अन्नसम्बन्ध (स्वधा, स्वाहा, वौषट्, स्वगा, नमः) कासार्वभौम परिभाषा। – 2 CORRELATING MICRO & MACROFUNDAMENTAL INTERACTIONS – 2

श्रीवासुदेव मिश्रशर्म्मा

उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यास (ऋग्वेदः 10-15-1) ।

जैसै आधुनिक विज्ञान में सोम (leptons) का तीन भेद है (electron, muon, tau), उसीप्रकार लोक भेद से पितृ अवर, मध्यम, पर, नाम से तीन प्रकार के हैँ । ब्रह्म रूप ऋषिप्राणों से, देवरूप देवप्राणों से तथा पितृप्राणों से बने शरीर में जीव जन्मग्रहण करता है । जैसे muon तथा tau अस्थायी है, परन्तु केवल electron स्थायी है, उसीप्रकार स्थायी वर्णविशेष, अस्थायी कर्मविशेष के अधीन है । समस्त वर्ण ब्रह्म से जात होने से वर्ण का कोइ विशेषता नहीँ है । सर्व ब्राह्म जीव कर्म के कारण भिन्न वर्ण हो जाते हैँ (न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत् । ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् । महाभारत शान्तिपर्व – 188-10) ।

गति यदि केन्द्र से परिधि की दिशा में होती है, उस शुद्ध गति को इन्द्र कहते हैँ (स यो यं मध्येप्राणः एष एवेन्द्रः – शतपथब्राह्मणम् – 6-1-1-2) । वही यदि परिधि से केन्द्र के दिशा में आती है, तो उस शुद्ध आगति को विष्णु कहते हैँ (वि॒षॢँ॑ व्या॑प्तौ) । यदि गति तथा आगति एक बिन्दु पर केन्द्रित हो जाते हैँ, तो उसे ब्रह्मा कहते हैँ । ब्रह्मागर्भित (केन्द्रसंश्लिष्ट) गति को अग्नि कहते हैँ । ब्रह्मागर्भित (केन्द्रसंश्लिष्ट) आगति को सोम कहते हैँ । इन्द्र तथा अग्नि के समाहार को रुद्र कहते हैँ । रुद्र जब सोमशिखर होते हैँ तब शिव बनते हैँ । ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र-अग्नि-सोम आत्मक्षर कहलाते हैँ । इनका ब्रह्मौदन तथा प्रवर्ग्य – दो भाग है । प्रवर्ग्य भाग ही विकाराक्षर है, जिससे सृष्टि का स्वरूपनिर्माण होता है । इन से प्राण-आपः-वाक्-अन्नाद-अन्न यह पञ्च विश्वसृट् उत्पन्न होते हैँ । इनका पञ्चीकरण से उसी नाम का प्राण-आपः-वाक्-अन्नाद-अन्न यह पञ्च पञ्चजन कहलाते हैँ जिनसे देवासुर सृष्टि होता है (ये देवा असुरेभ्यः पूर्वे पञ्चजना आसन् – जैमिनीय उपनिशद् ब्राह्मणम् 1-41-7) । उन पञ्चजनों का पञ्चीकरण से वेद-लोक-प्रजा-भूत-पशु यह पञ्च पुरञ्जन उत्पन्न होते हैँ । उनका पञ्चीकरण से स्वयम्भू-परमेष्ठी-सूर्य-पृथिवी-चन्द्रमा यह पञ्च पुर उत्पन्न होते हैँ । उनसे आकाश-वायु-तेज-जल-पृथ्वी पञ्च महाभूत उत्पन्न होते हैँ ।

प्रथम पञ्चजन प्राण पितरों के सृष्टि के लिए मन मेँ कामना किया (सोऽकामयत) । प्राणव्यापार से श्रम किया (अश्राम्यत) । वाक् व्यापार से तप किया (अतप्यत, अभ्यतपत्) । उससे भातिसिद्ध अहृदय अशरीरी ऋतम् तथा स्थितिसिद्ध सहृदय सशरीरी सत्यम् (स + ती + यम्)का सृष्टि हुआ । ऋतम् व्यापक अन्न है । सत्यम् अन्न का भोक्ता अन्नाद है । सत्यम् प्रतिष्ठा है – स्थिर है । ऋतम् ही उसमें सञ्चरण भाव लाता है । प्रतिष्ठा सत्ता-विधृति-धृति भेद से त्रिविध है । जब तक वस्तु का स्वरूप है, वही सत्ता है । विधृति का द्रव्य-गुण-कर्म से नित्य समवाय सम्बन्ध रहता है । धृति संयोग सम्बन्ध का कारण है । सूक्ष्मशरीर के अधिष्ठाता ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण है । इनका लक्षण हरति (ह्वृ॒ सं॒वर॑णे, आहरणे)–द्यति (दो॒ अव॒खण्ड॑ने)-यच्छति (य॒मँ उपर॒मे, नियमने) अन्तर्यामी के रूप से हृ-द-य वनता है ।

परमेष्ठीमण्डलगत सत्यम् पृथ्वी के अपेक्षा से ऋतम् है । उसका रूप पृष्ठ अथवा प्रधि (परिधी) है । सत्यम् ही अग्नि बनता है (स वा एषोऽग्रे देवतानामजायता तस्मादग्रिर्नामाग्रिर्ह वै नामैतद्यदग्निरित्याहुः – काण्व शतपथब्राह्मणम् – 1.2.4.2) । ऋतम् उसे सवन (प्रसव) करने के कारण सोम कहताता है । प्रसरण स्वभाव वाला अग्नि (अङ्गयन्ति अग्य्रं जन्म प्रापयन्ति इतिव्युत्पत्त्या… अङ्गति ऊर्द्ध्वं गच्छति इति । अगँ(म्) कुटि॒लायां॒ गतौ॑) प्रसार से पूर्व अग्नि (घन – ध्रुव), प्रथम प्रसरण के समय वायु (तरल – धर्त्र) तथा अन्तिम प्रसरण के समय आदित्य (विरल – धरुण) कहलाता है । इन तीनों को प्रथम अङ्गी अर्क नामक प्रजापति के स्रंसन से जात होने के कारण अङ्गीरस कहा जाता है । सङ्कोचनधर्मा सोम का भी घन-तरल-विरल भाव से सोम-वायु-आपः तीन रूप हो जाते हैँ । भरण करते हुए संचरण करने के कारण इनको भृगु कहा जाता है (भृ॒ञ् भर॑णे) । यह सत्यम् को धारण और पोषण भी करते हैँ (डुभृ॒ञ् धारणपोष॒णयोः॑) ।

अग्नि और आपः के सङ्घर्षण से पृथ्वी बनता है (अपां सङ्घातो विलयनं च तेजः संयोगात् – कणादसूत्रम् 5-2-8) । (आग्नेय) वायु- (सौम्य)वायु के सङ्घर्षण से अन्तरिक्ष वनता है । आदित्य सोमाहुति से द्युतिमान् हो कर द्युलोक बनता है । सोम अग्निमें आहुत होने पर पृथ्वीपिण्ड के नाभी में जा कर अग्नि में परिणत हो जाता है । अग्नि भी अतिशय प्रसरण से पशु बन कर प्रधि में जाकर सोम बन जाता है । जब समान बल वाले अग्नि-सोम का सङ्कोच-विकाश क्रिया बाधा प्राप्त होता है, उस बाधक तत्त्व को यम कहते हैँ । अग्नि का सोम के अनुकूल रूप (तवाहमस्मि सख्ये न्योका:) यज्ञ है । उसका सोम का बाधक रूप यम है । आङ्गिरस अग्नि पृथ्वी पर (अवर) देवपितर है । अवसान धर्मी यम अन्तरिक्ष (मध्यम) का देवपितर है । भार्गव सोम पर लोक का देवपितर है (यजुर्वेदः 19-50/51) । अन्तरिक्ष में रहनेवाला यम अङ्गिरा के तीन तथा भृगु के तीन संस्थाओं में व्याप्त हो कर सप्तपितर बन जाता है । इस पर भी यम अङ्गिरा के विशेष रूप है । दक्षिण दिशा वाली अग्नि यम है । उत्तर दिशा वाला सोम है, जिसे शक्ति कहा जाता है (जाबालोपनिषत् – द्वितीय ब्राह्मणम्) । अग्नि में अष्टवसु, वायु में एकादश रुद्र तथा सोम में द्वादश आदित्य का अन्तर्भाव है । श्राद्ध में पितृ-पितामह-प्रपितामह को वसु-रुद्र-आदित्य रूप में व्यवहार किया जाता है ।

पितृओं से सबका सृष्टि एक ही वैज्ञानिक नियम का अनुसरण करते हैँ । वह है दो हृदययुक्त वस्तुओं का असमान ग्रन्थिबन्धन सम्बन्ध (two or one up quarks joining one or two down quarks), जिसे अन्तर्याम (strong interaction) कहा जाता है तथा जिसका परिणाम आकुञ्चन (confinement) होता है । इसमें वाह्यशक्ति (operator) का व्यवहार नहीँ होता (प्राणेनैव जुहोति प्राणे हूयते । तद्यदेतदग्नीन्मन्थन्ति यजमानस्यैव तत्प्राणाञ्जनयन्ति । जैमिनीयब्राह्मणम्) । अतः यह स्वरूपसम्बन्ध है । दोनों मूर्च्छित हो कर एक अपूर्व (जो पूर्व में नहीँ था – proton or neutron) तत्त्व को जन्म देते हैँ । जन्म लेते ही उन (proton or neutron) का संयुक्त तिरश्चीनगति (combined spin – यथा कुमारो जातस्स्तनमभिपद्येत तथा तिर्यङ्विसर्पति) आरम्भ हो जाता है, परन्तु संयुक्त गुरुत्व (unequal total mass) नहीँ होता । दो कण हाइड्रोजेन की, एक कण अक्सिजेन की मिल कर असमान ग्रन्थिबन्धन सम्बन्ध से जल बनता है, जिसके गुण उसके दोनों उपादानों से भिन्न है । जल सदा निमन्भूमि के दिशा में अपसर्पण करता है । अतः जल को मौलिक तत्त्व माना गया है ।

वही प्रक्रिया मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों में भी देखने को मिलता है । हृदय के आवेग से दोनों मिलते हैँ (पतिर्जाया प्रविशति गर्भो भूत्वा समातरम्) । पुरुष आकृति में बडा होता है । दोनों के मिलन से अपूर्व अन्य कृति (सन्तान) गर्भस्थ (संस्त्यान – confinement) होता है । सन्तान आयतन में क्षुद्र होता है । जन्म के उपरान्त वह माता के स्तन का अन्वेषण करता हुआ शिर सञ्चालन करता है । परन्तु यहाँ दो और एक का संयोग कहाँ है ? उत्तर है – क्रोमोजोम में । माता के दो एक्स क्रोमोजोम से पिता के एक एक्स अथवा वाइ क्रोमोजोम मिलकर कन्या किम्बा पुत्र को जन्म देते हैँ ।

अवयव-अवयवी प्रवाह को सन्तान कहते हैँ । वह प्रोटोन-निउट्रन हो अथवा कुमार, सब माता-पिता के आकार लेते हैँ । तभी तो कहा गया है कि अङ्गादङ्गात्सम्भवसि हृदयादधिजायसे । आत्मा वै पुत्रनामासि ॥ कौषितकीब्राह्मणम् ॥ (तुम मेरे अंग-प्रत्यङ्ग से उत्पन्न हुए हो । मेरे हृदय से तुम्हारा प्राकट्य हुआ है । तुम स्वयं मेरे ही आत्म स्वरूप हो ) । पितृ प्रजापति ने अपनी सृष्टि को नष्ट न होने देने के लिए उसे तेज से युक्त करके अनुगृहीत करते हैं (येन प्रजापतिः प्रजाः पर्यगृह्णादरिष्टयै तेन – तत्रैव) । इसी आत्मस्वरूप धारक पितृप्राण के लिए ऋणमोचनार्थ स्वं आत्मस्वरूपं धत्ते अथवा स्वेन धयति अर्थमें स्वधा शब्द का प्रयोग होता है ।

कुछ मित्रों का कहना है कि आगम में इन स्वधा, वषट आदि ध्वनियों को विशुद्धचक्र सञ्जात बताकर उसकी विशेषताएँ बताई गई हैं । तो इसमें कोइ विरोध नहीँ है । विशुद्धचक्रका तत्व आकाश है तथा बीजमन्त्र हं है । विशुद्धचक्र कण्ठमें स्थित गलेके उभरे हुए भागके निम्न प्रदेशमें स्थित होता है । प्राणशक्तिका गति केलिए आकाशतत्व आवश्यक है (माण्डूकेयः संहितां वायुमाह तथाकाशं चास्य माक्षव्य एव । समानतांमनिले चाम्वरे च मत्वागस्त्योऽविपरिहारं तदेव – ऋग्वेदः प्रातिशाख्यम्) । योगशास्त्र के अनुसार विशुद्धचक्र सरस्वती का स्थान माना गया है (अथ वाचो वृत्तिं व्याख्यासामः । वायुं प्रकृतिमाचार्याः – ऋक् तन्त्रम्) । इसे जागृत करनेसे वाणी की सिद्धि हो जाती है । इस चक्र द्वारा शासित ऊर्जातत्व प्रभावी सञ्चार प्रणा से संबंधित है । यह प्रेरणा और अभिव्यक्तिका भी प्रतिनिधित्व करता है । इस तत्व पर मन को एकाग्र रखनेसे मन आकाशके समान शून्य हो जाता है । इसलिए इसका नाम विशुद्ध रखा गया है । यह उच्चारणसम्बन्धी है ।

(क्रमशः)