by Basudeba Mishra
न प्राणमन्तरात्मेत्याख्यायते। तत्र वागुपहिता अथ वागेवेदं सर्वम्।
यस्मान्न जातः परो अन्यो अस्ति य आविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापतिः प्रजया संरराणस्त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी।।
शुक्लयजुर्वेद 8-36।।
संसार में जो कुछ जातप्रपञ्च है, वह सव जिससे उत्पन्न हुये हैं – विना जिसके सव अनुपपन्न है – वह विश्व के सृष्टब्रह्म है, जिसे अपरब्रह्म भी कहते हैं। जो सव में प्रविष्ट होकर सवको सत्तावान् करता है, वह प्रविष्टब्रह्म है, जिसे परब्रह्म भी कहते हैं। जो इन दोनों से परे होने के कारण शास्त्र के मर्यादा तथा अधिकार के वहिर्भूत है, वह परात्परब्रह्म कहते हैं। इसीलिये उपरोक्त मन्त्र त्रीणि ज्योतींषि कहा। परन्तु उस तृतीय का स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ नहीँ कहा। यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह – जहाँ से वाणी विरत हो कर प्रत्यावर्तन करती है, जो मन से भी प्राप्त होने के योग्य नहीँ है – इसी के विषय में कहा जाता है। सचते शव्द से इन तिनों का सदा समवाय सम्बन्ध से रहने का निर्देश किया। यही पुर परिग्रह होने से प्रजापति कहलाता है। वही प्रजापति विश्व को सृष्टि कर के उस में प्रबिष्ट हो जाता है (तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् – तै. उ. 2-6-1)। इसी का शास्त्राधिकृत भाग को षोडशी कहा जाता है, जिसका अपर नाम अमृतात्मा है। इसका दो विवर्त है, जिसे प्रविष्ट अक्षर तथा सृष्ट क्षर कहते हैं। यह तीनों अविनाभावी है – एक अपर के विना नहीं रहते।
गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्व एकीभवन्ति।।
मुण्डकोपनिषद – 3-2-7।।
इस षोडशी का अपर नाम अव्यय है, जिसमें पञ्चदश कलायें निहित है। उनका समष्टि ही षोडशी है। यह पञ्चदश कलायें पञ्चीकरण के द्वारा आत्मक्षर (ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सोम, अग्नि) से उसी नाम का विश्वसृट्, 5 पञ्चजन (प्राण, आपः, वाक्, अन्न, अन्नाद), 5 पुरञ्जन (वेद, लोक, प्रजा, पशु, भूत), तथा 5 पुर (स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी) है। यह पञ्चदश अङ्ग है। इनका समष्टि षोडशी अङ्गी है। विश्व के सवकुछ इसी षोडशीप्रजापति से वना है (सर्वमुह्येवेदं प्रजापतिः – शतपथब्राह्मणम् – 5-1-1-4)। इसीलिये विश्व के सवकुछ षोडशकल है (षोडशकलं वा इदं सर्वम् – शतपथब्राह्मणम् – 13-2-2-13)।
विश्वमें उक्थ, अर्क, अशीति तीन विभाग है। इन्हे आत्मा, प्राण और पशु भी कहते हैं। जो केन्द्रमें है, जिसके सत्तासे विश्वका अथवा किसी विश्वसन्तान का सत्ता है, उसे उक्थ कहते हैं। यही अव्यय है, जिसका आंशिक विवर्तन तो होता है, परन्तु व्यय नहीँ होता। उक्थका सम्बन्ध विश्वके त्रिवृत्करण से है। उक्थसे निकलने वाले रश्मियां अर्क कहलाती है। यही अक्षर है। वाहर के भाग अशीति है, जिसे दृश्यमान होनेसे पशु कहते हैं – यदपश्यत्तस्मादेते पशवः (शतपथब्राह्मणम् – 6-2-1-2)। यही क्षर है। पशु ही अन्न होता है। उक्थ सवका अत्ता – खानेवाला – होनेसे आत्मा कहताता है। सव इसीका ग्रास वनते हैं – यह किसीका ग्रास नहीं वनता।
चेतन पुरुष, जो अमृतात्मा नाम से भी जाना जाता है, तथा विश्व, अविनाभावी है। अधिदैवत में इनका विवर्त अव्यक्त, महान, विज्ञान, प्रज्ञान, भूत है। चेतनका अवतरण इनमें इसी क्रम से होता है। इसी के सन्बन्ध होने से वह भी आत्मा कहलाते हैं। पुर भाव विश्व है। इनका विवर्त स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी है।
आत्मा शव्द सापेक्ष है। जो किसीका उक्थ, ब्रह्म, साम है वह उसका आत्मा है। बृहत्त्वात् बृंहणत्वात् वा – जो सवसे बृहत् अथवा सवको छन्दित करके रखता है उसे ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म सवका प्रतिष्ठा है – ब्रह्म वै सर्वस्य प्रतिष्ठा। समं इति मेने – यो आलोम आनखाग्र सर्वत्र समान भावसे रहता है, वह साम कहलाता है। आत्माका वहुत अवान्तर विभाग होते हैं। परन्तु उनका अव्यक्तात्मा, महानात्मा, विज्ञानात्मा, प्रज्ञानात्मा, तथा भूतात्मा – इन पाँचोँमे अन्तर्भाव करदिया गया है। प्राण सुप्तावस्थामें बल, कुर्वाण अवस्थामें प्राण तथा निर्गच्छद् अवस्थामें क्रिया कहलाती है। इनके अवान्तर विभाग वहुत सारे हैं, जिनमें प्राणादि पञ्च मुख्य माने गये हैं।
छन्दाँसि पोष अन्नानि सलिलान्यग्न्ययः क्रमात्।
पञ्चैते पशवन्नित्यं प्राणेष्वेते प्रतिष्ठिताः।
पशु पाँच होते हैं छन्द, पोष, अन्न, सलिल और अग्नि। यह प्राणके सहारे रहते हैं। इनके अवान्तर विभाग वहुत सारे हैं।
प्रत्येक वस्तु वयुन नाम से प्रसिद्ध है। इसमें वय, वयोनाध यह दो भाग रहता है। जवतक वयोनाध सुरक्षित रहता है, कोइ वस्तुको अपना अन्न नहीं वना सकता। वयोनाधसे वस्तुको छन्दित करनेवाला तत्वको हि छन्द कहते है। छन्द असंख्य है। किन्तु उनको चतुष्टयं वा इदं सर्वं मत से मा, प्रमा, प्रतिमा, अस्रीवय नामसे चार विभाग करदिया गया है। यह पशु विभाग है जिसे आधुनिक विज्ञान में nucleus, intra-nucleic field, electron orbit and electron sea कहते है। साकञ्जनां सप्तथमाहुरेकजं मत से इन्हे गायत्री, उष्णीक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुप्, जगती आदि नामसे सात विभागमें अन्तर्भाव करदिया गया है। यह प्राण विभाग है, जो आधुनिक विज्ञान में gravitational force के सामुहिकनाम से जाने जाते हैं।
बल, वीर्य, द्रविण भेदसे पोष तिनप्रकारके है। इनसे आत्मभाग पुष्ट होता है। इसलिये इन्हे पोष कहते हैं। इनमेंसे बल, वीर्य, आत्माके अन्तरङ्ग तथा द्रविण वहिरङ्ग है। शरीर सम्पत्ति बल है। प्राण सम्पत्ति वीर्य है। मन सम्पत्ति विक्रम है। हाथी में बल है। सिंह में वीर्य है। मनुष्य में विक्रम है। ब्रह्म, क्षत्र, विट् तीनोंमेसे एक सम्पत्ति वीर्य है। वित्त सम्पत्ति द्रविण है।
अन्नका वहुत अवान्तर विभाग है। किन्तु इनको सात मुख्य विभागमें अन्तर्भाव करदिया गया है। यह सात ज्ञान, क्रिया, और पञ्चभूत है। पञ्चभूत वाक् का वस्तु है। क्रिया प्राण का वस्तु है। ज्ञान मन का वस्तु है। इसीलिये स वा एष आत्मा वाङ्गमयः प्राणमयो मनोमयः कहागया है। अन्न ही पिपर्ति शरीरमिति – पतनशील (degeneration) होने से – पुरीष कहलाता है (अन्नं वै पुरीषम् – शतपथब्राह्मणम् – 8-5-4-4)। उसी कारण से (पतनशील होने से) यह पृथिवी भी पुरीष कहलाता है (पुरीषं वा इयम् – शतपथब्राह्मणम् – 12-5-2-5)। इस प्रक्रिया केवल शक्ति अथवा बल के द्वारा सम्भव है। अतः कहागया है अथ यत्पुरीषं स इन्द्रः – शतपथब्राह्मणम् – 10-4-1-7 – पुरीष ही इन्द्र है, जो बलस्य निखिलाकृति – समस्त बलों का मूलभूत स्वरूप है। इसी को माध्याकर्षण बल कहते हैं।
सलिलको सरीर भी कहते हैं। सूर्य्यमाण इरायुक्त तत्त्वविशेष ही सरीर है। आपः वा इदमग्रे सलिलमासीत् में इसीका वर्णन है। यत् पर्यपश्यत् सरीरस्य मध्ये..में सरीर सलिलका वाचक है। सरत् इरा यस्य – इस व्युत्पत्तिसे नानाभावमें परिणत हुआ रस सरीर कहलाता है। ऋतुएँ इसीके अन्दर आते हैं।
पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अजा भेदसे अग्नि पाँच प्रकारका है, जैसेकि पुरुषसूक्तमें वतलाया गया है। सौर सम्वत्सराग्नि पार्थिव उखामें वर्षभर रहकर वैश्वानर बनती है। वैश्वानर चित्ररूपमें परिणत होता है। चित्र कुमार वनति है। कुमाराग्नि आगे जाकर पुरुषादिस्वरूपमें परिणत होती है। चेतनमात्रमें शरीरनिर्माण करनेवाला वैश्वानर नामक पुरुषपशु है। अन्योंके अपेक्षा मनुष्योंमें यह पुरुषभाग अधिक रहता है, इसिलिये मनुष्योंको पुरुष कहते हैं। वस्तुतः वस्तुमात्र पुरुष है। वैश्वानरही सवका शरीर वनाहुआ है। इसीलिये पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् कहागया है। प्रतिफलित सौर अग्नि अश्वपशु है। कारण प्रतिफलित किरणोंसे ही हम सव देखते हैं। इससे अश्वपशुका आत्मा वनता है। अतएव चेतनअश्व अश्व कहलाता है। इस उभयविध अश्वका कठोपनिषद् के अश्वत्थ प्रकरणमें वर्णन है। सूर्यसे सीधी आतीहुइ रश्मीयें गौ कहलाती है। इससे जिस पशुका आत्मा वनता है, उसे गौ कहते हैं। इसीलिये इसे माता रूद्राणां दुहिता वसुनां श्वसादित्यानाम् अमृतस्य नाभिः कहागया है। वृक्षोंमें हरियाली पैदा करनेवाला द्यावापृथीव्यात्मक अब् गर्भित अग्नि अवि है। इससे जिस पशुका आत्मा वनता है, उसे अवि कहते है। एतदतिरिक्त पार्थिवादि अवान्तर सारे अग्नि अज नामसे जाने जाते हैं।
यह पाँच पशु विभिन्नमात्रामें सवमें रहते हैं। ये पाँचोँ पशु आग्नेय है। यह पशु की एक जाति है। वेदमें जहाँ कहिँ पशु शव्द है प्रकरणानुसार छन्द, पोष, अन्न, सलिल और अग्निमे से किसी एक का सम्बन्ध समझना चाहिये। यह पाँचोँ पशु आत्माकी श्री है। इसीलिये कहागया है कि पशवो वै श्रीः। प्राणयुक्त आत्मा सत्यात्मा कहलाता है। परन्तु यदि उसमें पशुओंका सम्बन्ध कर दियाजाता है तो वह यज्ञात्मा कहलाता है। यज्ञ का स्वरूप पशुओँ पर निर्भर है। इसीलिये शतपथब्राह्मणम् 3-1-4-9 में कहागया है कि पशवो हि यज्ञः।
इसप्रकार पाञ्च आत्मा, पाञ्च प्राण, और पाञ्च पशुओँ को लेकर समष्ट्यात्मक जो षोलहवीं स्वरूप वनता है उसे प्रजापति कहते हैं। इन्हीं तीनोंको कठोपनिषदमें अमृत, ब्रह्म, शुक्र नामसे निरूपण कियागया है। पाञ्चों आत्मा अमृत है। पाञ्चों प्राण ब्रह्म है। पशुविशिष्ट प्राणभाग शुक्र है। एक के तीन विवर्त्त है। इसीलिये कठमें कहागया है कि तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते। यह है उपनिषत् के आत्मा का स्वरूप।