by Basudeba Mishra
नवदुर्गा रहस्य 2, नवदुर्गा रहस्य 3, नवदुर्गा रहस्य 4
किंज्योतिरयं पुरुष …. अस्तमिते आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ शान्तायां वाचि किंज्योतिरेवायं पुरुष इत्यात्मैवास्य ज्योतिर्भवतीत्यात्मनेवायं ज्योतिषाऽऽस्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति । बृहदारण्यकोपनिषत् – ४-३-२ से ६ ।
जा॒तवे॑दसे सुनवाम॒ सोम॑मरातीय॒तो नि द॑हाति॒ वेद॑: ।
स न॑: पर्ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑ ना॒वेव॒ सिन्धुं॑ दुरि॒तात्य॒ग्निः ॥ दुर्गा सूक्तम् ॥१॥
ताम् अ॒ग्निव॑र्णां॒ तप॑सा ज्वल॒न्तीं वै॑रोच॒नीं क॑र्मफ॒लेषु॒ जुष्टा॑म्।
दु॒र्गां दे॒वीँ शर॑णम् अ॒हं प्रप॑द्ये सु॒तर॑सि तरसे॒ नमः॑॥२॥
दुर्गा शब्द का अर्थ साधारणतया दुर्गमा किया जाता है (दुर्दुखेन गम्यते प्राप्यतेऽसौ । दुर् + ग॒मॢँऽ गतौ॑ + अन्यत्रापि दृश्यते इति ङः अथवा सुदुरोरधिकरणे इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या ङः । ततष्टाप्) । परन्तु वेद में इसे अग्नि (जातवेदसे) को सिञ्चन करनेवाला (सुनवाम – षु॒ञ् अभिष॒वे धातु से सु का परस्मैपदी विधिलिङ् वहुवचन), सङ्कोचधर्मा (अरातीयतः – रा॒ दा॒ने) भस्मीभूत होने से उपरम कर आश्रय देनेवाला (नि दहाति – नि – उपरम, सामीप्यम्, आश्रयः, अन्तर्भवः, बन्धनम्) (दहाति – दः॒अँ भस्मी॒कर॑णे) सोम के अधिष्ठान (वेदः – विदँ॒ चेतनाख्याननिवा॒सेषु॑) के रूप में वर्णन किया गया है ।
आङ्गिरस अग्नि का अग्नि-यम-आदित्य तीन विभाग है । यम नियामक है । अग्नि और आदित्य में ताप और ज्योति दोनों मात्रा विशेष के तारतम्य में रहते हैं । ज्योति तीन प्रकार के हैं । क्षर का भूत ज्योति, अक्षर का ज्ञान ज्योति तथा अव्यय का विकाश । यह ज्योति मात्रा भेदसे दिग्-देश-काल, संस्था भेदसे रूप-भाव-प्रसादन, तथा दीप्ति भेदसे प्रज्ञान-चिद्-भूत क्रम से नवधा विकशित होते हैं । यही नवधा ज्योति ही नवदुर्गा हैं । इसी का विश्लेषण किया जायेगा ।
विश्व के दो भाग है – ब्रह्म और कर्म । कर्म शक्ति की अपेक्षा रखता है (भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः – motion that leads to creation of objects is called action) । बल (energy) से बल का चिति (confinement) से विश्वसञ्चार होता है । अक्षर अग्नि (charge) को क्षर अग्नि (matter) जब वृणुते (आवरित करती है – confines), तब यज्ञ का प्रवर्तन (transition states of chemical reaction) होता है । यज्ञ से कर्म (action or effect) प्रवर्तित होता है (यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः) । स्ययम्भू ब्रह्म जब सृष्टिकाम हुआ, तो क्रियाकी उत्पत्ति हुई । क्रियासे ताप सृष्टि हुआ । अग्नेरापः नियमसे उसमें विकार होकर द्रवित चितेनिधेय भाग (महिमामण्डल – leptons) चित्यपिण्ड (मूलपिण्ड – fermions) से भिन्न प्रतीत हुआ । वह ब्रह्म का स्वेद जैसा प्रतीत हुआ, जिसे स्वेदब्रह्म अथवा सुब्रह्म कहागया । सर्वव्यापी होनेसे उसका उसीमें आहुति हुआ, जिससे अन्न-अन्नाद भाव हुआ । उससे अशनायावृत्ति का उदय हुआ । संस्त्यान (confinement) करनेके कारण सुब्रह्म स्त्री लिङ्ग है । प्रसव (confined) के कारण ब्रह्म पुंलिङ्ग है । इसी योषा-वृषा भाव से (charge interaction) मैथुनि सृष्टि (creation due to charge or chemical reaction) होती है ।
कर्म अन्य कर्म सृष्टि नहीं करता (कर्म कर्मसाध्यं न विद्यते – कणादसूत्रम्) । कर्म अपने कार्य से नष्ट हो जाता है (कार्यविरोधि कर्म – वही) । बलप्रयोग के पश्चात् कन्दुक का देशान्तरप्रापण होता है । तत्पश्चात् वह अपने बेग संस्कार (प्रतियत्न – inertia) के बल पर गति करता है । केवल संयोग और विभाग कर्म के कार्य है (संयोगविभागाश्च कर्मणाम् – action involves motion from one position to the next and then continuing the motion by inertia) । कर्म (यहाँ बलप्रयोग) एक ही द्रव्य में (यहाँ एक खिलाडी) के पास रहता है, पूर्वदेश से विभाग तथा अपरदेश से संयोग को छोडकर उसका अन्यगुण नहीं होते तथा इस संयोग और विभाग केलिए वह अन्य कारणों का अपेक्षा नहीं रखता (एकद्रव्यम् अगुणं संयोगविभागेषु अनपेक्षकारणम् इति कर्मलक्षणम् – कणादसूत्रम्) । एक अपरिमित (अपरिच्छिन्न – spread out like the electron sea) वस्तुका एक मित (परिच्छिन्न – confined – like the nucleons) वस्तुके साथ निरूढ (लक्षणा द्वारा अर्थप्रतिपादिक) मात्रामें सङ्क्रमण करना (एकत्र होना) संसर्ग (interaction) कहलाता है । संसर्गज कर्म दो प्रकार के होते हैं –
१) कर्म में कर्म (१. स्थानावरोध interaction between forces like exclusion principle, २. सामञ्जस्य – co-existence/superposition – bosonic principle, ३. एकभाव्य – complementarity principle – but not wave-particle duality, ४. एकात्म – where both exist together as a natural consequence like air with different atoms and ५. भक्ति – translation of motion like energy moving objects in space.) और
२) अकर्म में (स्थिर वस्तु में) कर्म (interaction of charge with confined objects like the eight gluons – अग्निः, जातवेदाः, सहोजा, अजिराप्रभुः, वैश्वानरः, नर्यापाः, पङ्क्तिराधाः, विसर्पि – with quarks – परिमाण्डल्य) ।
अकर्म में कर्म के २ मुख्य भेद है –
१) स्वरूप सम्बन्ध (तादात्म्य, जिसमें स्वरूप विकृति न हो – transformation without involving external forces – जैसे अवतार – Avatar) और
२) वृतित्व सम्बन्ध (जो शक्त्याश्रय से हो – transformation involving external forces – जैसे विकाश – evolution)।
संसर्ग होनेपर एक अन्य से ग्रहित होता है । उससे ग्रहातिग्रह सम्बन्ध (fundamental interaction) बनता है, जिससे भोगसिद्धि (chemical interaction) होता है । जहाँ वृत्तिता सम्बन्ध है, वहीं भोगसिद्धि होता है । स्वरूप संसर्गी बल ही भाव (characteristic) है । भाव से ही गुणसृष्टि, गुण के अनुरूप क्रिया तथा क्रिया से वस्तु का व्यवहार निर्णित होता है (भावाद् गुणः, गुणात् क्रिया, क्रियाया आचारः) । वृत्तित्व संसर्गी बल से शक्ति (energy) तथा उससे कर्म (operation) जात होता है । इन सम्बन्धों का तीन तीन अवान्तर विभाग है । स्वरूप सम्बन्ध का विभाग – १) विभुति, २) योग, ३) बन्ध । वृतित्व सम्बन्ध का विभाग – १) आसक्ति, २) ऊदार, ३) समवाय ।
जहाँ दो तत्त्वोंके सम्बन्धसे एक अपने स्वरूपमें स्वतन्त्र रहे (भूमा, भोक्ता) तथा अन्य परतन्त्र होजाये (अल्प, भोग्य, पशु, अन्न), उसे विभूतिसम्बन्ध कहते हैं । यह केवल अनुग्रह से होता है । रस और बलका सदा विभूतिसम्बन्ध रहता है । बलविशिष्ट रस के साथ बलान्तर के सम्बन्ध से यदि दोनों का मूलस्वरूप रहते हुये एक तृतीय तत्त्व वनता है, तो उसे योग कहते हैं । यह कर्म कौशल है । परन्तु यदि दोनों का मूलस्वरूप नाश होकर तृतीय तत्त्व वनता है, तो उसे बन्ध कहते हैं । बन्ध सङ्ग के आधिक्य के कारण होता है । विभूतिसम्बन्धसे अव्ययपुरुषका, योगसम्बन्धसे अक्षरपुरुषका और बन्धसम्बन्धसे क्षरपुरुषका प्रादुर्भाव होता है । इस प्रकार त्रिविधपुरुष हैं । अव्ययपुरुष आवपन (field) है । अक्षरपुरुष अन्नाद (energy) है । क्षरपुरुष अन्न (matter) है । उन्हीसे सवकुछ वना है – पुरुषं एवेदं सर्वम् ।
भावपदार्थ ३ प्रकार के होते हैं – द्रव्य (matter), क्रिया (effect of energy on matter) तथा शक्ति (information – सा पूर्वोदिता सिसृक्षा स्वस्वरूपाभेदमयानहमित्येव पश्यति) । उनमें से क्रिया के द्वारा द्रव्य परिणत होता है । अतः क्रिया परिणामका निमित्तकारण है । जिसे हम सत्त्व अथवा द्रव्य कहते हैं, वह क्रियामूलक होनेपर भी, “जिसका क्रिया” – ऐसे एक सत्त्व अथवा प्रकाश (information) है – यह मानना पडेगा । वही सत्त्व ही मूलद्रव्य है । काठिन्यादि गुण अलक्ष्यक्रिया है । परिणाम – अवस्थान्तरप्रापक क्रिया – लक्ष्य अथवा स्फुटक्रिया है । स्फुटक्रिया ही निमित्त है । अलक्ष्यक्रियाजनित प्रकाश अथवा स्थिरसत्तारूपमें प्रतीयमान द्रव्य नैमित्तिक है । निमित्तक्रिया के द्वारा नैमित्तिकका परिणति होना ही द्रव्यके परिणाम का स्वरूप है । शक्ति अवस्थासे पुनः शक्ति अवस्थामें परिणत होना निमित्तक्रियाका स्वरूप है ।
दृश्य स्थूलक्रियासकल क्षणावच्छिन्न (temporal) सूक्ष्मक्रियाका (quantum processes) समाहारज्ञान है । रूपरसादि भी उसीप्रकार है । आलोकके द्वारा रूप प्रतिक्षण उसीरूपसे पुनःपुनः अवभासित होता है । आलोक नहीं रहनेसे रूप का अभाव नहीं होता – दृश्यता का अभाव होता है । कारण तमावरणसे रूपत्व अभिभूत होता है । अतएव घटपटादि वस्तु अलातचक्र जैसे शक्ति द्वारा परिचालित वहुसङ्ख्यक क्षणिकक्रियाजनित समाहारज्ञान मात्र है ।
(क्रमशः)