द्रष्टास्वरूप वर्णन – NATURE OF THE OBSERVER (PART -1)

द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः। योगसूत्रम् साधनपाद -२०।

द्रष्टा दृशिमात्र (चिन्मात्र – विशेषण के द्वारा अपरामृष्ट दृक् शक्ति), शुद्ध (त्रिगुण सङ्गवर्जित) होने पर भी प्रत्ययानुपश्य (बुद्धिवृत्तिका उपदर्शन कारक)।

जो अपने स्वरूप में सदा स्थित रहता है, उसे प्रकृति कहते हैं। जो अपनी प्रकृति को त्याग कर अन्य प्रकृति दर्शाता है, उसे विकृति (परिणाम) कहते हैं। 

  • विकार कार्य है। 
  • प्रकृति कारण है। 
  • अविकारी ज्ञाता ही द्रष्टा है। 
  • विकारी ज्ञाता दृश्य है। 
  • ज्ञान के लिये ग्रहिता (ज्ञ – जानने वाला), ग्राह्य (वस्तु, जिसे जाना जाय) और ग्रहण (क्रिया) – तीनों अपेक्षित है। 
  • द्रष्टा और ग्रहिता दोनोंमें सादृश्य है। परन्तु दोनों एक नहीं है। द्रष्टा सर्वदा स्व-द्रष्टा है। यही उसकी प्रकृति है। ग्रहिता केवल ज्ञानके समय ग्रहिता है। “मैं द्रष्टा हुँ”– ऐसी बुद्धि ही ग्रहिता है। दृश्यका ही ज्ञान होता है। ज्ञानके निरोधके समय वह ग्रहिता नहीं रहता। परन्तु द्रष्टा अविनाशी सनातन है (नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः –गीता-२ /२४)।

दृशि का अर्थ ज्ञ अथवा चित् अथवा स्ववोध है। जिस वोध केलिए इन्द्रियादि अन्य करणों (instrument) का अपेक्षा नहीं रहता, वह दृशि है। “मैं हुँ” यह वोध अनुभुत होने के पश्चात् ही हम वागिन्द्रिय (वाणी) से उसका प्रकाश करते (कहते) हैं। इसमें इन्द्रियों का अपेक्षा रहता है, कारण वह बुद्धिविशेष है। परन्तु “मैं” इस वोध का जो मूल है, जो इस भाव से पूर्व भी अप्रकाशित रूप में अवस्थित है, और जिसे वाणी के द्वारा प्रकाश करने का प्रयास किया जाता है, वह करणसापेक्ष नहीं है – किसी अन्य करणों का अपेक्षा नहीं रखता। इसीलिए बृहदारण्यकोपनिषत् २-४-१४ में कहा गया है, “येनेदगं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे केन विजानीयादिति” – जिसके द्वारा सवको जानते हैं, उसको कैसे जानोगे? 

  1. इन्द्रियाँ वहिःकरण, तथा मन-बुद्धि-अहङ्कार-चित्त अन्तःकरण है। करणों का विषय पञ्चभूत तथा सङ्कल्प-विकल्प-गर्ब-स्मरण है। करण और उनके विषय दोनों दृश्य है। 
  2. द्रष्टा करण का विषय नहीं हो सकता। अतः द्रष्टा का स्वरूप जो वोध है, वह स्व-वोध है। द्रष्टा स्व-द्रष्टा, अर्थात “मैं ज्ञाता हुँ” – इस स्व-विषयक बुद्धि का द्रष्टा है।

जब तक दृश्य है, तब तक पुरुष को द्रष्टा कहा जा सकता है। परन्तु जब दृश्य का लय हो जाता है, तब उसको द्रष्टा कैसे कहेंगे ? अविनाशी होने से उसका नाश अथवा लय नहीं हो सकता। तब उसे चितिशक्ति अथवा चैतन्य कह सकते हैं। उसी चितिशक्ति अथवा चैतन्य ही द्रष्टा है। चित् द्रष्टा का धर्म नहीं है। कारण धर्म और धर्मी दोनों दृश्य – ज्ञाताज्ञात भाव विशेष है। चित् ही द्रष्टा है। अतः द्रष्टा को चिद्रूप कहते है।


दृशिमात्रः में मात्र शब्द के द्वारा सर्वविशेषणशून्यत्व अथवा धर्मशून्यत्व का निर्देश किया गया है। अर्थात् सर्वविशेषणशून्य जो वोध है, वही द्रष्टा है। यहाँ प्रश्न उठता है कि चितिशक्ति को दर्शितविषया, अप्रतिसङ्क्रमा, अपरिणामिनी, अनन्ता, शुद्धा आदि विशेषण से विशेषित किया जाता है। यह विरोधाभास है। उत्तर है कि 

  • विषय सकल जिसके निकट बुद्धि के द्वारा दर्शित होता है, उसे दर्शितविषया कहते हैं। अर्थात् जिसके सत्तासे बुद्धि चेतनावती हो कर बुद्धिस्थ विषय सकल का प्रतिसंवेदन होता है, वह दर्शितविषया है। 
  • विषय सकल प्रकाशित होने से वह स्वप्रकाश शक्ति क्रियाशालिनी अथवा विकृता नहीं होता है। अतः उसे अप्रतिसङ्क्रमा कहा गया है। जो प्रतिसङ्क्रम (सञ्चार – कार्य अथवा विषय में सङ्क्रान्त होना) शून्य अर्थात् निष्क्रिया – निर्लिप्ता हो, उसे अप्रतिसङ्क्रमा कहते हैं। 
  • विकार (परिणाम) शून्य होने से इसे अपरिणामिनी कहा गया है। 
  • वह चितिशक्ति पूर्ण स्वप्रकाश है – सात्त्विक प्रकाश जैसा आवरणशील तथा चलनशील नहीं है। अतः शुद्धा है।
  • परिमित संख्यक अवयवों का समष्टिरूप जो आनन्त्य है, वह चितिशक्ति में कल्पनीय नहीं है। अन्त पदार्थ उसके साथ संयोज्य ही नहीं है। अतः वह अनन्ता है। अनन्त विशेषण अथवा धर्म नहीं है। वस्तुतः वह धर्मविशेष का अभाव है। 

सान्तादि (जिसका सीमा अथवा अन्त है) व्यापी (जिसका विस्तार है) तथा प्रधान प्रधान जो विशेषण है, उनका अभाव उल्लेख करनेके पश्चात् ही सर्वधर्माभाव क्या है, वह स्पष्ट होता है। अन्तवत्ता, विकारशीलता, आदि दृश्यके धर्मसकल निषेध करनेके पश्चात् द्रष्टाको लक्षित किया जा सकता है।

पुरुष बुद्धि का प्रतिसम्वेदी है। प्रतिफलन (reflection) कहने से दर्पण आदि किसी फलक (reflector – ञिफलाँ वि॒शर॑णे) से लगकर किसी विकिरण (radiation) गतिराहित्य को प्राप्त होता है तथा अभिघात (rebounding) के कारण (वेगः संयोगविशेषविरोधी – वैशेषिक सूत्र) उत्तरक्षण में अन्य दिक् गमन करता है। वही प्रतिफलित रश्मि (reflected light) जब हमारे चक्षुरिन्द्रिय से गृहीत होकर बुद्धिको समर्पित होता है, हम उसके रूपको देखते हैं। उसीप्रकार किसी सम्वेदक (knowable) के द्वारा अन्य सम्वेदन (knowledge) उत्पादन करना अथवा अन्य सम्वेदनके रूपमें प्रतिभात होना(appearance) प्रतिसम्वेदन है। रूपादि प्रतिफलनका जैसे दर्पणादि प्रतिफलक होता है, उसीप्रकार बुद्धिका अथवा व्यवहारिक अहङ्कार ( apparent consciousness – मैं पना) का वर्तमान क्षणमें जो सम्वेदन होता है, उसी सम्वेदन पुनश्च उत्तरक्षणमें अहंत्व रूपमें (मैं जानता हुँ – ऐसे रूप में) प्रतिसम्विदित (perception) होता है। इस प्रतिसम्वेदन का जो केन्द्र है (the source of such perception – जैसे प्रतिफलन में दर्पण), वही बुद्धि का प्रतिसंवेदी (ultimate consciousness) है। बुद्धि तथा पुरुषका एकप्रत्ययगतत्व के कारण अत्यन्त सन्निकर्ष होनेसे चित्स्वभाव पुरुषके द्वारा बुद्धिमें आरोपित विषय सकल प्रकाशित होते हैं। “मैं हुँ”, (myself) ऐसे चिन्ता करना भी प्रतिसम्वेदन का फल है। समस्त निम्न शारीर वोधका अथवा वैषयिक वोधका प्रतिसम्वेदन का केन्द्र बुद्धि अथवा उसका निम्न करणशक्ति सकल है। किन्तु बुद्धिजैसा सर्वोच्च व्यवहारिक आत्मभावका जो प्रतिसम्वेदी है, वह बुद्धिके अतीत है। वही निर्विकार चिद्रूप पुरुष है। उस प्रतिसम्वेदन भावके माध्यम से ही पुरुषतत्त्वमें (knowledge of the absolute reality) उपनीत हो सकते हैं। समाधिद्वारा बुद्धितत्त्व साक्षात् करनेके पश्चात् विचारानुगत ध्यानसे प्रतिसम्वेदन भाव अवलम्वन करके प्रतिसम्वेदी पुरुषका उपलब्धि होती है।

किसी आलम्बन में समाहित चित्त का स्थूलरूप विषयक आभोग (शब्द, अर्थ, ज्ञान तथा विकल्प युक्त चित्तवृत्ति यदि स्थूल विषयक होता है जैसे कि computer का hardware), उस स्थूल स्वरूपका साक्षात्कारवती प्रज्ञा को वितर्क कहते हैं। यदि वही आभोग सूक्ष्म विषयक (software) हो तो उसे विचार कहते हैं। यह विचार वितर्कविकल (वितर्क रूप कला हीन) है। साधारण इन्द्रियों के द्वारा गो, घट, पट, नील, पीत आदि जो विषय गृहीत होते हैं, वह स्थूल विषय है (sequence of symbols)। साधारण स्थूलग्राही इन्द्रियों के द्वारा जब शब्द रूपादि नाना इन्द्रियग्राह्य धर्म (restricted information related to only one field at a time) सङ्कीर्ण भाव से गृहीत हो कर (mixing information  – mass of text, volume of intermediate data, time over which such process will be executed -related to different aspects  – readings generated from different fields, with a common code – data structure – strings), एक द्रव्य जैसा प्रतिभात होती है (its from bits – to bring it to a format “it is like that”), वह स्थूलता के लक्षण है।

जब उस अनुभव से विचार विशेष के द्वारा सूक्ष्मतत्त्व का सम्प्रज्ञान होता है, वह सविचार सम्प्रज्ञात है (In communication technology, the mixing is done through data, text, spread-sheets, pictures, voice and video. Data are discretely defined fields. What the user sees is controlled by software – a collection of computer programs. What the hardware sees is bytes and bits. In perception, these tasks are done by the brain. Data are the response of our sense organs to individual external stimuli. Text is the excitation of the neural network in specific regions of the brain. Spreadsheets are the memories of earlier perception. Pictures are the inertia of motion generated in memory – thought -after a fresh impulse, linking related past experiences. Voice is the disturbance created due to the disharmony between the present thought and the stored image – this or that, yes or no. Video is the net thought that emerges out of such interaction. Software is the memory. Hardware includes the neural network. Bytes and bits are the changing interactions of the sense organs – including sound that produces words – strings, with their respective fields generated by the objects evolving in time). इस के आगे ह्लादयुक्त आभोग आनन्द तथा एकात्मिका संवित् अस्मिता है। आधुनिक विज्ञान का पहुँच वहाँ तक नहीं है (Artificial intelligence cannot reach there).