छन्दः

छन्दः ।

श्रीमद्वासुदेव मिश्रशर्म्मा।

मा छन्दः । प्रमा छन्दः । प्रतिमा छन्दः । ऽ अस्रीवयश्छन्दः । पङ्क्तिश्छन्दः । ऽ उष्णिक् छन्दः । बृहती छन्दः । ऽअनुष्टुप् छन्दः । विराट् छन्दः । गायत्री छन्दः । त्रिष्टुप् छन्दः । जगती छन्दः ॥ शुक्लयजुर्वेदः –१४.१८ ॥
पृथिवी छन्दः । ऽअन्तरिक्षं छन्दः । द्यौश्छन्दः । समाश्छन्दः । नक्षत्राणि छन्दः । वाक् छन्दः । मनश्छन्दः । कृषिश्छन्दः । हिरण्यं छन्दः । गौश्छन्दः । ऽअजा छन्दः । ऽअश्वश्छन्दः ॥ १९ ॥
अग्निर्देवता । वातो देवता । सूर्यो देवता । चन्द्रमा देवता । वसवो देवता । रुद्रा देवता । ऽऽआदित्या देवता । मरुतो देवता । विश्वे देवा देवता । बृहस्पतिर्देवता । इन्द्रो देवता । वरुणो देवता ॥ २० ॥

छन्दः पादौ तु वेदस्य । छन्द ही गतिशीलता के प्रतीक होने से उसे वेद का पद कहा गया है । शिक्षा, निरुक्ति, गणित, व्याकरण, कल्प भेद से छन्द पञ्चधा विभक्त है । यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः – किसी पद में अक्षरों के संख्या से उसका छन्द निर्णय होता है । मात्राक्षरसंख्यानियता वाक् छन्दः – जिसमें मात्रा, अक्षरसंख्यानियत हो वह छन्द है । अवच्छेद – सीमा का मर्यादा – मान, प्रतिष्ठा, सादृश्य के द्वारा किया जाने वाला वस्तुस्वरूप का मर्यादाबन्ध छन्द है । इसमें वाचिक अथवा पदच्छन्द और अर्थच्छन्द दो विभाग है । मात्रा, अक्षरसंख्या आदि पदच्छन्द है । प्राणमात्रा को छन्द कहते हैँ । किसी मूर्ती की स्वरूपरक्षा के लिए जो विशेष प्राणमात्रा से आच्छादन करना पडता है, वह उसका छन्द होता है । स च्छन्दोभिच्छन्नः, यश्च्चन्दोभिच्छन्नस्तस्माच्छन्दासीत्याचक्षते, छादयन्ति ह वा एनं छन्दांसि पापात् कर्मणः ते छन्दोभिरात्मानं छादयित्वोपायन् तच्छन्दसा छन्दस्त्वम् । प्राणमात्रा से आच्छादन अर्थच्छन्द है ।

त्रीणि च्छन्दांसि कवयो वि येतिरे पुरुरूपं दर्शतं विश्वचक्षणम् ।
आपो वाता ओषधयस्तान्येकस्मिन् भुवन आर्पितानि ॥ अथर्ववेदः – काण्डं १८.०१.१७॥

विश्व में सारेपदार्थ निबिडावयव, तरलावयव, विरलावयव रूप से त्रिविध है । औषधि (ओषं धत्ते) निबिडावयव, अप् तरलावयव, तथा वायु विरलावयव है । इन्ही तीनों भावों से संसार प्रतिष्ठित है । अतः विश्वप्रतिष्ठारूप होने से यह मानाद्यवच्चेदकरूपी छन्द विभाग के अन्तर्गत आते हैँ ।

छन्दशिक्षा के परिभाषा के अनुसार इस शास्त्रका छन्द, पद, अवष्टम्भ, वर्ण, मात्रा, गण, गति, सङ्केत – यह ८ तत्त्व है । किसी भी मात्रामें नियत अवयवविशेषोंके सन्निवेश से विहित मर्यादा छन्द है । व्यवस्थित मात्राओं से ही सारे वस्तु उत्पन्न होते हैँ । अतः वह व्यवस्थित मात्रा वस्तुजनक होने से जाति कहलाती है । यही छन्दजाति – Higg’s mechanism नहीँ, परिमाण (mass) का नियामक है । इससे माछन्द, प्रमाछन्द, प्रतिमाछन्द, अस्रीवयछन्द आदि उत्पन्न होते है (संख्यादिपरिच्छेदे माशब्दस्य, तत्तदर्धायतनभूता यामाशयपदवाच्यायां वस्तुप्रतिष्ठायां प्रमाशब्दस्य, तुलितके च प्रतिमाशब्दस्य व्याख्या स्यमानत्वात्)। साहित्य के छन्द इससे भिन्न है ।

प्राग्गायत्रीछन्दः पञ्चकम् । मा – प्रमा –प्रतिमोपमा – समासंज्ञकान्यत्र छन्दांसि भवन्ति क्रमेण ४-८-१२-१६-२० अक्षरान्वितानि ।
एकाक्षरं भवेदुक्तमत्युक्तं द्व्यक्षरं भवेत् । मध्यं त्र्यक्षरमित्याहुः प्रतिष्ठा चतुरक्षरा ॥ सुप्रतिष्ठा भवेत् पञ्च ॥ नाट्यशास्त्रम् – १४.४८॥

व्यक्तिभावप्रधान दिग्-देश-काल-संवित्-संख्या अवच्छेद, सीमामर्यादा, अभिविधि, नियति, नीति, रीति, व्यवस्था, मिति, मान पर्यायवाची मा छन्द । आकृतिभावप्रधान अणुत्व, महत्त्व, दीर्घत्व, ह्रस्वत्व के नियामक सन्निवेशरूप अवच्छेद, प्रतिष्ठा, आयतन, आशय, परिमाण, प्रमाण के पर्यायवाची प्रमा छन्द । जातिभावप्रधान समान द्रव्य-गुण-कर्म्म रूप अवच्छेद, साधर्म्य, सामान्य, सादृश्य, सारूप्य, तूलीतक प्रतिमिति, प्रतिमान पर्यायवाची प्रतिमा छन्द ।

यो ह वा अविदितार्षेयच्छन्दो दैवतब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वा अध्यापयति वा स्थाणुं वर्च्छति गर्त्ये वा पात्यते प्रमीयते वा पापीयान् भवति (सर्वानुक्रमणी १।१)।

छन्दोहीनो न शब्दोऽस्ति न च्छन्दश्शब्दवर्जितम् ॥ नाट्यशास्त्रम् – १४ अध्यायः – ४७॥
भरत के मत में छन्दहीन कोई भी शब्द नहीँ है । संख्या के विषयमें भरत ने कहा है कि –

पद्य-गद्य-गेय रूप से त्रिधा विभक्त छन्द में पद्यरूप छन्द वृत्त तथा जाति भेद से द्विधा विभक्त है । नियत वर्णव्यवस्था से उत्पन्न छन्द वृत्त है । नियत मात्राव्यवस्था से उत्पन्न छन्द जाति है । पद्य में विश्रामस्थान को पद कहते हैँ । यह पादखण्ड, पाद, दल भेद से त्रेधा विभक्त है । जहाँ किसी भी प्रकार के विश्राम होता है, उसे पादखण्ड कहते हैँ । उससे अधिक विश्राम होने से पाद तथा उससे अधिक विश्राम होने से दल कहते हैँ । उससे अधिक विश्राम होने से उसे चतुष्पदी अथवा श्लोक कहते हैँ ।

अवष्टम्भ, विष्टम्भ, यम, यति, विरति, विराम, विश्राम, व्च्छेद, त्रुटी समानार्थक है । यह यात्न, सामयिक तथा छान्दस भेद से त्रेधा विभक्त है । वर्णोच्चारण के लिए प्रयुक्त प्रयत्न के अनुरोध से उत्पन्न होनेवाला वर्णस्वरूपभेद का उत्पादक दो वर्णों का मध्यवर्ती अवष्टम्भ यात्न है । अर्थज्ञान के लिए प्रयुक्त सङ्केत के अनुरोध से उत्पन्न होनेवाला पद तथा वाक्य के स्वरूप के भेद का उत्पादक दो पदों तथा दो वाक्यों का मध्यवर्ती अवष्टम्भ सामयिक है । छन्द के अनुरोध से उत्पन्न होनेवाले अवष्टम्भ छान्दस है, जो अयति, यति, विरति, विच्छेद, अवसाय भेद से पञ्चधा है । जैसे घोडा कभी रुक रुक कर चरण सञ्चारण करता है, उस प्रकीर का अवष्टम्भ अयति है । चलते हुए घोडे को नियन्त्रण करने के लिए जैसे लगाम लगाना पडता है, उसीप्रकार नियन्त्रक अवष्टम्भ को यति कहते हैँ । जैसे घुडसवार किसी को सन्देश देने के पश्चात् न उतरते हुए पश्चात्गमन करता है, ऐसे अवष्टम्भ को विरति कहते हैँ । वह घुडसवार रास्तेमें रुक कर मित्रों से वार्तालाप करने के पश्चात् आगे बढता है, ऐसे अवष्टम्भ को विच्छेद कहते हैँ । जब वह घुडसवार गन्तव्यस्थान पर पहुँचकर विश्राम करता है, ऐसे अवष्टम्भ को अवसाय कहते हैँ ।

छन्दशास्त्रमें वर्ण और अक्षर एक नहीँ है । यथा वागित्यकमक्षरम् । अक्षरमितित्र्यक्षरम् । आदि । व्यञ्जन सहित स्वर तथा निर्व्यञ्जन स्वर – दोनों अक्षर है । इसलिए अग्निम् यह अ ग् न् इ म् – यह पाञ्च अक्षर वाला पद है । परन्तु छन्दशास्त्रमें यह तीन अक्षरवाला पद है । इसलिए कहा गया है कि स्वरोऽक्षरम् । सहाद्यैर्व्यञ्जनैः । उत्तरैश्चावसितै । संयोगादिः पूर्वस्य । यमश्च । क्रमजं च । तस्माच्चोत्तरं स्पर्शे । अवसितं च । वर्णवेदमें वर्णपदार्थ मुर्ख्य है – अक्षरपदार्थ गौण है । छन्दोवेद में अक्षरपदार्थ मुर्ख्य है – वर्णपदार्थ गौण है ।

वर्णस्वरूप को सीमित करनेवाला तत्त्व को मात्रा कहते हैँ । यह अर्द्धमात्रा, एकमात्रा, अध्यर्द्धमात्रा, द्विमात्रा, त्रिमात्रा भेद से अनेक प्रकार के होते हैँ । इसमें व्यञ्जनों की अर्द्धमात्रा, ह्रस्व स्वरों की एकमात्रा, ए तथा ओ की अध्यर्द्धमात्रा, ऐ तथा औ की द्विमात्रा, तथा प्लुत की त्रिमात्रा होते हैँ । गेयकाण्ड में तीतर, चिडिया, बक, नीलकण्ठ, कोयल, काक, कुक्कुट के बोली के अनुसार अणुद्रुत, द्रुत, द्रुविराम, लघु, लघुविराम, गुरु प्लुत भेद से सप्तधा विभक्त हो कर ताल के अन्तरङ्ग कहे गए हैँ । परन्तु यह छन्दोवेद में विवक्षित नहीँ है । छन्दोवेद के अनुसार अक्षर गुरु-लघु भेद से द्विविध है । एकमात्रावाला अक्षर (ह्रस्व) लधु एवं द्वी (दीर्घ) अथवा त्रि (प्लुत) मात्रावाला अक्षर, तथा सानुस्वार, सविसर्ग स्वर गुरु कहलाते हैँ ।

छन्दोनिर्वचन के सौकर्य के लिए समूहविशेष को गण संज्ञा दिया गया है । यह गण वर्णगण तथा मात्रागण भेद से द्विधा विभक्त है । वर्णगण में छन्द के ८ गण होते हैँ, जो तीन अक्षर के होते हैँ । १- यगणः, २- मगणः, ३- तगणः, ४- रगणः, ५- जगणः, ६- भगणः, ७- नगणः, ८- सगणः । इन गणों के क्षिति-अप्-तेज-वायु-आकाश-सूर्य-चन्द्र-यजमान यह अष्ट शिवमूर्त्ती है । इनका फल श्री-वृद्धि-मृत्यु-विदेशगमन-शून्य-रोग-कीर्ति-सुख है । मात्रागण में क्षगणः, भगणः, जगणः, सगणः, हगणः – यह पञ्चप्रकार के चार मात्राओं वाली (अक्षर न्यूनाधिक हो सकता है) गण होते हैँ ।

छन्दस्वरूप के अभिव्यक्ति के मूल कारण गति है । त्र्यक्षरक किम्बा चतुर्मात्राक प्रस्तारस्वरूप में गतियुक्त किसी प्रस्तार में छन्दोव्यवहार होता है । इनमें कुछ गतियों को (सबको नहीँ) अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए यति की भी अपेक्षा रहती है । विरति, विच्छेद, अवसाय – इन तीन अवष्टम्भों का अपेक्षा सभी गतियों को रहती है । किन्तु जिस प्रस्तारस्वरूप में गति नहीँ होती, उस प्रस्तारस्वरूप में यति, विरति, विच्छेद, अवसाय का सन्निवेश होनेपर भी पदःच्छन्दस्वरूपकी अभिव्यक्ति नहीँ होती । इसीलिए गति को स्वीकार करना पडता है । गति कालकृत्, यतिकृत्, नादकृत्, प्रदेशकृत् भेद से चतुर्द्धा विभक्त है ।

कालकृत् गति को वृत्ति कहते हैँ, जो द्रुता-मध्या-विलम्बिता भेद से त्रेधा विभक्त है । यतिकृत् गति को लय कहते हैँ । लय द्रुतवृत्ति, मध्यवृत्ति, बिलम्बितवृत्ति का इच्छानुसार प्रयोग करने पर भी, छन्दों में नियतस्थानों पर कृत विरत्यादि अवष्टम्भों के स्वरूप का निर्माणकर उससे भिन्न प्रतीत होती है । उस लय के सौष्ठव से छन्द में सौष्ठव आता है । दुःस्थित वर्ण आदि के प्रयोग से उस लय का व्याघात होने पर छन्दसौष्ठव का विनाश हो जाता है । वह लय प्रत्येक छन्द में वर्ण, मात्रा, अवष्टम्भ के भेद से भिन्न हो जाता है । इस गति के अङ्गभूत अवष्टम्भ भी अणुद्रुत, द्रुत, द्रुविराम, लघु, लविराम, गुरु, प्लुत भेद से सप्तधा विभक्त है ।

नादकृत गति ध्वनि कहलाती है । भिन्न भिन्न छन्दों के अभिनय में कहीँ वर्णों की उच्चस्वरता, कहीँ नीचस्वरता, कहीँ समता की अपेक्षा होती है । छन्द के प्रथम अवयव में रहनेवाले वर्णों के उच्चारण से लेकर छन्द के अन्तिम अवयव में रहनेवाले वर्णों के उच्चारण में आभ्यन्तर प्रयत्न तथा अनुप्रदान (वाह्य प्रयत्न) की समानता नहीँ रह सकती । इसप्रकार नादकृत उच्चता, नीचता, समता क्रम से अनुगत भेद के कारण गति में जो भेद हो जाता है, उसे ध्वनि कहते हैँ । प्रदेशकृत गति को चाल कहते हैँ ।

समय-सङ्केत-परिभाषा-संज्ञा समानार्थक है । समय लोकतन्त्रसिद्ध, साधारणतन्त्रसिद्ध, एवं प्रतितन्त्रसिद्ध भेद से त्रिधा विभक्त है । नियतसंख्याविशेष से ज्ञात लौकिक अर्थों के वाचकशब्द, स्वार्थ में तात्पर्य न होने से, जब स्वार्थ से सम्बन्ध संख्यामात्र के बोधन में प्रयुक्त किए जाते हैँ, उसे लोकतन्त्रसिद्ध समय कहते हैँ । उदाहरण केलिए, भू, चन्द्र, आदि शब्द भूमी, चन्द्रमा आदि अर्थ में प्रसिद्ध है । परन्तु जहाँ इन शब्दों के भूमी, चन्द्रमा आदि अर्थ ग्रहण करने पर वक्ता का तात्पर्य के अनुपपन्न होने से उन अर्थों में समवायसम्बन्ध में रहनेवाली एकत्वादि संख्या का वोध कराते हैँ, वह लोकतन्त्रसिद्ध समय है । उसीप्रकार, पक्ष, नेत्र आदि द्वित्व संख्या का वोधक हैँ । अन्य शास्त्रों में प्रसिद्ध जिस अर्थ का छन्दशास्त्र से विरोध न होने के कारण ग्रहण किया जाता है, वह साधारणतन्त्रसिद्ध समय है । जैसे क-ट-प-यादि संख्यागणना, सुबन्त एवं तिङ्न्त का पदत्व, समास सिद्धि आदि । जिस अर्थ का छन्दशास्त्रमें विशेषरूप से विधान किया गया है, वह प्रतितन्त्रसिद्ध सङ्केत है । जैसे वर्णवेदमें प्रसिद्ध वर्ण, मात्रा, अवष्टम्भ के स्थान पर छन्दशास्त्रमें इनका भिन्न उपदेश किया गया है ।

गायत्री षड् भवेदिह ।
सप्ताक्षरा भवेदुष्णिगष्टाक्षरानुष्टुबुच्यते ॥ ४९॥
नवाक्षरा तु बृहती पङ्क्तिश्चैव दशाक्षरा ।
एकादशाक्षरा त्रिष्टुब् जगती द्वादशाक्षरा ॥ ५०॥ तत्रैव ।

वेद में सात प्रकारके मूल छन्द व्यवहार होता है, जिसका अनेक अवान्तर विभाग है ।
गायत्री – इसके २४ अक्षर होते हैँ । इसका मुख्यतः तीन पाद होते हैँ । ऋग्वेद में कहीँ कहीँ एकपदा, द्विपदा, चतुष्पदा, पञ्चपदा आदि भी मिलते हैँ ।
उष्णिक् – इसके २८ अक्षर होते हैँ । इसका मुख्यतः तीन अथवा चार पाद होते हैँ । अक्षरक्रमसे तथा पादविचार से इसका अनेक भेद होते हैँ ।
अनुष्टुप् – इसके ३२ अक्षर होते हैँ । इसका मुख्यतः चार पाद होते हैँ । कहीँ कहीँ त्रिपादानुष्टुप् भी मिलते हैँ ।
बृहती – इसके ३६ अक्षर होते हैँ । इसका मुख्यतः चार पाद होते हैँ ।
पङ्क्ति – इसके ४० अक्षर होते हैँ । इसका मुख्यतः चार पाद होते हैँ । कहीँ कहीँ पञ्चपाद भी मिलते हैँ ।
त्रिष्टुप् – इसके ४४ अक्षर होते हैँ । इसका मुख्यतः चार पाद होते हैँ ।
जगती – इसके ४८ अक्षर होते हैँ । इसका मुख्यतः चार पाद होते हैँ ।

इनमें गायत्रीछन्द पृथ्वीलोक सम्बन्धी, त्रिष्टुप् छन्द अन्तरीक्षलोक सम्बन्धी, जगतीछन्द द्यौलोक सम्बन्धी तथा अनुष्टुप् छन्द सर्वलोक सम्बन्धी है ।

ऊनाधिकेनैकेन निचृद्भुरिजौ । द्वाभ्यां विराट्स्वराजौ ।
एक अक्षर अधिक अथवा न्यून होने से उस छन्द को यथाक्रमे निचृद् तथा भुरिक् कहते हैँ । दो अक्षर अधिक अथवा न्यून होने से उस छन्द को यथाक्रमे विराट् तथा स्वराट् कहते हैँ । जहाँ सन्देह होता है. वहाँ देवता से छन्द का निर्द्धारण किया जाता है ।

सानुस्वारो विसर्गान्तो दीर्घो युक्तपरश्च यः।
वा पादान्ते त्वसौ वक्रो ज्ञेयोऽन्यो मात्रिको ऋजुः॥

अर्थात्- अनुस्वारेण युक्ताः यथा- अं, कं, खं इत्यादयः,
विसर्गान्ताः यथा- अः, कः, खः इत्यादयः,
दीर्घाः यथा- आ, ई, ऊ इत्यादयः, (अत्र दीर्घग्रहणं प्लुतस्यापि उपलक्षणं वर्तते) ।
संयोगपरकाः ह्रस्ववर्णाः यथा- कृष्णः विष्णुः इत्यादिषु स्थिताः ऋ, इ इत्यादयः वर्णाः च एते सर्वे गुरवः भवन्ति । अर्थात् एते गुरुसंज्ञकाः भवन्ति ।
अत्र विशेषः- विसर्गान्तः इति कथनं जिह्वामूलीयोपध्मानयोः उपलक्षणम्। परं वृत्तरत्नाकरस्य टीकाकारस्तु-“युक्तपरश्चेति व्यञ्जनोपध्मानीयजिह्वामूलीयपराणाम् उपलक्षणम् ” इत्याह ।