शब्दब्रह्म और परम्ब्रह्म ।

शब्दब्रह्म और परम्ब्रह्म ।

-श्रीमद्वासुदेव मिश्रशर्म्मा

मैत्रायणी उपनिषद 6-22 में कहा गया है –
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।

अमृतविन्दु उपनिषद् 1-17 में भी कहा गया है –
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥

ब्रह्म का दो भेद जानने योग्य है – शव्दब्रह्म तथा परम्ब्रह्म । शव्दब्रह्म के ज्ञान परम्ब्रह्म की प्राप्ति में सहायक वनता है । अतः शव्द ब्रह्म है । शब्द् धातु का अर्थ “शब्दँ भाष॑णे उपस॒र्गादा॑विष्का॒रे च॑” है । ध्वनि शव्द ध्वन् धातु (ध्वनँ शब्दे॑ [मित्]) से वना है । व्यवहार दृष्टि से दोनों में भेद नहिँ है । परन्तु सूक्ष्मदृष्टि में देखने से दोनों में अन्तर है ।

परम्ब्रह्म के धर्मशुन्य (निर्गुण) तथा धर्मयुक्त (सगुण) दो भेद है । धर्मशुन्य (निर्गुण) ब्रह्म निर्विशेष, निरञ्जन, निष्कल, द्वन्दातीत, अखण्ड, निर्धर्मक, अशेषभेदशून्य आदि नाम से प्रसिद्ध है । तैत्तिरीय उपनिषद् आनन्दवल्ली में कहागया शुद्धरस (रसो वै सः) ही निर्धर्मक ब्रह्म है । यह अवाङ्गमानसगोचर होने से शव्दातीत है । शव्द की यत्किञ्चित् पदार्थता-अवच्छेदक-अवच्छिन्न में शक्ति होती है। निर्धर्मक परम्ब्रह्ममें न तो पदार्थता है न वह अवच्छिन्न है। अतः शव्द उसे स्पर्श नहीं कर सकता। उसीके लिये उपनिषदों में “यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह”, “न तस्य कार्यं करणं च विद्यते”, “न करोति न लिप्यते”, आदि कहा गया है । शास्त्र उसका वर्णन करने के लिये अधिकृत नहीँ है । इसीलिये बृहदारण्यक – 4-4-22 में “नेति नेति” कहा है ।

अमृतविन्दु उपनिषद् 1-17 में कहा गया है –
शब्दाक्षरं परं ब्रह्म तस्मिन्क्षीणे यदक्षरम् ।
तद्विद्वानक्षरं ध्यायेद्यदीच्छेच्छान्तिमात्मनः ॥
शब्द और अक्षर का ध्यान करतेहुये (जैसे ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) शब्द को क्षीण करतेहुये त्याग कर देना चाहिये । तभी आत्मा को अक्षर की प्राप्ति होगी । यहाँ अक्षर शव्दसे अव्यय अभिप्रेत है । कारण अव्यय-अक्षर-क्षर तीनें अविनाभावी हैं तथा मध्यपतित अक्षर से तीनों का ग्रहण होता है । यह वैदिक नियम है ।

धर्मयुक्त (सगुण) ब्रह्म मुण्डकोपनिषत् 3-2-4 में कहा गया (नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो) शुद्ध बल है । यही परात्पर अभय ब्रह्म है । सर्वबलविशिष्ट होनेसे एवं “बलं सत्यादोजीय” होने से यह सर्वधर्मोपपन्न है । इसके विश्व, विश्वचर तथा विश्वातीत तीन भेद है । इनमें विश्वातीत अवाङ्गमानसगोचर है । षोडशी पुरुष (परात्पर-पञ्चकल अव्यय-पञ्चकल अक्षर-पञ्चकल क्षर, अथवा आत्मक्षर-पञ्च विश्वसृट्-पञ्च पञ्चजन-पञ्च पुरञ्जन), विश्वचर है । पञ्च पुर (स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी) का समष्टि ही विश्व है । परमेष्ठी महान् है । यही चिच्छक्ति है । विज्ञान सूर्य बुद्धि है । प्रज्ञान चन्द्रमा मन है । भूत पृथिवी शरीर है । सृष्टि में प्रधानता मन, प्राण, वाक् की है । मन अखण्ड है । वाक् सखण्ड है । प्राण शुद्धरूप से अखण्ड होने पर भी वाक् के संसर्ग से सखण्ड वन जाता है । सृष्टि का उपादान वाक् ही है । अतः नृसिंहतापनी उपनिषद में कहा गया है “अथो वागेवेदं सर्वम्” । तैत्तिरीय ब्राह्मणम् 2-8-8-4 में भी कहा गया है “वाचीमा विश्वा भुवनान्यर्पिता” ।

मन में कामना का उदय होता है (मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् – नासदीय सूक्त) । कामना के अव्यवहितोत्तरकाल में प्राणव्यापार आरम्भ हो जाता है (तदभ्यश्राम्यदभ्यतपत् समतपत् – गोपथब्राह्मणम् पूर्व 1-1 – तपः प्राणव्यापार है) । प्राणव्यापार से शान्त वाक् समुद्र सलिल हो उठता है । सही सलिल वाक् को सृष्टिरूपमें परिणत करता है (तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् – नासदीय सूक्त)।

प्राणसम्बन्ध के तारतम्य से वाक् समुद्र में कम्प और चिति दो भाव उत्पन्न होते हैं । कम्प से शव्दसृष्टि तथा चिति से अर्थसृष्टि होती है । अतएव शव्दज्ञान से अर्थज्ञान (परम्ब्रह्म) हो जाता है । कम्प से जात वाक् तरङ्ग को हमारे श्रवणेन्द्रिय ग्रहण करता है । वह प्रज्ञान मन के द्वारा प्राज्ञ इन्द्र (अधिदैव के वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ, अध्यात्म के वैश्वानर-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ कहलाते हैं), के सम्मुख लिये जाने पर वही वाक् तरङ्ग “व्याकरोत्” – खण्डित हो कर – क-च-ट-त-प आदि वर्णों के जननी वनती है ।

प्राण का प्रचण्ड आघात लगने पर वाक् समुद्र में दो अथवा अधिक वाक्खण्ड का चयन (चिति) हो जाता है । चिति सम्बन्ध पञ्चप्रकार के होते हैं । इन्हे अन्तर्याम, वहिर्याम, उपयाम, यातयाम, उद्याम सम्बन्ध नाम से जाना जाता है । इनके गति को नित्यगति, सम्प्रसाद गति, यज्ञगति,साम्पराय गति तथा उरुगाय प्रतिष्ठा कहते हैं । इन का कर्म अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण, उत्क्षेपण तथा गमन होता है । आधुनिक विज्ञान में इन्हे fundamental forces of Nature (strong nuclear interaction, beta decay part of weak interaction, electromagnetic interaction, alpha decay and gravitational interaction) कहते हैं । इसीसे विश्व के परमाणुओं का गठन होता है ।

अव्यय वाक् का विकाश सृष्टिमूला स्वायम्भूवी वाक् है, जिसे अनादिनिधना, सत्या, वेद आदि नाम से जाना जाता है । इसी वेदवाक् का मूर्ति (matter), गति (energy), तेज (radiation) भेद से ऋक्-यजुः-साम तीन विभाग हो जाते है । यजुः के “यत्” ओर “जु” दो विभाग हो जाते है । इनमें “यत्” भाग प्राण (जोsयं पवते) और जु भाग वाक् है । शतपथब्राह्मणम् में इसके विषय में विशेष आलोचना किया गया है । यजुः के वाक् भाग से प्राणव्यापार द्वारा “सोऽपोसृजत वाच एव लोकात्” (शतपथब्राह्मणम् 6-1-1-9) के अनुसार आपः सृष्टि होती है । वही आपोमय परमेष्ठी कहलाता है । वही स्वायम्भूवी वाक् आपः रूप में परिणत हो कर भार्गवी–आङ्गिरसी दो भागमें वण्ट जाता है (आपो भृग्वङ्गिरोरूपम् – गोपथब्राह्मणम् पूर्व 1-39) । भृगु सोम है । यही सौम्या वाक् सरस्वती वाक् नाम से शव्दसृष्टि की जननी है । अङ्गिरा अग्नि है । यही आग्नेयी वाक् आम्भृणी वाक् नाम से अर्थसृष्टि की जननी है ।ऋग्वेद 10-125 में इसके विषय में विवरण है ।