रुद्र और यम कौन हैं ।
श्रीमद्वासुदेव मिश्रशर्म्मा
प्रजापति वायु रूप से जल के साथ वराह बन कर अग्नि के सहयोग से विश्वकर्मा बन कर पृथ्वी का सर्ज्जन किया । फिर अग्नि के संयोग से वसु-रुद्र-आदित्यों आदि देवों को सृष्टि किया (प्रजापतिर् वायुर्भूत्वाऽचरत् स इमामपश्यत् तां वराहो भूत्वाऽहरत्तां विश्वकर्मा भूत्वा व्य् अमार्ट् साऽप्रथत सा पृथिव्यभवत्तत्पृथिव्यै पृथिवित्वम् । तस्याम् अश्राम्यत् प्रजापतिः स देवान् असृजत वसून् रुद्रान् आदित्यान् – तैत्तिरीयसंहिता ७.१ – ज्योतिष्टोम तदाद्यसंस्था अग्निष्टोमयोर्निरूपणम्) । देवताओं में अष्टवसु (वसत्यनेनेति) कौन है – अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, द्यौः लोक, आदित्य, चन्द्रमा, नक्षत्र – यह अष्टवसु है (कतमे वसव इति । अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौः च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसवः । एतेषु हीदं सर्वं वसु हितं इति तस्माद्वसव इति ॥ बृहदारण्यक उपनिषद् ३,९.३ ॥) । यह अग्नि के भेद से विश्व के आधारभूत पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौः लोक, चन्द्रमा, रूप से प्राण गर्भित वाक् तथा अग्नि, वायु, आदित्य, तथा नक्षत्र – वाक् गर्भित प्राण रूप हैँ । इन्ही में विश्व का समग्र रत्न रहते हैँ । इनके सूक्ष्म रूप को वेद में भिन्न नाम से जाना जाता (gluons) है (अग्निश्च जातवेदश्च । सहोजा अजिराप्रभुः । वैश्वानरो नर्यापाश्च । पङ्क्तिराधाश्च सप्तमः । विसर्पेवाऽष्टमोऽग्नीनाम् । एतेऽष्टौ वसवः क्षिता इति, इति – तैत्तिरीयारण्यकम्(-१.९) ।इनका विस्तार नील से पीत पर्यन्त है (नीलार्चिश्च पीतकार्चिश्चेति – तत्रैव – radiates in blue to yellow spectrums) ।
अग्नि जल के साथ रह कर जब संघर्षरत रहता है, तब पृथ्वी का रूप बनता है श्र(आपो वा इदम् अग्रे सलिलम् आसीत् तस्मिन् प्रजापतिर् वायुर् भूत्वाऽचरत् स इमाम् अपश्यत् तां वराहो भूत्वाऽहरत् तां विश्वकर्मा भूत्वा व्य् अमार्ट् साऽप्रथत सा पृथिव्यभवत् तत् पृथिव्यै पृथिवित्वम् । तैत्तिरीयसंहिता ७.१ – ज्योतिष्टोम तदाद्यसंस्था अग्निष्टोमयोर्निरूपणम्)। वायु जब वायु के साथ रहता है, तब अन्तरिक्ष बनता है । आदित्य जब सोमसंयुक्त हो जाता है, तब ज्योतिर्मय हो जाता है, जिसे द्युः लोक कहते हैँ । सोम ही अग्नि में हवन हो जाने से प्रज्ज्वलित हो कर, पृथ्वी के नाभि (केन्द्र) में जा कर अग्नि बन जाता है । अग्नि में अपनी प्रसरण क्रिया अधिक हो जाने से पशु (अविशेषेण सर्व्वं पश्यतीति – पशँ बन्ध॑ने) रूप बनकर प्रधि(पृय़्ठभाग) से सोम रूप बन जाता है (we see this during neutrino oscillation) । जब कभी समान बल वाले अग्नि-सोम एक अन्य को रौक देते हैँ (नियन्त्रित करते हैँ), उसे यम (य॒मँ उपर॒मे, यमोऽप॑रिवेषणे) कहते हैँ (सोमो वै सहस्रम् अविन्दत् तम् इन्द्रो ऽन्व् अविन्दत् तौ यमो न्यागच्छत् – तैत्तिरीयसंहिता ७.१ – सहस्रतम्यभिधानम्)।
यह यम अग्नि का ही रूप है । अग्नि दो प्रकार का है । सोम से अनुकुल सम्बन्ध करनेवाला एक रूप । सोम को रौक देने वाला अन्य रूप । यह दुसरा रूप अङ्गिरा से उत्पन्न (यमाय त्वेत्यङ्गिरस्वते पितृमत इति यज्ञस्य शीर्षच्छिन्नस्य रसो – शतपथब्राह्मणम् – १४.२.२.११) वायु है, जिसे यम कहते हैँ (अदाद्यमोऽवसानं पृथिव्या इति । यमो ह वा अस्या अवसानस्येष्टे स एवास्मा अस्यामवसानं ददाति – शतपथब्राह्मणम् – ७.१.१.३) । मध्य अन्तराल में रहनेवाला यह यम, भीतर रहता हुआ, दक्षिण भाग में स्थित अग्नि का नियमन करता है, तथा उत्तर भाग के अग्नि को रोक देता है । नाभि में स्थित रहने वाला यह नीचे का अग्नि उपर की और सब दिशा में फैलते हुए, सोम के स्थान प्रधि (पृष्ठ) भाग में आ कर सोम रूप में बदल जाता है । उसी प्रकार प्रधि के स्थान पर रहने वाला सोम सब दिशाओं से नीचे गिरता हुआ, नाभि में आ कर अग्नि बन जाता है । चुम्बकीय विच्छुरण (Magnetic Field Lines) से यही देखा जाता है ।
यह यम-अग्नि-सोम देवपितृ है । मध्यान्तराल में रहनेवाला यह यम रूप अग्नि अङ्गिरा के तीन तेजोमय रूप से तथा भृगुसम्बन्धी तीन स्नेहन रूप से – इसप्रकार सात संस्थाओं में व्यापक रहता है । पृथ्वी-अन्तरिक्ष-द्युःलोक के जितने पदार्थ हैँ, सब इन्ही सात संस्थाओं से शरीर धारण करते हैँ ।
आगे चल कर यह अग्नि अवस्था भेद से पञ्चधा विभक्त हो जाती है (वाजसनेयी संहिता अध्यायः ३ अग्न्युपस्थानम् – ११-४३) ।
यह हैँ – यम-अग्नि-वायुमय रुद्र, आपोमय वरुण, तेजोमय इन्द्र, सोममय मित्र, प्राणमय ब्रह्मा । इनमें से रुद्र वायुमय होने के कारण, अन्तरिक्ष में रहते हैँ । यह अपने जन्म और कर्म की विशेषता के कारण एकादश प्रकार के हो जाते हैँ यह समान हल वाले अग्नि-सोमधि अन्तरिक्ष रुद्र इन्द्र, अग्नि, सोम नामक अक्षरपुरुष की तीनों कलाओं के साथ एकरूपता के कारण स्वयं रूप ग्रहण कर के आविर्भूत हो कर दृष्टिपथ में आते हैँ । इसी कारण, सूर्य-चन्द्र-अग्नि इनके तीन नेत्र माने जाते हैँ (इन्द्र से सूर्य, सोम से चन्द्र समझना चाहिए) । पृथ्वी, अन्तरिक्ष, सूर्य – इन तीनों को रोदसी त्रिलोकी कहते हैँ । यह रुद्र, इस त्रिलोकी के कठोर पदार्थों को पिधलाते हुए, द्रुत भाव से ला कर सव और से पशुओं की रक्षा करते हैँ । यह नील से लोहित वर्ण (असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः – रुद्र सूक्तम्. it radiates in all spectrums from blue to red) वाले होते हैँ । परन्तु इनका केश हिरण्मय (radiation in all spectrums) वर्ण वाले होने से इनको श्वेतवर्ण वाला कहा जाता है । यह वायु के चार कर्म करने के कारण इनको चतुर्हस्त कहा जाता है । दुष्टों के विनाश करने के कारण त्रिशूलपाणि अथवा परशुहस्त कहे जाते हैँ । दुःखी जनों के दुःख हरण कर उनके रक्षा करते हैँ । अतः अभयहस्त अथवा वरदहस्त कहे जाते हैँ । इनके अतिरिक्त यह जगत् में नहीँ दिखाइ देने वाले –हमारे ज्ञान सीमा से वाहर – अतः मृग्य (खोजने योग्य – मृगँ॒ अ॒न्वेष॑णे) है । अतः चौथे हाथ से मृगशावक पकडे हुए दिखाइ देते हैँ ।
यह रुद्र अनन्त है (नमो ऽस्तु रुद्रेभ्यो ये ऽन्तरिक्षे येषां वात ऽ इषवः । नमो ऽस्तु रुद्रेभ्यो ये पृथिव्यां येषाम् अन्नम् इषवः । तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणा दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः- रुद्र सूक्तम्) । रुद्र चन्द्रशिखर होने पर शिव बनते हैँ (protons become useful only when they are covered with electrons to become atoms)। यह पञ्चमुख है । प्रकृति यज्ञ के सञ्चालक अधियज्ञमुख – इनके नाम कृशानुः, प्रवाहण, दुवस्वान्, बम्भारि, कविः, विश्ववेदाः, हव्यवाहनः, प्रचेताः, मार्ज्जालीयः, अजैकपात्, अहिर्बुध्न्यः है । भूतसंस्था के सञ्चालक अधिभूतमुख – इनके नाम – पृथ्वीमूर्ती शिव, जलमूर्ती शिव, तेजोमूर्ती शिव, वायुमूर्ती शिव, आकाशमूर्ती शिव, सूर्यमूर्ती शिव, चन्द्रमूर्ती शिव, विद्युन्मूर्ती शिव, पृथ्वीमूर्ती शिव,पवमानः घोरः, पावकः घोरः, शूचीः घोरः । शरीरस्थ प्राणरूप देन संस्था के सञ्चालक अधिदैवतमुख – इनके नाम विरुपाक्षः, रैवतः, हरः, बहुरूपः, त्र्यम्बकः, भूतेशः, जयन्तः, पिनाकी, अपराजितः, अजैकपात्, अहिर्बुध्न्यः है । इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के सञ्चालक अध्यात्ममुख – इनके नाम –श्रोत्रम् (श्रोत्रम्), श्रोत्रम् (त्वक्), चक्षुः (चक्षुः). चक्षुः (जिह्वा), प्राणः (घ्राणम्), प्राणः (वाक्), वाक् (पाणिः), पादः, उपस्थम्, पायुः, आत्मा । वायु रूप में सञ्चारित रहनेवाला – प्रभ्राजमाना व्यवदाताः । याश्च वासुकिवैद्युताः । रजताः परुषाः श्यामाः । कपिला अतिलोहिताः । ऊर्ध्वा अवपतन्ताश्च । वैद्युत इत्येकादश, इति – (तैत्तिरीयारण्यकम्(-१.९) ।