वेद स्तुति (नाम-रूप-कर्म) मीमांसा – 5 आत्मा

आत्मा शब्द सापेक्ष है। जैसे पिता अथवा पुत्र कहसे से प्रश्न उठता है कि किसका पिता अथवा पुत्र, उसीप्रकार आत्मा कहने से प्रश्न उठता है कि किसका आत्मा। “यदुक्थं सत् यत् साम सत् यद् ब्रह्म स्यात् स तस्य आत्मा” – जो किसी का उक्थ-ब्रह्म-साम है, वह उसकी आत्मा है। उक्थ क्या है। “यत उतिष्ठति तदुक्थम्” – जिस आलम्बन से वस्तुस्वरूप उठता है – उत्पन्न होता है, उसे उस वस्तु का उक्थ कहते हैं। उपादानकारण ही उक्थ है। इसीलिए  यही वस्तुका प्रभव है। “ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः” – इस तैत्तिरीयब्राह्मणम् (३/१२/९/१-२) वचन से समग्र पिण्ड ही ऋक् है, जो अणुओं के चयन द्वारा मूर्च्छित होने से मूर्त्ति कहलाते हैं। अवसान रूप साम ही परायण है – अन्तिम रहने का स्थान है। वह उक्थ ही यावत् कार्यमें आलोमेभ्यः आनखाग्रेभ्यः सर्वत्र समान रहने से “ऋचा समं मेने” – इस व्युत्पत्ति से साम कहताता है। साम महिमामण्डल है (सर्वं तेजः सामरूपं ह शश्वत् – तैत्तिरीयब्राह्मणम् (३/१२/९/१-२)। हम वस्तु का महिमामण्डल से निर्गत विकिरण से ही वस्तु के रूप को देख पाते हैं। प्रतिष्ठा तत्त्वका नाम ही ब्रह्म है (सैवास्मै प्रतिष्ठाऽभवत्। तस्मादाहुः ब्रह्म अस्य सर्वस्य प्रतिष्ठा। प्रतिष्ठा हैषा यद् ब्रह्म। शतपथब्राह्मणम् –६/१/१/८)। बृंहति बर्द्धते (बृहिँ वृद्धौ॑, बृहँऽ वृद्धौ॑ वा) अर्थमें जिसका विस्तार सबसे बडा है, उसे ब्रह्म कहते हैं। अथवा शब्दायमान हो कर (बृहिँ शब्दे॑ च) तरङ्गन्याय सर्बत्र व्याप्त – सबको छन्दितकर रखनेवाला तत्त्वको ब्रह्म कहते हैं। अथवा ब्रह्म शब्द भृ (डुभृ॒ञ् धारणपोष॒णयोः॑) धातु से भी हो सकता है जिसका अर्थ धारण-पोषण करना। बिभर्त्ति – इस व्युत्पत्ति से मिट्टि धट का ब्रह्म है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मायें एक नहीं अनेक है। 

यह उक्थ-ब्रह्म-साम विना एक अधिष्ठान के प्रतिष्ठित नहीं हो सकते। उस अधिष्ठान के विषय में अनेक मत है। कोइ इन्द्रिय प्रत्यय को आत्मा कहता है, तो कोइ इन प्रत्ययों के अतिरिक्त उनका अधिष्ठान को आत्मा मानता है। कुछ इन प्रत्ययों का सञ्चित होने का कोश (अन्नमय अथवा वाङ्ग्मय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय) को आत्मा कहते हैं तो कोइ इन कोशों के अतिरिक्त उनको अपने गर्भ में रखनेवाला नर्विकल्पक, निर्विशेष. निष्कल, निरञ्जन तत्त्वविशेष को आत्मा कहते हैं। कुछ लोग यज्ञ को ही आत्मा मानते हैं। यह दो प्रकार का है। मूलरूप से अग्नि का चयन करना अथवा पुनश्चयन करना प्रथम यज्ञ है। अग्नि में सोमाहुति होना (मूलरूप से – अग्नि में घी डालना नहीं) द्वितीय यज्ञ है। प्रथम यज्ञमें आत्मा बनता है। द्वितीय यज्ञसे उस आत्मा की जीवनयात्रा रूपी स्थिति रहती है। आनन्दमय शान्त परिवेशमें स्थित एक क्षेत्रको अन्नाद (धारक) गुणसम्पन्न होने से अग्नि कहा जाता है। उसी अग्निपर आनन्दादि पञ्च चितियाँ (चुनाव) अन्तर्याम सम्बन्धसे होती रहती है। आनन्द और विज्ञान मन से ही अनुभव की जाती है। अतः इन तीनों को एक मन कहने से मन-प्राण-वाक् (अन्न) तीन कोश वनते हैं। प्राण-वाक् (अन्न) पर पुनश्चिति होती है। स्त्री-पुरुष संयोग में मन का प्राधान्य है। वह जानते हैं कि परष्पर अनुरक्त है। यही जानना विज्ञान है। इससे उनको आनन्द मिलता है। शृङ्गार क्रिया प्राणप्रधान है। शुक्र-शोणित अन्न से बनते हैं। इन सबके समाहार से सन्तानरूपी बीज वनता है। 

चितियाँ तीन प्रकार की होती है – बीज चिति, देव चिति, भूत चिति। इन में विद्या, अविद्या ओर कर्म बीज है। भोग और उससे निवृत्ति में यही तीन कारण हैं। विद्या से ही मोक्ष मिलता है। अविद्या से क्लेश। विद्या शब्द से सविकल्पक ज्ञान, निर्विकल्पक ज्ञान और वेद (वस्तु का ज्ञान), और अविद्या शब्द से अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश – इस क्लिष्टवृत्ति समझना चाहिए। कर्म से पूण्य, पाप और उनके तीन विपाक (जाति, आयु, भोग) तथा कर्मजन्य अतिशय जिसे शुक्र कहते हैं और जिससे बार बार क्लेश की समृद्धि हुआ करती है, समझना चाहिए। इन तीनों विद्या-अविद्या-कर्म प्राणमय वाक् पर रहने से बीजचिति कही जाती है। इसके सम्बन्ध से जीवात्मक वाक् पर दिव्यलोक से अमृतरूपी पञ्च दिव्यप्राण पञ्च मर्त्य वाक् (आकाश, पर्ज्जन्य, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी) के साथ आ कर अन्तर्याम सम्बन्धसे चीयमान हो जाते हैं। इनमें जितने प्राण हैं, उससे देवचिति और जितने भूतप्राण हैं, उससे भूतचिति होती है। पर्ज्जन्य (पृषुँऽ सेच॑ने हिंसासङ्क्लेश॒नयो॑श्च) वायुविशेष है, जिसे कहीँ कहीँ पर ब्रह्मा (बृहत् आकार तथा सूर्यादि का उसके चतुर्दिक् रज्जुवत् बद्ध रूप से परिभ्रमण करने के कारण) और कहीँ पर अभिजित नक्षत्र (Vega in the northern constellation of Lyra – ज्योतिष में इसका स्वामी ब्रह्मा माना जाता है) भी कहा गया है (आधुनिक विज्ञान के मत में ख्रीष्टपूर्व 12000 वर्ष के समय यह ध्रुवतारा था और वर्ष 13727 के समय पुनः ध्रुवतारा वनेगी। वैदिक मान्यतायें इससे भिन्न है, परन्तु सौरमण्डल इसका परिक्रमा करता है, यह माना जाता है)। वेद में कहीं कहीं इसे इन्द्र और कहीं कहीं दिक् शव्द से कहा गया है। 

यह पञ्च दिप्तिमान देवता (दिवुँ क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिग॒तिषु॑) प्राण रूप से शरीर में प्रवेश कर चार प्रकार का कर्म करते हैं। 

  1. अन्तश्चर हो कर शरीर के धातुओं का निर्माण कर शरीर का स्वरूप संघटन करते हैं। प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान – यह अन्तश्चर प्राण हैं। 
  2. बहिश्चर हो कर शरीर के वाहर भौतिक पदार्थों में से शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध रूपी भूतरसों को ग्रहण कर शरीर के भीतर आत्मा में पहुँचाते हैं। मन-वाक्-प्राण-चक्षु-श्रोत्र – यह बहिश्चर प्राण हैं।
  3. सदा सञ्चरणशील द्युः लोक में  (द्यु॒ अभि॒गम॑ने) चार हो कर वहाँ के देवताओं के रसों को लेकर उनको शरीर के भीतर आत्मा तक पहुँचाते हैं। आकाश-पर्ज्जन्य-सूर्य-सोम-अग्नि – यह द्युः लोकस्थ प्राण हैं। यह उपास्य रूप से शरीर की धारक आत्मा की पुष्टि करते हैं। तेज तथा श्री, यश तथा कीर्त्ति, व्यष्टि तथा ओज, महः, और ब्रह्मवर्चस – यह पाञ्च उपास्य रूप हैं। चिति के कारण इन को चेतन तत्त्व कहा जाता है। 
  4. इन पाञ्च देवचितियों के प्रकाश से भी परे इन का आश्रय जो परेरजा नामक निष्कल निरञ्जन एक ध्रुव पदार्थ है, वह सव ज्योतियों का भी ज्योति जो शरीर में प्रवेश करने पर अहं (मैं) का ज्ञान का उदय होता है, वही मुख्य देवचिति है (तस्य भासा सर्वमिदं बिभातिमुण्डक 2-2-10, कठे च)। वही विज्ञान आत्मा कहलाता है। वही ईश्वर है।

उस सर्वज्योतिर्मय के आश्रय में जो पाञ्च देवचितियाँ कही गयी है, उनमें से प्रत्येक के साथ भूत भाग आ कर भूतचिति करते हैं। आकाश से आकाश, पर्ज्जन्य से वायु, सूर्य से तेज, चन्द्र से आप और पृथ्वी से पृथ्वी का सर्जन होता है। यह पञ्चभूत अपने सूक्ष्मरूप में शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध रूप से आत्मा में सन्निविष्ट होते हैं। यह बीज रूप से ग्राहक हो कर आत्मा में रहते हैं। तभी हमें इन का ज्ञान होता है। इन्हीं के बल से इच्छा उत्पन्न हो कर इन पाञ्चों को ग्रहण करनेवाली पाञ्च इन्द्रियाँ होती हैं। परन्तु उस भूतचिति के उपर अन्य प्रकार की और पाञ्च भूतचितियाँ होती है। वह है – भूतात्मचिति, पुरुष चिति, वेदचिति, लोकचिति, धातुचिति। इन पाञ्चों भूतचिति भी प्रथम भूतचिति के उपर ही होती है। अतः यह पाञ्च भूतचितियाँ पूर्वोक्त तीन चितियों के अन्तर्गत है। पूर्व के तीन चितियों के उपर इन पाञ्चों का पुनश्चिति से जो स्वरूप निष्पन्न होता है, वही शतपथब्राह्मणम् तथा कठोपनिषत् वर्णित अग्निचयन है। यही यज्ञमय आत्मा है। 

यहाँ प्रश्न उठता है कि तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है कि आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः आदि। यहाँ कहा जा रहा है कि आकाश से आकाश, पर्ज्जन्य से वायु, सूर्य से तेज आदि जो श्रुति का विरुद्धाचरण करता प्रतीत होता है। इसका उत्तर यह है कि भूतों के रूपों का पञ्च विभाग है स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय, अर्थवत्त्व। इन में पृथिव्यादि का गन्धादि गुण और आकारादि धर्म स्थूल शब्द के द्वारा परिभाषित किया जाता है। यह भूतों का प्रथम रूप है। आकारयुक्त एवं शब्द-स्पर्शादि विशेष युक्त भौतिक भाव में (भूमा रूप से) व्यवस्थित द्रव्य हीं स्थूल है। भूतों का द्वितीय रूप स्वसामान्य – जैसे पृथिवी का मूर्ती (सांसिद्धिक काठिन्य), जल का स्नेह, अग्नि का उष्मता, वायु का प्रणामिता (नियत सञ्चरणशीलता), आकाश का सर्वगामिता। शब्दादि इस सामान्य का विशेष है। जैसे कहा गया है – एकजाति समन्वितानामेषां धर्ममात्र व्यावृत्तिः। एकजाति समन्वित पृथिव्यादि का धर्ममात्र के द्वारा स्वजातिय वस्त्वन्तर से व्यावृत्ति अथवा भेद किया जाता है। सामान्य और विशेष का समुदाय ही द्रव्य है। भूतों का तृतीय रूप है भूतकारण तन्मात्र। उसी का अवयव ही परमाणु है (आजकल की वैज्ञानिक भाषा में Planck scale)। अविशेष तन्मात्र के विशेष भूत है। पञ्च तन्मात्र और अस्मिता (जिसका वैशेषिक के मन में अन्तर्भाव है) सत्तामात्र महानात्मा के छह अविशेष परिणाम है। यहीं तक क्षर का सृष्टि है। वैशेषिक यहीँपर उपरत होता है। इसके आगे अक्षर का प्राधान्य है और सांख्य का साम्राज्य है। 

उस सत्तामात्र महानात्मामें यह  अविशेष सकल अवस्थान करने के कारण विवृद्धि का चरम सीमा प्राप्त होते हैं और लीयमान हो कर उस सत्तामात्र महानात्मामें अवस्थान करते हुये अर्थात तादात्म्यकत्व प्राप्त हो कर निःसत्तासत्त, निःसदसत्, निरसत्, अव्यक्त और अलिङ्ग जो प्रधान अथवा प्रकृति, उसमें प्रलीन होते हैं। अविशेष सकलका उपरोक्त परिणाम लिङ्गमात्र परिणाम है। निःसत्तासत्त अलिङ्ग परिणाम है। पुरुषार्थता अलिङ्गावस्था का हेतु नहीं है। अतः उसे नित्या कहा जाता है। विशेष, अविशेष, लिङ्गमात्र के आदि में पुरुषार्थता निमित्तकारण है। अतः इन अवस्थात्रयों को अनित्य कहा जाता है। वैशेषिक में इनका विचार नहीं किया जाता। अतः परमाणु को कारणगुणपूर्विका न्याय से नित्य कहा जाता है। 

गुण सकल सर्वधर्मानुपाती हैं। वह प्रत्यस्तमित अथवा उपजात नहीं होते। गुणान्वयी, आगमापायी, तथा अतीत और अनागतव्यक्ति के द्वारा प्रति कार्य में गुणत्रय उत्पत्तिविनाशशील न्याय में प्रत्यवभाषित होते हैं। लिङ्गमात्र अलिङ्ग का प्रत्यासन्न (अव्यवहित कार्य) है। अलिङ्गावस्था में वह (लिङ्गमात्र) संसृष्ट (अविभक्त अर्थात् अनागत रूपमें स्थित) हो कर व्यक्तावस्था में क्रम-अनतिक्रमणीय होने से विविक्त अथवा भिन्न होते हैं। अव्यक्त से महान, उससे अहङ्कार आदि सर्गक्रम है। नियमाबद्ध सर्गक्रम को अतिक्रमण करना सम्भव नहीं है। अतः कहा गया है कि – 

स्वायम्भूवालोकपितामहेन उत्पादकत्वात् रजसोऽतिरेकात्। 
कालेनयुक्ता नियमाबद्धश्च क्षेत्रज्ञयुक्तान् कुरुतेविकारान्।

(क्रमशः)