by Basudeba Mishra
नवदुर्गा रहस्य 1, नवदुर्गा रहस्य 3, नवदुर्गा रहस्य 4
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥ श्वेताश्वेतर उपनिषत् ६-८ ॥
अक्षरात्सम्भवतीह विश्वम् ॥ मुण्डकोपनिषत् १-१-७ ॥
शुद्ध रूपसे रस (रसो वै सः – तैत्तिरीयोपनिषत् – २-७) और बल (नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो – मुण्डकोपनिषत् –३-२-४) दोनों निधर्मक है – परस्पर आवृत न होने पर यह निर्विशेष है – इनका कोइ धर्म नहीं है । अतः यह धर्मी नहीं है । परन्तु इनके संसर्गसे दोनों धर्मी होते हैं । वही भाव है । उनके संसर्ग को सत्ता भी कहते हैं । वृत्तित्वरूप संसर्गबश बलविशिष्ट रस में अन्य बल का सम्बन्ध को शक्ति कहा जाता है (energy – सा पूर्वोदिता सिसृक्षा स्वस्वरूपाभेदमयानहमित्येव पश्यति । प्रपञ्चवासनारूपा शक्तिरिति – श॒कॢँ शक्तौ॑ – कार्यजननसामर्थ्यम्) । रस सदा अपरिवर्तनीय रहनेसे अमृत है । बल सदा परिवर्तनशील होनेसे मृत्यु है । अमृत ग्रह है । मृत्यु अतिग्रह है । दोनोंके संसर्गसे ग्रहातिग्रह भाव वनता है जिससे भोगसिद्धि होता है । उससे जो स्वरूप बनता है, वही आत्मा है । आत्मा के भोग का सम्पादन करनेवाला कर्म उसका शक्ति है (कर्त्तृत्वं तत्र धर्मी कलयति जगतां पञ्चसृष्ट्यादि कृत्ये) । शक्ति बिना पुरुष के कभी नहीं रहती ।
रस और बल का सम्बन्ध अव्यतिरेकी नित्य है । बल के संसर्ग से धर्मी बना रस जब विशिष्टरूप में अपने अनवच्छिन्न (अपरिमेय) स्वरूपका नाश करता हुआ अवच्छिन्न (सीमित) सा प्रतीत होता है, तब उसे पुरुष कहते हैं (पुरँ अग्रगम॒ने – during the Big Bang, energy speeds across the field and due to friction with the static medium, comes to a halt cutting off a volume. Where the outer periphery – नेमि of this sphere – Dharma Chakra – धर्मचक्र – ceased to expand further – निशीर्ण भवति – that place is called –NAIMISHARANYAH – नैमिषारण्यः. That is the boundary of the finite universe – विश्वम्. One is called Aranya – अऱण्यः – a group is called Grama – ग्रामः । पुरे शरीरे वसति स पुरुषः) । पुरुष का भोग उसके शक्ति द्वारा सम्पादित होता है ।
पुरुष निर्माणमें भोक्ता आत्मा स्वरूपसंसर्ग से भिन्न रूप लेती है । रसप्रधान-बलगौण विभूतिसर्ग से अव्ययपुरुष का, रस-बल साम्य योगसर्ग से अक्षरपुरुष का तथा बलप्रधान-रसावृत्त बन्धसर्ग से क्षरपुरुष का प्रादुर्भाव होता है । यही त्रि आत्मसर्ग ही विश्व के कारण हैं । इन आत्मन्वी पुरुषों की स्वभोग सम्पादिका शक्ति उनका अन्तःस्थित कर्म है, जो प्रत्येक भिन्न भिन्न है । इन पुरुषों का इनके शक्तियों के साथ जो संसर्ग होता है, उसे वृत्तित्व सम्बन्ध कहते हैं । यह संसर्ग परष्पर परिवर्तनशील हैं । इनका परिवर्तन न काम के कारण न फल के कारण, परन्तु आकस्मिक – स्वभाव से – होता है । उदारवृत्ति योग से अव्ययपुरुष का, समवायवृत्ति योग से अक्षरपुरुष का तथा आसक्तिवृत्ति योग से क्षरपुरुष का उदय होता है । इनसे ही विश्वनिर्माण होता है ।
आत्मा की प्रवृत्ति अपने स्वरूपमें ही होती है । अव्ययपुरुषमें रस तथा बल की शुद्ध स्थिति रहती है । इसलिए अव्ययपुरुष स्वसृष्टिमें प्रवेश कर उदारवृत्ति से सन्निहित रहता है (तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् – तैत्तिरीयोपनिषत् २-६) । उदारवृत्तिमें स्थित वह भावसृष्टि का पोषण करता है । उसके न कुछ कार्य (उत्पादन) होता है न वह किसी के उत्पादनमें कारण बनता है । वह केवल सर्वालम्बन – सर्वाधार है । उसके समान अथवा उससे अधिक कुछ नहीं दिखता । वह शक्ति-विभक्ति-युक्ति आदिसे परे होने के कारण पर कहलाता है । उसका व्यय – परिणमन – न होनेके कारण वह अव्यय कहलाता है । उसमें न किसी का उदय अथवा विलयन होता है । अतः उसे गीतामें परम धाम कहा गया है (यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम – गीता १५-६) । उस “पर” के विविध शक्तियाँ सुने जाते हैँ , जो उसमें स्थित बलरूपा पराशक्ति है । ज्ञान-बल-क्रिया उसकी स्वाभाविकी शक्ति है । सत्-चित्-आनन्द इसका स्वरूप है । रस-बल की चिति (चिनाव) से इसका निर्माण होने से अव्ययपुरुष चित् है । अक्षरपुरुष चेतना है तथा क्षरपुरुष चित्य है ।
एक आश्रय (आधार – field) एवं एक आश्रित (आधेय – particle) – इसप्रकार के दो अयुतसिद्धों का नियमित देश में ही रहनेवाले तथा परष्पर भिन्न रूप से ज्ञात होनेवाले तत्त्वों का जो सम्बन्ध – यह आश्रित यहाँ इस आश्रय में है – इसप्रकार के प्रत्ययों को समवाय कहते हैं । अव्यय सृष्टिमें रस-बल (आधार) का अन्य रस-बल (आधेय) से सम्बन्ध होता है जिससे नवीन सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है । उसे समवाय कहा जाता है । समवायवृत्ति के कारण गुणसृष्टि हो कर अक्षरपुरुष के द्वारा कार्य प्रसूत होता है । अव्ययपुरुष में समवाय नहीं है । अतः वह असङ्ग है । आसक्तिवृत्ति से ही विकार होता है, जो न अव्ययमें है न अक्षरमें है । अव्यय तथा अक्षर दोनों आत्मन्वी पुरुष है । परन्तु केवल अक्षर ही शक्ति-विभक्ति-युक्ति आदि से विशेषित है । अक्षर के अन्तर्गत अनेक प्रकार के अक्षर का उदय और विलयन होता है जो अव्यय में नहीँ होता । सत्य-ज्ञान-अनन्त इसका स्वरूप है ।
जगत् में ऐसा कोई भूत नहीँ जो अक्षर से पोषित न हो कर स्वतन्त्र हो । इसे ही ईश्वर कहते हैं (इदं जगदिति केवलं भेदविषयिणी या वृत्तिः तद्वान् ईश्वरः पदवाच्यम्) । क्षर को अवरः कहते हैं (अश्रेष्ठः – न व्रियते इति, वृञ् वर॑णे – अथवा यह खण्ड खण्ड हो कर विभाजित होता है – वृङ् सम्भ॑क्तौ, अक्षर खण्डाखण्ड है तथा अव्यय अखण्ड है) । अतः मध्यपतित अक्षर को परावर कहते हैं । रस-बल समवाय परअव्यय से भी जो पर है, वह परात्पर है, जिसके विषयमें कहा गया है – यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह – तैत्तिरीयोपनिषत् २-४ ।
क्षर त्रैकर्मिक है, कारण वह कर्ममय – उदार-समवाय-आसक्ति – वृत्तियों से उत्पन्न तीनोंप्रकार के कर्मावस्थाओं के चितिविशेष से उत्पन्न है । आसक्ति को सङ्गवृत्ति कहते हैं । उसीसे कामना जात हो कर सृष्टि होता है (सङ्गात् सञ्जायते कामः) । इसी कारण क्षरपुरुष ही कार्यरूप विश्व है । सब उसका वितान है । बल स्वरूप से ही संसर्गी है । आत्मा का प्रवृत्ति स्वस्वरूपमें होने के कारण उसका किसी से संसर्ग नहीँ होता । समस्त भेद केवल शक्ति और वृत्तिमें है । त्रिविध कर्मसंसर्ग ही वस्तुभेद का कारण है । परन्तु यह आत्मा, यह शक्ति, यह सृष्टिक्रम कहाँ से आया – यह अज्ञेय है – दूर्गम है । शक्ति दूर्गमा है – अतः दूर्गा है ।
सृष्टि से पूर्व यह विश्व का कोई विशिष्ट रूप नहीं था (अप्रकेतम् – नासदीय सूक्तम्) । सब कुछ तुच्छ्य (वस्तुशून्य) था (तत्रैव) । तुच्छ्य ही अभ्व है (भूत्वा न भवतीति – अभूत् वा भाति – जो नहीं होते हुए भी दिग्-देश-काल से परिच्छिन्न होने जैसा प्रतीत होता है – दृश्यम्) । सर्वत्र आभू था (आसमन्ताद् भवतीति – द्रष्टा – दिग्-देश-काल से अपरिच्छिन्न – सर्वव्यापी परात्परब्रह्म) । आभू अवाङ्गमानसगोचर निर्निशेष है । अतः वह अज्ञेय और अनिवर्चनीय है । व्यष्टि-समष्टि अथवा दहर-उत्तर भेद से यह द्विधा है (दहर उत्तरेभ्यः – ब्रह्मसूत्रम्) । दहर (हृदयपुण्डरीक) अणिमान्त है । उत्तर भूमा है । अणिमान्त से भूमान्त पर्यन्त आभू का व्याप्ति है । यही विश्व है । भीतर सुसूक्ष्म परिचालक है । बाहर तन्त्र है । भीतर नभ्य है । बाहर पृष्ठ्य है । परिचालक नभ्य आत्मा है । तन्त्र पृष्ठ्य शरीर है । परिचालक शरीर को धारण करता है । अतः इसे शारीरक कहते हैं । यह शरीर बनाता है । परन्तु इसका शरीर नहीं होता । अक्षर के ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र-अग्नि-सोम यह पञ्चकला है । इनमें से ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र नभ्य है – हृदय है । अग्नि-सोम पृष्ठ्य है । इन्ही बाह्य पृष्ठ्य कलाओं से क्षरपुरुष का प्रदुर्भाव होता है ।
भूमा ही आनन्द है (यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति – छान्दोग्योपनिषत् ७-१७-१) । आनन्द में आ अव्ययाक्षर का अर्थ है मर्यादासीमायामभिव्याप्तिसीमायामीषदर्थे, समुच्चये । नन्द का अर्थ है स्वातन्त्र्य से समृद्धि देने वाला (टुनदिँ समृ॑द्धौ) । आनन्द का अर्थ है अपने स्थान पर स्थिर रहकर दूर से दूर पर्यन्त व्याप्त होना (अनेजदेको मनसो जवीयो – ईशावास्योपनिषत्, आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः – कठोपनिषत्) ।
आभू ब्रह्म है । अभ्व को कुछ आचार्य माया कहते हैं । आभू तुच्छ्य (अभ्व) के बिना सृष्टि कर नहीं सकता (तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत् – नासदीय सूक्तम्) । आभू तीन प्रकार का है – आनन्द, चेतना तथा सत्ता । अभ्व भी तीन प्रकार का है – रूप-कर्म-नाम । ब्रह्म में कर्म बन्धन से रूप-कर्म-नाम त्रितय उदय होते हैं (ब्रह्म वा इऽदमग्रऽआसीत् … ब्रह्मैव परार्द्धमगच्छत् । तत्परार्द्ध गत्वैक्षत कथं न्निमान्लोकान् प्रत्यवेयामिति । तद् द्वाभ्यामेव प्रत्यवैद् रूपेण चैव नाम्ना च । ते हैते ब्रह्मणो महती अभ्वे । स यो हैते ब्रह्मणो महतीऽअभ्वे वेद महदेवाभ्वं भवति । ते हैते ब्रह्मणो महती यक्षे – शतपथब्राह्मणम् ११-२-३-१ से ५) । नाम-रूप ही अभ्व-यक्ष है (ईक्षँ॒ दर्श॑ने, अक्षूँ व्याप्तौ॑) । यही पुरुष के महिमा है (एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पुरुषः – पुरुषसूक्तम्) ।
(क्रमशः)