।।श्रीहरिः।।
अथ सप्तमोऽध्याय:
अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
सूत उवाच
अथर्ववित् सुमन्तुश्च शिष्यमध्यापयत् स्वकाम् ।
संहितां सोऽपि पथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान् ।।१
शौक्लायनिर्ब्रह्मबलिर्मोदोषः पिप्पलायनिः ।
वेददर्शस्य शिष्यास्ते पथ्यशिष्यानथो शृणु ।।२
कुमुदः शुनको ब्रह्मन् जाजलिश्चाप्यथर्ववित् ।
बभ्रुः शिष्योऽथांगिरसः सैन्धवायन एव च ।
अधीयेतां संहिते द्वे सावर्ण्याद्यास्तथापरे ।।३
नक्षत्रकल्पः शान्तिश्च कश्यपांगिरसादयः ।
एते आथर्वणाचार्याः शृणु पौराणिकान् मुने ।।४
त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिरकृतव्रणः ।
वैशम्पायन हारीतौ षड् वै पौराणिका इमे ।।५
अधीयन्त व्यासशिष्यात् संहितां मत्पितुर्मुखात् ।
एकैकामहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम् ।।६
कश्यपोऽहं च सावर्णी रामशिष्योऽकृतव्रणः ।
अधीमहि व्यासशिष्याच्चतस्रो मूलसंहिताः ।।७
सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! मैं कह चुका हूँ कि अथर्ववेदके ज्ञाता सुमन्तुमुनिथे । उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्धको पढ़ायी । कबन्धने उस संहिताके दो भाग करके पथ्य और वेददर्शको उसका अध्ययन कराया ।।१ ।। वेददर्शके चार शिष्य हुए शौक्लायनि , ब्रह्मबलि , मोदोष और पिप्पलायनि । अब पथ्यके शिष्योंके नाम सुनो ।।२ ।।
शौनकजी ! पथ्यके तीन शिष्य थे – कुमुद , शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि । अंगिरा – गोत्रोत्पन्नशुनकके दो शिष्य थे— बभ्रु और सैन्धवायन । उन लोगोंने दो संहिताओंका अध्ययन किया ।अथर्ववेदके आचार्योंमें इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादिके शिष्य सावर्ण्य आदि तथानक्षत्रकल्प , शान्ति , कश्यप , आंगिरस आदि कई विद्वान् और भी हुए । अब मैं तुम्हेंपौराणिकोंके सम्बन्धमें सुनाता हूँ ।।३-४ ।।
शौनकजी ! पुराणोंके छः आचार्य प्रसिद्ध हैं – यारुणि , कश्यप , सावर्णि , अकृतव्रण ,वैशम्पायन और हारीत ।।५ ।। इन लोगोंने मेरे पिताजीसे एक – एक पुराणसंहिता पढ़ी थी औरमेरे पिताजीने स्वयं भगवान् व्याससे उन संहिताओंका अध्ययन किया था । मैंने उन छहोंआचार्योंसे सभी संहिताओंका अध्ययन किया था ।।६ ।। उन छः संहिताओंके अतिरिक्त औरभी चार मूल संहिताएँ थीं । उन्हें भी कश्यप , सावर्णि , परशुरामजीके शिष्य अकृतव्रण और उनसबके साथ मैंने व्यासजीके शिष्य श्रीरोमहर्षणजीसे , जो मेरे पिता थे , अध्ययन कियाथा ।।७ ।।
पुराणलक्षणं ब्रह्मन् ब्रह्मर्षिभिर्निरूपितम् ।
शृणुष्व बुद्धिमाश्रित्य वेदशास्त्रानुसारतः ।।८
सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्ती रक्षान्तराणि च ।
वंशो वंशानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः ।।९
दशभिर्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः ।
केचित् पंचविधं ब्रह्मन् महदल्पव्यवस्थया ।।१०
शौनकजी ! महर्षियोंने वेद और शास्त्रों के अनुसार पुराणोंके लक्षण बतलाये हैं । अब तुमस्वस्थ होकर सावधानीसे उनका वर्णन सुनो ।।८ ।।
शौनकजी ! पुराणोंके पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणोंके दस लक्षण हैं — विश्वसर्ग , विसर्ग , वृत्ति , रक्षा , मन्वन्तर , वंश ,वंशानुचरित , संस्था ( प्रलय ) , हेतु ( ऊति ) और अपाश्रय । कोई – कोई आचार्य पुराणोंके पाँच हीलक्षण मानते हैं । दोनों ही बातें ठीक हैं , क्योंकि महापुराणोंमें दस लक्षण होते हैं और छोटेपुराणोंमें पाँच । विस्तार करके दस बतलाते हैं और संक्षेप करके पाँच ।।९ -१० ।।
( अब इनकेलक्षण सुनो )
अव्याकृतगुणक्षोभान्महतस्त्रिवृतोऽहमः ।
भूतमात्रेन्द्रियार्थानां सम्भवः सर्ग उच्यते ।।११
पुरुषानुगृहीतानामेतेषां वासनामयः ।
विसर्गोऽयं समाहारो बीजाद् बीजं चराचरम् ।।१२
वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणामचराणि च ।
कृता स्वेन नृणां तत्र कामाच्चोदनयापि वा ।।१३
जब मूल प्रकृतिमें लीन गुण क्षुब्ध होते हैं , तब महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है ।महत्तत्त्वसे तामस , राजस और वैकारिक ( सात्त्विक ) – तीन प्रकारके अहंकार बनते हैं ।त्रिविध अहंकारसे ही पंचतन्मात्रा , इन्द्रिय और विषयोंकी उत्पत्ति होती है । इसी उत्पत्तिक्रमकानाम ‘ सर्ग ’ है ।।११ ।। परमेश्वरके अनुग्रहसे सृष्टिका सामर्थ्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदिपूर्वकर्मोंके अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओंकी प्रधानतासे जो यह चराचर शरीरात्मकजीवकी उपाधिकी सृष्टि करते हैं , एक बीजसे दूसरे बीजके समान , इसीको विसर्ग कहतेहैं ।।१२ ।। चर प्राणियोंकी अचर – पदार्थ ‘ वृत्ति ‘ अर्थात् जीवन – निर्वाहकी सामग्री है । चरप्राणियोंके दुग्ध आदि भी इनमेंसे मनुष्योंने कुछ तो स्वभाववश कामनाके अनुसार निश्चितकर ली है और कुछने शास्त्रके आज्ञानुसार ।।१३ ।।
रक्षाच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे ।
तिर्यङ्मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यन्ते यैस्त्रयीद्विषः ।।१४
मन्वन्तरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वरः ।
ऋषयोंऽशावतारश्च हरेः षड्विधमुच्यते ।।१५
राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः ।
वंशानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्च ये ।।१६
नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यन्तिको लयः ।
संस्थेति कविभिः प्रोक्ता चतुर्धास्य स्वभावतः ।।१७
हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादरविद्याकर्मकारकः ।
यं चानुशयिनं प्राहुरव्याकृतमुतापरे ।।१८
भगवान् युग – युगमें पशु – पक्षी , मनुष्य , ऋषि , देवता आदिके रूपमें अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं । इन्हीं अवतारोंमें वे वेदधर्मके विरोधियोंका संहार भी करते हैं । उनकी यह अवतारलीला विश्वकी रक्षाके लिये ही होती है , इसीलिये उसका नाम ‘ रक्षा ‘ है ।।१४ ।।
मनु , देवता , मनुपुत्र , इन्द्र , सप्तर्षि और भगवान्के अंशावतार – इन्हीं छः बातोंकी विशेषतासे युक्त समयको ‘ मन्वन्तर ‘ कहते हैं ।।१५ ।। ब्रह्माजीसे जितने राजाओंकी सृष्टि हुई है , उनकी भूत , भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तान – परम्पराको ‘ वंश ‘ कहते हैं । उन राजाओंके तथा उनके वंशधरोंके चरित्रका नाम ‘ वंशानुचरित ‘ है ।।१६ ।। इस विश्वब्रह्माण्डका स्वभावसे ही प्रलय हो जाता है । उसके चार भेद हैं — नैमित्तिक , प्राकृतिक , नित्य और आत्यन्तिक । तत्त्वज्ञ विद्वानोंने इन्हींको ‘ संस्था ‘ कहा है ।।१७ ।। पुराणोंके लक्षणमें ‘ हेतु ‘ नामसे जिसका व्यवहार होता है , वह जीव ही है ; क्योंकि वास्तवमें वही सर्ग – विसर्ग आदिका हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकारके कर्मकलापमें उलझ गया है । जो लोग उसे चैतन्यप्रधानकी दृष्टिसे देखते हैं , वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृतिमें शयन करनेवाला कहते हैं ; और जो उपाधिकी दृष्टिसे कहते हैं , वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृतिरूप कहते हैं ।।१८ ।।
व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
मायामयेषु तद् ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः ।।१९
पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु ।
बीजादिपंचतान्तासु ह्यवस्थासु युतायुतम् ।।२०
विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम् ।
योगेन वा तदाऽऽत्मानं वेदेहाया निवर्तते ।। २१
एवंलक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविदः ।
मुनयोऽष्टादश प्राहुः क्षुल्लकानि महान्ति च ।।२२
ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं लैंगं सगारुडम् ।
नारदीयं भागवतमाग्नेयं स्कान्दसंज्ञितम् ।।२३
भविष्यं ब्रह्मवैवर्तं मार्कण्डेयं सवामनम् ।
वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्माण्डाख्यमिति त्रिषट् ।। २४
ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः ।
शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम् ।।२५
जीवकी वृत्तियोंके तीन विभाग हैं- जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति । जो इन अवस्थाओंमेंइनके अभिमानी विश्व , तैजस और प्राज्ञके मायामय रूपोंमें प्रतीत होता है और इनअवस्थाओंसे परे तुरीयतत्त्वके रूपमें भी लक्षित होता है , वही ब्रह्म है ; उसीको यहाँ‘ अपाश्रय ’ शब्दसे कहा गया है ।।१९ ।। नामविशेष और रूपविशेषसे युक्त पदार्थोंपर विचारकरें तो वे सत्तामात्र वस्तुके रूपमें सिद्ध होते हैं । उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं । असलमेंवह सत्ता ही उन विशेषताओंके रूपमें प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है । ठीक इसीन्यायसे शरीर और विश्वब्रह्माण्डकी उत्पत्तिसे लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भीविशेष अवस्थाएँ हैं , उनके रूपमें परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसेसर्वथा पृथक् भी है । यही वाक्य – भेदसे अधिष्ठान और साक्षीके रूपमें ब्रह्म ही पुराणोक्तआश्रयतत्त्व है ।।२० ।। जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यासके द्वारा सत्त्वगुणरजोगुण – तमोगुण – सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत् – स्वप्न आदि स्वाभाविकवृत्तियोंका त्याग करके उपराम हो जाता है , तब शान्तवृत्तिमें ‘ तत्त्वमसि ‘ आदि महावाक्योंकेद्वारा आत्मज्ञानका उदय होता है । उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म – वासनाऔर कर्मप्रवृत्तिसे निवृत्त हो जाता है ।।२१ ।।|शौनकादि ऋषियो ! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंने इन्हीं लक्षणोंके द्वारा पुराणोंकीयह पहचान बतलायी है । ऐसे लक्षणोंसे युक्त छोटे – बड़े अठारह पुराण हैं ।।२२ ।। उनके नामये हैं – ब्रह्मपुराण , पद्मपुराण , विष्णुपुराण , शिवपुराण , लिंगपुराण , गरुडपुराण , नारदपुराण ,भागवतपुराण , अग्निपुराण , स्कन्दपुराण , भविष्यपुराण , ब्रह्मवैवर्तपुराण , मार्कण्डेयपुराण ,वामनपुराण , वराहपुराण , मत्स्यपुराण , कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराय अठारहहैं ।।२३-२४ ।। शौनकजी ! व्यासजीकी शिष्य – परम्पराने जिस प्रकार वेदसंहिता औरपुराणसंहिताओंका अध्ययन – अध्यापन , विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया । यह प्रसंग सुनने और पढ़नेवालोंके ब्रह्मतेजकी अभिवृद्धि करता है ।।२५ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ।।७ ।।
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