तन्त्र क्या है ।
तनोति विपुलानर्थान् तन्त्र-मन्त्रसमन्वितान् ।
त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ।
जिस पद्धति में समस्त विषय का मूल रहस्य का विस्तार करने के पश्चात् (after detailed analysis of the concepts with its derivatives and corollaries), वस्तु तथा उनके तत्व के उपर मनन करने के पश्चात्, जिसके द्वारा हम अभीष्ट फल को प्राप्त करलेते हैं, उसे तन्त्र कहते है । श्रीमद्भागवत 11-27 में कहा है –
वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः । वैदिक, तान्त्रिक तथा मिश्र भेद से यज्ञ त्रिविध है । कामिकागमादि 28 आगम तथा 207 उपागम वैदिक तथा कापाल-भैरव आदि तन्त्र वेदविरुद्ध । वामकेशरतन्त्र के प्रथमविश्राम में कथित 64 कौल-तन्त्र मिश्र है । समस्ततन्त्रों के संख्या सप्त-सप्त-सहस्राणि संख्यातानि मनीषिभिः – 14000 कहागया है । उनमेंसे अधिकतर अप्राप्य है ।
तान्त्रिक साधना में ध्यान और जप प्रधान है । कहागया है कि –
जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धिर्न संशयः।
यहाँ सिद्धि का अर्थ समाधि है, जो योग का अङ्ग है ।
देवो भूत्वा देवं यजेत् – देवता के यजन में सोऽहम् की भावना करनी चाहिये, जो वेदान्त का अङ्ग है ।
वही पुरुषोत्तम भगवान परमशिव भी है । उनके क्षोभ्य तथा क्षोभक दो रूप प्रतिभात होता है । सङ्कोच-विकाश के द्वारा ब्रह्म एवं तच्छक्ति स्वरूपिणी प्रकृति वा प्रधान उभयरूप से विद्यमान रहते हैं । वही प्रकृति कहीँ इच्छारूप से, कहीँ मायारूप से, कहीँ शक्तिरूप से वर्णन की गयी है । यह शक्ति सदसदात्मिका है एवं चैतन्यरूप परम्ब्रह्म इसके द्वारा ही समस्त सृष्टि का रचना किया करते हैं । जैसे अग्नि तथा उसके दाहिका शक्ति परष्पर से अभिन्न है, उसी प्रकार परम्ब्रह्म और उसके शक्ति परष्पर से अभिन्न है । यह सांख्य के द्वैतसिद्धान्त जैसा है ।
चिन्मयी महाशक्ति के स्थूलावस्था, सूक्ष्मावस्था, कारणावस्था तथा तूरीयावस्था – यह अवस्था चतुष्टय स्वतन्त्र होनेपर भी, उन्ही चिन्मयी ब्रह्मशक्ति के अवस्था के भेद से जगत् के सव अङ्गोंमें यावत् शक्ति का विकाश हुआ करता है । सत्यलोकादि ऊर्द्ध्वलोक, इन्द्रादि देवगण, स्थावर-जङ्गमादि स्थूलजगत्, सव उन अद्वितीय, अनादि, अनन्त, सच्चिदानन्दमयी महाशक्ति के ही प्रभाव, अनुशासन तथा सहायता से स्थित है तथा उन्हीके सत्ता से सत्तावान् हैं । यह साङ्ख्यायनब्राह्मणम् के “चतुष्टयं वा इदं सर्वम्” सिद्धान्त पर आधारित है ।
सिद्धान्त, वाम, दक्ष, भूत, डामर भेदमें तन्त्र का पञ्च प्रवाह है । कुछ लोग दिव्य, दक्षिण, वाम – यह तीन विभाग मानते हैं । इनमें वामाचार निन्दनीय तथा त्याज्य है । तन्त्रसाधक के सात अधिकार होते हैं । इनको दीक्षा, महादीक्षा, पुरश्चरण, महापुरश्चरण, अभिषेक, महाभिषेक, एवं तद्भाव कहते हैं । तन्त्रभेद से इन नामों का भेद है । यह गोपथब्राह्मणम् वर्णित “सप्त सुत्याः सप्त च पाकयज्ञाः हविर्यज्ञाः सप्त” से तुलनीय है । कर्मप्रधान होने से यह पूर्वमीमांसा से तुलनीय है ।
वैशेषिक मतमें अणु विश्वव्यापी, विश्वस्रष्टा, विश्वपालक, विश्वसंहारक है । वही अणु साधकमें भी है । उसके साधक कुण्डलिनी को जगाकर अतुल, अकथनीय शक्ति प्राप्त कर सकता है । अतः तन्त्रमें वैशेषिक का समावेश भी है ।
न्यायदर्शन अनुसन्धान शैली (Research Methodology) के उपर आधारित ग्रन्थ है । दिव्य तथा दक्षिण तन्त्रमें प्रत्येक सिद्धान्त के विषयमें अनुसन्धानात्मक शैली अपनाया गया है ।
जैसे षड्दर्शन है, उसी प्रकार तन्त्रमें षडाम्नाय है –
1) पुर्वाम्नाय, 2) दक्षिणाम्नाय, 3) पश्चिमाम्नाय, 4) उत्तराम्नाय, 5) ऊर्ध्वाम्नाय, 6) पातालाम्नाय ।
अतः तन्त्र सर्ववेद, सर्वदर्शन तथा सर्वशास्त्र का समन्वय है ।