पूर्व में परमेश्वर का मन-प्राण-वाक् के विषय में कहा गया है। मन तीन प्रकार का होता है।
- प्रथम – प्राणों का प्रभव। समस्त पकार के प्राण मन से ही प्रकट होते हैं – मन ही प्राण का प्रभव (उत्पत्ति स्थान) है (प्राणो वा अर्कः – शतपथब्राह्मणम् – 10-4-1-13, प्राणा रश्मयः – तैत्तिरीयब्राह्मणम् – 3-2-5-2)।
- द्वितीय – मन ही प्राण की प्रतिष्ठा है। प्राण रूपी वायु के लिए आकाश रूपी मन ही आधार है (वायुर्मे प्राणे श्रितः। प्राणो हृदये। हृदयं मयि। अहममृते। अमृतं ब्रह्मणि – रूद्री न्यास)।
- तृतीय – इन सब प्राणों का मन ही परायण है – प्रलय स्थान है। प्राण बल रूप से क्रिया करके अन्तमें उसी मनमें विलय हो जाता है। तभी तो चेतना लुप्त होने के साथ साथ प्राण नहीं रहता।
कौषीतकि ब्राह्मणम् 8-4 में कहा गया है कि वायुर्वै प्राणः। ऐतरेय ब्राह्मणम् 9-3-26 में भी कहा गया है कि वायुर्ही प्राणः। इससे प्राण का वायु रूपत्व सिद्ध है। परन्तु प्राण वायु नहीं है। न वायुक्रिये पृथगुपदेशात् – प्राण वायुक्रिया नहीं है, कारण इसका पृथक् उपदेश किया गया है – यह वेदान्त वाक्य से यही प्रमाणित होता है। सांख्यप्रवचन भाष्य 2-31 में इसका समाधान किया गया है कि प्राणादि पञ्च वायुवत् सञ्चाराद् वायवो ये प्रसिद्धाः – प्राणादि पञ्च, वायु जैसा सञ्चरण करते हैं, अतः उन्हे वायु कहते हैं। प्राण एक करण है जो कार्यसिद्धि में सहायक है। समस्त ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रियों के लिए एक एक करण है जिससे उनका कार्यसिद्धि होती है – जैसे दर्शनेन्द्रिय के लिये चक्षु। इन्द्रियों को छोडकर बाकी शरीर के जो अङ्ग हैं – जैसे हृदय, यकृत्, प्लीहा, मूत्रकोष आदि – उनके जो करण शक्ति है, वही प्राण है। अतः वैशेषिक में भूतों के शरीर-इन्द्रिय-विषय भेद करते समय वायु का एक अधिक – प्राण – भेद करना पडता है।
इसमें प्राण के आधार रूप आकाश जो मन है, वह भूमा है – अनन्त है। उसी मन रूपी आकाश में यह सब कुछ दृश्यमान वस्तु विद्यमान है। मन ही परमेश्वर का रूप है। मन प्राणशक्ति के बिना नहीं रहता। अपने प्रतिद्वन्दी का संवरण अथवा सञ्चारण करने के कारण प्राण को बल कहते हैं (बलते विपक्षान् हन्तीति – बल॒ऽ सं॒वर॑णे स॒ञ्चल॑ने च)। यह बल का अनन्तानन्त खण्ड मन में व्याप्त रहते हैं। प्राण बिना वाक् के नहीं रहते। मन से प्रेरित हो कर प्राण वाक् में ही क्रिया रूप में व्यक्त होते हैं।
वाक् खण्ड रूप होने से अनन्त मात्रा में होती है। प्रत्येक मात्रा में आत्मा, मन और प्राणके संयोग से इच्छा उत्पन्न होती है, जो प्राणके कारण गतिशील रहता है (इषँ गतौ॑) तथा जब तक इच्छा पूर्ण नहीं हो जाती पुनःपुनः जागरित होता है (इषँ आभी॑क्ष्ण्ये – आभीक्ष्ण पुनः पुनः इति यास्क निरुक्ते 2-7-25)। इससे अन्य बलखण्डों के साथ मिलकर अपनेको व्याप्त करने के प्रवृत्ति उत्पन्न होता है। अतः इसे अशनाया (अशूँ॒ व्या॑प्तौ सङ्घा॒ते च॑) कहते हैं। अशनाया भोजन करने की इच्छा भी है (अशँ भोज॑ने), जो अन्न से तृप्त होता है (अन्नाद्वा अशनाया निवर्तते पानात्पिपासा – शतपथब्राह्मणम्)। अन्न को हम अपने भीतर आत्मसात् कर उसे खण्डित करते हैं और अन्य पदार्थों से मिश्रित कर (भु॒जोँ कौटि॑ल्ये) उसके रस को शरीर में व्याप्त कर शरीर का पालन करते हैं (भु॒जँ पालनाभ्यवहा॒रयोः॑)।
अशनायावृत्ति में प्रत्येक वाक् खण्डों के परमाणु अन्य परमाणुओं को अपने उदर में लेने के लिए आकर्षित करने की इच्छा करते हैं। इस आक्रमण के फलस्वरूप उनमें संघर्ष हो कर ताप बढता है। उसे तप कहते हैं। तप से उनमें जो परिपाक होती है, उसके फलस्वरूप वह अपने मूलस्वरूप को त्याग कर वैकारिक स्वरूप को प्राप्त करते हैं। पूर्णरूप से वैकारिक स्वरूप को प्राप्त करने से पूर्व जो क्षोभित अवस्था है, उसे श्रम कहते हैं। इसीलिए शतपथब्राह्मणम् 6-1-1-8 में कहागया है कि – सोऽयं पुरुषः प्रजापतिरकामयत् भूयान्त्स्यां प्रजायेय इति। सोऽश्राम्यत्। स तपोऽतप्यत। स श्रान्तस्तेपानो ब्रह्म एव प्रथममसृजत त्रयीमेव विद्याम्। सैवास्मै प्रतिष्ठाऽभवत्। तस्मादाहुः ब्रह्म अस्य सर्वस्य प्रतिष्ठा। प्रतिष्ठा हैषा यद्ब्रह्म। गोपथब्राह्मणम् पूर्व 1-1 में भी कहागया है – ॐ ब्रह्म ह वा इदमग्र आसीत्। स्वयन्त्येकमेव तदैक्षत्। महद्वै यक्षं। तदेकमेवास्मि हन्ताहं मदेव मन्मात्रं द्वितीयं देवं निर्मम इति। तदभ्यश्राम्यदभ्यतपत् … आदि। इसी परिपाटी से ईश्वर अपने वाक् से अनन्तानन्त प्रकार की सृष्टियाँ करते रहते हैं। इसमें वाक् समवायीकारण (constituent cause), प्राण असमवायी कारण (catalytic cause) तथा मन निमित्तकारण (primary cause) होता है। इसमें अपूर्व (नवीन) कुछ सृष्टि नहीं होता। केवल वाक् खण्डों का परष्पर संसर्ग एक नवीन रूप ले लेता है। इसी संसर्ग (संसृष्टि) के अभिप्राय से इसे सर्ग अथवा सृष्टि कहते हैं।
एक अपरिमित (अपरिच्छिन्न) वस्तुका एक मित (परिच्छिन्न) वस्तुके साथ निरूढ (लक्षणा द्वारा अर्थप्रतिपादिक) मात्रामें सङ्क्रमण करना (एकत्र होना) संसर्ग (interaction) है। संसर्गज कर्म दो प्रकार के होते हैं –
१) कर्म में कर्म (interaction between forces) और
२) अकर्म में (स्थिर वस्तु में) कर्म (interaction between a charged body with a charge neutral body)।
जब वाक् के एक परमाणु के स्थान पर अन्य परमाणु रख दिया जाय, तो उसे चिति कहते हैं। बल से बल का चिति (confinement) से विश्वसञ्चार होता है। कर्म में कर्म का ५ प्रकार के संसर्गभेद है – स्थनावरोध (exclusion principle), सामञ्जस्य (superposition), एकात्मक (complementarity principle), एकभाव्य (color charges of QCD) और भक्ति (translation of motion)। रस अकर्मक है। बल के साथ रस का तादात्म्य सम्बन्ध (coexistence) तो है, परन्तु उसमें सृष्टि सम्भव नहीं है। दोनों स्वतन्त्र और परष्पर असङ्ग है। जब बल सखण्ड हो कर – स्वयं परिच्छिन्न हो कर, अपने सम्बन्ध से रस को परिच्छिन्न कर देता है, तब समुद्रजल में तरङ्ग जैसे रस भी परिच्छिन्न प्रतीत होता है। उस परिच्छिन्न – मित (मापने योग्य) भाग (अकर्म) में जब अन्य बल का सम्बन्ध होता है, तब सृष्टि सम्भव होता है।
अकर्म में कर्म के २ मुख्य भेद है – १) स्वरूप सम्बन्ध (तादात्म्य, जिसमें स्वरूप विकृति न हो) और २) वृतित्व सम्बन्ध (जो शक्त्याश्रय से हो)। स्वरूप संसर्गी बल ही भाव (characteristic) है। वृत्तित्व संसर्गी बल ही कर्म (operation) है। इन सम्बन्धों का तीन तीन विभाग है। स्वरूप सम्बन्ध का विभाग – १) विभुति, २) योग और ३) बन्ध। वृतित्व सम्बन्ध का विभाग – १) आसक्ति, २) ऊदार, ३) समवाय। जहाँ दो तत्त्वोंके सम्बन्धसे एक अपने स्वरूपमें रहे तथा अन्य परतन्त्र होजाये, उसे विभूतिसम्बन्ध कहते हैं। रस और बलका सदा विभूतिसम्बन्ध रहता है। बलविशिष्ट रस के साथ बलान्तर के सम्बन्ध से यदि दोनों का मूलस्वरूप रहते हुये एक तृतीय तत्त्व वनता है, तो उसे योग कहते हैं। परन्तु यदि दोनों का मूलस्वरूप नाश होकर तृतीय तत्त्व वनता है, तो उसे बन्ध कहते हैं। विभूतिसम्बन्धसे अव्ययपुरुषका, योगसम्बन्धसे अक्षरपुरुषका और बन्धसम्बन्धसे क्षरपुरुषका प्रादुर्भाव होता है। इस प्रकार त्रिविधपुरुष हैं। उन्हीसे सवकुछ वना है – पुरुषं एवेदगं सर्वम्।
पुरुषके साथ प्रकृतिका वृत्तित्व सम्बन्ध है। जहाँ आश्रित आश्रयका अपेक्षा न करके कर्मकरने केलिये स्वतन्त्र है, उसे वृत्तित्वसम्बन्ध कहते है। अथवा बलविशिष्ट पुरुषका बलान्तर संसर्गको वृत्तित्वसम्बन्ध कहते है। उसका ३ अवान्तर भेद है – आसक्ति, उदार, समवाय। सङ्गवृत्ति आसक्ति। उसमें लोप, विकार अथवा निष्ठ होकर बल विश्राम करता है। यह क्षरका वृत्ति है – अक्षरका नहीं। शुद्धकर्ममें शुद्धरसका सम्बन्ध को अव्ययाख्य परपुरुष कहते हैं। इनका विश्वके साथ सम्बन्ध उदारवृतित्व है। इनसे सामान्य और विशेषभाव वनता है। भावों में जो नानाविधता है, वह विशेष कहलाता है। एक भाव में अनन्त विशेष होते हैं। पदार्थों में भिन्नत्व नाम-रूप-कर्म कृत है। इसमें भिन्नत्व ही विशेष है। दो कर्मविशिष्ट अक्षरसे समवाय सम्बन्ध वनता है। वैशेषिक इन सवके विषयमें चर्चा करता है।
ज्ञानजन्या भवेदिच्छा, इच्छाजन्या कृतिःभवेत्।
कृतिजन्या भवेत्कार्यम्, तदेतत्कृतमुच्यते ॥
किसी अभाव के ज्ञान से उसे प्राप्त करने की इच्छा होती है। काम, अभिलाषा, राग, सङ्कल्प, वैराग्य, उपधा, एवं भाव आदि इच्छा के ही भेद है। मैथुन की इच्छा काम है। भोजन करने की इच्छा अभिलाषा है। बार बार विषय भोगने की इच्छा (अतृप्त इच्छा) राग है। शीघ्र किसी कर्म करने की इच्छा सङ्कल्प है। बिना स्वार्थ के अपर के दुःखमोचन की इच्छा कारुण्य है। दोष के ज्ञान होने पर विषयत्याग की इच्छा वैराग्य है। किसी अन्य को वञ्चना करने (ठगने) की इच्छा उपधा है। कुछ करने की इच्छा चिकीर्षा है। कुछ छोडने की इच्छा जिहीर्षा है। आदि।
उस इच्छा से कृति (कृ॒ञ् कर॑णे – क्रियते विधीयते हन्यते निष्पाद्यते वा – कृ॒ञ् हिं॒साया॑म् – पुरुषप्रयत्न) का आरम्भ होता है। प्रयत्न, संरम्भ, उत्साह आदि पर्यायवाची शब्द है। इसका दो भेद है – जीवनपूर्वक तथा इच्छा-द्वेष-पूर्वक। जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति सर्वकाल में प्राणादि वायु का कार्य तथा अन्तःकरणों को विभिन्न इन्द्रियों से युक्त करने का कार्य जीवनपूर्वक (जीवनयोनि) प्रयत्न है। धर्म और अधर्म से साहाय्यप्राप्त आत्मा और मन के संयोगसे इसकी उत्पत्ति होती है। हितों की प्राप्ति तथा अहितों के परिहार के उपयुक्त क्रिया एवं शरीर की स्थिति का कारण इच्छा-द्वेष-पूर्वक प्रयत्न है। यह इच्छा और द्वेष से साहाय्यप्राप्त आत्मा और मनके संयोगसे इसकी उत्पत्ति होती है। यही क्रिया जब सिद्ध हो जाती है तब मूर्त रूप में दृष्टिगोचर होने लगती है। इसलिए इसे कृत (क्रियते सत्ये स्थाप्यते लोको यत्र) कहते हैं। अतः कर्मकी प्रक्रिया ज्ञानकी स्वाभाविक परिणति है। परन्तु आत्मा को तो नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः कहा गया है (गीता 2-24) – यह नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है। तो फिर आत्मा में क्रिया कैसे उत्पन्न हो सकती है। इसके लिए आत्मा का स्वरूप जानना होगा।
(क्रमशः)