कुम्हार को प्रजापति क्यों कहते हैं?

कुम्हार को प्रजापति क्यों कहते हैं? – पण्डित मोतीलाल शास्त्री

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्।तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥ ईशोपनिषत् - ४॥

संसार में गतितत्त्व अवयवगति, अवयवीगति, उभयगति भेद से तीन भागों में विभक्त है ।

  1. रथचक्र की गति उभयगति है । रथ का पहिया (अवयवी) भी चलरहा है, एवं पहिये के भी चलरहे हैं।
  2. कुमार के चक्र [ चाक् ] की गति अवयवगति है । चक्र जरा भी नहीं चलता, अवयव जरा भी नहीं ठहरते । पूर्वदेश परित्यागपूर्वक उत्तरदेश का संयोग करना ही गति है । चक्र अपने नियत कीलक से मात्र भी नहीं चलरहा । वह एक स्थान पर ही रहता हुआ घूम रहा है । वह क्या घूम रहा है, उस के अवयव घूम रहे हैं ।
  3. एवं मस्तकधृत चक्र की गति अवयवीगति है । हम ट्रेन में बैठे हुये चल रहे हैं। हमारे अवयव नहीं चल रहे, अपि तु हम (अवयवी) चलरहे हैं ।

इन तीनों गतियों में से प्रकृतमन्त्र (ऊपर दिया गया मन्त्र) केवल अवयवगति का निरूपण करता है । मायावाच्छिन्न वेदघन ईश्वर सर्वथा स्थिर है । वृक्षवत् स्तब्ध है । एवं ईश्वरशरीर में प्रतिष्ठित यच्चयावत् पदार्थ, पदार्थों के परमाणु परमाणु गतिशील हैं । व्यापकदृष्टि से संसार सर्वथा स्थिर है, अचलरूप से खड़ा है । व्यष्टिदृष्टि से सब अस्थिर हैं । यदि व्यक्तिभाव को छोड़कर आप विश्व को अपनी दृष्टि में लावेंगे तो वह आपको सर्वथा स्थिर दिखलाई देगा, व्यक्तिभाव को सामने रखने से वही गीतशील मिलेगा । अवयवी स्थिर है, अवयव चल हैं, यही तात्पर्य है ।

आप्त महर्षियों की दूरदर्शिता का जब हम विचार करने लगते हैं तो हमें आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है । निगूढतम जिस विद्या के स्वरूप को यथावत् पहिचानना बड़ी कठिन समस्या है, ऋषियोंने व्यावहारिक (लौकिक) दृष्टान्तों द्वारा उसे इतना सरल बना रक्खा है कि उसे समझने में एक बालबुद्धि भी सहज में ही समर्थ होजाय । कुम्भकार ( कुम्हार ) लोकभाषा में ‘प्रजापति’ नाम से प्रसिद्ध है। घट उदशरावादिमृण्मय पात्रों का निर्माण करनें वाले, वर्ण से शूद्र मनुष्य का ऋषियोंनें ‘प्रजापति‘ नाम रक्खा, जो कि प्रजापति शब्द त्रिभुवन – विधाता धाता ( ईश्वर ) का वाचक है । साधारण दृष्टि से विचार करनें पर कुम्भकार की इस प्रजापति संज्ञा में कोई विशेष महत्व नहीं मालुम होता । परन्तु जब इस संज्ञा का सूक्ष्मेक्षण किया जाता है तो प्रतीत हो जाता है कि कुम्भकार वास्तव में प्रजापति का अवतार हैजैसी स्थिति सृष्टिनिर्माता ईश्वर प्रजापति की है, ठीक वैसी ही स्थिति इस प्रजापति (शब्द) की है । घटनिर्माण प्रक्रिया में कुम्भकार, मिट्टी, दण्ड, चक्र, सूत्र, भूपिण्ड, पानी, यह सात उप करण अपेक्षित हैं । इस कारणसमष्टि से घटकार्य उत्पन्न होता है। इन में भूपिण्ड कुम्भकार एवं चक्र [चाक] का आधार है । कुम्भकार भी जमीन पर बैठता है, एवं चक्र भी कील के आधार पर भूपिण्डपर रहता है। कुम्भकार निमित्तकारण है, घट बनाने वाला है । सूत्र-दण्ड असमायिकारण हैं, मिट्टी उपादान कारण है, पानी सहकारीकारण है । कुमार मिट्टी में पानी डालकर उसको पिब्दमान बनाकर पिण्ड बना लेता है । अनन्तर चक्र के समीप नियत स्थान पर बैठकर चक्रपर मृत्पिण्ड रख देता है । अनन्तर कीलक से बद्ध चक्र को दण्ड से बड़े वेग से घुमाता है । घूमते हुए चक्र पर रक्खे हुए मृत्पिण्ड में हस्तकौशल से अपने बौद्बधट [खयालीघट] का आकर देता जाता है । थोड़ी देर में घट उत्पन्न होजाता है। निर्माण होने के अनन्तर सूत्र [ डोरी अथवा चीवर-चिथड़ा] से घट को चक्र से पृथक कर भूपृष्ठपर सूखनें के लिए रख देता है । सूख जानें पर अग्नि द्वारा उसे पकाता है । अग्नि सम्बन्ध से घट का विनाश हो जाता है। अग्नि सब से पहिले घट के मृत्परमाणुओं को विशकलित कर डालता है । इस अग्निविशकलन से परमाणुओं की सन्धि में प्रतिष्ठित पानी धूम्र बनकर उत्क्रान्त हो जाता है। इसी विशकलन प्रक्रिया का नाम न्यायदर्शनानुसार ‘घटध्वंस’ है । पानीको निकाल कर संधिस्थानों में स्वयं अग्नि अन्तर्याम सम्बन्ध से प्रतिष्ठित होजाता है । इस अग्निसंधान से श्लथपरमाणु दर्शन के शब्दों में ध्वरतघट पुनः संहित होता हुआ परिपक्व बन जाता है । इस प्रकार इस पिठरपाक के अनन्तर घट सर्वात्मना संपन्न हो जाता है । घट का स्वरूप [आकार] सभी को विदित है । ऊपर की ओर गोलाकार मुख होता है, मध्य में विपुलोदर होता है, पैंदा उठा हुआ होता है, यह तो हुई इस [कुम्भकार] प्रजापति की सृष्टि अब चलिए उस्स [ईश्वर] प्रजापति की ओर।

  1. अक्षरतरत्त्व कुम्भकार [निमित्त कारण] है ।
  2. पञ्चकोशात्मक अव्ययब्रह्म भूपृष्ठ [आलम्बन] है।
  3. पूर्वोक्त सूत्रवायु ही सूत्र है ।
  4. यजुर्वेद चक्र है ।
  5. इसी वेद का क्षर मर्त्यभाग मिट्टी [उपादान] है ।
  6. प्रजापति की ध्रुवनीति दण्ड है, इसी को ‘ब्रह्मदण्ड’ कहाजाता है।
  7. सुप्रसिद्ध आपोब्रह्म पानी [ सहकारी कारण ] है । विश्वनाभि में [ केन्द्र में यह यजुश्चक्र बद्ध है । इस की स्थिति ठीक कुमार के चक्र जैसी है । चक्र खूब ही घूम रहा है, परन्तु समुदाय [[अवयध] सर्वथा स्थिर है । इस चक्र पर प्रजापति क्षरवेदरूप मृतृपिण्ड रखता है । यह क्षरवेद वही हमारा सुप्रसिद्ध गायत्रीमात्रिकवेद है ।

यही वेद आगे जाकर घटरूप में परिणत होता है । भूः – भुवः स्वः तीनों लोकों की समष्टि एक घट है । यही विश्वमूर्ति घट चयन यज्ञ में ‘उखा‘ नाम से प्रसिद्ध है । भूलोक इस का बुध्न ( पैंदा) है, भुवर्लोक उदर है, द्युलोकोपलक्षित सूर्य मुख है। एक संवत्सर पर्यन्त इस घट में अग्नि रक्खा रहता है । अनन्तर उस का चयन होता है । त्रैलोक्यरूप उखा ( घट ) के परमाणु परमाणु में अग्निचिति हो जाती है । यही चिति संधिस्थानों से पांच भागों में विभक्त हो जाती है । चिति से घट सर्वात्मना संपन्न हो जाता है। इसी प्राजापत्य घट का दिग्दर्शन कराती हुई अग्निरहस्य श्रुति कहती है

१ – ‘इमे वै लोका उखा‘ [श० ७५।२।१७ ]

प्राजापत्यमेतत् कर्म यदुखा [शत ६|७|१|२३|, ७|५|२|२|, ६|२|२|२४|]

प्रजापति से निर्मित सारी पार्थिव प्रजा घटस्वरूप में परिणत होकर ही प्रतिष्ठित हो रहीहै । इस प्रकार कुम्भकारसृष्टि एवं प्राजापत्यसृष्टि दोनों समानधर्म है | इसी रहस्य के शिक्षण के लिए ऋषियों नें कुम्भकार की ‘प्रजापति’ संज्ञा रक्खी है ।

स्वयं मार्कण्डेयनें कुम्भकार के चक्र से ब्रह्मविद्या का स्वरूप पहिचानते हुए कुम्भकार को अपना गुरू माना था। सचमुच जो स्वरूप इस प्रजापति के चक्रका है, वही स्वरूप इस यजुष्चक्र का है। वह गोल है तो ‘सर्वतः पाणिपादं तत्‘ के अनुसार यह भी वर्तुलवृत्त है । वह घूमता हुआ समुदाय रूपसे स्थिर है तो यह भी दृष्ट्या एजत् बनता हुआ समुदायदृष्ट्या अनेजत् है | मानो हमारा यह (कुन्भकार) प्रजापति उस (ईश्वर) प्रजापति के साथ स्पर्द्धा कर रहा है । इसी आधार पर कवि की “घटानां निर्मातुस्त्रिभुवनविधातुश्च कलह: ” यह सूक्ति प्रचलित है ।

जैसे न चलने वाला चाक, और चलने वाले अवयव एक ही स्थान पर हैं, इसी प्रकार न चलने वाला जू और चलने वाला यत् दोनों का एक ही बिन्दु पर समन्वय है । स्थिति-गति दो विरुद्धभावों का अधिष्ठाता चक्र जैसे एक है, एवमेव यत् और जू के दो होने पर भी यजुर्ब्रह्म एक है।

वह एक ही तत्व जू की अपेक्षा से सर्वथा अनेजत् है, यत् की अपेक्षा से वही एजत् है । वही एजत् है, वही अनेजत् है ।

पण्डित मोतीलाल शास्त्री (ईशोपनिषद विज्ञान भाष्य भाग २)

1 thought on “कुम्हार को प्रजापति क्यों कहते हैं?”

  1. Ranjeet Pradhan

    बहुत ही सुन्दर ब्याख्या। भगवत चिंतन में हमारे श्रद्धा को प्रेरित करता रहेगा।
    अभिनंदनानी

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