Veda

वेदों का अपव्याख्यान – “कः” का अर्थ ।

वेदों का अपव्याख्यान – “कः” का अर्थ – श्रीवासुदेवमिश्र शर्म्मा।

इस जगत् प्रपञ्च के उत्पत्ति से पूर्व सर्वप्रथम प्रजापति हिरण्यगर्भ ही विद्यमान थे (मायाध्यक्षात् सिसृक्षोः परमात्मनः समजायत)। वही एक अद्वितीय (वह जगत के धारण, सृजन तथा पालन में अन्यनिरपेक्ष) समग्र उत्पन्न भूतमय जगत् का स्रष्टा (प्रदीप्त दृश्यप्रपञ्चका गर्भ अथवा उत्पत्ति-स्थान) तथा पालक हैं।

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दर्शपूर्णमास का व्यापक विज्ञान

जब तक यह पृथक् पृथक् रहे, तबतक इनकी विश्वनिर्माण सम्बन्धिनी कामना पूरी न हुई । फलतः इन्होंने विचार किया कि ऐसे काम नहीं चल सकता । अपने को परस्पर में मिलकर सृष्टिनिर्माण करना चाहिए। ऐसा ही हुआ । पाञ्चों मिल गये ! मिलने से कामना पूरी होगई । इन की समष्टि कर्मपूर्ति का हेतु बनी, अतएव यह यज्ञ ‘काम’ नाम से प्रसिद्ध हुआ । यही यज्ञ यज्ञ विज्ञानपरिभाषा के अनुसार आगे जाकर ‘दर्शपूर्णमास’ नाम से व्यवहृत हुआ ।

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माया के स्वरूप और भेद – भाग ६

ब्रह्म ह वा इदमग्र असीत् स्ययंभ्वेकमेव । ….. तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य संतप्तस्य ललाटे स्नेहो यदार्द्रमाजायत । तेनानन्दत्तद्ब्रवीन्महद्वै यक्षं सुवेदमविदामह इति । तद्यदब्रवीन्महद्वै यक्षं सुवेदमविदामह इति तस्मात्सुवेदो ऽभवत्तं वा एतं सुवेदं सन्तं स्वेदइत्याचक्षते परोक्षेण … । गोपथब्राह्मणम् । उस स्ययम्भू ब्रह्मने जब सृष्टिकाम हुआ, तो क्रिया की उत्पत्ति हुई । क्रियासे ताप सृष्टि हुआ । अग्नेरापः

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माया के स्वरूप और भेद – भाग ३

प्राणस्य ही क्रियाशक्तिर्बुद्धेर्विज्ञानशक्तिता । द्रव्यस्फुरणविज्ञानमिन्द्रियाणामनुग्रह । रस का एक प्रदेश को त्याग कर अन्य प्रदेशमें जानेवाला बल ही क्रिया है । क्रिया परिच्छिन्न वस्तुमें कम्प अर्थात स्थानच्युति करती है । परन्तु रस विभु होने से अवयवरहित है । सर्वत्र उसका उपस्थिति है । अतः उसमें स्थानच्युति सम्भव नहीं है । वह अच्युत है । क्रिया भी

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माया के स्वरूप और भेद – भाग २

रस-बल के संसर्ग से विविध विशेष (विशेषताएं – भेद) उदित होते हैं । निर्विशेष सविशेष होता है । यह विशेष रूप कहाँ से आते हैं, कहाँ जाते हैं, यह न जानने के कारण इसे माया कहा जाता है । माया शब्द का अर्थ जिससे परिमित (परिच्छेद) कर के किसीका मान निर्धारण किया जाता है (मा॒ङ् माने॑) ।

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