षड्ऋतुचर्या – चरक संहिता

पं० काशीनाथ पान्डेय ‘शास्त्री’ एवम् डा० गोरखनाथ चतुर्वेदी द्वारा ‘विद्योतिनी’ हिन्दी भाष्य, चौखम्भा भारती अकादमी, वाराणसी

अथातस्तस्याशितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥ इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
चरक संहिता, सूत्रस्थानम्, अध्याय – ६, तस्याशितीयमध्यायः

अब ‘मात्राशितीय’ नामक अध्याय के बाद ‘तस्याशितीय’ नामक अध्याय की व्याख्या की जायेगी। जैसा कि भगवान् आत्रेयने कहा था ।। १-२॥

विमर्श—मात्रापूर्वक किये हुए भोजन से बल, वर्ण, सुख एवं आयु की वृद्धि होती है, यह बात गत अध्याय में कही गई है। किन्तु देखा जाता है कि हेमन्त, शिशिर आदि ऋतुओं में मात्रापूर्वक किये हुए भोजन से भी रोग उत्पन्न हो जाते हैं। अतः इस शंका को दूर करने के लिए ‘तस्याशितीय’ नामक अध्याय का आरम्भ किया जाता है।

(क) षड्ऋतु (आदानकाल तथा विसर्गकाल) में प्राकृतिक तथा शारीरिक स्थिति

(Condition of Nature and Body in Six seasons) 

तस्याशिताद्यादाहाराबलं वर्णश्च वर्धते । यस्यर्तुसात्म्यं विदितं चेष्टाहारव्यपाश्रयम् ॥३॥

अध्याय की भूमिका–जिस व्यक्ति को चेष्टा (विहार) और आहार के अनुकूल ऋतुसात्म्य ज्ञात है उसके ही अशित आदि चारों प्रकार (अशित, पीत, लीढ और खादित) के आहार-सेवन से, बल और वर्ण बढ़ते हैं ||३||

विमर्श – जो पुरुष यह जानता है कि किस ऋतु में कैसा आहार-विहार करना चाहिए उसे ही आहार का फल प्राप्त होता है। यदि वह यह नहीं जानता कि किस ऋतु में कौन-सा अन्न खाना चाहिये, तो मात्रापूर्वक आहार करने पर भी उसे आहार का फल प्राप्त नहीं हो सकता। अतः इस अध्याय में ऋतुओं के अनुसार आहार तथा विहार करने का उपदेश किया गया है।

* इह खलु संवत्सरं षडङ्गमृतुविभागेन विद्यात् । तत्रादित्यस्योदगयनमादानं च त्रीनृतूञ्छिशिरादीन् ग्रीष्मान्तात् व्यवस्येत्, वर्षादीन् पुनर्हेमन्तान्तान् दक्षिणायनं विसर्गं च ॥४॥

स्वस्थवृत्त- पालन के लिए ऋतु – विभाग – ऋतु- सात्म्य के इस प्रकरण में ऋतुओं के विभाग के अनुसार संवत्सर (वर्ष) के छः अंग अर्थात् छः ऋतुयें बताई गई हैं। इसमें से शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म, इन तीन ऋतुओं में सूर्य उत्तर दिशा में गमन करता है अतः इन्हें ‘उत्तरायण’ अथवा ‘आदानकाल’ तथा वर्षा, शरद् और हेमन्त ऋतुओं में सूर्य दक्षिण दिशा में गमन करता है अतः इन्हें ‘दक्षिणायन’ अथवा ‘विसर्गकाल’ जानना चाहिये ॥ ४ ॥

विमर्श—यहाँ ऋतुओं के अनुसार सात्म्य (Climatic homologation) का उपदेश करते समय आचार्य ने एक वर्ष में छः ऋतुयें मानी हैं-शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् और हेमन्त । किन्तु अन्यत्र आवश्यकतानुसार संवत्सर के दो, तीन, या बारह विभाग भी किये गये हैं, यथा—’तत्र संवत्सरो द्विधा त्रिधा षोढा द्वादशधा भूयश्चातः प्रविभज्यते तत्तत्कार्यमभिसमीक्ष्य इति (च.वि. ८)। उपर्युक्त छः विभाग में-१. माघ-फाल्गुन को शिशिर, २. चैत्र-वैशाख को वसन्त, ३. ज्येष्ठ-अषाढ़ को ग्रीष्म, ४. श्रावण-भाद्रपद को वर्षा, ५. आश्विन-कार्तिक को शरद् तथा ६. अगहन-पौष को हेमन्त माना जाता है। यह वर्णन सुश्रुत संहिता के आधार पर है, यथा- ‘ते शिशिरवसन्तग्रीष्मवर्षाशरद्धेमन्ताः तेषां तपस्तपस्यौ शिशिरः, मधुमाधवौ वसन्तः शुचिशुक्रो ग्रीष्मः, नभोनभस्यौ वर्षाः, इषोर्जी शरत्, सहसहस्यौ हेमन्तः। (सू. ६)

यहाँ तप से माघ, तपस्य से फाल्गुन, मधु से चैत्र, माधव से वैशाख शचि से ज्येष्ठ, शक्र से आषाढ, नभ से श्रावण, नभस्य से भादों, इष से क्वार, ऊर्ज्ज से कार्तिक, सह से अगहन और सहस्य से पौष लिया जाता है। यह विभाजन स्वस्थवृत्त की दृष्टि से मनुष्यों के आहार-विहार के लिए किया गया है। 

परन्तु प्रयोग तथा संशोधन (पञ्चकर्म) का दृष्टि से यह ऋतु-विभाग भिन्न रूप में किया गया है जो इस प्रकार है-‘हेमन्तो ग्रीष्मो वर्षाश्चेति शीतोष्णवर्षलक्षणास्त्रय ऋतवो भवन्ति । तेषामन्तरेष्वितरे साधारणलक्षणास्त्रय ऋतयः प्रावृट्शरद्वसन्ता इति’ (च.वि. ८)। इसके अनुसार ग्रीष्म और वर्षा के बीच में प्रावृट्, वर्षा और शीत (हेमन्त) के बीच में शरद् तथा हेमन्त व ग्रीष्म के बीच में बसन्त, ये तीन साधारण ऋतुयें मानी गई हैं। यहाँ वैशाख-ज्येष्ठ को ग्रीष्म, आषाढ़-श्रावण को प्रावृट्, भादों-क्वार को वर्षा, कार्तिक अगहन को शरद्, पौष-माघ को हेमन्त तथा फाल्गुन-चैत्र को वसन्त माना गया है, जैसा कि सुश्रुत के इस वचन से स्पष्ट होगा ‘ते तु भाद्रदाद्येन द्विमासिकेन व्याख्याताः, तद्यथा-भाद्रपदाश्विनौ वर्षाः, कार्तिकमार्गशीर्षौ शरद्, पौषमाघौ हेमन्तः, फाल्गुनचैत्रौ वसन्तः, वैशाखज्येष्ठौ ग्रीष्मः, आषाढश्रावणौ प्रावृट् इति’ (सू. ६)।

कुछ लोग विन्ध्य के दक्षिण भाग में वृष्टि अधिक होने से वर्षाऋतु के प्रावृट् (वर्षा का प्रथम काल) और वर्षा यह दो भेद मानते हैं। उधर जाड़ा कम पड़ने से शिशिर ऋतु नहीं मानते। विन्ध्य के उत्तरी भाग में शीत अधिक पड़ने से शिशिर और हेमन्त दो ऋतुयें मानते हैं। इधर वर्षा कम होने से वर्षा में एक ही ऋतु मानते हैं ।

इस प्रकार उपर्युक्त मत में स्वस्थवृत्त की दृष्टि से विन्ध्य के दक्षिण भाग में प्रावृट् को लेकर छः ऋतुयें तथा विन्ध्य के उत्तरी भाग में शिशिर को लेकर छः ऋतुयें मानी जाती हैं, किन्तु चरक तथा सुश्रुत में संशोधन के लिये प्रावृट् को लेकर और स्वस्थवृत्त के लिये शिशिर को लेकर छः ऋतुयें मानी गयी हैं।

सूर्यसिद्धान्त में संक्रान्ति के अनुसार छः ऋतुयें बताई गई हैं, यथा-‘मानोर्मकरसंक्रान्तेः षण्मासा उत्तरायणम्। कर्कादेस्तु तथैव स्यात् षण्मासा दक्षिणायनम् ।।’ इसके अनुसार मकर-कुम्भ को शिशिर, मीन-मेष को वसन्त, वृष-मिथुन को ग्रीष्म, कर्क-सिंह को वर्षा, कन्या-तुला को शरद् तथा वृश्चिक-धन संक्रान्तियों को हेमन्त ऋतु माना गया है। उत्तरायण पृथ्वी के सौम्य अंश और प्राणियों के बल को ले लेता है अतः इसे आदानकाल कहते हैं, यथा-‘आदत्ते पृथिव्याः सौम्यांशं प्राणिनां बलं चेत्यादानम्। दक्षिणायन पृथ्वी को सौम्यांश और प्राणियों को बल देता है अतः इसे विसर्गकाल कहते हैं, यथा- ‘विसृजति ददाति पृथिव्याः सौम्यांशं प्राणिनां बलं चेति विसर्गः’ इस प्रकार स्वस्थवृत्त के अनुसार इन ऋतुओं में पृथ्वी का रस एवं मनुष्यों का बल आदान में घटता तथा विसर्ग में बढ़ता है। 

उपर्युक्त सभी तथ्यों को समझकर पूर्व अध्याय में वर्णित मात्रा के अनुसार भोजन करने से बल-वर्ण की वृद्धि होती है। 

* विसर्गे पुनर्वायवो नातिरूक्षाः प्रवान्ति, इतरे पुनरादाने; सोमश्चाव्याहतबलः शिशिराभिर्भाभिरापूरयञ्जगदाप्याययति शश्वत्, अतो विसर्गः सौम्यः।

विसर्गकाल का वर्णन — विसर्गकाल में वायु अत्यन्त रूक्ष नहीं बहती किन्तु आदानकाल में अतिरूक्ष बहती है। विसर्गकाल में चन्द्रमा पूर्ण बली रहता है और समस्त भूमण्डल पर अपनी किरणें फैलाकर विश्व को निरन्तर आप्यायित (तृप्त) करता रहता है इसलिये विसर्गकाल को सौम्य कहा जाता है।

विमर्श—हम देखते हैं कि दिन, रात्रि, ऋतु आदि का प्रभाव संसार के सभी पदार्थों पर पड़ता है जिससे लोगों की आकृति तथा बल में परिवर्तन भी होता है। इस परिवर्तन का मूल कारण पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र और वायु की गति-विशेष ही मानी जाती है। ये गतियाँ वास्तव में पृथ्वी की ही होती हैं। पृथ्वी अपनी धुरी (Axis) पर सदा घूमती रहती है जिससे दिन-रात हुआ करते हैं। जब वह सूर्य के चारों ओर घूमती है तो ऋतु, अयन और वर्ष का निर्माण होता है। सूर्य की परिक्रमा करने में पृथ्वी को लगभग ३६५१/२ दिन लगते हैं। इस प्रकार पृथ्वी की एक परिक्रमा में लगने वाला काल संवत्सर कहा जाता है।

इस परिक्रमा-काल में पृथ्वी का जो भाग सूर्य के जितना समीप रहता है वह उतना ही अधिक उष्ण होता है। पृथ्वी पर सूर्य की किरणों का प्रभाव अधिक होने से वनस्पतियों तथा प्राणियों के सौम्य अंश का शोषण हो जाता है। सौम्य अंश के सूख जाने से वनस्पतियों में तिक्त, कषाय और कटु रस की क्रमशः वृद्धि होती है तथा प्राणियों में स्नेह की कमी से क्रमशः रूक्षता की अधिकता हो जाती है। यह अवस्था भूमण्डल के सब भागों पर एक ही समय एक-सी नहीं होती क्योंकि अपने अक्ष पर सदा घूमते रहने से जब पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सम्मुख होगा तब उसी भाग पर सूर्य की किरणों का प्रभाव अधिक पड़ेगा। इस पर भी जो देश उत्तरी ध्रुव के जितने ही समीप होंगे उन पर उसका उतना ही अधिक प्रभाव पड़ेगा। यह स्थिति सूर्य के उत्तरायण काल में ही होती है।  दक्षिणायन में इसके विपरीत स्थिति रहती है अर्थात सूर्य से दूर रहने वाले भूभाग शीतल रहते हैं। दक्षिणायन में इसके विपरीत स्थिति रहती है अर्थात् सूर्य से दूर रहने वाले भू-भाग शीतल रहते हैं। भारतवर्ष की अवस्थिति पृथ्वी पर कुछ इस प्रकार है कि अन्य देशों की अपेक्षा यहाँ सूर्य की किरणों का प्रभाव कुछ विशेष रूप का पड़ता है जिससे यहाँ छहों ऋतुओं का विभाजन सम्भव एवं सार्थक हो सका है। पृथ्वी की इस गति को सूर्यकेन्द्रक गति (Helio-centric) कहते हैं। चन्द्रमा की गति पृथ्वी के चारों ओर होती है। इसी से पक्षों (Fortnights) का निर्माण होता है। चन्द्रमा की इस गति को भूकेन्द्रक गति (Geo-entric) कहते हैं। सूर्य जब दक्षिणायन होता है तो उत्तरी गोलार्ध में पड़ने के कारण भारतवर्ष सूर्य से अधिक दूर हो जाता है; फलतः चन्द्रमा का बल अव्याहत (पूर्ण) हो जाता है और वह अपनी शीतल किरणों से जगत् को तृप्त करने लगता है। इसीलिए सूर्य के दक्षिणायन काल को विसर्ग तथा सौम्य कहा जाता है।

* आदानं पुनराग्ग्रेयं; तावेतावर्कवायू सोमश्च कालस्वभावमार्गपरिगृहीताः कालर्तुरसदोष देहबलनिर्वृत्तिप्रत्ययभूताः समुपदिश्यन्ते ॥५॥

आदानकाल का वर्णन–पुनः आदानकाल को आग्नेय कहा जाता है। सूर्य, वायु और चन्द्रमा काल-स्वभाव से मार्ग का ग्रहण कर (मेषादि राशियों पर जाकर) काल, ऋतु, रस, दोष और देह-बल की उत्पत्ति में कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए॥५॥
विमर्श – सूर्य के उत्तरायण काल को आदान माना गया है और आग्नेय भी कहा गया है। यहाँ आये हुए ‘काल-स्वभाव’ शब्द का तात्पर्य दिन, ऋतु तथा अयनात्मक काल का स्वभाव सौम्य व आग्नेय समझना चाहिए। ‘मार्गपरिगृहीत’ का तात्पर्य है पृथ्वी तथा चन्द्रमा के मार्ग-सूर्यकेन्द्रक तथा भूकेन्द्रक। ‘तौ एतौ अर्कवायू’ में सूर्य तथा वायु को एकत्र पढ़ने का तात्पर्य यह है कि ये ही दोनों आदानकाल के कर्ता हैं। ‘सोमश्च’ कहकर विसर्गकाल का कर्त्ता चन्द्रमा को माना गया है। इससे आगे ‘कालस्वभावमार्गपरिगृहीताः’ इस बहुवचनान्त पाठ से यह सिद्ध होता है कि अर्क (सूर्य), वायु और सोम (चन्द्रमा) ये तीनों काल स्वभाव से मार्ग का ग्रहण कर काल, ऋतु आदि के कारण होते हैं। तात्पर्य यह कि आदान के प्रति सूर्य और विसर्ग के प्रति चन्द्रमा कारण है तथा वायु योगवाही है जो सूर्य के साथ रह कर आदान का और चन्द्रमा के साथ रहकर विसर्ग का कारण होता है, यथा ‘योगवाहः परं वायुः संयोगादुभयार्थकृत्। उष्णकृत् तेजसा युक्तः शीतकृत् सोमसंश्रयात्।।’ (च.चि. ३)

* तत्र रविर्भाभिराददानो जगतः स्नेहं वायवस्तीव्ररूक्षाश्चोपशोषयन्तः शिशिरवसन्तग्रीष्मेषु यथाक्रमं रौक्ष्यमुत्पादयन्तो रूक्षान् रसांस्तिक्तकषायकटुकांश्चाभिर्वर्धयन्तो नृणां दौर्बल्यमावहन्ति ॥ ६ ॥

आदानकाल में प्राकृतिक तथा शारीरिक स्थिति— उस आदानकाल में सूर्य अपनी किरणों द्वारा संसार के स्नेहभाग (जलीयांश) को लेता है तथा वायु तीव्र और रूक्ष होकर संसार के स्नेहभाग का शोषण करता है। परिणामस्वरूप शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म इन तीनों ऋतुओं में रूक्षता उत्पन हो जाने से रूक्ष रस, यथाक्रम तिक्त, कषाय और कटु रसों की वृद्धि हो जाने से मनुष्यों के शरीर में दुर्बलता उत्पन्न हो जाती है ॥ ६॥

विमर्श—यथाक्रम रूक्षता आदि की उत्पत्ति का तात्पर्य यह है कि शिशिर ऋतु में भूतल पर वनस्पतियों तथा प्राणियों में अल्प रूक्षता, द्रव्यों में तिक्त रस की अभिवृद्धि और प्राणियों में अल्प बल की उत्पत्ति होती है। कारण यह है कि इस काल में सूर्य उत्तर दिशा को जाना आरम्भ करता है अर्थात् मकर और कुम्भ राशि पर रहता है जिससे प्राणियों का बल अधिक नहीं घटता क्योंकि यह आदानकाल का प्रथम काल रहता है। जब वसन्त ऋतु में सूर्य मीन और मेषराशि पर रहता है उस समय उसकी किरणें कुछ तीव्र होती हैं जिससे भूमण्डल पर मध्यम रूक्षता, कषायरस की वृद्धि और प्राणियों में मध्यम दुर्बलता बढ़ती है। फिर ग्रीष्मऋतु में जब सर्य वृष और मिथुन राशि पर आता है तो उसकी किरणें अत्यन्त प्रखर हो जाती हैं जिससे भूमण्डल के सभी पदार्थों में तीव्र रूक्षता, कटुरस की अभिवृद्धि तथा प्राणियों में अत्यधिक दुर्बलता आ जाती है। आदानकाल के विधाता सूर्य और दोनों हैं, यह बात सुश्रुत ने इस प्रकार कही है-‘उत्तरं च शिशिरवसन्तग्रीष्माः। तेषु भगवानाप्याय्यतेऽर्कः। तिक्तकषायकटुकाश्च रसा वायु बलवन्तो भवन्ति। उत्तरोत्तरं च सर्वप्राणिनां बलमपहीयते इति’ (सु.सू. ६) । वाग्भट ने भी इसे विशेष रूप से स्पष्ट किया है, यथा

‘तीक्ष्णांशुरतितीक्ष्णांशुग्रीष्मे संक्षिपतीब यत् । प्रत्यहं क्षीयते श्लेष्मा तेन वायुश्च वर्धते।।’ (अ.सू. ३) । अर्थात् सूर्य की किरणें ज्यों ज्यों तीव्र होती हैं त्यों-त्यों कफ का नाश और वायु की वृद्धि होती है। यही कारण है कि क्रमशः तिक्त, कटुरस कषाय और उत्पत्ति होती है। रसों की उत्पत्ति के विषय में बताया गया है कि वायु तथा आकाश की प्रधानता से तिक्त, वायु तथा पृथ्वी की की प्रधानता से कषाय और वायु तथा अग्नि की प्रधानता से कटुरस की उत्पत्ति होती है। शिशिर, वसन्त तथा ग्रीष्म में क्रमशः यही महाभूत प्रधान रहते हैं।

* वर्षाशरद्धेमन्तेषु तु दक्षिणाभिमुखेऽर्के कालमार्गमेघवातवर्षाभिहतप्रतापे, शशिनि चाव्याहतबले, माहेन्द्रसलिलप्रशान्तसन्तापे जगति, अरूक्षा रसाः प्रवर्धन्तेऽम्ललवणमधुरा यथाक्रमं तत्र बलमुपचीयते नृणामिति ॥७॥

विसर्गकाल में प्राकृतिक तथा शारीरिक स्थिति–वर्षा, शरद् तथा हेमन्त इन ऋतओं में क्रमशः जब सूर्य दक्षिण दिशा की ओर गमन करना आरम्भ करता है उस समय काल और स्वाभाविक मार्ग (विसर्गकाल एवं दक्षिणायन) तथा मेघ, वायु और वर्षा से उसका तेज कम हो जाता है, चन्द्रमा पूर्ण बली रहता है तथा आकाश से जल गिरने के कारण जगत का ताप शान्त हो जाता है अतः अम्ल, लवण और मधुर ये अरूक्ष (स्निग्ध) रस तथा मनुष्यों के शरीर में बल प्रतिदिन बढ़ने लगता है।॥७॥

विमर्श – सुश्रुत ने इस बात को यों स्पष्ट किया है-‘तयोर्दक्षिणं वर्षाशरद्धेमन्ताः। तेषु भगवानाप्याय्यते सोमः। अम्ललवणमधुराश्च रसा बलवन्तो भवन्ति । उत्तरोत्तरं च सर्वप्राणिनां, वलमभिवर्द्धते इति’ (सु.सू. ६)। वर्षाऋतु में विसर्ग का प्रारम्भ होने से तथा सूर्य के कर्क और सिंह राशि पर स्थित होने से भूतलगत पदार्थों में अल्पस्नेह तथा अमृतरस की अभिवृद्धि होती है और प्राणियों में अल्पस्नेह की वृद्धि होने से अल्पबल बढ़ता है। पुनः जब सूर्य कन्या तथा तुला राशि पर आ जाता है तो उसकी किरणें अपेक्षाकृत अधिक मन्द हो जाती हैं। चन्द्रमा का बल भी अव्याहत (पूर्ण) हो जाता है जिससे शरदऋतु में भूतलगत पदार्थों में मध्यम स्नेह तथा लवणरस की वृद्धि होती है और मध्यम श्रेणी में प्राणियों का बल बढ़ता है। हेमन्त ऋतु में सूर्य वृश्चिक और धनुराशि पर चला जाता है। इस समय उसका तेज अत्यन्त क्षीण हो जाता है। चन्द्रमा पूर्ण बली होकर पूर्ण स्नेहोत्पादन करने लगता है जिससे द्रव्यों में मधुररस की वृद्धि होती है और उनके उपयोग से प्राणियों में बल भी पूर्ण वृद्धि होने लगती है।

आदान तथा विसर्ग काल का तुलनात्मक अध्ययन निम्नलिखित रूप में दिया जा रहा है—

क्र.सं.आदान काल
(Period of Low nutrition or Absorption)
विसर्गकाल
(Period of Nutrition or Liberation)
१.इसमें शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म ऋतुयें होती हैं।इसमें वर्षा, शरद् और हेमन्त ऋतुयें होती हैं। 
२.क्रमशः माघ-फाल्गुन, चैत्र-वैशाख, ज्येष्ठ-आषाढ़ मास होते हैं ।क्रमशः श्रावण-भाद्र, क्वार-कार्तिक, अगहन पौष मास होते हैं।
३.सूर्य उत्तरायण होता है।सूर्य दक्षिणायन होता है।
४.आग्नेय होता है।सौम्य होता है।
५.वायु अतिरूक्ष होती है।वायु अतिरूक्ष नहीं होती है।
६.चन्द्रमा का बल व्याहत (क्षीण) रहता है।चन्द्रमा का बल अव्याहत (पूर्ण) रहता है।
७.सूर्य का बल अव्याहत (पूर्ण) रहता है।सूर्य का बल व्याहत (पूर्ण) रहता है।
८.सूर्य तथा वायु जगत का शोषण करते हैं।चन्द्रमा जगत को तृप्त करता है।
९.रूक्ष रस-तिक्त, कषाय तथा कटु की वृद्धि होती है।स्निग्ध रस-अम्ल, लवण तथा मधुर रस की वृद्धि होती है।
१०.मनुष्य को यथाक्रम दौर्बल्य की प्राप्ति होती है।मनुष्य को यथाक्रम बल की प्राप्ति होती है।

भवन्ति चात्र —

* आदावन्ते च दौर्बल्यं विसर्गादानयोर्नृणाम् । मध्ये मध्यबलं त्वन्ते श्रेष्ठमग्रे च निर्दिशेत् ॥ ८॥ 

आदान तथा विसर्गकाल में शारीरिक बल की स्थिति-विसर्गकाल के आरम्भ तथा आदान-काल के अन्त में मनुष्यों में दुर्बलता, विसर्ग तथा आदानकाल के मध्य में मध्यम बल तथा विसर्गकाल के अन्त और आदानकाल के आरम्भ में उत्तम बल होता है॥८॥

विमर्श–विसर्गकाल के आदि (वर्षाऋतु : श्रावण-भादों) और आदानकाल के अन्त (ग्रीष्मऋतु : ज्येष्ठ-आषाढ़) में दुर्बलता, विसर्गकाल के मध्य (शरद्ऋतु: आश्विन-कार्तिक) और आदानकाल के मध्य (वसन्तऋतु: चैत्र-वैशाख) में मध्यम बल तथा विसर्गकाल के अन्त (हेमन्त ऋतु : अगहन-पौष) और आदानकाल के आदि (शिशिरऋतुः माघ-फाल्गुन) में श्रेष्ठ बल रहता है।

शीघ्र याद करने के लिये आदान तथा विसर्गकाल में बल किस तरह घटता-बढ़ता रहता है, इसे नीचे कोष्ठक में स्पष्ट किया जा रहा है—

संवत्सर

(ख) षड्ऋतुचर्या (Regimen of Six seasons)

१. हेमन्त ऋतुचर्या (Regimen of Winter seasons)

शीते शीतानिलस्पर्शसंरुद्धो बलिनां बली । पक्ता भवति हेमन्ते मात्राद्रव्यगुरुक्षमः ॥९॥
शीत (हेमन्त ) ऋतु में जाठराग्नि के बलवान् होने में हेतु – हेमन्त ऋतु में शीतलता अधिक रहती है अतः शीतल वायु के स्पर्श से आभ्यन्तर अग्नि के रुक जाने के कारण बलवान् (स्वस्थ) पुरुषों के शरीर में जाठराग्नि बलवान् होकर मात्रा और द्रव्य में गुरु आहार को पचाने में समर्थ रहती है ।। ९ ॥

विमर्श—यहाँ हेमन्त का विशेषण दिया गया है ‘शीत’ । हेमन्त स्वभावतः शीत होता है अतः ‘शीत’ विशेषण का तात्पर्य यह हो सकता है कि हेमन्त ऋतु में शीत पड़ने पर ही बलवान पुरुषों की अग्नि प्रबल होती है अन्यथा ऋतुवैकारिक भाव उत्पन्न होने पर हेमन्त में शीत न पड़े तो अग्नि प्रबल नहीं होती। अग्नि के प्रबल होने में शीतस्पर्श (ठण्डी) वायु से अग्नि का बाहर न निकलना हेतु बताया गया है। जैसे आवाँ के ऊपरी भाग पर मिट्टी और जल से लेप कर देने पर आग की लपटें भीतर की ओर घुस जाती हैं और भीतर आग प्रबल हो जाती है वैसे ही हेमन्त ऋतु में वातावरण शीतल होने से शरीर की ऊष्मा बाहर न

निकल कर भीतर चली जाती है और जाठराग्नि प्रबल हो जाती है। इसीलिये शालि, षष्टिक आदि मात्रागुरु और पीठी, इक्षुविकार, क्षीरविकार, उड़द, भैंस का दूध, सुअर का मांस आदि स्वभावतः गुरु द्रव्यों का पाचन उचित रूप से हो जाता है। वृद्ध वाग्भट ने इस बात को इस प्रकार स्पष्ट किया है-‘देहोष्माणो विशन्तोऽन्तः शीते शीतानिलाहताः। जठरे पिण्डितोष्माणं प्रबलं कुर्वतेऽनलम्।। (अ.सं.सू. ४) 

स यदा नेन्धनं युक्तं लभते देहजं तदा । रसं हिनस्त्यतो वायुः शीतः शीते प्रकुप्यति ॥१०॥

शीत (हेमन्त ऋतु में वायु का प्रकोप–इस प्रकार अग्नि के प्रबल होने पर जब उसके बल के अनुसार इन्धन (गुरु आहार) नहीं मिलता तब अग्नि शरीर में उत्पन्न प्रथम धातु (रस) को जला डालती है अतः वायु का प्रकोप हो जाता है।।१०।। विमर्श – अग्नि का स्वभाव है कि पहले इन्धन रूप आहार को, आहार अभाव में दोषों को, दोषों के अभाव में धातुओं को और धातुओं के अभाव में प्राणों को पचाती है, यथा-‘आहारान् पचति शिखी दोषानाहारवर्जितः । दोषक्षये पचेद्धातून् प्राणान् धातुक्षये तथा।।’ (क्षे.कु.)। जब रस तथा उसके बाद क्रमशः रक्तादि धातुओं का पाक होने लगता है तब धातुक्षय के कारण शरीर में रूक्षता आने लगती है। क्योंकि बाह्य वातावरण भी शीतल रहता है अतः स्वभावतः रूक्ष और शीतल वायु प्रकुपित हो जाती है। सुश्रुत ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है-‘हेमन्तः शीतलो रूक्षो मन्दसूर्योऽनिलाकुलः। ततस्तु शीतमासाद्य वायुस्तत्र प्रकुप्यति।। कोष्ठस्थः शीतसंस्पर्शादन्तः पिण्डीकृतोऽनलः। रसमुच्छोषयत्याशु तस्मात् स्निग्धं सदा हितम्।।’ (सु.उ. ६४)

तस्मात्तुषारसमये स्निग्धाम्ललवणान् रसान् । औदकानूपमांसानां मेद्यानामुपयोजयेत् ॥११॥ बिलेशयानां मांसानि प्रसहानां भृतानि च । भक्षयेन्मदिरां शीधुं मधु चानुपिबेन्नरः ॥१२॥ गोरसानिक्षुविकृतीर्वसां तैलं नवौदनम् । हेमन्तेऽभ्यस्यतस्तोयमुष्णं चायुर्न हीयते ॥१३॥

हेमन्त ऋतु में आहार —तुषारकाल (हेमन्त ऋतु) में अग्नि की प्रबलता रहती है अतः स्निग्ध पदार्थ, अम्ल रस, लवण रस, अतिमेदस्वी औदक मांस, आनूप मांस, बिलों में रहने वाले जीवों (गोधा, साही आदि) का मांस, प्रसह (बाज, कौआ आदि) का भुना हुआ मांस खाकर मदिरा, शीधु और मधु पीना चाहिए। हेमन्त ऋतु में दूध के विकारमात्र (दही, मलाई, रबड़ी, छेना आदि), ईख के विकार (गुड़, राब, चीनी, मिश्री आदि), वसा, तेल, नये चावलों का भात और गरम जल का सेवन करने से आयु हानि (रोगोत्पत्ति द्वारा) नहीं होती।।११-१३।।

अभ्यङ्गोत्सादनं मूर्ध्नि तैलं जेन्ताकमातपम् । भजेद्धूमिगृहं चोष्णमुष्णं गर्भगृहं तथा ॥ १४ ॥ शीतेषु संवृतं सेव्यं यानं शयनमासनम् । प्रावाराजिनकौषेयप्रवेणीकुथकास्तृतम् ॥१५॥ गुरुष्णवासा दिग्धाङ्गो गुरुणाऽगुरुणा सदा । शयने प्रमदां पीनां विशालोपचितस्तनीम् ॥१६॥ आलिङ्ग्यागुरुदिग्धाङ्गीं सुप्यात् समदमन्मथः । प्रकामं च निषेवेत मैथुनं शिशिरागमे ॥१७॥

हेमन्त ऋतु में विहार– तैल का अभ्यंग (मर्दन), उत्सादन (उबटन), शिर पर तैल लगाना, जेन्ताकस्वेद का सेवन, धूपसेवन, उष्ण भूमिगृह (तहखाने) तथा उष्ण गर्भगृह (घेरे वाले घर) में रहना, वाहन, शयन और आसन को कपड़े के परदे आदि से ढककर रखना तथा उन पर प्रावार (रुई से बने भारी वस्त्र), अजिन (सुखकारी रोमवाले चर्म), कौषेय (रेशमी वस्त्र), प्रवेणी (सन, जूट या पट्टू से बने वस्त्र) तथा कुथक (कन्था, कथरी या ऊनी रंग-बिरंगे कम्बल आदि) बिछाकर बैठना, शरीर पर भारी और गरम वस्त्र धारण करना, घिसे हुए अगर का शरीर पर गाढ़ा लेप करना, विशाल स्तनों तथा अगर से पुते हुए अंगों वाली स्वस्थ मदमाती नारी का आलिंगन करके सोना तथा यथेष्ठ मैथुन करना ये सब शीत ऋतु में हितकारक विहार हैं।। १४-१७।।

विमर्श–हेमन्त ऋतु में वात का कोप रहता है तथा वातावरण शीतल रहता है अतः शीत से बचने का पूरा प्रयत्न करना चाहिये। जेन्ताक स्वेद की विधि आगे इसी स्थान के चौदहवें अध्याय में बताई जायेगी। मैथुन यथाशक्ति ही करना चाहिये।

वर्जयेदन्नपानानि वातलानि लघूनि च । प्रवातं प्रमिताहारमुदमन्थं हिमागमे ॥१८॥

हेमन्त ऋतु में वर्जनीय आहार-विहार– शीतकाल आ जाने पर वातवर्धक एवं लघु अन्न-पान, प्रवात (तीव्र वायु), प्रमिताहार (थोड़ा नपा-तुला भोजन) और जल में घुले सत्तू का सेवन करना चाहिए।।१८।।

२. शिशिर ऋतुचर्या (Regimen of Dewy seasons)

हेमन्तशिशिरौ तुल्यौ शिशिरेऽल्पं विशेषणम् । रौक्ष्यमादानजं शीतं मेघमारुतवर्षजम् ॥१९॥ तस्माद्धैमन्तिकःसर्वःशिशिरेविधिरिष्यते। निवातमुष्णं त्वधिकं शिशिरे गृहमाश्रयेत् ॥२०॥ 


शिशिर ऋतुचर्या का आधार—सामान्य रूप से हेमन्त और शिशिर दोनों ऋतुयें यद्यपि समान होती हैं किन्तु शिशिर में कुछ थोड़ी विशेषता होती है। आदानकाल होने से शिशिर ऋतु में रूक्षता आ जाती है तथा मेघ, वायु और वर्षा के कारण विशेष शीत पड़ने लगती है। अतः शिशिर ऋतु में भी हेमन्त ऋतु की ही सब विधियों का पालन करना चाहिये। विशेष रूप से निवात (तीव्र वायु रहित) तथा उष्ण गृह में निवास करना चाहिए।।१९-२०।।

विमर्श—तात्पर्य यह है कि हेमन्त ऋतु में विसर्गकाल रहता है अतः स्निग्धता अधिक रहती है। शिशिर ऋतु में आदानकाल आ जाने से रूक्षता बढ़ जाती है। सुश्रुत और वाग्भट का भी यही मत है – ‘शिशिरे शीतमधिकं वातवृष्ट्याकुला दिशः। शेषं हेमन्तवत्सर्वं विज्ञेयं लक्षणं बुधैः ।।’ (सू. ६) तथा- ‘शिशिरे शीतमधिकं मेघमारूतवर्षजम् । रौक्ष्यं चादानजं तस्मात्कार्यः पूर्वाधिकं विधिः।।’ (अ.सं.सू. ४)

कटुतिक्तकषायाणि वातलानि लघूनि च । वर्जयेदन्नपानानि शिशिरे शीतलानि च ॥ २१ ॥ 

शिशिर ऋतु में वर्ज्य आहार — शिशिर ऋतु में कटु-तिक्त-कषाय रस तथा वातवर्धक, हल्के और शीतल अन्न-पान का त्याग कर देना चाहिए ॥ २१ ॥

* ३. वसन्त ऋतुचर्या (Regimen of Spring season)

वसन्ते निचितः श्लेष्मा दिनकृद्धाभिरीरितः | कायाग्निं बाधते रोगांस्ततः प्रकुरुते बहून् ॥ २२॥ तस्माद्वसन्ते कर्माणि वमनादीनि कारयेत् ।

वसन्त ऋतुचर्या–हेमन्त ऋतु में संचित हुआ कफ वसन्त ऋतु में सूर्य की किरणों से प्रेरित (द्रवीभूत) होकर जठराग्नि को मन्द कर देता है अतः अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उस संचित कफ को दूर करने के लिये वसन्त ऋतु में वमन आदि पञ्चकर्म कराने चाहिये।।२२-२३.१।।

गुर्वम्लस्निग्धमधुरं दिवास्वप्नं च वर्जयेत् ॥ २३ ॥

वसन्त ऋतु में त्याज्य आहार-विहार– वसन्त ऋतु में गुरु, अम्ल, स्निग्ध और मधुर आहार तथा दिन में शयन नहीं करना चाहिये।।२३.२ ।।

व्यायामोद्वर्तनं धूमं कवलग्रहमञ्जनम्। सुखाम्बुना शौचविधिं शीलयेत्कुसुमागमे ॥२४॥ चन्दनागुरुदिग्धाङ्गो यवगोधूमभोजनः । शारभं शाशमैणेयं मांसं लावकपिञ्जलम् ॥२५॥
भक्षयेन्निर्गदं सीधु पिबेन्माध्वीकमेव वा । वसन्तेऽनुभवेत्स्त्रीणां काननानां च यौवनम् ॥ २६ ॥

वसन्त ऋतु में सेवनीय आहार-विहार — वसन्त ऋतु में व्यायाम (Exercise), उबटन, धूमपान, कवलग्रह, तथा मल-मूत्र-त्याग के बाद गुनगुने जल का प्रयोग, मिले हुए चन्दन और अगर का शरीर पर लेप, जौ-गेहूँ, शरभ (हरिण-भेद), खरगोश, काला हरिण, लावा, बटेर और सफेद तीतर के मांस का भोजन, निर्गद (दोषरहित), सीधु और माध्वीक (मधु-निर्मित मद्य) का पान तथा स्त्रियों और उपवनों के यौवन (कुसुमित अवस्था) का अनुभव करना चाहिये ।।२४-२६॥ अञ्जन

विमर्श–वसन्त ऋतु में वमनादि पञ्चकर्म का विधान किया गया है। शोधन कर्म के लिये वसन्त ऋतु से फाल्गुन और चैत्र मास लेना चाहिये, यथा-‘तपस्यश्च मधुश्चैव वसन्तः शोधनं प्रति’ (सि. ६)। जौ-गेहूँ प्रायः मधुर रस वाले होते है और इनका सेवन वसन्त में निषिद्ध किया गया है अतः जौ-गेहूँ पुराने लेने चाहिये। पुराने जौ-गेहूँ मधुर होते हुए भी कफकारक नहीं होते, यथा ‘प्रायो मधुरं श्लेष्मलमन्यत्र मधुनः पुराणयवगोधूमात्’ (सू. २५) । वाग्भट ने वसन्तऋतु में शब्दतः पुराने जौ-गेहूँ के सेवन करने का विधान किया है, यथा-‘पुराणयवगोधूमक्षौद्रजाङ्गलशूल्यभुक्’ (अ.सू. ३)। स्त्रियों की युवावस्था और पुष्पवाटिका के पुष्पों का अनुभव करना चाहिये, यह कहने का तात्पर्य चक्रपाणि के मतानुसार यह है कि इनका सेवन अधिक नहीं करना चाहिए। केवल उतनी ही मात्रा में इनका सेवन करना चाहिए जिससे कफ का क्षय हो जाय।

* ४. ग्रीष्म ऋतुचर्या (Regimen of Summer season)

मयूखैर्जगतः स्नेहं ग्रीष्मे पेपीयते रविः । स्वादु शीतं द्रवं स्निग्धमन्नपानं तदा हितम् ॥२७॥
शीतं सशर्करं मन्थं जाङ्गलान्मृगपक्षिणः । घृतं पयः सशाल्यन्नं भजन् ग्रीष्मे न सीदति ॥ २८ ॥

ग्रीष्म ऋतुचर्या का सैद्धान्तिक आधार— ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा संसार के स्नेह को सोख लेते हैं अतः इस काल में मधुर रस तथा शीत वीर्य वाले द्रव्य, द्रव तथा स्निग्ध अन्न-पान, चीनी के साथ शीतल मन्थ, (घी, सत्तू एवं शीतल जल का नातिसान्द्र मिश्रण) जांगल पशु-पक्षियों के मांस का रस, घी-दूध, चावल, इनका सेवन करने से स्वाभाविक बल का नश नहीं होने पाता।।२७-२८।।

विमर्श – सत्तू को शीतल जल में घृत मिलाकर इस प्रकार घोले कि न अधिक पतला होने पाये न अधिक गाढ़ा। इसे ही मन्थ कहते हैं, यथा-‘सक्तवः सर्पिषा युक्ताः शीतवारिपरिप्लुताः । नात्यच्छा नातिसान्द्राश्च मन्थ इत्यभिधीयते।।’ (चरकोपस्कार) मद्यमल्पं न वा पेयमथवा सुबहूदकम् । लवणाम्लकटूष्णानि व्यायामं चात्र वर्जयेत् ॥२९॥

ग्रीष्म ऋतु में वर्ज्य आहार-विहार— ग्रीष्म ऋतु में मदिरा का सेवन अल्पमात्रा में करना चाहिए अथवा नहीं पीना चाहिए या अधिक जल मिलाकर पीना चाहिए। लवण, तथा कटु रस वाले और उष्णवीर्य द्रव्यों का सेवन तथा व्यायाम नहीं करना चाहिए ।।२९।।

विमर्श — ग्रीष्म ऋतु में अम्ल और उष्ण होने के कारण मदिरा का सेवन शरीर के लिये हानिकर होता है, अतः नहीं पीना चाहिए किन्तु नित्य मदिरा पीने वाले अथवा वात-कफ प्रकृति वाले को स्वल्प मात्रा में पीना चाहिए जिससे कफ का क्षय होता रहे। सदा मदिरा पीनेवाला यदि कफ-पित्त प्रकृति का हो तो ग्रीष्म ऋतु में उसे अधिक जल मिलाकर मदिरा का सेवन करना चाहिये। ग्रीष्म ऋतु में मदिरा सेवन का प्रधान रूप से निषेध किया गया है परन्तु सदा पीने वाले अभ्यस्त व्यक्तियों के लिए नियम भी बता दिया गया है, अन्यथा उन्हें हानि होती है, यथा- ‘मद्यं न पेयं पेयं वा स्वल्पं सुबहुवारि वा। अन्यथा शोषशैथिल्यदाहमोहान् करोति तत्।।’ (अ.हृ.सू. ३)

दिवा शीतगृहे निद्रां निशि चन्द्रांशुशीतले । भजेच्चन्दनदिग्धाङ्ग प्रवाते हर्म्यमस्तके ॥३०॥
व्यजनैः पाणिसंस्पर्शैश्चन्दनोदकशीतलैः। सेव्यमानो भजेदास्यां मुक्तामणिविभूषितः ॥३१॥
काननानि च शीतानि जलानि कुसुमानि च । ग्रीष्मकाले निषेवेत मैथुनाद्विरतो नरः ॥ ३२॥

ग्रीष्म ऋतु में विहार — ग्रीष्म ऋतु में दिन के समय शीतल कमरे (Air-conditioned cold room) में तथा रात्रि के समय चाँदनी से शीतल हुए हवादार छत पर शरीर में चन्दन का लेप लगाकर सोना चाहिए, मोती-मणि आदि से देह अंलकृत करके चन्दन मिले जल से ठण्डे किये हुए पंखों की हवा और कोमल हाथों का स्पर्श प्राप्त करते हुए आसन पर बैठना चाहिए तथा शीतल उद्यान, शीतल जल और शीतल पुष्पों का सेवन करना चाहिये किन्तु मैथुन से बचे रहना चाहिए ।। ३०-३२।।

विमर्श—सुश्रुत ने ग्रीष्मऋतुचर्या इस प्रकार बतलाई है-‘व्यायाममुष्णमायासं मैथुनं चातिशोषि च । रसाँश्चाग्निगुणोद्रिक्तान् निदाघे परिवर्जयेत्।। सरांसि सरितो वाऽपि वनानि रुचिराणि च। चन्दनानि परार्घ्याणि स्रजः सकमलोत्पलाः।। तालवृन्तानिलान् हारांस्तथा शीतगृहाणि च। धर्मकाले निषेवेत वासांसि सुलघूनि च ।। शर्कराखण्डदिग्धानि सुगन्धीनि हिमानि च। पानकानि च सेवेत मन्थांश्चापि सशर्करान्।। भोजनं च हितं शीतं सघृतं मधुरद्रवम् । शृतेन पयसा रात्रौ शर्करामधुरेण च ।। प्रत्यग्रकुसुमाकीर्णे शयने हर्म्यसंस्थिते। शयीत चन्दनार्द्राङ्गः स्पृश्यमानोऽनिलैः सुखैः।।’ (सु.उ. ६३)। हेमन्त तथा शिशिर ऋतु में उष्ण गर्भगृह के तथा ग्रीष्म ऋतु में शीतगृह के वर्णन से प्रतीत होता है कि शीत-ताप-नियंत्रण (Air-conditioning) का किसी न किसी रूप में उस समय भी प्रयोग होता रहा होगा।

५. वर्षा ऋतुचर्या (Regimen of Rainy season )

आदानदुर्बले देहे पक्ता भवति दुर्बलः । स वर्षास्वनिलादीनां दूषणैर्बाध्यते पुनः ॥३३॥ भूबाष्पान्मेघनिस्यन्दात् पाकादम्लाज्जलस्य च । वर्षास्वग्निबले क्षीणे कुप्यन्ति पवनादयः ॥३४॥
तस्मात् साधारणः सर्वो विधिर्वर्षासु शस्यते ।

वर्षा ऋतुचर्या का सैद्धान्तिक आधार – आदानकाल में मनुष्यों का शरीर अत्यन्त दुर्बल रहता है। दुर्बल शरीर में एक तो जठराग्नि दुर्बल रहती ही है, वर्षा ऋतु आ जाने पर दूषित वातादि दोषों से दुष्ट जठराग्नि और भी दुर्बल हो जाती है। इस ऋतु में भूमि से वाष्प (भाप) निकलने, आकाश से जल बरसने तथा जल का अम्ल विपाक होने के कारण जब अग्नि का बल अत्यन्त क्षीण हो जाता है तब वातादि दोष कुपित हो जाते है। अतः वर्षाकाल में साधारण रूप से सभी विधियों (नियमों) का पालन करना चाहिए।।३३-३५.१।।

विमर्श—साधारण नियम का तात्पर्य त्रिदोषनाशक वस्तुओं के सेवन से है। वाग्भट ने साधारण द्रव्यों के साथ-साथ अग्निदीपक द्रव्यों का सेवन भी उचित बताया है, -‘वहिनैव च मन्देन तेष्वित्यन्योन्यदूषिषु । भजेत्साधारणं सर्वमूष्मणस्तेजनं च यथा यत्।।’ (अ.हृ.सू. ३) वर्षा ऋतु में वातादि तीनों दोषों के कुपित होने का तात्पर्य यह है कि प्रधान रूप से वात कुपित होता है किन्तु अनुबन्धस्वरूप पित्त और कफ भी प्रकुपित हो जाते हैं।

उदमन्थं दिवास्वप्नमवश्यायं नदीजलम् ॥३५॥
व्यायाममातपं चैव व्यवायं चात्र वर्जयेत् ।

वर्षा ऋतु में वर्ज्य आहार-विहार– वर्षा ऋतु में उदमन्थ (जल में घुला सत्तू) दिन में सोना, अवश्याय (ओस गिरते समय उसमें बैठना या घूमना), नदी का जल, व्यायाम (Exercise), धूप में बैठना और मैथुन (Sexual indulgence) छोड़ देना चाहिए।।३५.२-३६.१।।

पानभोजनसंस्कारान् प्रायः क्षौद्रान्विवतान् भजेत् ॥३६॥

व्यक्ताम्ललवणस्नेहं वातवर्षाकुलेऽहनि । विशेषशीते भोक्तव्यं वर्षास्वनिलशान्तये ॥३७॥ अग्निसंरक्षणवता यवगोधूमशालयः । पुराणा जाङ्गलैमसैर्भोज्या यूषैश्च संस्कृतैः ॥ ३८ ॥
पिवेत् क्षौद्रान्वितं चाल्पं माध्वीकारिष्टमम्बु वा । माहेन्द्रं तप्तशीतं वा कौपं सारसमेव वा ॥ ३९ ॥ प्रघर्षोद्वर्तनस्नानगन्धमाल्यपरो भवेत् । लघुशुद्धाम्बर स्थानं भजेदक्लेदि वार्षिकम् ॥४०॥

वर्षा ऋतु में सेवनीय आहार-विहार-वर्षा ऋतु में खाने-पीने की सभी चीजें बनाते समय उनमें मधु अवश्य मिला लेना चाहिए। वात और वर्षा से भरे उन विशेष शीतवाले दिनों में अम्ल तथा लवण रस वाले और स्नेह द्रव्यों (घृतादि) की प्रधानता भोजन में रहनी चाहिए। जाठराग्नि की रक्षा चाहने वाले पुरुषों को भोजन में पुराने जौ, गेहूँ और चावल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। मांसाहारी व्यक्तियों को इन आहार-द्रव्यों को जांगल पशु-पक्षियों के संस्कृत मांसरस के साथ तथा शाकाहारी व्यक्तियों को संस्कृत मूँग के यूष के साथ लेना चाहिए। इस ऋतु में मधु मिलाकर अल्प मात्रा में माध्वीक (महुए के मद्य), अरिष्ट एवं जल का सेवन करना चाहिए। वर्षा ऋतु में माहेन्द्र (आकाश का) जल, गरम करके शीतल किया हुआ जल, कूप का या सरोवर का जल पीना चाहिए। प्रघर्षण (देह का घर्षण), उद्वर्तन (उबटन), स्नान, गन्ध (चन्दन आदि सुगंधित द्रव्यों) का प्रयोग और सुगन्धित

१. ‘अग्निं संरक्षणवता’ ग. ।

पुष्प-मालाओं को धारण करना हितकर है। हलके और पवित्र वस्त्र धारण करना और क्लेदरहित सूखे (Without damp) स्थान पर रहना चाहिए।। ३६.२-४०।।

विमर्श–वर्षाकाल में अन्न-पान में मधु मिलाकर प्रयोग करने को कहा गया है परन्तु मधु मधुर-रसप्रधान होते हुए शीतल और लघु होने से अल्प वातल होता है, यथा- ‘शीतं कषायं मधुरं लघु स्यात्सन्दीपनं लेहनमेव शस्तम्। ।। नेत्रामये वा ग्रहणीगदे वा विषे प्रशस्तं मधु ह्यल्पवातलम्।।’ (हारीतसंहिता) तथा ‘मधु शीतं लघु स्वादु रूक्षं स्वर्य्यं च ग्राहकम्। आनन्दकृच्च तुवरं चाल्पवातप्रदं मतम्।।’ (नि.र.) । वर्षाकाल में स्वाभाविक रूप से वात का प्रकोप रहता है अतः मधु के सेवन से तो विशेष रूप से वात का प्रकोप ही होगा, तब उसका प्रयोग क्यों किया जाय, इस शंका का समाधान चक्रपाणि ने इस प्रकार किया है कि मधु वर्षा ऋतु में उत्पन्न क्लेद का शमन करता है अतएव थोड़ी मात्रा में सेवन करने से कोई हानि नहीं है। ‘क्षौद्रान्वित’ शब्द का अभिप्राय भी यही प्रतीत होता है कि मधु का प्रयोग अल्प मात्रा में ही किया जाय। सुश्रुत ने वर्षाऋतुचर्या के साथ-साथ प्रावृट् ऋतुचर्या भी अलग कही है, यथा—

वर्षा ऋतुचर्या – ‘प्रक्लिन्नत्वाच्छरीराणां वर्षासु भिषजा खलु मन्देऽग्नौ कोपमायान्ति सर्वेषां मारुतादयः।। तस्मात् क्लेदविशुद्ध्यर्थं दोषसंहरणाय च । कषायतिक्तकटुकै रसैर्युक्तमपद्रवम्।। नातिस्निग्धं नातिरूक्षमुष्णं दीपनमेव च। देयमन्नं नृपतये यज्जलं चोक्तमादितः।। तप्तावरतमम्भो वा पिवेन्मधुसमायुतम्। अह्नि मेघानिलाविष्टेऽत्यर्थशीताम्बुसङ्कुले।। तरुणत्वाद्विदाहं च गच्छन्त्योषधयस्तदा। मतिमांस्तन्निमित्तं च नातिव्यायाममाचरेत् ।। अत्यम्बुपानावश्यायग्राम्यधर्मास्तपांस्त्यजेत् । भूबाष्पपरिहारार्थं शयीत च बिहायसि।। शीते साग्नौ निवाते च गुरुप्रावरणे गृहे। यान्नान्नाग वधूभिश्च प्रशस्तागुरुभूषितः ।। दिवास्वप्नमजीर्णं च वर्जयेत्तत्र यत्नतः ।।’ (उ. ६४)

प्रावृट् ऋतुचर्या—यथा तापात्यये हितानित्यं रसा ये गुरवस्त्रयः। ‘पयो मांसरसाः कोष्णास्तैलानि च घृतानि च। बृंहणं चापि यत्किञ्चिदभिष्यन्दि तथैव च ।। निदाघोपचितं चैव प्रकुप्यन्तं समीरणम्। निहन्यादनिलघ्नेन विधिना विधिकोविदः।। नदीजलं रूक्षमुष्णमुदमन्थं तथाऽऽतपम्। व्यायामं च दिवास्वप्नं व्यवायं चात्र वर्जयेत ।। (नवान्नरूक्षशीताम्बुसक्तूंश्चापि विवर्जयेत्।) यवषष्टिकगोधूमान् शालींश्चाप्यनवांस्तथा ।। हर्म्यमध्ये निवाते च भजेच्छय्यां मृदूत्तराम्। सविषप्राणिविण्मूत्रलालानिष्ठीवनादिभिः।। समाप्लुतं तदा तोयमान्तरीक्षं विषोपमम् । वायुना विषदुष्टेन प्रावृषेण्येन दूषितम् ।। तद्धि सर्वोपयोगेषु तस्मिन् काले विवर्जयेत्। अरिष्टासवमैरेयान् सोपदंशांस्तु युक्तितः ।। पिबेत् प्रावृषि जीर्णास्तु रात्रौ तानपि वर्जयेत्। निरूहैर्बस्तिभिश्चान्यैस्तथाऽन्यैर्मारुतापहैः।। कुपितं शमयेद्वायुं वार्षिकं चाचरेद्विधिम्।’ (उ. ६४)

वर्षाकाल में कैसे स्थान पर रहना चाहिए, इस विषय में वृद्ध वाग्भट का निम्नलिखित मत विशेष विचारणीय है ‘असरीसृपभूबाष्पशीतमारुतशीकरम्। साग्नियानं च भवनं निर्दशमशकोन्दुरम्।।’ (अ.सं.सू. ८)

* ६. शरद् ऋतुचर्या (Regimen of Beginning of Autumn season)

वर्षाशीतोचिताङ्गानां सहसैवार्करश्मिभिः । तप्तानामाचितं पित्तं प्रायः शरदि कुप्यति ॥४१॥ 

शरद् ऋतु में पित्त का प्रकोप–वर्षाकाल में जिनको शीतसात्म्य हो गया रहता है ऐसे लोगों के अंग सहसा सूर्य की प्रखर

किरणों से तप्त हो जाते हैं, फलतः वर्षा ऋतु में संचित हुआ पित्त शरद् ऋतु में प्रकुपित हो जाता है।। ४१॥ 

तत्रान्नपानं मधुरं लघु शीतं सतिक्तकम्। पित्तप्रशमनं सेव्यं मात्रया सुप्रकाङ्क्षितैः ॥४२॥
लावान् कपिञ्जलानेणानुरभ्राञ्छरभाछ्रशान्। शालीन् सयवगोधूमान् सेव्यानाहुर्घनात्यये ॥४३॥
तिक्तस्य सर्पिषः पानं विरेको रक्तमोक्षणम्। धाराधरात्ये कार्यम्—

शरद् ऋतु में सेवनीय आहार-विहार-अच्छी भूख लगने पर रस में, मधुर, गुण में लघु, वीर्य में शीतल, रसयुक्त एवं पित्त को शान्त करने वाले अन्न-पान का मात्रापूर्वक सेवन करना चाहिए। घनात्यय (घन + अत्यय = मेघ नाश) अर्थात् शरद् ऋतु में मांसाहारियों को लाव (बटेर), कपिञ्जल (गौरैया), एण (हिरण), उरभ्र (दुम्बा भेड़), शरभ (वारहसिंगा) और खरगोश का मांस खाना चाहिए। सामान्यतः सभी को चावल, जौ और गेहूँ का सेवन करना चाहिए और कुष्ठाधिकार में बताये हुए तिक्तघृत का पान, विरेचन और रक्तमोक्षण क्रिया करनी चाहिए।४२-४४.१।।

विमर्श—अच्छी तरह भूख लगने पर खाने का तात्पर्य यह है कि शरऋतु में स्वभावतः सबकी अग्नि मन्द रहती है क्योंकि पित्त बढ़ा रहता है। पित्त की वृद्धि से अग्निमांद्य कैसे हो जाता है इस शंका पर बताया गया है-‘कट्वजीर्णविदाह्यम्लक्षाराद्यैः पित्तमुल्वणम्। आप्लावयद्धन्त्यनलं तप्तं जलमिवालमम्।।’ (च.चि. १५)। अतः भूख लगने पर ही मात्रापूर्वक भोजन का विधान किया गया है।

वस्तुतः पित्त को निकालने का उत्तम उपाय विरेचन है-‘विरेचनं पित्तहराणाम्’, और विरेचन के लिए उत्तम समय शरऋतु ही बतलाई गई है, यथा-‘हैमन्तिकं दोषचयं वसन्ते प्रवाहयन् ग्रैष्मिकमभ्रकाले। घनात्यये वार्षिकमाशु सम्यक् प्राप्नोति रोगानृतुजान्न जातु।।’ (च.शा. २)

शरद् ऋतु में स्वभावतः प्रत्येक प्राणी का रक्त उष्ण रहता है, यथा- ‘शरत्काले स्वभावाच्च शोणितं सम्प्रदुष्यति’ (च.सू. २४)। अतः तिक्तघृत के पाने से या तो उस दुष्ट रक्त की शुद्धि करनी चाहिए अथवा विरेचन द्वारा उसका निर्हरण करना चाहिए। इससे प्रायः रक्त की शुद्धि हो जाती है। यदि इतने से भी रक्त शुद्ध न हो तो रक्त का मोक्षण करा देना चाहिए।

– आतपस्य च वर्जनम् ॥४४॥

वसां तैलमवश्यायमौदकानूपमामिषम् । क्षारं दधि दिवास्वप्नं प्राग्वातं चात्र वर्जयेत् ॥ ४५ ॥

शरद् ऋतु में त्याज्य आहार-विहार – शरद् ऋतु में धूप का सेवन, वसा (चर्बी) तैल, ओस, औदक मांस (मछली आदि) आनूप मांस (सूअर आदि) का, क्षार, दही का सेवन और दिन का शयन; एवं पूर्वी वायु का सेवन नहीं करना चाहिए।।४४.२-४५॥

विमर्श—‘प्राग्वात, शब्द का अर्थ पूर्वी हवा किया जाता है। यह हवा बंगाल की खाड़ी से उठने के कारण नमी (Damp) लिए रहती है। इसके सेवन से पुराने संधिवात (Arthritis) इत्यादि व्याधियाँ पुनः प्रकुपित हो जाती हैं अतएव इसका सेवन निषिद्ध बताया गया है।

दिवा सूर्यांशुसंतप्तं निशि चन्द्रांशुशीतलम् । कालेन पक्वं निर्दोषमगस्त्येनाविषीकृतम् ॥४६॥ हंसोदकमिति ख्यातं शारदं विमलं शुचि । स्नानपानावगाहेषु शस्यते तद्यथाऽमृतम् ॥४७॥

हंसोदक का विवरण– दिन में सूर्य की किरणों से गरम, रात्रि में चन्द्रमा की किरणों से शीतल, काल-स्वभाव से पके हुए अतः निर्दोष और अगस्त्य तारा के उदय होने के प्रभाव से विषरहित हुआ जल ‘हंसोदक’ कहा जाता है। यह ‘हंसोदक’ शरद ऋतु में विमल और पवित्र तथा स्नान, पान और अवगाहन कार्यों में अमृत के समान फल देने वाला होता है।।४६-४७॥

वमर्श – हंसोदक एक पारिभाषिक शब्द है तथा स्वस्थवृत्त की दृष्टि से इसका बड़ा महत्व है। चक्रपाणि ने इसकी निरुक्ति दो प्रकार से की है- १. ‘हंसशब्देन सूर्याचन्द्रमसावभिधीयेते, ताभ्यां शोधितमुदकं हंसोदकम्’ अर्थात् हंस शब्द से सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों ग्राह्य हैं अतएव उन दोनों से शुद्ध जल की संज्ञा ‘हंसोदक’ हुई । २. ‘हंससेवायोग्यं हंसोदकं, हंसाः किल विशुद्धमेवोदकं भजन्ते’ अर्थात् हंसोदक उस जल को कहना चाहिये जिसका हंस (Swan) भी उपयोग कर सके क्योंकि स्वभाव के अनुसार हंस शुद्ध जल को ही पसन्द करता है। यह दोनों अर्थ परीक्षा की दृष्टि से स्मरणीय है।

शारदानि च माल्यानि वासांसि विमलानि च । शरत्काले प्रशस्यन्ते प्रदोषे चेन्दुरश्मयः ॥४८॥ 

शरद् ऋतु में. अनुकूल विहार — इस ऋतु में उत्पन्न फूलों की माला, स्वच्छ वस्त्र और प्रदोष काल में चन्द्रमा की किरणों का सेवन हितकर बताया गया है ॥४८॥

विमर्श–रात्रि के मुख (प्रारम्भ) का नाम प्रदोष है-‘प्रदोषो रजनीमुखम्’ (अमरकोष)। उस समय फूलों की मालायें एवं स्वच्छ वस्त्र धारण करना तथा चाँदनी में बैठना चाहिए। चक्रपाणि के मतानुसार रात्रि में चन्द्रकिरणों का सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे शीत लगने का भय रहता है। सुश्रुत ने शरद् ऋतुचर्या का वर्णन इस प्रकार किया है-‘सेव्याः शरदि यत्नेन कषायस्वादुतिक्तकाः। क्षीरेक्षुविकृतिक्षौद्रशालिमुद्गादिजाङ्गलाः ।। श्वेतस्रजश्चन्द्रपादाः प्रदोषे लघु चाम्बरम्। सलिलं च प्रसन्नत्वात् सर्वमेव तदा हितम् ।। सरःस्वाप्लवनं चैव कमलोत्पलशालिषु। प्रदोषे शशिनः पादाश्चन्दनं चानुलेपनम् ।। तिक्तस्य सर्पिषः पानैरसृक्स्रावैश्व युक्तितः। वर्षासूपचितं पित्तं हरेच्चापि विरेचनैः।। नोपेयात्तीक्ष्णमम्लोष्णं क्षारं स्वप्नं दिवाऽऽतपम्। रात्रौ जागरणं चैव मैथुनं चापि वर्जयेत् ।। स्वादुशीतजलं मेध्यं शुचिस्फटिकनिर्मलम् । शरच्चन्द्रांशुनिर्धौतमगस्त्योदयनिर्विषम् ।। प्रसन्नत्वाच्च सलिलं सर्वमेव तदा हितम्। सचन्दनं सकर्पूरं वासश्चामलिनं लघु।। भजेच्च शारदं माल्यं सीधोः पानं च युक्तितः। पित्तप्रशमनं यच्च तच्च सर्वसमाचरेत्।।’ (उ. ६४)

इस प्रकार षड्ऋतुचर्या का उपदेश किया गया है। एक ऋतु के समाप्ति-काल और दूसरी के प्रारम्भकाल में किस प्रकार पूर्वऋतु के नियमों को छोड़ना तथा उत्तरऋतु के नियमों को ग्रहण करना चाहिए, इस विषय पर यहाँ प्रकाश नहीं डाला गया है किन्तु वाग्भट ने इस विषय का स्पष्ट विवेचन किया है, यथा-‘ऋतोरन्त्यादिसप्ताहावृतुसन्धिरिति स्मृतः। तत्र पूर्वो विधिस्त्याज्यः सेवनीयोऽपरः क्रमात्।। असात्म्यजा हि रोगाः स्युः सहसा त्यागशीलनात्।’ (अ.हृ.सू. ३)। अर्थात् एक ऋतु के अन्त के सात दिन और दूसरी ऋतु के आदि के सात दिन, इन चौदह दिनों का नाम ‘ऋतुसन्धि’ है। एक ऋतु के अन्तिम सात दिनों में क्रमशः उस ऋतु के नियमों का त्याग करते हुए अग्रिम ऋतु के प्रारम्भ के सात दिनों तक पूर्णत्याग तथा अग्रिम ऋतु के सेवनीय आहार-विहार को इन चौदह दिनों में क्रमशः शनैः शनैः सेवन करना चाहिए। अन्यथा (सहसा नियमों का त्याग और परिशीलन करने से) असात्म्यज रोग उत्पन्न हो जाते हैं। अन्त में सुखस्मरणार्थ षड्ऋतुओं की चर्या का वर्णन निम्नलिखित रूप में दिया जा रहा है— (table)

(ग) सात्म्य-वर्णन (Homologation) 

इत्युक्तमृतुसात्म्यं यच्चेष्टाहारव्यपाश्रयम् । उपशेते यदौचित्यादोकःसोत्म्यं तदुच्यते ॥४९॥

ओकसात्म्य का वर्णन-इस प्रकार चेष्टा (विहार) और आहार के अनुसार ऋतुसात्म्य का उपदेश किया गया है। जो आहार और विहार उचित (निरन्तर अभ्यस्त) होने से उपशेते अर्थात् शरीर के लिए हितकारी होता है उसे ओकसात्म्य (Acquired homologation) कहते हैं ॥ ४९ ॥

विमर्श-तात्पर्य यह है कि अनुचित (अपथ्य) आहार-विहार भी यदि निरन्तर सेवन करते रहने से प्रकृति के अनुकूल हो जायँ अतः हानि न पहुँचायें तो उन्हें भी ओकसात्म्य (ओक = शरीर + सात्म्य = अनुकूल) कहते हैं।

देशानामामयानां च विपरीतगुणं गुणैः । सात्म्यमिच्छन्ति सात्म्यज्ञाश्चेष्टितं चाद्यमेव च ॥ ५० ॥

सात्म्य-वर्णन (उपसंहार) — सात्म्य को जानने वाले विद्वान् देश और रोगों के गुणों से विपरीत गुण वाले चेष्टित (विहार) और आद्य (आहार) आदि को उन-उन देशों और रोगों के लिए सात्म्य मानते हैं।॥ ५० ॥

विमर्श-सात्म्य का अर्थ है उपशय-‘सात्म्यार्थो ह्युपशयार्थः’ (च.नि. १), ऐसा आचार्य ने स्वयं कहा है। यहाँ चार प्रकार का सात्म्य बतलाया गया है- १. ऋतुसात्म्य, २. ओकसात्म्य, ३. देशसात्म्य तथा ४. रोगसात्म्य। इनके बलाबल का निरूपण इस प्रकार किया गया है- ‘तत्रोकसात्म्यं सामान्यं सर्वदेशेषु सम्मवात्। ऋतोर्देशविशेषो हि सामान्याद्बलवान् यतः ।। देशौकः सात्म्ययोरोकः सात्म्यं तु बलवन्मतम् । तद्यथा कण्ठरोगे तु प्रश्वासगलरोधिनि।। ग्रीष्मर्तौ सिन्धुदेशे च पुंसि क्षीराज्यशालिनि। मुक्त्वा सात्म्यत्रयं व्याधिसात्म्यमेव प्रयोजयेत् ।। कटुतिक्तकषायादि रूक्षं यच्चापतर्पणम्। न ह्यस्यां व्याध्यवस्थायां ग्रैष्मिको विधिरिष्यते।। न सैन्धवो विधिस्तत्र मत्स्यानूपामिषादिकः । न चापि तत्र शाल्यन्नक्षीराज्यादि हितं तदा ।। अनया हि दिशा सर्वमूह्यं सात्म्यबलाबलम्। मिथः सात्म्याद् विरोधी स्यादनुरोधेन योजयेत्।। सर्वाण्येव हि सात्म्यानि तद्यथा पैत्तिके गदे। शरदृतौ मरौ देशे नरे मधुरशालिनि।। तत्रर्तुदोषपुरुषरोगसात्म्यं प्रयोजयेत् । अयमेव विधिर्ज्यायान् यत्सात्म्यानां चतुष्टयम ।। प्रयुज्यते विरोधेन विरोधे ज्ञापितो विधिः। सात्म्यस्य नियमो ह्येष आत्मना सह यत् स्थितम् ।। आत्मा ह्यनुमतो देहो यदा द्रव्योपयोगतः। विकारं नैव भजते तस्मात्सात्म्यं निरुच्यते।।’ (अ.सं.नि. १)

तत्र श्लोकः—

ऋतावृतौ नृभिः सेव्यमसेव्यं यच्च किंचन । तस्याशितीये निर्दिष्टं हेतुमत्सात्म्यमेव च ॥५१॥ 

अध्यायगत विषयों का उपसंहार— इस ‘तस्याशितीय’ नामक अध्याय में प्रत्येक ऋतु में मनुष्यों के सेवन करने तथा सेवन न करने योग्य आहार-विहारों का कारणसहित वर्णन तथा सात्म्य का भेद और उसका विवेचन किया गया है।। ५१।। इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने स्वस्थवृत्तचतुष्के तस्याशितीयो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥६॥ चरक के द्वारा प्रतिसंस्कृत अग्निवेशकृत तन्त्र (चरक संहिता) के सूत्रस्थान में स्वस्थवृत्तश्चतुष्कविषयक ‘तस्याशितीय’ नामक छठाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥६॥