Veda

न तस्य प्रतिमाऽअस्ति ।

न तस्य प्रतिमाऽअस्ति ।
जाकिर नायक जैसे पाखण्डी तथा कुछ आर्यसमाजी इस वेदमन्त्र का कदर्थ करते हुए, इसे मूर्तिपूजा का विरोधी प्रचार कर रहे हैँ । वह लोग इस मन्त्र का आंशिक वर्णन कर रहे हैँ तथा तस्य का अर्थ ब्रह्म कह रहे हैँ । जाकिर नायक इसे अल्लाह मान कर बूतपरस्ती के विरुद्ध कह रहा है । उन्हे न शास्त्र का ज्ञान है न मूर्तितत्त्व का ।

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माया के स्वरूप और भेद – भाग १

माया विभेदबुद्धि की जननी है । जैसे समुद्र तरङ्गें कभी एक अन्य से तथा कभी वेलाभूमि से स्पर्द्धा करते हुए रुन्धित (आवरित – रु॒धिँ॑र् आ॒वर॑णे) करते हैं, जिससे वह परिमित (सीमित) हो जाते हैं तथा भिन्न प्रतीत होते हैं, उसीप्रकार माया सबका शक्ति सङ्कुचित करते हुए वस्तुस्वरूप को उसीप्रकार आच्छादित कर भ्रमदृष्टि सृष्टि करता है, जिसप्रकार अस्त समय में जैसे सूर्य अपना रश्मि को संहृत कर अन्धकार को जन्म देते हैं । माया ब्रह्म का शक्ति होने से सर्वप्रथम ब्रह्म का स्वरूप जानना चाहिए ।

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वेद स्तुति (नाम-रूप-कर्म) मीमांसा – 5 आत्मा

आत्मा शब्द सापेक्ष है। जैसे पिता अथवा पुत्र कहसे से प्रश्न उठता है कि किसका पिता अथवा पुत्र, उसीप्रकार आत्मा कहने से प्रश्न उठता है कि किसका आत्मा। “यदुक्थं सत् यत् साम सत् यद् ब्रह्म स्यात् स तस्य आत्मा” – जो किसी का उक्थ-ब्रह्म-साम है, वह उसकी आत्मा है। उक्थ क्या है।

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वेद स्तुति (नाम-रूप-कर्म) मीमांसा – 4 मन-प्राण-वाक्

कौषीतकि ब्राह्मणम् 8-4 में कहा गया है कि वायुर्वै प्राणः। ऐतरेय ब्राह्मणम् 9-3-26 में भी कहा गया है कि वायुर्ही प्राणः। इससे प्राण का वायु रूपत्व सिद्ध है। परन्तु प्राण वायु नहीं है। न वायुक्रिये पृथगुपदेशात् – प्राण वायुक्रिया नहीं है, कारण इसका पृथक् उपदेश किया गया है – यह वेदान्त वाक्य से यही प्रमाणित होता है। सांख्यप्रवचन भाष्य 2-31 में इसका समाधान किया गया है कि प्राणादि पञ्च वायुवत् सञ्चाराद् वायवो ये प्रसिद्धाः – प्राणादि पञ्च, वायु जैसा सञ्चरण करते हैं, अतः उन्हे वायु कहते हैं। प्राण एक करण है जो कार्यसिद्धि में सहायक है।

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