by Basudeba Mishra
नवदुर्गा रहस्य 1, नवदुर्गा रहस्य 2, नवदुर्गा रहस्य 4
शक्तिभेद के कारण आत्मा के तीन व्यूह होते हैँ । अव्यय पुरुष में रस के साथ बल का विभूति संसर्ग से ज्ञानार्थक मन, योग संसर्ग से क्रियात्मक प्राण तथा बन्ध संसर्ग से अर्थात्मक वाक् वनता है । सम्पूर्ण ज्ञान का आयतन स्थान मन है । क्रियाओं का आयतन स्थान प्राण और अर्थों का आयतन स्थान वाक् है । मन ही विद्या-ज्ञान को उत्पन्न करता है । (सुप्त) प्राण ही बल है – (परिणाम) क्रिया है, अन्नाद है । वाक् ही अन्न है – अर्थ है । मन-प्राण-वाक् का समष्टि ही आत्मप्रजापति है । जीव में इनको प्राज्ञ-तैजस-वैश्वानर कहते हैँ । ईश्वर में इनको सर्वज्ञ (अन्तर्यामी)-हिरण्यगर्भ-विराट् (वैश्वानर) कहते हैँ । परमेश्वर में इनको इन्द्र-वायु-अग्नि कहते हैँ । यह तीनों क्रमशः शरीर के संज्ञान-अज्ञान का नियामक, पोषक, तथा संरक्षक हैँ । यही ज्योति-विधृति-प्रतिष्ठा हैँ ।
मन-प्राण-वाक् अबिनाभावी हैँ – एक अन्य के बिना नहीँ रहते । जहाँ प्राण-वाक् संयुक्त हो और मन का संचरण हो – मन प्रधान हो – तब ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है । उसे वेद कहते हैँ । वेद में भी ऋक् (मूर्ति, पिण्ड – nucleons) और साम (महिमामण्डल, तेज – electron sea) दोनों में यज्जुः (intra-nucleic field) अधिरूढ है – मूख्य है । यही त्रयी विद्या है । इन्ही से ही सबका निर्माण हुआ है (त्रयो लोका एत एव वागेवायं लोको मनोऽन्तरिक्षलोकः प्राणोऽसौ लोकः ॥ त्रयो वेदा एत एव बागेवर्ग्वेदो मनो यजुर्वेदः प्राणः सामवेदः॥ बृहदारण्यकोपनिषत् – १-५-४/५॥) ।
वेद (ज्ञान-विज्ञान) से ही सब उत्थित (भासित) होता है । अतः वह उक्थ है । जब वाक् वर्तनी (वर्ततेऽनयेति – वृतुँ॒ वर्त॑ने – पूर्वदेशः, पन्थाः, माध्यम, वाहक) हो – मन उससे सम्बन्ध करता हो (ज्ञान के सहयोग से किया गया कर्म) तथा प्राण उसमें सञ्चरण करता हो, उसे यज्ञ कहते हैं (य॒जँ॑ सङ्गतिकरणे) । यज्ञ अन्न-अर्क-प्राणों का उत्तरोत्तरी भाव है । जो अर्च है (अर्चन् करता है, चलता है – प्र + अन – अनँ प्राण॑ने) वह अर्क है । अतः प्राण अर्क है । विचाली होने से वह मृत्युरूप है । अतः वह अशनायावृत्ति को जन्म देता है । उसी से अप् सृष्टि हो कर उससे लोकसृष्टि होता है (अशनाया … अर्चन्नचरत्तस्यार्चत आपोऽजायन्त – बृहदारण्यकोपनिषत् – १-२-१) । जब प्राण-मन संयुक्त हो और वाक् सञ्चरण करेँ, तो वह वस्तु दृश्यमान होता है । तब उसे लोक कहते हैँ (लोकृँ॒ दर्श॑ने) । वही सबका अन्न होता है (अनित्यत्वेन – अ॒दँ भक्ष॑णे) । अतः उसे अशीति कहते हैँ । सदा गतिशील होने से उसे जगत् कहते हैँ । वह मृत्युधर्मा है । सदा संसरणशील है । अतः उसे संसार कहते हैँ ।
वाक्-प्राण-मनोमय अर्थ ही सत्ता है, जो आत्मांशभूत है – आत्मा नहिँ है । आत्मा तो सत्-चित्-आनन्दमय है । यहाँ चित् शब्द का अर्थ नित्य आत्मरूप विज्ञान है । यह एक तथा अखण्ड ज्ञानरूपा है । मन के परिणाम अथवा वृत्ति को भी चित् कहते हैँ । परन्तु वास्तव मेँ वह चिदाभास है – चित् का मन में प्रतिफलन से जात वृत्त्यात्मक ज्ञान है । पञ्चकोश (आनन्द-विज्ञान-मन-प्राण-वाक् अथवा अन्न) अव्यय का बलात्मक भाग है । इनमें प्रविष्ट रस भाग ही आत्मा है । कोश का अर्थ आवरण है । यह पञ्चकोश एक अन्य के भीतर रहते हैं । उनका भिन्नस्थिति नहीँ है । वाक् अथवा अन्न सबसे बाह्य कोण है । आनन्द अन्तरतम कोश है ।
वियत् (वियच्छति न विरमतीति – वि + य॒मँ उपर॒मे – जो सदा प्रयत्नशील रहता है) मन ही सबका आवपन (प्रतिष्ठा – आधार) है । प्राण अन्नाद (जो अन्न को प्रतिष्ठित करता है) तथा वाक् (वस्तुमात्र) अन्न है । यह आत्मांशभूत त्रिक (तिगडी) है । इन त्रिपुरुष समवाय को भी पुरुष कहते हैँ । पूर्वपुरुष की शक्ति से शक्तिमान हो कर अवरपुरुष उसमें स्थित रहता है । अक्षर अव्यय के शक्तिमें स्थिर रहता है और क्षर अक्षर के शक्ति में । उससे कोई पृथक नहीं होता । परन्तु अव्यय और अक्षर में क्षर का भोग नहीँ होता । क्षर का – वाक् पुरुष का तीन विक्रमण होता है । इसीसे वह त्रिविक्रम कहलाता है । यह तीन विक्रम, जो उसका तीन पद माना जाता है (इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् – ऋग्वेदः १-२२-१७), अन्न-तेज-अप् ही है । इसीको पुराणों में पृथ्वी-अन्तरिक्ष-पाताल कहा गया है । बल का आधार रस ही बली है । उसीके द्वार पर पञ्चकल अक्षरके आध्यात्मिक कला विष्णु रहते हैँ । यह अपनी तृतीयपर्याय में भी त्रिविक्रम करता है, जिसके द्वारा भूगर्भ से चेतन-स्थावर-जड का उत्पत्ति होता है । यही वामन अवतार का रहस्य है । तीनों पुरुषों में क्षर ही अवर होने से वामन है ।
शक्ति के त्रिक को सत्त्व-रज-तम कहते हैँ । इन शक्ति समवायों को प्रकृति कहते हैँ । इनमें सत्त्व लघु एवं प्रकाशक है । रज उपष्टम्भक (अबरोधक – ष्टभिँ॒ऽ प्रतिब॒न्धे, स्त॒म्भुँऽ रोध॑न॒) एवं चल है । तम गुरु एवं आवरक है । प्रकृति के त्रिगुण ही सबके कारण है । गुणसाम्य को प्रकृति कहते हैं (कारणानां गुणानां तु साम्यं प्रकृतिरुच्यते) । यह गुण अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिए परस्पर में –
• अपने से इतर दो गुणों को अभिभूत कर (ढक) देते हैं (अन्योऽन्याभिभाववृत्तिः) ।
• अपने से इतर दो गुणों का आश्रय लेते हैं (अन्योऽन्याश्रयवृत्तिः) ।
• अपने से इतर दो गुणों को निर्बल बनाकर ही अपने कार्य जनन कर पाते हैं (अन्योऽन्यजननवृत्तिः) ।
• अपने से इतर दो गुणों के साथ मिलकर ही अपने कार्य जनन कर पाते हैं (अन्योऽन्यमिथुनवृत्तिः) ।
लोहित-शुक्ल-कृष्ण वर्णा तीनवर्णों से युक्त एक अजा (अजन्मा – eternal) प्रकृति (Nature) रज-सत्त्व-तम तीनों गुणों का साम्यावस्था (singularity) है (अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः – श्वेताश्वेतर उपनिषत् ४-५) । रजोगुण को ही लोहित कहा गया है, कारण सृष्टिमें रज ही प्रवर्तक होने से आदि है । यहीं से सृष्टिप्रक्रिया का आरोहण – आरम्भ होने से यह लोहित है (रुह्यते इति रुः॒अँ बीजज॒न्मनि॑ प्रादुर्भा॒वे च॑, रुहेरश्च लो वा – उणादि ३-९४, रस्य लत्वम्) । आवरण के हट जाने से शुद्ध सत्त्वगुण का उदय होता है, जिसे दर्शनशुद्धता के कारण (ईँशुचिँ॑र् पूतीभा॒वे) शुक्ल कहते हैं । तमगुण सबको आवरित कर देने के कारण प्रकाशावरण अन्धकार को जन्मदेता है, जो कृष्णवर्ण होता है । आधुनिक विज्ञान में इसे वर्णशक्ति आरोपण (color charge of Quantum Chromo Dynamics) कहा गया है ।
मन-प्राण-वाक् के विवर्त्त के परिवर्त्तित रूप ही क्रमशः विश्व का ज्योति-विधृति-प्रतिष्ठा है । यह तीनों भी एक अन्य के बिना नहीँ रहते । जिससे विभाति (दिखता है) – यह प्रत्यय होता है, उसे ज्योति कहते हैँ (ज्युतिँर् भास॑ने) । जैसे वृष्टिजल असमतल पृथ्वीपर बहता हुआ पृथ्वीतल का रूप ले लेती है, उसीप्रकार जो प्राण के सहायता से इन्द्रियप्रणालियों के द्वारा (परन्तु अपने स्थान में स्थित रहकर) बहता हुआ, दूरस्थ वस्तु (वाक्) को ग्रहण कर तत्स्वरूप हो जाती है, तथा प्रत्यावर्तन कर मन के द्वारा चित् को समर्पित कर देती है, उसे ज्योति कहते हैँ । क्षरपुरुष का भूतज्योति, अक्षरपुरुष का ज्ञानज्योति तथा अव्ययपुरुष का विकाश अथवा विद्याज्योति है ।
क्षरपुरुष का भूतज्योति के चार विभाग है – स्वज्योति, परज्योति, रूपज्योति, अज्योति । सूर्यादि द्वौः लोकस्थ पिण्ड, जिनको ग्रह प्रदक्षिणा करते हैँ (द्यु॒ अभि॒गम॑ने) स्वज्योति (द्युतँ॒ दीप्तौ॑) कहलाते हैँ । चन्द्रमादि, जो पर (सूर्यादि) के ज्योति से दीप्तिमान होकर अन्य का दर्शनमें सहायक होते हैँ, वह परज्योति कहलाते हैँ । पार्थिववस्तु, जो अन्यज्योति से दीप्तिमान होकर, केवल अपने रूपदर्शन मेँ समर्थ होते हैँ, वह रूपज्योति कहलाते हैँ । वायु, आकाश आदि पार्थिव पदार्थ, जिनमें रूपत्व का अभाव है, वह अज्योति कहलाते हैँ ।
अक्षरपुरुष का ज्ञानज्योति तथा अव्ययपुरुष का विकाश इस से भिन्न है । रस ही मूलप्रतिष्ठा है । उसीका प्रथम विवर्त्त मन के रूपमें होता है । वही पूर्ण होने के कारण विधृति है (सब कुछ उसीके गर्भ में है – अतः वह सबको धारण किया हुआ है । उसीके ज्योतियोँसे ही सबकुछ भासित होते हैँ (तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ मुण्डक, कठ) । जब अशनाया बल विधृति द्वारा धारण करलिया जाता है, तब उससे सीमित हुआ ज्योतिरूप मन सर्वदिशामें संस्रवरण करता है – अन्यको अपने स्वरूप में ग्रहण करने केलिए प्रवृत्त होता है । यह मन परमेश्वरके श्ववसीयस् मन है । जीवका हृदयाख्य मन इससे भिन्न है । वाक् ही प्रतिष्ठा है । प्रतिक्षण मृत्युकवलित वस्तुओं मे जो -यह है- इसप्रकार का प्रतीति होती है, वही प्रतिष्ठा है । वही सत्ता है । रसरूप श्ववसीयस् मन ज्योतिरूप से विधृति में प्रविष्ट है । अन्यत्र मन अशनाया बल से संस्रवित होकर रस रूप वनता है । अतः प्रतिष्ठा द्विरसा है । रसमें प्रतिष्ठित विभिन्न बल क्षणिक होनेपर भी विधृति के द्वारा एक प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठित होते हैँ । आत्मामें प्रतिष्ठित बल इसप्रकार परतन्त्र हो जाते हैँ ।
(क्रमशः)
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