ज्योतिष । श्रीमद्वासुदेव मिश्रशर्म्मा
वेद हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्व्या विहिताश्च यज्ञाः ।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान् ॥ याजुषज्योतिषम् ३॥
ज्योतिषामयनं चक्षुः । ज्योतिष वेद के चक्षुस्थानीय है, जिससे भूत-भविष्यत जाना जा सकता है ।
वेदाङ्गज्योतिष कालगणना शास्त्र है । लगध कृत ऋक्, यज्जुः, अथर्व ज्योतिष प्राप्त होते हैँ । ज्योतिशील पिण्ड यय़ा स्वज्योति से उद्भाषित सूर्यादि, परज्योति (reflection) से उज्ज्वलित चन्द्र आदि का गति निर्णय तथा उनके प्रभाव के विचार ज्योतिष के द्वारा किया जाता है । ग्रहणात् ग्रह नियम से जो अपने शक्ति से पृथ्वी को प्रभावित करते हैँ, उनको ग्रह कहाजाता है । अतः सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, मङ्गल, बृहष्पति, शनि को ग्रह कहा जाता है । युरानस, नेप्चुन, आदि अदृश्य ग्रह, उपग्रह अधिक दूरी के कारण पृथ्वी को प्रभावित नहीं करते । अतः उनका विचार नहीं किया जाता । परन्तु पृथ्वी के अक्षवृत्त तथा चन्द्रमा के दक्षवृत्त जहाँ परष्पर को अतिक्रमण करते हैँ, उन बिन्दुओं का पृथ्वीपर प्रभाव के कारण, उनको छायाग्रह नाम से जाना जाता है । दूरस्थ नक्षत्रमण्डल सदा एक स्थानपर दिखाई देने से उनका भी ग्रहण होता है ।
ज्योतिष के सिद्धान्त (गणित), होरा, संहिता तीन भेद हैं । ग्रहों का स्थान, शीघ्र-बक्रादि गति, ग्रहण आदि का विचार सिद्धान्त से होता है । ग्रहों का वैश्विक प्रभाव संहिता से तथा व्यक्तिगत प्रभाव होरा से विचार किया जाता है ।
ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम् । सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव ॥ (सूर्य सिद्धान्त १४/१)
ब्राह्म, पितर, दिव्य, प्राजापत्य, बार्हस्पत्य, सौर, सावन, चान्द्र, नाक्षत्र – यह नौ प्रकार के मान ज्योतिष में लिया जाता है ।
तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण को पञ्चाङ्ग कहते हैँ ।
प्रतिपदा से लेकर अमावास्या अथवा पूर्णिमा पर्यन्त कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष के पन्द्रह तिथि है । रवि ये शनि पर्यन्त सप्त वार है । नक्षत्रों के संख्या सताईस है । यह है – अश्विनी नक्षत्र, भरणी नक्षत्र, कृत्तिका नक्षत्र, रोहिणी नक्षत्र, मृगशिरा नक्षत्र, आर्द्रा नक्षत्र, पुनर्वसु नक्षत्र, पुष्या नक्षत्र, अश्लेषा नक्षत्र, मघा नक्षत्र, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, हस्ता नक्षत्र, चित्रा नक्षत्र, स्वाति नक्षत्र, विशाखा नक्षत्र, अनुराधा नक्षत्र, ज्येष्ठा नक्षत्र, मूला नक्षत्र, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, श्रवणा नक्षत्र, घनिष्ठा नक्षत्र, शतभिषा नक्षत्र, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र, रेवती नक्षत्र । इनमें –
पुरुष नक्षत्र – आर्द्रा, पुनर्वसु पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता, चित्रा तथा स्वाति ।
स्त्री नक्षत्र – मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी व मृगशिरा ।
नपुंसक नक्षत्र – विशाखा, अनुराधा व ज्येष्ठा ।
विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातीपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र और वैधृति यह सताईस योग है ।
चन्द्र और सूर्य के भोगांश के अन्तर को ६ से भाग देने पर प्राप्त संख्या करण कहलाती है । प्रत्येक तिथि में दो करण होते हैं । तीस तिथियों में साठ करण होते है । करणों के नाम – बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि (भद्रा), शकुनि, चतुष्पद, नाग, किंस्तुघ्न । इसमें किंस्तुघ्न से गणना आरम्भ करने पर प्रथम सात करण चर करण है और आठ बार क्रम से पुनरावृत होते है । शेष चार करण स्थिर करण है, जो प्रत्येक चान्द्रमास में एक बार ही आते हैं । कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध से प्रारम्भ होकर अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध तक चारों स्थिर करण अपरिर्वितत रहने के कारण ही इन्हें स्थिर करण कहा जाता है । चर करणों की आवृत्ति प्रत्येक चान्द्रमास में आठ बार होती है । ८ x ७ = ५६ चर करण तथा ४ स्थिर करण = ६० करण होते हैँ । वव का स्वामी इन्द्र, वालव का ब्रह्मा, कौलव तथा तैतिल का सूर्य, गर का पृथ्वी, वणिज की लक्ष्मी, विष्टि का यम, शकुनि का कलियुग, चतुष्पद का रुद्र, नाग का सर्प तथा किंस्तुघ्न का स्वामी वायु है ।
बाहर्ष्पत्य संवत्सर बृहष्पति और शनि के एक ही राशि पर आने से गणना किया जाता है । इनकी संख्या ६० है – प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी, विक्रम, विषु, चित्रभानु, स्वभानु, तारण, पार्थिव, व्यय, सर्वजित्, सर्वधारी, विरोधी, विकृति, खर, नंदन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मु,· हेमलम्ब, विलम्ब, विकारी, शर्वरी, प्लव, शुभकृत्, शोभन, क्रोधी, विश्वावसु, पराभव, प्लवंग, कीलक, सौम्य, साधारण, विरोधकृत्, परिधावी, प्रमादी, आनन्द, राक्षस, नल, पिंगल, काल, सिद्धार्थ, रौद्र, दुर्मति, दुंदुभि, रुधिरोद्गारी, रक्ताक्ष, क्रोधन, क्षय । यह अपने नाम के अनुसार फल देते हैँ ।