भाषाविज्ञान ।
-श्रीवासुदेव मिश्रशर्म्मा
वाचं देवा उपजीवन्ति विश्वे वाचं गन्धर्वाः पशवो मनुष्याः । तैत्तिरीयब्राह्मणम् ।
देव, गन्धर्व, पशु तथा मनुष्य वाक् (वचँ परि॒भाष॑णे – communication) के द्वारा ही जीवनके समीपतम प्रयोजन पूर्ण करने में समर्थ होते हैँ । यहाँ देवा (देवनमिह क्रीडा यथा बालः कन्दुकैर्नित्यमिति हलायुधः – त्रयस्त्रीगंशत् तु एव देवा – शतपथब्राह्मणम् – ३३ quantum particles that follow different interactive principles of छन्दः) को अन्यों से भिन्न रखागया है ।
वाग् हि वाजस्य प्रसवः । सा वै वाक् सृष्टा चतुर्था व्यभवत् एषु लोकेषु । त्रीणि तूरीयाणि पशुषु तुरीयम् – मैत्रायणीसंहिता ।
वाक् ही वाज (डुव॒पँ॑ (टुव॒पँ) बीजसन्ता॒ने) का क्षेत्र है । यहीँ वाक् वास करता (उप्यते अस्मिन्निति) है । चतुष्टयं वा इदं सर्वम् – यह शाङ्ख्यायन (कौषितकी) ब्राह्मणम् सिद्धान्त के अनुसार यह वाक् सृष्ट हो कर चार भाग में विभक्त हो गया है । इसके तीन भाग मनुष्यों में है । चौथा भाग पशुओं में है । भरत में नाट्यशास्त्रके १७ अध्याय के २८ से ३१ श्लोक में इनको अतिभाषा अथवा देवभाषा, आर्यभाषा, जातिभाषा तथा अन्यन्तरीभाषा कहा है । “यह ऐसा हो” – इसप्रकार के चित्तवृत्तिको इच्छा कहते हैँ । स्व हृदयस्थ चित्तवृत्ति को परहृदयमें सन्निवेशित करने की प्रक्रियाको भाषा कहते हैँ । यह व्युत्पन्न अथवा अव्युत्पन्न हो सकता है । अव्युत्पन्न जातिप्रवृत्ति-निमित्तक, गुणप्रवृत्ति-निमित्तक तथा शब्दप्रवृत्ति-निमित्तक हो सकता है (यदर्थज्ञानाच्छब्दप्रवृत्तिस्तत्प्रवृत्तिनिमित्तम्)) ।
अतिभाषा अथवा देवभाषा को छान्दस् (छन्दसो यदणौ – अष्टाध्यायी ४-३-७१, मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् – श्रीमद्भागवतम् १- ४-१३), दिव्या अथवा भारती कहते हैँ, जो वेद की भाषा है । वैदिक व्याकरण को ऐन्द्र व्याकरण कहाजाता है, कारण इन्द्र ही प्रथम अखण्डा वाक् को प्रकृति-प्रत्ययभेद से व्याकृ (खण्डित) किए थे । प्रत्येक वेद के प्रातिशाख्य ही उसका व्याकरण है । ऋक्तन्त्र तथा पुष्पसूत्रम् सामवेदका प्रातिशाख्य है । अन्य वेद शाखाओं के प्रातिशाख्य उन्हीके नाम से है । इनमें अक्षरोंको ब्राह्म वर्णसमाम्नाय कहते हैँ । पाणिनीके पूर्ववर्त्ती वैयाकरण इन पर पुस्तक लेखे थे । शिक्षाग्रन्थों तथा प्रातिशाख्य प्रत्येक पद का निर्वचन करते हैं । परन्तु पाणिनी ने ऐसा नहीं किया । विषयवस्तु का क्रम भी दोनों मे भिन्न है । यास्क के निरुक्त और निघण्टु, शान्तनव के फिट् सूत्र, व्याडि के जटापटल, वररूची के धातुपाठ – इन सबका व्यवस्थान अष्टाध्यायी से भिन्न है । उपसर्गके व्यवहार वेद और अष्टाध्यायीमें भिन्न है । वेदमें यह अलग रहते हैं, परन्तु अष्टाध्यायीमें यह क्रियापदसे युक्त रहते हैं । वेदमें ळ (जैसे अग्निमीळे) व्यवहार होता है । परन्तु अष्टाध्यायीमें नहीं । वेदमें पुंलिङ्ग अकारान्त शव्द – जैसे देवः – का कतृकारक रूप देवासः हो सकता है । परन्तु अष्टाध्यायीमें यह केवल देवाः होगा । उसी प्रकार वेद में करणकारक वहुवचन में देवेभिः होता है, जब कि अष्टाध्यायीमें यह देवैः होता है ।
प्राकृत के पूर्व शाखा को पालि कहते हैं, जो पूर्वभारतीय भाषाओं का जननी है । पालि के कच्चायन व्याकरण के सूत्रसंख्या ७, १०, ११, ३१, ५४, ५७, १३३, १६५, १६६ एवं १६७ आदि वैदिक नियम का अनुसरण करते हैं, जो अष्टाध्यायी के नियम से भिन्न है । उसके सूत्रसंख्या २७६, २९३, २९५, २९७, २९९, ३००, ३०१, ३२३ आदि के नियम अष्टाध्यायी जैसा है, परन्तु दोनों का मूल स्रोत प्रातिशाख्य है । एक और भिन्नता समानार्थवाची शब्दों के व्यवहारको ले कर है । संस्कृत तथा अन्य लौकिक भाषाओं में पृथ्वी के स्थान पर मही अथवा धरा शब्दों के व्यवहार किया जा सकता है । परन्तु वेदमें ऐसा नहीं किया जा सकता । ऐसा करने से अर्थ वदल जाते हैं अथवा वह निरर्थक हो जाता है । वेद में प्रत्येक शव्द को उसके सन्दर्भ में विचार किया जाता है । इसके वहुत उदाहरण है । समानार्थक शब्दों में भी अक्षरों के संख्या भेदसे वेद में अर्थ वदल जाते हैं । उदाहरण के लिये अस्य और एतस्य समानार्थक शब्द है । परन्तु वेदमें इनके प्रयोग से अर्थ भिन्न हो जाते हैं, जो संस्कृत में नहीं होता । इससे सिद्ध होता है कि वेद का भाषा संस्कृत नहीं है, छन्दस् है । ऐसे और भी वहुत उदाहरण हैं जो दिखाता है कि वैदिक और संस्कृत भाषायें भिन्न है ।
आर्यभाषा प्राकृत तथा संस्कृत हैं । ऋषियों द्वारा वैदिकभाषा (वेदेविदिता वैदिकाः) पृथ्वीपर लाया गया । जव ऋषि साधारण लोगोंसे मिले, तो लौकिकभाषा (लोकेविदिता लौकिकाः) के उपर उसका प्रभाव पडा । धीरेधीरे भाषाविपर्यय आरम्भ हो कर बढता गया । उससे भाषाका व्यञ्जकता लोपहोने लगा और लोग एक कथित भाषा का विभिन्नअर्थ करने लगे । इससे मुक्ति के लिये विपर्यस्तसंस्कार द्वारा एक व्याकरण लिखागया, जो सर्वप्रथम होने से प्राक् कृत अथवा प्राकृत कहागया ।
वैदिक नियमसे प्रधान को पूर्वमें तथा अप्रधान को पश्चात् लिखने का नियम है यथा इन्द्राग्निम्, न कि अग्नीन्द्रम् । इसीलिए भरतने प्रथम होने से संस्कृत के पूर्व प्राकृत लिखा । पाणिनी ने भी अपनी शिक्षाग्रन्थ में लिखा – त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भवतो मताः । प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ताः स्वायम्भूवा । महेश्वर के मत में वर्ण सङ्ख्या ६३ अथवा ६४ हैं । प्राकृत और संस्कृत दोनों में ही यह स्वयम्भु के द्वारा निर्णीत हैं । पाणिनी का व्याकरण माहेश्वरसूत्रों पर आधारित है । शाकल्य, भरत, कोहल, वररूची, भामह, वरदराज आदि प्राकृत का व्याकरण लिखे थे । वररूची पाणिनी के समसामयिक थे । इसका विवरण कथासरित् सागर में है । प्राकृत का व्याकरण का प्राचीनता का अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि रावणने भी इस पर एक पुस्तक लिखा था । अधुनाप्राप्त रावणकृत प्राकृत कामधेनु पुस्तकमें लिखा है विस्तरात् गदितं पूर्वं संक्षेपाद् अधुनोच्यते । यह उसका प्रमाण है । कातन्त्र व्याकरण, प्राकृत प्रकाशः आदि प्राकृत का व्याकरण उपलब्ध है । अक्सफोर्ड के अध्यापक कोवेल (Edward Byles Cowell of Oxford) प्राकृत प्रकाशः के समीक्षा में लिखा है कि East-India House Library के पुस्तक सङ्ख्या ११२० तथा १५०३ में वसन्तराज कृत प्राकृत सञ्जीवनी, तथा क्रमदीश्वर एवं हेमचन्द्र कृत प्राकृत का व्याकरण पुस्तक उपलब्ध है । उत्कलीय मार्कण्डेय कबीन्द्र स्वकृत प्राकृतसर्वस्व में प्राकृत वैयाकरणों के विषयमें लिखा है – “शाकल्यभरतकोहलवररुचिभामहवसन्तराजाद्यैः प्रोक्तान् ग्रन्थान् …. अव्याकीर्णं विशदं सारं …. प्राकृतसर्वस्वमारभते”।
कालिदास के नाटकमें अन्तःपुर के नारीयाँ प्राकृतमें वार्तालाप करती है । कालक्रम से प्राकृत के पूर्व शाखा से पालि, पश्चिम शाखा से महाराष्ट्री तथा उदीच्य शाखा से पैशाची आदि भाषा सृष्टि हो गये । इनके भी आञ्चलिक अनेक भेद हो गये । भारतीय भाषाओं का जननी प्राकृत है । पुनः भाषा विपर्यय होने लगा । तब एक अपरसंस्कार का आवश्यकता हुआ । उस अपरसंस्कार सभा में अगस्ति भी थे । आलोचना शिक्षा तथा प्रातिशाख्य के आधार पर हुआ । स्वहृदयस्थ भाव को परहृदयमें सन्निवेशित करने की प्रक्रियाको भाषा कहते हैं । इसमें इच्छा, ज्ञान, क्रिया तीनों ही अभिप्रेत है । ये मनके विना कार्य नहीं कर सकते । गति अग्नि का कार्य है । मन ही प्रथमे कायाग्नि (शरीरस्थ उष्मा) को मूलाधार से प्रेरित करती है । वह शरीरस्थ वायु को तापित कर उपर की दिशा में प्रेरित करती है । वही वायु हृदयस्थान से हो कर कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त, ओष्ठ होते हुये जब वाहर निकलती है, तो वही वाङ्गमयमण्डल कहलाती है ।
शब्देनोच्चारितेनेह येन द्रव्यं प्रतीयते ।
तदक्षरविधौ युक्तं नामेत्याहुर्मनीषिणः।
सङ्ख्यावान् सत्वभूतोर्थः सर्व एवाभिधीयते ।
भेदाभेद विभागोहि लोके सङ्ख्या निबन्धन ।
नाम द्वारा किसी वस्तु का अन्य वस्तु से भेद का निर्देश होता है ।
आत्मा बुद्ध्या समेत्यार्थान्मनो युक्ते विवक्षया ।
मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ।
मारुतस्तूरसि चरन्मन्द्रं जनयति स्वरम्”।
मन में से कामना का उदय होता है । कामना के अव्यवहितोत्तरकाल में प्राणव्यापार आरम्भ हो जाता है । उससे शान्त-स्थिर वाक् समुद्र में गति सृष्टि होती है (so-called big bang)। प्राणसम्बन्ध के तारतम्य से वाक् समुद्र में वीची तरङ्ग (wave) सृष्टि होता है, जिसे कम्प (vibration) कहते हैं । जब वह हमारे श्रवणेन्द्रिय में नोदन सम्बन्ध से युक्त होता है, तब वह हमारे प्रज्ञारूप इन्द्र से बद्ध हो जाता है । बद्ध-तरङ्गों में परिणत वाक् खण्ड ही क-च-ट-त-प, आदि वर्णों का जननी वनती है । उसीसे शब्दसृष्टि होता है । इसलिये वाक् को इन्द्रपत्नी कहते हैं (वाचं देवा उपजीवन्ति विश्वे, वाचं गन्धर्वाः, पशवो मनुष्याः । वाचीमां विश्वा भुवनान्यर्पिता सा नो हवं जुषतामिन्द्रपत्नी – तैत्तिरीयब्राह्मणम् २-८-८-४)।
नामार्थकल्पसूत्रके अनुसार शब्दः के श बिन्दू का वोधक है, व वायु का वोधक है, द अग्नि का वोधक है और विसर्ग अम्वर (आकाश) का वोधक होने से उनको साङ्केतिक (equation) कहते हैं (बिन्दूवातग्न्यम्वराणां तस्मात् साङ्केतिकाः स्मृताः । तत्र शकार बिन्दूः, वकार वायुः, दकार अग्निः, विसर्गाश्चाकाशः । श+व+द+ः = शब्दः) । बिन्दु (अणु) तथा अम्वर (परममहत्) सर्वत्र एक ही है । वह असङ्ग है । विभाग के कारण शब्द तथा उत्तरविभाग होते हैँ (शब्दोत्तरविभागौ विभागजौ – प्रशस्तपाद भाष्य – mechanical waves whose oscillations are parallel to the direction of the energy transport through compression and rarefaction) ।
वायु का प्रभ्राजमाना, व्यवदाताः, वासुकिवैद्युता, रजताः, परुषाः, श्यामाः, कपिला, अतिलोहिताः, ऊर्द्ध्वा, अवपतन्ताः, वैद्युत – यह एकादश विभाग है । अग्निका अग्निः, जातवेदाः, सहोजा, अजिराप्रभुः, वैश्वानरो, नर्यापाः, पङ्क्तिराधाः, विसर्पि – यह अष्ट विभाग है । वायु तथा अग्नि मिलकर १९ विभाग है । इनमें से प्रत्येक का १६ कला है । सब मिलकर (१९ x १६) = ३०४ विभाग होता है । इसीलिए एक ही शब्दतत्त्व शक्तिसम्मिलित हो कर ३०४ प्रकार में विवर्त्तित होता हैँ । जैसे विद्युतचुम्बकीय रश्मि तरङ्ग अनेक प्रकार के होने पर भी, उनके एक छोटे से अंश से सातरङ्ग दिखते हैँ (बाकी के नहीँ दिखते), उसीप्रकार ३०४ प्रकार के शब्दों में से केवल १२ प्रकार के शब्द मनुष्यके श्रवणयोग्य है (बाकी के मनुष्यके श्रवणयोग्य नहीँ है) । इनको स्फोट, रब, अत्यन्तसूक्ष्म, मन्द्र, अतिमन्द्रक, अतितीब्र, तीब्रतर, मध्य, अतिमध्यम, महारब, घनरब, महाघनरब कहा जाता है । स्फोट वह है, जिससे शब्दका आभासमात्र होता है । महाघनरब सुनते ही कान के पर्दे फटजाते हैँ और मृत्यु हो जाता है ।
शब्दः के श बिन्दू का वोधक है, ब वायु का वोधक है, द अग्नि का वोधक है और विसर्ग अम्वर का वोधक होने से उनको साङ्केतिक कहते हैं (बिन्दूवातग्न्यम्वराणां तस्मात् साङ्केतिकाः स्मृताः। तत्र शकार बिन्दूः, वकार वायुः, दकार अग्निः, विसर्गाश्चाकाशः)। उसी प्रकार इच्छा, ज्ञान, क्रिया – यह तीन भावों का साङ्केतिक अ, इ, उ मानलिया गया। परन्तु ऋ के उपर विवाद आ गया। ऋ के गठन में एक चौथाइ मात्रा अ का, मध्य में अर्धमात्रा र का, शेष एक चौथाइ मात्रा अ का है। उसी प्रकार लृ का गठन है। क्युँ कि आरम्भ में और अन्त में स्वरवर्ण है, सब का कथन था कि ऋ ओर लृ स्वर वर्ण है। परन्तु अगस्ति का कथन था कि स्वर और व्यञ्जन समपरिमाण होने पर भी, स्वर का विभाजन के कारण व्यञ्जन का गुरुत्व अधिक है। पुनश्च र और ल अन्तस्थ व्यञ्जन है। इच्छा और उन्मेष शक्ति के मध्यस्थ होने से उन्हे अन्तस्थ कहा जाता है। ऋ और लृ में यही लक्षण दिखा जाता है। अतः इन्हे र्ह और ळ के रूप में व्यञ्जन वर्णों में रखना चाहिये। अन्य ऋषियों का मत था कि स्वर ही भाषाविभाग का बीज है। इच्छा और उन्मेष शक्ति केवल परा और पश्यन्ती वाक् के क्षेत्र में ही प्रकाशित और अनुभूत होते हैं। वैखरी वाणीमें जो मनुष्य कहते हैं, यह अनुभूत नहीं होता। अतः ऋ और लृ स्वर ही होंगे।
इसके उपरान्त अनुस्वार के उपर विचार किया गया। अगस्ति को छोडकर अन्य ऋषियों का कथन था कि अनुस्वार के पूर्व यदि ह्रस्ववर्ण रहता है, तो ह्रस्ववर्ण अर्द्धमात्रा काल के लिये उच्चारित होता है और अनुस्वार देढमात्राकाल उच्चारित होता है। परन्तु अनुस्वार के पूर्व यदि दीर्घवर्ण रहता है, तो दीर्घवर्ण देढमात्रा काल के लिये उच्चारित होता है और अनुस्वार अर्द्धमात्राकाल के लिये उच्चारित होता है। क्युँ कि इसका उच्चारणकाल कहीं कहीं अर्द्धमात्रा है, जो व्यञ्जन का लक्षण है, कहीं कहीं यह देढमात्रा है, जो स्वर का लक्षण है। इसी द्वेधीभाव के कारण अगस्ति का कथन था कि अनुनासिक यमवर्ण जैसा है जो स्पर्शवर्णों के द्वैत उच्चारण के विच्छेद के लिये व्यवहृत होते हैं। उदाहरण के लिये रुक्क्मः में जो दो ककार है, उनके विच्छेदके लिये क यम का अनुनासिक व्यवहार कियाजाता है, जो व्यञ्जन है। उसीप्रकार अनुस्वार को एक अतिरिक्त न के आकार में व्यञ्जनवर्ग में रखना चाहिये। परन्तु अन्यऋषियों ने इसका विरोधकिया। उनका कहना था कि यम जीह्वामूलीय है। अतः उन्होने अनुस्वार को प्रथमवर्ग अर्थात स्वरवर्ण में रखने का निर्णय लिया।
स्पर्शवर्णों में स्पृष्टताभित्तिक क-च-ट-त-प और अनुनासिक ङ्, ञ्, ण्, न्, म् के वर्गीकरण में सर्वसम्मति रहा। परन्तु इनका ख,छ,ठ,थ,फ आदि रूप में पुनः वर्गीकरण के सम्बन्ध में मतभेद रहा। जब हृदयस्थान हो कर वायु कण्ठ से बाहर की दिशामें जाती है, तो यदि स्वरतन्त्रीयाँ अपने स्वाभाविक स्थिति (संवृत्) में होती है, उसे श्वास कहते हैं। परन्तु यदि स्वरतन्त्रीयाँ विकृत (विवृत्) स्थिति में होती है, तो उसे नाद कहते हैं। इसमें सवसे सरल अविकृत शब्द जो कण्ठसे सीधा निकल कर बाहर आती है, वह अ है। इसीलिये कहा गया है कि ‘अकारो वै सर्वा वाक् सा एषा स्पर्शअन्तःस्थ-ऊष्मभिः व्यज्यमाना बह्वी नानारूपा भवति’ (ऐतरेय आरण्यकम् २/३/७/१३)। गीता में भी कहागया है अक्षराणामकारोऽस्मि। पाणिनी माहेश्वरसूत्र अइउण् से आरम्भ कर अन्तिमसूत्र अअ में परिसमाप्त किया है जहाँ विवृत अकार का पुनराय संवृतगुण का प्राप्तिविधान कियागया। पतञ्जलि भी कहते हें अकारस्य विवृतोपदेशः कर्तव्यः।
यदि अकार उच्चारण करने के समय उसे गले में रोक दिया जाय और फिर सीधे छोड दिया जाय, तो वह ककार वन जाता है। परन्तु शक्तिभेद से यदि वह ककार सीधी ओष्ठ से न निकल कर तीरछी हो जाय और तालु, मूर्द्धा अथवा दन्तमूल को स्पर्श करते हुये निकले, तो वह यथाक्रम ख, ग, और घ वन जाता है। अतः यह चार भेद होना चाहिये। अगस्ति का कहना था कि शक्तिभेद से शब्द का उच्चावचता वढ जाती है, परन्तु अर्थभेद नहीं होता। ककार धीरे से उच्चारण करो अथवा जोर से, ककार ककार ही रहता है। अतः ख, ग, घ का वर्गीकरण अनावश्यक है।
अन्यों का कहना था कि वाह्यप्रयत्न 11 प्रकार के होते हैं – विवार, संवार, श्वास, नाद, घोष. अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित। खर् प्रत्याहार वाले वर्णों (ख, फ, छ, ठ, थ, च, ट, त, क, प, श,ष,स) के वर्ग के वाह्यप्रयत्न विवार, श्वास और अघोष है। इसमें कण्ठ खुला रहता है। हश् प्रत्याहार वाले वर्णों (ह, य, व, र, ल, ञ, म, ङ, ण, न, झ, भ, घ, ढ, ध, ज, ब, ग, ड, द) के वर्ग के वाह्यप्रयत्न संवार, नाद और घोष है। इसमें कण्ठ मुँदा रहता है। वर्गों के प्रथम, तृतीय और पञ्चम वर्णों तथा य, व, र, ल का वाह्यप्रयत्न अल्पप्राण है। वर्गों के द्वितीय और चतुर्थ वर्णों तथा श, ष, स, ह का वाह्यप्रयत्न महाप्राण है। अतः ख, ग, घ का वर्गीकरण आवश्यक है।
अगस्ति का कहना था कि शक्तिभेद उष्मवर्णों के लिये व्यवहार किया जाता है, जहाँ क्रिया और उन्मेषशक्ति का प्राधान्य रहता है। परन्तु स्पर्शवर्णों में ज्ञान और उन्मेषशक्ति का प्राधान्य रहता है। अतः ख, ग, घ का वर्गीकरण अनावश्यक है। अन्यों का कहना था कि पदों के स्वर बीज और व्यञ्जन योनि है। बीज केवल समजातीय पदार्थों का उत्पादन कर सकता है। परन्तु योनि विषमजातीय पदार्थों का उत्पादन भी कर सकती है।
अगस्ति का कहना था कि उष्मवर्णों में श, ष. स का भेद अनावश्यक है कारण उसमें शक्ति का अपचय होता है। अन्यों का कहना था कि पद के प्रयोजनों में शक्तिग्रह से व्यञ्जकत्व अधिक महत्वपूर्ण है। शक्तिग्रह सन्धि से भी होता है, जहाँ दो पदों के अन्तिम और प्रथम वर्णों का योग होता है (परः सन्निकर्षः संहिता – अष्टाध्यायी १-४-१०९) । वहाँ उच्चारण स्थान पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उदाहरण स्वरूप तत् शब्द का अन्तिमवर्ण त् है और पुरुष का प्रथमवर्ण पु है। त और प के उच्चारण स्थान दन्तमूल और ओष्ठ है। अतः उनका सन्धि होनेसे तत्पुरुष उच्चारण करने में असुविधा नहीं है। परन्तु यदि दोनों के उच्चारण स्थान भिन्न हो, तो सन्धि इतना सरल नहीं होता। उदाहरण स्वरूप, तत् और हित का सन्धि करनेके लिये ह (जो कि उष्मवर्णों के चतुर्थअक्षर है) का उच्चारणस्थान कण्ठ है। उच्चारण के सरलताके लिये त अपनास्थान त्यागकर अपनेवर्ग के चतुर्थस्थान ध में परिवर्तित होजाता है। तब तद्धित उच्चारण करनेमें सुगमता होती है। यदि स्पर्शवर्णोंका विभाग नहीं रहेगा, तो उच्चारणमें विषमता होगी।
स्पर्शवर्णों का उच्चारण के प्रसङ्ग में एक और मतभेद आया। व्यञ्जन वर्णों के उच्चारण के काल अर्द्धमात्रा है। स्वरवर्ण के उच्चारण के काल अधिक हो सकता है। यदि हम क का उच्चारण करते रहें, अल्प समय के पश्चात् वह अ हो जायेगा। अतः अगस्ति को छोडकर अन्य ऋषियों का मत था कि यदि स्पर्शवर्ण के पश्चात् अन्य स्वरवर्ण नहीं रहता, तो वहाँ अ रहेगा – अर्थात् क् नहीं उसका उच्चारण क होगा। अगस्ति का मत था कि व्यञ्जन वर्णों के पश्चात् स्वरवर्ण का रहना गौण है। समस्त व्यञ्जनवर्ण स्थान और प्रयत्न भेद से अकार का विवृतोपदेश है। अतः अकार का प्रधान्य स्वीकार करना चाहिये। परन्तु अक्षरसमाम्नाय में, अनुवृत्तिनिर्देश में तथा धातु आदि में विद्यमान अकार एक। परन्तु व्यञ्जनवर्ण में यह व्यावृत् रह नहीं सकता, कारण अन्य समस्त वर्ण व्यावृत् है। स्वरवर्ण वीज है। व्यञ्जनवर्ण योनि है। विना बीज के शव्द उत्पन्न नहीं हो सकता। परन्तु संवृत् होने से यहाँ अकार का व्यवहार नहीं हो सकता। पुनश्च अकार इच्छाशक्ति के साङ्केतिक है। व्यञ्जनवर्ण भावव्यञ्जक होने से ज्ञानशक्ति का साङ्केतिक है। अतः ककारादि का उच्चारण इक्, इच्, आदि होना चाहिये। अन्य ऋषियों ने इसको भी प्रत्याख्यान किया ।
अपने मत का बारम्बार प्रत्याख्यान किये जाने से अगस्ति क्षुब्ध होकर सभात्याग करके चलेगये और कैलाशमें शिवशम्भू से मिलने पहुँचे । कैलाश पहुँच कर कोइ कुछ बोलने से पूर्व, अगस्ति को एक दिव्यसुगन्ध का अनुभव हुआ । वह सुगन्धका स्रोत जानने केलिये अगस्ति चारोंदिशाओं को देखरहे थे । शिवजी उनका आशय जानकर चक्षुसे एक दिशा में इङ्गित किये । अगस्तिने देखा कि कुछ विल्वपत्र और विल्वपुष्प से वह सुगन्ध आ रही थी । अनायास उनके मुँहसे निकल गया तमिलम्, तमिलम् (मधुरम्, मधुरम्)। उसके पश्चात् उन्होने शिवजी से सारे वृतान्त कह कर उनका विचार जानना चाहा । सवकुछ शुनने के पश्चात् शिवजी ने कहा व्यञ्जकत्व के दृष्टि से अन्य ऋषियों ने जो कहा, वही ठीक है । परन्तु वाक्य का शव्दशक्तिग्राहकता भी आवश्यक है । उस दृष्टि से अगस्ति का मत भी उचित ही है ।
अपने मत का शिवजी द्वारा पुष्टि किये जाने पर अगस्ति वहुत आनन्दित हुए । उन्होने अपना एक अलग व्याकरण वनाने का निश्चय किया। अन्य ऋषियों का व्याकरण अपरसंस्कार से उद्धृत होने के कारण संस्कृत कहलाया । अगस्ति ने विचार किया कि शिवजी के सान्निध्यमें जहाँ उन्होने अपने नुतन व्याकरण वनाने का निश्चय किया था, प्रथम उच्चारित शब्द तमिलम् था । अतः उन्होने अपने भाषा का नाम तमिल रखा । परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से तमिल भाषा में कुछ त्रृटियाँ थी । इसलिये अगस्ति को संस्कृत के कुछ शब्द (जैसे ज तथा अन्य ग्रन्थलिपि) लेना पडा ।
प्रतिशब्द के अध्ययन को शब्द-पारायण कहते थे। पूरे जीवन पढ़ने पर भी से समझना सम्भव नहीं था, अतः शुक्र (उशना) ने इसे मारणान्तक व्याधि कहा।
बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यवर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दपारायणं प्रोवाच।
(पतञ्जलि-व्याकरण महाभाष्य १/१/१)
तथा च बृहस्पतः-प्रतिपदं अशक्यत्वात् लक्षणस्यापि अव्यवस्थितत्वात् तत्रापि स्खलित दर्शनात् अनवस्था प्रसंगाच्च मरणान्तो व्याधिः व्याकरणमिति औशनसा इति। (न्याय मञ्जरी)।
इसमें सुधार केलिये इन्द्रने ध्वनि-विज्ञानके आचार्य मरुत् की सहायतसे शब्दोंको अक्षरों और वर्णोंमें बांटा तथा वर्णोको उच्चारण स्थानके आधारपर वर्गीकृत किया (व्याकरोत्)।
वाक् वै पराची अव्याकृता अवदत्।
ते देवा इन्द्रं अब्रुवन्। इमां नो वाचं व्याकुरुत-इति। … तां इन्द्रो मध्यत अपक्रम्य व्याकरोत्। तस्मादिदं व्याकृता वाग् उद्यते इति। (तैत्तिरीय संहिता ६/४/७)। सायण भाष्य – तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृति-प्रत्यय विभागं सर्वत्राकरोत्।
स (इन्द्रो) वाचैव व्यवर्तयद् (मैत्रायणी संहिता ४/५/८)।
इसमें क से ह तक ३३ व्यञ्जन सौरमण्डल के ३३ भागों के प्राण रूप ३३ देवों के चिह्न हैं। १६ स्वर मिलाने पर ४९ वर्ण ४९ मरुतों के चिह्न हैं जो पूरी आकाशगंगा के क्षेत्र हैं। चिह्न रूप में देवों का नगर होने के कारण इसे देवनागरी कहा गया।
व्यक्त, व्युत्पन्न एवं सार्थक शब्द ही संस्कृतभाषाको अन्यतरीभाषासे विशेष वनाता है। शब्द तथा अर्थका सम्पूर्ण समन्वय ही वागार्थ है। कोश तथा व्याकरणके द्वारा उस शव्दभण्डारकी सृष्टि तथा चयन एवं समीचिन प्रयोग का यत्किञ्चित शक्ति आती है।
शब्दोऽपि वाचकस्तावत् लक्षको व्यञ्जकस्तथा। वाच्य, लक्ष तथा व्यङ्ग्य भेदसे शब्द त्रिविध है। व्युत्पत्तिके आधार पर कुछलोग पद का रुढ, यौगिक, योगरुढ तथा यौगिकरुढ – यह चार भेद किया जाता है। परन्तु नागेश रुढ, यौगिक, योगरुढको ही मानते हैं (मञ्जूषा)। पण्डित जगन्नाथ केवलसमुदायशक्ति, केवलअवयवशक्ति, समुदायअवयवशक्ति संकर – यह मानते हैं। ॠ ॡ क् सूत्रके भाष्यमें पतञ्जलिने जाति, गुण, क्रिया, यदृच्छा रूपमें चारप्रकार शब्दप्रवृत्तिके विषयमें कहा है।
संस्कृतसे लेकर समस्त साधारण अथवा लौकिक (लोकेविदिता लौकिकाः) भाषा का शुद्धता उसके व्याकरणसे निर्णय किया जाता है, जैसेकि पतञ्जलि के “व्याकरण महाभाष्य” के आरम्भमें लिखागया है । परन्तु इसके विपरीत वैदिकव्याकरण का शुद्धता उसके वेदसम्मत होनेसे सिद्धहोता है (वेदेविदिता वैदिकाः)। अतः वैदिकव्याकरण लौकिकव्याकरणसे भिन्न होता है, जैसेकि पतञ्जलिने कहा है। उसी वैदिकभाषा को पाणिनीने छन्दस् कहा है (उदाहरण – छन्दसो यदणौ – अष्टाध्यायी ४-३-७१)। कहींकहीं उसकेलिये दिव्या अथवा भारती शब्द का व्यवहार होता है । भागवत १-४-१३ में भी कहागया है कि मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् ।
रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम् । ( महाभाष्य नवा०१ )
व्याकरण के ५ उद्देश्य है । सर्वप्रथम उद्देश्य १. वेदों की रक्षा है ।
२. ऊह (तर्क) – यथा स्थान, विभक्ति-परिवर्तन, वाच्य परिवर्तन आदि ।
३. आगम स्तुता मया वरदा वेदमाता० आदि वैदिक आदेशों की पूर्ति ।
४. लघु-संक्षिप्त ढंग से शब्द-ज्ञान ।
५. असन्देह-सन्देह का निवारण, ये सभी मुख्यरूप से वैदिक साहित्य के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं ।
चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा, द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति, महो देवो मर्त्या आविवेश ॥ (ऋग्० ४/५८/३) ॥
चत्वारि श्रृंगा – नाम‚ आख्यात‚ उपसर्ग‚ निपात ।
त्रयः पादाः – भूतकाल‚ वर्तमानकाल‚ भविष्यकाल ।
द्वे शीर्षे – सुप् (सु‚ औ‚ जस् आदि)‚ तिड्。(तिप्‚ तस्‚ झि आदि) ।
सप्तहस्ताः – प्रथमा‚ दि्वतीया‚ तृतीया‚ चतुर्थी‚ पंचमी‚ षष्ठी‚ सप्तमी ।
त्रिधा बद्धः – उरस्‚ कण्ठः‚ शिरस् ।
पतञ्जलि ने इस वृषभ को संस्कृत भाषा के रूप में देखा जिसके चार सींग चार प्रकार के पद – नाम (संज्ञा), आख्यात (क्रिया), उपसर्ग व निपात जैसे उसकी रक्षा करते हैं । उसके तीन पाद भूत, भविष्यत् व वर्तमान में उसको स्थित करते हैं । दो सिर उसकी जैसे दो आत्माएं हैं – नित्य और कार्य शब्द । उसके सात हाथ सात विभक्तियां हैं जो उसे अर्थ ग्रहण करना रही हैं (विभक्तियां केवल नामपदों के लिए कही गई हैं, परन्तु उपलक्षण से क्रियापदों के लकार और उपसर्ग व निपात के अव्ययीभाव का भी यहां ग्रहण कर लेना चाहिए) । तीन प्रकार से जो वह बद्ध कहा गया है, वे शब्दोच्चारण के स्थान हैं – छाती, कण्ठ व सिर । मनुष्य के शरीर में इन स्थानों से ही शब्द का उच्चारण होता है, जैसे वह इन स्थानों से बन्धा हो । वृषभ इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह (ज्ञान, और उससे सुख की) वर्षा करता है । चिल्लाना इसलिए क्योंकि शब्द ध्वन्यात्मक है । यह महान प्रकाशक देव मरणधर्मा मनुष्यों में प्रवेश करता है । जिससे हमारा इस महान् देव से साम्य हो, इसलिए व्याकरण पढ़ना चाहिए ।