रस बल से सृष्टि

श्रीवासुदेव मिश्र।

निरंश संयुक्तवस्तुका (combined and spread-out particles without parts) एकसाथ रहकर स्थिर रहना (at equilibrium and at rest) आपः (आ॒पॢँ व्या॑प्तौ, आपॢँ लम्भ॑ने – आभिर्वा अहं इदं सर्वं आप्स्यामि यदिदं किं चेति तस्मादापोऽभवन्_ गोपथब्राह्मणम् पूर्व) कहलाता है ।जहाँ आपः का सम्यक् उद्रेक होता है, उसे समुद्र कहते हैँ (तां अस्येक्षमाणस्य स्वयं रेतोऽस्कन्दत् तदप्सु प्रत्यतिष्ठत्)।
ब्रह्म अमृत है और कर्म मृत्यु है । अमृत सदा मुक्त तथा एकरूप है । विजातीय आत्म-मन का प्राण के साथ संयोगनाश होने पर शरीर रूपी बन्धन का अवसान होता है – आत्म-मन का बन्धनमोचन होता है (स समुद्रादमुच्यत स मृच्युरभवत्तं वा एतं मुच्युं सन्तं मृत्युरित्याचक्षते परोक्षेण – – गोपथब्राह्मणम् पूर्व-१.१.) । इसे ही परोक्षभाषा में मृत्यु कहते हैँ । ब्रह्म-कर्म सम्बन्ध में मित मृत्यु से अमित अमृत असक्त तथा मित मृत्यु स्वतन्त्र भासित होता है (समुद्र में तरङ्ग जैसा) । परन्तु जब मित अमित के साथ – मृत्यु अमृत के साथ – कहीँ निरूढ मात्रा में संक्रमण करती है, तभी वह ब्रह्म-कर्म सम्बन्ध संसर्ग कहलाता है ।

अनिरुक्त प्रजापति अलक्षण (उसमें किसी विशेष लक्षण का अभाव) है । वहाँ ब्रह्मरूपी रस (रसो वै सः – तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-२) और कर्मरूपी बल सम रूप से तादात्म्यसम्बन्ध से रहते हैँ । दोनों ही स्वतन्त्र है । अतः उसमें सृष्टि नहीँ हो सकती । बल अल्प क्षणस्थायी है । वह एक क्षणमें उत्थित होकर दुसरे क्षण अपना प्रभाव दिखाता है, फिर तीसरे क्षण नाश हो जाता है । उसीकारण क्रिया भी दैशिक तथा अल्पकालस्थायी होता है । परन्तु अपने आश्रय में प्रवाह नित्यता के कारण वह चीरस्थायिनी तथा सर्वप्रदेशव्यापिनी वन जाता है । प्रवाहरूप होने से, एक बल अन्य बल के उपर आरुढ हो जाता है । उसीसे उनका ग्रन्थिबन्धन संसर्ग हो जाता है । यही ग्रन्थिबन्धन रस के स्वरूप को आवृत्त कर तथा स्थूल होनेपर जगत् निर्माण करता है ।

क्रिया का प्रथम अवस्था में शक्तिप्रयोग से वस्तु का किञ्चित् चलन होता है । फिर क्रियात् विभाग – क्रिया द्वारा वस्तु के अपने स्थान से विभाग होता है । विभागात् पूर्वसंयोग नाशः – विभाग से वस्तु का अपने प्रदेश के साथ संयोग नाश होता है । ततो उत्तरसंयोग – उसके पश्चात् वस्तुका अपने प्रदेश के पार्श्ववर्ती प्रदेश के साथ संयोग हो जाता है । संस्कारवश वही प्रक्रिया क्रम से दोहराया जाता है । यही समूहकर्मजात परिणाम को क्रिया कहते हैँ ।

जब परिच्छिन्न बल, रस को परिच्छिन्न जैसा कर देता है (जैसे शान्त समुद्र तरङ्ग के कारण परिच्छिन्न दिखता है), तथा उस आभासित परिच्छिन्न – मित – रस में बलान्तर (अन्य बल) का सम्बन्ध होता है, उसी से सर्ग – सृष्टि होती है । अतः उसे संसर्ग कहते हैँ । वह संसर्ग दो प्रकार का होता है । तादात्म्य – जो स्वरूपसंसर्ग कहलाता है, तथा वृत्तित्वसंसर्ग जो शक्त्याश्रयत्व (अन्य शक्ति के साथ सम्बन्ध) से होता है । रसस्वरूप से (बल अप्रत्यक्ष है, केवल उसके आश्रय के द्वारा लक्षित होता है) बल प्रवाही (गति का ही दर्शन होता है) होता है । शक्त्याश्रयत्व (भिन्न शक्ति का आश्रय) ही वृत्तिता है । दो प्रवाहों के संसर्ग ही वृत्तिता है ।

सृष्टि का मूल पदार्थ समरूप होने से रस या अप् कहा गया है (रसो वै सः-तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/२)। इसमें कम्पन होने से यह अम्भ (आपॢँ॑ लम्भ॑ने) है। उसमें लहर होने से वह सलिल है (आपो वा इदमासन्त्सलिलमेव । – तैत्तिरीयारण्यकम् १.२३)। उत्पन्न पिण्ड द्रप्स (Drops) अथवा बुद्बुद् (बुलबुला) स्वरूप है । मूल से निकलने के कारण वह स्कन्द अथवा च्युत है । अप् का विस्तार समुद्र है (समुद्गच्छतीति) । इसके तीन धामों स्वयम्भू, परमेष्ठी, सौरमण्डल में रूप हैं- नभस्वान्, सरस्वान्, अथर्व। उनके आदित्य (आददानां यान्ति – न दीयते खण्ड्यते – दो॒ अव॒खण्ड॑ने) प्राण अर्यमा, वरुण, मित्र हैं।

जलराशि का अथाह संग्रह को समुद्र (sea) कहते हैँ । समुद्र चारों दिशाओं से आनेवाले सब पदार्थों को द्रवित कर देता है (तद्यत्समवद्रवन्त तस्मात्समुद्र उच्यते – गोपथब्राह्मणम् पूर्व-1-7) । अणु (atom) के नाभि (nucleus) से चतुर्दिग में विच्छुरित विकिरण को सीमित कर आत्मसात् करने के कारण उस क्षेत्र (negatively charged field) को भी समुद्र (electron sea) कहा जाता है । उसीप्रकार सूर्यकिरण को आत्मसात् करनेवाला म्यागनेटोस्फियर (magnetosphere) को तथा विश्वब्रह्माण्ड में व्याप्त योषा क्षेत्र (Cosmic microwave background) को भी समुद्र कहते हैँ । इनके बन्धनमें रहते हुए पिण्ड जैसे असुर (neutron) बन्धन से मुक्ति पाकर सुर (proton) बनता है, उस बन्धमोचन (disintegration) को मृत्यु (decay) कहते हैँ (स समुद्रादमुच्यत स मृच्युरभवत्तं वा एतं मुच्युं सन्तं मृत्युरित्याचक्षते परोक्षेण – तत्रैव).

बल कुर्वद् रूप है – क्रियावान है । रस अकर्मक है । जब इनका स्वरूपसंसर्ग होता है, तब रस कुर्वद् रूप से (समुद्र जल के तरङ्ग रूप से) दिखायी देता है । बल क्षणिक तथा विनाशी है – मृत्यु रूप है । अमृत रस स्थायी है । दोनों का स्वरूपसंसर्ग से प्रवाही बल सातत्य – स्थिरता प्राप्त करता हुआ प्रतीत होता है (तरङ्ग गतिशील दिखता है, परन्तु किसी वस्तु को वहाकर नहीँ ले जा सकता – ब्रह्म-कर्म सम्बन्ध उसीप्रकार का होता है । उसमें क्रिया नहीँ होती) । अन्य बल के सम्बन्ध से ही क्रिया होती है । क्रिया ही संसार में सर्वत्र दृश्यमान है । इसीलिए कहा गया है कि –
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ गीता ४.१७ ॥
कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌ ॥ गीता ४.१८॥

क्रिया का आश्रय रस ही क्रिया के रूप में संसार में सर्वत्र अवभासित होता है (एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्ष कारणमिति कर्मलक्षणम्)। जो एक ही द्रव्यमें रहता है, जो गुण नहीँ है, तथा संयोग-विभाग करने में जो किसी अन्य का अपेक्षा नहीँ रखता, उसे कर्म कहते हैँ । प्रलय के दशा में बल सुप्त हो कर रस में लीन हो जाता है । इसीलिए कहा गया है कि –
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ गीता ३.५ ॥

बलप्रधान उत्पत्तिक्रम में अत्ता-अन्न सम्बन्ध होता है । जिसमें भोग्यपदार्थों का आधान होता है – रखा जाता है – उसे अत्ता कहते हैँ । जो द्रव्य आधान कियाजाता है, उसे अन्न कहते हैँ । अत्ता अन्नको अपने उदरस्थ करता हैँ । अत्ता अपने स्वरूप में रहता है । अन्न अत्ता में विलीन हो जाता हैँ । अत्ता का अन्न को अपने उदरस्थ करनेकी इच्छा को अशनाया (क्षुधा) कहते हैँ । अशनाया ही मृत्युरूप है (अशनाया हि मृत्युः – बृह. १,२.१) । वह विभेद सृष्टि कर अमितको मित करता है । अतः उसे माया (मा॒ङ् माने॒) कहते हैँ । यह प्रथम बल है । प्रथम विभाजन के पश्चात् यह क्रम चलता रहता है । तब उसीप्रकार अनेक सृष्टि हुई । वह स्थिर रहे । अतः उसे आपः कहागया (तन्मनोऽकुरुतात्मन्वी स्यामिति । सोऽर्चन्नचरत् । तस्यार्चत आपोऽजायन्त) ।

जिस संसर्ग से एक अपने स्वरूप में रहे, तथा अन्य अपना सत्ता खो कर पराधीन हो जाए, उसे विभूतिसंसर्ग कहते हैँ । जब बल रस से संपृक्त हो कर – उपने स्वरूप से विवर्तित होकर विभूति संसर्ग करता है, (जैसे समुद्रमें तरङ्ग विलीन हो कर शान्त सा दिखता है), तो उस सीमित खण्डको अव्ययपुरुष कहते हैँ । यही महादेव है । यही सदाशिव है (तादृशजगतः अहन्तया यद्दर्शनं तदहमिति तादृशः स्पष्टवृत्तिमान् प्रवोधनात्मा सदाशिवपदवाच्यः तृतीयं तत्वम्)। इसे विशिष्ट ब्रह्म कहते हैँ । यही विशिष्टाद्वैत है । इनका उत्पादन, पालन, संहरण आदि शक्ति होता है । विलीन होनेपर भी, बल अपने विलक्षणता का आभास कराता है । वही विलक्षणता को माया कहा जाता है । माया अव्ययपुरुष का शक्ति है । रस बलविशिष्ट होनेपर सकाम हो जाता है । (तदैक्षत । महद्वै यक्षं यदेकं एवास्मि । हन्ताहं मदेव मन्मात्रं द्वितीयं देवं निर्मिमा इति । तदभ्यश्राम्यदभ्यतपत्समतपत् । तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य संतप्तस्य ललाटे स्नेहो यदार्द्रं आजायत – गोपथब्राह्मणम् –पूर्व – १). यही सृष्टि का निमित्त है । रस और बल सृष्टि का हेतु है ।दोनों अविनाभावी है – अलग नहीँ रहते । यह शुद्धब्रह्म है । केवलाद्वैत है (स्वस्वरूपाभेदमयानहमित्येव पश्यति) ।

जिस संसर्ग में दो बल अपने स्वरूप में रहते हुए एक तृतीय बल को जन्म देता है (जैसे एक पक्षी के दोनों पंख भिन्न भिन्न दिशाओं में चलते हुए, पक्षी को सम्मुख दिशा में ले जाते हैँ), उसे योग कहते हैँ । दोनों पंख का बलाबल समान होने पर गति समान रहती है (समत्वं योग उच्यते)। पंखों के कुशल चलन से गति नियन्त्रित रहता है (योगः कर्मसु कौशलम्) । जब रस और बल समपरिमाणमें योग सम्बन्ध करते हैँ, उससे अक्षर पुरुष का प्रदुर्भाव होता है । यह विश्व के प्रकृति है । अव्ययपुरुष निष्काम था । अक्षर पुरुष सर्वकाम हो जाता है । इसी से समस्त विश्व का सर्जन होता है (यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति । यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि तथाऽक्षरात् संभवतीह विश्वम् ॥ मुण्डकोपनिषत् १.१.७) । बल के संसर्ग से रस तद्रूप हो जाता है ।

जब दो बलों के संसर्ग से दोनों का ही नाश हो जाता है, तथा एक तृतीय बल का जन्म हो जाता है, उसे बन्ध सम्बन्ध कहते हैँ । जब रस बल से संसर्ग कर अपने स्वरूप से विवर्तित हो जाता है, रस-बल के सम्बन्ध में दोनों मूर्छित होकर – माया के आवरण में ढक कर – बलप्रधान क्षरपुरुष को जन्म देते हैँ । उस विलक्षण रस को आत्मसात् कर बल स्वयं सत्ता के रूप में भासित होता है । वह अपने आपको आत्मा मान लेता है । यही क्षरपुरुष विश्व के योनि है । सबका आत्मा रस-ब्रह्ममय है । उसीप्रकार बल भी ब्रह्मस्वरूप है ।

ब्रह्म योषा-वृषा भाव से विकसित होता है । रस प्रदान करनेवाला आत्मा, जो क्षरित हो कर रस प्रदान कर पुनः अपने स्वभाव में स्थित हो जाता है, उसे वृषा कहते हैँ । उस रस को अपने गर्भ में धारण कर तथा उसमें निज अंश सम्मिलित कर जो अवयव-अवयवी प्रवाहरूप सन्तान सृष्टि करता है, उसे योषा कहते हैँ । योषा शक्ति है । वृषा आत्मा है (मम योनिर्महद्‍ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् । सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ गीता १४.३ ॥)। जो शक्ति जिस आत्मा से संयुक्त होती है, उसे वह आत्मास्वरूप पुरुष का योषा कहते हैँ ।

माया, योषा, प्रकृति एकार्थवाची है । क्षरपुरुष से संपृक्त प्रकृति शक्ति के द्वारा उत्पादित भोग्यपदार्थों का भोग तो वह आत्मा कर लेता है । इससे वह क्षीण हो जाता है – शक्ति में लीन हो कर स्थूल हो जाता है । स्वरूप संसर्ग से शक्ति के विभुति, योग, बन्ध सम्बन्ध से प्रकृति के तीन गुण – सत्त्व-रज-तम का प्रादुर्भाव होता है । प्रकृतिरूपिणी शक्ति संसार के भोग्यपदार्थों का उत्पादन करती है । अक्षरपुरुष क्षर भावात्मक शक्ति के भोक्ता आत्मारूप होता है । परन्तु अव्ययपुरुष से सम्बन्ध माया शक्ति के द्वारा उदित अक्षर पुरुष न तो वास्तविक भोक्ता है न भोग्य है । वह तो द्रष्टा है । अतः उसे सेतु कहते हैँ । यही पुर्ण विराट् पुरुष है ।

शक्ति सर्वत्र सत्त्वमयी-रजोमयी-तमोमयी होती है । इनके विना शक्ति नहीँ रहती । बलप्रधान सर्ग में बल का बल से संसर्ग होता है । परन्तु मूल आत्मा का रस सर्वत्र अनुगत रहता है । उसी के अनुयोग से यही शक्ति महान् (बुद्धि), अहङ्कार एवं तन्मात्रा को जन्मदेती है । शुद्ध एकजातीय बल शुद्ध रस को आत्मसात् कर (आवरण कर) जिस रूप से प्रकट हुआ, उसे महान कहते हैँ । यह महान नूतन बलसम्बन्धी अनुगत रस के भोग से अहङ्कार को सृष्टि करता है । अहङ्कार जब बलसंयुक्त रस का भोग करता है – सचेतन होता है – तब भूत तन्मात्रा उत्पन्न होते हैँ । तन्मात्रा बलसंयुक्त रस का भोग करते हैं –रस को आवृतकर सचेतन होते हैँ – स्वयं प्रधान भाव से प्रकटित होते हैँ, तब संसार के विविध प्रकार का शरीर बनते हैँ । यह मात्रा भेद के कारण – सत्त्व- रज- सत्त्वरज- रजतम-तम तन्मात्रा (तत् मात्रा – उसकी मात्रा) पाँच प्रकार के हैँ । तन्मात्रा, जब पुनः बलसंयुक्त रस का भोग करते हैँ, तब रस का आबरण हो कर मात्रा प्रधान हो जाते हैँ तब काया (कायति प्रकाशते इति) – शरीर – भूत बनते हैँ ।

महान में सत्त्वगुण कामना (इच्छा), रजोगुण विक्षेप, तथा तमोगुण आवरण के रूप में प्रकट होते हैँ । अहङ्कार में यह तीनों गुण ज्ञान-क्रिया-अर्थ के रूप में प्रकट होते हैँ । भूत तन्मात्राओं में यह तीनों गुण प्रज्ञा-प्राण-भूत के रूप में प्रकट होते हैँ । पृथक पृथक भूत तन्मात्राओं के योग से शक्ति सम्मिलन से संसार के सारे पदार्थ उत्पन्न होते हैँ ।