सृष्टिरहस्य।
– श्रीमद्वासुदेव मिश्रशर्म्मा
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥ मुण्डकोपनिषत् १.१.३ ॥
कुछ शिष्यों ने शौनक महर्षि से प्रश्न किया – वह कौन सी ज्ञान है, (Grand Unified Theory or Theory of Everything) जिसको जानने से सब कुछ जाना जा सकेगा । ऋषि ने उत्तर दिया – द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥ मुण्डकोपनिषत् – १.१.४ ॥ जानने योग्य विषय दो है । जानने के लिए प्रमाता (Observer), प्रमेय (Observable), प्रमाण (measurement), प्रमिति (perception of the result of measurement by the Observer) – यह चार अपेक्षित है । ईन चारों का एकत्र सहावस्थान को प्रत्यक्ष (perception) कहते हैँ । इनमें से प्रथम तीन तो दृश्य विषय है, जिसे गुरुमुख से सुन कर जाना जा सकता है (शब्दब्रह्म) । परन्तु चतुर्थ प्रमिति, शब्द का विषय नहीँ है (परम्ब्रह्म) । उसे केवल आत्मविवेचन कर सदा उसका अनुसरण करते रहने से अपने समयपर वह अपने आप को उन्मुक्त कर देती है । (नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ मुण्डकोपनिषत् – ३.२.३ ॥ – जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासा॑ – ऋग्वेदः १०.९१ .१३, उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम् । उतो त्वस्मै तन्वं वि सस्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासा॑ ॥ ऋग्वेदः १०.७१.४) । उसी अविनाशी तत्त्व को अक्षर कहते हैँ (The primordial field and energy theory)।
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति ।
यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि तथाऽक्षरात् संभवतीह विश्वम् ॥ मुण्डकोपनिषत् – १.१.७ ॥
जैसे १) मकडी अपने से जाल का निर्माण करता है (प्रभव आलम्बनत्व), जाल मकडी से अलग अस्तित्व रखता है (प्रभव अनालम्बनत्व-प्रभवपृथक्चरत्व), फिर मकडी उसको उसकोन ददर्श व निगल जाता है (प्रभव विलयनत्व), अथवा
२) पृथिवी से वनष्पति उत्पन्न हो कर (प्रभव आलम्बनत्व), उसीपर अलग से रहते हैँ (प्रभवपृथक्चरत्व), फिर अन्त में उसीमें मिल जाते हैँ (प्रभव विलयनत्व), अथवा
३) पुरुषों में केश और लोम उत्पन्न हो कर (प्रभव आलम्बनत्व-अनालम्बनत्व), उसीमें अलग से रहते हैँ (प्रभवपृथक्चरत्व), फिर अन्त में उसीमें मिल जाते हैँ (प्रभव विलयनत्व),
उसीप्रकार मूल शक्ति सदा रहनेवाला अक्षर (energy of the primordial field) से विश्व का निर्माण तथा विनाश होता है ।