ॐ “कार”है। “कृ॒ञ् कर॑णे” अथवा “कृ॒ञ् हिं॒साया॑म्” धातु से “भावे घञ्”प्रत्यय से उत्पन्न “कारः”शब्द वधः अथवा निश्चयात्मक है। इसीलिये प्रत्येक अक्षरको, जो स्वयं को निश्चितरूपसे अन्य अक्षरों से भिन्न कर के (अपमर्दन कर के) दिखाता है, उसे “कार”कहते हैं – जैसे अकार, ककार, यकार आदि। “शिक्षा”नामक वेदाङ्ग ग्रन्थों में इसके विषय में विशेष चर्चा किया गया है। ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, सन्ध्यक्षर (जैसे अ और इ मिलकर एकार होता है) भी एक अक्षर माना जाता है। क्यों कि “कार” एक ही अक्षर होता है, अतः ॐकार अ, उ, म एवं अर्धमात्रायुक्त होते हुये भी एक अक्षर है। इसीलिये गीता 8-13 में कहागया है कि “ओँमित्येकाक्षरं ब्रह्म”।
ॐ कार का “प्रणव” और “उद्गीथ” दो भाग है। प्रणव का एक अर्थ “प्रकर्षेण नूयते स्तूयते” (णू स्तुतौ॑) है। “स्तुतिस्तु नाम्ना रूपेण कर्मणा बान्धवेन च” अर्थमें स्वरूप और स्वगुण वर्णन है। यह पार्थिव पदार्थों का लक्षण है। प्र और नव मिलकर पुराने सृष्टि का नवीन रूपसे विवर्त्त विज्ञान को प्रणव कहते हैं। मुण्डकोपनिषद 2-2-4में “प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्” – में प्रणव शब्द इसी अर्थ में व्यवहार किया गया है। यह अधिभूत सम्बन्धी है (material evolution)। साधारण व्यक्तियों के लिये यह प्रणम्यते अर्थमें प्र उपसर्गपूर्वक णम् (ण॒मँ प्रह्व॒त्वे शब्दे॑ च) धातु से कर्मणि घञ् प्रत्यय हो कर प्रणव शब्द निष्पन्न होता है, जिससे स्तुति किया जाता है। यह अर्थ गौण है।
उद्गीथशब्द उत् उपसर्ग पूर्वक गै॒ शब्दे॑ धातु में थक् प्रत्ययसे निष्पन्न हुआ है, जो सामवितान सम्बन्धी है। साम तेजविज्ञान है (सर्वं तेजः सामरूप्यं ह शश्वत्। तैत्तीरियब्राह्मणम् – 3-12-9-3)। यह ऋक् (पिण्ड अथवा मूर्त्ती) का वितान (विस्तारित) होनेसे द्यौःलोक सम्बन्धी है। शतपथब्राह्मणम् 4-6-7-2 में कहागया है कि द्युलोक की जय साम से की जाती है। बृहदारण्यकोपनिषत् 1-3-23 में कहागया है कि “एष उ वा उद्गीथः। प्राणो वा उत्प्राणेन हीदगं सर्वमुत्तब्धम् वागेव गीथोच्च गीथा चेति स उद्गीथः॥“ अर्थात् प्राण ही उत् है। प्राण के द्वारा यह सव उत्तब्ध (उपर की ओर ठहरा हुआ – धारण किया हुआ) है। वाक् ही गीथा (गै॒ शब्दे॑ – सामभक्तिविशेष – प्राणतन्त्रा शब्दविशेष) है। जो उत् है और गीथा भी है, वह उद्गीथ है। अतः यह अधिदैव सम्बन्धी है (energy evolution)।
“ओँमित्येव ध्यायथ आत्मानम्” – इस मुण्डकोपनिषद् 2-2-6 वाक्य में कहागया है, यदि परम्ब्रह्म को जानना हो, तो शब्दब्रह्मको जानना होगा। कारण शब्दब्रह्म, परम्ब्रह्म का साङ्केतिक है। शब्दप्रपञ्च का मूल आधार “ओँमित्येकाक्षरं ब्रह्म” है। “ओमित्येतदक्षरमिदगं सर्वम्” – इस माण्डुक्योपनिषद् वाक्य के अनुसार सव कुछ ॐ है। वहीँ पर कहागया है कि “भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव। यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव”। जो कुछ था, है और होगा तथा जो कुछ इस कालचक्र के वाहर है, सव कुछ ॐ कार ही है। परन्तु कैसे?
माण्डुक्योपनिषद् में आत्माको चतुष्पात् कहागया है, जिसे मुण्डकोपनिषद् में परा और अपरा भेदसे दो भागोंमें बाँटा है। अक्षर ही परा (परब्रह्म) है, जो सर्वालम्बन अव्यय तथा वैकारिक विश्व का मूलकारण क्षर के मध्यमें सेतु का काम कर विश्वनिर्माण करता है। आत्मा शब्द सापेक्ष है – किसका आत्मा? आत्माका परिभाषा है “यदुक्थं सत् यत् साम सत् यद् ब्रह्म स्यात् स तस्य आत्मा”। अर्थात् जो नहीं रहने से वस्तु नहीं रहेगा (मूलप्रतिष्ठा जिससे न रहने से वस्तु का उच्छेद हो जायेगा), जो वस्तु में सर्वत्र व्याप्त हो कर उसका स्वरूपरक्षा करता है तथा जो वस्तुमें सर्वत्र (आलोमेभ्यः आनखाग्रेभ्यः) एक जैसा समान रहता है, वह उस वस्तु का आत्मा कहलाता है। अव्यय ही अक्षर का आत्मा है। परन्तु सेतुरूप होने से अक्षरसे अव्यय और क्षर का भी ग्रहण होता है। अक्षर ही षोडशी (परात्पर, पञ्चकल अव्यय, पञ्चकल अक्षर तथा पञ्चकल क्षर) कहलाता है। यह सर्वथा अग्राह्य (अदृश्य) है। इसीलिये इसे गुढोत्मा कहते हैं। पञ्च प्राकृतात्मा (अव्यक्त-महान-बुद्धि-मन-शरीर) के अतिरिक्त चितेनिधेय पृथिवी (उख्यात्रिलोकी – उखँऽ गत्य॑र्थः – महिमामण्डल – orbitals) में कर्मात्मा भी है। चान्द्र प्रज्ञानमन का इसीमें अन्तर्भाव है। कर्मात्मा ही अहं है। यही प्राणात्मा भी है। इसीका वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ विभागत्रय है। अव्यक्त स्वयम्भूवेद तथा महान परमेष्ठी सुवेद का वस्तु है। दोनों का समष्टि शुक्र कहलाता है। यही शुक्र विश्वसृष्टि का मूल है।
“यद्वै किञ्च प्राणि स प्रजापतिः” (शतपथब्राह्मणम् 11-1-6-17) – इस वाक्य के अनुसार जो भी कुछ प्राणी कहलाता है, वह एक प्रजापति (प्रजासृष्टि करनेवाला) है। व्यक्ति का नाम प्रजापति है। शुद्ध आत्मा प्रजापति नहीं है। प्रकृति से युक्त हो कर प्रजासृष्टि करने के पश्चात् वह प्रजापति कहलाता है। सृष्टि भाव-गुण-विकार भेद से तीनप्रकार के हैं। भावसृष्टि का अव्ययपुरुष (शुद्ध आत्मा) से सम्बन्ध है। इसीको पुराणों में मानसीसृष्टि कहागया है। अक्षर (वर्ण नहीं) रूप पराप्रकृति से गुणसृष्टि होती है। क्षर रूप अपराप्रकृति से विकारसृष्टि होती है (गीता 13-19)।
अव्यय और अक्षर का सृष्टि वास्तविक सृष्टि नहीँ है कारण वह संसृष्टि (दोमों का योग) रूप प्रजासृष्टि नहीँ है।क्षरभाग का विकारसृष्टि का पञ्चीकरण (एक मुख्यभाव के आधार में अन्य गौणभाव का आधेय होना) प्रक्रिया से पञ्चजन-पुरञ्जन-पुर वनते हैं। स्वयम्भू-परमेष्ठी-सूर्य-चन्द्रमा-पृथिवी भेद से पुर पञ्चविध है। प्रथम पुर स्वयम्भू में ऋषिप्राणों का सृष्टि होती है। “प्राणा वा ऋषयः”- इस शतपथब्राह्मणम् 6-1-1-1 वाक्य के अनुसार प्राणरूप यह सृष्टि (the primordial energy) असङ्ग ही है। सङ्गभाव स्नेहगुण से सम्बन्ध रखता है, जो परमेष्ठीमहान् में उत्पन्न होता है। इसीलिये परमेष्ठीको प्रजापति कहते हैं, जिससे रयि-प्राणात्मक मैथुनी सृष्टि (quark-gluon plasma) का आरम्भ होता है (शतपथब्राह्मणम् 11-1-6-13,14 तथा प्रश्नोपनिषद् 1-4)। उसीसे अग्निः (पृथिवी -leptons), इन्द्रः (सूर्यः – hadrons) तथा सोमः (अत्रिपुत्र चन्द्रमाः – जो त्रि नहीं है -mesons) सृष्टि होते हैं, जिनसे विश्वनिर्माण हुआ है। इसी कारण से परमेष्ठी-सूर्य-चन्द्रमा-पृथिवी – इन चारों को परमप्रजापति रूप स्वयम्भू का प्रतिमा कहा जाता है। “न तस्य प्प्रतिमाऽअस्तियस्यनाममहद्यशः। हिरण्यगर्ब्भऽइत्येषः….” – यह यजुर्वेद 32-3 के मन्त्र (स्वयम्भूः ऋषिः आत्मा पुरुषो वा देवता) में प्रतिमा शव्द का यही अर्थ है, जिसे आर्यसमाजीयों ने विकृतार्थ किया है।
प्रजापति का तीन भेद है – ईश्वर-जीव-शिपिविष्ट।
- ईश्वरप्रजापति के लिये आधिदैविक शब्द प्रयुक्त होता है।
- जीवप्रजापति के लिये आध्यात्मिक शब्द प्रयुक्त होता है।
- शिपिविष्टप्रजापति के लिये आधिभौतिक शब्द प्रयुक्त होता है।
प्रत्येक प्रजापति में आत्मा-प्राण-पशु (उक्थ-अर्क-अशीति) तीनों रहते हैं, वह सत्यम् (स-ती-यम्) है। इसीलिये आत्मा त्रिवृत् है।
- आत्मा उक्थ (यतो उत्तिष्ठन्ति सर्वाणि भूतानि) है जो एक है।
- प्राण अर्क (विकीरण – प्राणा रश्मयः – तैत्तिरीयब्राह्मणम् – 3-2-5-2) है, जिसका पञ्चविभाग है (fundamental forces of Nature)।
- पशु अन्न (confined) है।
इनका समष्टि प्रजापति है। पशु असंख्य है। इनका ब्रह्मौदन एवं प्रवर्ग्य – यह दो विभाग है। ब्रह्मौदन (principal quantum number of nucleus) प्राण (radiation due to fusion or fission) से निकलकर आत्मा के वश में रहता है (determines other quantum numbers)। प्रवर्ग्य (disintegrated ion) अन्य वस्तु से प्रवृत्त होने से आगन्तुक है। भोगायतन शरीर (atom, star, galaxy or the universe as a whole) ब्रह्मौदन है। भोग्यजात (from ions to other objects that change the nature of objects after accumulation or disintegration) प्रवर्ग्य है। जीवात्मा का विस्तार प्रवर्ग्य पर्यन्त है।
प्राणों को प्राकृतात्मा कहा जाता है। आत्माभाग का नाम पुरुष है। उसे षोडशी कहते हैं। षोडशी में परात्पर, पञ्चकल अव्यय (आनन्द-विज्ञान-मन-प्राण-वाक्), पञ्चकल अक्षर, तथा पञ्चकल आत्मक्षर होता है।
- परात्पर का साङ्केतिक अर्द्धमात्रा है।
- अव्यय का साङ्केतिक अकार है।
- अक्षर का साङ्केतिक उकार है।
- क्षर का साङ्केतिक मकार है।
सब मिलकर एक सत्यप्रजापति है। अक्षर और वर्णमें भेद है। अक्षर नौ बिन्दुयुक्त एकमात्रिक है। यह बृहतीछन्द सम्बन्धी है। वर्ण आठ बिन्दुयुक्त अर्द्धमात्रिक है, जो अनुष्टुप् छन्द सम्बन्धी है।
- अव्यय चित् है।
- अक्षर चेतना है – स्फोट (शब्द का सूक्ष्मतम विभाग जिसका अनुभव हो सकता है, परन्तु उच्चारण नहीं हो सकता) है। अक्षरके आलम्बन पर सूक्ष्म अवर्ण, सूक्ष्मासूक्ष्म उवर्ण, एवं स्थूल म् वर्ण रहते हैं। इसीलिये आत्मप्रबोधोपनिषद् में कहागया है – “प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपं अकार उकारो मकार इति त्रक्षरं प्रणवं तदेतदोमिति”।
“चतुष्टयं वा इदं सर्वम्” – इस शाङ्खायनब्राह्मणम् वाक्य के अनुसार ॐ प्रजापतिः का भी चार विभाग है – अखण्डपरक ॐ प्रजापतिः, षोडशीपरक ॐ प्रजापतिः, साक्ष्युपलक्षित कर्मात्मापरक ॐ प्रजापतिः तथा अखण्ड षोडशी कर्मात्मापरक ॐ प्रजापतिः। इनके विषयमें अन्यत्र विचार किया जायेगा।
प्रणव के विषयमें ब्राह्मणम् ग्रन्थों में कहा गया है कि “ॐ प्रेति चेति चेति”। प्रेति का अर्थ है “प्र+आ+इति”। प्र और आ को छोडकर कुछ नहीं है। चेति का अर्थ है “च+इति”। प्रथम चेति का अर्थ है “प्र च आ च इति”। प्र और आ अलग अलग है। द्वितीय चेति का अर्थ है “प्र आ च इति”। प्र और आ एकसाथ है। प्र और आ उपसर्ग है। “उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते” के अनुसार उपसर्ग धातु के मूल अर्थ को परिवर्तन कर भिन्न अर्थ उपस्थित करता है। जैसे नीहार, आहार, संहार, प्रतीहार, प्रहार आदि में हार शब्द का अर्थ पूर्णरूप से परिवर्तित हो गया है। मूलरूप से प्र परागर्थे तथा आ अर्वागर्थे व्यवहार होता है।
किसी केन्द्र से परिधि (सीमा) की ओर जानेवाली शक्ति प्र है। वस्तुपिण्डके भीतर इसे अग्नि भी कहते हैं। किसी परिधि सेकेन्द्र (प्रतिष्ठा) की ओर आनेवाली शक्ति आ है। वस्तुपिण्डके भीतर इसे सोम भी कहते हैं। इन दोनों शक्तियों के संघर्षण से विश्वानुबन्धी कार्यकारणभाव का सृष्टि होता है। उनके औद्भाविक, सान्तानिक, सांस्कृतिक, नैमित्तिक, औपपादिक, प्राकृतिक, पारिणामिक, रसानुवृत्तिक, सांयोगिक, औपादानिक, सांक्रामिक, आक्रमिक, प्रातिभासिक, वैकल्पिक, ऐच्छिक, नोदनालक्षण आदि विकल्पभाव सृष्टि हो कर संसार का निर्माण करते हैं (अग्नीषोमात्मकं विश्वम्)।
सामवेद में सामगान पाँच प्रकार का पाया जाता हैः-1. हिङ्कार, 2. प्रस्ताव, 3. उद्गीथ, 4. प्रतिहार, 5. निधन। इसमें से उद्गीथ विभाग में प्रधानतया ओङ्कार का ही गान होता है। उक्त विषय का उल्लेख करता हुआ अथर्ववेद कहता है कि उस ब्रह्म की महती कीर्ति को विस्तृत करने के लिये मानो उदित होता हुआ सूर्य्य हिङ्कारसाम का, प्रातःकालिक उदितसूर्य प्रस्ताव का, मध्याह्न सूर्य उद्गीथ विधि का, अपराह्ण सूर्य प्रतिहार का तथा अस्त होता हुआ सूर्य मानो निधन विधि का अनुष्ठान करता है। इस प्रकार केवल ओङ्कारगान के लिये सामगान की एक विधा नियत थी, जबकि किसी अन्य देवता के लिये इस प्रकार का गान प्रचलित नहीं था। इससे यह सिद्ध होता है कि ईश्वर का प्रिय नाम ओ3म् है। गोपथ-ब्राह्मण कहता है कि एकाक्षर ओङ्कार ऋग्वेद में स्वरितोदात्त, यजुर्वेद में त्रैस्वर्योदात्त, सामवेद में दीर्घप्लुतोदात्त और अथर्ववेद में ह्रस्वोदात्त माना गया है।
छान्दोग्योपनिषद् नवम् खण्ड में कहागया है कि –
अस्य लोकस्य का गतिरित्याकाश इति होवाच सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्त आकाशं प्रत्यस्तं यन्त्याकाशो ह्येवैभ्यो ज्यायानकाशः परायणम् ॥१.९.१ ॥
स एष परोवरीयानुद्गीथः स एषोऽनन्तः परोवरीयो हास्य भवति परोवरीयसो ह लोकाञ्जयति य एतदेवं विद्वान्परोवरीयाँसमुद्गीथमुपास्ते ॥१.९.२॥
तँ हैतमतिधन्वा शौनक उदरशाण्डिल्यायोक्त्वोवाच यावत्त एनं प्रजायामुद्गीथं वेदिष्यन्ते परोवरीयो हैभ्यस्तावदस्मिँल्लोके जीवनं भविष्यति ॥ १. ९. ३ ॥
शिलक ने पूछा – तो फिर यह पृथ्वी लोक का आश्रय क्या है?
प्रवाहण ने कहा – आकाश। जो परमात्मा का ही नाम है। यही सबका प्रकाशक भी है और परमेश्वर भी। समस्त प्राणी परमेश्वर से ही उत्पन्न होते हैं और उनकी मृत्यु भी आकाश में ही होती है। जन्म-मरण ईश्वर के ही हाथ है। इसके ऊपर कुछ भी नहीं। भगवान नारायण का धाम ही परम धाम है। यही उद्-गीथ भी है और अनंत भी।