धर्म (Dharma) की परिभाषा

पूर्व मीमांसा सूत्र के रचयिता पूज्यपाद महर्षि जैमिनी का प्रथम सूत्र है “अथातो धर्मजिज्ञासा”। धर्म (dharma) का परिभाषा करते हुये उन्होने लेखा है कि “चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः” – जिसकी प्रेरणा से सबमें क्रिया होता है, वह पदार्थ धर्म है।

वैशेषिक दर्शन के रचयिता पूज्यपाद महर्षि कणाद का प्रथम सूत्र है “अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः”। उन्होने धर्म का लक्षण कहा है – “यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः” – जिससे अभ्युदय तथा निःश्रेयस का प्राप्ति होता है वह धर्म है।

मनु महाराज ने कहा है “वेदोऽखिलो धर्ममूलम्” (मनुस्मृति – २/६)।

प्रश्न उठता है कि यह धर्म क्या है जिसमें उपर लिखित लक्षण विद्यमान है।

धारणात्मक धृ धातुमें मन् प्रत्यय होकर धर्मः शव्द व्युत्पन्न होता है जिसका अर्थ धारकतत्व है। इसिलिये कहा गया है कि “धारणात् धर्ममित्याहुः धर्मः धारयति प्रजा”। उस धारकतत्व को धर्म कहते हैं जो प्रजाको धारण किया हुआ है।

प्रश्न उठता है कि कौन किसको कैसे धारण किया हुआ है? उत्तर के लिये नदीमें चलता हुआ एक नौका कल्पना किजिये। उस नौकाको किसने धारण किया हुआ है? उत्तर है कि जलके भीतर भागको जल तथा उपर के भागको वायु धारण किया हुआ है। जल के तरङ्ग और वायु का वेग का अपना अपना नियम है। यदि नौका उनके नियमको पालन करके उसी हिसाबसे चलेगा, तो वह बिना क्लेश के अपने गन्तव्य स्थल पर पहुँच जायेगा। यही धर्मका पालन है। यदि वह नौका उसके धारक का नियमको पालन नहिँ करेगा, तो वह क्लेश प्राप्त होगा। यही अधर्म है।

हम अपने परिवार से धृत हैं। हमारा परिवार मोहल्ला, सहर, राज्य, देश, पृथ्वी, तथा ब्रह्माण्डसे यथाक्रम धृत है। यदि हम अपने धारक का नियमको पालन करेंगे तो विना क्लेश के अपने जीवन निर्वाह करेंगे। अन्यथा क्लेश प्राप्त होगें। धर्म religion नहिँ है। Religion is a way of life – एक जीवन प्रणाली है।

प्रश्न उठता है कि इसे “चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः” क्योँ कहा गया। उत्तर है कि प्रत्येक वस्तुका अपना शक्ति होता है, जिससे वह प्रतिभात होता है। शक्तिका स्वरूप सतत चलन है। वह सदा वस्तुको चालन करके उसमें परिवर्तन लाता रहता है। यही परिवर्तन उत्पाद्य, आप्य, संस्कार्य तथा विकार्य रूपसे क्रिया की जननी बनती है। क्रियासे ही वस्तुका अवभासन होता है (रजसा उद्घाटितम्)। हमारा धारक का शक्ति हमें क्रिया के लिये प्रेरित करते हैं। सर्वप्रसविता सूर्य के रश्मि को सावित्री कहते हैं। यही हम सवको प्रेरण करती है (तत्सवितु….प्रचोदयात्)।

हमारे अस्तित्व को हम “चतुष्टयं वा इदं सर्वम्” के अनुसार आत्मा, मन, इन्द्रिय तथा शरीर, यह चार विभाग कर सकते हैं। इनमें शरीर सम्पति बृद्धिको पुष्टि तथा इन्द्रिय सम्पति बृद्धिको सुख कहते हैं। दोनों को मिलाकर भी सुख कहते हैं। मन सम्पति बृद्धिको तुष्टि तथा आत्म सम्पति बृद्धिको शान्ति कहते हैं। दोनों को मिलाकर भी शान्ति कहते हैं। उन्नति शव्दका अर्थ उत् + नति = उठना + पडना होता है। इसलिये महर्षि कणादने उन्नति शव्दका व्यवहार नहिँ किया। शरीर तथा इन्द्रिय सम्पति बृद्धिको सुखकी और प्रेरित करनेको अभ्युदय तथा मन तथा आत्म सम्पति बृद्धिको शान्ति के और प्रेरित करनेको निःश्रेयस् कहा है। शान्तिसे बढकर प्राप्तव्य कुछ और नहीँ है।

अथातो धर्मजिज्ञासा” तथा “अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः” यथाक्रम उन शास्त्रों का अनुबन्ध चतुष्टय – चार अनुबन्ध – भी है। यह चार, 1) विषय, 2) प्रयोजन, 3) सम्बन्ध तथा 4) अधिकारी है। दोनौं का विषय धर्म है। मीमांसा सूत्र धर्मके शक्ति का विवेचन करनेके कारण धर्म शब्द का उपयोग किया तथा वैशेषिक धर्मके स्वरूपका विवेचन करनेके कारण धर्मं शव्दका उपयोग किया। अथ शव्द अधिकारी को दर्शाता है। अथ शव्द अनन्तर वाची है। अनन्तर साकाङ्क्ष है। किसके अनन्तर? उत्तर है वेद अध्ययन के अनन्तर। कारण क्या है ? उत्तर है कि “वेदोऽखिलो धर्ममूलम्”। वेद ही समस्त धर्म के मूल उत्स है। श्रुति कहती है कि “वेदमधित्य स्नायात्” – अर्थात् वेदाध्ययन समाप्त होनेपर समावर्तन स्नान करना चाहिये। उस समय पर्यन्त गुरु के उपदेश ग्रहण करना चाहिये। उसके उपरान्त जब हम अधीत विषय पर चर्चा करते हैं तो अनेक जिज्ञासा उपस्थित होता है। जिज्ञासु ही इस शास्त्र के अधिकारी हैं। उनके लिये इस शास्त्र का प्रयोजन है। अतो शब्द उसी प्रयोजन को दर्शाता है।

मीमांसामें जिज्ञासा शब्द अधिकारी के प्रयोजनके साथ इस शास्त्रका सम्बन्ध को दर्शाता है। वेद शब्दप्रधान है। मीमांसा सूत्र वेदके ब्राह्णणम् भागमें तथाकथित विरोधात्मक विधि वाक्यों का समाधान करता है। इसलिये मीमांसा सूत्रमें जिज्ञासा शब्द का प्रयोग हुआ है। विधिवाक्यों में यथेच्छा प्रयोग निषिद्ध है। परन्तु वैशेषिक अर्थप्रधान है। इसे सीखनेके पश्चात् इसका यथा स्थिति प्रयोग करना चाहिये। प्रयोग के विविधता से फलमें विविधता आ जाती है। इसलिये यहाँ व्याख्यास्यामः शव्द का प्रयोग हुआ है।

2 thoughts on “धर्म (Dharma) की परिभाषा”

  1. Ranjeet Pradhan

    सुन्दर ब्याख्या प्रभु के और प्रेरित करता है। ॐ खम् ब्रह्मः ।

  2. रणजीत प्रधान

    इसलिये ही यह सनातन है। जितने भी पढ़ो स्वाध्याय करो उतने ही आनन्द प्राप्त होते रहते हैं। आनन्द जे उत्स है यह ज्ञान। सर्वदा नुतन शक्ति प्रदान करता है। ॐ स्वस्तिर्भवतु

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