वस्तुधर्मः – Vaidik concept of Quantum Numbers
-वासुदेव मिश्रशर्म्मा
कासी॑त्प्र॒मा प्र॑ति॒मा किं नि॒दान॒माज्यं॒ किमा॑सीत्परि॒धिः क आ॑सीत् ।
छन्द॒: किमा॑सी॒त्प्रउ॑गं॒ किमु॒क्थं यद्दे॒वा दे॒वमय॑जन्त॒ विश्वे॑ ॥
॥ ऋग्वेद १०-१३०-३ ॥ ऋषि – यज्ञः प्राजापत्यः | देवता – भाववृत्तम् | छन्द – त्रिष्टुप् | स्वर – धैवतः
क्रियागुणवत्समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम् । वैशेषिक-१.१.१५ ।
द्रव्य क्या है?
जो क्रिया (action) तथा गुण (characteristic properties) का समवायिकारण (inherent in it) हो उसे द्रव्य (matter – particle) कहते हैं ।
गुण आत्मभाव है – अन्तर्निहित स्वभाव है । कर्म अनात्मभाव है – शक्ति सम्बन्ध से गुरुत्व, द्रवत्व, प्रयत्न, संयोग से उत्पन्न होनेवाला निसर्ग है (उत्क्षेपणादीनाम्पञ्चानामपिकर्मत्वसम्बन्धः । गुरुत्वद्रवत्वप्रयत्नसम्योगज ॥) ।
वस्तु क्या है?
कहा गया है कि गुणकूटो (निश्चलः, गृहम्) द्रव्यम् (द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम् । वैशेषिक-१,१.१६ ।) । कोई गुण जहाँ अकेले न रहकर – सारे गुण जहाँ एकत्र होकर – समवाय सम्बन्ध (अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानाम्यः सम्बन्धैहप्रत्ययहेतुः समवायः – जब तक वस्तु है, तब तक उसके गुणों का एक अन्यका साथ आधार-आधेय सम्बन्ध है, ऐसे सम्बन्ध) में रहते हैं, उसी को वस्तु कहते हैं । गुण, धर्म, भाव, एक ही अर्थ वाले होते हैं (ज्ञान का विषय जो ज्ञेय वस्तु, उसीको अर्थ कहते हैं) । इन गुण अथवा धर्म का एकात्मभाव से एक रूप से स्थिति ही समवाय है । लोक व्यवहार में समष्टि के प्रधान होने से उनमें प्रतिष्ठित अर्थों को गुण कहते हैं । द्रव्य इन गुणसमष्टि से धृत है अथवा वह गुणसमष्टि को धारण कर रखा है । अतः उस गुण अथवा गुणों को धर्म कहते हैं ।
इन गुणों अथवा धर्मों की सत्ता से ही वह गुणसमवाय रूप वस्तु अन्य वस्तुओं से विलक्षण (भिन्न) प्रतीत होता ही । अतः इन गुणों अथवा धर्मों को भाव कहते हैं (भावयति चिन्तयति पदार्थानीति – भू + भव तेश्चेति वक्तव्यम्, यथा नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः गीता) । इन भावों का अनुवृत्तिप्रत्यय (भिन्न-भिन्न वस्तुओं में देखने पर यह वही है – ऐसा प्रत्यय) होने से, इनको सामान्य अथवा जाति कहते हैं (भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव । वैशेषिक-१,२.४ ।
स्वविषयसर्वगतमभिन्नात्मकमनेकवृत्तिएकद्विबहुष्वात्मस्वरूपानुगमप्रत्ययकारिस्वरूपाभेदेनाधारेषुप्रबन्धेनवर्तमानमनुवृत्तिप्रत्ययकारणम् । कथम्प्रतिपिण्डम्सामान्यापेक्षम्प्रबन्धेनज्ञानोत्पत्तावभ्यासप्रत्ययजनिताच्चसंस्कारादतीतज्ञानप्रबन्धप्रत्यवेक्षणाद्यदनुगतमस्तितत्सामान्यमिति । तत्रसत्तासान्यम्परमनुवृत्तिप्रत्ययकारणमेव) ।
जात्याकृतिव्यक्तयस्तु पदार्थः (व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः – न्यायसूत्रम् २-२-६८) ॥
पदार्थ क्या है ?
पदवृत्तिविषयत्वं पदजन्यप्रतीतिविषयत्वं वा पदार्थत्वम् । शब्द के द्वारा उच्चार्यमाण पद का जो अर्थ हमारे मानसपटल पर आ जाता है, उसे पदार्थ कहते हैं । अनुवृत्तिप्रत्यय (एक को देखने के पश्चात् अन्य को देखने से यह वैसा है – यह भाव) को जाति कहते है । आकृतिः = संस्थानम् = अवयवसंयोगः। किसी वस्तुमें रहनेवाला धर्म, जो उसके स्वरूप को बनाए रखता है, वह उसका तत्त्व है । आकृति में यह तत्त्व नष्ट नहीं होता । जैसे वृक्ष, गौ, वानर, मनुष्य आदि कहने से उनका तत्त्व हमारे मानसपटल पर आ जाता है चाहे वह व्यक्ति (शब्द के द्वारा व्यक्त पदार्थ) नष्ट हो गया हो । व्यक्ति अनित्य है, परन्तु जाति और आकृति नित्य हैं ।
धर्मविशेष प्रसूतात् द्रव्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् । वैशेषिक-१,१.४ ।
धर्मविशेष से प्रसूत पदार्थ स्थितिसिद्ध (जिसका स्थिति इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध) हो कर भाव तथा भातिसिद्ध (जिसका स्थिति इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष न हो कर अप्रत्यक्ष रूप से सिद्ध हो, जैसे दिग्-देश-काल-आत्मा आदि) हो कर अभाव हो सकता है । द्रव्य-गुण-कर्म स्थितिसिद्ध हो कर भाव तथा सामान्य-विशेष-समवाय भातिसिद्ध हो कर अभाव होते हैं । यह वस्तु से भिन्न नहीं दिखते (अभूत्वा भाति) ।
जगत् के दो मूल तत्त्व हैं – आभु और अभ्व । आभु (आसमन्तात् भाति) वस्तु मात्र को अपनी सीमा में बान्ध लेती है (limits spread to a finite extent – स्पष्ट वृत्तिमान्) । आभु इस संसार के सभी चित् और अचित् वस्तुओं में नित्य तत्त्व के रूप में सदा रहने वाला एक मूल तत्त्व है । जिस प्रकार अद्वैतवेदान्त दर्शन में सृष्टि का मूल तत्त्व ब्रह्म है, सांख्य दर्शन में सृष्टि का मूल तत्त्व पुरुष है, न्याय दर्शन में सृष्टि का मूल तत्त्व परमाणु है, उसी प्रकार वैदिकविज्ञान में सृष्टि का मूल तत्त्व आभु है । आभु के अन्य नाम रस, आत्मा, ब्रह्म, अमृत, पुरुष, अव्यय, ज्ञान, सत्य आदि हैं । आभु द्रष्टा है । द्रष्टा का अर्थ है देखने वाला (Observer) ।
अभ्व (‘अभूत्वा भाति’ ‘न भवन् भाति’ ) का अर्थ है दृश्य जगत् अर्थात् दिखाई देने वाला सारा संसार (observable) । यह जगत् परिवर्तनशील है । इसीलिये यह विनाशशील है ऐसा इसकी प्रतीती होती है । जो संसार का रूप – मनुष्य, पशु, पक्षी, पर्वत, नदी, और घर आदि हैं, वे अभ्व के ही रूप हैं । जो वास्तविक रूप में नहीं है परन्तु विद्यमान रहता है । माया और प्रकृति के रूप में अभ्व को जान सकते हैं । बल, कर्म, माया, प्रकृति, मर्त्य, असत्य, आदि को भी अभ्व शब्द का पर्यायवाची माना है । रूप, कर्म और नाम ये तीनों अभ्व के स्वरूप हैं ।
शब्देनोच्चारितेनेह येन द्रव्यं प्रतीयते ।
तदक्षरविधौ युक्तं नामेत्याहुर्मनीषिणः। बृहद्देवता १।४२।
मन से रूप, प्राण से कर्म और वाक् से नाम बनते हैं । यहाँ रूप का अर्थ – आकार है । रङ्ग भी रूप ही है । जो संसार दिखाई देता है वह रूप ही है और उसका मूल कारण मन है । प्राण से क्रिया होती है । इसका तात्पर्य यह है कि प्राण के बिना अर्थात् वायु के बिना क्रिया (गति) नहीं होती है । गति का ही नाम क्रिया अर्थात् कर्म है । किसी कार्य के लिये जब कर्मेन्द्रियाँ क्रियायें करती हैं तो वहाँ प्राण या वायु ही क्रियाशील होते हैं । नाम के लिये वाक् कारण है अर्थात् संसार में हर एक वस्तु का नाम है । यह वाक् ही नाम रखती है । वाक् का अन्य नाम वाणी है । अब रूप, नाम और क्रिया ये तीनों संसार के हर एक वस्तु में रहते हैं । जो भी रूपवाला है उसका नाम अवश्य होगा ।
वस्तुधर्म (गुण अथवा भाव) पञ्चप्रकार के होते हैं । यह है – आश्रयभाव, प्रयोजकभाव, स्थायीभाव, व्यञ्जकभाव, तथा सञ्चारीभाव । इनमें से प्रथम तीन तथा अन्तिम को आधुनिक विज्ञानमें principal (n), angular (l), magnetic (m) quantum numbers and spin quantum number कहते हैं (The first three describe the size, shape, and orientation in space of the orbitals on an atom. Quantum spin is an intrinsic angular momentum) । व्यञ्जकभाव का आधुनिक अणुविज्ञान में स्थान नहीं है । आधुनिक मत भ्रामक है । अतः वैदिक मत का विचार किया जाता है ।
जहाँ एक धर्म अन्य धर्म का आश्रय हो कर रहता है, उसे उस धर्म का आश्रयभाव कहते हैं । इसे समझने के लिए त्राणुक (atomic) का स्वरूप (atomic structure) जानना पडेगा । प्रत्येक वस्तु दो भाग का मिश्रित रूप है – अग्नि (fermions) तथा सोम (bosons), इसीलिए कहागया है अग्निषोमात्मकं जगत् (बृहज्जाबालोपनिषत्, रुद्रहृदयोपनिषत्) । अग्नि वस्तुकेन्द्र में रहकर बाहर की दिशा में उत्सर्जन (विकिरण) करता है । उसका तीन विभाग है – स-ती-यम् – जो केन्द्र-महिमा-नियमन को दर्शाता है (तानि ह वा एतानि त्रीण्यक्षराणि सतीयमिति तद्यत्सत्त्दमृतमथ यत्ति तन्मर्त्यमथ यद्यं तेनोभे यच्छति यदनेनोभे यच्छति तस्माद्यमहरहर्वा एवंवित्स्वर्गं लोकमेति ॥ छान्दोग्योपनिषत् ८.३.५॥) ।
इनमें स अमृत है – सर्वगत परिमाण है । वह केन्द्र (center) से प्रधि (circumference) की दिशा में सदा बहता रहता है (radiates out) । ती, जो उस स को सङ्कोचित करता है (confines the outgoing radiation), वह मर्त्य है – असर्वगत परिमाण है । उनके मध्य में रहकर यम् उनका नियमन करता है । इन तीनों को आधुनिक विज्ञान में nucleus, electron shell, and space of the orbitals on an atom कहते हैं । जिस स्थान पर अग्नि के विच्छुरण को सोम सङ्कोचन करता है, उसको इलेक्ट्रान (electron) कहते हैं । इस अग्नि के विच्छुरण को principal quantum number (n) कहते हैं (The principal quantum number, n , describes the energy of an electron and the most probable distance of the electron from the nucleus. In other words, it refers to the size of the orbital and the energy level an electron is placed in) । अन्य धर्म आश्रयभावके उपकारक (अङ्गवत्) बन कर उस आश्रयधर्म में रहते हैं । अन्नसम्मित वस्तु में अग्नि, जलसम्मित वस्तु में सोम, वायुसम्मित वस्तु में इन्द्र, तेजसम्मित वस्तु में आदित्य आलम्बन हैं । अतः उन-उन वस्तुओं में वह-वह आलम्बन आश्रयभाव है ।
वस्तु प्रत्ययभेद से दो प्रकार के होते हैं – भावप्रत्यय (directly perceptible through sense organs or classical) तथा उपायप्रत्यय (indirectly perceptible or quantum) । उपायप्रत्यय (quantum) का दो विभाग है – देवाः तथा प्रकृतिलयाः (beyond quantum) । देवाः की सङ्ख्या तैन्तीस (३३) है (त्रयस्त्रिंशत् वै देवाः – वसु-gluons, रुद्र-electric and आदित्यः-magnetic effects that are perceptible) ।
विप्रकीर्ण (विभिन्न उत्कर्षयुक्त आलेखन) होने से आश्रयभाव तत्तत प्रसङ्गों में बदल जाता है । उसीसे प्रयोजकभाव बनता है (the number of subshells, or l, describes the shape of the orbital) । वस्तुके शरीरगत भिन्न-भिन्न कर्मों के अधिकार में नियुक्त देवता (mobile quantum effect) ही प्रयोजकभाव है (Azimuthal or angular quantum number or angular quantum number determines the three dimensional shape of the orbital. For a given value of n, it ranges from 0 to n-1) । यह देवताप्रयुक्त धर्म (जो किसी बाह्य कारण की अपेक्षा न करता हो) उस आत्मा (जिससे रहने से जिसका सत्ता हो, वह उसकी आत्मा है) का स्वभाव कहलाता है ।
उपादान द्रव्यों को स्थायीभाव कहते हैं (The orbital magnetic quantum number – ml or m – distinguishes the orbitals available within a given subshell of an atom. It specifies the component of the orbital angular momentum that lies along a given axis, conventionally called the z-axis, so it describes the orientation of the orbital in space) ।
आश्रयभाव, प्रयोजकभाव, स्थायीभाव – यह तीनों आत्मभाव कहलाते हैं । इनमें आश्रयभाव जीवात्मा है, प्रयोजकभाव अन्तरात्मा है, तथा स्थायीभाव भूतात्मा है ।
व्यञ्जकभाव तथा सञ्चारीभाव अनात्मभाव है । अनात्मभूत होनेपर भी इनमें जो भाव वस्तु से पृथक् नहीं रहते, तथा वस्तु से व्यभिचरित होने पर भी सामान्यरूप से वस्तु से वाह्यार्थ से नित्यसम्बन्धमें रहते है, उस अवच्छेदक (आवरक, सीमित करनेवाला भाव) को व्यञ्जकभाव कहते हैं । यह भाव दिग्-देश-काल-परिमाण-संख्या आदि है, जो आत्मभूत नहीं है, परन्तु वस्तु के बाहर से नित्यसम्बन्धमें रहते है ।
इन अवच्छेदक भावों से अवच्छिन्न (सीमित) होने पर ही वस्तुकी अभिव्यक्ति होती है । इन में अवयवों के वस्तु में उत्पन्न होने वाले अणुत्व (पारिमाण्डिल्य, मन), महत्व (द्वाणुक – mesons से ले कर विश्व-universe पर्यन्त), ह्रस्वत्व (relativity of dimensions), दीर्घत्व, आदि धर्मों को परिमाण (mass) कहते हैं । दिग्-देश-काल (position, space and time) आदि व्यञ्जकभावों के बिना वस्तु का स्वरूप नहीं बनता । इसीलिए वस्तुस्वरूप की स्थिति के नियामक इन अवच्छेदकों को उस वस्तु का छन्द (entanglement) कहते हैं ।
वस्तुस्वरूप स्थिति के नियामक इन अवच्छेदकों के अतिरिक्त अन्य समस्त व्यभिचारी वस्तुधर्म सञ्चारीभाव हैं (the direction of electron spin is one of these. Spin ms = ±½ – quantum spin is an intrinsic angular momentum. It is a property particles possess because they are that particle) ।
छन्द का स्वरूप तथा यह कैसे वस्तुको छन्दित (entangle) करते हैं (how the gluons entangle to create quarks), इस के विषयमें क्रमशः लिखा जाएगा ।
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