ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल, सूक्त ९०, ऋचा १२ तथा यजुर्वेद के ३१वें अध्याय के ११वें मन्त्र में कहा गया है कि –
ब्रा॒ह्म॒णो॑ऽस्य॒ मुख॑मासीद्बा॒हू रा॑ज॒न्य॑: कृ॒तः ।
-ऋग्वेद संहिता १०-९०-१२
ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्य॑: प॒द्भ्यां शू॒द्रो अ॑जायत ॥
उस परम्ब्रह्म का मुख ब्राह्मण था, बाहु के कारण क्षत्रिय बने, उसकी जंघाएं वैश्य हुए तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ ।
लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपादतः ।
(मनुस्मृति, अध्याय १, श्लोक ३१)
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥
लोगों के विशेषवृत्ति अथवा सामान्य लक्षण कथन के पश्चात् विशेष विवृत्ति (potential, talent) दर्शाने के लिए, मुख (धर्मरक्षा के साधक ज्ञान का प्रसार का माध्यम), बाहु (अर्थ, दारादि के साधक रक्षकबल का प्रभाव के माध्यम), उरु (काम, भोग आदि के साधक पोषक तत्त्वों का उत्पन्न तथा वितरण का माध्यम), पद (समाजके गतिशीलता का माध्यम) उपलक्षण से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र बाह्यलक्षण प्रकट किया । प्रथम तीन विशेष गुण (ज्ञान, शासन एवं रक्षा, भरण-पालन का उत्कर्ष – talent) के अधिकारी होने से उनके विषय में आसीत् (उपवेशनम्, आधारः), कृतः(विहितम्), यत् (बुद्धिस्थ तु उपलक्षित धर्मावच्छिन्नम्) कहागया । शुद्र सामान्य गुण (सर्वप्रकार के शिल्प – skill) के अधिकारी होने से उनके विषय में अजायत (कारण से कार्य रूप प्राप्ति) कहागया । यह किसी विशेष विषय में नहीं होने से (सर्वधारक शिल्प द्वारा पोषण करने से) इसे सामान्य कहा जाता है, जो वृत्ति कोइ भी कर सकता है (skill can be acquired) । सेवा चारों वर्णों का अधिकार है ।
महाभारत शान्तिपर्व में दो स्थानों पर कहा गया है –
एक वर्णमिदं पूर्वं विश्वमासीद् युधिष्ठिर ।
कर्म क्रियाभिभेदेन चातुर्वर्ण्य प्रतिष्ठितम् ।
सब ब्रह्मा से सृष्ट होने के कारण पूर्वकाल में सब ब्राह्मण थे । कालक्रम में कर्मभेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र हो गए ।
विश्वमें जो कुछ भी दृश्यमान (observables) है, वह सारे पशु कहलाते हैं (यत् अपश्यत् तस्मात् एते पशवः – शतपथब्राह्मणम् – 6-2-1-1) । पशुओं के पञ्चविभाग होते है – छन्द, पोष, अन्न, सलिल, अग्नि । (यहाँ पढें पशुओं का विस्तृत विवरण) प्राण सबका विधर्ता होनेसे (वयमेतत् बाणमवष्टभ्य विधारयामः – प्रश्नोपनिषद्) यह पाञ्चों प्राणमें ही रहते हैं (प्राणेष्वेते प्रतिष्ठिताः) । इनमेंसे भूतमात्रका जो आकार है, वह छन्द है । विशेष रूपसे अवयवों द्वारा छन्दित भूतमात्रा ही स्थितिशील (वस्) होनेसे वस्तु कहलाता है । बल, वीर्य, द्रविण भेदसे पोष त्रिविध है । शरीरसम्पत्ति बल है । मनसम्पत्ति वीर्य है । हाथीमें बल है । सिंहमें वीर्य है । यह दोनों आत्माके अन्तरङ्ग है । वित्तसम्पत्ति द्रविण है । यह आत्माके वहिरङ्ग है । इन तीनोंसे पुष्ट रहनेसे आत्मा महाशय वना रहता है । बिना इसके आत्मा अपनेको निर्बल, नीर्वीर्य, भाग्यहीन समझता है । आत्मभागको पुष्ट करनेके कारण इसे पोष कहाजाता है ।
वीर्यके ब्रह्म, क्षत्र, विट् भेदसे तीन विभाग होते हैं । इनमें से प्रथम दो अग्नि तथा तिसरा सोमप्रधान होते हैं । आती हुयी सोररश्मि सावित्र्याग्नि कहलाता है, जो क्षत्रवीर्य का जननी है । प्रतिफलित सौररश्मि गायत्र्याग्नि कहलाता है, जो ब्रह्मवीर्य का जननी है । आती हुयी सौररश्मिसे सवका निर्माण हुआ है । इसिलिये पुरुषसूक्तमें बाहु राजन्यः कृतः लिखा है । प्रतिफलित सोररश्मि ही हमारे दृश्य वनता है । हम किसी वस्तुको छू सकते है, परन्तु उसको देख नहीं सकते – उससे वितरीत होता हुआ किरण (reflected light) को हि देख सकते हैं । इसिलिये कहागया है कि अनवर्णे इमे भूमिः । यही प्रतिफलित रश्मि ही हमारे ज्ञानका कारण वनता है । ज्ञान ही वस्तुका प्रतिष्ठा वनता है । जब तक कोइ ज्ञान हमारे मनमें प्रतिष्ठित नहीं हो जाता, तव तक हम उस वस्तुको जान नहीँ सकते । इसिलिये इसी प्रतिफलित सोररश्मिको ब्रह्मवीर्य कहते हैं । जिसके द्वारा हम किसी वस्तुको आत्मसात् करते हैं, उसे मुख कहाजाता है । इसिलिये पुरुषसूक्तमें ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् कहा गया है ।
अग्नि विशकलित धर्मा है । सोम संकोचन धर्मा है । सोम ही पिण्डीकरणमें सहायक है । अनेक वस्तुओं का गण वनाकर उसके स्वरूप रक्षा करना तथा उसे पुष्टि प्रदान करना सोम का कार्य है । गण 49 प्रकारके होते हैं । इनमें प्रथम गणेश तथा अन्तिम गण हनुमान् जी है । विश्वके समस्त गणों में जो सदा विराजमान होकर दीप्तिशील होते है, उन्हे विश्वे दीव्यतीति अर्थमें विश्वदेवः कहा जाता है । इनके संख्या दश है, जो दो दो के पाञ्च जोडेमें विभिन्न कर्ममें पुजित होते हैं । ऊर्णुयते आच्छादते इति ऊरु अर्थमें जानु का उपरिभाग को ऊरु कहते हैं (ऊर्णुञ् आ॒च्छाद॑ने) । माँ अपने जानुमें विठाकर बच्चोंका पालन पोषण करती है । विश्वदेवः ही सवका पोषण करते हैं । इसिलिये पुरुषसूक्तमें ऊरू तदस्य यद्वैश्यः कहा है । इसिलिये भी सवका पालनहार विष्णुको वैश्य कहते हैं ।
सवको पुष्टि देना पूषा का कार्य है । पूषतीति – पुषँ पुष्टौ॑ तथा पुषँ धार॑णे अर्थमें पोषक तथा धारक तत्वको पूषा कहते हैं । द्रवित होना सोम का कार्य है । छान्दोग्य उपनिषद् में राजा ज्ञानश्रुति पौत्रायण को ऋषिने शूद्र कहकर सम्बोधन किया कारण यह था कि वह पुत्रशोकमें द्रवित होकर रोदन करता था । आदित्यों मे से एक होने पर भी, द्रवित होकर उसमें शोक जात होनेसे पुषा को सोम भी माना जाता है । इसिलिये बारह आदित्यों मे से एक होने पर भी, सोम अंश के कारण पुषा को शूद्र माना जाता है । इसिलिये कहागया है कि पुषा भग्नदन्त है – जिसके दन्त नहीं होते । पद गतिशीलता के प्रतीक है – पदँ॒ गतौ॑ । यह स्थैर्य का भी प्रतीक है । समाजको गति प्रदान कर के स्थिर (नियन्त्रित) रखना पद का कार्य है । गति अग्नि का लक्षण है । जात सोम ही उसे स्थित रख सकता है । इसिलिये पुरुषसूक्तमें पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः कहा गया है ।
पञ्चपशुओं में से अन्तिम पशु अग्नि, पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अजा रूपसे पञ्चधा विभक्त है । सौर सम्वत्सराग्नि पार्थिव उखामें वर्षभर रहकर वैश्वानर वनती है । वैश्वानर चित्ररूपमें परिणत होता है । चित्र कुमार वनता है । कुमाराग्नि पुरुषादि पञ्चपशु रूपमें परिणत होती है । चेतन प्राणियों में शरीर निर्माण करने वाला वैश्वानर नामक पुरुषपशु है । अन्य पशुओं से मनुष्यमात्रमें वैश्वानर भाग अधिक मात्रामे रहनेसे मनुष्यों को पुरुष कहा जाता है ।
जिसमें जो भाग अधिक मात्रामे रहता है, उसे उसी मात्राधिक्य के अनुपात से वर्णन किया जाता है । इसिलिये उसे वर्ण कहते हैं ।
- जिस पुरुषमें गायत्र्याग्नि का मात्रा अधिक रहता है, उसमें ज्ञान विकिरण का सामर्थ्य अधिक रहता है । इसिलिये उसे ब्राह्मण कहते हैं । उसमें आन्विक्षीकि का प्राधान्य रहता है ।
- जिस पुरुषमें सावित्र्याग्नि का मात्रा अधिक रहता है, उसमें समाजका गठन और नियन्त्रण करने का सामर्थ्य अधिक रहता है । इसिलिये उसे क्षत्रीय कहते हैं । उसमें त्रयी (त्रैगुण्यविषया वेदा) का प्राधान्य रहता है ।
- जिस पुरुषमें वैश्वदेव प्राण का मात्रा अधिक रहता है, उसमें समाजका पोषण करनेका सामर्थ्य अधिक रहता है । इसिलिये उसे वैश्य कहते हैं । वह वृत्ति प्रदान करनेके कारण उसके कर्म वार्ता कहलाता है (वृत्तिरस्यामिति) ।
- समाजके धारक तत्व पुषा सोम का मात्रा जिस पुरुषमें अधिक रहता है, उसे शूद्र कहते हैं । सोम के सङ्कोचन धर्म के कारण उसमें प्रवृत्ति धर्म अल्प तथा समर्पण भाव अधिक रहता है ।
यह सव वर्ण के सार भाग का विभाग है । इनके विषम संयोगसे वर्णलक्षणनें संकीर्णता आ जानेसे वर्णसङ्कर हो जाता है, जिसके विषयमें मनु, औषीनसी आदि के संहितामें विशेष आलोचना किया गया है । परन्तु कलियुगमें किसी भी वर्ण का सार भाग नहीं रह गया । अशुद्धाः शूद्रकल्पाश्च ब्राह्मणाः कलिसम्भवाः । नन्द राजा अन्तिम क्षत्रीय थे । कलौ वैश्यः शूद्रसमा । कलियुगमें सव का केवल मल भाग रह गया है । अब के चार वर्ण क्रमशः अन्यज, अन्त्यावयवी, दस्यु तथा म्लेच्छ कहलाते हैं । इसका प्रमाण, आजकलके व्यवसायी, जनता को लुटने के लिये दस्युवत् आचरण करते हैं ।