प्रत्यक्चैतन्य – MECHANISM OF CONSCIOUSNESS.
वासुदेव मिश्रशर्म्मा
चेतनतत्त्व (consciousness) क्या है ? सेन्द्रियं चेतन द्रव्यं निरिन्द्रियम् अचेतनम् – जिसमें इन्द्रिय है, वह चेतन है । जिसमें इन्द्रिय नहीं है, वह अचेतन है । चेतना एवं जीवन एकार्थक नहीं है । प्राणधारणं जीवनम् – शक्ति का एक उत्स किसी शरीर में बद्ध रहकर बाहर के शक्तियों से भिन्नसत्ताक रहना एवं उनसे सम्बद्ध रखना (निःश्वास-प्रश्वास का चलते रहना) जीवन कहलाता है । कोमा में स्थित व्यक्ति जीवित है, परन्तु चेतन नहीं है । चेतनव्यक्ति का ही जाग्रत अवस्था में ज्ञान होता है । स्मृतिपूर्वानुभूतार्थविषयं ज्ञानमुच्यते – पूर्वानुभूत विषयका स्मरणपूर्वक उस विषयका साक्षात्कार को ही ज्ञान कहते हैं ।
कुछ व्यक्ति मस्तिष्क को ही चेतन का अधिष्ठान मानते हैं । समस्त शारीरिक क्रिया मूलशक्ति स्नायुधातु (nerve) में अधिष्ठित है । स्नायु दो प्रकार के है – कोष (cells) रूप, जो स्नायविक शक्ति का मूल अधिष्ठान बै, तथा तन्तुरूप, जो कोषोद्भूत क्रिया का परिचालकमात्र है । कसेरुका मज्जा (Spinal Chord) और मस्तिष्क समग्र स्नायुमण्डल का केन्द्रस्वरूप (central nervous system) है । मस्तिष्क प्रधानतः स्नायुतन्तु और स्नायुकोष का समष्टि है । मस्तिष्कके स्नायुकोष का एकभाग निम्नभाग में है (Basal ganglia) तथा अन्य भाग वहिर्दिक् में अवस्थित है (cortical cells)। स्नायुतन्तुयें भी वोधवाही अन्तःस्रोत (afferent) तथा ईच्छा वा कार्यवाही वहिःस्रोत (efferent) भेद से द्विधाविभक्त है ।
योगसूत्रम् १/२९ का मूल सूत्र है – “ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च”। इसका अर्थ है ”उससे प्रत्यक्चेतन का साक्षात्कार होता है और अन्तराय सकल विलीन होता है”।
व्यासजी ने इसका भाष्य करते हुए लिखा कि “ये तावदन्तराया व्याधिप्रभृतयस्ते तावदीश्वरप्रणिधानान्न भवन्ति । स्वरूपदर्शनमप्यस्य भवति । यथैवेश्वरः पुरुषः शुद्धः प्रसन्नः केवलोऽनुपसर्गस्तथायमपि बुद्धेः प्रतिसंवेदी पुरुष इत्येवमधिगच्छति ॥२९॥” इसका अर्थ है – व्याधिप्रभृति जो अन्तराय है, वह सब ईश्वरप्रणिधान करते रहने से नष्ट होता है और उस योगी का स्वरूपदर्शन भी होता है । जैसे ईश्वर शुद्ध (धर्माधर्मरहित), प्रसन्न (अविद्यादि क्लेशसून्य), केवल (बुद्ध्यादिहीन), अतएव अनुपसर्ग (जाति, आयु तथा भोगशून्य), पुरुष; उस (साधक का अपना) बुद्धि का प्रतिसंवेदी जो पुरुष, वह भी वैसा ही है, ऐसे प्रत्यगात्मा का साक्षात्कार होता है ।
ईश्वर देही नहीं है । उनका साक्षात दर्शन नहीं हो सकता । अतः ईश्वर को कैसे समझें ? उत्तर वाच्य-वाचक भाव से (तस्य वाचकः प्रणवः – उसका वाचक प्रणव अथवा ॐ शब्द है) । वाच्य-वाचक भाव क्या है ? जो कहागया शब्द और उसके अर्थ का सम्बन्ध है । वह क्या सङ्केत-कृत है (किसी सङ्केत के द्वारा परोक्ष रूप से कहा गया है), अथवा प्रदीप-प्रकाश जैसा (स्वयं प्रत्यक्ष) अवस्थित है ? ईश्वर का वाच्य-वाचक भाव अवस्थित है। कैसे ? जैसे पिता-पुत्र है । जैसे पिता-पुत्र का सम्बन्ध अवस्थित है – पिता-पुत्र कहने से यह उसका पिता और वह इसका पुत्र साङ्केतित होता है ( जाना जाता है), उसीप्रकार ईश्वर का स्वरूप वाच्य-वाचक-शक्तिसापेक्ष सङ्केतकृत होता है। सम्प्रतिपत्ति (सदृश-व्यवहार-परम्परा) का नित्यत्व से शब्दार्थ का सम्बन्ध नित्य है, यह आगमसिद्ध है (यावत्काल मन है और रहेगा, तावत्काल वह शब्द के द्वारा वाच्य पदार्थ का वोध करा रहा है और करता रहेगा । इसे प्रवाहनित्य कहते हैं)।
अदृष्टविग्रहो देवो भावग्राह्यो मनोमयः ।
तस्योङ्कारः स्मृतो नाम तेनाहूतः प्रसीदति । योगीयाज्ञवल्क्य ।
ईश्वरपदार्थ भी उसीप्रकार शब्दमय चिन्तन है । उसका वाच्य-वाचक सम्बन्ध (ॐ शब्द) विज्ञात होने पर उसका जप और उसका अर्थ चिन्तन करना चाहिए । वह अभ्यस्त होने पर स्वतः ही प्रणव का और उसके अर्थ का प्रतिपत्ति (सिद्धवत् ज्ञान) चित्त में उठते रहने से प्रकृष्ट प्रणिधान होता है । ग्रहणतत्त्व तथा ग्रहीतृतत्त्व हमारा आत्मभाव के अङ्गभूत होने से अनुभूत अथवा साक्षात्कार योग्य हैं । तज्जन्य प्रथमत शाब्दिक चिन्ता उनका उपलब्धि का हेतु होने पर भी शब्दशून्यभाव में उनका भावना किया जा सकता है । निर्वितर्क और निर्विचार ध्यान वैसे ही है । परन्तु आत्मभाव के वहिर्भूत ईश्वर का भावना शब्द व्यतिरेके नहीं हो सकता ।
मूर्त्तामूर्त्तब्रह्मरूपचिन्तनं ध्यानमुच्यते ।
योगारम्भे मूर्त्तहरिममूर्त्तमथ चिन्तयेत् ॥
जो कुछ हम धारणा कर सकते हैं (जसका हम एक सत्ता के रूप में अनुभव कर सकते हैं), वह ग्रहीता-ग्रहण-ग्राह्य – इन त्रितत्त्वों के अन्तर्गत होगा ही । उसे बाह्य रूप-रसादि रूप में अथवा आन्तर बुद्धि-अहङ्कारादि रूप में धारणा करना होगा । तन्मध्ये बाह्यभाव से धारणा करने के लिए (प्रारम्भिक साधक के लिए) रूपादियुक्त भाव से तथा आत्मभाव के अङ्गरूप (अन्तर्यामी रूप से) धारणा करने के लिए (उच्चतर साधक के लिए) बुद्ध्यादिरूप में धारणा करना होगा ।
प्रत्यक् शब्द अनेक अर्थ में व्यवहृत होता है । प्रत्येक वस्तु में यो अनुस्यूत है वह ईश्वर प्रत्यक् है । अथवा पश्चिम वा पुराण अर्थ में पुराणपुरुष ईश्वर भी प्रत्यक् है । परन्तु यहाँ प्रतीपं विपरीतम् अञ्चति विजानाति इति प्रत्यक् अर्थ में प्रतिलोम अर्थात विपरीत भाव के ज्ञाता को प्रत्यक कहा गया है, जिसका अर्थ है, आत्मविपरीत अर्थात् अनात्मभाव का बोद्धा । तादृश चेतना वा चितिशक्ति (consciousness) को ही प्रत्यक चेतन वा पुरुष कहा जाता है । केवल पुरुष कहने से मुक्त, बद्ध अथवा ईश्वर आदि सर्वविध पुरुष का निर्देश होता है । परन्तु प्रत्यक् चेतन के द्वारा अविद्यावान् पुरुष (विद्यावान् पुरुष भी) का स्वस्वरूप चिद्रूपावस्था का निर्देश किया गया है । विषय का प्रतिकूल (आत्माभिमुख) जो चैतन्य (दृक्शक्ति) वह भी प्रत्यक् चैतन्य है । बुद्धियुक्त पुरुष (भोक्ता प्रत्यक्पुरुष) ही प्रत्यक्चैतन्य है । अपना आत्मा ही प्रत्यक्चैतन्य है ।