“ञ” तालव्य वर्ण है।मुखगुहा में ऊपरी दन्तमूल (दाँतों की जड़ों) के किञ्चित् पीछे का स्थान “तालु” है। इसकी सहायता से उच्चरित वर्ण “तालव्य” कहलाते हैं।इचुयशास्तालव्या:।अर्थात् इ, च-वर्ग, य तथा श तालव्य हैं।अत: इन्हीं की सहायता से “ञ” का उच्चारण किया जा सकता है।तो च-वर्ग को लीजिए जिसका पञ्चम व अन्तिम वर्ण “ञ” है।अब च-वर्ग के पाँचों वर्णों में से अन्तिम “ञ” के स्थान पर “न” को रखिए!तब हमें निम्नलिखित ५ वर्ण प्राप्त होते हैं –च छ ज झ न।अब इन पाँचों का उच्चारण कीजिए।प्रथम चारों को बोलने में जो मुखचेष्टा होती हैउसी चेष्टा (किञ्चित् बत्तीसी दिखाने व जिह्वा को तालु से चिपकाने के तुल्य चेष्टा)को करते हुए “न” वर्ण भी बोलिए।उच्चरित वर्ण “न” से किञ्चित् भिन्न होगा और “ञ” होगा!अथवा केवल “च” वर्ण बोलने हेतु अपेक्षित मुखचेष्टा को करते हुए “न” वर्ण बोलिए।उच्चरित वर्ण “न” से किञ्चित् भिन्न होगा और “ञ” होगा!
“ऋ” का साधु उच्चारण
स्वर की कसौटी प्लुत है
ह्रस्व अथवा दीर्घ नहीं
ऋ का वर्तमान उत्तरभारतीय प्रकटन » रि दक्षिणभारतीय प्रकटन » रु
दोनों का प्लुत करने परइ व उ प्राप्त होते हैं। अत: रि व रु दोनों असाधु हैं।
समझने योग्य बात यह है कि
अ इ उ (कण्ठ, तालु ओष्ठ)
ये तीन प्रधान स्वर हैं।
इसी कारण अखिल विश्व में ये तीनों परस्पर परिवर्तित हो सकते हैं तथा शेष स्वर इन तीनों से प्रभावित होते ही हैं। यह प्रभाव तब और भी बढ़ जाता है जब उच्चारण अशुद्ध हो। अर्थात् ऋषि के लिए प्रबल प्रायिक हैं
» रिशि (तालव्य) व
» रुशि (ओष्ठ्य)
किन्तु क्षीण प्रायिक भी है
» रशि (कण्ठ्य)
ऋ के साधु उच्चारण हेतु लिखित रूप में दो सूत्र दिए जा सकते हैं—
- य व र ल
से अ को अलग करें तो
य् व् र् ल् ये चार स्वर (अर्थात् इ उ ऋ लृ )
प्राप्त होंगे क्योंकि इनका प्लुत सम्भव है।
यही बात म के विषय में भी हैम से अ को अलग करें तो म् स्वर प्राप्त होगा जिसके प्लुत का प्रयोग कभी-कभी दीर्घ प्रणववाचन में होता है। - र के दो वर्तमान रूप हैं—
मूर्धन्य (योरोपीय)
दन्तमूलीय (भारतीय)
किन्तु ऋ प्रधानत: मूर्धन्य ही है किन्तु जब इसका दन्तमूलीय उच्चारण होता है तोरि व रु अथवा र की प्रवृत्ति उत्पन्न हो सकती है।
अब, जिह्वा को ऊपर की ओर मोड़कर उसके सिरे के निचले भाग को मुखगुहा की छत से लगाएँ और बिना हटाए र् का देर तक उच्चार करें तो ऋ प्लुत रूप प्राप्त होगा अर्थात् स्वरबोध हो जाएगा।