक शास्त्र के सङ्केत सम्बन्ध से ‘अर्थ’ शब्दवत्ता द्रव्यादि तीन पदार्थों में है), अतः स्वसमयार्थशब्दाभिषेयत्व द्रव्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य है ।

‘बर्माधर्म्मकत्तु’ त्वत्व’ अर्थात् द्रव्यादि तीनों पदार्थों में धर्म और अधमं दोनों को कारणता है, एक ही भूमि जब किसी को दी जाती है, तब वह धर्म का कारण होती है, वही भूमि जब किसी से छीनी जाती है, तब अधर्म का कारण होती है— इसी तरह कपिला गो का स्पर्श ( गुण ) धर्म का एवं मनुष्य की अस्थि का स्पर्श ( गुण) अधर्म का कारण है। इसी प्रकार तीर्थगमन क्रिया से धर्म और मद्य बेचनेवाले के गृह में जाने की क्रिया से अधर्म होता है। इसी प्रकार और स्थलों में भी कल्पना करनी चाहिए। ‘धर्म्माधर्म्मत त्वत्व’ इस वाक्य में प्रयुक्त ‘स्व’ प्रत्यय से द्रव्यादि तीनों वस्तुओं में धर्म और अधर्म के उत्पादन करने की अपनी शक्ति कही गई है। (प्र०) ‘जाति भी तो उन दोनों का कारण है ? ( उ० ) जाति धर्म और अधर्म का कारण नहीं है, क्योंकि वह अपने आश्रय को विजातीय वस्तुओं से भिन्न समझाकर ही चरितार्थं हो जाती है, ( अर्थात् ) उक्त शब्द से धर्म और अधर्म का साक्षात् कारणत्व ही विवक्षित है ( उक्त धर्माधम ) के तो ब्राह्म णादि व्यक्ति ही कारण हैं। जाति का काम वहाँ इतना ही है कि ब्राह्मणादि से भिन्न जातीय व्यक्तियों से प्रकृत धर्म और अधर्म की उत्पत्ति का प्रतिषेध करे, अतः कोई अनुपपत्ति नहीं है ।

१. प्रश्न का अभिप्राय है कि द्रव्यादि तीनों पदार्थों की तरह जाति भी धर्म और अधर्म का कारण है, क्योंकि ब्राह्मणों के लिए विहित क्रिया के अनुष्ठान से क्षत्रि

४६

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ साधर्म्यवैधर्म्य –

प्रशस्तपादभाष्यम्

कार्यत्वानित्यत्वे कारणवतामेव ।

कारणों से उत्पन्न पदार्थों के कार्यत्व और अनित्यत्व ये दो साधर्म्य हैं ।

न्यायकन्दली

कार्य्यत्वानित्यत्वे कारणवतामेव । येषां द्रव्यादीनामुत्पत्तिकारण मस्ति तेषां कार्य्यत्वमनित्यत्वञ्च धर्मो न सर्वेषामित्यर्थः । स्वकारणे सम वायः, प्रागसतः सत्तासमवायो वा कार्य्यत्वमित्येके । तदयुक्तम्, प्रध्वंसे तद भावात् । तस्मात् कारणाधीनः स्वात्मलाभः कार्य्यत्वमिति लक्षणम्, व्याप कत्बात् । प्राक्प्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुनः सत्तैवानित्यत्वमिति केचित् । तद युक्तम्, अप्रतीतेः । अनित्य इति विनाशीत्येवं लोक: प्रत्येति, न तु सत्ता विशिष्टताम् । उत्पत्तिविनाशयोगित्वमित्यपर: तदप्यसारम्, प्रागभावे उत्पत्तेरभावात् तस्याप्यनित्यत्वेन लोके सम्प्रतिपत्तेः । तस्मात् स्वरूपविनाश एवानित्यत्वमिति । यथोक्तम्-“अनित्यत्वं विनाशाख्यं क्रियासामान्य मुच्यते” इति ।

‘कार्यत्वानित्यत्वे कारणवतामेव’ अभिप्राय यह है कि कारणों से जिन द्रव्यादि वस्तुओं की उत्पत्ति होती है कारणत्व और अनित्यत्व उन्हीं पदार्थों के साधर्म्य हैं, सभी पदार्थों के नहीं। कोई कहते हैं कि (प्र०) कारणों में कार्यों का समवाय ही उनका ‘कार्य्यत्व’ है या पहिले से अविद्यमान कार्यों में ‘सत्ता’ ( जाति ) का समवाय सम्बन्ध ही ‘कार्य्यत्व’ है । ( उ० ) किन्तु ये दोनों ही पक्ष अयुक्त हैं, क्योंकि ध्वंसात्मक का में इन दोनों में से एक प्रकार का भी कार्यत्व नहीं है, अतः कार्यत्व लक्षण के सभी लक्ष्यों में रहने के कारण “कारणों से अपने स्वरूप का लाभ ही ” काय्यंत्व का लक्षण है। कोई कहते हैं कि (प्र०) जिन वस्तुओं का कभी प्रागभाव रहे और कभी जिनका ध्वंस भी हो उनमें रहनेवाली ‘सत्ता’ हो ‘अनित्यत्व’ है । ( उ० ) किन्तु यह असङ्गत है, क्योंकि अनित्यत्व की प्रतीति इस आकार की नहीं होती है। ‘अनित्यत्व’ शब्द से विनाशशीलत्व की ही प्रतीति होती है, किसी प्रकार की सत्ता की नहीं । ( प्र० ) कोई कहते हैं कि उत्पत्ति और विनाश दोनों का सम्बन्ध ही ‘अनित्यत्व’ है । ( उ० ) किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रागभाव में अनित्यत्व की सार्वजनीन अबाधित प्रतीति होती है, किन्तु उसमें उत्पत्ति का सम्बन्ध नहीं है। अतः वस्तुओं के स्वरूप का नाश हो अनित्यत्व है। जैसा कहा भी है कि विनाश नाम की सामान्य किया ही ‘अनित्यत्व’ शब्द से कही जाती है । ( प्र० ) यद्यपि वस्तुओं की वर्तमान यादि को पुण्य नहीं होता, एवं ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध सुरापानादि से शूद्रादि को अधम्मं नहीं होता, अतः यह कथन असङ्गत है कि उक्त धर्माधर्म्मकत्तु त्व केवल प्रध्यादि तीन के ही साधर्म्य हैं।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

प्रशस्तपादभाष्यम्

४७

पारिमाण्डल्यादिस्यः |

पारिमाण्डल्य प्रभृति पदार्थों को छोड़कर और सभी पदार्थों का कारणत्व साधर्म्य है।

न्यायकन्दली

यद्यपि विनाशो वस्तुकाले नास्ति, तथापि प्रमाणान्तरसिद्धसद्भावो भवत्येव विशेषणम्, अनित्यो घट इति प्रत्येतुरेकत्वात् । तथा लोके विनाशि शरीरमध्रुवा विषया इति ।

कारणत्वञ्चान्यत्र पारिमाण्डल्यादिभ्य इति । पारिमाण्डल्यमिति परमाणुपरिमाणम् आदिशब्दाद् द्वयणुकपरिमाणम्, आकाशकालदिगात्मनां विभुत्वमन्त्यशब्दमनः परिमाणं परत्वापरत्वे द्विपृथक्त्व मन्त्यावयविपरिमाणञ्चेत्यादि दशा में विनाश नहीं रहता है । ( उ० ) तथापि जिसकी सत्ता प्रमाण सिद्ध से है, वह भी अवश्य विशेषण ही होता है। साधारण जनों को भी इस प्रकार की स्वारसिक प्रतीतियाँ होती हैं कि शरीर विनाशशील है सभी वस्तु चिरकाल तक रहनेवाली

नहीं हैं । ‘पारिमाण्डल्य’ शब्द का अर्थ है परमाणुओं का परिमाण (पारिमाण्डल्यादि पद में प्रयुक्त ) ‘आदि’ पद से आकाश काल, दिशा और आत्मा इन चार पदार्थों का ‘विभुत्व’ अर्थात् परममहत्वरिमाण अन्तिम शब्द मन का परिमाण तथा उसी का परत्व और अपरत्व, द्विपृथक्त्व, अन्त्यावयवी द्रव्य ( जो अवयवी किसी दूसरे अवयवी का अवयव न हो, जैसे घट ) का परिमाण, ये सभी अभिप्रेत हैं। इनसे भिन्न द्रव्यादि तीन

१. पूर्वपक्षी का आशय है कि विनाश ही अगर अनित्यत्व हो तो ‘घटोऽनित्यः’ इस प्रकार को विशिष्ट प्रमाबुद्धि नहीं होगी, क्योंकि विशिष्ट प्रमा के लिए विशेष्य में विशेषण का रहना आवश्यक है। जब तक घटरूप विशेष्य रहेगा, तब तक उसमें विनाशरूप अनित्यत्व नहीं रहेगा और जब घट विनष्ट हो जाएगा, तब अनित्यत्वरूप विशेषण रहेगा कहाँ ? सुतरम् चूंकि विद्यमान वस्तु और विनाश दोनों परस्पर विरोधी हैं, अतः उनमें विशेष्य विशेषणभाव नहीं हो सकता ।

२. इस समाधान ग्रन्थ का आशय है कि विशेष्यविशेषणभाव के लिए दोनों का एक समय में रहना आवश्यक नहीं है, केवल इतना ही आवश्यक है कि दोनों प्रमाण सिद्ध हों एवं परस्पर सम्बद्ध हों। इसका भी कोई बन्धन नहीं है कि वह सम्बन्ध आधारा घेयभाव का नियामक ही हो । अतः ‘घटो विनष्टः’ इत्यादि विशिष्ट प्रतीति के अनुरोध से घट और विनाश में भी प्रतियोगित्वादि सम्बन्ध की कल्पना करेंगे। अतः कोई अनुपपत्ति नहीं

४८

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ साधर्म्य वैधर्म्य

प्रशस्तपादभाष्यम्

द्रव्याश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः |

नित्य द्रव्यों को छोड़कर और सभी पदार्थों का द्रव्य में आश्रित रहना

साधर्म्य है ।

न्यायकन्दली

ग्राह्यम् । एतानि परित्यज्यापरेषां द्रव्यादीनां त्रयाणां कारणत्वं समवाय्यसम वायिकारणत्वम् । यद्यपि द्रव्यस्य नासमवायिकारणत्वम्, न च समवायिकारणत्वं गुणकर्म्मणोः, तथापि निमित्तकारणविलक्षणतयेदं साधर्म्यमुक्तम् ।

द्रव्याश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्य

इति । नन्वाश्रितत्वं षण्णा मित्युक्तं तेनेदं पुनरुक्तम् ? न पुनरुक्तम् द्रव्योपलक्षितस्याश्रितत्वस्यात्र विवक्षितत्वादिति कश्चिद् । तदयुक्तम्, सामान्यादीनामपि द्रव्योपलक्षितस्या श्रितत्वस्य सम्भवान्नेदं द्रव्यादित्रयसाधर्म्यकथनं स्यात् । तस्मादित्थं व्याख्येयम् । अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति द्रव्यग्रहणमुपलक्षणम्, तद्वृत्तयोऽन्त्या विशेषास्तेऽपि गृह्यन्ते । नित्यद्रव्याणि तद्गतांश्च विशेषान् परित्यज्य द्रव्य एवाश्रितत्वं द्रव्यादीनां त्रयाणां साधम्यं नापरेषामित्यर्थः ।

पदार्थों का ‘कारणत्व’ साधर्म्य है। यहाँ कारणत्व शब्द से समवायिकारणत्व और असमवायिकारणत्व हो इष्ट है। यद्यपि द्रव्यों में असमवायिकारणत्व नहीं है, एवं गुण और कर्म्म में समवायिकारणत्व नहीं है, किन्तु यहाँ ‘क रणत्व’ शब्द से ‘निमित्तकारणभिन्न कारणत्व’ रूप साधर्म्य ही विवक्षित है। (यह साधर्म्य द्रव्यादि तीनों वस्तुओं में समान रूप से है) ।

“द्रव्याश्रितत्व श्वान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः” । ( प्र०) पहिले कह चुके हैं कि आि ( नित्य द्रव्यों को छोड़कर ) छ: पदार्थों का साधर्म्य है। फिर वही बात कहते हैं, अतः इसमें पुनरुक्ति दोष है । ( उ० ) इस दोष का परिहार कोई इस प्रकार करते हैं कि पहिले केवल ‘आश्रितत्व’ साधर्म्य का उल्लेख है, अब ‘द्रव्या-तत्व’ साधर्म्य कहते हैं। दोनों में कुछ अन्तर अवश्य है, अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है। किन्तु यह समाधान ठीक नहीं है, क्योंकि यह द्रव्यादि तीन वस्तुओं के साधर्म्य का प्रकरण है, अतः द्रव्याश्रितत्व रूप प्रकृत साधर्म्य सामान्यादि पदार्थों में अतिप्रसक्त होगा, इसलिए प्रकृत पङ्क्ति की व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिए कि प्रकृत “अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः” इस वाक्य में प्रयुक्त द्रव्य’ पद उपलक्षण है (‘द्रव्याभितत्व’ शब्द का अर्थ है, द्रव्यरूप समवायिकारण से उत्पन्न होना, तदनुसार) नित्य द्रव्य और उनमें रहनेवाले ‘विशेष’ अर्थात् नित्य गुणों को छोड़कर द्रव्यादि तीन वस्तुओं का ( फलतः अनित्य द्रव्य, अनित्य गुण और कम इन तीन वस्तुओं का ) ‘द्रव्याश्रितत्व’ अर्थात् द्रव्यरूप समवायिकारण से उत्पन्न होना साधम्यं है, औरो का नहीं।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

૪९

प्रशस्तपादभाष्यम्

सामान्यादीनां त्रयाणां स्वात्मसत्त्वं बुद्धिलक्षणत्वम कार्य्यत्व मकारणत्वमसामान्य विशेषवत्त्वं नित्यत्वमर्थशब्दानभिधेयत्वश्चेति ।

सामान्य प्रभृति तीन पदार्थों का अर्थात् सामान्य विशेष, और समवाय इन तीन पदार्थों का स्वात्मसत्त्व’ अर्थात् सत्ता जाति के बिना सत्ता, बुद्धि लक्षणत्व, अकार्य्यत्व, अकारणत्व, असामान्यविशेषवत्त्व, नित्यत्व और ‘अर्थ’ शब्द का अभिधेय न होना ये सात साधर्म्य हैं ।

न्यायकन्दली

सम्प्रति सामान्यादीनां साधर्म्यमाह – सामान्यादीनामिति । स्वात्मैव सत्त्वं स्वरूपं यत्सामान्यादीनां तदेव तेषां सत्त्वम्, न सत्तायोगः सत्त्वम् । एतेन सामान्या दीनां त्रयाणां सामान्यरहितत्वं साधर्म्यमुक्तमित्यर्थः । कथमेतत् ? बाधक सद्भावात्, सामान्ये सत्ता नास्ति, अनिष्टप्रसङ्गात् । विशेषेष्वपि सामान्य सद्भावे संशयस्यापि सम्भवात् । निर्णयार्थं विशेषानुसरणेऽप्यनवस्थैव । समवायेऽपि सत्ताभ्युपगमे तद्वृत्त्यर्थं समवायाभ्युपगमादनिष्टापत्तिरेव दूषणम् । गोत्वादिष्वपरजातिमत्त्वेन व्याप्तस्य सत्तासम्बन्धस्य तन्निवृत्तौ निवृत्तिसिद्धिः । • कुतस्तहि सामान्यादिषु सत्सदित्यनुगम: ? स्वरूप सत्त्वसाधर्म्येण सत्ताध्यारो

द्रव्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य कहकर अब ‘सामान्यादीनाम्’ इत्यादि से सामान्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य कहते हैं। अर्थात् सामान्यादि का ‘आत्मा’ अर्थात् स्वरूप ही ‘सत्त्व’ है। (द्रव्यादि तीनों की तरह ) सत्ता जाति का सम्बन्ध उनकी ‘सत्ता’ नहीं है। इससे सत्ता जाति से रहित होना सामान्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य कथित होता है। (प्र०) सामान्यादि में सत्ता क्यों नहीं है ? (उ०) सामान्यादि तीन पदार्थों में सत्ता मानने में यह बाधा है कि इससे ‘अनवस्था’ होगी। विशेषों में भी अगर सामान्य की सत्ता मानें तो वहाँ संशय हो सकता है कि ये विशेष एकजातीय हैं या विभिन्न जातीय ? और तब फिर सभी नित्य द्रव्यों में यह संशय होगा निश्चय करने के लिए अगर और विशेष निश्चयों के पीछे दौड़गे तो अनवस्था होगी। समवाय में अगर सत्ता जाति मानेंगे तो उसके सम्बन्ध के लिये दूसरे समवाय की कल्पना करनी पड़ेगी । इस प्रकार इसमें भी अनवस्था होगी। और भी बात है, जहाँ जहाँ सत्ता जाति रहती है, उन सभी स्थानों में गोत्वादि अपर जातियों में से भी कोई जाति अवश्य ही रहती है। सत्ता और गोत्वादि अपर जातियों की यह व्याप्ति गोप्रभृति वस्तुओं में सिद्ध है। सामान्यादि में कोई भी अपरजाति नहीं है, अतः सत्ता जाति भी उनमें नहीं है । ( प्र०) फिर सामान्यादि में ये सत् हैं इस प्रकार की प्रतीति क्यों होती है ? ( उ०) सामान्यादि में रहनेवाली ‘स्वरूपसत्ता’ और सत्ता जाति इन दोनों के साध्य से सामान्यादि पदार्थों में सत्ता जाति का आरोप

५०

न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ साधर्म्मवैषम्यं

न्यायकन्दली

पात् । र्ताह मिथ्या प्रत्ययोऽयम् ? को नामाह नेति । भिन्नस्वभावेष्वेकानुगमो मिथ्यंव, स्वरूपग्रहणन्तु न मृषा, स्वरूपस्य यथार्थत्वात् । द्रव्यादिष्वपि सत्ता ध्यारोपकृत एवास्तु प्रत्ययानुगम: ? नैवम्, सति मुख्येऽध्यारोपस्यासम्भवात् । न चेयं सामान्यादिष्वेव मुख्या, बाधकसम्भवाद् द्रव्यादिषु च तदभावात् ।

बुद्धिलक्षणत्वमिति । बुद्धिरेव लक्षणं प्रमाणं येषां ते बुद्धिलक्षणाः,

विप्रतिपन्नसामान्यादिसद्भावे बुद्धिरेव लक्षणं नान्यत्, द्रव्यादिसद्भावे त्वन्यदपि तत्कार्यं प्रमाणं स्यादित्यर्थ: । कश्चित् पुनरेवमाह – बुद्ध्या लक्ष्यन्ते प्रतीयन्त इति बुद्धिलक्षणाः । तदयुक्तम्, द्रव्यादेरपि स्वबुद्धिलक्षणत्वान्नेदं वैधर्म्यमुक्तं स्यात् । होता है। इसी आरोप से सामान्यादि पदार्थों में भी एक प्रकार की सत् है इस आकार की प्रतीति होती है । ( प्र० ) फि सामान्यादि में उक्त एक की सत्व की प्रतीति भ्रमरूप है ? ( उ०) कौन कहता है कि भ्रम रूप नहीं है ? भिन्न स्वभाव की वस्तुओं में एक आकार की प्रतीति अवश्य ही भ्रम है। किन्तु उनके स्वरूपों का ज्ञान यथार्थ ही है, क्योंकि वे उनमें ठीक ही हैं। (प्र०) फिर द्रव्यादि तीनों पदार्थों में भी (सामान्यादि की तरह) स्वरूपसत्व के आरोप से सत्ता की एक आकार की प्रतीति को भी मिथ्या क्यों नहीं मान लेते ? ( उ० ) इस लिए कि मुख्य प्रतीति के सम्भव होने पर आरोप मानना अनुचित है। यह भी सम्भव नहीं है कि सामान्यादि में ही सत्त्व को एक आकार की प्रतीति को ही मुख्य मान लें, क्योंकि ऐसा मानने में अनवस्था आ जाती है। द्रव्यादि तीनों पदार्थों में सत्त्व की एक आकार की प्रतीति को मुख्य मानने में इस प्रकार की कोई बाधा नहीं है ।

‘बुद्धिलक्षणत्वम्’, “बुद्धिरेव लक्षणं प्रमाणं येषां ते बुद्धिलक्षणा:” इस व्युत्पत्ति के अनुसार बुद्धि ही जिनका प्रमाण है, वे ही बुद्धिलक्षण कहे जाते हैं। अभिप्राय यह है कि द्रव्यादि के प्रसङ्ग में विरुद्ध मत रखनेवालों को द्रव्यादि के कर्मों से भी समझाया जा सकता है। किन्तु सामान्यादि के प्रसङ्ग में विरुद्धमत रखनेवालों को समझाने के लिए बुद्धि ही एक अवलम्ब है। ( प्र०) किसी सम्प्रदाय के व्यक्ति बुद्धधा लक्ष्यन्ते प्रती यन्ते इति बुद्धिलक्षणा:” इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत बुद्धिलक्षण’ शब्द की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि “जो बुद्धि से ही प्रतीत हों वे ही बुद्धिलक्षण हैं”। ( उ०) किन्तु यह व्याख्या ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार का बुद्धिलक्षणत्व तो द्रव्यादि में भी है, फिर यह ‘बुद्धिलक्षणत्व’ रूप सामान्यादि तीन पदार्थों के साधम्यं को द्रव्यादि पदार्थों का वैघर्म्य कहना सम्भव न होगा।

१. अभिप्राय यह है कि ग्रन्थ के आदि में पदार्थ एवं उनके साधर्म्यवैधयं के निरूपण को प्रतिज्ञा कर चुके हैं। उसके बाद पदार्थ एवं उनके साधर्म्य का विस्तार से निरूपण

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

न्यायकन्दली

५१

अकार्य्यत्वं कारणानपेक्षस्वभावत्वम् तच्च सामान्ये तावद् व्यक्तेः पूर्वमूर्ध्वं व्यक्तिकाले चावस्थितिग्राहकेण कारणाभावोपलब्धिसहकारिणा भूयो दर्शनजसंस्कारानुगृहीतेन प्रत्यक्षेणैव व्याप्तिवद् गृह्यते। समवायस्याप्यावं पूर्वापरसहभावानवक्लृप्तेः, यदि हि पटस्य समवायः पटात् पूर्व सम्भवति, असति

अकार्यत्र शब्द का अर्थ है अपनी ( स्वरूप) सत्ता के लिए कारणों की अपेक्षा न रखना । सामान्यादि के आश्रय द्रव्यादि व्यक्तियों में तीनों कालों में हो सामान्य की सत्ता के ज्ञापक एवं सामान्यादि के कारणों के अभावज्ञान का सहायक तथा बार बार के देखने से उत्पन्न संस्कार के द्वारा विशेष बलप्राप्त प्रत्यक्ष के द्वारा ही व्याप्ति की तरह इस अकार्यत्व का ज्ञ न होता है। समवाय में भी अकार्यत्व है ही, क्योंकि समवाय को कार्य मानने की कोई रीति उपपन्न नहीं होती है। समवाय को अगर कार्य मानें तो फिर उसकी

किया है । वैधर्म्यनिरूपण के लिए साधर्म्यनिरूपण के अन्त में लिखा है कि ‘एवं सर्वत्र साधर्म्य विपर्ययाच्च वैधर्म्यम्” अर्थात् इस प्रकार ये साधर्म्य हैं और ( ये ही साधम्यं ) उनसे भिन्न वस्तुओं में न रहने के कारण उनके बंधर्म्य हैं। तदनुसार “सामान्या दोनाम्” इत्यादि प्रकृत पक्ति का एक यह भी अर्थ मानना पड़ेगा कि ‘ये सभी स्वात्म सत्यादि तोन पदार्थों से भिन्न पदार्थों के बंधम्यं भी हैं। अगर बुद्धिलक्षणत्व शब्द ऐसा करें जिसके अनुसार यह द्रव्यादि में भी रह सके तो फिर प्रकृत पङ्क्ति से उक्त वैधर्म्य का आक्षेप सम्भव न हो सकेगा।

१. अभिप्राय यह है कि एक घट व्यक्ति की उत्पत्ति के पहिले भी उससे पहिले के घट में घटत्व की प्रतीति होती है। एवं एक घट व्यक्ति के नष्ट हो जानेपर भी दूसरे अविनष्ट घट में घटत्व की प्रतीति होती है। वर्तमान घट में घटत्व की प्रतीति में तो कोई विवाद ही नहीं है, अतः यह समझते हैं कि व्यक्ति के तीनों कालों में ही जाति की सत्ता रहती है। ऐसी स्थिति में सामान्य को अगर किसी कारण का कार्य माने तो वह कारण उसके आश्रयोभूत व्यक्तियों के कारणों में से ही होगा या उसके सदृश ही कोई दूसरा होगा, किन्तु किसी भी प्रकार से सामान्य में कार्यत्व मान लेने से उसकी उक्त बँकालिक प्रतीति की उपपत्ति नहीं होगी, अतः उक्त त्रैकालिक प्रतीति के कारणभूत प्रमाणों से ही यह भी समझते हैं कि सामान्यादि का कोई कारण नहीं है, अत: जिस प्रकार घूम और वह्नि के सामानाधिकरण्य के भूयोदर्शनजनित संस्कार से युक्त पुरुष को धूम को देखते हो उसको व्याप्ति भी दीखती है, उसी प्रकार व्यक्तियों में सामान्य का प्रत्यक्ष होते ही उसी प्रत्यक्ष प्रमाण से उसमें रहनेवाले अकार्यत्व का भी ज्ञान हो जाता है।

५२

न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाव्यम्

[ साधर्म्यवैधर्म्य

न्यायकन्दली

सम्बन्धिनि कस्यासौ सम्बन्धः स्याद् | अथ पटेन सहोत्पद्यते, तदा पटस्याना धारत्वं प्राप्नोति । अथ पश्चाद्भवति, तथापि पटस्यानाधारत्वमेव, न च कार्यत्व मनाधारं युक्तम्, तस्मादकृतक: समवायः । विशेषाणाञ्चाकार्य्यत्वं वस्तुत्वे सति द्रव्यगुणकर्मान्यत्वात् सामान्यसमवायवत् सिद्धम् ।

अकारणत्वं समवाय्यसमवायिकारणत्वाभावः, न तु निमित्तकारण

त्वप्रतिषेधः, बुद्धिनिमित्तत्वाभ्युपगमाद् । असामान्य विशेषवत्त्वम् अपर जातिरहितत्वमित्यर्थः । सामान्येषु सामान्यन्नाम नापरं सामान्यमस्ति, अत्रापि सामान्यप्राप्त्याऽनवस्थानात् । विशेषसमवाययोस्तु सामान्याभावे कथित एव निम्नलिखित तीन ही गति हो सकती है कि (१) समवाय अपने पटादिरूप प्रतियोगी से पूर्व ही उत्पन्न हो, या (२) अपने प्रतियोगी से पीछे उत्पन्न हो (३) अथवा प्रतियोगी के साथ ही उत्पन्न हो । किन्तु इनमें से कोई भी प्रकार सम्भव नहीं है, (१) क्योंकि सम्बन्ध बिना प्रतियोगी के नहीं होता है। अगर समवाय की उत्पत्ति से पूर्व पट की सत्ता नहीं रहेगी तो फिर पट से पूर्व उत्पन्न वह समवाय किसका सम्बन्ध होगा ? अतः समवाय अपने पटादि प्रतियोगियों के पहिले उत्पन्न नहीं हो सकता । (२) समवाय अपने पटादि प्रतियोगियों के साथ साथ भी उत्पन्न नहीं हो सकता है, क्योंकि इससे पटादि कार्य समवाय के आधार ही नहीं हो सकते, क्योंकि आधार को आधेय से पूर्व रहना आव श्यक है। सुतरामु एक ही क्षण में उत्पन्न दो वस्तुओं में आधाराधेयभाव असम्भव है। (३) समवाय की उत्पत्ति अगर पटादि कार्यों की उत्पत्ति के बाद मानें फिर भी पटादि की अनाधार उत्पत्ति की आपत्ति रहेगी, क्योंकि पट की उत्पत्ति के समय अगर समवाय ही नहीं है तो फिर तन्तु में किस सम्बन्ध से पट की उत्पत्ति होगी ? अतः समवाय अकार्य ही है। वह कारणों से उत्पन्न नहीं होता है। विशेष भी कार्य नहीं है, क्योंकि द्रव्य, गुण और कर्म्म इन तीनों से भिन्न होने पर भी वह भाव पदार्थ है, जैसे कि सामान्य और समवाय ।

यहाँ अकारणत्व’ शब्द से समवायिकारणत्व और असमवायिकारणत्व इन दोनों का ही निषेध इष्ट है, निमित्तकारणत्व का नहीं, क्योंकि सामान्यादि में भी बुद्धि की निमित्तकारणता स्वीकृत है। ‘असामान्यविशेषवत्त्व’ शब्द का अर्थ है अपरजातियों का न रहना। सामान्यों में सामान्यत्व नाम का कोई अपर सामान्य नहीं है, क्योंकि इससे अनवस्था होगी। समवायों और विशेषों में सामान्य के न रहने की युक्ति दिखला

१. जातियों में जातित्व नाम का सामान्य मानने में अनवस्था इस प्रकार होती है कि द्रव्यत्व गुणत्वादि जितने सामान्य पहिले से स्वीकृत हैं उन सभी सामान्यों में जातित्व या सामान्यत्व नाम का एक और सामान्य मानना पड़ेगा, किन्तु यह

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

५३

न्यायकन्दली

न्यायः । कथं तहि सामान्येषु प्रत्ययानुवृत्ति: सामान्यं सामान्यमिति ? अनेक व्यक्तिसमवायोपाधिवशाद् विशेषेष्वप्येकशब्दप्रवृत्तिः, अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धि जनकत्वस्य सर्वत्र सम्भवात् । नित्यत्वं विनाशरहितत्वम्, तदपि सामान्यस्य व्यक्त्युत्पादविनाशयोरवस्थितिग्राहिणा भूयो भूयः प्रवृत्तेन निरुपाधिप्रत्यक्षेण व्याप्तिवन्निश्चीयते । मीयते । समवायस्य तु सर्वत्र कार्योपलम्भादकृतकत्वाच्चानु अर्थशब्दानभिधेयत्वञ्चेति । स्वसमयार्थशब्दानभिधेयत्वं चैतेषां साधर्म्यम् । चः समुच्चये ।

चुके हैं। ( प्र० ) फिर सभी सामान्यों में ‘ये सामान्य हैं’ इस एक आकार की प्रतीति ( अनुवृत्तिप्रत्यय ) क्यों होती हैं ? ( उ० ) सभी सामान्य अनेक व्यक्तियों में रहते हैं, अतः यह “अनेक व्यक्तियों में रहना या अनेक व्यक्तिवृत्तित्व” रूप एक उपाधि सभी सामान्यों में है। इसी अनेक व्यक्तिवृत्तित्व-रूप उपाधि के कारण सभी सामान्यों में उक्त एक आकार की प्रतीति होती है। सभी विशेषों में भी ‘ये विशेष हैं’ इस एक आकार की प्रतीति होती है। इसके लिए भी विशेषत्व नाम के सामान्य का मानना आवश्यक नहीं है। क्योंकि सभी विशेषों में जो अपने अपने आश्रय को विभिन्न पदार्थों से विलक्षण रूप से समझाने की क्षमता है, उसी क्षमता रूप एक उपाधि के बल से ही उक्त एकाकार की प्रतीति को उपपत्ति हो जाएगी। ‘नित्यत्व’ शब्द का अर्थ है विनाश रहित होना । यह (नित्यत्व) भी व्यक्तियों की उत्पत्ति से पहिले और उनके नाश के बाद भी सामान्यों के वर्त्तमानता का ज्ञापक उनमें बार-बार प्रवृत्त प्रत्यक्ष प्रमाण से ही व्याप्ति की तरह ज्ञात होता है। समवाय से सभी स्थलों में ( सभी कालों में ) कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है, एवं समवाय किसी भी कारण से उत्पन्न हुआ नहीं दीखता है। इन्हीं दोनों हेतुओं से समवाय में नित्यत्व का अनुमान होता है । ‘अर्थशब्दानभिधेयत्वस्व’ अर्थात् वैशेषिक शास्त्र में बिना विशेषण के केवल ‘अर्थ’ शब्द से द्रव्य, गुण, कर्म्म इन तीनों के ही समकने का एक सङ्केत है। तदनुसार उक्त ‘अर्थ’ शब्द का अभिधावृत्ति द्वारा न समझा जाना भी सामान्यादि तोनों का साधर्म्य है । ‘च’ शब्द समुच्चय अर्थ का बोधक है।

‘सामान्यत्व’ भी सामान्य हो होगा। यह सामान्यत्व – रूप सामान्य-द्रव्यत्वादि पहिले से स्वीकृत सामान्यों में तो रहेगा, किन्तु स्वाभिन्न सामान्यत्व-रूप सामान्य में न रहेगा, क्योंकि एक वस्तु में आधाराधेयभाव असम्भव है, अतः पूर्व स्वीकृत द्रव्यत्वादि सामान्य एवं अधुना स्वीकृत सामान्यस्व – रूप सामान्य एतत्साधारण एक दूसरे सामान्यत्व की कल्पना करनी पड़ेगी। इस प्रकार अनन्त सामान्यत्वों को कभी समाप्त न होनेवाली कल्पना की धारा चलेगी। यही अनवस्था है।

५४

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ साधर्म्यवैधर्म्य

प्रशस्तपादभाष्यम्

पृथिव्यादीनां नवानामपि द्रव्यत्वयोग: गुणवत्वं कार्यकारणा विरोधित्व मन्त्य विशेषवश्वम |

स्वात्मन्यारम्भकत्वं

द्रव्यत्व जाति का सम्बन्ध, अपने में समवाय सम्बन्ध से कार्य को उत्पन्न करना, गुणवत्त्व, अपने कार्यों से या कारणों से विनष्ट न होना एवं अन्त्यविशेष ये पाँच साधर्म्य पृथिवी प्रभृति नौ द्रव्यों के हैं।

न्यायकन्दली

इदानीं द्रव्याणामेव साधर्म्य निरूपयति पृथिव्यादीनामिति । पृथिव्यादीनामेव द्रव्यत्वेन सामान्येन योगः सम्बन्धः । स कियतामत आह नवानामपीति | अपिशब्दोऽभिव्याप्त्यर्थः । एतेन द्रव्यपदार्थस्येतरेभ्यो भेद लक्षणमुक्तम् । द्रव्यशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तश्व चिन्तितम् ।

अत्र कश्चित् पश्चपदार्थ धर्मत्वात् चोदयति-द्रव्यत्वयोगो द्रव्यत्वसमवायः, द्रव्यलक्षणमिति | अपरः तथापि द्रव्यत्वोपलक्षणभेदाद् स च समाधत्ते- यद्यपि द्रव्यस्य लक्षणम्, कथं सर्वत्राभिन्नः समवायः, दृष्टो हि कल्पितभेदस्याप्या काशस्य श्रोत्रभावेनार्थक्रियाभेद इति । द्वयमप्ये

‘पृथिव्यादीनाम्’ इत्यादि सन्दर्भ से अब केवल नौ द्रव्यों का ही साधर्म्य कहते हैं । पृथिवी प्रभृति नो द्रव्यों का ही द्रव्यत्व जाति के साथ योग’ अर्थात् सम्बन्ध है। द्रव्यत्व जाति का यह सम्बन्ध पृथिव्यादि कितने द्रव्यों के साथ है ? इसी प्रश्न का उत्तर ‘नवानाम्’ इस पद से दिया है । ‘नवानामपि’ इस वाक्य के ‘अपि’ शब्द का अर्थ है ( सभी द्रव्यों में सम्बन्ध रूप ) ‘अभिव्याप्ति’ । अर्थात् पृथिव्यादि नौ द्रव्यों में से किसी को न छोड़कर सभी द्रव्यों में रहना। इस अभिव्याप्ति से द्रव्य पदार्थ को गुणादि पदार्थों से भिन्न समझानेवाला स्वरूप कहा गया है। इससे ‘द्रव्य’ शब्द का ‘प्रवृत्तिनिमित्त’ भी निद्दिष्ट हो जाता है |

इस प्रसङ्ग में कोई आक्षेप करते हैं कि प्रकृत ‘द्रव्यत्वयोग’ शब्द का अर्थ है द्रव्यत्व का समवाय, वह द्रव्य से विशेष पर्यन्त पाँचों पदार्थों में समान रूप से है। फिर यह ‘द्रव्यत्वयोग’ पृथिव्यादि नौ पदार्थों का ही ‘साधर्म्य’ कैसे है ? इस आक्षेप का समाधान कोई इस प्रकार कहते हैं कि यह ठीक है कि ( समवाय एक होने के कारण ) सभी स्थलों में एक ही है, किन्तु द्रव्यत्व रूप उपलक्षण ( प्रतियोगी ) के भेद से वह केवल द्रव्यों का ही लक्षण हो सकता है। एक ही वस्तु में उपलक्षण के भेद से विभिन्न कार्यों के सम्पादन की क्षमता देखी जाती है, जैसे एक ही आकाश के सर्वत्र रहने पर भी कर्णशष्कुली रूप उपाधि से श्रोत्रभावापन्न आकाश से ही शब्दश्रवण रूप काय्यं होता है। किन्तु उक्त आक्षेप और उसका यह समाधान दोनों ही असङ्गत हैं, क्योंकि जिस प्रकार आकाश ही श्रोत्र है

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

५५

न्यायकन्दली

तदसाधीयः, यथाकाशं श्रोत्रं नैवं योगो द्रव्यस्य लक्षणम्, किन्तु द्रव्य त्वमेव, तत्त्वसम्बद्धं लक्षणं न स्यादिति योगसङ्कीर्त्तनं लिङ्गस्य धर्मिण्यस्तित्वकथनम् । तथा चैवं प्रयोग:– पृथिव्यादिकमितरेभ्यो भिद्यते द्रव्यत्वात् येषामितरेभ्यो भेदो नास्ति तेषां द्रव्यत्वमपि नास्ति, यथा रूपादीना मिति । तस्मादसच्चोद्यमसदुत्तरश्च ।

अन्यदपि द्रव्याणां साधर्म्यमाह- स्वात्मन्यारम्भकत्वमिति, स्वसमवेत कार्य्यजनकत्वमित्यर्थः । गुणवत्त्वं गुणैः सह सम्बन्धः । एतदप्युभयं गुणादिभ्यो द्रव्याणां वैधर्म्यमन्यत्रासम्भवात् । कार्यकारणाविरोधित्वम् । गुणो हि क्वचित् कार्येण विनाश्यते, यथा आद्यः शब्दो द्वितीयशब्देन । क्वचित् कारणेन विनाश्यते, यथा अन्त्यः शब्द उपान्त्यशब्देन । कर्मापि कार्येण विनाश्यते, यथोत्तरसंयोगेन । द्रव्याणि तुन कार्येण विनाश्यन्ते नापि कारणेनेति कार्यकारणाविरोधोनि । नित्यानां कारणविनाशयोरभावादेव कारणेनाविनाशः,

उसी प्रकार प्रकृत में ‘योग’ अर्थात् द्रव्यत्व का समवाय रूप सम्बन्ध ही द्रव्यों का साधयं या लक्षण नहीं है, किन्तु द्रव्यत्व ही द्रव्यों का लक्षण है। यह द्रव्यत्व बिना किसी असाधारण सम्बन्ध के लक्षण नहीं हो सकता, अतः ‘योग’ शब्द का उल्लेख है। अर्थात् इस ‘योग’ शब्द से (इतरभंदानुमिति के पक्ष रूप) धर्मी में (उस अनुमिति के लक्षण रूप ) हेतु का अस्तित्व दिखलाया गया है। इससे अनुमान का यह रूप फलित होता है कि पृथिव्यादि नौ पदार्थ गृणादि और पदार्थों से भिन्न हैं, क्योंकि इनमें द्रव्यत्व है। जिनमें यह इतरभेद नहीं है, उनमें द्रव्यत्व भी नहीं है। अतः उक्त आक्षेप और उसका समाधान दोनों ही अशुद्ध हैं।

‘सात्मन्यारम्भकत्वम्’ इत्यादि से द्रव्यों का और भी साधर्म्य कहते हैं, अर्थात् अपने में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले कार्यों का कारणत्व भी द्रव्यों का साधर्म्य है । ‘गुणवत्त्व ‘ शब्द का अर्थ है गुण के साथ सम्बन्ध, ये दोनों ही गुणादि पदार्थों से द्रव्यों में असाधारण्य के सम्पादक हैं क्योंकि द्रश्य से भिन्न किसी भी पदार्थ में इन दोनों की सम्भावना नहीं है। “कायंकारणाविरोधियम्” गुण कहीं अपने कार्य से ही नष्ट होता है, जैसे कि पहिला शब्द दूसरे शब्द से, कहीं वह अपने कारण से भी नष्ट होता है, जैसे कि अन्तिम शब्द अपने अव्यवहितपूर्व के शब्द से किया भी अपने कार्य से नष्ट होती है, जैसे कि उत्तर देश के संयोग से; द्रव्य न अपने कार्यों से नष्ट होते हैं, न कारणों से ही, अतः द्रव्य कार्य और कारण दोनों के अविरोधी हैं। नित्य द्रव्यों का न कोई कारण हैं, न उनका विनाश ही होता है, अतः उनका विनाश कार्य और कारण किसी से भी नहीं होता है। अनित्य द्रव्यों का विनाश भी होता है, एवं उनके कारण भी होते हैं, किन्तु उनका विनाश अपने कारणों

५६

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ साधम्यं वैधम्यं

प्रशस्तपादभाष्यम्

अनाश्रितत्वनित्यत्वे चान्यत्रावय विद्रव्येभ्यः ।

पृथिव्युदकज्वलनपवनात्ममनसामनेकत्वापर जातिमत्वे । क्षितिजलज्योतिरनिलमनसां क्रियावश्व मूर्त्तत्व परत्वापरत्व – अवयवी द्रव्यों को छोड़कर और सभी द्रव्यों के अनाश्रितत्व और नित्यत्व

ये दो साधर्म्य हैं ।

पृथिवी, जल, तेज, वायु, आत्मा और मन इन छः द्रव्यों के अनेकत्व और अपरजातिमत्त्व ये दो साधर्म्य हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, और मन इन पाँच द्रव्यों के क्रिया, मूर्त्तत्व,

न्यायकन्दली

अनित्यद्रव्याणां कारणविनाशयोः सम्भवेऽपि कारणेन न विनाशः, किन्त्वन्येनेति विवेकः । तथा अन्त्यविशेषवत्त्वमन्त्यविशेषयो गित्वमित्यर्थः ।

अनाश्रितत्वं क्वचिदप्यसमवेतत्वम्, नित्यत्वं विनाशरहितत्वव

द्रव्याणां साधर्म्यम् । तत् कि सर्वेषां साधर्म्यमित्यत आह – अवयविद्रव्येभ्योऽन्यत्रेति । अवयविद्रव्याणि परित्यज्यान्त्यविशेषवत्त्वाना श्रितत्व नित्यत्वान्यन्यत्र सन्तीत्यर्थः । न केवलं पूर्वोक्ताः पृथिव्यादीनां धर्म्माः, किन्त्वनाश्रितत्वनित्यत्वे चेति चार्थः ।

पृथिव्यादीनां द्रव्याणामेव परस्परसाधम्र्यं वैधर्म्यश्व प्रतिपाद यन्नाह — पृथिव्युदकज्वलनपवनात्ममनसामिति । अनेकत्वं प्रत्येकं व्यक्तिभेदः । अपरजातिमत्त्वमिति पृथिवीत्वादिजातिसम्बन्धित्वम् । से नहीं होता है, अन्य वस्तुओं से होता है। इसी प्रकार ‘अन्त्यविशेष’ शब्द का अर्थ है

अन्त्यविशेष का सम्बन्ध |

कभी भी समवाय सम्बन्ध से न रहना ही ‘अनाभितत्व’ शब्द का अर्थ है । ‘नित्यत्व’ शब्द का अर्थ है नाश को प्राप्त न होना, अनाश्रितत्व और नित्यत्व ये दोनों ही द्रव्य के साधर्म्यं हैं। ये दोनों क्या सभी द्रव्यों के साधर्म्य हैं ? इसी प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि “अवयविद्रव्येभ्योऽन्यत्र ” अर्थात् अवयविद्रव्यों को छोड़कर और सभी द्रव्यों में अन्त्य विशेष, अना तित्व और अनित्यत्व ये तीनों रहते हैं। ‘च’ शब्द से यह अभिप्रेत है कि पृथिवी प्रभृति द्रव्यों के पहिले कहे हुए साधर्म्य ही नहीं है, किन्तु प्रकृत अनातित्व और नित्यत्व भी उनके साधर्म्य हैं।

पृथिव्यादि द्रव्यों में ही परस्पर साधम्यं और वैधर्म्य का निरूपण करते हुए “पृथिव्युदकज्वलनमन साम्” इत्यादि सन्दर्भ कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में परस्पर भेद ही ‘अनेकत्व’ शब्द का अर्थ है । ‘अपरजातिमत्त्व’ शब्द से पृथिवीत्त्वादि जातियों की अधिकरणता अभिप्रेत है ।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

५७

प्रशस्तपादभाष्यम्

वेगवश्वानि |

परत्व, अपरत्व और वेगवत्त्व ये पाँच साधर्म्य हैं ।

न्यायकन्दली

क्षितिजलज्योतिरनिलमनसां क्रियावत्त्वमूर्त्तत्व परत्वापरत्ववेगवत्त्वा नीति | क्रियावत्त्वमुत्क्षेपणादिक्रियायोगः | मूर्त्तत्वमवच्छिन्न परिमाणयोगित्वम् । परत्वापरत्ववेगवत्वानि परत्वापरत्ववेगसमवायः ।

संयुक्त संयोगाल्पीयस्त्वभूयस्त्वयोरेद परापरव्यवहारहेतुत्वात् परत्वापरत्वे नस्त इति केचित्, न, भिन्नदिक्सम्बन्धिनोः सत्यपि संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्व भूयस्त्वसद्भावे सत्यपि च द्रष्टुः शरीरापेक्षया सन्निकृष्ट विप्रकृष्टबुद्धयोरुत्पादे

किया, मूर्त्तत्व, परत्व, अपरत्व, और वेग ये पाँच पृथिवी, जल, तेज, वायु और

मन इन पाँच द्रव्यों के साधर्म्य हैं। क्रियावत्व’ शब्द का अर्थ है उत्क्षेपणादि क्रियाओं

का सम्बन्ध मूर्त्तत्व शब्द का अर्थ है किसी अल्प परिमाण का सम्बन्ध परत्व,

अपरत्व और वेग इन तीनों का समवाय ही परत्वापरत्ववेगवत्व’ शब्द का अर्थ है । ( प्र ० ) कुछ आचार्यों का कहना है कि परत्व और अपरत्व नाम के स्वतन्त्र गुण नहीं हैं । पाटलिपुत्र से काशौ की अपेक्षा प्रयाग ‘पर’ (दूर) है, एवं पाटलिपुत्र से प्रयाग की अपेक्षा काशौ ‘अपर’ (समीप) है, इसी प्रकार की प्रतीतियों से तो दशिक परत्व और अपरत्न स्वीकार किये जाते हैं। किन्तु यह ‘परत्व’ और ‘अपरत्व’ दूरत्व और समीपत्व को छोड़कर और कुछ नहीं है। एवं परत्व और अपरत्व इन प्रतीतियों से भी स्वीकार किये जाते हैं कि देवदत्त यज्ञदत्त से ‘पर’ है, एवं यज्ञदत्त दे दत्त से ‘अपर’ है, यह (कालकृत ) परत्व और अपरत्व ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व के ही दूसरे नाम हैं। किन्तु इन व्यवहारों के लिए परत्व और अपरत्व नाम के स्वतन्त्र गुणों की कल्पना व्यर्थ है, क्योंकि दूरत्व और समीपत्व रूप परत्व और अपरत्व के व्यवहार का नियामक देश के साथ संयोग की अधिकता और न्यूनता ही है। यह स्वीकार करना हो होगा कि पाटलिपुत्र से काशी में जितने दिग्देशों का सम्बन्ध है उससे प्रयाग में अधिक है । एवं पाटलिपुत्र से प्रयाग में जितने दिग्देशों का संयोग है उससे काशी में अल्प है। इसी प्रकार ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व रूप परत्व एवं अपरत्व का व्यवहार भी सूर्य की अधिक क्रिया से युक्त काल के सम्बन्ध और सूर्य की अल्प क्रिया से युक्त काल के सम्बन्ध से ही होता है। सुतराम् सूर्य क्रियाओं अधिकता और अल्पता से हो (कालिक) परत्वापरत्व के व्यवहार की उपपत्ति होगी। इन प्रतीतियों के लिए परत्व ओर अपरत्व नाम के स्वतन्त्र गुण की कल्पना आवश्यक नहीं है । ( उ०) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार से तो परस्पर विरुद्ध दो दिशाओं ८

५८

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपाद भाष्यम्

[ साधम्र्म्यवैधयं

प्रशस्तपाद्भाष्यम्

सर्वगतत्वं

आकाशकालदिगात्मनां

परममहत्त्वं

सर्व संयोगि

आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन चार द्रव्यों के सर्वगतत्व,

परममहत्त्व, और सर्वसंयोगि समानदेशत्व ( सभी संयोगी द्रव्यों का समान रूप से

न्यायकन्दली

परापरप्रत्ययाभावात् । एकस्यां दिश्यवस्थितयोः पिण्डयोस्तथा प्रत्यय इति चेत् ? अस्ति तहि संयोगाल्पीयस्त्वभूयस्त्वाभ्यां विषयान्तरम्, विषयवैलक्षण्य मन्तरेण विलक्षणाया बुद्धेरनुत्पादात् । वेगोऽपि गुणान्तरम्, न क्रियासन्ततिमात्रम्, मन्दगतौ वेगप्रतीत्यभावात् । क्रियाक्षणानामाशूत्पादनिमित्तो वेगव्यवहार इति चेत् ? न, अलातचक्रादिषु क्रियाक्षणानां निरन्तरोत्पादव्ययवतां प्रत्येकमन्तरा ग्रहणेनाशूत्पादस्य प्रत्यक्षणाप्रतीतेः, वेगप्रत्ययस्य च भावात् । व्यक्ता च लोके क्रियावेगयोर्भेदावगतिः, वेगेन गच्छतीति प्रतीतेः ।

आकाशकालदिगात्मनां सर्वगतत्वमित्यादि । सर्वशब्देनात्र प्रकृतापेक्ष यानन्तरोक्तानि मूर्त्तद्रव्याणि परामृश्यन्ते । सर्वगतत्वं सर्वतः सह संयोग में विद्यमान वस्तुओं में भी परत्व और अपरत्व का व्यवहार होना चाहिए, किन्तु देखने वाले के शरीर से उनमें सामीप्य की बुद्धि होने पर भी (विरुद्ध) दिशाओं में अवस्थित उन दोनों वस्तुओं में परस्पर की अपेक्षा परत्व या अपरत्व की बुद्धि नहीं होती है। (प्र०) अगर इसीमें इतना बढ़ा दें कि समान दिशा के देशों के संयोग के अल्पश्व और अधिकत्व ही ( अपरत्व एवं परत्व) प्रतीतियों के नियामक हैं ? ( उ०) तो भी परत्व और अपरत्व नाम का स्वतन्त्र गुण मानना ही पड़ेगा, क्योंकि विषयों में अन्तर हुए बिना प्रतीतियों में अन्तर नहीं हो सकता। वेग भी स्वतन्त्र गुण है, क्रियाओं का समूह नहीं, क्योंकि मन्द गतिवाली वस्तुओं में वेग की प्रतीति नहीं होती हैं । ( प्र ० ) क्रिया के कारणीभूत क्षणों का यह स्वभाव है कि वे अत्यन्त शीघ्र विनष्ट होते हैं। उनकी इस अत्यन्त शीघ्र विनाशशीलता से ही वेग का व्यवहार होता है ( अतः क्रियाओं का समूह ही वेग है, कोई स्वतन्त्र गुण नहीं) । ( उ०) चूंकि अलावचक्रादि में होनेवाली क्रियाओं के कारणभूत क्षणों का बराबर उत्पाद और विनाश होता रहता है, किन्तु उत्पत्ति और विनाश की अत्यन्त शीघ्रता के कारण उन दोनों के बीच के समय गृहीत नहीं हो पाते, अत: उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है, किन्तु अलातचक्रादि में भी वेग की प्रतीति तो होती ही है। किया और वेग की विभिन्न रीति से प्रतीति सर्वजनसिद्ध है । ‘यह वैग से जा रहा है इस आकार की वेग की प्रतीति होती है। (क्रियाओं की प्रतीति का यह आकार नहीं है) ।

प्रकृत भाष्य के ‘सर्वगतत्व’ पद में प्रयुक्त ‘सर्व’ शब्द से प्रकृत आकाशादि से ठीक पहिले कहे हुए सभी मूतं द्रव्यों को समझना चाहिए। आकाशादि का सभी

५९

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहित म्

प्रशस्तपादभाष्यम्

समानदेशत्वञ्च |

पञ्चानामपि

भूतत्वेन्द्रिय प्रकृतित्ववाद्यै

कैकेन्द्रियग्राह्य विशेषगुणवत्वानि | आधार होना ) ये तीन साधर्म्य हैं ।

पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच द्रव्यों के भूतत्व, इन्द्रियप्रकृतित्व और एक एक बाह्येन्द्रिय से गृहीत होनेवाले विशेष गुण ये तीन

साधर्म्य हैं ।

न्यायकन्दली

आकाशादीनाम्, न तु सर्वत्र गमनम् तेषां निष्क्रियत्वात् । परममहत्त्वमियत्तान वच्छिन्न परिमाणयोगित्वम् । सर्वसंयोगिसमानदेशत्वं सर्वेषां संयोगिनां मूर्त्त द्रव्याणामाकाशः समानो देश एक प्राधार इत्यर्थः । एवं दिगादिष्वपि व्याख्येयम् । यद्यप्याकाशादिकं सर्वेषां संयोगिनामाधारो न भवति, आधारभावेनानव स्थानात्, तथापि सर्वसंयोगाधारत्वात् सर्वसंयोगिनामाधार इत्युच्यते, उपचारात् । अत एव सर्वगतत्वमित्यनेनापुनरुक्तता । तत्र हि सर्वैः सह संयोगोऽस्तीत्युक्तम् । इह तु सर्वेषामाधार इत्युच्यते ।

पृथिव्यादीनामाकाशान्तानामितरवैधर्म्येण साधर्म्य कथयति

पृथिव्यादीनामिति । भूतत्वं भूतशब्दवाच्यत्वम् । एकनिमित्तमन्त रेणानेकेषु मूत्तं द्रव्यों के साथ संयोग ही सवंगतत्व है, आकाशादि का सभी मूर्त द्रव्यों में जाना नहीं, क्योंकि वे सभी क्रियाशून्य हैं। ‘परममहत्त्व’ शब्द का अर्थ है इयत्ता से रहित परिमाण का ( सबसे बड़े परिमाण का) सम्बन्ध | ‘सर्वसंयोगिसमानदेशत्व’ अर्थात् आकाश संयोग से युक्त सभी मूतं द्रव्यों का एक आधार है। इसी प्रकार दिशा में भी व्याख्या करनी चाहिये । यद्यपि आका शादि संयोग से युक्त पदार्थों का आधार नहीं है, किन्तु उनके सभी संयोगों का आधार है, अतः उनमें ‘सर्वाधार’ शब्द का लाक्षणिक प्रयोग होता है। अतएव सर्वगतत्व’ के बाद ‘सर्वसंयोगिसमानदेशत्व’ के कथन से पुनरुक्ति की आपत्ति नहीं होती है, क्योंकि ‘सर्वगतत्व’ शब्द से आकाशादि में सभी मूतं द्रव्यों का संयोग प्रतिपादित होता है और ‘सर्वसंयोगि समानदेशत्वं’ शब्द से लक्षणा वृत्ति के द्वारा उनमें सर्वाधारत्व का प्रतिपादन होता है।

पृथिवी से लेकर आकाश पर्यन्त पाँच द्रव्यों का साधम्यं ओरों से असाधारण्य दिखलाते हुए कहते हैं। ‘भूत’ शब्द का अर्थ है ‘भूत’ शब्द से अभिषावृत्ति के द्वारा कहा जाना । यद्यपि पृथिवी प्रभृति पाँच द्रव्यों में सभी को समझाने के लिए एक शब्द की प्रवृत्ति का नियामक कोई एक धर्म नहीं है, किन्तु तब भी ‘अक्ष’ शब्द

६०

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्त पादभाष्यम्

[ साधयंवैधयं

न्यायकन्दली

पृथिव्या दिष्वेकशब्दप्रवृत्तिरक्षशब्दवत् यथा देवनत्वेन्द्रियत्वबिभीतकत्वसामान्य त्रययोगाद्देवना विष्वक्षशब्दः सङ्केतितः, पृथिवीत्वादिसामान्यवशात् तथा पृथिव्यादिषु चतुर्षु भूतशब्दः सङ्केतितः । आकाशे तु व्यक्तिनिमित्त एवं भूतं भूतमिति तच्छब्दानुविद्धः प्रत्ययस्तच्छब्दवाच्यतोपाधिकृतः, यथा देवनादिष्वेकोऽक्ष इति प्रत्ययः ।

इन्द्रिय प्रकृतित्वमिन्द्रियस्वभावत्वम् । न भूतस्वभावानीन्द्रियाणि, अप्राप्यका रित्वात्, प्राप्यकारित्वं हि भौतिको धर्मो यथा प्रदीपस्येति केचित् । तदयुक्तम्, व्यवहितानुपलब्धः, यदीन्द्रियमप्राप्यकारि कुड्यादिव्यवहितमप्यर्थं गृह्णीयादप्राप्तेर विशेषात् । योग्यताभावाद् व्यवहितार्थाग्रहणमिति चेत् ? इन्द्रियस्य तावद् योग्यता विषयग्रहणसामर्थ्य मस्त्येव तदानीमव्यवहितार्थग्रहणात्, विषयस्यापि योग्यता

की तरह ‘भूत’ शब्द की प्रवृत्ति उनमें होती है। अर्थात् जैसे देवनत्व ( द्यूतत्व) इन्द्रियत्व और विमीतकत्व इन तीन सामान्य के सम्बन्ध से जूये प्रभृति में ‘अक्ष’ शब्द की प्रवृत्ति होती है, वैसे ही पृथिवीत्यादि चारों जातियों से पृथिवी जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों को समझाने के लिए ‘भूत’ शब्द प्रवृत्त होता है। आकाश में आकाश रूप व्यक्ति मूलक ‘यह भूत है’ इत्यादि ‘भूत’ शब्दमूलिका प्रतीति भूतशब्दबोध्यत्व रूप उपाधि से होती है। जैसे कि एक ही ‘अक्ष’ शब्द देवनादि सभी अर्थों को समझाने के लिए प्रवृत्त होता है।

‘इन्द्रिय प्रकृतित्व’ शब्द का अर्थ है इन्द्रियस्वभावत्व । यहाँ कोई शङ्का उठाते हैं कि ( प्र०) भूत इन्द्रियों की प्रकृति ( समवायिकारण) नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ वस्तुओं के साथ असम्बद्ध होकर ही अपना काम करती हैं। भौतिक वस्तुओं का यही स्वभाव है कि अपने विषयों के साथ सम्बद्ध होकर ही अपना काम करें, जैसे कि प्रदीप । ( उ० ) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहित वस्तुओं की इन्द्रियों से उपलब्धि नहीं होती । अगर इन्द्रियाँ अपने से असम्बद्ध विषयों को भी ग्रहण करें तो फिर दीवाल प्रभृति से ढके हुए अपने विषयों का भी वे ग्रहण कर सकती हैं। दीवाल से घिरे और न घिरे हुए वस्तुओं में तो कोई अन्तर नहीं है, और इन्द्रियों की असम्बद्धता तो दोनों प्रकार की वस्तुओं में समान है। (प्र०) व्यवहित वस्तुओं में प्रत्यक्ष होने की योग्यता नहीं है, अतः उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है ? (उ०) इस प्रसङ्ग में पूछना है कि व्यवहित विषयों में प्रत्यक्ष होने की योग्यता नहीं है? या इन्द्रियों में व्यवहित विषयों के प्रत्यक्ष के उत्पादन की योग्यता नहीं है ? इन्द्रियों की योग्यता है विषयों को ग्रहण करने का सामर्थ्य, सो उनमें है ही। क्योंकि उस समय भी अब्यवहित विषयों को वे ग्रहण करती

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

६१

न्यायकन्दली

महत्त्वा नेकद्रव्यवत्वरूपविशेषाद्यात्मिका व्यवधानेऽपि न निवृत्तैव, आर्जवावस्थान मपि तदवस्थमेव । अथ मतम् आवरणाभावोऽप्यर्थं प्रतीतिकारणं संयोगाभाव इव पतनकर्म्मणि, आवरणे सत्यावरणाभावो निवृत्त इति प्रतीतेरनुत्पत्तिः कारणाभावादिति । नैतत्सारम् आवरणस्य स्पर्शजद्रव्यप्राप्तिप्रतिषेधभावो पलब्धेः, छत्रादिकं हि पततो जलस्य सावित्रस्य च तेजसः प्रतिषेधति, न तु स्वस्याभावमात्रं निवर्त्तयति । तथा सति सुलभमेतदनुमानम्- प्राप्त प्रकाशक चक्षुः, व्यवहितार्थाप्रकाशकत्वात् प्रदीपवत्, बाह्येन्द्रियत्वात् त्वगिन्द्रियवत् । नन्वेवं तर्हि विप्रकृष्टार्थग्रहणं कुतः ? रश्म्यर्थसंनिकर्षादनुभूतरूपस्पर्शा नायना ही हैं। विषयों में प्रत्यक्ष होने की योग्यता है महत्त्व, अनेकद्रव्यवत्वादि, सो दीवाल से घिर जाने पर भी विषयों से हट नहीं जाती। दीवाल से घिर जाने पर भी वे इन्द्रियों के सामने ही रहते हैं । ( प्र०) जिस प्रकार संयोग का अभाव भी पतन का कारण है, उसी प्रकार आवरण का अभाव भी प्रत्यक्ष का कारण है। आवरण के रहते हुए आवरण का अभाव नहीं रह सकता, अतः दीवाल से घिरी हुई वस्तुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता, क्योंकि वहाँ आवरणाभाव रूप कारण ही नहीं है। (उ०) आवरण का इतना ही काम है कि स्पर्श से युक्त द्रव्यों के साथ संयोग न होने दे। जैसे छाता गिरते हुए पानी या धूप के साथ संयोग को नहीं होने देता। आवरण का इतना ही काम नहीं है कि अपने अभाव को हटाये । अतः (१) यह अनुमान सुलभ है कि चक्षु अपने से सम्बद्ध वस्तुओं का ही प्रकाशक है, क्योंकि व्यवहित वस्तुओं का प्रकाश उससे नहीं होता, जैसे कि प्रदीप । (२) अथवा चक्षुरादि (इन्द्रियाँ) अपने से सम्बद्ध वस्तुओं के ही प्रकाशक हैं, क्योंकि वे बाह्येन्द्रिय है, जैसे कि त्वगिन्द्रिय । ( प्र ० ) तो फिर चक्षु से कुछ दूर हटी हुई वस्तुओं का ही प्रत्यक्ष ( क्यों ) और कैसे होता है ? (७०) चक्षु की रश्मियों के साथ विषयों के संयोग से । र अनुभूत रूप और अनुभूत स्पर्श से युक्त चक्षु की रश्मियाँ वहाँ विद्यमान वस्तुओं के प्रत्यक्ष को उत्पन्न

१. चक्षु की रश्मियाँ दूर की वस्तुओं को ग्रहण करने के लिए अगर उनके देशों तक जाती हैं तो फिर सूर्य की रश्मियों की तरह उनके रूप और स्पर्श का भी प्रत्यक्ष होना चाहिए, किन्तु होता नहीं है। अतः “चक्षु की रश्मियों दूर जाकर वस्तुओं को ग्रहण करती हैं” यह कहना ठीक नहीं है। इसी पूर्वपक्ष के समाधान को सूचना देने के लिए कन्दलीकार ने चक्षु की रश्मियों में अनुभूतरूप और अनुभूत स्पर्श, ये दो विशेषण लगाये हैं। कहने का तात्पर्य है कि अगर चक्षु की रश्मियों का विषय देश तक जाना युक्तियों से सिद्ध है तो फिर उनके रूप और स्पर्श की अनुपलब्धि से वह हट नहीं सकती। उनके प्रत्यक्षापत्तिवारण का यह उपाय सुलभ है कि रश्मियों के रूप और स्पर्श को अनुद्भूत मान लेना ।

६२

न्यायकन्वलोसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

न्यायकन्दली

[ साधर्म्यवैधम्र्म्य

रश्मयो दूरे गत्वा सन्तमर्थं गृह्णन्ति, अत एव महदणुप्रकाशकत्वात् किमि न्द्रियस्य भौतिकत्वं न सिद्धचति ? प्रदीपस्येव रश्मिद्वारेण तदुपपत्तेः । यत्र च रश्मयो भूयोभिः स्वावयवैः सहार्थावयविना तदवयवैश्च सह सम्बद्धयन्ते, तत्राशेष विशेषास्कन्दितस्यार्थस्य ग्रहणात् स्पष्टं ग्रहणम् । यत्र त्ववयवमात्रेण सम्बन्धस्तत्र सामान्यमात्रविशिष्टस्य धम्मिणो ग्रहणादस्पष्टं ग्रहणम् । यद् गच्छति तत् संनिहितव्यवहितार्थो क्रमेण प्राप्नोति । तत् कथं शाखाचन्द्रमसोस्तुल्यकालोप लब्धिरिति चेत् ? इन्द्रियवृत्तेराशुसञ्चारित्वात् पलाशशतव्यतिभेदवत् क्रमाग्रहण निमित्तोऽयं भ्रमो न तु वास्तवं यौगपद्यम् । ननु प्राप्तिपक्षे सान्तरालोऽयमिति ग्रहणं न स्यात् ? न, अन्यथा तदुपपत्तेः । इन्द्रियसम्बन्धस्यातीन्द्रियत्वान्न तदभावाभावकृतौ सान्तरनिरन्तरप्रत्ययौ, किन्तु शरीरसम्बन्धभावाभावकृतौ यत्र शरीरसम्बद्धस्यार्थस्य ग्रहणं तत्र निरन्तरोऽयमिति प्रत्ययः, यत्र तु तदसम्बद्धस्य ग्रहणं तत्र सान्तर इति ।

करती है। इन्द्रियाँ चूँकि छोटी और बड़ी दोनों प्रकार की वस्तुओं को दिखलाती हैं, इससे भी उनमें भौतिकत्व की सिद्धि क्यों नहीं होगी ? प्रदीप की तरह रश्मियों में भी भौतिकता सिद्ध हो सकती है। जहाँ पर रश्मियाँ अपने बहुत से अवयवों को लेकर अवयवी रूप वस्तु और उनके अवयवों के साथ सम्बद्ध होती हैं, वहाँ सभी विशेषों से युक्त अवयवी का ज्ञान होता है। अत एव वह ज्ञान ‘स्पष्टग्रहण’ कहलाता है। जहाँ वे केवल वस्तुओं के किसी अवयव के साथ ही सम्बद्ध होती हैं, वहीं सामान्यधर्म्म से युक्त ही उस धर्मी का ज्ञान होता है, जिसे ‘अस्पष्ट ग्रहण’ कहते हैं । (प्र०) गतिशील वस्तु समीप की वस्तुओं के साथ पहिले सम्बद्ध होती है और दूर की वस्तुओं के साथ पीछे, तो फिर गतिशील इन्द्रियों से शाखा और चन्द्रमा का ग्रहण एक ही समय क्यों होता है ? (उ०) वस्तुतः एक समय में शाखा और चन्द्रमा दोनों का ज्ञान नहीं होता है। दोनों के ज्ञान क्रमशः ही होते हैं, किन्तु इन्द्रियाँ इतनी शीघ्रता से चलती हैं कि उनकी गति के क्रम का ज्ञान नहीं हो पाता। अत एव यह भ्रम होता है कि शाखा और चन्द्रमा दोनों का ज्ञान एक ही समय होता है। जैसे फूल के सौ पत्रों को सूई छेदने पर उसका क्रम उपलब्ध नहीं होता और भ्रम होता है कि एक ही समय में सभी पत्रों का छेदन हुआ है । ( प्र०) इन्द्रियाँ अपने से सम्बद्ध वस्तुओं को ही ग्रहण करती हैं इस पक्ष में विषय और इन्द्रियों में सार्वजनीन व्यवधान की प्रतीति अनुपपन्न होगी ? ( उ०) नहीं, क्योंकि दूसरी रीति से उसकी उपपत्ति हो सकती है। इन्द्रियों का सम्बन्ध अतीन्द्रिय है, अतः उसकी सत्ता से व्यवधान की प्रतीति और असत्ता से अव्यवधान की प्रतीति नहीं हो सकती, किन्तु शरीरसम्बन्ध की सत्ता और बसत्ता से ही उक्त दोनों प्रतीतियाँ

मकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

६३

प्रशस्तपादभाष्यम्

चतुर्णां द्रव्यारम्भकत्वस्पर्शवत्वे । त्रयाणां प्रत्यक्षत्वरूपवत्वद्रवत्वानि |

पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों का द्रव्य को उत्पन्न करना और स्पर्श से युक्त होना ये दो साधर्म्य हैं ।

पृथिवी, जल, और तेज इन तीन द्रव्यों का प्रत्यक्षत्व, रूपवत्त्व और द्रवत्व ये तीन साधर्म्य हैं ।

न्यायकन्दली

बाह्यैकैकेन्द्रियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वानीति । बाह्यकैकेन्द्रियेण चक्षुरादिना ये विशेषगुणा रूपादयस्तैस्तद्वत्ता पृथिव्यादीनामिति । अन्तःकरण ग्राह्या ग्राह्यत्वमप्येषां गुणानामस्ति, ततश्चैकैकेन्द्रियग्राह्यत्वमसिद्धम् तदर्थं बाह्य ग्रहणम् । एकैकग्रहणं स्वरूपकथनार्थम् ।

चतुर्णा द्रव्यारम्भकत्वस्पर्शवत्वे । चतुर्णां पृथिव्युदकानलानिलानाम् । द्रव्यारम्भकत्वं द्रव्यं प्रति समवायिकारणभावः । सच निजा शक्तिरेव । स्पर्शवत्वं स्पर्शसमवायः ।

त्रयाणां

प्रत्यक्षत्व रूपवत्त्वद्रवत्वानि ।

त्रयाणां क्षित्युदकतेजसां प्रत्यक्षत्वमिन्द्रियजज्ञानप्रतिभासमानता, न तु महत्त्वादिकारणयोगः, रूपवत्त्व होती हैं। जहाँ शरीर से सम्बद्ध अर्थ का ग्रहण होता है, उस अर्थ में यह व्यवधान रहित है’ इस प्रकार की बुद्धि होती है और जहाँ शरीर से असम्बद्ध अर्थ का ग्रहण होता है उस अर्थ में ‘यह व्यवहित है’ इस प्रकार की प्रतीति होती है ।

बाह्य कैकेन्द्रियग्राह्यगुणवत्त्वानि’ अर्थात् चक्षुरादि एक एक बाह्य इन्द्रियों से गृहीत होनेवाले जो रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द, ये पांच विशेष गुण हैं, तद्वत्त्व’ पृथि व्यादि पाँच द्रव्यों का साधर्म्य है। ये रूपादि मन रूप अन्तरिन्द्रिय से भी गृहीत होते हैं, अतः उनमें एकैकेन्द्रियग्राह्यत्व नहीं रह सकता, अत: ‘बाह्य’ पद का प्रयोग है। ‘एकैक’ पद केवल इस वस्तुस्थिति को समझाने के लिए है कि कथित रूपादि पाँच विशेष गुण एक एक बाह्य इन्दिय से ही गृहीत होते हैं, संयोगादि की तरह दो इन्द्रियों से नहीं ।

‘चतुर्णाम्’ अर्थात् पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों का ‘द्रव्यारम्भकत्व’ •अर्थात् द्रव्य का समवायिकरणत्व साधर्म्य है। यह उनकी स्वाभाविक शक्ति है। ‘स्पर्शवत्व’ शब्द का अर्थ है- स्पर्श का समवाय ।

‘त्रयाणाम्’ अर्थात् पृथिवी, जल और तेज इन तीन द्रव्यों का ‘प्रत्यक्षस्व’ साधम्यं है। इस ‘प्रत्यक्षत्व’ शब्द का अर्थ है इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न ज्ञान में प्रतिभासित

६४

न्यायकन्दली संबलित प्रशस्तपादभाष्यम्

[ साधर्म्यवैधयं

प्रशस्तपादभाष्यम्

द्वयोर्गुरुत्वं रसवत्त्वञ्च | भूतात्मनां वैशेषिक गुणवत्वम् ।

पृथिवी और जल इन दोनों के गुरुत्व और रसवत्त्व ये दो साधर्म्य हैं। भूत अर्थात् पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पाँच और आत्मा

इन छः द्रव्यों का विशेषगुणवत्त्व साधर्म्य है ।

न्यायकन्दली

मित्यस्य पुनरुक्तत्वप्रसङ्गात् । बाह्येन्द्रियापेक्षया त्रयाणामित्युक्तम् । द्रवत्वन्नाम गुणान्तरम् । नन्वात्मनोऽपि प्रत्यक्षत्वमस्ति ? तथा रूपवत्वं रूपसमवायः । सत्यम्, द्रवत्वं द्वयोर्गुरुत्वम् । द्वयोः पृथिव्युदकयोः, गुरुत्वन्नाम गुणान्तरम्, तस्य

भावात् पृथिव्यामुदके च गुरुशब्दनिवेशः । रसवत्त्वश्व रससमवायः, न केवलं तयोर्गुरुत्वं रसवत्त्वञ्चेति चार्थ: । भूतात्मनां वैशेषिकगुणवत्त्वम् । भूतानां पृथिव्यप्तेजोवायुनभसा मात्मनां च वैशेषिकगुणयोगः । विशेषो व्यवच्छेदः, विशेषाय स्वाश्रयस्येतरेभ्यो

व्यवच्छेदाय प्रभवन्तीति वैशेषिका रूपादयस्तद्योगो भूतात्मनाम् ।

होना, महत्त्वादि प्रत्यक्ष के कारणों का सम्बन्ध नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर इन तीनों की रूपवत्त्व को साधर्म्य कहना पुनरुक्ति-दुष्ट हो जाएगा। प्रत्यक्षत्व तो आत्मा में भी है ? (उ०) हाँ है, किन्तु यहाँ वाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न प्रत्यक्ष का ही ग्रहण है। एवं ‘रूपवत्व’ शब्द का अर्थ है रूप का समवाय और ‘द्रवत्व’ शब्द से द्रवत्व नाम का स्वतन्त्र गुण विवक्षित है।

‘द्वयो:’ पृथिवी और जल इन दोनों का गुरुत्व’ अर्थात् गुरुत्व नाम का स्वतन्त्र गुण साधर्म्य है। इसी गुरुत्व नामक गुण के सम्बन्ध से पृथिवी और जल ये दोनों ‘गुरु’ शब्द से व्यवहृत होते हैं : ‘रसवत्त्व’ शब्द से रस का समवाय इष्ट है। गुरुत्व और रसवत्त्व इन दोनों में से केवल गुरुत्व ही या केवल रसवत्व ही पृथिवी और जल के साधर्म्य नहीं हैं, किन्तु दोनों मिलकर उनके साघम्यं हैं, यही ‘च’ शब्द से सूचित होता है।

‘भूतात्मनाम्’ अर्थात् पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश एवं आत्मा इन छः द्रव्यों का वैशेषिकगुण का सम्बन्ध साधर्म्य है। यहाँ ‘विशेष’ शब्द का अर्थ है ‘भेद’ ( व्यवच्छेद) विशेषाय स्वाश्रयस्येतरभ्यो व्यवच्छेदाय प्रभवन्तीति वैशेषिका :’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने आश्रय को जो गुण भिन्न पदार्थों से अलग रूप से समझावे वही यहाँ ‘वैशेषिक’ शब्द का अर्थ है। इन्हीं रूपादि विशेष गुणों का योग पृथिव्यादि पाँच भूत एवं आत्मां इन छः द्रव्यों का साधर्म्य है ।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

६५

प्रशस्तपादभाष्यम्

क्षित्युदकात्मनां चतुर्दशगुणवश्वम् ।

आकाशात्मनां क्षणिकैकदेशवृत्ति विशेषगुणवश्वम् | दिक्कालयोः पञ्चगुणवत्वं सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तकारणत्वञ्च । पृथिवी, जल और आत्मा इन तीन द्रव्यों का चौदह गुणों का सम्बन्ध साधर्म्य है ।

आकाश और आत्मा इन दो द्रव्यों का क्षणिक एवं अव्याप्यवृत्ति (अर्थात् अपने आश्रय के किसी एक अंश में ही रहनेवाला) विशेष गुण साधर्म्य है । दिशा और काल इन दो द्रव्यों का ( संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग) ये पाँच गुण और सभी उत्पत्तिशील पदार्थों का निमित्तकारणत्व ये दो साधर्म्य हैं:

न्यायकन्दली

क्षित्युदकात्मनां चतुर्दशगुणवत्त्वम् । क्षितेरुदकस्यात्मनां चतुर्दशगुणयोगः । आकाशात्मनाञ्च क्षणिकैक देशवृत्तिभिविशेषगुणैः सह योगो विद्यत इत्याह आकाशात्मनामिति । विशेषगुणाः पृथिव्यादीनामपि सन्ति, तन्निवृत्यर्थ मेक देशवृत्ति ग्रहणम् । ये च ते आकाशात्मनामच्याप्यवृत्तयो विशेषगुणास्तेषामाशुतर

विनाशित्व व स्वरूपमस्तीति क्षणिकसङ्कीर्त्तनं कृतम् । सङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः पञ्चैव गुणा दिशि काले च वर्त्तन्त

इत्याह – दिक्कालयोरिति । न केवलमनयोः पञ्चगुणवत्त्वं साधर्म्य सर्वोत्पत्तिमतां पृथिवी, जल और आत्मा इन तीन द्रव्यों का चौदह’ गुणों का सम्बन्ध साधर्म्य है। ‘आकाशात्मनाम्’ इत्यादि सन्दर्भ से कहते हैं कि आकाश में और आत्माओं में क्षणिक एवं ‘अव्याप्यवृत्ति’ (अपने आश्रय के किसी एक देश में रहनेवाले) विशेष गुणों का सम्बन्ध है। विशेषगुण पृथिवी प्रभृति द्रव्यों में भी हैं, अतः ‘एक देशवृत्ति’ यह पद है । ‘क्षणिक’ पद का उपादान यह सूचना देने के लिए है जि आकाश और आत्माओं के जितने भी ‘अव्याप्यवृत्ति’ अर्थात् अपने आश्रय को व्याप्त कर न रहनेवाले विशेष गुण हैं, अतिशीघ्र नष्ट हो जाना ही उनका स्वरूप है।

‘दिक्कालयोः’ इत्यादि से कहते हैं कि संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और

विभाग ये ही पाँच गुण दिशा और काल में रहते हैं। उक्त पाँच गुण ही इन दोनों के साधर्म्य १. रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व और वेगाल्य तथा स्थितिस्थापक संस्कार ये चौदह गुण पृथिवी के हैं। इन्हीं चौदह गुणों में गन्ध के स्थान में स्नेह को रख देने से जल के चौदह गुण हो

६६

न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम्

न्यायकन्दली

[ साधर्म्यवैषम्यं

निमित्तकारणत्वश्व साधर्म्यम् ।

ननु दिक्कालौ सर्वेषामुत्पत्तिमतां निमित्तमिति कुत एतत् प्रत्येतव्यम् ? यदि सन्निधिमात्रेण ? आकाशस्यापि कारणत्वं स्यात्, अथ तद्व्यपदेशात् ? सोऽप्यनैकान्तिकः, गृहे जातो गोष्ठे जात इत्यनिमित्तेऽपि दर्शनात् । अत्रोच्यते-अस्ति तावत् तन्त्वादिप्रतिनियमात् पटाद्युत्पत्तिवद्देशविशेषनियमात् कालविशेषनियमाच्च सर्वेषामुत्पत्तिः, यदि देशकालविशेषावपि न कारणम्, अत्र क्वचन हेतवः कार्यं कुर्य्यरविशेषात् । सर्वदा सर्वत्र कारणाभावात् कार्य्यानुत्पत्तिरिति चेत् ? यत्र देशे काले च कारणानि भवन्ति, तत्र तेषां जनकत्वं नान्यत्रेत्यभ्युपगन्तव्यं विशिष्टदेश कालयोरङ्गत्वम्, कार्य्यजननाय तयोः कारणेरपेक्षणीयत्वात् । इदमेव च देशस्य कालस्य च निमित्तत्वम्, यदेकत्र कार्योत्पत्तिरन्यत्रानुत्पत्तिरिति ।

नहीं हैं, किन्तु सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं का निमित्तकारणत्व भी इन दोनों का साघम्यं है। ( प्र ० ) यह कैसे समझें कि दिशा और काल सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं के निमित्त

कारण हैं ? अगर सभी वस्तुओं की उत्पत्ति के पहिले नियत रूप से रहने के कारण ही ये दोनों सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं के निमित्तकारण हैं, तो फिर आकाश में भी यह कारणता रहनी चाहिए । ‘अभी घट को उत्पत्ति हुई है’ या ‘उस दिशा में पट की उत्पत्ति हुई है’ इत्यादि व्यवहारों से भी काल और दिशा में निमित्तकारणता का मानना सम्भव नहीं है, क्योकि निमित्तकारणता के बिना भी ‘घर में घट की उत्पत्ति हुई और गोष्ठ में पट की उत्पत्ति हुई इस प्रकार के व्यवहारों की तरह उक्त व्यवहारों की उपपत्ति हो सकती है । ( उ० ) इस आक्षेप के उत्तर में कहना है कि जिन प्रकार पटादि कार्यों में यह नियम है कि वे तन्तु प्रभृति कारणों से ही उत्पन्न हों, उसी प्रकार सभी कार्यों की उत्पत्ति में देश और काल का भी नियम है। अगर ये दोनों अपेक्षित न हों तो फिर जहाँ-तहां विक्षिप्त कारणों से और भिन्नकालिक कारणों से भी कार्यों की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि नियमित देश और नियमित काल के कारणों में और अनियत देश और अनियत काल के कारणों में स्वरूपतः (देश और काल के सम्बन्ध को छोड़कर ) कोई अन्तर नहीं है । ( 80) सभी देशों और सभी कालों में कारणों की सत्ता न रहने से ही सभी देशों और सभी कालों में कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है । ( उ०) तो फिर यह मानना पड़ेगा कि जिस देश में और जिस काल में सम्मिलित होकर जो सब कारण कार्य को उत्पन्न कर सकें, उसी काल में और उसी देश में वे कारण हैं और कालों में नहीं और देशों में नहीं,

जाते हैं। संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, भावनाख्य संस्कार, धर्म और अधर्म ये चौदह गुण आत्मा के हैं।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

६७

प्रशस्तपादभाष्यम्

क्षितितेजसोर्नैमित्तिकद्रवत्वयोगः |

पृथिवी और तेज इन दो द्रव्यों का नैमित्तिक द्रवत्व का सम्बन्ध

साधर्म्य है ।

न्यायकन्दली

क्षितितेजसोन मित्तिकद्रवत्वयोगः । निमित्तादुपजातं ( नैमित्तिकम् ), नैमित्तिकञ्च तद्भवत्वञ्चेति नैमित्तिकद्रवत्वम्, तेन सह क्षितितेजसोर्योगः, पाथि वस्य सपिरादेस्तैजसस्य च सुवर्णरजतादेरग्निसंयोगेन विलयनात् । गुरुत्ववत्पाथि वभेव द्रवत्वं दह्यमानेषु सुवर्णादिषु संयुक्तसमवायात् प्रतीयत इति चेत् ? न, पाथि वद्रवत्वस्यात्यन्ताग्निसंयोगेन भस्मीभावोपलब्धेः अस्य च तदभावात् । अत एव सुवर्णादिकमपि पार्थिवमेवेति कस्यचित् प्रवादोऽपि प्रत्युक्तः, पार्थिवत्वे सति सपि रादिवदत्यन्तवह्निसंयोगेन द्रवत्वोच्छेदप्रसङ्गात् ।

यदपीदमुक्तं पार्थिवं सुवर्णादिकम्, सांसिद्धिकद्रवत्वाभावे सति इस प्रकार यह स्वीकार करना पड़ेगा कि देश और काल भी कार्योत्पत्ति के अङ्ग हैं, क्योंकि कार्य के उत्पादक सभी कारण काल और दिशा की अपेक्षा रखते हैं। काल और दिशा में सभी कार्यों का यही निमित्तकारण है कि किसी कालविशेष और देशविशेष में ही कार्यों की उत्पत्ति होती है। सभी कालों और सभी देशों में नहीं ।

‘निमित्तादुपजातं नैमित्तकम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो कारण से उत्पन्न हो उसे ‘नैमित्तिक’ कहते हैं । मिति तद्भवत्वञ्चेति’ इस कर्मधारय समास के बल से किसी निमित्त से उत्पन्न द्रवत्व ही नैमित्तिकद्रवत्व’ शब्द का अर्थ है। उसके साथ सम्बन्ध ही पृथिवी और तेज का साधर्म्य है क्योंकि घृतादि पार्थिव द्रव्य और सुवर्णादि तैजस द्रव्य आग के संयोग से विलीन होते (पिघलते) दीख पड़ते हैं, अतः उनमें अवश्य ही नैमित्तिक द्रवत्व है । ( प्र०) जिस प्रकार सुवर्ण में पार्थिव गुरुत्व की ही उपलब्धि संयुक्तसमवाय संबन्ध से होती है, उसी प्रकार सुवर्ग में पृथिवीगत नैमित्तिक द्रवत्व की ही सयुक्तसमवाय सम्बन्ध से उपलब्धि होती है । ( अर्थात् सुवर्ण में नैमित्तिक द्रवत्व नहीं है) । ( उ० ) घृतादि पार्थिव द्रव्यों में रहनेवाले नैमित्तिक द्रवत्व का यह स्वभाव है कि अग्नि के अत्यन्त संयोग से नष्ट हो जाना, सुवर्ण के द्रवत्व में यह बात नहीं है। इसी समाधान से स्वर्ण को पृथिवी होने का प्रवाद भी खण्डित हो जाता है। अगर सुवर्ण पार्थिव होता तो फिर घृतादि पार्थिव द्रव्यों के द्रवत्व की तरह सुवर्ण का द्रवत्व भी अग्नि के अत्यन्त संयोग से नष्ट हो जाता ।

(प्र०) यह जो विरोधी अनुमान का प्रयोग किया जाता है कि सुवर्ण पार्थिव ही है, क्योंकि सांसिद्धिक द्रवत्व के न रहने पर भी उसमें गुरु है, जैसे कि ढेले में ( उ० ) इस

६८

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ साधर्म्यवधर्म्य

प्रशतपादभाष्यम्

एवं सर्वत्र साधम्यं विपर्थ्य याद्वैधर्म्यश्च वाच्यमिति द्रव्यासङ्करः । इसी प्रकार रहने के कारण साधर्म्य और नहीं रहने के कारण वैधर्म्यं समझना चाहिए । अतः द्रव्यों में कोई सार्य नहीं है ।

न्यायकन्दली

गुरुत्वाधिकरणत्वाल्लोष्टादिवत्, तदप्यसारम्, किं तत्र गुरुत्वस्योपलब्धिस्तद् गुणत्वादुतान्यगुणत्वेऽपि घृतादिष्वपि स्नेहवत् स्वाश्रयप्रत्यासत्तिनिमित्तादिति संशयस्यानिवृत्तेः । यदपि साधनान्तरं परप्रकाश्यमानत्वादिति, तदप्यनुभूतरूप वत्त्वेनाप्युपपत्तेरसाधनम् । विङ्मात्रमस्माभिरुपदिष्टम् ।

अनेनैव न्यायेन सर्वत्र पदार्थोऽन्यदपि साधर्म्यं स्वयं वाच्यम्, विपर्य्ययादित रव्यावृत्तेवेंधम्र्म्यं वाच्यमिति शिष्यानाह-एवमिति । अनुद्दिष्टेषु पदार्थेषु न तेषां लक्षणानि प्रवर्त्तन्ते निविषयत्वात्,

अलक्षितेषु च तत्त्वप्रतीत्यभावः कारणाभावात्, अतः पदार्थव्युत्पादनाय प्रवृत्तस्य शास्त्रस्योभयथा प्रवृत्तिः – उद्देशो लक्षणञ्च | परीक्षायास्त्वनियमः। यत्राभिहिते लक्षणे प्रवादान्तरव्याक्षेपात्तत्त्वनिश्चयो न भवति, तत्र परपक्षव्युदासार्थं अनुमान में भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि सुवर्ण में जिस गुरुत्व की उपलब्धि होती है वह उसका अपना गुण है, जैसे कि ढेले में, या उसमें संयुक्त किसी दूसरे द्रव्य का है, जैसे कि तेल में स्नेह का, इस संशय की निवृत्ति नहीं होती है। सुवर्ण तैजस नहीं है इसको सिद्ध करने के लिए कोई यह हेतु देते हैं कि सुवर्ण तैजस इसलिए नहीं है कि वह (दीपादि) दूसरे वस्तुओं से प्रकाशित होता है, किन्तु यह भी हेत्वाभास ही है, क्योंकि स्वर्ण को (दीपादि) दूसरे द्रव्यों से प्रकाशित होने की उपपत्ति उसके भास्वर शुक्ल रूप को अनुभूत मान लेने से भी हो सकती है। सुवर्ण मे तैजसत्व की साधक और बाधक युक्तियों का यहाँ हम लोगों ने दिग्दर्शन मात्र किया है ।

इसी प्रकार सभी पदार्थों में और साधयों की भी कल्पना स्वयं करनी चाहिए । एवं जो साधर्म्य जिनमें न हो उसको उनका वैधर्म्य समझना चाहिए। इसी विषय को शिष्यों को समझाने के लिए आगे ‘एवम्’ इत्यादि सन्दर्भ लिखते हैं ।

जिन पदार्थों का उल्लेख नामतः नहीं होता है, उनमें लक्षण की प्रवृत्ति नहीं होती है, क्योंकि उस लक्षण का कोई लक्ष्य ही निर्दिष्ट नहीं रहता है। एवं बिना लक्षण के पदार्थों का बोध ही असम्भव है। अतः पदार्थों के प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रों की प्रवृत्ति नियमतः (१) उद्देश और ( २ ) लक्षण भेद से दो ही प्रकार की होती है, परीक्षा रूप शास्त्र की प्रवृत्ति के प्रसङ्ग में नियम नहीं है, ( अर्थात् ) जहाँ लक्षण कहे जाने के

६९

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

न्यायकन्दली

परीक्षाविधिरधिक्रियते । यत्र तु लक्षणाभिधानसामर्थ्यादेव तत्त्वनिश्चय: स्यात्, तत्रायं व्यर्थो नार्थ्यते । योऽपि हि त्रिविधां शास्त्रस्य प्रवृत्तिमिच्छति तस्यापि प्रयोजनादीनां नास्ति परीक्षा, तत् कस्य हेतोः ? लक्षणमात्रादेव ते प्रतीयन्त इति । एवञ्चेदर्थप्रतीत्यनुरोधाच्छास्त्रस्य प्रवृत्तिर्न त्रिघंव नामधेयेन पदार्था नामभिधानमुद्देशः । उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्त्तको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षणं विचार: परीक्षा उद्दिष्ट विभागस्तु न विधान्तरम्, उद्देश लक्षणेनैव संगृहीतत्वात् । तथा हि पृथगुच्येत । एतान्येवेति नियमार्थं विशेष लक्षणप्रवृत्त्यर्थश्व विभक्तेषु पदार्थेषु तेषां विशेषलक्षणानि भवन्ति, अन्यथा तानि निविषयाणि स्युः तत्र द्रव्याणि गुणकर्मेत्युद्दिष्टानि पृथिव्यप्तेज इति विभक्तानि | सम्प्रति तेषां विशेषलक्षणार्थं प्रकरणमारभ्यते ।

बाद विरुद्ध मत के उपस्थित होने के कारण पदार्थों का तत्त्व ज्ञात नहीं होने पाता, वहीं विरुद्ध मत को खण्डित करने के लिए परीक्षा आरम्भ की जाती है। किन्तु जहाँ लक्षण के कहने से ही वस्तुओं का तत्त्वज्ञान हो जाता है, वहाँ व्यथं होने के कारण परीक्षा अपेक्षित नहीं होती है। जो कोई (न्यायभाष्यकार वात्स्यायन) शास्त्रों की प्रवृत्ति को (१) उद्देश, (२) लक्षण और (३) परीक्षा भेद से नियमतः तीन प्रकार का मानते हैं, उनके शास्त्र में भी प्रयोजनादि पदार्थों की परीक्षा नहीं है। इसका क्या कारण है ? यही कि वे लक्षण कहने मात्र से तत्वतः ज्ञात हो जाते हैं। अगर प्रतीति के अनुरोध से ही शास्त्रों की प्रवृत्ति होती है तो फिर वह नियम से तीन ही प्रकार की नहीं होती है (अधिक भी हो सकती है और अरूप भी) पदार्थों को केवल उनके नामों से निर्दिष्ट करना ‘उद्देश’ हैं । उद्दिष्ट पदार्थ को अपने से भिन्न सजातीय और विजातीय पदार्थों से भिन्न रूप से समझानेवाला धर्म ही ‘लक्षण’ है । लक्षण के द्वारा समझाये गये वस्तु का लक्षण के अनुसार विचार ही ‘परीक्षा’ है । ‘उद्दिष्ट लक्षण’ नाम की शास्त्र की कोई अलग प्रवृत्ति नहीं है, क्योंकि कथित उद्देश के लक्षण से ही वह गताथं हो जाता है। ‘उद्दिष्ट विभाग’ नाम की अलग शास्त्र की प्रवृत्ति (१) पदार्थ इतने ही हैं’ इस नियम के लिए या (२ विशेष लक्षणों की प्रवृत्ति के लिए इन्हीं दो प्रयोजनों से मानी जा सकती थी, क्योंकि विभाग किये हुए पदार्थों के ही विशेष लक्षण होते हैं। अगर ऐसा न हो तो फिर इन विशेष लक्षणों का कोई विषय ही नहीं रहेगा । यहाँ द्रव्यगुणेत्यादि ग्रन्थ से द्रव्यों का उद्देश हो गया है एवं ‘पृथिव्यप्तेज’ इत्यादि ग्रन्थ से वे विभक्त हुए हैं। अब द्रव्यों के विशेष लक्षण के लिए आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं ।

७०

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

अथ द्रव्यपदार्थनिरूपणम्

[ द्रव्ये पृथिवी

प्रशस्तपादभाष्यम्

इद्देदानीमेकैकशो वैधर्म्य मुच्यते । पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् पृथिवी ।

अब तक कहे हुए पदार्थों में से प्रत्येक का वैधर्म्य, अर्थात् असाधारण धर्म्म रूप लक्षण कहते हैं । पृथिवी जाति के सम्बन्ध से यह पृथिवी है यह व्यवहार करना चाहिए ।

न्यायकन्दली

इहेदानीमिति । पूर्व द्वयोर्बहूनां परस्परापेक्षया वैधर्म्यंमुक्तम् । इह वक्ष्यमाणे प्रकरणे सम्प्रत्येकैकस्य द्रव्यस्य व्यावर्त्तको धर्म: कथ्यते । एकैकश इति शस्प्रत्ययाद् वीप्सात्यन्त बहु व्याप्तिप्रदर्शनार्था ।

उद्देश क्रमेण पृथिव्याः प्रथमं वैधर्म्यमाह- पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् पृथिवीति । यो हि पृथिवीं स्वरूपतो जानन्नपि कुतश्चिद् व्यामोहात् पृथिवीति न व्यवहरति तं प्रति विषयसम्बन्धाव्यभिचारेण व्यवहारसाधनार्थं मसाधारणो धर्मः कथ्यते – पृथिवीत्वा भिसम्बन्धात् पृथिवीति । इयं पृथिवीति व्यवहर्तव्या पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात्, यत् पुनः पृथिवीति न व्यवह्रियते, न तत् पृथिवीत्वेना भिसम्बद्धम्, यथाबादिकम्, न चेयं पृथिवोत्वेन नाभिसम्बद्धा, तस्मात् पृथिवीति व्यवहर्तव्येति । यो वा पृथिवीति लोके शृणोति न जानाति च तस्याः स्वरूपं कीबृगिति, तं प्रति तस्याः स्वपरजातीयव्यावृत्तस्वरूपप्रतिपादनार्थमसाधारणो

(इससे) पहिले दो या दो से अधिक पदार्थों में रहनेवाले एक दूसरे की अपेक्षा से जो असाधारण धर्म हैं वे ही कहे गये हैं। अब प्रत्येक द्रव्य में रहनेवाले असाधारण धर्म ही कहे जाते हैं। एकैकश:’ इस पद में प्रयुक्त वीप्सा के बोधक ‘शस्’ प्रत्यय के प्रयोग से इस बात की सूचना होती है कि लक्षण कहने के इस क्रम का दायरा बहुत दूर तक अर्थात् प्रत्येक द्रव्य के लक्षण कहने तक है ।

पृथिवीत्वादिसम्बन्धात् पृथिवी । जो कोई पृथिवी को स्वरूपतः जानते हुए भी उसमें ‘पृथिवी’ शब्द का व्यवहार नहीं कर पाते पृथिवीत्व जाति और पृथिवीत्व जाति के अव्यभि चरित सम्बन्ध इन दोनों के द्वारा पृथिवी में ‘पृथिवी’ पद का उनके व्यवहार के लिए “पृथिवी त्वाभिसम्बन्धात् पृथिवी” इस वाक्य से पृथिवी का असाधारण धर्म कहते हैं। इसका व्यवहार ‘पृथिवी’ शब्द से करना चाहिए, क्योंकि इसमें पृथिवीत्व का सम्बन्ध है। जो पृथिवी शब्द से व्यवहृत नहीं होता है, उसमें पृथिवीत्व का सम्बन्ध नहीं है, जैसे कि जलादि में, यह पृथिवी से असम्बद्ध भी नहीं है, तस्मात् इसका व्यवहार ‘पृथिवी’ शब्द से करना चाहिए । अथवा जो लोगों से ‘पृथिवी’ शब्द को सुनता है, किन्तु पृथिवी के स्वरूप को नहीं जानता कि वह कैसी है ? पृथिवी को सजातीयों से एवं विजातीयों से भिन्न समझाने वाले असाधारण धर्म

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

७१

प्रशस्तपादमाष्यम्

रूपरसगन्धस्पर्श सङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वाप रत्वगुरुत्वद्रवत्वसंस्कारवती । एते च गुणविनिवेशाधिकारे रूपादयो गुण

यह पृथिवी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व गुरुत्व, द्रवत्व और संस्कार इन चौदह गुणों से युक्त है। ये रूपादि गुणविशेष

न्यायकन्दली

धर्मः कथ्यते, या लोके पृथिवीति व्यपदिश्यते सा पृथिवी, पृथिवीत्वाभि सम्बन्धात् ।यथाहोद्योतकरः — “समानासमानजातीयव्यवच्छेदो लक्षणार्थ:” ( न्या० वा० ) एतेनैतदपि प्रत्युक्तम्, प्रसिद्धाश्चेत् पदार्था न लक्षणीयाः, अप्रसिद्धा नितरामशक्यत्वात्, स्वरूपेणावगतस्यापि व्यवहारविशेषप्रति पादनार्थं सामान्येन प्रसिद्धस्य विशेषावगमार्थञ्च लक्षणप्रवृत्तेः । नन्वेवं सत्यन वस्था, लक्ष्यवल्लक्षणस्याप्यन्ततो लक्षणीयत्वादिति चेन्न, अप्रतीतौ लक्षणा पेक्षित्वात्, सर्वत्र चाप्रतीत्यभावात् तथा हि –शिरसा पादेन गवामनुबध्नन्ति विद्वांसः, न पुनरेतावप्यन्यतः समोक्षन्ते । यस्तु सर्वथैवा प्रतिपन्नः, न तं प्रत्यु पदेशः, तस्य बालमूकादिवदनधिकारात् ।

गन्धसहचरितचतुर्दशगुणवत्त्वमपि पृथिव्या इतरेभ्यो वैधर्म्यमिति प्रतिपादयन्नाह — रूपरसगन्धेति । अत्र द्वन्द्वानन्तरं मतुप्प्रत्यययोगात् प्रत्येक के द्वारा उसे समझाने के लिए ‘पथिवीत्वा भिसम्बन्धात्’ इत्यादि वाक्य कहते हैं। जिसका व्यवहार लोक में ‘पृथिवी’ शब्द से होता है, वही पृथिवी है, क्योंकि उसमें पृथिवीत्व का सम्बन्ध है। जैसा कि उद्योतकर ने कहा है कि लक्ष्य को उनके समानजातीयों से एवं असमान जातीयों से भिन्न रूप में समझाना ही लक्षण का काम है। इससे यह आक्षेप भी खण्डित हो जाता है कि पदार्थ अगर प्रसिद्ध हैं तो फिर उनका लक्षण करना ही व्यर्थ है। अगर अप्रसिद्ध हैं तब तो और भी व्यर्थ है। स्वरूपतः ज्ञात वस्तुओं के विशेष व्यवहार के लिए एवं सामान्यतः प्रसिद्ध वस्तुओं के विशेष रूप से जानने के लिए हो लक्षण की प्रवृत्ति होती है। ( प्र०) इस प्रकार तो अनवस्था होगी क्योंकि उन लक्षणों को विशेष रूप से जानने के लिए भी दूसरे लक्षणों को आवश्यकता होगी, उनके विशेष ज्ञान के लिए फिर तीसरे की । ( उ०) सम्यक् प्रतीति न होने पर ही लक्षणों की अपेक्षा होती है, किन्तु सभी स्थलों में वस्तुओं की अप्रतीति नहीं होती। विद्वान् लोग शिर और पैर से गाय को समझते हैं, किन्तु शिर और पैर को किसी ओर से समझने की आवश्यकता नहीं होती। जो व्यक्ति इन सब बातों से सर्वथा अनजान है, उसके लिए उपदेश है ही नहीं, क्योंकि वह तो बालक और गूंगे की तरह उपदेश का सर्वथा अनधिकारी है।

“गन्ध से युक्त चौदह गुणों का रहना भी औरों की अपेक्षा से पृथिवी का असाधारण

७२

न्यायकन्दली संवलित प्रशस्तपाद भाष्यम्

[] द्रव्ये पृथिवी

प्रशस्तपाद्भाष्यम्

विशेषाः सिद्धाः । चाक्षुषवचनात् सप्त सङ्ख्यादयः । पतनोपदेशाद् गुरुत्वम् । ‘गुणविनिवेशाधिकार’ अर्थात् कौन गुण किस द्रव्य में है ? इसके प्रतिपादक वैशेषिक सूत्र के द्वितीय अध्याय के सूत्रों से पृथिवी में सिद्ध हैं। चाक्षुष घटित सूत्र (४-१-११) से पृथिवी में संख्या प्रभृति सात गुण सिद्ध हैं। महर्षि कणाद ने ( ५ – १ – ७ से ) कहा है कि पृथिवी पतनशील

न्यायकन्दली

रूपादीनां पृथिव्या सह सम्बन्धो लभ्यते । सूत्रकारस्याप्येते गुणाः पृथिव्या मभिमता इत्याह – – एते चेति । गुणानां विनिवेशो द्रव्येषु वृत्तिः सा प्रतिपाद्यते अनेनाधिक्रियतेऽस्मिन्निति गुणविनिवेशाधिकारो द्वितीयोऽध्यायः । तस्मिन् रूपरसगन्धस्पर्शाः पृथिव्यां सिद्धाः सूत्रकारेण प्रतिपादिताः– रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवीति । चाक्षुषवचनात् सप्त सङ्ख्यादयः । “सङ्ख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे कर्म्म च रूपिद्रव्य समवायाच्चाक्षुषाणि” (४ १ – १ ) इति चाक्षुषवचनाद् रूपवत्यां पृथिव्यां सङ्ख्यादयः सप्त सिद्धाः । यदि ते रूपिद्रव्येषु न सन्ति तत्समवाये तेषां प्रत्यक्षत्वं सूत्रकारेण नोक्तं स्यादित्यर्थः ।

धर्म है” यहीं समझाने के लिए “रूपरसगन्धस्पर्शसंख्या” इत्यादि वाक्य है। इस वाक्य में द्वन्द्व समास के बाद मतुप् प्रत्यय है, अत: कथित रूपादि गुणों में से प्रत्येक का सम्बन्ध पृथिवी के साथ ज्ञात होता है । पृथिवी में इतने गुण है’ इस विषय में महर्षि कणाद की सम्मति “एते च” इत्यादि से दिखलाते हैं। ‘गुणाना विनिवेशोऽधिक्रियते अस्मिन्’ इस व्युत्पत्ति के बल से द्रव्य में गुणों की विद्यमानता जिसमें कही गयी है, वह द्वितीय अध्याय हो यहाँ ‘गुणविनिवेशाधिकार’ शब्द से कहा गया है। गुणविनिवेशाधिकार के “रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी” (२-१-१) इस सूत्र से पृथिवी में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श की सत्ता सूत्रकार ने कही है। “संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागो परत्वापरत्वे च रूपिद्रव्यसमवायाच्चाक्षुषाणि ” ( ४ – १ – १ ) इस सूत्र से संख्यादि सात गुणों को रूप युक्त द्रव्य के साथ समवाय सम्बन्ध के कारण ‘चाक्षुष’ कहा है। जिससे रूपयुक्त पृथिवी में संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व और अपरत्व ये सात गुण समझना चाहिए | अभिप्राय यह है कि संख्यादि सात गुण अगर रूपवाले द्रव्यों में न रहते तो ‘रूपिद्रव्य के समवाय से इनका प्रत्यक्ष होता है’ यह सूत्रकार न कहते ।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

७३

प्रशस्तपादभाष्यम्

अद्भिः सामान्य वचनाद् द्रवत्वम् । उत्तरकर्मवचनात् संस्कारः । क्षितावेव गन्धः । रूपमनेकप्रकारं शुक्लादि । रसः षड् विधो मधुरादिः । गन्धो द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च । स्पर्शोऽस्या अनुष्णाशीतत्वे सति पाकजः । है’ अतः ( समझना चाहिए कि) गुरुत्व नाम का गुण भी पृथिवी में उन्हें अभीष्ट है। जल के साथ सादृश्य ( २-१ – ७ ) के कहने से पृथिवी में द्रवत्व भी उन्हें अभीष्ट है। शर प्रभृति पार्थिव द्रव्य के उत्तर कर्म्म में संस्कार को कारण कहने ( ५ – १ – १७ ) से पृथिवी में (वेग और स्थितिस्थापक) संस्कार भी उन्हें अभिप्रेत हैं । गन्ध पृथिवी में ही है। शुक्लादि अनेक प्रकार के रूप भी पृथिवी में ही हैं। मधुरादि छः प्रकार के रस भी पृथिवी में ही हैं। सुरभि (सुगन्ध) और असुरभि ( दुर्गन्ध ) भेद से गन्ध दो प्रकार का है। पाकज अनुष्णाशीत स्पर्श भी पृथिवी में ही है।

न्यायकन्दली

पतनोपदेशाद् गुरुत्वमिति | “संयोगप्रतियत्नाभावे गुरुत्वात् पतनम्” ( ५ । ११७ ) इत्युपदेशात् सूत्रकारेण पतनसम्बन्धिन्यां पृथिव्यां गुरुत्वमस्तीत्यर्थात् कथितम्, व्यधिकरणस्याकरणत्वात् । अद्भिः सामान्य वचनाद् द्रवत्वम्, “सपिर्जतुमधूच्छिष्टानां पार्थिवानामग्निसंयोगाद् द्रवत्वमद्भिः सामान्यम्” ( २।१ । ७ ) इति वचनात् पृथिव्यां नैमित्तिकं

‘पतनोपदेशाद् गुरुत्वम्’ अर्थात् ‘ ‘संयोगाभावे गुरुस्वात् पतनम् ( ५ । १ । ७) इस सूत्र से महर्षि कणाद ने उपदेश किया है कि पतनशील पृथिवी में गुरुत्व हैं, क्योंकि एक आश्रय में विद्यमान वस्तु दूसरे आश्रय में कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकती । ‘अद्भिः सामान्यवचनाद् द्रवत्वम्’ अर्थात् “सपिजंतुमधूच्छिष्टानां पार्थिवानामग्निसंयोगाद् द्रवत्वमद्भिः सामान्यम्” ( २ । १ । ७) अर्थात् घृत, लाह, मोम प्रभृति पार्थिव द्रव्यों में अग्नि के संयोग से द्रवत्व की उत्पत्ति होती है। यह (नैमित्तिक द्रवत्व) पृथिवी और जल दोनों

१. एक मात्र विजयनगरम् संस्कृत ग्रन्थमाला में मुद्रित न्यायकन्दली की पुस्तक में इस सूत्र का पाठ है “संयोगप्रतियत्नाभावे गुरुत्वात्पतनम्” (पृ० २६ पं० १४) । यद्यपि यह ठीक है कि विरुद्ध यत्न भी पतन का प्रतिबन्धक है, जिससे कि आकाश में उड़ते हुए पक्षी का पतन नहीं होता है। अतः पतन के लिए उसका भी अभाव अपेक्षित है। किन्तु ढेले को फेंकने पर कुछ दूर तक उसका भी पतन नहीं होता है, अतः वेग को भी पतन का प्रतिबन्धक कहना ही चाहिए। न कहने पर न्यूनता होगी। अतः प्रथमोपात्त संयोग पद को उपलक्षण मानकर उसे पतन के सभी प्रतिबन्धकों में लाक्षणिक १०

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न्यायकन्दली संबलित प्रशस्तपादभाष्यम्

[ द्रव्ये पृथिवी

न्यायकन्दली

द्रवत्वमस्तीत्युक्तम् । मधूच्छिष्टशब्देन सिक्थस्याभिधानम् । उत्तरकर्मवचनात् संस्कार इति । “नोदनादाद्य मिषोः कर्म, तत्कर्मकारिताच्च

संस्कारात् तथोत्तरमुत्तरञ्च” ( ५ । १ । १७ ) इति सूत्रकारेण इषौं पाथिवद्रव्ये कर्महेतुः संस्कार इति दर्शयता पृथिव्यां वेगोऽस्तीति ज्ञापितम्, अविद्यमानस्याहेतुत्वात्। यथा चंक एव संस्कार आपतनात् तथोपपादयिष्यामः ।

क्षितावेव गन्धः । अयमस्यार्थ:– केवल एवायमसाधारणधर्म इति । सुगन्धि सलिलम्, सुगन्धि: समीरण इति प्रत्ययाद् द्रव्यान्तरेऽपि गन्धोऽस्तीति चेन्न, पार्थिव द्रव्यसमवायेन तद्गुणोपलब्धः । कथमेष निश्चय इति चेत् ? तदभावेऽनुपलम्भात् ।

में समान रूप से है। ‘मधूच्छिष्ट’ शब्द का अर्थ है ‘सिक्थ’ अर्थात् मोम। इस सूत्र से महर्षि कणाद ने कहा है कि पृथिवी में नैमित्तिक द्रवत्व है ।

‘उत्तरकमँवचनात् संस्कार:’ अर्थात् ‘नोदनादाद्यमिषोः कर्म्म, तत्कर्म्मकारिताच्च संस्कारात् तथोत्तरमुत्तरञ्च’ (५-१-१७) । (अर्थात् तीर की पहिली क्रिया नोदन से होती है, उस क्रिया से उत्पन्न संस्कारों के द्वारा शर के आगे आगे की क्रियायें होती हैं) ‘शर रूप पार्थिव द्रव्य में कर्म्म का कारण संस्कार है इस उक्ति के द्वारा महर्षि कणाद ने यह सूचित किया है कि ‘पृथिवी में वेग है’, क्योंकि किसी आश्रय में अविद्यमान कोई भी वस्तु उस आश्रय में कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकती। पतन पर्यन्त एक हो वेगाख्य संस्कार जिस प्रकार से रहता है, उसका प्रतिपादन हम आगे करेंगे ।

‘क्षितावेव गन्ध:’ इस वाक्य का अर्थ है कि गन्ध दूसरे की अपेक्षा न करते हुए केवल पृथिवी का असाधारण धर्म है । ( प्र०) ‘जल में सुगन्धि है, वायु में सुगन्धि है’ इत्यादि प्रतीतियों से और द्रव्यों में भी गन्ध सूचित होता है ? (उ०) पार्थिव द्रव्य के (संयुक्तसमवेत ) समवाय से ही जलादि द्रव्यों में गन्ध की उपलब्धि होती है । ( प्र०) यह कैसे समझते हैं ? ( उ०) क्योंकि पार्थिव द्रव्य का सम्बन्ध न रहने से जलादि में गन्ध की उपलब्धि नहीं होती है।

मानना पड़ेगा। तब ‘प्रतियत्न’ पद की आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसी अभिप्राय से वैशेषिक सूत्र के सर्वमान्य वृत्तिकार श्रीशङ्कर मिश्र ने भी इस सूत्र की व्याख्या की है (वै० उपस्कार पृ० १९७ पं० २३ गुजराती प्रे० सं० ) । किरणावली में मुद्रित सूत्र पाठ में भी ‘प्रतियत्न’ शब्द नहीं है। (बनारस सं० सिरीज में मुद्रित किरणावली सूत्र पाठ १० ६ पं० १७ ) । अतः यहाँ पर ‘संयोगप्रतियत्नाभावे गुरुत्वात्पतनम्’ यह पाठ न रखकर ‘संयोगाभावे गुरुत्वात्पतनम्’ यही पाठ रखना उचित समझा गया |

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

७५

न्यायकन्दली

यद्यपि रूपं त्रयाणाम्, तथाप्यवान्तरभेदापेक्षया तदपि पृथिव्या एव वैधर्म्यमाह रूपमनेकप्रकारकमिति । अत्राणि क्षितावेवेत्यनुसन्धानीयम् । शुक्लपीताद्य नेकविधं रूपं क्षितावेव नान्यत्रेत्यथः । एकस्यां पृथिवीत्वजातौ नानारूपाणि व्यक्तिभेदेन समवयन्ति । क्वचिदेकस्यामपि व्यक्तावनेकप्रकाररूपसमावेशः, यत्र नानाविधरूप सम्बन्धिभिरवयवँ रवयव्यारभ्यते । कथमेतदिति चेत् ? उच्यते, यथावयवैरवयव्यारब्धस्तथावयवरूपैरवर्यावनि रूपमारब्धव्यम्, अवयवेषु च न शुक्लमेव रूपमस्ति, नापि श्याममेव, किन्तु श्यामशुक्लहरितादीनि । न च तेषामेकं रूपमेवारभते नापराणीत्यस्ति नियमः, प्रत्येकमन्यत्र सर्वेषामपि सामर्थ्य दर्शनात् । न च परस्परं विरोधेन सर्वाप्यपि नारभन्त एवेति युक्तम् । चित्र रूपस्यावयविनः प्रतीतेररूपस्य द्रव्यस्य प्रत्यक्षत्वाभावाच्च । न चावयवरूपाणि समुच्चितान्यत्र चित्रधिया प्रतीयन्ते, तेनैवावयवी प्रत्यक्ष इति कल्पनायामन्यत्रापि तथाभावप्रसङ्गेनावय विरूपोच्छेदप्रसङ्गः, तस्मात् सम्भूय तैरारभ्यते । तच्चारभ्यमाणं

यद्यपि रूप पृथिवी, जल और तेज इन तीनों द्रव्यों में है, किन्तु अगर विशेष रूप से देखा जाय तो अनेक प्रकार के रूप पृथिवी में ही हैं, इस प्रकार रूप भी पृथिवी का असाधारण धर्म हो सकता है । इसी अभिप्राय से ” रूपमनेकप्रकारकम्” यह वाक्य लिखा है। इस वाक्य में भी ‘क्षितावेव’ इतना इस अभिप्राय से जोड़ देना चाहिए कि शुक्ल पीतादि अनेक प्रकार के रूप पृथिवी में ही हैं, और द्रव्यों में नहीं । एक ही पृथिवोत्व जाति के द्रव्यों में व्यक्तिभेद से अनेक प्रकार के रूप देखे जाते हैं। कहीं एक ही व्यक्ति में नाना प्रकार के रूपों का समावेश देखा जाता है, जहाँ कि नाना रूप के अवयवों से एक अवस्वी की उत्पत्ति होती है । ( प्र०) यह कैसे होता है ? (उ०) जिस तरह अवयवों से अवयवी की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार अवयवों के रूपों से अवयवो में रूप की उत्पत्ति होती है । ( कथित पट के) अवयवों में न केवल शुक्ल रूप ही है, न केवल नील रूप ही, किन्तु श्याम, शुक्ल, हरित प्रभृति अनेक रूप हैं। इसका कोई नियामक नहीं है कि उनमें से कोई एक ही रूप अवयवी में रूप को उत्पन्न करते हैं और रूप नहीं, क्योंकि उनमें से प्रत्येक रूप और जगह अवयवी में रूप को उत्पन्न करते हुए दीख पड़ते हैं । यह भी ठीक नहीं है कि यहाँ परस्पर विरोध के कारण कोई भी रूप अवयवी में रूप को उत्पन्न नहीं करते, क्योंकि चित्र रूप से युक्त अवयवी का प्रत्यक्ष होता है, एवं बिना रूप के द्रव्य का चाक्षुषप्रत्यक्ष हो भी नहीं सकता। यह भी सम्भव नहीं है कि अवयवों के ही रूप अवयवी में सम्मिलित होकर चित्रबुद्धि से प्रतीत होते हैं, एवं उसी चित्र रूप से अवयवी का भी प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि इस प्रकार की कल्पना से तो सभी अवयवी की यही. दशा होगी, फलतः अवयवियों से रूप की सत्ता ही उठ जाएगी। तस्मात् अवयवों

७६

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

न्यायकन्दली

[ द्रव्ये पृथिवी

विविधकारणस्वभावानुगमाच्छ्यामशुक्लहरितात्मकमेव स्यात्, चित्रमिति च व्यप दिश्यते । विरोधादेकमनेकस्वभावमयुक्तमिति चेत् ? तथा च प्रावादुकप्रवादः — “एकञ्च चित्रञ्चेत्येतत्तच्च चित्रतरं ततः” इति । को विरोधो नीलादीनाम्, न तावदितरेतराभावात्मकः, भावस्वभावानुगमादन्योन्यसंश्रयापत्तेश्च स्वरूपा न्यत्वं विरोध इति चेत् ? सत्यमस्त्येव । तथापि चित्रात्मनो रूपस्य नायुक्तता, विचित्रकारणसामर्थ्य भाविनस्तस्य सर्वलोक प्रसिद्धेन प्रत्यक्षेणैवोपपादितत्वात्। अचित्रे पावें पटस्येव तदाश्रयस्य चित्ररूपस्य ग्रहणप्रसङ्गस्तस्यैकत्वादिति चेन्न, अन्वयव्यति रेकाम्यां समधिगतसामर्थ्य स्यावयवनानारूपदर्शनस्यापि चित्ररूपग्रहणहेतुत्वात् तस्य च पाश्र्वान्तरेऽभावात् । नन्वेवं तह नानारूपैर्द्वचणुकैरारब्धे द्रव्ये न चित्ररूप ग्रहणम्, तदवयवरूपग्रहणाभावात् ? को नामाह न तथेति, नहि परमसूक्ष्मस्य वस्तुनो रूपं विविध्य गृह्यते, यस्य तु विविध्य गृह्यते तस्यावयवरूपाण्यपि गृह्यन्ते । यस्त्वव्यापकानि बहूनि चित्ररूपाणोति मन्यते, तस्य नोलपीताभ्यामारब्धे

के सभी रूप मिलकर ही उस अवयवी में रूप को उत्पन्न करते हैं। इस अवयवी में उत्पन्न होनेवाला वह एक रूप कारणों के अनेक स्वभाव से श्याम, शुक्ल और हरित स्वरूप ही होगा जो ‘चित्र’ शब्द से व्यवहृत होता है। (प्र०) विरोध के कारण एक वस्तु को अनेक स्वभाव का मानना ठीक नहीं है । ( उ० ) लोक में यह प्रसिद्ध है कि ‘चित्र’ रूप एक है और यह उस चित्र रूप से चित्रतर’ है। फिर नीलादि रूपों में परस्पर विरोध ही क्या है ? क्योंकि वे परस्पर अभाव स्वरूप नहीं हैं, क्योंकि उनमें से प्रत्येक में भावत्व की प्रतीति होती है एवं परस्पराभाव रूप मानने में अन्योन्याश्रय दोष भी होगा । ( प्र . ) एक में दूसरे की स्वरूपभिन्नता ही दोनों में विरोध है ? (उ.) यह विरोध ठीक है, किन्तु इससे चित्ररूप की अत्युक्तता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि विलक्षण कारणों से उत्पन्न चित्र रूप सर्वजनीन प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है । ( प्र . ) जिस पट के कुछ अंश बिलकुल सफेद है, और कुछ अंश चित्र रूप के हैं, उसमें शुक्ल रूप के ग्रहण से जैसे पट का ग्रहण होता है वैसे ही चित्र रूप का भी ग्रहण होना चाहिए, क्योंकि प्रकृत में शुक्लरूपाभय पट और चित्ररूपाश्रय पट दोनों एक ही हैं ? ( उ.) कारणता अन्वय और व्यतिरेक इन दोनों के अधीन है, ये दोनों जिसे जिसका कारण सिद्ध करेंगे वही उसका कारण होगा। तदनुसार चित्र रूप के प्रत्यक्ष में उसके आश्रय के अवयवों का प्रत्यक्ष भी कारण है। वह सफेदवाले अंश में नहीं है ( इसी से वहाँ चित्र रूप का प्रत्यक्ष नहीं होता है) । (प्र.) तो फिर नाना रूप के द्वथणुकों से बने हुए द्रव्य में चित्र रूप का प्रत्यक्ष नहीं होगा ? क्योंकि उत्पन्न होनेवाले द्रव्य के द्वथणुक रूप अवयव अतीन्द्रिय हैं, अतः उनके रूपों का ज्ञान सम्भव नहीं है । ( उ.) कौन कहता है कि

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

७७

न्यायकन्दली

द्वितन्तुके रूपानुत्पत्तिरेकैकस्यावयवरूपस्यानारम्भकत्वात् । अथ मतम्-तत्रो भाभ्यामेकं चित्रं रूपमारभ्यते, तदन्यत्रापि तथा स्यादविशेषात् । विवादाध्यासितं सम्बन्धि द्रव्यत्वादितरद्रव्यवत्, तद्गतं रूपमेकमवयविरूपत्वाद् चित्रद्रव्य मेकरूपद्रव्य इतरावयविद्रव्य रूपवत् ।

रसः षड्विध इत्यत्रापि पूर्ववद् व्याख्यानम् । यद् गन्धस्य भेदनिरूपणं तत् पारम्पर्येण पृथिव्या अपि स्वरूपकथनमित्यभिप्रायेणाह-गन्धो द्विविध इति । तदेव द्वैविध्यं दर्शयति सुरभिरसुरभिश्चेति । असुरभिरिति सुरभिगन्धविरुद्धं प्रतिद्रव्यादिसमवेतं प्रतिकूलसंवेदनीयं गन्धान्तरम्, न तु तदभावमात्रम्, विधि रूपेण सातिशयतया च संवेदनात् । उपेक्षणीयस्तु गन्धोऽनुभूतसुरभ्यसुरभिप्रभेद एवेति पृथङ्नोच्यते । अथवा सोऽप्यसुरभिरेव, सुरभिगन्धादन्योऽसुरभिरिति व्युत्पादनात् ।

ऐसा नहीं होता है। परम सूक्ष्म वस्तु के रूप नहीं देखे जाते। जिसका रूप अच्छी तरह देखा जाता है उसके अवयवों के रूप भी देखे हो जाते हैं। जो कोई ‘एक ही अवयवी में रहनेवाले अव्याप्यवृत्ति अनेक रूप ही चित्र रूप है ऐसा मानते हैं उनके मत में नील और पीत रूप के दो तन्तुओं से आरब्ध पट में रूप की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि अवयव का एक रूप तो कारण नहीं है ( प्र . ) वहाँ दोनों रूप मिलकर एक चित्र रूप का उत्पादन करते हैं। (उ.) तो फिर और स्थानों में भी वही होगा, क्योंकि स्थिति में कोई अन्तर नहीं है। (१) विवाद का विषय यह चित्र द्रव्य एक रूप के द्रव्य का सम्बन्धी है, क्योंकि वह द्रव्य है । (२) उसमें रहनेवाला रूप एक ही है, क्योंकि वह अवयवी का रूप है। जैसे कि ओर अवयवी द्रव्यों का रूप

‘रसः षड्विधः’ इस वाक्य की व्याख्या भी ‘रुपमनेकप्रकारकम्’ इस पहिले वाक्य की तरह है। गन्ध के भेद का निरूपण परम्परा से पृथिवी के ही स्वरूप का निरूपण है, इसी अभिप्राय से ‘गन्धो द्विविधः’ इत्यादि वाक्य लिखते हैं। यही दोनों प्रकार ‘सुरभिरसुरभिश्च’ इस वाक्य से लिखते हैं। ‘असुरभि’ शब्द का अर्थ सुगन्ध के विरोधी किसी विशेष द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला अनभीष्ट रूप से ज्ञात होनेवाला दूसरा गन्ध है, केवल सुरभि का अभाव नहीं, क्योंकि भावत्व रूप से और न्यूनाधिक भाव से उसका भान होता है। उपेक्षणीय गन्ध अनुभूत सुरभि और धनु दभूत असुरभि का ही प्रभेद है, अतः उसे अलग से नहीं कहा गया । अथवा उपे क्षणीय गन्ध असुरभि’ शब्द का ही अर्थ है, क्योंकि ‘असुरभि’ शब्द का ऐसा अर्थ है कि सुरभिगन्धादन्यो गन्धः’ अर्थात् सुरभि गन्ध से भिन्न गन्ध ही ‘असुरभि ‘ शब्द का अर्थ है

७८

न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम्

[ द्रव्ये पृथिवी

प्रशस्तपादभाष्यम्

साच द्विविधा – नित्या चानित्या च परमाणुलक्षणा नित्या, कार्य्यलक्षणा त्वनित्या | सा च स्थैर्य्याद्यवयवसन्निवेशवि शिष्टाऽपरजाति बहुत्वोपेता शयनासनाद्यने कोपकारकरी च ।

(१) परमाणुरूपा नित्य पृथिवी एवं (२) कार्यरूपा अनित्य पृथिवी, इस भेद से पृथिवी के दो भेद हैं। इनमें कार्यरूपा पृथिवी स्थैर्यादि ( घनत्व शिथिलत्वादि) अवयवों के विलक्षण संयोग से युक्त है और उसमें अनेक अपर जातियाँ रहती हैं। वह बिछावन और आसनादि द्वारा अनेक उपकारों का कारण है।

न्यायकन्दली

यथाभूतः स्पर्शोऽस्या बँधर्म्यं तथा दर्शयति – स्पर्शोऽस्या इति । पाकज: स्पर्श: पृथिव्या वैधर्म्यं तस्य स्वरूपकथन मनुष्णाशीत इति । यद्यपि स्पर्शवत्पाकजौ रूपरसावप्यस्याः वैधर्म्यम्, तथापि रूपरसयोः पाकजत्वानभिधानम्, अन्यथापि तयोवैधर्म्यस्य सम्भवात्, वैधर्म्यमात्रप्रतिपादनस्यैव विवक्षितत्वात् । अप्रतीयमानपाकजेषु स्तम्भादिषु स्पर्शस्य पाकजत्वमनुमानात् । स्तम्भादिषु स्पर्श: पाकजः, पार्थिवस्पर्शत्वात्, घटादिस्पर्शवत् । घटादिस्पर्शस्यापि पाकजत्वमेके न्द्रियग्राह्यत्वे सति तद्गुणत्वात् तद्गतरूपवत् ।

अवान्तर भेदनिरूपणार्थमाह — नित्या चानित्या चेति । प्रकारान्तरा भावसंसूचनाथ चशब्दौ । का नित्या का चानित्येत्याह–परमाणुलक्षणा नित्या कार्यलक्षणा त्वनित्येति । उभयत्रापि लक्षणशब्दः स्वभावार्थः । परमाणु

‘किस प्रकार का स्पर्श पृथिवी का असाधारण धर्म है’ यह ‘स्पर्शोऽस्याः’ इत्यादि से दिखलाते हैं। पाकज स्पर्श हो पृथिवी का असाधारण धर्म है, ‘अनुष्णाशीत:’ यह अंश उसी के स्वरूप का कथन है । यद्यपि स्पर्श की तरह पाकज रूप एवं पाकज रस भी पृथिवी के असाधारण धर्म हो सकते हैं, फिर भी असाधारण धर्म के लिए कथित रूप और रस में पाकजस्व इस लिए नहीं कहा कि वे और तरह से भी पृथिवी के वैधम्यं हो सकते हैं। यहाँ केवल वैधम्यं प्रतिपादन हो इष्ट है। स्तम्भादि जिन पार्थिव द्रव्यों के स्पर्श में पाकजत्व का प्रत्यक्ष नहीं होता है, उन स्पर्शों में भी पाकजत्व का अनुमान करेंगे कि स्तम्भादि के स्पर्श पाकज हैं, क्योंकि वे पृथिवी के स्पर्श हैं, जैसे घटादि के स्पर्श घट के स्पर्श में पाकजत्व का अनुमान इस प्रकार करेंगे कि वह पार्थिव होने के साथ साथ एक मात्र इन्द्रिय से गृहीत होता है, जैसे कि उसका रूप। (अतः वह भी पाकज है) ।

‘नित्या चानित्या च’ यह वाक्य पृथिवी के अवान्तर भेद के निरूपण के सिए लिखते हैं। ‘पृथिवी के और प्रकार नहीं हैं इसकी सूचना देने के लिए ही दोनों ‘च’ शब्द लिखे गये हैं। इनमें कौन नित्य है ? और कौन अनित्य ? यह समझाने

७९

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहित म्

न्यायकन्दली

स्वभावायाः पृथिव्याः सत्त्वे कि प्रमाणम् ? अनुमानम्, अणुपरिमाणतारतम्यां क्वचिद् विश्रान्तं परिमाणतारतम्यत्वाद् महत्परिमाणतारतम्यवत्, यत्रेदं विश्रान्तं यतः परमणुर्नास्ति स परमाणु: । अत एव नित्यो द्रव्यत्वे सत्यनवयवत्वादाकाशवत् अथायं सावयवो न तहि परमाणु कार्य्यपरिमाणापेक्षया तदवयवपरिमाणस्य लोकेऽल्पीयस्त्वप्रतीतेः, यश्च तस्यावयवः स परमाणुर्भविष्यति । अथ सोऽपि न भवति, अवयवान्तरसद्भावात् ? एवं तर्ह्यनवस्था, ततश्चावयविनामल्पतर तमादिभावो न स्यात्, सर्वेषामनन्तकारणजन्यत्वाविशेषेण परिमाण प्रकर्षाप्रकर्षहेतोः कारणसङ्ख्याभूयस्त्वाभूयस्त्वयोरसम्भवात् । अस्ति तावदयं परिमाणभेदः, तस्मादणु परिमाणं क्वचिनिरतिशयमिति सिद्धो नित्यः परमाणुः | स चैको नारम्भकः,

लिए लिखते हैं कि ‘परमाणुलक्षणा नित्या, कार्यलक्षणा त्वनित्या’ इस वाक्य के दोनों ही ‘लक्षण’ शब्द ‘स्वभाव के बोधक हैं। ( प्र०) परमाणु स्वभाव की पृथिवी को सत्ता में प्रमाण क्या है ? ( उ०) यह अनुमान प्रमाण है कि अणुपरिमाण का न्यूनाधिक भाव भी कहीं समाप्त होता है, क्योंकि वह भी परिमाण का न्यूनाधिक भाव है, जैसे कि महत्परि माण का न्यूनाधिक भाव अणुपरिमाण का यह तारतम्य जहाँ समाप्त होता है, चूंकि उससे छोटा कोई और अणु नहीं है, अतः वही परमाणु है। अतएव वह नित्य भी है, क्योंकि वह द्रव्य होने पर भी सावयव नहीं है जैसे कि आकाश | अगर वह सावयव है तो फिर वह परमाणु नहीं है, क्योंकि यह लोक में सिद्ध है कि कार्य के परिमाण से कारण का परिमाण अल्प होता है। फिर वही कारणीभूत द्रव्य परमाणु कहलायेगा | यह परमाणु भी नहीं कहला सकता, अगर इसके छोटे अवयव हैं । इस प्रकार ( परमाणु को सावयव मानने में) अनवस्था होगी, एवं इस अनवस्था से अवयवियों में परस्पर छोटे बड़े के भेद ही उठ जायेंगे। कोई अवयवी किसी दूसरे अवयवी से बड़ा इसलिए है कि उसका निर्माण उस छोटे अवयवी के निर्मापक अवयवों से अधिक संख्यक अवयवों से होता है। कोई अवयवी किसी अवयवी से छोटा इसलिए है कि उस अवयवी के निर्मापक अवयवों से अल्पसंख्यक अवयवों से उसका निर्माण होता है। अगर सभी को सावयव मान लें तो सभी अवयवियों को असंख्य अवयवों से निर्मित मानना पड़ेगा। फिर अवयवियों में परस्पर छोटे बड़े का व्यवहार ही किससे होगा ? किन्तु अवयवियों में परस्पर छोटे बड़े का भेद सर्वजनीन अनुभव से सिद्ध है। तस्मात् अणुपरिमाण का न्यूनाधिक भाव अवश्य ही कहीं समाप्त होता है। जहाँ यह समाप्त होता है वही ‘नित्य परमाणु’ है उन परमाणुओं में से किसी एक से ही काव्यं की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इससे सभी समय कार्योत्पत्ति की आपत्ति होगी, कारण कि उसे दूसरे की अपेक्षा नहीं है। अगर एक ही नित्य वस्तु

८०

न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम्

न्यायकन्दली

[ द्रव्ये पृथिवी

एकस्य नित्यस्य चारम्भकत्वे कार्य्यस्य सततोत्पत्तिः स्यादपेक्षणीयाभावात्, अविना शित्वश्व प्रसज्येत, आश्रयविनाशस्यावयविभागस्य च विनाशहेतोरभावात् । त्रयाणामप्यारम्भकत्वमयुक्तम्, इह महत्कार्य्यद्रव्यस्योत्पत्तौ स्वपरिमाणापेक्ष याउल्पपरिमाणस्य कार्य्यद्रव्यस्यैव सामर्थ्यदर्शनात् । त्र्यणुकं कार्य्यद्रव्येणैव जन्यते, महत्परिमाणत्वात्, घटवत् । एवं त्रयाणामेकस्य चारम्भकत्वे प्रतिक्षिप्ते द्वाभ्यामेव परमाणुभ्यामारभ्यते यत् तद्वयणुकमिति सिद्धम् । द्वयणुकंर्बहुभिरारभ्यत इत्यपि नियमो न, द्वाभ्यां तस्याणुपरिमाणोत्पत्तौ कारणसद्भावेनाणुत्वोत्पत्ता वारम्भवैयर्थ्यात्, बहुषु त्वनियमः । कदाचित् त्रिभिरारभ्यत इति त्र्यणुकमित्युच्यते, कदाचिच्चतुभिरारभ्यते, कदाचित् पञ्चभिरिति यथेष्टं कल्पना न च कार्य्यस्य व्यर्थता, यथा यथा कारणसङ्ख्याबाहुल्यं तथा तथा महत्परिमाणतारतम्योपलम्भात् । न चैवं सति द्वयणुकानामेव घटारम्भकत्व प्रसक्तिः, घटस्य भङ्गेल्पतरतमादिभाग दर्शनेन तथैवारम्भकल्पनात् तदेवं द्वयणुकादिप्रक्रमेण क्रियते कार्य्यलक्षणा पृथिवी ।

से कार्य की उत्पत्ति मानें तो कार्य का विनाश हो असम्भव होगा, क्योंकि कार्यों का नाश दो ही वस्तुओं से सम्भव है, एक तो आश्रय के नाश से ( समवायिकारण के नाश से) दूसरे अवयवों के विभाग से ( फलतः असमवायिकारण के नाश से), ये दोनों ही प्रकार नित्य वस्तु से कार्यों की उत्पत्ति मान लेने पर असम्भव हैं। तीन परमाणु भी मिलकर कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकते, क्योंकि तीन परमाणुओं से जो बनेगा वह अवश्य ही महान् होगा। महत्परिमाण के कार्यद्रव्य का यह स्वभाव सर्वत्र देखा जाता है कि उसकी उत्पत्ति उसके परिमाण से न्यून परिमाणवाले कायंद्रव्यों से होती है। तस्मात् व्यसरेणु कार्यद्रव्यों से उत्पन्न होता है, क्योंकि उसमें महापरिमाण है, जैसे कि घटादि । इससे एक परमाणु से और तीन परमाणुओं से कार्य की उत्पत्ति खण्डित हो जाने पर यह सिद्ध होता है कि दो परमाणुओं से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, एवं उस कार्य का नाम द्वथणुक है। यह भी निश्चित ही है कि दो से अधिक द्वयणुकों से ही कार्य की उत्पत्ति हो सकती है, दो द्वयणुकों से नहीं, क्योंकि दो द्वयणुकों से उत्पन्न कार्य का परिमाण ‘अणु’ ही होगा, क्योंकि उसके परिमाण में अणुपरिमाण को ही उत्पन्न करने का सामर्थ्य है। दो द्वथणुकों से जिस अणुपरि माणवाले द्रव्य की उत्पत्ति होगी उसका उत्पन्न होना ही व्यर्थ है। दो से अधिक कितने द्वयणुकों से कार्य की उत्पत्ति होती है, इसका कोई नियम नहीं है, कभी तीन द्वथणुकों से ही कार्योत्पत्ति होती है, कभी चार या पाँच द्वथणुकों से कार्योत्पत्ति की यथेच्छ कल्पना की जा सकती है। इस पक्ष में कार्योत्पत्ति की व्यर्थता नहीं है, क्योंकि जिस कम से कारणों की संख्या में अधिकता होगी, उसी क्रम से उनके कार्यों में परिमाण

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

८१

प्रशस्तपादभाष्यम्

त्रिविधं चास्याः कार्य्यम् । शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञकम् । इसके कार्य (१) शरीर (२) इन्द्रिय और (३) विषय भेद से तीन प्रकार के

न्यायकन्दली

सा चानित्या कारणविभागस्याश्रय विनाशस्य च हेतोः सम्भवात् । कार्य्यलक्षणायाः पृथिव्या अनित्यत्वेन सह धर्मान्तरं समुच्चिन्वन्नाह सा चेति । स्थैय्यं निबिडत्वम् । आदिशब्दात् प्रशिथिलत्वादिपरिग्रहः । अवयवानां सन्नि वेशोऽवयवसंयोगविभागविशेषः । स्थैर्यादयश्चावयवसनिवेशाच तैविशिष्टा अपर जातिबहुत्वोपेता गोत्वादिजातिभूयस्त्वयुक्तेत्यर्थः । परमाण्वादिष्वपरजात्यभावे ऽप्यदृष्टवशात्तथा तथा तेषां व्यूहो यथा यथा तदारब्धेष्वपरजातयो व्यज्यन्ते । नन्वदृष्टकारिता सर्वभावानां सृष्टि:, कार्य्यलक्षणा पृथिवी कामर्थक्रियां पुरुषस्य जनयति, येनेयमदृष्टेन क्रियत इत्यत आह – शयनासनेति । शयनासनादयोऽनेक उपकारास्तत्कारिणी कार्यलक्षणेति ।

तारतम्य भी बढ़ता जाएगा, किन्तु इसे द्वथणुक में साक्षात् घट की उत्पादकता सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि घट के नष्ट होने पर अन्य छोटे बड़े अवयव दीख पड़ते हैं। उसीके अनुसार द्वधणुक से उत्पन्न होनेवाले कार्य की कल्पना करते हैं। तस्मात् परमाणुओं से द्वयणुकादि कम से कार्य रूप पृथिवी की उत्पत्ति होती है ।

यह कार्य रूप पृथिवी अनित्य है, क्योंकि आश्रयविनाश एवं अवयवों के विभाग, कार्यविनाश के ये दोनों ही हेतु सम्भावित हैं । कार्य रूप पृथिवी में अनित्यत्व के साथ और धर्मों का समावेश कहते हुए ‘सा च’ इत्यादि वाक्य लिखते हैं। ‘स्थैय्यं’ शब्द का अर्थ है निबिडत्व, कठोरता। ‘आदि’ पद से प्रशिथिलत्व, कोमलत्व प्रभृति का संग्रह अभीष्ट है। ‘अवयवसंनिवेश’ शब्द का अर्थ है अवयवों का विशेष प्रकार का संयोग । ( ‘स्थैर्य्याद्यवयवसंनिवेशविशिष्टा’ ) इस वाक्य का विग्रह इस प्रकार है कि स्थैर्य्यादयश्च अवयवसंनिवेशाइच स्थैर्य्याद्यवयवसंनिवेशाः’ तैः विशिष्टा स्थैर्य्याद्यवयव संनिवेश विशिष्टा । ‘अपरजातिबहुत्वोपेता’ अर्थात गोरवादि अनेक प्रकार की अपर जातियाँ उसमें रहती हैं। यद्यपि कार्य रूप पृथिवी के मूल कारण परमाणुओं में ये अपर जातियाँ नहीं हैं, किन्तु अदृष्टवश उनसे इस प्रकार से कार्यों की उत्पत्ति होती है कि उनमें ये गोत्वादि अपरजातियाँ अभिव्यक्त होती हैं। अगर सभी वस्तुओं की उत्पत्ति अदृष्ट से ही होती है तो फिर यह काय्यंरूपा पृथिवी जीवों के किन प्रयो जनों का सम्पादन करती है कि उन्हें अदृष्ट से उत्पन्न मानें ? इसी प्रश्न का समाधान ‘शयनासन’ इत्यादि से देते हैं । अर्थात् शयन और आसन प्रभृति जीवों के अनेक उपकरण कार्यरूपा पृथिवो के द्वारा सम्पादित होते हैं।

८२

न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्त पादभाष्यम्

[ द्रव्ये पृथिवी

प्रशस्तपादभाष्यम्

शरीरं द्विविधं योनिजमयोनिजञ्च | तत्रायोनिजमनपेक्ष्य शुक्रशोणितं देवर्षीणां शरीरं धर्मविशेषसहितेभ्योऽणुभ्यो जायते । क्षुद्रजन्तूनां यातनाशरीराण्यधर्म विशेष सहितेभ्योऽणुभ्यो जायन्ते । शुक्रशोषित सन्निपातजं योनिजम् । तद् द्विविधं जरायुजमण्डजञ्च । मानुषपशुमृगाणां जरायुजम् । पक्षिसरीसृपाणामण्डजम् ।

हैं। इनमें शरीर ( १ ) योनिज और ( २ ) अयोनिज भेद से दो प्रकार का है । इनमें एक प्रकार के अयोनिज शरीर देवताओं और ऋषियों के हैं, जो शुक्र और शोणित की अपेक्षा न रखकर विशेष प्रकार के धर्म और परमाणुओं से ही उत्पन्न होते हैं । ( दूसरे प्रकार के) अयोनिज शरीर ( मशकादि) क्षुद्र जीवों के हैं जो ( शुक्र शोणित की अपेक्षा न रखकर ) अधर्म एवं परमाणुओं से उत्पन्न होते हैं । शुक्र और शोणित के संयोग से उत्पन्न शरीर को ही ‘योनिज शरीर’ कहते हैं । योनिज शरीर भी ( १) जरायुज और ( २ ) अण्डज भेद से दो प्रकार का है। मनुष्य, पशु एवं मृगादि के शरीर ‘जरायुज’ हैं, एवं चिड़ियों और साँप प्रभृति जीवों के शरीर ‘अण्डज’ हैं ।

न्यायकन्दली

कार्यान्तरं

त्वस्याः त्रैविध्यमेव दर्शयति समुच्चिनोति – त्रिविधमिति । कार्य शरीरेत्यादि । शरीरमिन्द्रियं विषय इति संज्ञा यस्य कार्यस्य तत्तथा । भोक्तुर्भोगायतनं शरीरम्, मृतशरीरे तद्योग्य त्वात् तद्व्यपदेशः । शरीराश्रयं ज्ञातुरपरोक्षप्रतीतिसाधनं द्रव्यमिन्द्रियम् । शरीरेन्द्रियव्यतिरिक्तमात्मोपभोगसाधनं द्रव्यं विषयः । शरीरभेदं कथयति — योनिजमयोनिजञ्चेति । शुक्रशोणितसन्निपातो योनिः तस्माज्जातं योनिजम्, तद्विपरीतमयोनिजम् । तदेव दर्शयति–तत्रायोनिजमिति । तयोर्मोनिजायोनिजयो

पृथिवी के और कार्यों का सङ्कलन ‘शरीर’ इत्यादि से करते हैं। अर्थात् शरीर, इन्द्रिय और विषय ये तीन नाम जिनके हैं वे ही ‘शरोरेन्द्रियविषयसंज्ञक, हैं। भोग करनेवाला (जीव) जिस आश्रय में भोग करे वही ‘पशरीर’ है। मृत शरीर में भोग की योग्यता के कारण शरीरत्व का व्यवहार होता है। शरीर में रहनेवाला एवं जीव के अपरोक्ष ज्ञान का सम्पादक द्रव्य ही इन्द्रिय है। शरीर और इन्द्रिय को छोड़ कर जीवों के भोग के सम्पादक जितने द्रव्य हैं वे सभी ‘विषय’ हैं। ‘योनिज मयोनिजञ्च’ इत्यादि से शरीर का भेद दिखलाते हैं। प्रकृत में ‘योनि’ शब्द का अर्थ है शुक्र और शोणित का मेल । उससे उत्पन्न होने वाले ‘योनिज’ कहलाते हैं, एवं इसके विपरीत जो कार्य शुक्र और शोणित के मेल के बिना ही उत्पन्न होता है, उसे ‘अयोनिज’ कहते हैं। इस अर्थ को ‘तत्रायोनिजम्’ इत्यादि वाक्य से समझाते हैं ।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

न्यायकन्दली

८३

मंध्येऽयोनिजं शरीरं शुक्रशोणितमनपेक्ष्य जायते। केषामित्यत आह — देवर्षीणा मिति । देवानाञ्च ऋषीणाञ्चेत्यर्थः । अन्वयव्यतिरेकावधारितकारणभावस्य शुक्रशोणितस्याभावे कथं शरीरस्योत्पत्तिरित्यत आह – धर्मविशेषसहितेभ्य इति । विशिष्यत इति विशेष:, धर्म्म एव विशेषो धर्म्मविशेषः, प्रकृष्टो धर्म्मः, तत्सहितेभ्यो डणुभ्य इति । अयमभिसन्धिः– शरीरारम्भे परमाणव एव कारणम्, न शुक्रशोणित सन्निपातः, क्रियाविभागादिन्यायेन तयोविनाशे सत्युत्पन्नपाकजं: परमाणुभिरार म्भात् । न च शुक्रशोणितपरमाणूनां कश्चिद्विशेष:, पार्थिवत्वाविशेषात् । अत्रापि का जातिनियमस्यादृष्ट एव हेतुः, एवञ्चेद्धर्म्म विशेषानुगृहीतेभ्यः परमाणुभ्योऽ योनिजशरीरोत्पत्तिर्नानुपपन्ना। ननु दृष्टस्तावत् सर्वत्र शरीरोत्पत्तौ शुक्रशोणित पूर्वकालतानियमः, तेन यथा ग्रावोन्मज्जनाभ्युपगमस्तत्सदृशग्रावान्तरनिमज्जन

‘तत्र’ अर्थात् योनिज और अयोनिज इन दोनों में अयोनिज शरीर अपनी उत्पत्ति में शुक्र एवं शोणित के मेल की अपेक्षा नहीं रखते। ये अयोनिज शरीर किनके हैं ? इस प्रश्न का समाधान ‘देवर्षीणाम्’ इत्यादि से देते हैं। अर्थात् देवताओं और ऋषियों के शरीर अयोनिज हैं। शुक्र और शोणित में शरीर की कारणता अन्वय और व्यतिरेक से सिद्ध है, फिर देवताओं और ऋषियों के शरीर बिना शुक्रशोणित के ही कैसे उत्पन्न होते हैं । इसी आक्षेप का उत्तर धम्मं विशेषसहितेभ्यः’ इस वाक्य से दिया गया है। ‘विशिष्यत इति विशेष: धर्म एव विशेषो धर्म्माविशेष: इस व्युत्पत्ति के अनुसार उत्कृष्ट धर्म ही इस ‘धर्म्मविशेष’ शब्द से इष्ट है। इसकी सहायता से परमाणु ही देवादि शरीरों को उत्पन्न करते हैं। अर्थात् उन शरीरों की उत्पत्ति परमाणुओं से ही होती हैं शुक्र और शोणित के मेल से नहीं क्रियाविभागादिक्रम से’ अर्थात् पहिले अवयवों में किया उसके बाद अवयवों का विभाग, फिर आरम्भक संयोग का नाश, अनन्तर कार्य द्रव्य का नाश, इस क्रम से जब शुक्र और शोणित का परमाणु पर्यन्त विनाश हो जाता हैं, तब इन परमाणुओं में दूसरे रूप रसादि की उत्पत्ति होती है, एवं इन पाकज रुपरसादि गुणों से युक्त परमाणुओं से ही शरीर की उत्पत्ति होती है। शुक्र और शोणित के आरम्भक परमाणुओं में एवं अन्य पार्थिव परमाणुओं में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों में पार्थिवत्व समान रूप से है। योनिज-शरीर स्थलों में भी किसी विशेष प्रकार के शुक्रशोणित से किसी विशेष प्रकार के (द्रव्य रुप शरीर ) की ही उत्पत्ति हो, इसमें अदृष्ट को ही (नियामक) कारण मानना पड़ता है। अगर ऐसी बात है तो फिर उत्कृष्ट धर्म से अनुगृहीत परमाणुओं के द्वारा अयोनिज शरीर की उत्पति में कोई अयुक्तता नहीं है। (प्र०) जिस प्रकार किसी पत्थर के तैरने को स्वीकार करना उसी तरह के दूसरे पत्थर के डूबने के बाधक प्रमाण के द्वारा असम्भव होता है, उसी प्रकार सर्वत्र

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व्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपाद भाष्यम्

न्यायकन्दली

[ द्रव्ये पृथिवी

ग्राहकप्रमाणान्तरविरोधादनुपपन्नस्तद्वदयोनिजशरीराभ्युपगमोऽपि, नैवम्, शुक्रादि निरपेक्षस्यापि शलभादिशरीरस्य दर्शनात् । विशिष्टसंस्थानस्य शरीरस्य शुक्रादिपूर्वंतावगतेति चेत् ? सत्यम्, तथापि न नियमसिद्धिः, किमदृष्टविशेषा भावादस्मदा विशरीरस्य शुक्रादिपूर्वता, किं वा विशिष्टसंस्थानमात्रानुबन्धकृतेति संदेहात् । एतेन बाधकानुमानमपि पर्य्युदस्तम् तस्य व्याप्तिसंदेहात् । वक्तव्यं तद्योगिप्रत्यक्षनिरूपणावसरे वक्ष्यामः । यच्चात्र

अधर्मविशेषेणाप्ययोनिजं शरीर भवेतीत्याह- – क्षुद्रजन्तूनामिति । क्षुद्रजन्तवो दंशमशकादयस्तेषां यातना पीडा दु:खमिति यावत्, तदर्थ शरीरं यातनाशरीरम् । तदधर्मविशेषसहितेभ्योऽणुभ्यो जायते । इदन्त्विह लोकसिद्धमेव । योनिजं शरीरमाह — शुक्रशोणितसन्निपातजमिति । शुक्रव शोणितव तयोः सन्निपातः संयोगविशेषः, तस्माज्जातं योनिज

देहोत्पत्ति से पहिले नियमतः शुक्रशोणित को देखने के कारण अयोनिज शरीर का मानना सम्भव नहीं है ? ( उ०) नहीं, क्योंकि शुक्र और शोणित के विना भी कीड़े-मकोड़े प्रभृति के अनेक दशरीर देखे जाते हैं। (प्र०) फिर भी कुछ शरीर तो नियमतः शुक्र शोणित से ही उत्पन्न होते हैं । ( उ०) तब भी यह सन्देह रह ही जाता है कि जिन शरीरों की उत्पत्ति के पहिले शुक्र शोणित का संनिपात नियमतः देखा जाता है, उस (नियम) का कारण (शुक्रशोणित निरपेक्ष शलभादि शरीर के सम्पादक अदृष्ट के सदृश ) अदृष्ट का अभाव है ? अथवा उस शरीर का ही यह स्वभाव है कि वह बिना शुक्रशोणित के उत्पन्न ही न हो । तस्मात् यह नियम ही नहीं हो सकता कि सभी शरीर शुक्र और शोणित से ही उत्पन्न हों। इससे यह बाधक अनुमान भी खण्डित हो जाता है कि देवादि शरीर भी शुकशोणितपूर्वक हैं, क्योंकि वे भी विशेष आकार के हैं जैसे कि मनुष्यशरीर क्योंकि कथित युक्ति से इस अनुमान की व्याप्ति हो संदिग्ध हूं । इस विषय में और जो कुछ भी कहना है वह योगिप्रत्यक्ष के निरूपण में कहेंगे ।

‘क्षुद्रजन्तूनाम्’ इत्यादि पङ्क्ति से कहते हैं कि विशेष प्रकार के अधमं से भी अयोनिज शरीर की उत्पत्ति होती है। ये ‘क्षुद्रजन्तु’ हैं डांस, मच्छर प्रभृति । इनके शरीर ‘यातनाशरीर’ कहलाते हैं, ‘यातना’ शब्द का अर्थ है पीड़ा, दुःख भोग करना ही जिस शरीर का प्रधान प्रयोजन हो वही है ‘यातनाशरीर’। वे विशेष प्रकार के अधर्मों से सहकृत परमाणुओं से ही उत्पन्न होते हैं। यह विषय आपामर प्रसिद्ध है । शुक्रशोणित संनिपातजम’ इत्यादि से योनिज शरीर का निरूपण करते हैं। शुक्र और शोणित इन दोनों का जो ‘संनिवेश’ अर्थात् विशेष प्रकार का संयोग, उस संयोग से ‘जात’ अर्थात् जन्म हो जिसका वही ‘योनिज’ शब्द से व्यवहृत होता है ।

प्रकरणम् ]

भावानुवादसहितम्

न्याय कन्दली

८५

मित्युच्यते । पितुः शुक्रं मातुः शोणितं तयोः सन्निपातानन्तरं जठरानलसम्बन्धा च्छुकशोणितारम्भकेषु परमाणुषु पूर्वरूपादिविनाशे सति समानगुणान्तरोत्पत्तौ द्वयणुकादिप्रक्रमेण कललशरीरोत्पत्तिस्तत्रान्तःकरणप्रवेशो न तु शुक्र शोणितावस्थायाम्, शरीराश्रयत्वान्मनसः । तत्र मातुराहाररसो मात्रया संक्रा मति, अदृष्टवशात् । तत्र पुनर्जठरानलसम्बन्धात् कललारम्भकपरमाणुत्रु क्रिया विभागादिन्यायेन कललशरीरे नष्टे समुत्पन्नपाकजं: कललारम्भकपरमाणुभि रदृष्टवशादुपजातक्रियैराहारपरमाणुभिः सह सम्भूय शरीरान्तरमारभ्यत इत्येषा कल्पना शरीरे प्रत्यहं द्रष्टव्या । शरीरभेदे कि प्रमाणम् ? परिमाणभेदः, स्वल्पपरिमाणावच्छिन्ने आश्रये महत्परिमाणस्य परिसमाप्त्यभावात् । अवस्थान्तरा पत्नं शरीरं तदाश्रयो भवतीति चेत् ? अवस्थान्तरमाहारा वयवसहकारिणः शरीरा

पिता का शुक्र एवं माता का शोणित इन दोनों के मेल के बाद माता के उदर सम्बन्धी तेज से शुक्र के और शोणित के आरम्भक परमाणुओं के पहिले के रूपादि का नाश एवं दूसरे रूपादि की उत्पत्ति होती है। परिवर्तित रूपादि से युक्त इस शुक्र और शोणित के परमाणुओं से कलल’ नाम के शरीर की उत्पत्ति होती है। इस शरीर में ही मन का सम्बन्ध होता है, शुकशोणितावस्था में नहीं, क्योंकि मन शरीर में ही रह सकता है । उस शरीर में माता से खायी हुई वस्तुओं के रस का कुछ अंश सम्बद्ध होता है । ” अदृष्टवश उस ‘कलल’ नामक शरीर के आरम्भक परमाणुओं में क्रिया होती है, फिर विभाग होता है। इस प्रकार द्रव्य नाश के कथित क्रम से उस कलल शरीर का नाश हो जाता है। इस नाश के बाद कलल के आरम्भक परमाणुओं के पहिले रूपादि का उसी तेज के संयोग से नाश होता है और दूसरे रूपादि की उत्पत्ति होती है। पाकज रूपादि से युक्त कलल के आरम्भक ये परमाणु अदृष्ट से उत्पन्न क्रिया से युक्त ( माता के ) आहार के परमाणुओं से मिलकर दूसरे शरीर को उत्पन्न करते हैं। शरीर के नाश और शरीरान्तर की उत्पत्ति की यह प्रक्रिया प्रतिदिन चलती है। अभिप्राय यह है कि अवस्था की वृद्धि के साथ हाथ पैर प्रभृति अङ्गों की लम्बाई चौड़ाई कुछ हद तक बढ़ती है, या शरीर ही कुछ दुबला पतला होता ही रहता है। यह ह्रास और वृद्धि पहिले शरीर के नाश के बाद अभिनव शरीर की उत्पत्ति मानने पर ही सम्भव है। इसी विषय को प्रश्नोत्तर रूप से समझाते हैं। (प्र० ) एक ही व्यक्ति के भिन्न भिन्न शरीर मानने में क्या प्रमाण है ? ( उ० ) परिमाण का भेद (ही प्रमाण है) । अल्प परिमाण के द्रव्य में उस से बड़े परिमाण का समावेश नहीं हो सकता । ( प्र० ) वही शरीर दूसरी अवस्था पाकर उस बड़े परिमाण का आश्रय होगा। ( उ० ) इस दूसरी अवस्था का उत्पादक कौन है ? आहार के अवयवों से साहाय्यप्राप्त शरीर के ही अवयव ? या आहार के अवयवों

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न्यायकन्दली

तपादभाष्यम्

[ द्रव्ये पृथिवी

न्यायकन्दली

वयवा आरभेरन् शरीरं वा तत्सहकृतम्, उभयथापि पटादिषु तन्त्वादिवदन्ते हीना धिकपरिमाणवदनेकशरीरोपलम्भः स्यात्, न चैवम् तस्मात् पूर्व प्रनष्टमपरञ्च शरीरमुपजातम् । विवादाध्यासिते परिमाणे भिन्नाश्रये, हीनाधिकपरिमाणत्वात्, घटशरावपरिमाणवत्, विवादाध्यासितं परिमाणमाश्रयविनाशादेव विनश्यति परिमाणत्वात्, मुद्गराभिहतविनष्टघटपरिमाणवत् । प्रत्यभिज्ञानाच्छरीरैकत्व सिद्धिरिति चेत् ? न, तस्य सादृश्यविषयत्वेनाप्युपपत्तेः । व्यक्तीनामव्यवधानो त्पादनेनान्तराग्रह्णस्यात्यन्तिकसादृश्यस्य च भ्रान्तिहेतोः सर्वदा सम्भवे ज्वालादि व्यक्तिवन्नेदं तदिति बाधकानुदयेऽपि युक्तिद्वारेण बाधकसम्भवात् ।

तस्य प्रकारं दर्शयति- द्विविधमिति । द्वे विधे प्रकारौ यस्य तद् द्विविध मिति व्याख्या | जरायुरिति गर्भाशयस्याभिधानम्, तेन वेष्टितं जायत इति

से सहकृत शरीर ही ? दोनों ही प्रकार से यह अनुपपन्न है, क्योंकि स्वल्प परिमाण के अवयवों से आरब्ध पट और उससे अधिक परिमाणवाले अवयवों से आरब्ध घट दोनों की उपलब्धि एक समय में हो सकती है, उसी प्रकार एक ही व्यक्ति में एक ही समय में मोटे और पतले दोनों शरीरों की उपलब्धि होनी चाहिए, किन्तु होती नहीं है, अतः ऐसे स्थलों में एक शरीर का नाश और दूसरे शरीर की उत्पत्ति माननी ही पड़ेगी। ( उक्त विषय के साधक अनुमान ये हैं कि) (१) विवाद के विषय (मोटे और पतले) दोनों शरीरों के परिमाण दो विभिन्न व्यक्तियों में रहते हैं, क्योंकि उन दोनों में घड़े और पुरवे के परिमाणों की तरह एक न्यून है, दूसरा अधिक । (२) विवाद के विषय ये परिमाण मुद्गर से विनष्ट घट के परिमाण की तरह आश्रय के नष्ट होने पर ही नष्ट होते हैं, क्योंकि ये भी (जन्य ) परिमाण हैं (प्र०) एक ही व्यक्ति के मोटे और पतले दोनों शरीरों में परस्पर यह प्रत्यभिज्ञा होती है कि ‘जिसको मैंने पहिले देखा था उसी को अभी देख रहा हूँ। इसी प्रत्यभिज्ञा से दोनों शरीरों में एकत्व की सिद्धि करेंगे। ( उ०) दो सदश व्यक्तियों में भी प्रत्यभिज्ञा हो सकती है जैसे कि दीपशिखाओं में । यह और बात है कि दीपशिखाओं के एकत्व का बाधक अत्यन्त परिस्फुट होने के कारण उस प्रत्यभिज्ञा में अयथार्थत्व शीघ्र गृहीत हो जाता है, शरीर बिना व्यवधान के बराबर उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है, अतः व्यवधान का अज्ञान और अत्यन्त सादृश्य ये दोनों भ्रान्ति रूप प्रत्यभिज्ञा के कारण बराबर रहते हैं, किन्तु युक्ति के द्वारा विचार करने पर विलम्ब से ही सही उस प्रत्यभिज्ञा का बाध अवश्य होता है।

‘द्विविधम्’ इत्यादि से योनिज शरीर का भेद दिखलाते हैं। ‘द्वे विधे प्रकारी यस्य तद् द्विविधम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस वस्तु के दो प्रकार हों वही ‘द्विविध’ शब्द का अर्थ है । ‘जरायु’ शब्द का अर्थ है गर्भाशय, उससे वेष्टित होकर जन्म होने के

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

८७

प्रशस्तपादभाष्यम्

इन्द्रियं गन्धव्यञ्जकं सर्वप्राणिनां जलाद्यनभिभूतैः पार्थिवा वय वैरारब्धं घ्राणम् |

इन्द्रिय रूप पृथिवी वह है जिससे सभी प्राणियों को गन्ध का ज्ञान होता है। यह जलादि से अनभिभूत पार्थिव अवयवों से बनती है। इस इन्द्रिय का अन्वर्थ नाम है ‘घ्राण’ ।

न्यायकन्दली

जरायुजम् । अण्डं बिम्बं तेन वेष्टितं जायते तदण्डजम् । केषां जरायुजं केषां चाण्डज मित्यत्राह – मानुषेत्यादि । मानुषा अस्मदादयः पशवः छागाः, “अग्नीषोमीयं पशु मालभेत”, “सप्तदश प्राजापत्यान् पशूनालभेत” इति दर्शनात् । मृगाः कृष्णसारादयः, तेषां जरायुजं शरीरम् । इदश्वोपलक्षणपरम्, अन्येषामपि चतुष्पदां जरायुज त्वात् । पक्षिण प्रसिद्धाः । सरीसृपाः सर्पास्तेषामण्डजं शरीरम् । एतदपि न नियमार्थमन्येषामपि मत्स्यादीनामण्डजत्वात् ।

इन्द्रियमाह – इन्द्रियमिति । सर्वप्राणिनां गन्धव्यञ्जकं गन्धोपलम्भकं यदिन्द्रियं तत् पार्थिवावयवैररारब्धम् । एतावता यदेतदेव गन्धमभिव्यनक्ति नान्यत् पार्थिव जलाद्यनभिभूतं: पार्थिवावयवैरारब्धं घ्राणम् । नियमो न लभ्यते तदर्थमाह — जलादिभिरनभिभूतं र प्रतिहत सामथ्यँरवयवैरदृष्टवशादितर विलक्षणमारब्धमेतत्, अतो विशिष्टोत्पादा द्रव्यम्,

कारण ही (मानुपादि) शरीर जरायुज हैं। ‘मानुष’ इत्यादि पङ्क्तियों से समझाते हैं कि किन प्राणियों के शरीर जरायुज हैं और किन प्राणियों के अण्डज । ‘मानुष’ हैं हम लोग, पशु शब्द का अर्थ है छाग, मेमना आदि। छाग रूप अर्थ में पशु शब्द के प्रयोग करने का यह अभिप्राय नहीं है कि ‘जरायुज’ इतने ही हैं, क्योंकि सभी चौपाये भी जरायुज ही हैं। ‘पक्षि’ शब्द का अर्थ प्रसिद्ध है। ‘सर्प’ शब्द से साँप अभिप्रत है । इन सभी योनिजों के शरीर अण्डज हैं। इसका यह भी अभिप्राय नहीं कि अण्डज इतने ही हैं, क्योंकि माँछ प्रभृति ओर भी अण्डज हैं।

‘इन्द्रियम्’ इत्यादि से पार्थिव इन्द्रिय का निरूपण करते हैं। सभी प्राणियों के गन्धथ्यञ्जक’ अर्थात् सभी प्राणियों के गन्ध प्रत्यक्ष की उत्पादक इन्द्रिय ही पार्थिव अवयवों से बनती है। किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह इन्द्रिय रूप पार्थिवद्रव्य ही गन्ध के प्रत्यक्ष का उत्पादक है और कोई पार्थिव द्रव्य नहीं। इसी नियम की सूचना के लिए लिखते हैं कि ‘जलाद्यनभिभूतैः पार्थिवावयवैरारब्धं प्राणम्’ अर्थात् जिन पार्थिव अवयवों का सामर्थ्य जलादिगत किसी विरोधी शक्ति से नष्ट नहीं है, अदृष्टवश उन पार्थिव अवयवों से आरब्ध यह घ्राणन्द्रिय रूप पार्थिव द्रव्य और पार्थिव द्रव्यों से

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न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्त पादभाष्यम्

[ द्रव्ये पृथिवी

प्रशस्तपादभाष्यम्

विषयस्तु द्वथणुकादिक्रमेणारब्धस्त्रिविधो मृत्पाषाणस्थावरलक्षणः ।

विषय रूप पृथिवी परमाणुओं से द्वयणुक, त्र्यसरेणु प्रभृति के क्रम से उत्पन्न होती है। विषय रूप पृथिवी भी ( १ ) मृत्तिका, (२) पाषाण और (३) स्थावर

न्यायकन्दली

दिदमेव गन्धाभिव्यक्तिसमर्थम्, नान्यदित्यर्थ घ्राणमिति तस्य संज्ञा । आत्मा जिघ्रति गन्धमुपादत्तेऽनेनेति कृत्वा तत्सद्भावे गन्धोपलब्धिरेव प्रमाणम्, क्रियायाः करणसाध्यत्वात्, चक्षुरादिव्यापारे च तस्या अनुत्पादात् । पार्थिवत्वेऽपि रूपादिषु मध्ये गन्धस्येवाभिव्यञ्जकत्वं प्रमाणम्, कुङ्कुमगन्धाभिव्यञ्जकघृतवत् । यथा घृतं स्वगन्धसहितमेव कुङ्कुमगन्धमभिव्यनक्ति, तथा घ्राणमपि स्वगन्धसहित मेवेन्द्रियम्, अतो न स्वगन्धस्य ग्राहकम्, तेन॑व तस्याग्रहणात् । यथा घ्राणस्य तथा रसनचक्षुस्त्वगिन्द्रियाणामपि वक्ष्यमाणेन दृष्टान्तबलेन रूपरसस्पर्शसहकृतानामेवेन्द्रि यत्वानुमानान्न स्वगुणग्रहणम् । श्रोत्रन्तु शब्दगुणमिन्द्रियम्, अतस्तेनैव शब्दोपलम्भः |

सर्वधा विलक्षण है। इन विलक्षण कारणों से उत्पन्न होने के हेतु ही और पार्थिव द्रव्यों में गन्ध की व्यञ्जकता नहीं है, घ्राण में ही है। घ्राण इस इन्द्रिय का नाम है। इस नाम की व्युत्पत्ति से ही घ्राणेन्द्रिय की सत्ता में प्रमाण भी सूचित होता है। आत्मा जिघ्रत्यनेन’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे आत्मा को गन्ध का प्रत्यक्ष हो वही ‘घ्राण’ है। फलतः यह अनुमान निकला कि गन्ध ग्रहण रूप किया का कोई करण है, क्योंकि वह भी किया है, जैसे कि छेदनकिया। चक्षु प्रभृति और इन्द्रियों के व्यापार से गन्ध का ज्ञान नहीं होता है. तस्मात् चक्षुरादि इन्द्रियों से विलक्षण कोई इन्द्रिय अवश्य है, जिसका अन्वर्थ नाम ‘प्राण’ है। घ्राण में पार्थिवत्व इस अनुमान प्रमाण से सिद्ध है कि घ्राणेन्द्रिय पार्थिव है, क्योंकि रूपादि वस्तुओं में से वह केवल गन्ध के ही प्रत्यक्ष का उत्पादक है, जैसे कि कुङ्कुम के गन्ध को अभिव्यक्त करानेवाला घृत। जिस प्रकार घृत अपने गन्ध के साथ ही कुङ्कुम के गन्ध का अभिव्यञ्जक है, उसी प्रकार से घ्राण भी अपने गन्ध के साथ ही सभी गन्धों का अभिव्यञ्जक है। अतः घ्राण से स्वगत गन्ध का प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रत्यक्ष होनेवाले गन्ध से भिन्न दूसरे गन्ध से युक्त घ्राण से ही प्रत्यक्ष होता है, अतः स्वगत गन्ध से युक्त घ्राण से घ्राणगत गन्ध का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। इसी प्रकार आगे के दृष्टान्त से यह समझना चाहिए कि रस से युक्त रसना रूप से युक्त चक्षु एवं स्पर्श से युक्त त्वचा में ही इन्द्रिय अर्थात् रसादि प्रत्यक्ष का करणत्व है, अतः इन सबों से भी स्वगत रूपादि का प्रत्यक्ष नहीं होता है। श्रोत्र रूप इन्द्रिय का तो शब्द ही केवल विशेष गुण है, अतः उसीसे शब्द का प्रत्यक्ष होता है।

प्रकरणम् ]

भाषानुवादसहितम्

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प्रशस्तपादभाष्यम्

तत्र भूप्रदेशाः प्राकारेष्टकादयो मृत्प्रकाराः । पाषाणा उपल मणिवत्रादयः । स्थावरास्तृणौषधिवृक्षलतावतानवनस्पतय इति । भेद से तीन प्रकार की है। भूमि रूप प्रदेश, दीवाल, ईटें आदि मृत्तिका के ही प्रभेद हैं । साधारण पत्थर से लेकर मणि एवं वज्र पर्यन्त सभी पत्र पाषाण ही हैं। औषधि, वृक्ष, लता, अवतान, वनस्पति प्रभृति सभी स्थावर रूप पृथिवी हैं। न्यायकन्दली

शरीरेन्द्रियाभ्यां विषयस्य स्वरूपविशेषं ‘तु’ शब्देन दर्शयन् भेदं दर्शयति विषयस्त्विति । द्वयणुकादिप्रक्रमेणारब्ध इति साधारणरूपानुवादः । मृत्पाषाण स्थावरलक्षण इति । मृत्पाषाणस्थावरादिस्वभाव इत्यर्थः । तेषां मध्ये मृदं स्वरूपेण निद्धरियन्नाह – तत्रेति । तत्र भूप्रदेशाः स्थलनिम्नादयः प्राकारेष्टकादयः सर्वे ते मृत्प्रकाराः, मृत्प्रभेदा इत्यर्थ: । पाषाणभेदमाह- पाषाणा इति । उपलाः शिलाः, मणयः सूर्य्यकान्तादयः, वज्रोऽशनिर्होरश्च । तृणमुलपादिः, औषधयः फलपाकान्ता गोधूमादयः, ये सपुष्पफलास्ते वृक्षाः कोविदारप्रभृतयः, लता प्रसिद्धव, अवतन्वन्ती त्यवताना नाम विटपाः केतकीबीजपूरादयः, ये विना पुष्पं फलन्ति ते वनस्पतय औदु म्बरादयः । ननु स्वेच्छाधीनचेष्टाविरहः स्थावरत्वम्, तत्तु मृत्पाषाणयोरप्यस्ति । सत्यम्, तयो रूपान्तरस्यापि सम्भवादनेन रूपेणाभिधानं न कृतम् ।

‘तु’ शब्द से शरीर और इन्द्रिय में परस्पर भेद दिखलाते हुए विषय रूप पृथिवी का भेद ‘ विषयस्तु’ इत्यादि से दिखलाते हैं। ‘वह द्वघणुकादि क्रम से उत्पन्न होती है’ यह कहना केवल उसके साधारण धर्म का अनुवाद है। मृत्पाषाणयावरलक्षणः’ अर्थात् मिट्टी, पत्थर एवं स्थावर सभी वस्तु विषयरूपा पृथिवी हैं। इसमें मिट्टी को औरों से अलग करते हुए ‘तत्र’ इत्यादि ग्रन्थ लिखते हैं। इनमें चौरस एवं नीची ऊँची सभी भूमि ‘भूप्रदेश’ हैं । दीवाल, ईंटा प्रभृति सभी विषय मृत्तिका के ही प्रभेद हैं। ‘पाषाणा’ इत्यादि से पत्थर का भेद कहते हैं । उपल’ शब्द का अर्थ है शिला, अर्थात् साधारण पत्थर, ‘मणि’ है सूर्यकान्त प्रभृति, ‘वज्र’ है अशनि ( इन्द्र का अस्त्र ) और हीरा । ‘तृण’ है उलप’ प्रभृति, ‘औषधि’ वह कहलाता है जो अपने फल के पकने तक ही रहे, जैसे गेहूँ प्रभृति। जिसमें फूल और फल दोनों ही लगे वह ‘वृक्ष’ है, कोविदार प्रभृति ‘लता’ शब्द से माधवी लता प्रभृति प्रसिद्ध ही है। अवतम्वन्ति इति अवताना: इस व्युत्पत्ति के अनुसार बड़ा वृक्ष ही ‘अवतान’ है, जिसे ‘विटप’ कहते हैं (पीपल आदि महावृक्ष) । (प्र०) जिसमें स्वाधीन चेष्टा न रहे वही स्थावर है। तदनुसार मिट्टी और पत्थर भी स्थावर के अन्तर्गत आ जाते हैं, फिर उनका अलग से निरूपण क्यों ? ( उ० ) ठीक है, किन्तु स्थावरत्व से

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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्

[ द्रव्ये जल

प्रशस्तपादभाष्यम्

अपत्वाभि सम्वन्धादापः |

‘यह जल है’ इस प्रकार का व्यवहार ‘जलस्व’ जाति के सम्बन्ध से करना चाहिए ।

न्यायकन्दली

अपां लक्षणमाह–अपत्वाभिसम्बन्धादाप । अत्रापि व्यवहारसाधनं समानासमा नजातीयव्यवच्छेदो वा लक्षणार्थ: पूर्ववत् । इदन्त्विह वक्तव्यम् स्वयं प्रत्यक्षाधिगत पदार्थभेद: परस्य लक्षणेन प्रतिपादयेत्, अप्रतिपन्नस्याप्रतिपाद कत्वात् । भेदश्च पदार्थानामन्योन्याभावलक्षणः । स च यस्याभावो यत्र चाभावस्त दुभयग्रहणेन गृह्यते, अन्यथा तत्स्वरूपप्रतिनियमेन निषेधानुपपत्तिः, गौरश्वो न भवतीति । तत्र कि सङ्कीर्णयोरुभयोर्ग्रहणादन्योन्याभावग्रहणं परस्पर विविक्तयोर्वा ? सङ्कीर्णग्रहणं तावदयमयं न भवतीति प्रतीत्यसम्भव एव । परस्परविविक्तयोर्ग्रहणाद भावप्रतीतावितरेतराश्रयत्वम्, विविक्तयोर्ग्रहणे सत्यभावग्रहणमभावग्रहणेच विविक्त ग्रहणम्, अभाव एव विवेको यतः । अत्रोच्यते, भिन्नयोरितरेतराभावो नत्वितरेतरा

दूसरे रूप से भी वे कहे जा सकते हैं, अतः वे स्थावर वर्ग में नहीं कहे गये । ‘अपत्वाभिसम्बन्धादाप इत्यादि से जल का लक्षण कहते हैं। यहाँ भी ‘यह जल है’ इस व्यवहार का साधन अथवा जल को उनके सजातीत एवं विजातीय वस्तुओं से पृथक् रूप से समझाना हो जल के लक्षण का प्रयोजन है । ( प्र०) यहाँ यह पूछना है कि जिस व्यक्ति को लक्ष्य और उसके सजातीय विजातीयों के भेद प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात हैं, वही व्यक्ति लक्षण के द्वारा इस विषय को दूसरों को समझा सकता है अज्ञ व्यक्ति किसी को भी नहीं समझा सकता। पदार्थों के भेद एवं अन्योन्याभाव दोनों ही एक वस्तु हैं। जिसमें जिस वस्तु का अन्योन्याभाव समझाना है, उन दोनों के ज्ञान से ही अन्योन्याभाव ज्ञात होता है। अन्यथा गो अश्व नहीं है इस निषेध के लिए नियमतः प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों का उल्लेख अनुपपन्न हो जाएगा। इस प्रसङ्ग में प्रष्टव्य है कि भेद-ज्ञान के लिए परस्पर सम्बद्ध अनुयोगी और प्रतियोगी इन दोनों का ज्ञान आवश्यक है या परस्पर असम्बद्ध अनुयोगी और प्रतियोगी का ज्ञान ? इनमें परस्पर सम्बद्ध प्रतियोगी और अनुयोगी के ज्ञान से तो भेद का ज्ञान सम्भव नहीं है, क्योंकि ‘यह’ (घट) ‘यह’ (पट) नहीं है इस प्रकार की प्रतीति नहीं होती है । परस्पर विविक्त अनुयोगी और प्रतियोगी के ज्ञान से अगर भेद का ज्ञान मानें तो फिर अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य होगा, क्योंकि भेद का ज्ञान परस्पर विविक्त प्रतियोगी और अनुयोगी के ज्ञान से होगा, एवं भेद-ज्ञान से परस्पर विवेक की वृद्धि होगी, क्योंकि