चैतन्यम् आत्मा

चैतन्यम् आत्मा ।

श्रीमद्वासुदेव मिश्रशर्म्मा

चेतना चेतनभिदा कूटस्थात्मकृता न हि ।
किन्तु बुद्धिकृताभासकृतैवेत्यवगम्यताम् ॥ पञ्चदशी – ६-४५॥

चेतन अचेतन का भेद कूटस्थ (कूटँ॒ अप्र॑दाने – न भाति नास्ति कूटस्थ – कूटवत् निर्व्विकारेण निश्चलः सन् तिष्ठतीति – एकरूपतया यः कालव्यापी सः) तथा आत्मकृत नहीँ है । इसे बुद्धिकृत – बुद्धिमें प्रतिबिम्बित – आभासकृत् (कूटस्थे कल्पिता बुद्धिस्तत्र चित्प्रतिविम्बकः) – ही समझो ।

गौ तथा घटमें जो चेतन अचेतन का भेद दिखता है (गौ चेतन, घट अचेतन – यह भाव), वह कूटस्थ नहीँ है । कूटस्थ देशकालातीत होने से अविपरिणामी है । गौ तथा घट दोनों परिणामी है – उनका उत्पत्ति-नाश है । अन्तर्यामी होने से कूटस्थ इन्द्रियगोचर नहीँ है । गौ तथा घट दोनों इन्द्रियगोचर है । न चेतन अचेतन का भेद सत्ता के कारण है (दोनों का सत्ता है) न देश-काल-संख्या-परिमाण जैसा वह वस्तु से भिन्न रूप से इन्द्रियगोचर न होने पर भी हमारे व्यवहारयोग्य है (दोनों इन्द्रियगोचर है) । गौ तथा घट का भेद आत्मकृत (अपने कर्म के कारण) भी नहीँ है । जैसे सूर्यबिम्ब जलमें प्रतिबिम्बित हो कर जल का विकारयुक्त हो जाता है, और एक सूर्य अनेकप्रकार के दिखता है, यह चेतन अचेतन का भेद भी हमारे चित्तमें कल्पित है ।

ब्रह्मसूत्रम् के विभिन्न एकदेशीय परिभाषा है –
अद्वैत – शङ्कर – ब्रह्म और विश्व का अभेद सम्बन्ध – ब्रह्म ही विश्व ।
शुद्धाद्वैत – वल्लभ – ब्रह्म और विश्व का आधाराधेय भाव – ब्रह्म में विश्व ।
विशिष्टाद्वैत – रामानुज – विश्व और ब्रह्म का आधाराधेय भाव – विश्व में ब्रह्म ।
द्वैत – मध्व – ब्रह्म और विश्व का भेद सम्बन्ध – विश्व से ब्रह्म भिन्न ।
द्वैताद्वैत – निम्बार्क – ब्रह्म और विश्व का भेदाभेद सम्बन्ध – ब्रह्म से विश्व भिन्न नहीँ है । परन्तु विश्व ब्रह्म से भिन्न है ।
अचिन्त्यभेदाभेद – चैतन्य – ब्रह्म और विश्व का सम्बन्ध अचिर्वचनीय – अकल्पनीय । मायावाद ।

पञ्चदशीका यह परिभाषा अद्वैत परिभाषा है । परन्तु अद्वैत पारमार्थिक है – व्यावहारिक नहीँ है । बृहदारण्यक उपनिषद् – ४,५.१५ में स्पष्ट कहा गया है –

यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति, तदितर इतरं जिघ्रति, तदितर इतरं रसयते, तदितर इतरमभिवदति, तदितर इतरं शृणोति, तदितर इतरं मनुते. तदितर इतरं स्पृशति, तदितर इतरं विजानाति । यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत्तत्केन कं जिघ्रेत्तत्केन कं रसयेत्तत्केन कमभिवदेत्तत्केन कं शृणुयात्तत्केन कं मन्वीत तत्केन कं स्पृशेत्तत्केन कं विजानीयात् । येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात् । स एष नेति नेत्यात्मा । अगृह्यो न हि गृह्यते । अशीर्यो न हि शीर्यते । असङ्गो न हि सज्यते । असितो न व्यथते न रिष्यति । विज्ञातारमरे केन विजानीयादित्युक्तानुशासनासि मैत्रेयि । एतावदरे खल्वमृतत्वमिति होक्त्वा याज्ञवल्क्यो विजहार ॥

जहाँ द्वैत होता है, वहाँ एक (द्रष्टा – वेत्ता) अपरको (दृश्य – वेद्य) को देखता (दर्शन – वित्ति) है, सुंघता है, आस्वादन करता है, अभिवादन करता है, सुनता है … जानता है । जब सब आत्मभूत हो जाता है (अद्वैत), तब कौन किसको देखेगा, सुंघेगा, आस्वादन करेगा, अभिवादन करेगा,, सुनेगा … जानेगा ? जिससे यह सब जाना जाता है, उसको कैसे जानेगा ? वही आत्मा नेति नेति है । वह ग्रहणयोग्य नहीँ है । नाशवान नहीँ है । असङ्ग है । न व्यथित होता है न हिंसित होता है । विज्ञाता का विज्ञान किसके द्वारा जाना जा सकता है ? अर्थात अद्वैत स्थिति को जाना नहीँ जा सकता ।

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ श्वेताश्वतरोपनिषत् ६.१३ ॥

जो नित्य वस्तुओं में नित्य है, जो चेतन वस्तुओं का चेतन तत्त्व है, जो बहुतों में एकत्व है, जो सर्वकाम है, उस मूल कारणरूपी देव को सांख्य-योग के द्वारा जान कर सर्व बन्धन से मुक्त हो जाते हैँ । उस मूल कारण का मूल स्वरूप क्या है ।

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ।
यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः ॥ श्वेताश्वतरोपनिषत् १.३ ॥

उस देव का आत्मशक्ति अपने ही गुणों में छिपा है । जो सबका कारण है, वह एक ही काल और आत्मस्वरूप उपाधि युक्त हो कर विराजता है । तभी तो कहा गया है – अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते । व्यापको हि भगवान् रुद्रो । उस अक्षर तत्त्व के उद्वाप से काल सृष्टि हुआ, और काल से ही व्यापक आकाश का सृष्टि हुआ । देव का आत्मशक्ति के वह गुण क्या है ।

अधिष्ठानत्वम् आत्मत्वम् उपादानत्वम् एव च ।
निमित्तत्वं विवृतत्वं निरुपाधित्वम् एव च ।
यस्यास्तिसततंएताश्शक्तयष्षट् स्वभावतः ।
तस्यैवसृष्टिकतृत्वाधिकारत्वं प्रकीर्तीतम् । सृष्टिविलासः ।
जिसमें अधिष्ठानत्व, आत्मत्व, उपादानत्व, निमित्तत्व, विवृतत्व, निरुपाधित्व – यह छह गुण जिसमें हो, उसीको सृष्टिकर्त्ता कहा जाता है ।

अधिष्ठानम् – परिभाषा –
अधिकृत्यजगत्सर्वं वर्त्ततेयत्स्वभावतः ।
तदधिष्ठानमित्याहुश्शास्त्रेषुबहुधाबुधाः । आत्मतत्त्वप्रकाशिका ।
यद्बिभर्तिजगत्सर्वंजगद्यन्नबिभर्तिहि ।
तदधिष्ठानमित्याहुर्ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः । सृष्टिविलासः ।
यत्स्वमायोपाधिशक्त्याजगदेतच्चराचरम् ।
सृष्ट्वातदन्तरेपश्चादन्तर्यामीतयास्वयम् ।
स्थित्वासंधार्यतेसर्बमसङ्गत्वेनकेवलम् ।
तदेवाधिष्ठानमितिप्रवदन्तिमनीषिणः । प्रपञ्चलहरी ।
निमित्तत्वमुपादानत्वमात्मत्वंतथैवहि ।
निराधारस्वभावत्वंसर्वाधारत्वमेव च ।
सर्वावभासकत्वंच यस्यास्तिसततंस्वतः ।
तदेवाधिष्ठानमितिप्रवदन्तिमनीषिणः ।

बिभिन्न शास्त्रों में अधिष्ठान का परिभाषा दिया गया है । कर्म्मजन्य फलसम्बन्धिनि स्वामित्व रखते हुए सार्वभौमत्व अधिष्ठान का परिभाषा है । जो सबका भरण पोषण करता है, परन्तु स्वयं किसी के उपर निर्भर न करे, उसको अधिष्ठान कहते हैँ । जो मायोपाधिक स्वभाव से सबके अन्तर में रहते हुए निर्लिप्त भाव से सवका नियन्त्रण तथा अवभासन करता है, उसे अधिष्ठान कहते हैँ ।

आत्मत्व – परिभाषा ।
जगत्सृष्टिस्थितिलयकारणत्वंतथैवहि ।
व्यापकत्वमसङ्गत्वमद्वितीयत्वमेवच ।
निरधिष्ठानरूपत्वंनिर्गुणत्वमतःपरम् ।
सर्वाधिष्ठानरूपत्वंनिरंशत्वंस्वभावतः ।
सच्चिदानन्दरूपत्वंनित्यत्वंचयथाक्रमम् ।
एतेदशस्वभावेनयस्यास्तिसततंस्वतः ।
स आत्मेतिविशेषेणज्ञानीभिःपरिकीर्तीतः । आत्मव्याख्यान ।

आत्मत्व के दशलक्षण दिया गया है । जगत के सृष्टि-स्थिति-लय के कारणत्व, व्यापकत्व, असङ्गत्व, अद्वितीयत्व, निरधिष्ठानरूपत्वं, निर्गुणत्व, सर्वाधिष्ठानरूपत्व, निरंशस्वभाव, सच्चिदानन्दरूपत्व, नित्यत्व – यह आत्मा के दशलक्षण है ।

यदाप्नोतियदादत्तेयच्चात्तिविषयानिह ।
यच्चास्यसन्ततोभावः तस्मादात्मेतिकीर्त्त्यते ।

जो सबके साथ रहता है (आप्ति संयोगे, संप्राप्तौ वा – कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठाम् – कठोपनिषत्), जो असङ्ग रहकर भी अधिष्ठान के रूप से सबका ग्रहण करता है परन्तु स्वयं निराधार तथा सर्वाधार है, तथा महाकाल के रूप में सबका संहार का साक्षी है, उसे आत्मा कहते हैँ ।

तैत्तिरीय उपनिषत् ब्रह्मानन्दवल्ली सप्तमोऽनुवाकः में ब्रह्म को रस कहा गया है – रसो वै सः । रस अमृत है । एक और अखण्ड है । उसके केन्द्रमें रहनेवाला रस आभु (आसमन्तात् भाति) कहलाता है । उसके संस्थाके विकास को आभव कहते हैँ । मायोपाधि विशिष्ट उसी रस का विकारको, आभु से उत्पन्न होने के कारण, अभ्व (अभूत्वा भाति – जो वास्तव में अलग नहीँ है, परन्तु अलग दिखता है) कहते हैँ, जो मृत्युस्वरूप्व है । इनका मध्यपतित अवस्था को बल कहते हैँ । यही सत्यस्य सत्य है – त्रिसत्य है । शुद्ध निर्धर्मक अमृत-मृत्यु से अवच्छिन्न जो अलक्षणतत्त्व है, वह रस है । अन्य सर्वधर्मा जो विश्वरूप है, उसमें सब अभ्व बल समाविष्ट है । बलयुक्त रस का अद्वैत सत्ता है । रस में बहुत से बल समय-समय पर उत्पन्न होकर उसीमें लय हो जाते हैँ । उन्हीका तारतम्य ही ब्रह्म और विश्व है ।

स्वरूपसंसर्ग का एक भेद विभुतिसंयोग से मात्रा और संस्था दो भावों का उद्रेक होता है । सीमित दिखनेवाला रस को (जो उसका सीमीमर्यादा का निर्द्दश करे) मात्रा, तथा सीमा में वेष्टित रस को (जो उस सीमा के भितर दिखाई दे) संस्था कहते हैँ । स्वरूपसंसर्गयुक्त बल को भाव कहते हैँ । वृत्तित्वसंसर्गयुक्त बल को कर्म्म कहते हैँ । नाम और रूप दोनों भाव रूप है । जिसे हम घट कहते हैँ, यह नाम और उसका रूप, जिसमें मात्रा तथा संस्था दोनों सम्मिलित है, वह घट का भाव है, जिसे घटत्व कहते हैँ । एकसदृश सीमित वस्तुओं का समूह, जो दुसरे समूह से भिन्न दिखता है, उसे जाति कहते हैँ (साधर्म्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः) । जाति, आकृति, व्यक्ति का उत्पत्ति वर्णछन्द तथा मात्राछन्द से होता है । मात्राछन्द से ही वर्ण का स्वरूप बनता है । जिसका वर्णस्वरूप होता है, उसे पुरुष कहते हैँ । निःसीम का औपाधिक सीमाकरण से पुरुष का प्रादुर्भाव होता है (अग्रगतौ कुषन् – निष्कर्षश्चेह इयत्तापरिच्छेदः, मध्यस्थितस्य, वस्तुनो बहिर्निःसारणञ्च – पुरि देहे शेते) ।

अभ्व का विकास नाम-रूप-कर्म के रूप में होता है । आभव संस्थामें अभ्व-बल का आवागमन होता रहता है । उससे सतत परिवर्तन होता रहता है । जो कार्यरूप से दिखाई दे, परन्तु उसका कारण न जाना जा सके वही मायाबल है । अनन्त मायाबल मिलकर महामाया बनती है, जिससे विस्तार हो कर रस का विशेष आवरण से नाम-रूप-कर्म का उद्रेक होता है । रससम्बलित दो भिन्न भिन्न कर्मों के योग से यदि दोनों कर्म (बल) अपने अभ्व त्रितय (नाम-रूप-कर्म) से च्युत हो कर एक नवीन प्रतिष्ठा पा लेते हैँ (निज स्वरूप विलिन हो कर एक नवीव स्वरूप वनता है). और उस नवीन स्वरूप का नाम-रूप-कर्म भी नवीन होते हैँ, तो इस कृति का कारण को योगमाया कहते हैँ । ज्योतिस्वरूप मन से सम्बन्ध बल रूपात्मक होता है । प्राण सम्बन्धी बल कर्म्मात्मक होता है । वाक् सम्बन्धी बल नामात्मक होता है । यह तीनों मायाबल से सीमामर्यादा का कार्य है ।

नाम-रूप-कर्म का सङ्कुचित सम्मिलित रूप ही मायाबल हैँ । अतः माया का यही तीन प्रवृत्ति होता है । रस में बल के साथ बन्ध संसर्ग से वाक् का सृष्टिक्रम चलता है । रस में बल के साथ योग संसर्ग से प्राण का सृष्टिक्रम चलता है । रस में बल के साथ विभूति संसर्ग से मन का सृष्टिक्रम चलता है । मन ब्रह्मके परार्द्ध भाग से नाम और रूप के कल्पना करता है । उसीको प्रजापति का रूप कहा जाता है । मनमें कामना का उद्रेक होता है । उससे अव्यय, अक्षर, क्षर तीन पुरुषों का उदय होता है, जिनका लक्षण ज्योति, विधृति-प्रतिष्ठा है । इनको प्रकारान्तर में मन-प्राण-वाक् कहा जाता है । इनका समष्टि ही आत्मा है । यही आत्मसर्ग है ।

सृष्टि के तीन भेद है – स्वाभाविकी अथवा स्वयं सृष्टि (रस में बल का उदय जैसे सूर्य डुबने से अन्धकार, दुध से दहि आदि), मानसी सृष्टि (मनोभाव के कारण कल्पित – जैसे प्राण के द्वारा विज्ञान – जानना, श्रद्धा, मन आदि), तथा मैथुनी सृष्टि (रज-वीर्य के संयोग से) । ब्रह्मरूप रस में विचित्रता का उदय होने से महिमाबल का उदय होता है, जिसके प्रभाव से रस में उतरोत्तर विशेष बल का सृष्टि होता है । रस में जो मायाबल (अमित अपरिमेय रस का मित – सीमित होना, जिससे भेद बुद्धि का उदय होता है – मा॒ङ् माने॑, इदं जगदित्याकारिका ईश्वरनिष्ठा भेदविषयिणी वृत्तिः), अशनायाबल (अशूँ॒ व्या॑प्तौ सङ्घा॒ते च॑ – अशनमिच्छति – अन्य को उदरस्थ करने की इच्छा) और ऊर्मिबल (ऋ॒ गतिप्राप॒णयोः॑ – सङ्कोचरेखायाम्), का उदय होता है । इनका सम्मिलित रूप को मनोबल कहते हैँ, जो सृष्टिवीज है (इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते – ऋग्वेदः ६.४७.१८) ।

गीता में कहा गया है कि क्षरः सर्वाणि भूतानि – विश्व का उपादानकारण – जिससे सब भूतों का उत्पत्ति हुआ है, वह तत्त्व क्षर है । कूटस्थोऽक्षर उच्यते – सबके अन्तरमें रहकर जो प्राणतत्त्व सबका सञ्चालन करता है, वह तत्त्व अक्षर है (अक्षरात् सम्भवतीह विश्वम् – मुण्डकोपनिषत् १.१.७) । जिस अधिष्ठान के धरातल पर यह दोनों कार्य करते हैँ, वह अव्यय मन है (यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः) – वही ईश्वर है (इदं जगदिति केवलं भेदविषयिणी या वृत्तिः तद्वान् ईश्वरः पदवाच्यम्) । निःसीम का औपाधिक सीमाकरण माया का कार्य है । जिसको सीमा के भीतर लिया गया (एतादृशजगतः अहन्तया यद्दर्शनं तदहमिति तादृशः स्पष्टवृत्तिमान् प्रवोधनात्मा सदाशिवपदवाच्यः), वह मायी पुरुष उस माया का ईश्वर होता है ।

नाम-रूप-कर्म रूप अभ्व त्रितय का ब्रह्म से संसर्ग प्रवाहरूपेण नित्य है – निरन्तर होता रहता है । यह नित्यता अमृत अव्ययपुरुष तथा अक्षरपुरुष में है । क्षरपुरुष में यह अभ्व त्रितय अनित्य है, कारण यहाँ रस विप्रकृष्ट (विरल) हो जाता है (बलाधिक्य – भावान्तरमभावोऽन्यो न कश्चिदनिरूपणात्) । लौकिक पदार्थों में उत्पत्तिकालमें जिन नाम-रूपादि अभ्व त्रितय का योग पूर्व में नहीँ था, वह सर्वकारणीभूता वाक् रूपिणी प्रतिष्ठा के द्वारा नवीन रूपमें योग होता है । इससे ही पदार्थों में भावात्मक सत्ता होती है । इस वाक् प्रतिष्ठा के वियोग हो जाने पर वस्तुस्वरूप का अभाव (मृत्यु) हो जाता है । यह भाव-अभाव मृत्यु सम्बन्ध से परिगणित होते हैँ । पदार्थों के विभिन्न भाव नाम-रूपादि के विशेषता से होते हैँ । इसीको ही विशेष कहा जाता है । विशेष भिन्नता को कहते हैँ ।

आत्मा शब्द सापेक्ष है । जैसे पुत्र कहने से प्रश्न उठता है कि किसका पुत्र, उसीप्रकार आत्मा कहने से प्रश्न उठता है कि किसका आत्मा । उत्तर है जो किसीका उक्थ, ब्रह्म और साम है, वह उसका आत्मा है । किसी कार्य का आरम्भ एक विन्दु अथवा मूल से होता है । उस मूल को उसका उक्थ कहते हैँ (यतो उत्तिष्ठन्ति सर्वाणि भूतानि) । जो किसी वस्तु में सबसे बडा है (बृहत्त्वात्), अथवा उसमें सर्वत्र व्यापक रूप से रहता है (बृंहणत्वात्) अथवा उसका धारण-पोषण करता है (भृ धारणे पोषणे च), उसे उस वस्तु का ब्रह्म कहते हैँ । जो किसी वस्तु में सर्वत्र समान रूप से रहता है, उसे उस वस्तु का साम कहते हैँ । जो हमारा शरीर का केन्द्र में रहकर उसका सञ्चालन करता है, सर्वत्र व्याप्त हो कर शरीर का धारण-पोषण करता है, तथा आनखाग्र-आकेशाग्र सर्वत्र समान रूप से रहता है, वही हमारा आत्मा है ।

आत्मा व्यापक है । शङ्कराचार्य ने कहा है – ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ॥ ब्रह्मज्ञानावलीमाला २०॥ यहाँ मिथ्या का अर्थ झुठ नहीँ है । जगत् अपने मूल स्वरूप से च्युत हो कर उपाधिभेद के कारण उन्मादित स्वरूप में अयथार्थ बुद्धि (मिथृँ॑ऽ मेधाहिंस॒नयोः॑) प्रदान करता है । किसी शून्यगृह में एक रिक्त धट रख दिजिए । घट के भीतर का आकाश घट के बाहर के आकाश से भिन्न दिखेगा । यदि वह धट का नाश हो जाए, तो घटाकाश का नाश होगा । घटाकाश आया कहाँ से था तथा घट के नाश के पश्चात् कहाँ गया । न वह कहाँ से आया था न कहीँ गया । केवल घट रूप उपाधि के कारण वह प्रकट हुआ था । घट के नाश के साथ साथ उसकी प्राकट्य का नाश हुआ । उसीप्रकार, शरीररूपी उपाधि के कारण एक ही आत्मा भिन्न जीवात्मा के रूप में अवभासित होता है । मृत्यु उपाधि का होता है । आत्मा का नहीँ । तभी गीता में कहा गया है – अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।

आत्मा सर्वगतः होने से व्यापक तथा निरंशस्वभाव है । स्थाणु होने से असङ्ग है । वह नित्य है । भूतचिति के बाहर का वस्तु होने से वह निर्गुण है । उसके जैसा और कोई नहीँ है । अतः वह अद्वितीय है । स्वयं निरधिष्ठान होनेपर भी, सबका अधिष्ठानरूप है । बलयुक्त रस का अद्वैत होने से वह सत्ता है । नित्यसत्ता के कारण वह चिद्रूप हो कर काल है (चिच्छक्तिर्नित्यसत्ताख्या । तस्या आच्छादने सति सैव नित्यता अस्ति-जायते-वर्धते-विपरिणमते-अपक्षीयते-विनश्यतीति षड्भावयोगात् सङ्कुचिता कालपदवाच्या) । सर्वस्वातन्त्र्य के कारण वह आनन्द है (आनन्दशक्तिः स्वातन्त्र्यं सार्वत्रिकमुदीरितम्) ।