अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥
ये अविद्याम् उपासते ते अन्धं तमः प्रविशन्ति ।
ये उ विद्यायां रताः ते तमः भूयः तमः इव प्रविशन्ति ॥
इसका आक्षरिक अर्थ है, जो अविद्या का उपासना करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं । जो केवल विद्या में ही रत रहते हैं वे उससे भी अधिक घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं ।
इस मन्त्र का अर्थ करने के समय –
अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥
का धीराः तथा अन्यत् शब्द के उपर दृष्टि रखनी चाहिए । विज्ञानात्मा का विद्या-अविद्या भाग सौर विद्या-अविद्या भाग है जो बुद्धिरूप है । इनसे अव्ययात्मा के विद्या-अविद्या भाग का उपकार होता है । अतः इन्हे भी विद्या-अविद्या शब्द से व्यवहार किया जाता है । परन्तु विद्या-अविद्यात्मक अव्ययात्मतत्त्व सौर विद्या-अविद्या से पृथक् है । कारण सौर विज्ञानभाग धी है । इस धी तत्त्व का परिज्ञाता धीर है । अन्यत् का अर्थ अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कुतस्तदुपलभ्यते है । विद्या-अविद्या ज्ञान-कर्ममय है न कि ज्ञान-अज्ञान है । आत्मतत्त्व इससे सर्वथा विलक्षण है । प्राणबली कर्म मार्गवाले वासनासंस्कार से आत्माको आवृत कर रखे हैं । मनोबली ज्ञान मार्गवाले भावनासंस्कार से आत्माको आवृत कर रखे हैं । सकर्म ज्ञानयोग-कर्मयोग भावना-वासना संस्कार के जनक होते हुए बन्धन के कारण है ।
ज्ञानी भी कर्म से मुक्त नहीं रह पाता (न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् – गीता 3-5) । कर्म भी विना ज्ञान के नहीं रहता । दोनों के समन्वय से कर्मता का उदय होता है । पशुवत् कर्म करनेमें कर्तव्याकर्तव्य विवेक नहीं रहने से अन्धं तमः प्रविशन्ति । मनोबली ज्ञान मार्गवाले सर्वदा विद्यामार्ग का उपासना करते हुए भी कर्ममार्ग से वञ्चित है । अतः वे भी घोरतर तम में प्रवेश करते हैं ।
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रताः ॥
ये असम्भूतिम् उपासते ते अन्धं तमः प्रविशन्ति।
ये उ सम्भूत्या रताः ते ततः भूयः इव तमः प्रविशन्ति ॥
जो नाम-रूप के विनाशका अनुसरण करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। और जो नाम-रूप के उदयका अनुसरण करते हैं वे उससे भी अधिक घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं।
अधिदैव एवं अध्यात्म में चन्द्रमा और मन सम्भूति और विनाश के अधिष्ठाता है । सत्ता रस के ग्रन्थिबन्धन सम्बन्धमें बलों का अपूर्व नाम-रूप धारण करना बल की सम्भूति है । ग्रन्थिबन्धन विच्छिन्न होने से बलसंघात का सत्ता रस से पृथक् होना उसका विनाश है । शेष पूर्ववत् ।