अन्नसम्बन्ध (स्वधा, स्वाहा, वौषट्, स्वगा, नमः)का सार्वभौम परिभाषा।CORRELATING MICRO & MACROFUNDAMENTAL INTERACTIONS – 1

श्रीवासुदेव मिश्रशर्म्मा (Shri Basudeba Mishra)

अन्नसम्बन्ध (स्वधा, स्वाहा, वौषट्, स्वगा, नमः)
का सार्वभौम परिभाषा।
CORRELATING MICRO & MACRO
FUNDAMENTAL INTERACTIONS.

आश्ळिष्टा रभसाद्विलीयत इवाक्रान्ताप्यनङ्गेन या
यस्याः कृत्रिमचण्डवस्तुकरणाकूतेषु खिन्नं मनः ।
कोऽयं काहमिति प्रवृत्तसुरता जानाति यो नान्तरम्
रन्तुः सा रमणी स एव रमणः शेषौ तु जायापती ।।
अमरुशतकम् ।।

शृङ्गार के समय जो प्रिया प्रेमोत्साह से (र॒भँ॒ राभ॑स्ये + असच् = प्रेमोत्साहः, बेगः) आलिङ्गन करते ही प्रिय के अङ्गों में विलीन सा हो जाती है, कृत्रिम (वनावटी) प्रचण्ड-प्रणय-कोप-क्रीडा से जिसका मन खिन्न हो जाता है, सम्भोग में तल्लीन हो कर जो “मैँ कौन-यह कौन” इस द्वेत भाव का अन्तर भुलकर चरमानन्द के अद्वैतभाव को प्राप्त होती है, वही एकमात्र रमणी है तथा उसका प्रिय ही रमण है । शेष लोग तो केवल पति-पत्नी होते हैँ ।

वर्ष 2013 में 2003 के नोवल पुरष्कार विजेता सार् आन्थोनी जेमस् लेगेट्ट कलकत्ता के घनश्याम दास विडला सभागार में अणु-महत् समन्वय (Correlating the Micro with the Macro) के विषय पर भाषण दे रहे थे । उन्होने चिराचरित चर्वित-चर्वण के पश्चात् कहा इस विषय पर अनुसन्धान चल रहा है । एक सौ वर्ष में इसका उत्तर मिल जाइगा । प्रश्नकाल में मैंने उनसे कहा इसका उत्तर हम वैदिक काल से जानते हैँ । उन्होने कुछ उत्तर नहीँ दिया । मैंने अपना एक पुस्तक उनको दिया तथा कई ई-मेल भेजा था । उनके उत्तर का प्रतीक्षा आज भी है ।

हम सब स्वधा, स्वाहा, वौषट्, स्वगा, नमः आदि शब्द सुने हैँ तथा देवकर्मादि में इनका व्यवहार देखा है । परन्तु इनका मूलतत्त्व नहीँ समझते । अग्नि में सोम का आहुति को यज्ञ (पाक – transition states of chemical reaction) कहते हैँ । अग्नि अन्नाद (container) है । सोम अन्न (contained) है (तवाहमस्मि सख्ये न्योका:) । इससे वर्ण आरोपण (color charge) हो कर भावसृष्टि होता है । उससे अशनायावृत्ति के कारण योषा-वृषा भाव (electric charge) सृष्टि हो कर गुणसृष्टि (valence generation) होता है । गुणों का पञ्चीकरण से मैथुनीसृष्टि (electronic configuration in chemical reaction) होता है ।

हुतान्न में पितृओं केलिए स्वधा, देवताओं केलिए स्वाहा, इन्द्र केलिए वौषट्, गौणदेवों केलिए स्वगा, तथा मनुष्यों केलिए नमः शब्द का प्रयोग होता है । यज्ञ एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है । याज्ञिक परिभाषा में इन सम्बन्धों को अन्तर्याम, वहिर्याम, उपयाम, यातयाम, उद्याम सम्बन्ध कहते हैँ, जिसे आधुनिक विज्ञान में strong interaction, weak nuclear interaction (beta decay part only), electromagnetic interaction, alpha decay, and gravitational interaction कहते हैँ । इनका कर्म आकुञ्चन, अवक्षेपण, प्रसारण, उत्क्षेपण तथा गमन होता है । इसीके विषयमें चर्चा करेंगे ।

किसी भी सम्बन्ध में दो द्रव्यों का संयोग अपेक्षित है । अप्राप्त का प्राप्ति ही संयोग है । यह द्रव्य, गुण तथा कर्म – इन तीनों का कारण है । संयुक्त होने के नियम को अदूरसीमन्त कहते हैँ । उस समय दोनों के मध्य का जो अन्तर है, उसे अवग्रहभूमी कहते हैँ । यह स्थलविशेष में भिन्न होता है । अवग्रहभूमी में स्थित दो पदार्थ अथवा व्यक्तियों का संयोग तीन प्रकार से होता है – अन्यतर कर्मज, उभयकर्मज, संयोगज । इनमें क्रिया से युक्त द्रव्य के साथ निष्क्रिय द्रव्य का संयोग अन्यतर कर्मज है । दो विरुद्ध दिशाओ से रहनेवाले क्रियायुक्त दो द्रव्यों का संयोग उभयकर्मज है । उत्पन्न मात्र का अथवा चिरोत्पन्न निष्क्रिय वस्तु (जैसे देश, काल आदि विभुद्रव्यों) का अपने अवयवों के संयोग से युक्त अपने अकारणीभूत द्रव्यों के साथ जो संयोग होता है, वह संयोगज संयोग है । संयोगज संयोग एक संयोग से, दो संयोग से अथवा वहुत से संयोग से उत्पन्न होता है । वहिर्याम तथा उपयाम (beta decay and alpha decay) अन्यतर कर्मज (due to action by one), अन्तर्याम तथा यातयाम (strong interaction and electromagnetic interaction) उभयकर्मज (due to action by both) तथा उद्याम (gravitational interaction) संयोगज संयोग (due to interaction between two compact bodies treated as point particles) है ।

जहाँ दो द्रव्यों का संयोग किसी बाह्यशक्ति (operator) का अपेक्षा रखता है, उसे वृत्तित्वसम्बन्ध कहते हैँ । परन्तु जहाँ दो द्रव्यों का संयोग किसी बाह्यशक्ति (operator) का अपेक्षा नहीँ रखता है, उसे स्वरूपसम्बन्ध कहते हैँ । स्वरूपसम्बन्ध का तीन भेद है – बन्ध, योग तथा विभूति । जहाँ दो द्रव्य के संयोग से दोनों मूर्च्छित हो कर आत्मसत्ता हराते हैँ तथा एक अपूर्व नूतन सृष्टि होता है, उसे बन्ध सम्बन्ध कहते हैँ । बन्ध भी दो प्रकार का होता है – ग्रन्थिबन्धन सम्बन्ध तथा संशर (ढीला) सम्बन्ध । ग्रन्थिबन्धन सम्बन्ध (close coupling) को अन्तर्याम (strong interaction) कहते हैँ । संशरबन्धन सम्बन्ध (loose coupling) को उपयाम (electromagnetic interaction) कहते हैँ ।

जहाँ अचिन्त्य स्वतन्त्र प्रवृत्तियों का कर्म से साहचर्य होने पर अपूर्व द्वियोगज सृष्टि का प्रवर्ग्य रूप से उदय होता है, परन्तु एक से अन्य मूर्च्छित नहीँ होता, उसे योग सम्बन्ध कहते हैँ । वह भी प्रवर्ग्य का पृष्ठ (बिभाग स्थान) भेद से दो प्रकार के होते हैँ । वहिर्बिभाग से उपयाम (electromagnetic interaction) तथा अन्तर्बिभाग से यातयाम (alpha decay) सम्बन्ध होता है । जहाँ स्वतन्त्र प्रवृत्तियों का कर्म से साहचर्य होने पर एक स्वतन्त्र रहे तथा अन्य परतन्त्र हो जाए, उसे विभूतिसम्बन्ध कहते हैँ । उद्याम (gravitational interaction) विभूतिसम्बन्ध के कारण होता है ।

शक्ति का प्रादुर्भाव से ही सृष्टि होता है (रजसा उद्घाटितम्) । जब निष्क्रिय आकाश के किसी प्रदेश (field) में वायु (energy) सर्वप्रथम गतिशील होता है, तब सृष्टि का आरम्भ होता है (अयं वाव यजुः योऽयं पवते । एष हि यन्नेवेदं सर्वं जनयति । एतं यन्तमिदमनु प्रजायते । तस्माद्वायुरेव यजुः । अयमेवाकाशो जूः यदिदमन्तरिक्षम् । एतं ह्याकाशमनु जवते । तदेतत् यजुर्वायुश्चान्तरिक्षँऽच । यच्च जूश्च। तस्माद्यजुः । तदेतत्-यजुर्ऋक्सामयोः प्रतिष्ठितम् । ऋक्सामे वहतः । शतपथब्राह्मणम् 10-3-4/1,2) । उससे विभिन्न शक्तियाँ उत्पन्न होती है (विरूपास इद्ऋषयस्त इद्गम्भीरवेपसः । तेऽगिंरसः सूनवस्ते अग्नेः परिजज्ञिरे ।। ऋक्संहिता 10-62-5) । शक्तियों का वर्गीकरण करने पर उनको ऋषि कहते हैँ (प्राणा वाऽ ऋषयः (शतपथब्राह्मणम् – 6-1-1-1) ।

ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितृभ्यो देवमानवाः ।
देवेभ्यस्तु जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः । मनुस्मृति,3.201।

ऋषियों से पितृ (creative principles) जात होते हैँ । पितृओं से देव-दानव (baryons – त्रिसत्या हि देवा – काठकसंहिता । पुरोडाश-ब्राह्मणम् 31-4 – and नवतीर्नव – 99 anti-baryons) उत्पन्न होते हैँ । उनके तीन विभाग है – चर (having mobile boundary like orbits), स्थाणु (having fixed position like nucleus or center of gravity) तथा अनुपूर्वशः (the intermediate field bubbling with energy – यदेतन्मण्डलं तपति तन्महदुक्थं, ता ऋचः । स ऋचां लोकः । अथ यदेतदचिर्दीप्यते तन्महाव्रतं, तानि सामानि, स साम्नां लोकः । अथ य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः सोऽग्निः, तानि यजूँषि, स यजुषां लोकः । सैषा त्रय्येव विद्या तपति । तद्वैतदप्यविद्वाँस आहुः त्रयी वा एषा विद्या तपति इति ।। शतपथब्राह्मणम् 10-4-2/1,2) ।

इन तीनों लोक स्थितिसिद्ध रूप से दृश्यमान है (लोकृँ॒ दर्श॑ने) –अतः सत्यम् है । इनके आगे भातिसिद्ध (अतः ऋतम्) चतुर्थ देवलोक आपः (magnetosphere) है (त्रयो वा इमे त्रिवृतो लोकाः । अस्ति वै चतुर्थो देवलोक आपः । प्रजापतिस्तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा प्राणादेव इमं लोकं, अपानादन्तरिक्षलोकं, व्यानादमुं लोकं प्रावृहत् । सोऽग्निमेवास्माल्लोकात् वायुमन्तरिक्षलोकात् आदित्यं दिवः असृजत् । सोऽग्नेरेवर्चः, वायोर्यजूपि, आदित्यात् सामानि- असृजत । शांखायनब्राह्मणम् 6-10) । अतः पृथ्वीपर सब वस्तु पृथ्वीकेन्द्र से उपर की दिशा में बृद्धिप्राप्त होते हैँ । पृथ्वी के अन्तरिक्ष में निम्न दिशा में (पृथ्वी के तल की और) गतिप्राप्त करते हैँ । परन्तु द्व्यौलोक में क्षेत्र के बलाबल के अनुसार स्थिर गतिपथ में रहते हैँ (उरुगाय प्रतिष्ठा) । अणु (atom) का भी वही स्थिति है । केन्द्र (उक्थ – nucleus) से रश्मियाँ (अर्क – radiation) निकलती है । उन रश्मियाँ निर्दिष्ट परिधि (अशिती – electron orbits) में देखि याती है । उसके आगे आपःलोक (electron sea) है ।

इन्ही से सबकुछ बना है (ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्तिमाहुः । सर्वा गतिर्याजुपी हैव शश्वत् । सर्वं तेजः सामरूप्यं ह शश्वत् । सर्वं हेदं ब्रह्मण हैव सृष्टम् ।। तैत्तिरीय ब्राह्मणम् 3-12-9।) । सब पिण्डों का मूलकेन्द्र (nucleus) ऋक् है । अतः अणुओं का वर्गीकरण में उसी (proton) का ही विचार किया जाता है । ऋक् ही साम की योनि है । अतः प्रोटोन तथा इलेक्ट्रोन का सङ्ख्या समान रहता है । प्रोटोन सुर है । निउट्रन असुर है । सदा इनका सङ्ग्राम चलता रहता है (n-p conversion chain) ।

(क्रमशः)