आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ कठोपनिषद् १/३/४ ॥
इन्द्रिय एवं मन संयुक्त आत्मा को भोक्ता कहागया है। जो भोग करता है वह भोक्ता है। सुख-दुःख का साक्षात्कार भोग है। साक्षात्कार क्रिया है। सुख-दुःख शीतोष्ण जैसे मात्रास्पर्श है (गीता २/१४)। भौतिक सम्पत्ति हि मात्रा (म्+आ+त्+र्+आ – matter) है। मात्रा खण्ड है (discrete)। खण्ड भाव अखण्ड को सखण्ड वनाता है। उत्तरेषुगुणाः सन्ति सर्वसत्त्वेषु चोत्तराः – इस सिद्धान्त के अनुसार, उत्तर-उत्तर के महाभूतों में पूर्व-पूर्व के महाभूतों का गुण रहता है। शीतस्पर्श जल का गुण है। उसमें अग्नि, वायु आकाश के गुण आंशिक मात्रा में रहते हैं। उष्णस्पर्श अग्नि का गुण है। उसमें वायु तथा आकाश के गुण आंशिक मात्रा में रहते हैं। उसीप्रकार सुख-दुःख में भोग्य विषय का आंशिक सत्ता रहता है। तभी तो उसे गौण मान कर उपभोग कहते हैं। आत्मा नित्यः सर्वगतः स्थाणुः अचलोऽयं सनातनः (गीता २/२४) – सदा रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, आंशिकरूप से भी गति नहीं रहने वाला हैं। अपने स्थान को न त्यागने वाला, अनादि आत्मा के लिये मात्रास्पर्शयुक्त भोग कैसे सम्भब है। तो फिर भोक्तात्मा का स्वरूप क्या है।
सर्वप्रथम शरीरके उपर ध्यान दिजिये। पञ्चमहाभूत, वाक्, मन, चक्षु, श्रोत्र – यह उत्पन्न होकर परष्पर स्पर्द्धा करनेलगे कि हम इसशरीरका विधारक है – वयमेतद्बाणमवष्टभ्य विधारयाम (प्रश्नोपनिषद् १/२/२) – एकत्र करके धारण करेंगे। तब प्राणने कहा (अपने प्रभावसे सिद्ध करदिया) कि “अहमेवैतत्पञ्चधात्मानं प्रविभज्यैतद्बाणमवष्टभ्य विधारयामीति” – धिषणा (सौर विज्ञान) प्राण ही अपने आपको भूतयुक्त कर मन, प्राण, वाक्, चक्षुः, श्रोत्र – इन पाञ्च भागोंमें विभक्तकर शरीरको उठाया हुआ है (तत्रैव-३)। ऐतरेयब्राह्मणम् भी कहती है कि “सर्वे वै प्राणेनावष्टब्धम्” – सबकुछ प्राणके द्वारा विधारण कियागया है। यह विधारकप्राण अनन्त प्रकारके होनेपर भी इनसबको दो भागमें विभक्त किया जा सकता हैं। वस्तुके स्वरूप को सुरक्षित रखनेवाला – वस्तुस्वरूप में परिणत आग्नेय सत्यप्राण को अन्तःप्राण (nucleons) कहते है। उसके वाहर रहनेवाला ऋतप्राण को बहिःप्राण कहते हैं, जो मातरिश्वा (electron sea) के नाम से भी जाना जाता है।
शतपथब्राह्मणम् – ११/१/६/१७ के अनुसार “यद्वै किञ्च प्राणि स प्रजापतिः” – जो भी प्राणी है, अवयव-अवयवी-प्रवाह रूप प्रजासृष्टि (सन्तानोत्पत्ति) के कारण वह प्रजापति कहलाते हैं। प्रजापति ईश्वर-जीव-शिपिविष्ट भेदसे तीनप्रकार का है। ईश्वरप्रजापति केलिए आधिदैविक शब्दका प्रयोग कियाजाता है, जो अक्षर का कार्य है। जीवप्रजापति केलिए आध्यात्मिक शब्दका प्रयोग कियाजाता है, जो अव्यय का कार्य है। शिपिविष्टप्रजापति केलिए आधिभौतिक शब्दका प्रयोग कियाजाता है, जो क्षर का कार्य है। इसलिए जिसे अध्यात्म में अहम् कहा जाता है, उसे अधिदैव में इदम् कहा जाता है। भोगमें भोगायतन (भोग करने का स्थान), भोग्यपदार्थ (वाह्य वस्तु), भोग्यसाधन (इन्द्रियाँ) और भोक्ता (चैतन्य आत्मा) – यह चार अपेक्षित है। इनमें से एक भी नहीं रहने से भोग नहीं होगा। यह शरीर भोगायतन है। बाह्य विषय भोग्यपदार्थ है। इन्द्रियाँ भोगसाधन है। जो कर्मफल भोगकरता है, वह शरीरस्थ वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञरूप कर्मात्मा भोक्ता है। परन्तु जब यह स्थुलशरीर नष्ट हो जाता है, तब परलोक में सुख-दुःखका भोग कैसै सम्भव है।
इस प्रश्न का उत्तर है कि मृत्यु से सृष्टिकर्म में बाघा नहीं पहुँचता। मृत्यु एक जीवनचक्र का अवसान है। मृत्यु के उपरान्त एक नया चक्र का आरम्भ हो जाता है। कारण सृष्टिधारा व्याहत नहीं होती। एक तरङ्गके पश्चात अन्यएक तरङ्ग उठता है। मृत्युके उपरान्त एक आतिवाहिक शरीर जन्मलेता है, जो भोगायतन वनता है। पूर्वजन्मके वासनासंस्कारपुञ्ज उसमें भोग्यपदार्थ वनते हैं। इन्द्रियों के अधिष्ठाता प्रज्ञान चन्द्रमा (मन) भोगसाधन है। प्राण के आधारपर रहनेवाला विज्ञान सूर्य (बुद्धि) वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ (अहङ्कार) रूपमें परिणत होकर भोक्ता वनता है (प्रश्नोपनिषत् १/१/६-७)।
- अहंभावका आग्नेयअंश जो नित्यप्रति उत्पन्न नूतन भूतोंको सुरक्षित करता है, उसे वैश्वानर कहते हैं।
- जो वायव्यअंश नित्यप्रति गतिद्वारा नूतन वस्तु उत्पन्न करता है, उसे तैजस कहते हैं।
- इन्द्रका जो आदित्यअंश विषयजात वस्तुका अनुभव करता है, उसे प्राज्ञ कहते हैं।
इन तीनोंमें अहंभाव (मैं पना) वनारहता हैं। अतः इन्हे अहङ्कार कहते हैं। जैसे एक अङ्कुर अथवा पुरुष जन्म होते ही उसका छाया स्वयमेव आ जाता है, उसीप्रकार आत्माके साथसाथ प्राण स्वयमेव आ जाता है। वह प्राण मनके द्वारा शरीरमें आता है (आत्मन एष प्राणो जायते। यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्छरीरे – प्रश्नोपनिषत् १/३/३)।
यहाँ आत्मा तथा ब्रह्म का प्रकृत अर्थ समझना आवश्यक है।
एकमेवाद्वितीयम्
कुछ लोग “एकमेवाद्वितीयम्” कह कर दोनों को एक मानते हैं जो ठीक नहीं। जो एकम् कहने से समझा जा सकता था, उसे तीन शब्द से कहने के पीछे एक बडा रहस्य है। हम किसी वस्तु को अन्य वस्तु से भेद (अलग लक्षण) कर के जानते हैं। जैसे आम कहने से अन्य समस्त पदार्थों और फलों से इसका जो भेद है, उसे देखकर हम कहते हैं कि यह आम है। इसे विजातीय भेद कहते हैं। आम में भी लङ्गडा, सुन्दरी, चौसार, आदि भेद है। उसे सजातीय भेद कहते हैं। एक ही आम के छिलका, रस, गुठली आदि अलग भेद होते हैं। उसे स्वगत भेद कहते हैं।
- परम्ब्रह्म अथवा परमात्मा में कोई भेद नहीं होता। इसलिए विजातीय भेद निवारण के लिये एकम् कहा।
- सजातीय भेद निवारण के लिये एव कहा।
- स्वगत भेद निवारण के लिये अद्वितीयम् कहा।
परन्तु यह जीवात्मा के लिये प्रयुक्त नहीं होता। उपनिषद जीवात्मा का ही विचार करता है।
जो पृथक् से स्पष्ट जाना जाये, उसे निरुक्त कहते हैं। अन्यथा उसे अनिरुक्त कहा जाता है। जिस अवस्था में जगत् ब्रह्म से पृथक् नहीं जाना जाता, वह ब्रह्म की उन्मूग्ध अवस्था है। उस स्थिति में ब्रह्म अव्याकृत और निर्विकल्प कहा जाता है। अपरिणामी ब्रह्म से ही परिणामिनी सत्ता, चेतना आदि रूप व्यक्त होते हैं। यही “एकोऽहं वहुस्याम” श्रुति वाक्य का अर्थ है। नभ्य एवं सर्व भेद से अनिरुक्त द्विधा विभक्त है। केन्द्रशक्ति नभ्य है, जो अणिमा (क्षुद्रातिक्षुद्र) है। यही प्रतिष्ठा है। ऋग-यजुः-साम में से अन्तिम साम ही सर्व है, जो भुमा (सर्वव्यापी) है। उसके विषय में सब कुछ कहना सम्भव नहीं है, कारण वह अनन्त है। परन्तु अवयवशः (खण्ड खण्ड कर – by digitizing the analog), उसकी आपेक्षिक निरुक्ति की जा सकती है। उनके मध्य में जितने रूप हैं, वह केन्द्रशक्ति से ही उदित होते हैं। अत्यधिक अन्यथा भाव को विवर्त कहते हैं। केन्द्रशक्ति सदा एकरूप होने पर भी विवर्त (evolution) उत्पन्न करती है। यह अनिरुक्त होने पर भी अवतार अथवा विकासके कारण ज्ञेयहोता है।
- केन्द्रशक्तिका अपनेही शक्तिसे (विना किसी अन्य शक्तिसंयोगके) व्यक्तिकरण अवतार (incarnation) है।
- उसका अन्य अनेक प्रकारके संसर्गसे (अन्य शक्ति संयोग से) व्यक्तिकरण विकास (transformation) है।
अनिरुक्त से ही निरुक्त वनता है (असतः सदजायत – ऋक् १०/७२/२)। परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान निरुक्त का प्रथम होता है। उससे अनिरुक्तका अनुमान किया जाता है।
आत्मा शब्द की सापेक्षता
आत्मा (जीवात्मा) शब्द सापेक्ष है। जैसे पिता अथवा पुत्र कहसे से प्रश्न उठता है कि किसका पिता अथवा पुत्र, उसीप्रकार आत्मा कहने से प्रश्न उठता है कि किसका आत्मा। “यदुक्थं सत् यत् साम सत् यद् ब्रह्म स्यात् स तस्य आत्मा” – जो किसी का उक्थ-ब्रह्म-साम है, वह उसकी आत्मा है। उक्थ क्या है। “यत उतिष्ठति तदुक्थम्” – जिस आलम्बन से वस्तुस्वरूप उठता है – उत्पन्न होता है, उसे उस वस्तु का उक्थ कहते हैं। उपादानकारण ही उक्थ है। इसीलिए यही वस्तुका प्रभव है। “ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः” – इस तैत्तिरीयब्राह्मणम् (३/१२/९/१-२) वचन से समग्र पिण्ड ही ऋक् है, जो अणुओं के चयन द्वारा मूर्च्छित होने से मूर्त्ति कहलाते हैं।
अवसान रूप साम ही परायण है – अन्तिम रहने का स्थान है। वह उक्थ ही यावत् कार्यमें आलोमेभ्यः आनखाग्रेभ्यः सर्वत्र समान रहने से “ऋचा समं मेने” – इस व्युत्पत्ति से साम कहताता है। साम महिमामण्डल है (सर्वं तेजः सामरूपं ह शश्वत् – तैत्तिरीयब्राह्मणम् (३/१२/९/१-२)। हम वस्तु का महिमामण्डल से निर्गत विकिरण से ही वस्तु के रूप को देख पाते हैं।
प्रतिष्ठा तत्त्वका नाम ही ब्रह्म है (सैवास्मै प्रतिष्ठाऽभवत्। तस्मादाहुः ब्रह्म अस्य सर्वस्य प्रतिष्ठा। प्रतिष्ठा हैषा यद् ब्रह्म। शतपथब्राह्मणम् –६/१/१/८)। बृंहति बर्द्धते (बृहिँ वृद्धौ॑, बृहँऽ वृद्धौ॑ वा) अर्थमें जिसका विस्तार सबसे बडा है, उसे ब्रह्म कहते हैं। अथवा शब्दायमान हो कर (बृहिँ शब्दे॑ च) तरङ्गन्याय सर्बत्र व्याप्त – सबको छन्दितकर रखनेवाला तत्त्वको ब्रह्म कहते हैं। अथवा ब्रह्म शब्द भृ (डुभृ॒ञ् धारणपोष॒णयोः॑) धातु से भी हो सकता है जिसका अर्थ धारण-पोषण करना। बिभर्त्ति – इस व्युत्पत्ति से मिट्टि धट का ब्रह्म है। प्रतिष्ठातत्त्व के तीन भेद है। आत्मप्रतिष्ठा, लोकप्रतिष्ठा, विधृतिप्रतिष्ठा। किसी वस्तु (घट) यदि है, तो उसके नामसे हम जो तत्त्वको समझकर उसका अस्तित्वको मानते हैं, उस नामको उस वस्तुका आत्मप्रतिष्ठा कहते हैं। घट मिट्टिसे बना है – मिट्टिमें प्रतिष्ठित है। मिट्टिकी प्रतिष्ठा घटमें है। इसीसे उसको रूप प्राप्त हुआ है। यही रूप लोकप्रतिष्ठा है। घट पृथ्वीपर है। वह पार्थिवप्रतिष्ठा से विधृत है। विधृति कर्म है। यह कर्म ही विधृतिप्रतिष्ठा है।
यही तीनों उक्थ-ब्रह्म-साम अथवा प्रभव-प्रतिष्ठा-परायण वस्तुका नाम-रूप-कर्म है। इसीलिए कहा गया है – “त्रयं वा इदं नाम-रूप-कर्म। तेषां नाम्नां वागित्येतदेषामुक्थम्। अतो हि सर्वाणि नामान्युत्तिष्ठन्ति। एतदेतेषां साम एतद्धिसर्वेर्नामभिः समम्। एतदेषां ब्रह्म। एतद्धि सर्वाणि नामानि बिभर्त्ति” .. (शतपथब्राह्मणम् १४/४/४/१)। जो न हो कर भी दिखाई देने का प्रतीति होता है, उसे “अभूत् वा भाति” निर्वचन से अभ्व कहा जाता है। नाम-रूप-कर्म त्रितय अभ्व है। यह तीनों माया बल है। वाक् सम्बन्ध बल नाम है। ज्योति निबद्ध मनसे गृहीत बल रूप है। प्राणसम्बन्ध बल कर्म है। इससे नाम-रूप-कर्म का मन-प्राण-वाक् से सम्बन्ध सिद्ध होता है। पूर्व में असत् होनेपर भी कारण में स्थित प्रतिष्ठा से जो त्रितय अभ्व का योग है, वही उसका भाव है। उन नाम-रूप-कर्म का वियोग ही अभाव है।
रस और बल
वेदमें ब्रह्म को रस (रसो वै सः – तैत्तिरीयोपनिषत् २/७) और उसकी परा शक्ति को बल कही गई है (नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो – मुण्डकोपनिषत् ३/२/४, बल्ँ सत्यादोजीयः – शतपथब्राह्मणम् १४/८/१५/१५)। यह दोनों अविनाभावी है – अलग नहीं रहते। विषय के प्रसंग में अनेक रूप से द्रवित होने के कारण चित्त का नाम रस है। रस की बल के प्रसंग से जो वहुरूपता दिखाई देती है, उसे भी रस कहते हैं। रस प्राप्त कर सब का आनन्द होता है। अतः ब्रह्म को आनन्द कहा जाता है। अमृत रस है। ब्रह्म अमृत है। इसलिए ब्रह्म को अमृत रस कहते हैं। रस को वेद में पवित्र, आभु, सत्, स्थित, विद्या, अमृत, पूर्ण तथा अकर्म आदि नाम से कहा गया है। रस बल नहीं है। बल के क्षय और उदय के समय बलाश्रय रस तटस्थ रहता है। इसलिये इन दोनों विशेष रूपों का अविनाभाव सम्बन्ध में तारतम्य आ जाता है। इसी से यह पृथक रूप से जाने जाते हैं। यही द्वैत का कारण है।
जब एकतत्त्व किसी अन्यको सर्व दिशाओंसे दृढ अथवा शिथिल आवेष्टन (strong or weak confinement) करताहै, तो उस संबलन को बल (बलँ प्राण॑ने धान्यावरो॒धे च॑) कहते हैं। अवरोध आवरण है। जब शक्त्यात्मक बल रसको सर्व दिशाओंसे वेष्टन करलेता है, तो जैसे समुद्रजल से तरङ्गें उठते हैं और स्रोत सृष्टि होता है, उसीप्रकार अनन्तपर्यायें विवर्त्त (अत्यधिक अन्यथा भाव – जैसे उठना ओर लीन होना) वही स्थिति होता है। उस शक्त्यात्मक तत्त्व को वेद में रूप, बल, पाप्मा, तुच्छ, असत्, यत्, अविद्या, मृत्यु, शून्य, कर्म आदि नाम से कहा गया है।
रस और बल दोनों एक ही शक्ति के अन्तर्निहित धर्म है। बलोपेत रस धर्मी है। यह दोनों धर्म अयुतसिद्ध है। जहाँ एक धर्म से अन्य घर्म न हो उसे निधर्मक कहते हैं। मौलिक धर्म में सत्तासिद्ध धर्म का निरोध माना है। न उसमें अनेक भातिसिद्ध (भासित होने वाला) धर्म ही उदय होते हैं। रस और बल दोनों निधर्मक है। रस एक एवं अखण्ड है। बल मूलरूप से अखण्ड होने पर भी सखण्ड अथवा खण्डाखण्ड हो सकता है। सुप्त हो तो बल, जागृत हो तो शक्ति अथवा प्राण, तथा उसका परिणाम को क्रिया कहते हैं। एक ही बल का यह त्रिविध परिणाम होते हैं। बल का कुर्बद् रूपता ही कर्म है। रस-बल, पवित्र-पाप्मा, स्थित-यत्, विद्या-अविद्या, अमृत-मृत्यु, कर्म-अकर्म, यह सब युग्म-मिथुन-द्वन्द एक ही मूल तत्त्व के उभयात्मक स्वरूप है। इसलिये प्रकृति को द्वन्दकर्त्ती कहा जाता है। प्रकृति-पुरुष का मिथुन भी यही है।
एक अपरिमित (अपरिच्छिन्न) वस्तुका एक मित (परिच्छिन्न) वस्तुके साथ निरूढ (लक्षणा द्वारा अर्थप्रतिपादिक) मात्रामें सङ्क्रमण करना (एकत्र होना) संसर्ग (interaction) है।
संसर्गज कर्म दो प्रकार के होते हैं – १) कर्म में कर्म (interaction between forces) और २) अकर्म में (स्थिर वस्तु में) कर्म (interaction between a charged body with a charge neutral body)। बल से बल का चिति (confinement) से विश्वसञ्चार होता है।
कर्म में कर्म
कर्म में कर्म का ५प्रकार के संसर्गभेद है – स्थनावरोध (exclusion principle), सामञ्जस्य(superposition), एकात्मक (complementarity principle), एकभाव्य (color charges of QCD) और भक्ति (translation of motion)। रस अकर्मक है। बल के साथ रस का तादात्म्य सम्बन्ध (coexistence) तो है, परन्तु उसमें सृष्टि सम्भव नहीं है। दोनों स्वतन्त्र और परष्पर असङ्ग है। जब बल सखण्ड हो कर – स्वयं परिच्छिन्न हो कर, अपने सम्बन्ध से रस को परिच्छिन्न कर देता है, तब समुद्रजल में तरङ्ग जैसे रस भी परिच्छिन्न प्रतीत होता है। उस परिच्छिन्न – मित (मापने योग्य) भाग (अकर्म) में जब अन्य बल का सम्बन्ध होता है, तब सृष्टि सम्भव होता है।
अकर्म में कर्म
अकर्म में कर्म के २ मुख्य भेद है – १) स्वरूप सम्बन्ध (तादात्म्य, जिसमें स्वरूप विकृति न हो) और २) वृतित्व सम्बन्ध (जो शक्त्याश्रय से हो)। स्वरूप संसर्गी बल ही भाव (characteristic) है। वृत्तित्व संसर्गी बल ही कर्म (operation) है। इन सम्बन्धों का तीन तीन विभाग है। स्वरूप सम्बन्ध का विभाग – १) विभुति, २) योग और ३) बन्ध। वृतित्व सम्बन्ध का विभाग – १) आसक्ति, २) ऊदार, ३) समवाय। जहाँ दो तत्त्वोंके सम्बन्धसे एक अपने स्वरूपमें रहे तथा अन्य परतन्त्र होजाये, उसे विभूतिसम्बन्ध कहते हैं। रस और बलका सदा विभूतिसम्बन्ध रहता है। बलविशिष्ट रस के साथ बलान्तर के सम्बन्ध से यदि दोनों का मूलस्वरूप रहते हुये एक तृतीय तत्त्व वनता है, तो उसे योग कहते हैं। परन्तु यदि दोनों का मूलस्वरूप नाश होकर तृतीय तत्त्व वनता है, तो उसे बन्ध कहते हैं। विभूतिसम्बन्धसे अव्ययपुरुषका, योगसम्बन्धसे अक्षरपुरुषका और बन्धसम्बन्धसे क्षरपुरुषका प्रादुर्भाव होता है। इस प्रकार त्रिविधपुरुष हैं। उन्हीसे सवकुछ वना है – पुरुषं एवेदं सर्वम्।
पुरुषके साथ प्रकृतिका वृत्तित्व सम्बन्ध है। जहाँ आश्रित आश्रयका अपेक्षा न करके कर्मकरने केलिये स्वतन्त्र है, उसे वृत्तित्वसम्बन्ध कहते है। अथवा बलविशिष्ट पुरुषका बलान्तर संसर्गको वृत्तित्वसम्बन्ध कहते है। उसका ३ अवान्तर भेद है – आसक्ति, उदार, समवाय।
सङ्गवृत्ति आसक्ति। उसमें लोप, विकार अथवा निष्ठ होकर बल विश्राम करता है। यह क्षरका वृत्ति है – अक्षरका नहीं। शुद्धकर्ममें शुद्धरसका सम्बन्ध को अव्ययाख्य परपुरुष कहते हैं। इनका विश्वके साथ सम्बन्ध उदारवृतित्व है। इनसे सामान्य और विशेषभाव वनता है। भावों में जो नानाविधता है, वह विशेष कहलाता है। एक भाव में अनन्त विशेष होते हैं। पदार्थों में भिन्नत्व नाम-रूप-कर्म कृत है। इसमें भिन्नत्व ही विशेष है। दो कर्मविशिष्ट अक्षरसे समवाय सम्बन्ध वनता है। वैशेषिक इन सवके विषयमें चर्चा करता है।
अक्षर को भूतभृत्, सत्य, विज्ञान, अनन्त, अच्युत, कूटस्थ, अव्यक्त, ध्रुव, परावर, सेतु, अलक्ष तथा ईश्वर कहते हैं। “त्रिषत्या हि देवाः” (तैत्तिरीयब्राह्मणम् ३/२/३/८, षड्विंश ब्राह्मणम् १/१/९) के अनुसार देवों का तीन सत्यम् विभाग है। छान्दोग्योपनिषद् ६/३/४ के अनुसार – “इमास्तिस्रो देवतास्त्रिवृत्त्रिवृदेकैका भवति” – ये तीनों देवता एक एक करके प्रत्येके त्रिवृत् है। छान्दोग्योपनिषद् ८/३/५ में इसे स+ति+यम् का समष्टि कहा गया है, जो नाम-रूप-कर्म को व्यक्त करते हैं। यह सत्यम् “वेदाःसत्यम्”, “सूत्रसत्यम्” तथा “नियतिःसत्यम्” भेद से त्रिविध है।
- वेदाःसत्यम् का यज्ञ से सम्बन्ध है। शतपथब्राह्मणम् १४/६/७/६ के अनुसार – “वायुर्वै गौतम तत् सूत्रम्। वायुना वै गौतम सूत्रेणायं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्ति। वायुना हि गौतम सूत्रेण संदृब्धानि”।
- अक्षर का इन्द्रमय अग्निसोमभाग सूत्रसत्य है। इसी से ष्ट्रिंग थिओरी (string theory) का कल्पना कियागया है, जो अज्ञता के कारण भ्रमपूर्ण हो गया है।
- अन्तःप्रतिष्ठ हृदयम् रूप से सवका नियमन करने वाला अन्तर्यामी ही नियतिःसत्यम् है।
इसीलिए शतपथब्राह्मणम् १४/८/४/१ में कहा गया है कि – “एष प्रजापतिर्यद् हृदयम्। एतद् ब्रह्म। एतत् सर्वम्। तदेतत्त्र्यक्षरं हृदयमिति। हृ इत्येकमक्षरम्। द इत्येकमक्षरम्। यमित्येकमक्षरम्। तद्वै तदेतदेव तदास सत्यमेव”।
- हरणार्थक हृ शब्द (हृ॒ञ् हर॑णे),
- खण्डन अथवा विसर्गात्मक द शब्द (दो॒ अव॒खण्ड॑ने), तथा
- यम् एकाक्षर नियमन भाव से नपुंसकलिङ्गान्त हृदयम् शब्द ग्रहण-त्याग-नियमन किम्बा आगति-गति-स्थिति भाव का द्योतक है।
पुरुषसूक्त का “प्रजापतिश्चरति गर्भेरन्तरजायमान बहुधा विजायते” के अनुसार यही अन्तर्यामी बनकर आत्मा-प्राण-पशु तीन विभागसे समस्त प्रजाका निर्माण कररहा है।
ब्रह्म स्थिर है। देव (दिवुँ क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिग॒तिषु॑) गतिमान है – अस्थिर है। अतः सृष्टि के मूलभूत स्थिर (जो सर्वत्र अपने मूल रूप से व्याप्त रहते हैं) स्वयम्भू-परमेष्ठी-सूर्य-चन्द्रमा-पृथिवी को ब्रह्मसत्य कहते हैं। चान्द्र मन तथा शरीराधार पृथ्वी के मध्य में स्थित वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ गतिशील जैव देवसत्य है। इनकी समष्टि ही अध्यात्म में जीवात्मा है। ब्रह्मसत्य ही देवसत्य का अधिष्ठान है। विना ब्रह्मसत्य के देवसत्य प्रतिष्ठत नहीं हो सकता। यही अभिन्न सत्य ही भोक्तात्मा है।
इसीका स्वरूप का निर्णय करते हुये श्रुति कहती है कि –
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः।
वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा ॥ मुण्डकोपनिषद् – २/१/४॥
वेद में Electronic configuration का विज्ञान
वैदिक विज्ञान में यज्ञ (य॒जँ॑ देवपूजासङ्गतिकरणदा॒नेषु॑) का अर्थ सङ्गतिकरण (chemistry) है। किसी भी यज्ञ (in any chemical reaction) में अग्नि का वर्गीकरण (transition states) किया जाता है। आग्नेय पिण्ड का दो मुख्य भाग है। एक तो केन्द्रस्थ चित्यपिण्ड (nucleus) है, जो साकार भूत (determines nature of atom) है। दुसरा चितेनिधेय (electron shells) है, जो निराकार देव है। जहाँ तक चितेनिधेय अग्नि का व्याप्ति है, उसे वषट्कार मण्डल (electronic configuration) कहा जाता है। इसमें ३३ विभाग (कोटि) है, जिसे अहर्गण कहते हैं। इन में से १ से २१ अहर्गण पर्यन्त अग्नि तथा २२ से ३३ अहर्गण पर्यन्त सोम है। वास्तव में अग्नि १७ वें अहर्गण पर्यन्त रहता है, जिसे आहवनीय अग्नि कहते हैं। परन्तु सोमाहुति से यह अग्नि २१ अहर्गण पर्यन्त चला जाता है। इन २१ में से ९ पर्यन्त पार्थिव गार्हपत्य अग्नि है। यह विष्णुका प्रथम विक्रम है। विशति प्रविशति अर्थमें सव में प्रविष्ट तत्व को विष्णु कहाजाता है। १५ पर्यन्त आन्तरिक्ष यमाग्नि (वायु) है। विष्णुका द्वितीय विक्रम है। २१ पर्यन्त द्वौ लोकस्थ आदित्याग्नि है। यह विष्णुका तृतीय विक्रम है। इसिलिये विष्णुको त्रिविक्रम कहागया है। यह सवसे छोटा होनेसे वामन कहलाता है। रोदसी त्रिलोकी का व्याप्ति यहीं तक है।

कभी कभी सोमाहुति के प्रावल्य से वह अग्नि २२ वाँ स्थान तक चला जाता है। इसीलिए पार्थिव साम को रथन्तर साम कहते हैं। २१ वाँ सूर्य स्थान है। २१ से २७ वाँ अहर्गण पर्यन्त भास्वर सोम है। उसके उपर ३३ वाँ अहर्गण पर्यन्त दिक् सोम है। १७ से २५ वें अहर्गण मध्य में (१८ से २४ तक) को सप्त देवस्वर्ग कहा गया है। १८ वाँ ऋतधामा स्वर्ग है। १९ वाँ अपरोदक वायव्य स्वर्ग है। २० वाँ अपराजित ऐन्द्र स्वर्ग है। २१ वाँ अपराजित ऐन्द्र-ऐन्द्राग्नि नाक स्वर्ग है। २२ वाँ अधिधौ वारुण स्वर्ग है। २३ वाँ प्रधौ मुच्यु स्वर्ग है। २४ वाँ रोचन ब्राह्म स्वर्ग है। २५ वाँ उत्तम अथवा प्रत्य नाक स्वर्ग है। १७ वाँ नाचिकेत स्वर्ग ब्रह्मविष्टप है। २१ वाँ विष्णुविष्टप है। २५ वाँ इन्द्रविष्टप है। इन तीनों का समष्टि को त्रिणाचिकेत कहा जाता है। श्रौतसूत्रों तथा कठोपनिषदमें इसका विवेचन किया गया है।

- सोम पर चित् का प्रतिबिम्ब पडता है, जिससे वह ज्ञानमय हो जाता है (जैसे प्रतिविम्बित सौर रश्मि से सोममय पिण्ड चन्द्रमा प्रकाशमय हो जाता है)। अतः आदित्याग्नि का नाम सर्वज्ञ है। यह मस्तक स्थानीय और सहस्रशीर्ष है।
- १५ वाँ अहर्गण पर्यन्त आन्तरिक्ष यमाग्नि क्रियामय है। यहाँ ज्ञानमात्रा अल्प परिमाण में है। प्राणमय (क्रियामय – radiative) तथा मध्यपतित (nucleic) होने से इसे हिरण्यगर्भ कहा जाता है। यह सहस्राक्ष है।
- उसके नीचे पार्थिव अग्नि है, जहाँ ज्ञानमात्रा अनुल्वण है। यह पद स्थानीय तथा अपानमय होने से वैश्वानर कहलाता है। यह सहस्रपात् है। वैश्वानर-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ का समष्टि अधिदैव में ईश्वरीय देवसत्य है। यह भी स्वयम्भू-परमेष्ठी-सूर्य-चन्द्रमा-पृथिवी का समष्टि ब्रह्मसत्य पर प्रतिष्ठित है। इस में वैश्वानर-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ (९-१५-२१) भेद से उक्थ अग्नि के अर्क किरणें निकल कर चारों दिशाओं में विच्छुरित होता है। इन असंख्य किरणों को गौ सहस्र कहते हैं।
इनमें से प्रथम साहस्री प्राणप्रधान सर्वज्ञ है। इसका प्रतिष्ठा स्थान २१ अहर्गण है। यह देवसत्य का मूर्धास्थान है। यही आदित्याग्नि है। शतपथब्राह्मणम् १०/६/१/९ में कहा गया है कि – “मूर्द्धा त्वाऽएष वैश्वानरस्य (यत् द्यौः)”। अतः अग्निर्मूर्धा कहा गया है। विज्ञान सूर्य (बुद्धि) सुषुप्ति अवस्था में भी जाग्रत रह कर सवका द्रष्टा होने से चक्षुस्थानीय है (प्राणाग्नय एवैतस्मिन्पुरे जाग्रति – प्रश्नोपनिषद् ४/३)। उसीके अपर दिशा में (२२ से ३३ अहर्गण पर्यन्त) सोम है। यह दोनों चक्षुस्थानीय है। इन से ही – इन अग्नि-सोम से ही – जगत् निर्माण होता है। वह विराट् पुरुष इन्हि साधनों के द्वारा द्रष्टा वना हुआ है। अतः “चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ” कहा गया है।
उस विराट् पुरुष के श्रोत्र से दिशायें उत्पन्न हुइ (पुरुषसूक्तम्)। सुषिरत्व (शु॒षँ शोष॑णे – अथवा षु॒ प्रसवैश्व॒र्ययोः॑ + षो॒ अन्तक॒र्मणि॑ – सुष्ठुं स्यतीति) में साम्य होने से श्रोत्र से दिशायें उत्पन्न हुइ कहा जाता है। ३३ वाँ अहर्गण पर्यन्त दिक् सोम है। अतः “दिशः श्रोत्रे” कहा गया है। मन-प्राण-वाक् भेद में सूर्यात्मक आदित्य प्रकृति के क्रम से वाक् स्थानीय है। वाक्यपदीयकार भर्तृहरी केमत से “न सोSस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमात्त्ते। अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते”। संसार का कोई भी ज्ञान विना शब्द के प्रकाशित नहीं हो सकता। अतः कणाद सूत्रम् ६/१/१ में कहा गया है “बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे”। इसीलिए कहा गया है कि – “वाग्विवृताश्च वेदाः”।
ऐतरेयब्राह्मणम् ६/४ तथा ७/१० में कहा गया है कि “वायुर्हि प्राणः”। इसीलिए कहा गया है कि – “वायुः प्राणो”। ग्रहण-त्याग-नियमन किम्बा आगति-गति-स्थिति भाव का द्योतक हृदयम् से ही विश्वनिर्माण होता है। इसीलिए कहा गया है कि – “हृदयं विश्वमस्य”। १ से ९ अहर्गण पर्यन्त पार्थिव गार्हपत्य अग्नि है, जो पदस्थानीय है। इसीलिए कहा गया है कि – “पद्भ्यां भूमिः”। वही सबके भीतर रह कर सबका सञ्चालन करता है। इसलिए कहा गया है कि – “ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा”।