शिक्षा ।
वासुदेव मिश्रशर्म्मा
अध्ययन (अधि+इङ्) का ग्रहण, धारण तथा ब्रह्मयज्ञ के भेद से तीन विभाग किया गया है । गुरुमुख से उच्चारित शब्द का ग्रहण (कण्ठस्थ करना) और स्मृति में उसका धारण (याद रखना) करने के पश्चात उसका पारायण (मनन करना) को ब्रह्मयज्ञ कहते हैँ । वेदाङ्गों में उच्चारणपद्धति का ज्ञान सम्बन्धी उपदेश को शिक्षा कहते हैँ (शिक्ष्यते ज्ञायते साक्षाद्वर्णाद्योच्चारणं यया)। इसमें त्रिषष्ठी (६३) अथवा चतुःषष्ठी (६४) वर्ण (त्रिषष्टिश्चतुष्षष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः-पाणिनीय शिक्षा), उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि तथा सामवेदके जात्य, क्षैप्र, तैरव्यञ्जन, तिरोविराम आदि स्वर, मात्रा (ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत – अर्द्ध, पूर्ण आदि उच्चारणकाल), बल (प्रयत्नविशेषः), साम (वैषम्य विवर्जित समता – वर्णानां मध्यमवृत्योच्चारणम्), सन्तान (संहिता) का विचार किया गया है । व्यासशिक्षा, लक्ष्मीशिक्षा, भारद्वाजीशिक्षा, आरण्यशिक्षा, शम्भुशिक्षा, आपिशलीशिक्षा, पाणिनीयशिक्षा, कौहली शिक्षा, वासिष्ठीशिक्षा – यह नौ शिक्षाग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । सामवेदके लिए नारदीया शिक्षा प्रशस्त है ।
वर्णों के संकेत से १४ सूत्र महेश्वर ने बनाये (१४ माहेश्वरसूत्र) जिनसे क्रमशः व्याकरण परम्परा चली । यह सूत्र हैं –
१. अ इ उ ण्। २. ॠ ॡ क्। ३. ए ओ ङ्। ४. ऐ औ च्। ५. ह य व र ट्। ६. ल ण् ७. ञ म ङ ण न म्। ८. झ भ ञ्। ९. घ ढ ध ष्। १०. ज ब ग ड द श्। ११. ख फ छ ठ थ च ट त व्। १२. क प य्। १३. श ष स र्। १४. ह ल्।
ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्यः, ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः । (ऋक्तन्त्र)।
महेश्वरसे ज्ञानप्राप्तकर ब्रह्माने इसका ज्ञान वृहस्पतिको दिया, वृहस्पतिने इन्द्रको, इन्द्रने भरद्वाजको और भरद्वाजने ब्राह्मणोंको इसका उपदेश दिया ।
कथित है कि –
येनाक्षर समाम्नायं अधिगम्य महेश्वरात् ।
कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नम्ः॥ (पाणिनीय शिक्षा, अन्तिम श्लोक) ॥
शब्द और वेद दोनों की सृष्टि अव्यक्त से व्यक्त का निर्माण है । इनकी प्रक्रिया ईशावास्योपनिषत् में है –
स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णम॑स्नावि॒रꣳ शु॒द्धमपा॑पविद्धम् ।
क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑यं॒भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्था॒न्व्य॑द धाच्छाश्व॒ती भ्यः॒ समा॑भ्यः ॥८॥
कवि = निर्माता-कणों या शब्दों को कवल में बन्द करता है । मनीषी-विचारक, मन के संकल्प से निर्माण । परिभू -जैसे भूमि को घेर रखा है ।
प्रत्याहारका अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन । अष्टाध्यायीके प्रथमअध्यायके प्रथमपाद के ७१वें सूत्र “आदिरन्त्येन सहेता” (१-१-७१) सूत्रद्वारा प्रत्याहार बनानेकी विधिका पाणिनिने निर्देश किया है । (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्णके साथ (सह) मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदिवर्ण (पहला) एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिमवर्णके पूर्व आए हुए वर्णोंका समष्टिरूपमें बोधकराता है । जैसे अच् – अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ। उसीप्रकार हल् प्रत्याहारकी सिद्धि ५वें सूत्र हयवरट् के आदिअक्षर “ह” को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है । फलतः हल् – ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द,ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह ।
देवलक्ष्मं वै त्र्यालिखिता तामुत्तर लक्ष्माण देवा उपादधत (तैत्तिरीय संहिता ५/२/८/३)
ब्रह्माद्वारा इसप्रकार लेखनका आरम्भ हुआ –
नाकरिष्यद् यदि ब्रह्मा लिखितम् चक्षुरुत्तमम् ।
तत्रेयमस्य लोकस्य नाभविष्यत् शुभा गतिः॥ (नारद स्मृति) ॥
षण्मासिके तु समये भ्रान्तिः सञ्जायते यतः।
धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढ़ान् यतः परां ॥ (बृहस्पति-आह्निक तत्त्व) ॥
ब्रह्माद्वारा अधिकृत बृहस्पतिने प्रतिपद केलिये अलगचिह्न बनाये थे ।
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत नामधेयं दधानाः।
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥ (ऋक् १०/७१/१) ॥
सर्वप्रथम समस्त वस्तुओंके केवल नाम ही दियेगये थे । गुहाके भीतर वाक् के जो ३ पद थे, उनको उसीप्रकार वैखरीवाक् (उच्चरित और लिखित) में व्यक्तकिया । अव्यक्त वाणीको व्यक्तरूपमें यथा-तथ्य उपसर्ग-प्रत्यय, कारक, विराम चिह्नों (पाप-विद्ध) आदि द्वारा वाक्यमें प्रकटकरनेसे वह शाश्वत होती है –
स पर्यगात् शुक्रं अकायं अव्रणं अस्नाविरं शुद्धं अपापविद्धम् ।
कविः मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथा-तथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥ (ईशावास्योपनिषद्) ॥
शम्भुशिक्षा में कहा गया है “मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् । मारुतस्तूरसि चरन्मन्द्रं जनयति स्वरम्”। मन शरीर के उष्मा को मूलाधार से प्रेरित करता है। वह उष्मा वायु को प्रेरित करता है । वह वायु नाभि, हृत्, होते हुये कण्ठ के स्वरतन्त्रियों को आन्दोलित करते हुए जब मुख से निर्गत होता है, उसे स्वर कहते हैं । अ से वर्णमाला का आरम्भ है और क्ष से शेष है । मध्य का वर्ण अ का गतिशीलता के कारण आगन्तु है । यही गतिशीलता को र द्वारा द्योतित किया जाता है । इसलिये वर्णप्रपञ्च के अङ्ग को अक्षर कहते हैं । अ ही उपक्रम है । अ ही उपसंहार है । अ ही हिंकार है । अ ही निधन है । इसलिये “वागित्येकमक्षरम्” कहा गया है । पाणिनि का अन्तिमसूत्र “अ-अ” इसी विद्या का प्रतिपादन करता है ।
मन में से कामना का उदय होता है । कामना के अव्यवहितोत्तरकाल में प्राणव्यापार आरम्भ हो जाता है । उससे शान्त-स्थिर वाक् समुद्र में गति सृष्टि होती है (so-called big bang)। प्राणसम्बन्ध के तारतम्य से वाक् समुद्र में वीची तरङ्ग (wave) सृष्टि होता है, जिसे कम्प (vibration) कहते हैं । जब वह हमारे श्रवणेन्द्रिय में नोदन सम्बन्ध से युक्त होता है, तब वह हमारे प्रज्ञारूप इन्द्र से बद्ध हो जाता है । बद्ध-तरङ्गों में परिणत वाक् खण्ड ही क-च-ट-त-प, आदि वर्णों का जननी वनती है । उसीसे शब्दसृष्टि होता है । इसलिये वाक् को इन्द्रपत्नी कहते हैं (वाचं देवा उपजीवन्ति विश्वे, वाचं गन्धर्वाः, पशवो मनुष्याः । वाचीमां विश्वा भुवनान्यर्पिता सा नो हवं जुषतामिन्द्रपत्नी – तैत्तिरीयब्राह्मणम् २-८-८-४)।
नामार्थकल्पसूत्रके अनुसार शब्दः के श बिन्दू का वोधक है, व वायु का वोधक है, द अग्नि का वोधक है और विसर्ग अम्वर (आकाश) का वोधक होने से उनको साङ्केतिक (equation) कहते हैं (बिन्दूवातग्न्यम्वराणां तस्मात् साङ्केतिकाः स्मृताः । तत्र शकार बिन्दूः, बकार वायुः, दकार अग्निः, विसर्गाश्चाकाशः । श+ब+द+ः = शब्दः) । बिन्दु (अणु) तथा अम्बर (परममहत्) सर्वत्र एक ही है । वह असङ्ग है । विभाग के कारण शब्द तथा उत्तरविभाग होते हैँ (शब्दोत्तरविभागौ विभागजौ – प्रशस्तपाद भाष्य – mechanical waves whose oscillations are parallel to the direction of the energy transport through compression and rarefaction) । वायु का प्रभ्राजमाना, व्यवदाताः, वासुकिवैद्युता, रजताः, परुषाः, श्यामाः, कपिला, अतिलोहिताः, ऊर्द्ध्वा, अवपतन्ताः, वैद्युत – यह एकादश विभाग है । अग्निका अग्निः, जातवेदाः, सहोजा, अजिराप्रभुः, वैश्वानरो, नर्यापाः, पङ्क्तिराधाः, विसर्पि – यह अष्ट विभाग है । वायु तथा अग्नि मिलकर १९ विभाग है । इनमें से प्रत्येक का १६ कला है । सब मिलकर (१९ x १६) = ३०४ विभाग होता है । इसीलिए एक ही शब्दतत्त्व शक्तिसम्मिलित हो कर ३०४ प्रकार में विवर्त्तित होता हैँ । जैसे विद्युतचुम्बकीय रश्मि तरङ्ग अनेक प्रकार के होने पर भी, उनके एक छोटे से अंश से सातरङ्ग दिखते हैँ (बाकी के नहीँ दिखते), उसीप्रकार ३०४ प्रकार के शब्दों में से केवल १२ प्रकार के शब्द मनुष्यके श्रवणयोग्य है (बाकी के मनुष्यके श्रवणयोग्य नहीँ है) । इनको स्फोट, रब, अत्यन्तसूक्ष्म, मन्द्र, अतिमन्द्रक, अतितीब्र, तीब्रतर, मध्य, अतिमध्यम, महारब, घनरब, महाघनरब कहा जाता है । स्फोट वह है, जिससे शब्दका आभासमात्र होता है । महाघनरब सुनते ही कान के पर्दे फटजाते हैँ और मृत्यु हो जाता है ।
प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण मूलाधारादि सात चक्रों में से एक या अधिक चक्रों को प्रभावित करते है । जैसे –
- मूलाधार चक्र अकार स्वर एवं क वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
- स्वाधिष्ठान चक्र इ तथा च वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
- मणिपूरक चक्र ऋ तथा ट वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
- अनाहत चक्र लृ तथा त वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
- विशुद्धि चक्र उ तथा प वर्ग व्यञ्जन का उच्चारण को क्रियाशील करता है ।
- ईषत् स्पृष्ट वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को क्रियाशील करता है ।
- ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को क्रियाशील करता है ।
विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है । अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है । जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं वे केवल विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं । उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भवरे की तरह गुञ्जन करना होता है । अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है । अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा, उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा ।
प्रतिशब्द के अध्ययन को शब्द-पारायण कहते थे। पूरे जीवन पढ़ने पर भी से समझना सम्भव नहीं था, अतः शुक्र (उशना) ने इसे मारणान्तक व्याधि कहा।
बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यवर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दपारायणं प्रोवाच।
(पतञ्जलि-व्याकरण महाभाष्य १/१/१)
तथा च बृहस्पतः-प्रतिपदं अशक्यत्वात् लक्षणस्यापि अव्यवस्थितत्वात् तत्रापि स्खलित दर्शनात् अनवस्था प्रसंगाच्च मरणान्तो व्याधिः व्याकरणमिति औशनसा इति। (न्याय मञ्जरी)।
इसमें सुधार केलिये इन्द्रने ध्वनि-विज्ञानके आचार्य मरुत् की सहायतसे शब्दोंको अक्षरों और वर्णोंमें बांटा तथा वर्णोको उच्चारण स्थानके आधारपर वर्गीकृत किया (व्याकरोत्)।
वाक् वै पराची अव्याकृता अवदत्।
ते देवा इन्द्रं अब्रुवन्। इमां नो वाचं व्याकुरुत-इति। … तां इन्द्रो मध्यत अपक्रम्य व्याकरोत्। तस्मादिदं व्याकृता वाग् उद्यते इति। (तैत्तिरीय संहिता ६/४/७)। सायण भाष्य – तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृति-प्रत्यय विभागं सर्वत्राकरोत्।
स (इन्द्रो) वाचैव व्यवर्तयद् (मैत्रायणी संहिता ४/५/८)।
इसमें क से ह तक ३३ व्यञ्जन सौरमण्डल के ३३ भागों के प्राण रूप ३३ देवों के चिह्न हैं। १६ स्वर मिलाने पर ४९ वर्ण ४९ मरुतों के चिह्न हैं जो पूरी आकाशगंगा के क्षेत्र हैं। चिह्न रूप में देवों का नगर होने के कारण इसे देवनागरी कहा गया।
व्यक्त, व्युत्पन्न एवं सार्थक शब्द ही संस्कृतभाषाको अन्यतरीभाषासे विशेष वनाता है। शब्द तथा अर्थका सम्पूर्ण समन्वय ही वागार्थ है। कोश तथा व्याकरणके द्वारा उस शब्दभण्डारकी सृष्टि तथा चयन एवं समीचिन प्रयोग का यत्किञ्चित शक्ति आती है।
शब्दोऽपि वाचकस्तावत् लक्षको व्यञ्जकस्तथा। वाच्य, लक्ष तथा व्यङ्ग्य भेदसे शब्द त्रिविध है। व्युत्पत्तिके आधार पर कुछलोग पद का रुढ, यौगिक, योगरुढ तथा यौगिकरुढ – यह चार भेद किया जाता है। परन्तु नागेश रुढ, यौगिक, योगरुढको ही मानते हैं (मञ्जूषा)। पण्डित जगन्नाथ केवलसमुदायशक्ति, केवलअवयवशक्ति, समुदायअवयवशक्ति संकर – यह मानते हैं। ॠ ॡ क् सूत्रके भाष्यमें पतञ्जलिने जाति, गुण, क्रिया, यदृच्छा रूपमें चारप्रकार शब्दप्रवृत्तिके विषयमें कहा है।
संस्कृतसे लेकर समस्त साधारण अथवा लौकिक (लोकेविदिता लौकिकाः) भाषा का शुद्धता उसके व्याकरणसे निर्णय किया जाता है, जैसेकि पतञ्जलि के “व्याकरण महाभाष्य” के आरम्भमें लिखागया है । परन्तु इसके विपरीत वैदिकव्याकरण का शुद्धता उसके वेदसम्मत होनेसे सिद्धहोता है (वेदेविदिता वैदिकाः)। अतः वैदिकव्याकरण लौकिकव्याकरणसे भिन्न होता है, जैसेकि पतञ्जलिने कहा है । उसी वैदिकभाषा को पाणिनीने छन्दस् कहा है (उदाहरण – छन्दसो यदणौ – अष्टाध्यायी ४-३-७१)। कहींकहीं उसकेलिये दिव्या अथवा भारती शब्द का व्यवहार होता है । भागवत १-४-१३ में भी कहागया है कि मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् ।
रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम् । ( महाभाष्य नवा०१ )
व्याकरण के ५ उद्देश्य है ।
- सर्वप्रथम उद्देश्य १. वेदों की रक्षा है ।
- २. ऊह (तर्क) – यथा स्थान, विभक्ति-परिवर्तन, वाच्य परिवर्तन आदि ।
- ३. आगम स्तुता मया वरदा वेदमाता० आदि वैदिक आदेशों की पूर्ति ।
- ४. लघु-संक्षिप्त ढंग से शब्द-ज्ञान ।
- ५. असन्देह-सन्देह का निवारण, ये सभी मुख्यरूप से वैदिक साहित्य के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं ।
चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा, द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति, महो देवो मर्त्या आविवेश ॥ (ऋग्० ४/५८/३) ॥
चत्वारि श्रृंगा – नाम‚ आख्यात‚ उपसर्ग‚ निपात ।
त्रयः पादाः – भूतकाल‚ वर्तमानकाल‚ भविष्यकाल ।
द्वे शीर्षे – सुप् (सु‚ औ‚ जस् आदि)‚ तिड्。(तिप्‚ तस्‚ झि आदि) ।
सप्तहस्ताः – प्रथमा‚ दि्वतीया‚ तृतीया‚ चतुर्थी‚ पंचमी‚ षष्ठी‚ सप्तमी ।
त्रिधा बद्धः – उरस्‚ कण्ठः‚ शिरस् ।
पतञ्जलि ने इस वृषभ को संस्कृत भाषा के रूप में देखा जिसके चार सींग चार प्रकार के पद – नाम (संज्ञा), आख्यात (क्रिया), उपसर्ग व निपात जैसे उसकी रक्षा करते हैं । उसके तीन पाद भूत, भविष्यत् व वर्तमान में उसको स्थित करते हैं । दो सिर उसकी जैसे दो आत्माएं हैं – नित्य और कार्य शब्द । उसके सात हाथ सात विभक्तियां हैं जो उसे अर्थ ग्रहण करना रही हैं (विभक्तियां केवल नामपदों के लिए कही गई हैं, परन्तु उपलक्षण से क्रियापदों के लकार और उपसर्ग व निपात के अव्ययीभाव का भी यहां ग्रहण कर लेना चाहिए) । तीन प्रकार से जो वह बद्ध कहा गया है, वे शब्दोच्चारण के स्थान हैं – छाती, कण्ठ व सिर । मनुष्य के शरीर में इन स्थानों से ही शब्द का उच्चारण होता है, जैसे वह इन स्थानों से बन्धा हो । वृषभ इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह (ज्ञान, और उससे सुख की) वर्षा करता है । चिल्लाना इसलिए क्योंकि शब्द ध्वन्यात्मक है । यह महान प्रकाशक देव मरणधर्मा मनुष्यों में प्रवेश करता है । जिससे हमारा इस महान् देव से साम्य हो, इसलिए व्याकरण पढ़ना चाहिए ।
भाषा का संस्कार करने के लिए प्राचीनकाल में एक सत्र का आयोजन किया गया था । उसमें इच्छा, ज्ञान, क्रिया – यह तीन भावों का साङ्केतिक अ, इ, उ मानलिया गया । परन्तु ऋ के उपर विवाद आ गया। ऋ के गठन में एक चौथाइ मात्रा अ का, मध्य में अर्धमात्रा र का, शेष एक चौथाइ मात्रा अ का है । उसी प्रकार लृ का गठन है। क्योंकि आरम्भ में और अन्त में स्वरवर्ण है, सब का कथन था कि ऋ ओर लृ स्वर वर्ण है। परन्तु अगस्ति का कथन था कि स्वर और व्यञ्जन समपरिमाण होने पर भी, स्वर का विभाजन के कारण व्यञ्जन का गुरुत्व अधिक है । पुनश्च र और ल अन्तस्थ व्यञ्जन है । इच्छा और उन्मेष शक्ति के मध्यस्थ होने से उन्हे अन्तस्थ कहा जाता है । ऋ और लृ में यही लक्षण दिखा जाता है । अतः इन्हे र्ह और ळ के रूप में व्यञ्जन वर्णों में रखना चाहिये। अन्य ऋषियों का मत था कि स्वर ही भाषाविभाग का बीज है । इच्छा और उन्मेष शक्ति केवल परा और पश्यन्ती वाक् के क्षेत्र में ही प्रकाशित और अनुभूत होते हैं । वैखरी वाणीमें जो मनुष्य कहते हैं, यह अनुभूत नहीं होता । अतः ऋ और लृ स्वर ही होंगे ।
इसके उपरान्त अनुस्वार के उपर विचार किया गया। अगस्ति को छोडकर अन्य ऋषियों का कथन था कि अनुस्वार के पूर्व यदि ह्रस्ववर्ण रहता है, तो ह्रस्ववर्ण अर्द्धमात्रा काल के लिये उच्चारित होता है और अनुस्वार देढमात्राकाल उच्चारित होता है। परन्तु अनुस्वार के पूर्व यदि दीर्घवर्ण रहता है, तो दीर्घवर्ण देढमात्रा काल के लिये उच्चारित होता है और अनुस्वार अर्द्धमात्राकाल के लिये उच्चारित होता है। क्युँ कि इसका उच्चारणकाल कहीं कहीं अर्द्धमात्रा है, जो व्यञ्जन का लक्षण है, कहीं कहीं यह देढमात्रा है, जो स्वर का लक्षण है। इसी द्वेधीभाव के कारण अगस्ति का कथन था कि अनुनासिक यमवर्ण जैसा है जो स्पर्शवर्णों के द्वैत उच्चारण के विच्छेद के लिये व्यवहृत होते हैं । उदाहरण के लिये रुक्क्मः में जो दो ककार है, उनके विच्छेदके लिये क यम का अनुनासिक व्यवहार कियाजाता है, जो व्यञ्जन है । उसीप्रकार अनुस्वार को एक अतिरिक्त न के आकार में व्यञ्जनवर्ग में रखना चाहिये । परन्तु अन्यऋषियों ने इसका विरोधकिया । उनका कहना था कि यम जीह्वामूलीय है । अतः उन्होने अनुस्वार को प्रथमवर्ग अर्थात स्वरवर्ण में रखने का निर्णय लिया ।
स्पर्शवर्णों में स्पृष्टताभित्तिक क-च-ट-त-प और अनुनासिक ङ्, ञ्, ण्, न्, म् के वर्गीकरण में सर्वसम्मति रहा । परन्तु इनका ख,छ,ठ,थ,फ आदि रूप में पुनः वर्गीकरण के सम्बन्ध में मतभेद रहा । जब हृदयस्थान हो कर वायु कण्ठ से बाहर की दिशामें जाती है, तो यदि स्वरतन्त्रियाँ अपने स्वाभाविक स्थिति (संवृत्) में होती है, उसे श्वास कहते हैं । परन्तु यदि स्वरतन्त्रियाँ विकृत (विवृत्) स्थिति में होती है, तो उसे नाद कहते हैं । इसमें सबसे सरल अविकृत शब्द जो कण्ठसे सीधा निकल कर बाहर आती है, वह अ है । इसीलिये कहा गया है कि ‘अकारो वै सर्वा वाक् सा एषा स्पर्शअन्तःस्थ-ऊष्मभिः व्यज्यमाना बह्वी नानारूपा भवति’ (ऐतरेय आरण्यकम् २/३/७/१३) । गीता में भी कहागया है अक्षराणामकारोऽस्मि । पाणिनी माहेश्वरसूत्र अइउण् से आरम्भ कर अन्तिमसूत्र अअ में परिसमाप्त किया है जहाँ विवृत अकार का पुनराय संवृतगुण का प्राप्तिविधान कियागया । पतञ्जलि भी कहते हें अकारस्य विवृतोपदेशः कर्तव्यः।
यदि अकार उच्चारण करने के समय उसे गले में रोक दिया जाय और फिर सीधे छोड दिया जाय, तो वह ककार वन जाता है । परन्तु शक्तिभेद से यदि वह ककार सीधी ओष्ठ से न निकल कर तीरछी हो जाय और तालु, मूर्द्धा अथवा दन्तमूल को स्पर्श करते हुये निकले, तो वह यथाक्रम ख, ग, और घ वन जाता है । अतः यह चार भेद होना चाहिये । अगस्ति का कहना था कि शक्तिभेद से शब्द का उच्चावचता बढ जाती है, परन्तु अर्थभेद नहीं होता । ककार धीरे से उच्चारण करो अथवा जोर से, ककार ककार ही रहता है । अतः ख, ग, घ का वर्गीकरण अनावश्यक है ।
अन्यों का कहना था कि वाह्यप्रयत्न ११ प्रकार के होते हैं – विवार, संवार, श्वास, नाद, घोष. अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित। खर् प्रत्याहार वाले वर्णों (ख, फ, छ, ठ, थ, च, ट, त, क, प, श,ष,स) के वर्ग के वाह्यप्रयत्न विवार, श्वास और अघोष है । इसमें कण्ठ खुला रहता है । हश् प्रत्याहार वाले वर्णों (ह, य, व, र, ल, ञ, म, ङ, ण, न, झ, भ, घ, ढ, ध, ज, ब, ग, ड, द) के वर्ग के वाह्यप्रयत्न संवार, नाद और घोष है। इसमें कण्ठ मुँदा रहता है । वर्गों के प्रथम, तृतीय और पञ्चम वर्णों तथा य, व, र, ल का वाह्यप्रयत्न अल्पप्राण है । वर्गों के द्वितीय और चतुर्थ वर्णों तथा श, ष, स, ह का वाह्यप्रयत्न महाप्राण है । अतः ख, ग, घ का वर्गीकरण आवश्यक है ।
अगस्ति का कहना था कि शक्तिभेद उष्मवर्णों के लिये व्यवहार किया जाता है, जहाँ क्रिया और उन्मेषशक्ति का प्राधान्य रहता है । परन्तु स्पर्शवर्णों में ज्ञान और उन्मेषशक्ति का प्राधान्य रहता है । अतः ख, ग, घ का वर्गीकरण अनावश्यक है । अन्यों का कहना था कि पदों के स्वर बीज और व्यञ्जन योनि है । बीज केवल समजातीय पदार्थों का उत्पादन कर सकता है । परन्तु योनि विषमजातीय पदार्थों का उत्पादन भी कर सकती है ।
अगस्ति का कहना था कि उष्मवर्णों में श, ष. स का भेद अनावश्यक है कारण उसमें शक्ति का अपचय होता है । अन्यों का कहना था कि पद के प्रयोजनों में शक्तिग्रह से व्यञ्जकत्व अधिक महत्वपूर्ण है । शक्तिग्रह सन्धि से भी होता है, जहाँ दो पदों के अन्तिम और प्रथम वर्णों का योग होता है (परः सन्निकर्षः संहिता – अष्टाध्यायी १-४-१०९)। वहाँ उच्चारण स्थान पर विशेष ध्यान दिया जाता है । उदाहरण स्वरूप तत् शब्द का अन्तिमवर्ण त् है और पुरुष का प्रथमवर्ण पु है । त और प के उच्चारण स्थान दन्तमूल और ओष्ठ है । अतः उनका सन्धि होनेसे तत्पुरुष उच्चारण करने में असुविधा नहीं है । परन्तु यदि दोनों के उच्चारण स्थान भिन्न हो, तो सन्धि इतना सरल नहीं होता । उदाहरण स्वरूप, तत् और हित का सन्धि करनेके लिये ह (जो कि उष्मवर्णों के चतुर्थअक्षर है) का उच्चारणस्थान कण्ठ है । उच्चारण के सरलताके लिये त अपनास्थान त्यागकर अपनेवर्ग के चतुर्थस्थान ध में परिवर्तित होजाता है । तब तद्धित उच्चारण करनेमें सुगमता होती है । यदि स्पर्शवर्णोंका विभाग नहीं रहेगा, तो उच्चारणमें विषमता होगी ।
स्पर्शवर्णों का उच्चारण के प्रसङ्ग में एक और मतभेद आया । व्यञ्जन वर्णों के उच्चारण का काल अर्द्धमात्रा है । स्वरवर्ण के उच्चारण का काल अधिक हो सकता है । यदि हम क का उच्चारण करते रहें, अल्प समय के पश्चात् वह अ हो जायेगा । अतः अगस्ति को छोडकर अन्य ऋषियों का मत था कि यदि स्पर्शवर्ण के पश्चात् अन्य स्वरवर्ण नहीं रहता, तो वहाँ अ रहेगा – अर्थात् क् नहीं उसका उच्चारण क होगा । अगस्ति का मत था कि व्यञ्जन वर्णों के पश्चात् स्वरवर्ण का रहना गौण है । समस्त व्यञ्जनवर्ण स्थान और प्रयत्न भेद से अकार का विवृतोपदेश है । अतः अकार का प्रधान्य स्वीकार करना चाहिये । परन्तु अक्षरसमाम्नाय में, अनुवृत्तिनिर्देश में तथा धातु आदि में विद्यमान अकार एक । परन्तु व्यञ्जनवर्ण में यह व्यावृत् रह नहीं सकता, कारण अन्य समस्त वर्ण व्यावृत् है । स्वरवर्ण बीज है । व्यञ्जनवर्ण योनि है । बिना बीज के शब्द उत्पन्न नहीं हो सकता । परन्तु संवृत् होने से यहाँ अकार का व्यवहार नहीं हो सकता । पुनश्च अकार इच्छाशक्ति का साङ्केतिक है । व्यञ्जनवर्ण भावव्यञ्जक होने से ज्ञानशक्ति का साङ्केतिक है । अतः ककारादि का उच्चारण इक्, इच्, आदि होना चाहिये । अन्य ऋषियों ने इसको भी प्रत्याख्यान किया । ऍसे ही कुछ विवाद के चलते तमिल भाषा की सृष्टि हुई ।
प्राचीन भारतमें कोश की परम्परा निघण्टु तथा निरुक्त से आई।
वृषो हि भगवान् धर्मो ख्यातो लोकेषु भारतः।
निघण्टुकपदाख्याने विद्धि मां वृषमुत्तमम्॥८६॥
कपिर्वराहः श्रेष्ठश्च धर्मश्च वृष उच्यते।
तस्मात् वृषाकपिं प्राह कश्यपो मां प्रजापतिः॥८७॥ महाभारत मोक्षपर्व ३४२ अध्याय॥
कहा जाता है कि – सर्वे सर्वार्थवाचकाः – सभी शब्द सभी अर्थका वाचक है। यह तभी सम्भव होगा, यदि हमें किसी पदका समस्त अर्थका ज्ञान होगा। तब हम किस परिप्रेक्षमें किसपदका कौनसा अर्थ उपयुक्त होगा – यह निर्णय करसकते हैं। परन्तु जहाँ बृहस्पतिजैसे गुरुसे इन्द्रजैसे शिष्य हजारोंवर्ष पर्यन्त शब्दपारायण करतेहुये भी अनन्तशब्दसागर का सीमा न जान सके, हमारे जैसे तुच्छ केलिये यह कैसे सम्भव होगा? अतः कश्यपने वेदके कठिन शब्दोंका संग्रह कर निघण्टु नामक ग्रन्थका रचना किया। फिर उन शब्दोंका निर्वचन करने केलिए निरुक्त नामका अन्य ग्रन्थका रचना किया। वेदके व्याख्यानमें विशेष उपयोगिताके कारण इनका समष्टिको निरुक्त नामक वेदाङ्ग कहाजाता है। यह निरुक्त कालक्रमे दुर्वोध्य होनेसे यास्कने उसका व्याख्या कर अपना निघण्टु और निरुक्त लिखा, जो आजकल प्रचलनमें है। महाभारत मोक्षपर्व ३४२ अध्यायमें इसका विवरण है।
निघण्टु और निरुक्तके पश्चात् उसका सरलीकरण कोशों द्वारा कियागया। कृश्यते संश्लिषते (कुशँ सं॒श्लेष॑णे, श्लेष॑णे इत्येके॑) अर्थमें जो वागार्थका आन्तरिक संयोग करे (श्लि॒षँ आ॒लिङ्ग॑ने) – निहितार्थका वितान – विस्तार करे, उसे कोश कहते हैं। विभिन्नग्रन्थोंमें ३९ कोशकारोंके नाम मिलते हैं। सर्वप्रथम कौनसा कोश लिखागया – यह कहना सम्भव नहीं है। सम्भवतः इनमेंसे अधिक एकदेशीय (किसी विशेष दृष्टिकोणसे लिखागया) कोश हो सकते हैं।
एकदेशीय परम्परा कुछ नया नहीं है। आयुर्वेदके क्षेत्रमें भी ऐसे ही हुआ। इन्द्रकृत आयुर्वेदका अग्निवेशतन्त्र चरकसंहितामें संकलित हुआ। धन्वन्तरीतन्त्र सुश्रुतसंहितामें तथा अत्रितन्त्र हारितसंहितामें संकलित हुआ। कोश के क्षेत्रमें भी ऐसा ही हुआ। कुछ कोशमें केवल नानार्थक अथवा नामार्थक शब्दोंका संग्रह पायाजाता है तो कुछमें साधारण शब्दोंका संग्रह पायाजाता है। साधारण शब्दोंका संग्रहकोशमें लिङ्ग का विवरण नहीं मिलता। कुछ कोश साधारण-असाधारण शब्दोंका भण्डार प्रस्तुत कर उसे दुरूह-दुर्बोध्य करदिया। तब अमरसिंहने अन्य कोशों का दोषविवर्जित प्रसिद्धतम, नानार्थक, लिङ्गनिर्देशयुक्त, आबालवृद्धोंके लिये सुवोध्य छन्दोमय अमरकोशका निर्माण किया। अमरसिंहने लेखा है कि यह नाम और लिङ्गको दर्शानेवाली (वररुचि आदिके) तन्त्रों (कोशों) को एकत्रित कर विस्तार अल्प होनेपर भी प्रत्येक पदकी प्रकृति और प्रत्ययों को विचारपूर्वक संस्कार कर बनाये हुये वर्गों (प्रकरणों) से सम्पूर्ण नाम (जैसे स्वः, स्वर्गः, नाकः आदि) तथा लिङ्ग (पुं, स्त्री, नपुंसक) को दर्शानेवाली नामलिङ्गानुशासन नामक ग्रन्थ है। तभी से प्रमुख अष्टकोशकारोंमें उनका नाम गणना किया जाता है –
इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः।
पाणिन्यमरजैनेन्द्रा भवन्त्यष्टौ हि शाब्दिकाः॥
कल्पमें अनुष्ठान तथा देवपूजा प्रकरण आते हैँ । पर्शुरामकल्पसूत्रम् प्रसिद्ध है ।
इन्द्रने एक अखण्डा वाक् को प्रकृति प्रत्यय भेद से व्याकृ (हिंसित, खण्डित) किया था । तभी से इस प्रक्रिया को व्याकरण कहते हैँ । कहागया है –
समुद्रवत् व्याकरणं महेश्वरे तदर्द्धकुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ ।
तद्भागभागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्रविन्दुत् पतितं हि पाणिनौ ॥
यदि शिवजी के व्याकरण का ज्ञान को एक समुद्र के साथ तुलना किया जाय, तो बृहस्पति का ज्ञान अर्धकुम्भ मात्र होगा । इन्द्र का ज्ञान उसका शतभाग से एकभाग होगा । और पाणिनी के व्याकरण का ज्ञान कुशाग्रमात्र होगा । शिक्षाग्रन्थों तथा प्रातिशाख्य प्रत्येक पद का निर्वचन करते हैं । परन्तु पाणिनी ने ऐसा नहीं किया । विषयवस्तु का क्रम भी दोनों मे भिन्न है। यास्क के निरुक्त और निघण्टु, शान्तनव के फिट् सूत्र, व्याडि के जटापटल, वररूची के धातुपाठ – इन सबका व्यवस्थान अष्टाध्यायी से भिन्न है। उपसर्गके व्यवहार वेद और अष्टाध्यायीमें भिन्न है। वेदमें यह अलग रहते हैं, परन्तु अष्टाध्यायीमें यह क्रियापदसे युक्त रहते हैं। वेदमें ळ (जैसे अग्निमीळे) व्यवहार होता है। परन्तु अष्टाध्यायीमें नहीं। वेदमें पुंलिङ्ग अकारान्त शव्द – जैसे देवः – का कतृकारक रूप देवासः हो सकता है । परन्तु अष्टाध्यायीमें यह केवल देवाः होगा। उसी प्रकार वेद में करण कारक वहुवचन में देवेभिः होता है, जब कि अष्टाध्यायीमें यह देवैः होता है। ऐसे और भी वहुतसारे उदाहरण है जो दिखाता है कि वैदिक और संस्कृत भाषायें भिन्न है ।
व्याकरण आठ प्रकार का है – ब्राह्म, ऐन्द्र,याम्य,रौद्र,वायव्य,वारुण,सावित्र तथा वैष्णव । कौमार व्याकरण स्वल्प समयमें कथित संस्कृत शिखने के लिए है । पाणिनीकृत अष्टाध्यायी तथा दक्षिणका तोल्काप्पियम् (जो तमिल का पूर्ववर्ती है । इसके तीन भाग हैं – एझुत्ताधिकारम्, सोल्लाधिकाराम् और पोरुलाधिकारम् । प्रत्येक भाग में नौ-नौ अध्याय हैं) ऐन्द्र व्याकरण के आश्रित है ।
निरुक्त (thesaurus) और निघण्टु (synonym) में व्युत्पत्ति (etymology) का विवेचन है । नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात इन्हीं चार पदों का संग्रह निघण्टु ग्रन्थ में है । व्युत्पत्ति का अर्थ है विशेष उत्पत्ति । इसमें शब्द के स्वरूप और उसके अर्थ के आधार का अध्ययन किया जाता है ।
प्राणमात्रा को छन्द कहते हैँ । किसी मूर्ती की स्वरूपरक्षा के लिए जो विशेष प्राणमात्रा से आच्छादन करना पडता है, वह उसका छन्द होता है । वेद में सात प्रकारके मूल छन्द व्यवहार होता है, जिसका अनेक अवान्तर विभाग है । गायत्री, उष्णीक् अनुष्टुप्, पङ्क्ति, वृहती, त्रिष्टुप्, जगती सात वैदिकछन्द है । इनमें गायत्रीछन्द पृथ्वीलोक सम्बन्धी, त्रिष्टुप् छन्द अन्तरीक्षलोक सम्बन्धी, जगतीछन्द द्यौलोक सम्बन्धी तथा अनुष्टुप् छन्द सर्वलोक सम्बन्धी है । इससे भिन्न माछन्द, प्रमाछन्द, प्रतिमाछन्द, अस्रीवयछन्द आदि भी है । साहित्य के छन्द इससे भिन्न है ।