पुराण ।

पुराण ।

श्रीमद्वासुदेव मिश्रशर्म्मा 

यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदान्द्विजाः ॥ 

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् ।
बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति ॥

ब्रह्माण्डपुराणम् पूर्वभागः १,१.१७०-१७१ ॥

जो संस्कारी व्यक्ति चारों वेद, वेदाङ्ग तथा उपनिषद के ज्ञाता हो उसीको वेद को विस्तार से जानने के लिए इतिहास (रामायण, महाभारत) तथा पुराण पढना चाहिए । नहीं तो अल्पशिक्षितों से वेद इसलिए दूर रहता है कि यह मेरा अपव्याख्यान कर मुझे मार देगा (विवृत कर मेरा अपमान करेगा) । पुराण वेदों का सरलीकरण है । जैसे अर्थशास्त्र का सार पञ्चतन्त्र में जीवजन्तुओं के कहानियों के माध्यम से सिखाया गया है जो वास्तव में असम्भव है, उसीप्रकार वेद के जटिल तत्वों को पुराणों में विभिन्न आख्यायिकाओं के माध्यम से सरल भाषा में समझाया गया है । उदाहरण के लिए मधुकैटभ वध सृष्टि के परिमाण निर्माण प्रक्रिया (mechanism of creation of mass) को कहानी के रूप में दर्शाता है । यह मिथक (mythology) नहीं है । 

पुराण कोई काल्पनिक कहानीओं का सङ्ग्रह नहीं है । उसका स्थान पञ्चमवेद का है । समस्त शास्त्रों में यही कहा गया है । पुराणों में जो कुछ विरोधाभास मिलते हैं, वह कल्पभेद के कारण हैं । विभिन्न पुराण विभिन्न कल्प का वर्णन करते हैं । कुछ तो आलङ्कारिक वर्णन हैं । जैसे इन्द्र (सूर्य) अहल्या (अहर्लीयते अस्यामिति) सम्वाद, सूर्य के आगमन से रात्री के साथ चन्द्रमा (गौतम) का सम्बन्धविच्छेद का वर्णना है । पञ्चकन्या (कनति कन्यते वा – कनीँ दीप्तिकान्तिग॒तिषु॑) रात्री के पञ्चलक्षण है । देवताओं के साथ साक्षात्कार कलियुग के २५०० वर्ष पर्यन्त होता था ।

माना जाता है कि सृष्टि के रचना के पश्चात् प्रजापति के द्वारा सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रंथ की रचना की, उसे पूराकृति के नवीनरूप होने से पुराण के नाम से जाना जाता है । यास्क के मत में पुरा नवं भवति (निरुक्त – ३.१७) – पुराने आख्यानों का नये रूपमें वर्णन । यह वेद का सरलतम व्याख्चा है तथा वेद के साथ साथ आविर्भूत हुए थे । कहा जाता है कि पूर्णात् वेदं पुराण: अर्थत् जिसके द्वारा वेद पूर्णता प्राप्त करता है  अथवा जो वेदों का पूरक हो, उसे पुराण कहते हैं ।

ऋचः सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह ।

उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥ अथर्ववेदः ११.९ .२४॥

ऋक्, साम, छन्द तथा यजु के साथ पुराण और द्युलोक में रहने वाले दिविश्रित समस्त देवगण उच्छिष्ट से उत्पन्न हुये । उच्छिष्ट (उत् शिष्‍यते यत् । उत्+शिष+क्त) भुक्तावशेष – अवशिष्ट – शेष बचा हुआ अन्न । यज्ञावशिष्ट अन्न । अन्य को उदरस्थ करने की इच्छा को अशनाया कहते हैं । यही स़ष्टिप्रक्रिया के मूल है । जो उदरस्थ होता है, उसे अन्न कहते हैं । जो वच जाता है, उसे उच्छिष्ट कहते हैं । सृष्टि के विज्ञान मूलरूप से ब्रह्माजी द्वारा कहे जाने के पश्चात् प्रजापति के द्वारा पुराण रूप से उसका सरलीकरण ही उसका उच्छिष्ट है ।

अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्याननीष्टं हुतमाशितं पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि ॥ बृहदारण्यकोपनिषत् ४,५.११ ॥

उस परब्रह्म के निश्वास (उद्गार) से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, अनुव्यख्यान, व्याख्यान, इष्ट, हुत किया हुआ, भोजन किया हुआ, पान किया हुआ, यह लोक, पर लोक, समस्त भूत सृष्ट हुए हैं ॥

पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।

वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ 

॥ याज्ञवल्क्यस्मृतिः.आचाराध्यायः.उपोद्घातप्रकरणम् १.३ ॥

पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, षड्वेदाङ्गों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष) सहित चार वेद, यह चौदह विद्या धर्म के स्थान है ।

नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः ॥  छान्दोग्योपनिषत् ७.१.४ ॥

इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः । सर्वेभ्य एव वक्त्रेभ्यः ससृजे सर्वदर्शनः ॥ श्रीमद्भागवतपुराणम् ३.१२.३९ ॥

चारवेदों के अतिरिक्त इतिहास पुराण ही पांचवाँ वेद है । 

महाभारत आदिपर्व के प्रथमअध्याय में कहा गया है कि – 

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् ।।

अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिये । 

लक्षण तथा प्रमाण से वस्तुसिद्धि होता है । लौकिक साहित्य में पुराण का अर्थ पूरा अथवा प्राचीन वृतान्त का नवीन रूप में पुनरावृत्ति होना (history repeats itself) कहा जाता है । परन्तु यहाँ प्राचीन वृतान्त का अर्थ केवल वंशानुचरित पर्य़न्त सीमित न हो कर सृष्टि से प्रलय पर्यन्त सब का संक्षिप्त विवरण – इतिहास (इति – यह घटना, ह – निश्चय ही, आस – पूर्वकाल में घटित हुआ था) भी होता है । वैदिक वाङ्मय में पुराण का अर्थ “प्राचीन: वृत्तान्त:” किया गया है । कारण  कालाः संवत्सरं श्रिताः – काल चक्रवत् चलता है । वही कहानी दुहरायी जाति है । विभिन्न शास्त्रों में पुराण के मूलतः पञ्चलक्षण कहा गया है । 

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । सर्वेष्वेतेषु कथ्यन्ते वंशामनुचरितञ्च यत् ।। 

विष्णुपुराणम् तृतीयांशः अध्यायः ६-२५ ।। 

अन्यत्र –

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वंतराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ 

अमरकोष आदि कोशों में भी पुराण (पुराणेप्रतन – प्रत्न पुरातनं, चिरन्तनम्) के पाञ्च लक्षण माने गये हैं –

अव्याकृतगुणक्षोभान् महतस्त्रिवृतोऽहमः । भूतसूक्ष्मेन्द्रियार्थानां संभवः सर्ग उच्यते ॥ 

श्रीमद्भागवतम्  द्वादशस्कन्धः सप्तमोऽध्यायः  ११ ॥

सर्ग (सृष्टि – महत्तत्व से लेकर अहङ्कार, पञ्चतन्मात्रा, एकादश इन्द्रिय, पञ्चभूत पर्यन्त सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन) । 

नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यन्तिको लयः । संस्थेति कविभिः प्रोक्तः चतुर्धास्य स्वभावतः ॥ १७ ॥

प्रतिसर्ग अथवा संस्था – नित्य, नैमित्तिक, प्राकृतिक, आत्यन्तिक – यह चतुर्विध लय । प्रतिपद विनाशशील सृष्टि का रक्षण (विधृति) को स्थान कहा गया है, जिसका अन्त प्रतिसर्ग (प्रलय) है । 

राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः ।

वंश – ब्रह्माजी के वंश का, जो तीनों कालों में विद्यमान रहते हैं, उनका  विस्तार तथा विवर्त । सोम-सूर्य का विवर्त रूपी वंश से सबका पोषण होता है ।

मन्वन्तरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वराः । ऋषयोंऽशावताराश्च हरेः षड्‌विधमुच्यते ॥ १५ ॥

मन्वन्तर – चौदह मनु, एक ही प्रकारके प्राणोंका समूहरूपी ऋषि, विभिन्न  प्रकारके प्राणोंका समूहरूपी देवता, मनुपुत्र, तथा इन्द्रके विस्तार तथा विवर्त । सूर्य सह पृथ्वीका आकाशगङ्गाका एक बार प्रदक्षिण करने से जो परिवर्तन होता है, उसे मन्वन्तर कहागया है । मन्वन्तरके अन्त में सप्तर्षियोंमें से चार बदल जाते हैं ।

वंशानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्च ये ॥ १६ ॥

वंशानुचरित (राजाओं का वंश तथा चरित – इतिहास) ।