वेद स्तुति के विषय में हमें निम्न श्लोक प्राप्त होते है –
ऋग्वेदः श्वेतवर्णश्च द्विभुजो रासभाननः।
अक्षमालाम्बुपात्रं च बिभ्रन् स्वाध्ययने रतः॥
अजाऽऽस्य पीतवर्णश्च यजुर्वेदोऽक्षसूत्रवान्।
वामेचाङ्कुशपाणिस्तु भूतिदो मङ्गलावहः॥
नीलोत्पलदलाभासः सामवेदो हयाननः।
अक्षमालाधरः सव्ये वामे कम्बुधरः स वै॥
अथर्वणाभिधो वेदो धवलो मर्कटाननः।
अक्षसूत्रं च खट्वाङ्गं बिभ्रन् वै विजयप्रदः॥
वेद में देवताओं का स्तुति है। परन्तु उपरोक्त वर्णना में वेद को पुरुषरूप से कल्पना कर उसके नाम-रूप-कर्म का वर्णन कियागया है। इस प्रकार वेद का स्वरूप वर्णन करने का कारण क्या है ? इस प्रश्न का विचार करने से पूर्व देखते हैं कि मन्त्र के देवता और उसकी स्तुति क्या है। तथा स्तुति के फल स्वरूप जो आशिर्वाद हमें मिलता है, वह क्या है।
अर्थमिच्छन्नृषिर्देवं यं यमाहायमस्त्विति।
प्राधान्येन स्तुवन्भक्त्या मन्त्रस्तद्देव एव सः ॥ (बृहद्देवता) ॥
जब हम किसी विशेष उद्देश्य से किसी विशेष ऋषि तथा देवता का आवाहन करते हैं, तो (जहाँ एकाधिक देवताओं को आवाहन करते हैं, वहाँ) प्राधान्यवश (जिसे हम सब में से प्रधान मानते हैं), वही उस मन्त्र का देवता होता है। वेद में स्तुति तथा आशीष पाये जाते हैं। स्तुति को साधारणतया प्रार्थना (prayer) कहा जाता है, जो भ्रमात्मक है। मन्त्रद्रष्टाओं द्वारा दृष्ट मन्त्र, देवता के अपने प्रभाव से उत्पन्न विभूति तथा स्तुति की दृष्टि से नाना प्रकार के हो सकते हैं।
स्तुतिस्तु नाम्ना रूपेण कर्मणा बान्धवेन च।
स्वर्गायुर्धनपुत्रादैरर्थराशीस्तु कथ्यते ॥ (तत्रैव) ॥
किसी का नाम-रूप-कर्म तथा बान्धव (interactions with related objects or persons) के वर्णन को स्तुति कहते हैं। स्वर्ग, आयु, धन, पुत्र आदि के साधन जिसके द्वारा व्यक्त किया जाता है, उसे आशीष कहते हैं। यह नाम (classification and nomenclature), रूप (physical characteristics) और कर्म (interactive potential) क्या है? नामकरण ही जीव से विशिष्ट प्रकृति के विभागों का (विश्व का) अनुमापक है (वैशेषिक सूत्र 2/1/18। संज्ञाकर्म त्वस्मद्विशिष्टानां लिङ्गम्)। शतपथब्राह्मणम् (14-4-4) में भी कहा गया है –
त्रयं वा इदं नाम रूपं कर्म। तेषां नाम्नां वागित्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि नामान्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां सामैतद्धि सर्वैर्नामभिः सममेतदेषाम्ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि नामानि बिभर्ति। अथ रूपाणाम्। चक्षुरित्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि रूपाण्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां सामैतद्धि सर्वै रूपैः सममेतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि रूपाणि बिभर्ति। अथ कर्मणाम्। आत्मेत्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि कर्माण्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां सामैतद्धि सर्वैः कर्मभिः सममेतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि कर्माणि बिभर्ति तदेतत्त्रयं सदेकमयमात्माऽत्मो एकः सन्नेतत्त्रयं तदेतदमृतं सत्येन च्छन्नं प्राणो वा अमृतं नामरूपे सत्यं ताभ्यामयं प्राणश्छन्नः।
यहाँ नाम-रूप-कर्म को सबका उक्थ-साम-ब्रह्म कहा गया है, जो आत्मा का व्याख्या है। आत्मा शब्द सापेक्ष है। जैसे पुत्र कहने से प्रश्न उठता है कि किसका पुत्र, वैसे आत्मा कहने से प्रश्न उठता है, किसका आत्मा। जो किसी का जन्ममें रेतोधा (रेतप्रद) होता है, वह उसका पिता होता है। उसीप्रकार जो किसीका –
- उक्थ – मूल प्रतिष्ठा, जो रहने से वस्तु रहेगा – नहीं रहने से नहीं तथा जिलके आधार पर वस्तु पिण्ड वनता है,
- साम – आलोम-आनखाग्र सर्वत्र समान भाव में व्याप्त रहनेवाला, और
- ब्रह्म – सबसे बडा और सबको छन्दितकर एक रखनेवाला (धारण करनेवाला) है,
उसे उस वस्तु का आत्मा कहते हैं। नाम-रूप-कर्म सवका आत्मा कैसे, इसका विचार करते हैं।
आत्मा के अर्थ है – आ (सव ओर) + अत् (पहुँचने) + मन् (वाला) अर्थात् अपने कार्यमें सर्वत्र व्यापक। आत्मा के समस्त कार्य के दो विभाग होते हैं – विशेष्य (धर्मी) और विशेषण (धर्म)। जो किसी वस्तुमें अन्वित (युक्त – मिलित) रहे एवं यावत्कालस्थायी रहे, उसे उस वस्तु का विशेषण कहते हैं। दोनों में से एक रहे एक न रहे, तो उसे उपाधि कहते हैं। विशेषण के द्वारा हम विशेष्य को विलक्षण वस्तुओं से भिन्न समझते हैं। जैसे अग्नि विशेष्य है और उसका ताप, जो अग्निमें ही युक्त रहता है तथा जव तक अग्नि है, तव तक ताप रहता है, अग्नि का विशेषण है। ताप के द्वारा हम अग्निको अन्य वस्तुओं से भिन्न समझते हैं। विशेष्य और विशेषण मिलकर एक विशिष्ट कार्यरूप कहलाते हैं। विशेषण का स्थिति विशेष्य के उपर निर्भर है। उसकेलिए विशेष्य सदा रहता है। जो सदा रहता है, जिसका मृत्यु रूपी अवसान नहीं होता, उसे अमृत कहते हैं। अतः विशेष्य को विशेषण के अपेक्षा से अमृत कहते हैं। विशेषण ही विशेष्य का सत्य स्वरूप व्याख्यान करता है – विशेषण के द्वारा ही वस्तु का सत्य स्वरूप जाना जाता है। अतः उसे सत्य कहा जाता है। जो सदा सबमें एक रूप से रहता है उसे अमृत कहते हैं। अतः प्राण को अमृत कहते हैं। सत्य का तीन भाग है, जिसे नाम-रूप-कर्म कहते हैं। वह प्राण जिस भिन्न भिन्न सत्य में ढका रहता है, उसी से उसका भिन्न भिन्न स्वरूप निर्देश होता है। इसीलिए, एक ही सत्य विजातीय प्रतीत होता हुआ जगत् कहलाता है।
शब्देनोच्चारितेनेह येन द्रव्यं प्रतीयते।
तदक्षरविधौ युक्तं नामेत्याहुर्मनीषिणः॥
वाणी (भाषा) के दो विभाग है – व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न।
- जो शब्द के द्वारा कहा और समझा जाय, वह व्युत्पन्न है।
- जो विना शब्द के कहा और समझा जाय, वह अव्युत्पन्न है।
जब किसी वस्तु अथवा व्यक्ति को शब्द द्वारा निर्देशित किया जाता है और श्रोता उसके अर्थ को अवधारण कर उसके अनुरूप क्रिया में प्रवर्तित होता है, उस शब्द को नाम कहा जाता है (यदर्थज्ञानाच्छब्दप्रवृत्तिस्तत्प्रवृत्तिनिमित्तम्)। नाम का निर्देश नौ प्रकार के विचार से किया जाता है।
निवासात् कर्मणो रूपान् मङ्गलाद् वाच आशिषः।
यदृच्छयोपवसनात् तथामुष्यायणाच्च यत् ॥
मधुक, श्वेतकेतु, गालव आदि ऋषियों के मत में वस्तु अथवा व्यक्ति का नामकरण नौ प्रकार से उत्पन्न होता है – निवास, कर्म, रूप, मङ्गल, वाक्य, आशीष. यदृच्छा, उपवसन (निकटवाम – तात्कालिक देश-काल विचार) तथा उच्चकुलत्व है। यास्क, गार्ग्य, रथीतर आदि के मत में आशीष. अर्थवैरूप्य, वाक्य, तथा कर्म – इन चारों से ही नाम उत्पन्न होता है। पिप्पलाद भी नाम के चार स्रोत मानते हैं, परन्तु उनको यशोभिधान, यदृच्छाभिधान, गोत्राभिधान और अभिजनाभिधान कहते हैं। शौनक महर्षि के मत में कर्म में ही इन सब का अन्तर्भाव हो जाता है।
प्रजाः कर्म समुत्था हि कर्मतः सत्त्वसङ्गतिः।
क्वचित्संजायते सच्च निवासात्तत् प्रजायते ॥
यादृच्छिकं तु नामाभिधीयते यत्र कुत्र चित्।
औपम्यादपि तद् विद्याद् भावस्यैवेह कस्यचित् ॥
नाकर्मकोऽस्ति भावो हि न नामास्ति निरर्थकम्।
नान्यत्र भावन्नामानि तस्मात् सर्वाणि कर्मतः ॥
प्राणीयों की उत्पत्ति कर्म से ही होती है। कर्म से सत्त्वसङ्गति विकसित होती है। प्रत्यक व्यक्ति किसी न किसी स्थान पर अस्तित्व धारण करता है। स्वेच्छा से रखेगये नाम भी किसी न किसी स्थान पर रखे जाते हैं। वह अस्तित्व भी किसी न किसी भाव के तुलना में ही निष्पन्न होते हैं। अस्तित्व का कोइ भी रूप ऐसा नहीं, जो कर्म से सम्बन्ध न हो। न कोइ नाम ऐसा है, जो निरर्थक हो। नामों का अस्तित्व के अतिरिक्त कोइ स्रोत है ही नहीं। अतः सभी नाम कर्म से ही उत्पन्न होते हैं। वेदों के नामकरण में भी यही प्रथा व्यवहार हुआ है। नाम के पश्चात् अब रूप का विवेचन करेंगे।
(क्रमशः)