साहित्य की मृत्यु

साहित्य (Sahitya) की मृत्यु । – Basudeba Mishra

भवतु इति – यह ऐसा हो – इसप्रकार के चित्तवृत्ति को इच्छा कहते हैं । वह स्वीया – परकीया भेद से दो प्रकार का होती है । मैं अथवा मेरा ऐसा हो – इसप्रकार के आत्मसम्बन्धी इच्छा स्वीया है । अन्य समस्त परसम्बन्धी इच्छा परकीया है । स्वीया को भाव कहते हैं (भू चिन्त॑न॒) । स्व हृदयस्थ भाव को परहृदय में सन्निवेशित करने के प्रक्रिया को भाषा (भाषँ॒ व्य॑क्तायां वा॒चि) कहते हैं । वह देशविशेष से वहु प्रकार के होते हैं । भाषाप्रसार (पथँ प्रक्षे॒पे, पदँ॒ गतौ॑) के शब्द माध्यम को पद कहते हैं । पद समुदाय को बाक्य (वचोऽशब्दसंज्ञायाम् – अष्टाध्यायी 7-3-67) कहते हैं ।

पद के स्थिर भाव को अर्थ (अर्थँ॒ उपया॒च्ञाया॑म्) कहते हैं । सब पदार्थों में पद और अर्थ होते हैं । एक पद के विभिन्न अर्थ हो सकते हैं । परन्तु उसका विवक्षित (वक्तुमिष्ट) अर्थ का वोध केवल प्रकरण के अनुरोध से ही हो सकता है, जो केवल वाक्य में ही सम्भव है । ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं है कि जिसमें शब्द की कारणता न हो । समस्त ज्ञान शब्द तत्त्व से ही भासित होते हैं (नसोऽस्ति प्रत्ययो लोके यःशब्दानुगमादृते। अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते॥ वाक्यपदीयम् ब्रह्मकाण्डम् 124) । इसलिए वाक्य ही सम्पूर्ण विवक्षित अर्थ का बोधक है । अर्थ विशेषित शब्द (पद) प्रकारविशेष – जहाँ अर्थ का प्राधान्य हो तथा पद का चयन गौण हो ऐसे भाषा – को वाक्य कहते हैं । शब्द (पद) विशेषित अर्थ प्रकारविशेष – जहाँ अर्थ को विकृत न करते हुए पद का चयन में प्राधान्य हो ऐसे भाषा – को साहित्य कहते हैं । शुष्कन् काष्ठन् तिष्ठत्यग्रे वाक्य हैं । नीरस तरुवर पुरतो भाति साहित्य है ।

साहित्य मनोरञ्जन के एक साधन है । परन्तु कैसे ?

शब्द (पद) विशेषित अविकृत अर्थ समूह रूपी जो साहित्य है, वह क्या है ? साहित्य शब्द का अर्थ है सहित (साथ) का भाव । सहित (साथ) क्या है ? सम (तूल्य) के साथ वर्त्तमान (स्थित) । किस के साथ सम (तूल्य) ? चित्तसाम्य – चित्तवृत्तियों के साम्य । चित्त में एक के पश्चात् एक चित्तवृत्तियो उठते रहते हैं । उनके प्रवाह का आनन्तर्य वैषम्ययुक्त होने से चित्तवैकल्य उपस्थित होता है – अनवस्थित (अस्थिर) चित्तभूमी में उठनेवाले क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त चित्तवृत्ति दुःख का कारण होता है । साम्यवृत्तियुक्त एकाग्र चित्तभूमी में व्यवस्थित (स्थिर) चित्तवृत्ति सुख का कारण होता है । अतः साहित्य का अर्थ है साम्यवृत्तियुक्त व्यवस्थित (स्थिर) चित्तवृत्ति के सहित (साथ) का भाव ।

यह (साम्यवृत्तियुक्त चित्तवृत्तिके सहित का भाव) कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? यह परष्परसापेक्ष तूल्यरूपका यूगपद् एकक्रियान्वयित (मिलन) के द्वारा साध्य है । परष्परसापेक्षत्व उपमा, यमकादि अलङ्कारयुक्त काव्यशोभाकर धर्म्म है । यह शब्दार्थशोभातिशयजनक रसाद्युपकारक वैचित्र्ययुक्त प्रतीतिसाक्षिक अस्थिर धर्म है । बिना रसभङ्ग के छन्दोबन्धरूप से पदलालित्य के द्वारा यह साध्य है । तुल्यरूपता अर्थगौरव के द्वारा साध्य है । एकक्रियान्वयित्व – एक बुद्धिविशेष का अन्य बुद्धिविशेष के साथ अन्वय को कहा जाता है । यह भाव, विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारीभाव समन्वित रसप्रवाही कल्पनाविलाश के द्वारा साध्य है । यह तीन लक्षणयुक्त वाक्यकृति को साहित्य कहते हैं । कवि अथवा लेखक का स्वीय अनुभूति अथवा केवल कल्पना का अभिव्यक्ति साहित्य नहीं हैं ।

जो सब जानता है – सब वर्णन कर सकता है, अथवा जिसका कल्पना सर्वगामी, उसी अर्थमें कबृँ॒ वर्णे॑ धातु से कवि शब्द निष्पन्न हुआ है । इसीलिए विष्णु का एक नाम कवि है (वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः ॥ विष्णु सहस्रनामस्तोत्रम् ॥) । जो आ जाने मात्र से ही सुख देता है, वह कविता है (कविता वनिता वापि आयाता सुखदायिनीउद्भटः) । कल्पनाविलाश के आतिशय्य रसाद्युपकारक वैचित्र्ययुक्त होने से अत्यन्त सुखदायिनी होते हैं ।

कहा गया है – उपमा कालिदासस्य । अर्थात् कालिदास के कविताओं में दिया गया उपमा सर्वश्रेष्ठ है । भारवे अर्थगौरवम् । अर्थात् भारवि का काव्यों में अर्थगाम्भीर्य अतुलनीय है । नैषधे पदलालित्यम् । अर्थात् नैषध के काव्य में जो पदलालित्य दिखाइ देता है, वह अनुपमेय है । माघे सन्ति त्रयोगुणाः । अर्थात् माघ के पाश यह तीन गुण है । उनके पश्चात् अन्य अनेक कवि सारे देश में हुए, जो विभिन्न भाषा में कविता को उच्चतम शिखर पर ले गये हें । उनमें काञ्चीपुरम के कवि वेंकटाध्वरि रचित अनुलोम-विलोम काव्य ग्रंथ राघवयादवीयम् तथा वेदान्तदेशिक रचित श्रीरङ्गनाथ पादुकासहस्रम् जैसे अतुलनीय कृति भी है । आधुनिक कवियों में रवीन्द्रनाथ का पदलालित्य बहुत ही उच्चकोटी का है । परन्तु उन सब में कविताके तीनो गुणों का एकसाथ चरम उत्कर्ष नहीं पाया जाता । माघ के पश्चात् उत्कलीय कविसम्राट उपेन्द्रभञ्ज ही एकमात्र कवि हैं, जिनके पास यह तीन गुण भरपुर मात्रा में हैं ।

परन्तु समय के साथ साथ कवित्व भी कालकवलित होता जा रहा है । 40 वर्ष पूर्व एक समारोह में ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता एक कवयित्री ने कहा था कविता कवि का मन के भाव का उद्गीरण है । मैंने उसका विरोध किया था । परन्तु आजकल के कवि अपने विचार अथवा विकृत कामवासना को उनके कृति का विक्रय का माध्यम बना रहे हैं । अन्तर्जाल के युगमें पुस्तक के प्रति आग्रह कम हो गया है ।

साहित्य मर रहा है ।