रूपँ रूपक्रि॒याया॑म्, रुपँऽ वि॒मोह॑ने अथवा रु॒ङ् गतिरोष॒णयोः॑ धातु से रूप शब्द निष्पन्न हुआ है। अनेक अवयव द्रव्यगत अनेक रूपों का एक रूप कार्य होता है (रूपाणां रूपम् – रूपयुक्त द्रव्यों के समूह का एक रूप होता है)। अनेकद्रव्य समवेतत्व रूपविशेष होने पर (अनेकद्रव्यवत्व, उद्भूतत्व, रूपवत्व के रहने पर) रूप का प्रत्यक्ष होता है (अनेकद्रव्यसमवायाद् रूपविशेषाच्च रूपोपलब्धिः – केवल एक वस्तु के रहने पर रूप का उपलव्धि नहीं होता)। चक्षुग्राह्य रूप पृथ्वी, जल और तेज का एक असाधारण गुण है (विना चक्षु के रूपग्रहण नहीं हो सकता)। द्रव्यादि के उपलम्भक (अर्थात् जिस द्रव्य का रूप हम देख रहे हैं, उसका तथा उस द्रव्य के अन्य गुणों का) प्रत्यक्ष में दर्शनेन्द्रिय ही सहारा है। शुक्ल-पीतादि भेद से यह अनेकप्रकार का है। जल के परमाणुओं में यह नित्य है (भास्वर शुक्ल रूप)। पृथ्वी के परमाणु में अग्नि के संयोग से उसका नाश होता है (कठिन पदार्थों का जलने से रूप वदल जाता है)। जन्य द्रव्यों में उनके अवयवों में रहनेवाले रूप से यह उत्पन्न होता है तथा आश्रय के विनाश से उसका विनाश होता है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जल तो एक यौगिक अणु (molecule) है। वह परमाणु कैसे हो सकता है। इसका उत्तर यह है कि जब सबकुछ एक ही अग्निसोमात्मक मिथुन (quark gluon plasma) से जात है, तो उसे भिन्न क्यों कहा जाता है। कारण उपर नाम का निर्णय करने के समय जो कर्म का विवेचन किया गया है, उसी कर्म के कारण से। विश्व में सबकुछ यौगिक है। अवयव-अवयवी प्रवाह को सन्तान कहा जाता है। माता-पिता के संयोग से उनके सदृश सृष्टि ही सन्तान पदवाच्य होता है। अम्लयान (oxygen) और उद्जान (hydrogen) के धर्म जलाना और जलना है। जल के धर्म उसके विपरीत है। अतः जैसे संख्या में विलक्षण proton, neutron, electron से विभिन्न परमाणु का सृष्टि होता है, उसी प्रकार जलाना और जलना धर्म वाले अग्निसोम के संयोग से जल का उत्पत्ति होता है (अग्नेरापः – तैत्तिरीयोपनिषत् 2-1)। इसीलिए उसे परमाणु कहा गया है। कारण उससे पूर्व जल की स्थिति नहीं है।
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय।
इन्द्रो मायाभि: पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरय: शता दश ॥ ऋग्वेद 6-47-18 ॥
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्ठो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ कठोपनिषद् 2-2-9 ॥
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्ठो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥10 ॥
रूपं रूपं – उस अग्नि आदि उपाधि द्वारा भिन्न देवता स्वरूप प्रतीयमान, प्रतिरूपो – रूपों का प्रतिनिधि – प्रतिबिम्ब, बभूव – विवक्षित – प्राप्त हुआ (भू प्राप्तौ, मिश्री॒कर॑ण॒ इत्येके॑)। तत् अस्य रूपं – उस अग्नि आदि देवता रूपान्तर ग्रहण करते हैं, भिन्न कर्ता (कर्तान्तर) नहीं। प्रतिचक्षणाय – प्रतिख्यापनाय – देवताभेदेन तत्त्वप्रकाशनाय – प्रतिनियत स्वरूपदर्शन कराते हैं (ईक्षँ॒ दर्श॑ने)। कौन कराते हैं। मध्यप्राणरूपी इन्द्रः। कैसे कराते हैं। मायाभि:। माया के द्वारा। वह माया क्या है।
माया विभेदबुद्धिर्निजांशभूतेषु निखिलभूतेषु।
नित्यं तस्य निरङ्कुशविभवं वेलेव बारिधीं रुन्धे।
स तया परिमितमूर्त्तिः सङ्कुचितसमस्तशक्तिरेष पुमान्।
रविरिव सन्ध्यारक्तः संहृत्यरश्मीः स्वभासनेऽप्यपटुः। शिवरहस्ये।
विभेद बुद्धि ही माया है। अमित विश्व को परिमित कर सीमित करने के कारण उस को माया कहा जाता है (मा॒ङ् माने॑)। ब्रह्म को रस कहा गया है (रसो वै सः – तैत्तिरीयोपनिषत्)। उसके पराशक्ति को बल कहा जाता है। रस अखण्ड है। बल मूल रूप से अखण्ड होनेपर भी सखण्ड हो सकता है। एक ही बल से मित (खण्ड) रूपमें आभासित रस में यदि बलान्तर का सम्बन्ध होता है, उसे संसर्ग कहते हैं। रस के साथ मिश्रित बल के साथ बलान्तर का संसर्ग से निर्विशेष रस-बल सविशेष होते हैं। यह कहाँ से आता है, कहाँ जाता है, कोइ नहीं जानता। इसी प्रहेलिका के कारण भी उसे माया कहा जाता है। इसका तीन भेद है – सामान्य माया, महतीमाया अथवा महामाया तथा योगमाया अथवा विष्णुमाया। मिति (सीमित – measure) करनेवाले बल से स्वरूप संसर्ग से जो बनता है, वह सामान्य माया है। मिति करने के कारण उसे मात्रा कहते हैं। मात्रामें रस का जो परिच्छिन्नरूप दिखाइ देता है, उसे संस्था कहते हैं।
स्वरूपसंसर्गि बल भाव है। वृतित्वसंसर्गि बल कर्म है। स्वरूप संसर्ग तीन प्रकार के है।
- जहाँ ब्रह्म प्रधान हो वहाँ विभूति संसर्ग,
- कर्म प्रधान हो तो बन्ध तथा
- दोनों सम हो तो योग कहते हैं।
- रसमें बन्ध क्रम से वाक्,
- योग क्रम से प्राण और
- विभूति क्रम से मन वनता है।
नाम-रूप भाव है। केवल श्वेत, पीतादि रूप नहीं है, परिच्छेद मात्रा और परिच्छेद वस्तु भी रूप है। नाम-रूप-कर्म माया बल है।
- वाक् निबद्ध बल नाम है।
- ज्योति निबद्ध बल रूप है।
- प्राणसम्बन्ध बल कर्म है।
यह तीनों अभ्व है – होते नहीं, परन्तु होता हुआ दिखायी देते हैं (अभूत्वा भाति)। मन-प्राण-वाक् तीनों आत्मसंस्थ है। अतः इन्हे यक्ष भी कहा जाता है (ब्रह्म ह वा इदमग्र आसीत्। स्वयन्त्वेकमेव तदेक्षत्। महद्वै यक्षम्। – गोपथब्राह्मणम्)। तीनों अभ्व ब्रह्म, अव्यय तथा अक्षरपुरुष में प्रवाहनित्य है। उनका उच्छेद कभी नहीं होता। क्षर में यह अनित्य है। जहाँ यह होता है, उसे भाव कहते हैं। रस का विप्रकर्षण से उसका अभाव भी होता है। भावों में जो नानाविधता है, उसी को विशेष कहते हैं। एक भाव में अनेक विशेष होते हैं। पदार्थों में भिन्नत्व नाम-रूप-कर्म कृत (emergent) है, जो माया बल है। इन को प्रादुर्भाव करनेवाली महामाया है। जो दो पदार्थों के योगसम्बन्ध होनेपर रहती है, वह योगमाया है। यह आत्मस्वरूप को सम्पूर्ण आवरित कर देती है।
इन्द्रो मायाभि: पुरुरूप – इन्द्र माया के द्वारा पुरुरूप – बहुविध रूप (पिपर्त्ति पूर्यते वा इति), ईयते गच्छति, परिमाणयुक्त भवति (ई॒ङ् गतौ॑)।
इन्द्र कौन है।
स योऽयं मध्ये प्राणः एष एवैन्द्रस्तानेष प्राणान्मध्यत इन्द्रियेणैन्ध यदैन्द्ध तस्मादिन्ध इन्धो ह वै तामिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षऽम् (शतपथब्राह्मणम् 6-1-1-2)। सब के केन्द्र में जो प्राण रहता है, वही इन्द्र है। वही सब का चालक है। इन्द्र के तीन कार्य है।
रसादानं तु कर्मास्य, वृत्रस्य च निबर्हणम्।
स्तुतेः प्रभुत्वं सर्वस्य बलस्य निखिला कृतिः।
- रस का आदान करना (रसँ आस्वादनस्नेह॒नयोः॑, रसँ शब्दे॑ च – रसान् रश्मिभिरादाय वायुनायं गतः सह वर्षत्येष च यल्लोके – inducing motion through conduction, convection, radiation – this includes bringing rains),
- वृत्र (वृतुँ॒ वर्त॑ने + रक् – उणादि 2-13, वामन, अन्धकार, इन्द्रो .. अपाहन् वृत्रं परिधिं नदीनाम् – ऋग्वेदः 3-33-6, neutron, black hole) का प्रकान्ताभिनयनिर्वाहः करना (निर् + वः॒अँ॑ प्राप॑णे + भावे ल्युट् – throwing out the confinement of neutrons continuously to come out as proton and as hawking radiation in black holes) उनकी स्तुति की एक विशेषता है।
- उनका तृतीय कार्य है बलसम्बन्धी कार्यों का पूर्णतया सम्पन्न करना।
इन्द्र माया के द्वारा बहुविध रूप प्राप्त करते हैं। कैसे। अपने मध्यस्थान के उससे सम्बन्धित देवताओं के द्वारा। वह देवतायें कौन हैं?
मन्युश्च विश्वकर्मा च मित्रः क्षेत्रपतिर्यमः।
तार्क्षो वास्तोपतिश्चैव सरस्वाँश्चैवमत्र ह।
अपांनपाद्दधिक्राश्च सुपर्णोऽथ पुरूरवाः।
ऋतोऽसुनीतिर्वेनश्च तस्यैतस्याश्रयेऽदितिः।
त्वष्टा च सविता चैव वातो वाचस्पतिस्तथा।
धाता प्रजापतिश्चैव अथर्वाणश्च ये स्मृताः।
श्येनश्चैवैवमग्निश्च तथेळा चैव या स्मृता।
विधातेन्दुरहिर्बुध्न्यः सोमोऽरथ चन्द्रमाः।
इन सब देवतायें कौन है। यह उसी एक देव का महिमा के परिप्रकाश हैं (महिमान एवेषामेते) है। यह कर्मबन्धन से मुक्त नियतकर्म आश्वत्थिक जीव है। गति का मूल तत्त्व यज्जुः है, जो यत् और जु के मिश्रण से होता है। यत् गति (motion) को निर्द्देश करता है। जू आकाश तत्व (space) है। आकाश अथवा वस्तुशून्य स्थान में गति यज्जुः है। ऋक् पिण्ड है। पिण्ड में गति इन्द्र का कार्य है (अयं वाव यजुर्योऽयं पवते। एष हि यन्नेवेदं सर्वं जनयति। एत यन्तमिदमनुप्रजायते। तस्माद्वायुरेव यजुः। अयमेवाकाशो जूः यदिदमन्तरिक्षम्। एतं ह्याकाशमनु जवते। तदेतद्यजुर्वायुश्च अन्तरिक्षं च यच्च जुश्च तस्माद्यजुः। तदेतत्-यजुर्ऋक्सामयोः प्रतिष्ठितम्। ऋक्सामे वहतः – शतपथब्राह्मणम्)। ऋक्-साम को हरि कहते हैं, कारण इनमें प्रतिष्ठित यज्जुः ही गति द्वारा सब का हरण करता है (हृ॒ञ् हर॑णे)। इन दोनों हरियों के द्वारा इन्द्र सोम हरण करता है (आ द्वाभ्यां हरिभ्यामिन्द्र याह्या – ऋग्वेदः 2-18-4)। ऋक् पिण्ड होने से अपना स्थान त्याग नहीं करता। साम अपने को सहस्र भाग में वितत करता है (सहस्रवर्त्मा सामवेदः)। अतः कहा गया है कि युक्ता ह्यस्य हरय: शता दश।
(इस प्रकार
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय।
इन्द्रो मायाभि: पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरय: शता दश ॥ ऋग्वेद 6-47-18 ॥
मन्त्र की व्याख्या पूर्ण हुई)
(क्रमशः)