EQUALITY OF SEXES IS MEANINGLESS

शम्भुस्वयम्भुहरयो हरिणेक्षणानां 
येनाक्रियन्त सततं गृहकुम्भदासाः ।
वाचामगोचरचरित्रविचित्रिताय
तस्मै नमो भगवते मकरध्वजाय । शृङ्गारशतकम् ।

शम्भु – शिव, महादेव । स्वयम्भु – ब्रह्मा । हरि – विष्णु । हरिणेक्षणा – हरिणवत् मनोहर लोचना पार्वती, सरस्वती, श्री देवी । गृहकुम्भदासाः – गृह कुम्भ जल भारवाहक भृत्य – दास । सततम् – निरन्तरक्रिया, उसके पर्याय । जिसने शिव, ब्रह्मा, विष्णु जैसे जगत का संहार, सृष्टि, पालनहार देवों को निरन्तर उनके पत्नियों के जलकुम्भभार वहनकारी दास वनादिया है – यह आक्षरिक अर्थ है । अर्धनारीश्वर होने से शिव, सरस्वतीजी को सदा अपने मुखमें वास कराने से (सदा वेदपाठ करने से) ब्रह्मा, तथा लक्ष्मी जी को सदा अपने वक्षस्थलसंलग्न रखने से विष्णु उनके अनुगत हो रहे हैं – जिसने उन महान् देवोंमें भी उसप्रकार के मोह उत्पादन करके अपने स्त्रीयों के तथाविध दास करदिया है – तो साधारण मनुष्य के क्षेत्र में उनके प्रभाव का क्या कहना – यह भाव है । संहार के अनन्तर ही सृष्टि होती है । सृष्टि के अनन्तर उसका पालन पोषण होता है । अतः देवों का यह क्रम रखा गया है ।

जिसका विचित्र – विशिष्ट रूपसे चित्रित – विस्मय, अद्भुत, आश्चर्यादि नाना रूपमें वर्णित – अत्यन्त आश्चर्यकारी, चरित्र – माहात्म्य – अनुभाव तथा लीला । वाचामगोचर – वाङ्मानस अगोचर – जो वाणी के द्वारा प्रकाशयोग्य नहीँ है । भगवते – सकललोक के आराध्य – चतुर्व्यूह के मध्यमें प्रद्युम्न रूपमें प्रविष्ट – अथवा भगवान् के पुत्र रूपमें प्रसिद्ध (आत्मा वै पुत्रनामासि । पतिर्जायां प्रविशति । गर्भोभूत्वा स मातरम् । तस्यां पुनर्नवो भूत्वा दशमे मासि जायते) – यह भाव है । मकरध्वज – मकरकेतन – कामदेवसार्वभौम । अतएव, तस्मै – उनको, नमः – स्तुति करते हैं । 

शतपथब्राह्मणम् (1-5-2-23) में कहागया है – “द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति – आर्द्रंचैव शुष्कं च । यच्छुष्कं तदाग्नेयं यदार्द्रं तत् सौम्यम्” । अर्थात एक आग्नेय शुष्क तत्व है एवं एक सौम्य आर्द्र तत्व है । तीसरी कुछ नहीं है । आङ्गीरस अग्नि पुरुष है । इसकी व्यष्टि अवस्था में अग्नि, वायु, आदित्य तीन भेद हो जाते हैं, जो पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यौः लोकमें रहते हैं । भार्गव सोम स्त्री है । इसकी व्यष्टि अवस्था में आपः, वायु, सोम तीन भेद हो जाते हैं, जो पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यौः लोकमे रहते हैं । इनके मिथुन से रोदसी त्रिलोकी के प्रभव-प्रतिष्ठा परायण हिरण्यगर्भ विराटपुरुष (सूर्य) का जन्म होता है (ऋग्वेद -10-121-1) । अतः मनुसंहिता (1-32) में कहागया है –
द्विधा कृत्वात्मनो देहमर्द्धेन पुरुषोऽभवत् ।
अर्द्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत् प्रभुः ।

अतएव नारी एवं पुरुष देनों एक अपर के पुरक हैं । नारी अथवा पुरुष का व्यष्टि रूपसे पूर्णता नहीँ है । समष्टि रूपसे ही दोनों पूर्ण है – सार्थक है । एक अपर के पुरक होने से इनका समानता का प्रसङ्ग शशशृङ्गवत् व्यर्थ है । नारी एवं पुरुष देनों एक रूप, एक गुण तथा एक कर्म वाले नहीँ हो सकते । किसी न्यायालय के आदेशपर पुरुषमें ऋतु तथा गर्भाधान नहीँ हो सकता । ऋतुसमय के शारीरिक तथा मानसिक विकार पुरुषमें हो नहीं सकता । स्त्री-पुरुष का विभाग गौण है । सौम्य योषा – आग्नेय वृषा प्रकृति ही प्रधान है । दोनों दोनों में तारतम्य से हैं ।

रोदसी त्रिलोकी (सूर्य-पृथिवी अन्तराल के साथ) में सूर्य के द्वारा ही योषा-वृषा प्राण आता है । इसीलिये “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च” तथा “नूनं जनाः सूर्येण प्रसूताः” कहा जाता है । क्रन्दसी त्रिलोकी (महर्लोक-जनलोक – galaxy-galactic cluster – अन्तराल के साथ) से आनेवाला योषाप्राण (प्राणविशिष्ट सोम) रोदसी त्रिलोक की उत्तर दिशा में प्रतिष्ठित होता है एवं वृषाप्राण (प्राणविशिष्ट अग्नि) दक्षिण दिशा में प्रतिष्ठित होता है । वृषा अपने प्रभवस्थान दक्षिण से उत्तर की और जाया करता है । योषा अपने प्रभवस्थान उत्तर से दक्षिण की और जाया करता है । यह वृषा अग्नि ऋत है । सोम संयोग से इसका जो स्वरूप वनता है, उसे ऋतु कहते हैं । योषा-वृषा के सम्मिश्रण से प्रथम ऋतु वनता है । ऋतुओं से सम्वत्सर का स्वरूप वनता है । सम्वत्सरप्रजापति से विभिन्न प्रजाओं का निर्माण होता है ।

यह योषा-वृषा स्त्री-पुरुष दोनों में रहते हैं । स्त्री स्वयं सौम्य है, परन्तु उसका शोणित आग्नेय है । पुरुष स्वयं आग्नेय है, परन्तु उसका शुक्र सौम्य है । योषा-वृषा दोनों में है – केवल विकाश का तारतम्य है । भुक्त अन्न सर्वप्रथम रस वनता है । रस से असृक् (रक्त), मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र क्रम से वनते हैं । शरीर इन धातुओं का समष्टिमात्र है । श्वेतकेतु औद्दालकी तथा बाभ्रव्य पाञ्चाल ने (जिनके कामशास्त्र के आधार पर वात्सायन ने संक्षिप्त रूप से अपने कामशास्त्र लिखा था), कहा है कि “प्रवृत्ते रतिसंयोगे रसमेवात्र कारणम्” । कामोत्पत्ति में रस एकमात्र कारण है । रस अन्न का प्रथमावस्था है । शुक्र अन्तिम परिणाम है (शुक्र से ओज वनता है, जो विशुद्ध सोम है) ।

स्त्री-पुरुष दोनों के काम का आयतन (रहने का स्थान) अलग है । पुरुष के काम का आयतन शुक्र है । स्त्री के काम का आयतन रस है । रस समग्र शरीर में रहता है । अतः स्त्री के समग्र शरीर कामोत्तेजक होता है । स्त्री के शरीर विश्व में एकमात्र वस्तु है, जो एक समयमें एकस्थानमें पाञ्चों इन्द्रियों को तृप्त कर सकता है । इसीलिये स्त्री के शरीर को ढकने का विधान है, कारण हम अपने मूल्यवान वस्तुओं को खुले में नहीं रखते । जो लडकियाँ अपने शरीरको तुच्छ समझती है, अथवा जिनको अपने लडकी होने पर लज्जा आती है, वह पुरुषों जैसा अङ्ग प्रदर्शन करती है । आहार अपने लिये है । अतः अपने रुची के अनुसार होना चाहिये । परिधान अन्य से अपने मूल्यवान शरीरको वचाये रखने के लिये है । अतः परिधान अपने रुची के अनुसार नहीँ, अपने सुरक्षा के विचार से होना चाहिये ।

स्त्री के काम का आयतन रस होनेसे स्त्री शीघ्र ही कामोत्तेजित हो जाती है और पुरुष की इच्छा करती है । नारद महर्षि ने वशिष्ठ ऋषि का वचन उद्धृत करके कहा है “दृश्यं तु पुरुषं दृष्ट्वा योनि प्रक्लिदन्ति स्त्रीयः” – सुदृश्य पुरुष को देखते ही नारीयों के योनि क्लेदयुक्त हो जाता है । परन्तु गुप्तहोनेसे इसका प्रकाश नहीँहोता । पुरुषके काम का आयतन शुक्र है, जो भुक्तअन्नका चरमपरिणाम है । अतः पुरुष स्त्री की इच्छाकरता है । रसके तुलनामें शुक्रका परिमाण अल्प है । अतः स्त्री के तुलनामें, पुरुषका काम अल्प है । परन्तु इसका प्रकाश वाह्यहोनेसे यह अधिक दिखता है ।

स्त्रीके रस तथा असृक् (रक्त) में काम है, जो आग्नेय है । इसीलिये हमारा रक्त गर्म होता है । अग्निके अधिष्ठाता मङ्गल है, जो एक आग्नेयग्रह है । स्त्रीके असृक् में इसी के सत्ता है । मङ्गल लालग्रह है । स्त्री के असृक् लालरङ्ग का होता है । मङ्गलग्रह मकरराशि में उच्च होता है । “जलं प्राप्य माद्यतीति” अर्थमें मद् धातु में उणादि 4-2 के अनुसार स्यन् प्रत्यय होकर मत्स्य शव्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ जल में जिसका मद प्रस्रवण होता है । “मत्स्यानां मकरः श्रेष्ठो” वचन से मकर राशि में स्त्रीयों का मद प्रस्रवण अधिक होता है । अतः स्त्री के काम को मकरध्वज कहा जाता है । पुरुषके कामका आयतन शुक्र है, जो मीनराशि में उच्च होता है । अतः पुरुषके कामको मीनध्वज कहाजाता है । मीयते इति अर्थमें मीञ् हिंसायाम् धातुसे मीन शव्द निष्पन्न होता है । इसीलिये स्त्रीके लिये पुरुष हिंस्रित होजाता है । मीनध्वज पुरुषकाम होकर भी सौम्यहोनेसे स्त्रीमें प्रतिष्ठित है । मकरध्वज स्त्रीकाम होकर भी आग्नेयहोनेसे पुरुषमें प्रतिष्ठित है । इसीलिये स्त्री-पुरुष एक अन्यकी इच्छा करते हॆ । “योषा वा आपः । वृषाग्निः । मिथुनमेवैत्प्रजननं क्रियते” । शतपथ ब्राह्मणम् ।