– श्रीवासुदेव मिश्र।
ॐ सहनाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
गुरु शब्द गॄ नि॒गर॑णे, गॄ वि॒ज्ञाने॑ तथा गॄ शब्दे॑ धातु से निष्पन्न होता है । गिरत्यज्ञानं – अज्ञान का नाश कर, गृणात्युपदिशति धर्म्मं – धर्म-अधर्म को परिभाषित कर विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) का उपदेश करना, तथा गीर्य्यते स्तूयते वा कर्म्माणि – नाम-रूप-कर्म-बान्धवः (स्नेहेन बध्नाति यः – interaction partner) का व्याख्या कर तत्त्ववोध करानेवाले को गुरु कहते हैं । तनोति सर्वमिदमिति तत्त्वम् । आप्रलयं यः तिष्ठति सर्वेषां भोगदायी भूतानाम् । जो शाश्वत है, उसका विशद व्याख्यान ही तत्त्व है ।
आचार्यः पूर्वरूपम् ॥ अन्तेवास्युत्तररूपम् । विद्या सन्धिः । प्रवचनँसन्धानम् ।
-तैत्तिरीयोपनिषत्
गुरु एवं शिष्य एक मुद्रा के दो पार्श्व के समान है । विद्या ही दोनों को एक बन्घनमें रखती है । प्रवचन करने के प्रक्रिया से गुरु अपनेको समृद्ध करते हैं । प्रवचन सुनने के माध्यम से मनन द्वारा शिष्य अपनेको समृद्ध करता हैं । दोनों का उद्देश्य एक है ।
पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः ।
गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी ।। मनुस्मृति २।२३१
जो अग्रणी है, उसे वैदिक परिभाषा में अग्रि कहते हैं । जो जैसे दिखता है, परन्तु वास्तव में वह कुछ और है, उस प्रकार वाक्य को परोक्ष भाषा कहते हैं । अग्रि को परोक्ष भाषामें अग्नि कहते हैं । गुरुओं में श्रेष्ठ तीन – पिता, माता, विद्यागुरु हमारे जीवन को विभिन्न संस्कार में परिपूर्ण करने में अग्रणी भूमिका पालन करते हैं । अतः वे अग्नि हैं । यज्ञ सङ्गतिकरण है (य॒जँ॑ देवपूजासङ्गतिकरणदा॒नेषु॑) । संस्कार के साथ सङ्गतिकरण करने से यह तीनों गुरु यज्ञीय अग्नि से साम्य रखते हैं । गार्हपत्य गृहपतिनां नित्यं संयुक्तः । गार्हपत्याद्वा धार्यश्चेत् । पिता गृहपति होने से गार्हपत्योऽग्निः के समान है । दक्षिणाग्निः अन्वाहार्यपचनाग्निः । हीनं यज्ञस्यान्वाहारतीत्यन्वाहार्य्यः । तत्र अधिश्रयति । माता हमारे दुर्बलता को दूर कर हमें केवल शारीरिक ही नहीं, अपितु मानसिक पोषण भी देती है । अतः माता दक्षिणाग्नि के समान है । हु॒ दानाद॒नयोः॑ । आदा॒ने चेत्येके॑ । प्रीण॒नेऽपीति॑ भा॒ष्य॑म् । गुरु हमें शिक्षा प्रदान कर हमें अर्थोपार्ज्जनक्षम बनाकर परिवार के तृप्तिकरण में समर्थ बनाते हैं । अतः वह आहवनीय अग्नि के समान हैं ।
गुरुलक्षणम् ।
अलुब्धः करुणासिन्धुः पारम्पर्ययुतः शुभः ।
गुरुरेवविधोदेवि शिष्यं सम्यक् परीक्षयेत् ।।
अलुब्धः – अन्याय उपाय से धनार्जनआसक्ति रहित । करुणासिन्धुः – दयार्द्र हृदय । पारम्पर्ययुतः – सद्गुरु परम्परा से प्राप्त विद्या सम्प्रदाय । केवल पुस्तक कण्ठस्थ कर लेने से कोई उस विद्या में पारङ्गत नहीं हो जाता । समस्त सद्गुरु समस्त विषयमें पारङ्गत नहीं होते । उपनिषदों में भी हम देखते हैं कि “एष ह वै तत्सर्वं वक्षतीति” – यही हमारे जिज्ञासा का समाधान कर सकता है – यह कह कर उपयुक्त गुरु के अनुसन्धान करते थे । शुभः – ऐसे ही गुरु शुभ होता है ।
शान्तोदान्तः कुलीनश्च विनीतः शुद्धवेशवान् ।
शुद्धाचारः सुप्रतिष्ठः शूचीर्दक्षः सुबुद्धिमान् ।।
आश्रमी ध्याननिष्ठश्च तन्त्रमन्त्रविशारदः ।
निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते ।।
शान्त – मातृपितृगुण (DNA) से उपयुक्त तथा श्रुक्चन्दनवनितादि विषय में आसक्ति रहित, शमादि गुणयुक्त । युक्त (वाञ्छित) –वियुक्त (अवाञ्छित) दशा में अविचलरूपे अवस्थित शम । भोजनादि इच्छा होने से केवल जीवननिर्वाह उपयोगी मात्रा में आहारादि का अभिलाष करना । बाहुल्याडम्बर से विरत रहना । समयातिरेक होने से अकातर रहना आदि शम का लक्षण है । दान्त – वहिरिन्द्रियनिग्रहकर्ता । जो इन्द्रियों को वश में रखकर – अनावश्यकीय वस्तुओं से निवृत्त कर – अन्तःकरण से दर्शन-मनन-श्रवण-निदिध्यासन में रत रहता हो । कुलीनः – कौलाचारतत्पर – अपने ही कुल के परम्परा को आगे ले जाने वाला । विनीत – विनयशील – अभीमानप्रमत्त नहीँ । शुद्धवेशवान् – पवित्र (hygienic) वेशधारी – कषायपरिधान नहीं ।
शुद्धाचारः – स्मृतिसम्मत अचरणयुक्त । सुप्रतिष्ठः – सत्कार्यादि द्वारा यशस्वी । शूचीः – पवित्र स्वास्थ्यसम्मत कार्य द्वारा शुद्धशरीर । दक्षः – क्रिया-कौशल अभिज्ञ । सुबुद्धिमान् – सद्बुद्धिशाली – कपट आचरणशील नहीं।
आश्रमी – गृहस्थादि आश्रमयुक्त – उदासीन ब्रह्मचर्य नहीं । ध्याननिष्ठः – विद्यासाधनतत्पर । तन्त्रमन्त्रविशारदः – शास्त्रविहित ज्ञान तथा क्रिया में पारदर्शी । निग्रहानुग्रहे शक्तो – सामर्थ्य रहते हुए निन्दा-स्तुति में समभाव रह कर तत्त्वविस्मृत न होना । जो मन्त्र (बुद्धि) प्रदान द्वारा विपद से रक्षा तथा दुष्कृति को दण्ड देने का सामर्थ्य रखता हो ।
आचार्यलक्षणम् ।
उपनीयं तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद्विजः ।
सकल्पं सरहस्यञ्च तमाचार्यं प्रचक्षते ।।
जो गुरु शिष्य को उपनीत कर क्रिया (स्वयं आचरण कर शिष्य को आचरण करवाना – through practical demonstration) तथा रहस्य (रोमस्पर्शनिषेध – गुप्तज्ञान – secret application) का ज्ञान देते हैं, उन्हे आचार्य कहते हैं ।
शिष्यलक्षणम् ।
शिष्यशब्द शि॒षॢँ वि॒शेष॑णे धातु से निष्पन्न हो सकता है । किसी वस्तुमें अन्वित होना तथा यावत्कालस्थायी होनेको विशेषण कहते हैं । दोनोंमें से किसी एक रहनेसे उसे उपाधि कहते हैं । जो विद्या जिसमें जन्मसे मातृपितृगुणसे अन्वित है, उसका विकास से उत्कर्षप्राप्ति होती है । द्वितीय पन्था कर्म द्वारा विकास है । यह विवर्त्त का एक भाग है । अतात्त्विक अन्यथाभावको विवर्त्त कहते हैं । जब केन्द्रशक्ति बिना किसी के सहायतासे विवर्त्तित होता हो, तब उसे अवतार कहते हैं । केन्द्रशक्ति शक्त्याश्रय होकर विवर्त्तित होनेसे, उसे विकास कहते हैं । विद्यार्थी अपने जन्मजातज्ञान को गुरुके सहायतासे अपने कर्मके द्वारा विकास करता है ।
अमन्त्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम्।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥
कोई भी शब्द बिना अर्थ का नहीँ होता है । किसी भी वृक्ष की अवयव बिना औषधी के गुणवाले नहीं होते । उनसे कोई ना कोई औषधि अवश्य ही बनती है । उसी प्रकार कोई भी मनुष्य अयोग्य नहीं होता । केवल कमी है ऐसे लोगों की जो प्रत्येक का उपयोग जान कर उनको उपयुक्त ढंग से प्रयोग में ला सके । अतः योग्यता अनुसार शिष्य का चयन करना चाहिए ।
शान्तो विनीतः शुद्धात्मा श्रद्धावान् धारणक्षमः ।
समर्थश्च कुलीनश्चप्राज्ञः सच्चरितो यतिः ।।
एवमादिगुणैर्युक्तः शिष्यो भवति नान्यथा ।
शान्तो – शमादि गुणयुक्त । विनीतः – विनयी । शुद्धात्मा – विशुद्धस्वभाववाला । श्रद्धावान् – आदर तथा स्पृहायुक्त । धारणक्षमः – स्मृति में अधीत विषयों का विधारणशक्ति रखनेवाला । समर्थश्च – अपना तथा गुरुकुल का सब कर्म करने का शक्ति रखनेवाला । कुलीनः – जो विद्या शिक्षा करना हो, उस गुण (DNA) वाला । प्राज्ञः – जो विद्या शिक्षा करना हो, उस विद्या के विषयमें सामान्यज्ञानशील । सच्चरितो – उच्चमचरित्रवाला । यतिः – निर्जितेन्द्रियग्राम – इन्द्रियों को वश में रखकर प्रयत्न करनेवाला । ऐसे ही लक्षणवाला शिष्य (छात्रः, अन्तेवासी) बनने की योग्यता रखता है । छत्र आवरण । गुरु के दोष दिखनेपर जो उसको आवरण कर गुरु का प्रसिद्धि में योगदान करता है, वह छात्र कहलाता है ।
उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनां ।
उ॒तो त्व॑स्मै त॒न्वं१ वि स॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑ ॥ ऋग्वेदः १०/७१/४॥
कोई पर्यालोचना करने के पश्चात् भी उस वाक् (ज्ञान) का दर्शन नहीँ कर पाता । कोई श्रवण करने के पश्चात् भी श्रवणका फल नहीँ पाता । परन्तु वह ज्ञान स्वयं किसी के सम्मुख अपने को मुक्तरूप से प्रदर्शित करती है, जैसे कोई साध्वी स्त्री सुसज्जित हो कर अपने स्वामीके सम्मुख अपने शरीरको उन्मुक्त करदेती है ।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः … ।
ज्ञान किसी प्रवचन अथवा वहुत पढना-लिखना, अथवा केवल अपने मेधा शक्ति से प्राप्त नहीँ किया जा सकता । अतः कोई किसीको शिक्षा दे नहीँ सकता । स्वयं को सिखना पडता है । उसके लिए निरन्तर प्रयास करना पडता है । शिक्षक के मुख से ग्रहण, स्मृति में उसका धारण तथा उसका निरन्तर पारायण करते रहने पर ही, जब भगवत्कृपा होगी, तब उसका रहस्य अपने आप उन्मेषित हो जाएगी ।
रहस्य-प्रयोग-उपसंहार के साथ ग्रहण होनेसे विद्या पूर्ण रूपसे फलप्रद होता है । ग्राह्य ज्ञेय है – जाननेयोग्य विषय है । ग्राहक ज्ञान है । इनका संयोग ग्रहण है । अप्राप्त वस्तु का प्राप्ति संयोग है (अप्राप्तयोषु या प्राप्तिः सैव संयोग ईरितः)। भूतोंका आधार्याधार सम्बन्धको प्राप्ति कहते हैं (आधार्याधार भूतानाम् – एकके आधारमें अन्यका आधेय रूपसे रहना, जैसे घटीके आधारमें जल आधेय, अज्ञानीके मन और स्मृतिके आधारमें शिक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान आधेय)। उससे ग्राह्य-ग्राहक भेदके कारण विकल्प सृष्टि होते हैं (ग्राह्य-ग्राहक रूपेण विकल्पं समुपाश्रिता – अवभासकत्वेन प्राप्ता सती भासयति । विकल्पनाय – भेद अवभासनाय)। इसका प्रक्रियाके विषयमें बृहदारण्यकोपनिषत् में कहा गया है “आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यश्चेतावदरे खल्वमृतत्वम्”। अतः केवल प्रवचन अथवा शास्त्राध्ययनसे विषयका ग्रहण नहीं होता । उसका दर्शन, श्रवण, मनन तथा निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिए (आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयन्प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम्। इत्यादि श्रुतौ)।
आधुनिक शिक्षणपद्धति दोषपूर्ण है । एक घण्टा वा उससे अल्पसमयमें विषय परिवर्तन कर दिया जाता है । यह अध्ययन के परिपन्थी है । अध्ययन का अर्थ गुरुमुखसे ग्रहण, चित्तमें उसको धारण तथा उसका पारायण द्वारा धी में दृढीकरण है । स्मृति चित्त ही का विषय है । चित्त का सहज (स्वाभाविक) अवस्थाको चित्तभूमि कहते हैँ । यह पञ्चप्रकार का होता है – क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र तथा निरुद्ध । इनको आधुनिक विज्ञान में Beta, Alpha, Theta, Delta, Gamma brain waves linked to an active and alert mind (oscillating electrical voltages in the brain measuring a few millionths of a volt studied in EEG) कहते हैँ ।
अत्यन्त अस्थिर चित्तको क्षिप्त (Beta -12 to 35 Hz) कहते हैँ । जो चित्त किसी इन्द्रियविषयमें मुग्ध हो कर तत्त्वसाक्षात्कार के अयोग्य हो जाता है, उस चित्तभूमिको मूढ (Alpha – 8 to 12 Hz) कहते हैँ । जो चित्त किसी समय क्षिप्त तथा अन्य समय मूढ रहता है, उसे विक्षिप्त (Theta – 4 to 8 Hz) कहते हैँ । क्षिप्त तथा मूढ चित्तभूमि विद्या ग्रहण एवं धारण के उपयोगी नहिँ है । विक्षिप्त चित्तभूमि विद्या ग्रहण कर सकता है । किन्तु सामयिक स्थैर्य, सामयिक अस्थैर्य हेतु एहा तत्त्वसाक्षात्कार केलिए मध्यमपन्था है । अतः शिक्षाप्रणाली एकाग्र के अभिमुखी होना चाहिए । एकाग्र (Delta – 0.5 to 4Hz) तथा निरुद्ध (Gamma < 0.5 Hz) स्थैर्यके अभिमुखी कराता है ।
मन सर्वदा चञ्चल है । सम्यक् संसरणशील संसारमें मन सर्वदा एक वस्तुसे अन्य वस्तु केलिए प्रेरित होता रहता है । ऐसेमें अधीत विषयका ग्रहण (बोध) तथा ग्रहीत विषयको बुद्धिमें स्थिर रखना वहुत ही कष्टसाध्य है (शास्त्रे नृपे च युवतौ च कुतः वशीत्वम् – शास्त्र, राजा और नारी स्वभावतः किसी के वशमें नहीं रहते)। कठिन प्रयत्न द्वारा अधितविषय का सफल प्रयोगसे इनको वशमें करना पडता है । उसमें भी मात्राका ध्यान रखना चाहिये (मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनः – गीता–२/४)। मात्राधिक्य होनेसे उसका तात्कालिक उपसंहारका ज्ञान भी होना चाहिये । यह तभी सम्भब है, जब उस विद्या सरहस्य सम्यकरूपसे बुद्धिमें स्थित हो । वह तभी सम्भब है, जब उस विद्या जानने केलिए हमारे मनमें आकाङ्क्षा हो और अध्ययन के द्वारा उसका निराकरण कियागया हो । इसकेलिए एक दिवसमें पूर्वाह्नमें एक ही विषयमें प्रवचन (lecture) तथा अपराह्नमें उसके उपर पारायण (interactive discussion) करना चाहिए । पूर्वाह्नमें प्रवचनसे पूर्व अर्द्धघटिका (12 to 15 minutes) प्रार्थना एवं प्राणायाम तथा अपराह्नमें पारायणसे पूर्व अर्द्धघटिका ध्यान करना चाहिए ।
ॐ
नमस्तुङ्गशिरश्चुम्बि चन्द्रचामरचारवे ।
त्रैलोक्य नगरारम्भ मूलस्तम्भाय शम्भवे ॥
गृणीते तत्त्वमात्मीयमात्मीकृतजगत् त्रयम् ।
उपायोपेयरूपाय शिवाय गुरवे नमः ॥
अकिञ्चिच्चिन्तकस्यैव गुरुणा प्रतिबोधतः ।
जायते यः समावेशः शाम्भवोसावुदाहृतः ॥
सर्वज्ञो हि शिवो वेत्ति सदसच्चेष्टितं नृणाम् ।
तेनासौ नानुगृह्णाति किञ्चित्ज्ञस्य गुरोर्गिरा ॥
—-
Guru tattva. Who is a real guru? Who is a shishya?