नवदुर्गा रहस्य 1, नवदुर्गा रहस्य 2, नवदुर्गा रहस्य 3
by Basudeba Mishra
ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्र्चराम्यहमादित्यैरुत विश्र्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्र्विनोभा ॥
अहंसोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥
अव्ययपुरुष के रस भाग, जो दिग्-देश-काल से अपरिच्छिन्न है, सत्ता-चेतना-आनन्द (सच्चिदानन्द) रूपी सदा अपरिवर्त्तनीय धर्म से तथा बलभाग, जो दिग्-देश-काल से परिच्छिन्न है, नाम-रूप-क्रिया रूपी सदा परिवर्त्तनशील धर्म से सबमें अनुप्रविष्ट है । जिसप्रकार अव्ययपुरुष के मन-प्राण-वाक् तीन कला ज्योति-विधृति-प्रतिष्ठा के रूप में विश्व में अभिमानी-अधिष्ठाता-अधिष्ठान हो कर व्याप्त है, उसीप्रकार शक्ति के तीन कला आकृति-प्रकृति-अहङ्कृति भावात्मिका सत्त्व-रज-तम भी अशनाया-विक्षेप-आवरण के रूप में विश्व में व्याप्त है । अन्य बल अथवा बलविशिष्ट रस को अपने गर्भमें लेने के प्रक्रिया को अशनाया कहते हैँ । अपनी प्रेरणा से अपमे में अथवा अन्यत्र स्थित बल को अन्यत्र उपसङ्क्रमण करने की प्रक्रिया को विक्षेप कहते हैं । प्रवाहरूप बल जब स्थिर जैसा प्रतीत हो, तो उसे आवरण कहते हैं । इन्ही शक्ति के रूपों से समग्र प्रपञ्च वनता है ।
जिसके सहायता से भातीति (दिखता है), यह बुद्धि प्रवर्तित होता है, उसे ज्योति कहते हैँ । ज्योति अपने से भिन्न पदार्थ का प्रतीति कराती है (प्रतीतिः वस्त्वन्तर प्रकाशः स्वभावाः) । ज्योति ही प्रकाश है । उसका तीन भेद है । आन्तरप्रकाश ज्ञान है । वाह्यप्रकाश सूर्य, प्रदीप आदि का आलोक है । प्रत्येक वस्तु का विकाश, जिससे कि प्रकाश होता है, वह प्रकाशका हेतुको भी ज्योति कहते हैँ । विकाशरूप ज्योति अव्ययपुरुष के मनका रूपकला से सम्बन्ध रखती है । ज्ञानरूप ज्योति अक्षरपुरुषानुविष्ट मनका रूपकला से सम्बन्ध रखती है । भौतिकप्रकाशरूप आलोक अक्षरपुरुषानुविष्ट मनका रूपकला से सम्बन्ध रखती है । अणोरणीयान्-महतोमहीयान् केवल पाप्मा कहेजानेवाली बलके सम्बन्धमें कहेजाते हैँ । रसमें अणुत्व-महत्वादि मात्रा नहीँ होती । वह सर्वत्र एकरस और नित्यविकाश रूप है । रस स्वभावसे ही प्रतिबिन्दुका सर्वोन्मुख विकाश करता है । जितना बल जहाँ व्याप्त होता है, उतना ही वहाँ रस का विकाश प्रतीत होता है ।
ज्योति आवरक तम के बिना नहीँ रहती । इच्छा. अशनाया, का॒ङ्क्षा आदि अर्थमें परिच्छिन्नता (limitedness) को त्याग कर विभूत्व (infiniteness) के आशा में आवरण (confinement) करने वाला तत्व को तम कहते हैं – तमुँ का॒ङ्क्षाया॑म् । जिससे “न विभातीति – नहीँ दिखता है”, ऐसा बुद्धि प्रवर्तित होती है, उसे तम कहते हैँ । तमसानुविद्धता समस्त प्रकार के ज्योति में समान रूप में है । किसी छात्रको एक परीक्षा में १००० में से ९०० अङ्क मिले । इसका अर्थ है कि उसका उस परिक्षासम्बन्धी विषयमें ज्ञान ९०० है तथा अज्ञान १०० है । केवल “९०० अङ्क मिले” का कोई अर्थ नहीँ होता । “१००० में से ९०० अङ्क मिले” – यही पूर्ण अर्थ प्रकाशकरता है । यहाँ ९०० अङ्क ज्योति है तथा १०० अङ्क तम है । रात्रीका अन्धकार सूर्य के अभावके कारण होता है । पुराणवर्णित पञ्चकन्या (कनति कन्यते वा – कनीँ दीप्तिकान्तिग॒तिषु॑) रात्रीके पञ्चलक्षण है । अहल्या (अहः का लय करनेवाली) रात्रीमें आवरक तम द्रुतगतिसे सबको पदे पदे आवरित करती है । अतः उसे द्रौपदी कहते हैं – दुस्तरुस्तन्मयं पदं द्रुपदं पादुका – पादाच्छादनम् – प॒दँ॒ गतौ॑ । रात्रीके साथ ताराका सम्बन्ध सर्वविदित है । रात्री समस्त कुकर्म केलिए प्रशस्त है (कुं उनत्ति) । उसके उदरमें सब मन्द कर्म रहता है अथवा रात्री में सब मन्द पड जाते हैँ (मन्दः उदरे यस्या) । गोतम (गोर्भिध्वस्तं तमो यस्य) चन्द्र ही रात्री का पति (पा॒ पाने॑) है । इन्द्र (सूर्य) के आगमन से तम रूपा रात्री (अहल्या) का चन्द्र (गोतम) से सम्पर्क छिन्न होता है ।
ज्योतिविकाश का तीन विवर्त है – मात्राज्योति, संस्थाज्योति, दीप्तिज्योति । दिक्-देश-काल के रूप में मात्राज्योति का तीन विकाश है । रूप-भाव-प्रसादन के रूप में संस्थाज्योति का तीन विकाश है । प्रज्ञान-चिद्-भूत के रूप में दीप्तिज्योति का तीन विकाश है । इन्ही से ही विश्व के समस्त विकाश सन्निहित है । यही दुर्गम तत्त्व ही नव दुर्गा है ।
मात्राविकाश ।
व्यतिरेकस्य यो हेतुरवधिप्रतिपाद्ययोः ।
ऋज्वित्येवं यतोन्येन बिना बुद्धिः प्रवर्तते ॥
कर्मणो जातिभेदानामभिव्यक्तिर्यदाश्रया ।
सा स्वैरूपाधिभिर्भिन्ना शक्तिर्दिगिति कथ्यते ॥
तेज के अभाव से तम का जो चतुर्दिक् में विकाश होता है, उसमें भी रस का अनुग्रह ही कारण है (क्वचित् विभाति क्वचित्तिरोहितम्) । रसमें बल अभिभूत होकर ग्रहातिग्रह सम्बन्ध बनाता है, जिससे बल का तिरश्चीनगति (तीरछा गति – नाहमतो निरया दुर्गहैतत् तिरश्चता पार्श्र्वान्निर्गमाणि ॥ ऋग्वेदः ४-१८-२॥) होता है । जैसे स्थिर समुद्रमें अस्थिर तरङ्गें प्रतीत होती है, उसीप्रकार स्थिर रस में अस्थिर बल का प्रतीति होती है । बल एक नाभिकेन्द्रसे चलता हुआ अपने तीर्यक् गति के कारण एक क्रमबर्द्धमान मण्डल बनाता हुआ रस का अनुग्रहसे विकशित होता है । बलावच्छिन्न रस अणोरणीयान्-महतोमहीयान् स्थान तथा वस्तु का विकाश करता हुआ रस ही प्रतिभात होता है । सर्वत्र भूमा में अणिमा होता है । परन्तु अणिमाभाव स्वभाव से ही दृश्य नहीँ होता । बल के तारतम्य से अणिमा ही भूमा रूपमें विकसित होती है । यह विकाश सदा वस्तुओं का अवधि एकरूप से अथवा निश्चित रूप से नहीँ दर्शाती है (जैसे कि बक्रभूमी में – in geodesics) । वस्तुओं का गति बल के भेद से भिन्न होने पर भी एक निश्चित नियम से परिचालित होती है (जैसे आकुञ्चन, प्रसारण आदि) । इन सब कारणों से एक अभ्व (जो दिखता है, परन्तु होता नहीँ है) दिक् (position coordinates in space) का कल्पना करना पडता है । वही दिक् विकाश है ।
विस्तारस्य यथैवार्थः आयामेन प्रकाशितः ।
तथारोहसमुच्छ्रायौ पर्यायवाचिनौ मतौ ॥
परिमाणानुसारेण व्यवहृति क्षितौ नराः ॥ विश्वकर्माः ॥
मात्रा परिमाण है । परिमाण मान (नाप तौल) व्यवहार का कारण है । रस में परिमाण नहीँ होता । पाप्मा नाम से प्रसिद्ध बल में ही परिमाण होते हैँ । रस में ही इसका विकाश होता है । वह परिमाण अणु-महत्-ह्रस्व-दीर्घ भेद से चतुर्द्धा विभक्त है । सर्वत्र भूमा तथा अणिमा होते हैँ । परन्तु अणिमा साधारण प्रयत्न से दृश्यमान नहीँ होते । इसमें महत् परिमाण का नित्य तथा अनित्य दो भेद हैँ । आकाश-काल-दिक्-आत्मा में यह नित्य है । अन्य द्रव्यों में अनित्य है । अणुपरिमाण का भी नित्य तथा अनित्य दो भेद हैँ । परिमाण्डल्यों (quarks) तथा मन में यह नित्य (eternal) है । द्व्यणुक रूप द्रव्यमें यह अनित्य है (mesons are unstable) । जिन आश्रयोंमें महत् और अणु परिमाण उत्पत्तिशील है, उस आश्रयोंमें ह्रस्वत्व तथा दीर्घत्व भी समवाय सम्बन्धमें उत्पत्तिशील है । अर्थ का सत्तासिद्धता यज्ञके कारण तथा भातिसिद्धता वेदके कारण होता है । ग्रहण और त्याग यज्ञका स्वरूप है । परिमाण्डल्य (quarks) एकमात्रा तथा दो परिमाण्डल्यों युक्त द्व्यणुक (mesons) द्विमात्रा होनेसे उनका सङ्गतिकरण (यज्ञ) भावस्वरूप तो है, परन्तु महत् परिमाण नहीँ होनेसे सत्तासिद्ध (observable and measurable) नहीँ है । उनका त्रिवृत्करणसे उत्पन्न त्राणुक (three quark structure) महत्परिमाण होनेसे सत्तासिद्ध है । अर्थ (वाक् – all observables) का ज्ञान वेद (विदँ ज्ञाने॑, विदँ॒ चेतनाख्याननिवा॒सेषु॑) से ही होता है । आकाश-काल-दिक्-आत्मा भातिसिद्ध है । गुण और कर्म भी भातिसिद्ध है । महत् से अणु में परिवर्तन (length contraction) दूरत्व हेतु साममण्डल का विकाशावरण होनेसे होता है । वह वास्तविक नहीँ, परन्तु भातिसिद्ध (apparent) है । यह रस रूपी अमृत से बद्ध बल रूपी पाप्मा का रसाधार का अमृत-मृत्यु भाव ही देशविकाश है ।
उत्पत्तौ त स्थितौ चैव विनाशे चापि तद्वताम् ।
निमित्तं कालमेवाहु विभक्तेनात्मना स्थितम् ॥
कालात् क्रिया विभज्यन्ते आकाशात् सर्वमूर्तयः ।
पौर्वापर्यादिरूपेण प्रविभक्तमिव स्थितम् ॥
एक ही वस्तुमें परत्व तथा अपरत्व का वैपरीत्य, एककालिकत्व तथा विभिन्नकालिकत्व, विलम्ब तथा शीघ्रता – इन सबों की प्रतीति रूप हेतुओँ से काल का अनुमान होता है । इनमें से प्रत्येक प्रतीति शेष प्रतीतियों से विलक्षण है । प्रतीतिगत इन वैलक्षणोँ का कारण को काल कहते हैँ । जैसे दो परिच्छिन्न मूर्त्तीयोँ (पिण्ड) का आन्तरालिक संस्थानगत भेद को विकल्पन से आकाश कहते हैँ (space is the sequential interval between objects, described through alternative symbolism of the boundary objects), उसीप्रकार दो परिच्छिन्न क्रियायोँ का आन्तरालिक संस्थानगत भेद को विकल्पन से काल कहते हैँ (time is the sequential interval between events, described through alternative symbolism of the boundary events) । रस रूपी अमृत से बद्ध बल रूपी पाप्मा का बलाघार का अमृत-मृत्यु भाव ही कालविकाश है । दिक्, आकाश एवं काल अनन्त होने से अपरिमित (infinity) है । यह असङ्ग होनेपर भी सहावस्थान (coexistence) कर सकते हैँ । अतः एकत्र इन्हे दिक्-देश-काल (space-time) कहते हैँ ।
यह काल गति का रूप है, जो रसमें प्रतीत होता है । गति और उससे उत्पन्न क्रिया न पूर्व में था न पश्चात्काल में रहेगी । अतः मध्यवर्त्तीकाल में भी वह नहीँ है (न यत् पुरस्तादिति यन्न पश्चात् मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम्) । यह मृत्यु का स्वभाव है । अमृत के साथ रहने के कारण वह मध्यवर्त्तीकाल में अमृत है (अव्यक्तादिनि भूतानी व्यक्तमध्यानि) । प्रतिक्षण उच्छितिमान (नष्ट होताहुआ) वह आत्मन्वीत होने से सत्तावान है । उसका विकाश छह चरणों में होता है । यह हैँ जायते-अस्ति-वर्द्धते-विपरिणमते-अपक्षीयते-विनश्यति । यही षडध्वा काल का विकाश है ।
(क्रमशः)