ज्योतिषं कर्मकाण्डं वा चेन्नार्हन्ति भिषग्वरा:। कृतान्तादप्यतिक्रूरा धनधर्मासुहारिण:।।
बड़े नाम गाम वाले श्रेष्ठ चिकित्सक भी विविध रोगानुसार रोगियों के लिए ज्योतिष एवं कर्मकाण्डादि का सम्मानोपयोग नहीं करते तो वे अतिक्रूर धन, धर्म और प्राणों का अपहरण करने में यमराज से भी दो कदम आगे हैं।
चरकसंहिताचिकित्सितस्थान में लिखा है- “अन्नाभिलाषमरोचकाविपाकपरीतं पितृभिरुन्मत्तं विद्यात्” जिसे अन्न खाने की बहुत अभिलाषा हो, परन्तु उसे अरुचि एवं पाचनक्रिया की समस्या हो तो वह पितृपीड़ा या पितृदोष से उन्मत्त है; चिकित्सक ऐसे रोगी को पितृश्राद्ध के लिये प्रेरित करे। सुश्रुतसंहिता के अनुसार- “प्रेतेभ्यो विसृजति संस्तरेषु पिण्डान् तद्भक्तो भवति पितृग्रहाभिभूत:” कुशल चिकित्सक पितृग्रहाभिभूत उदररोगी के लिए अन्यान्य उपचारों के अतिरिक्त आस्तृत कुशाओं पर प्रेत-पितरों के निमित्त पिण्डदान करने की प्रेरणा दे। ऐसे सैकड़ों स्थलों में आयुर्वेद ने पितृग्रहाभिभूत, देवग्रहाभिभूत और असुरग्रहाभिभूत आदि की चिकित्सा के लिए कर्मकाण्ड, ज्योतिष और तन्त्र का बहुत उपयोग किया है। वस्तुत: चिकित्सकों को स्वयं इन विषयों का भी विशेषज्ञ होना चाहिए अथवा इनके विशेषज्ञों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखना चाहिए।
ज्योतिषी एवं कर्मकाण्डियों को भी आयुर्वेद का ज्ञान न होगा तो वे अमुक-अमुक रोगों की निवृत्ति के लिए अमुकामुक द्रव्यों से होम या अमुकामुक ओषधियों से युक्त कलशादि के जल से यजमान के अभिषेक का विज्ञान नहीं समझ सकेंगे। वायुपुराण के अनुसार ज्योतिषविद्याविहीन विप्र को कर्मकाण्ड का अधिकार नहीं एवं कर्मकाण्डविहीन ज्योतिषी कभी किसी के सम्यक् उपचार में सफल नहीं हो सकते। अमुक नक्षत्रादि में उत्पन्न रोग असाध्य और अमुक में उत्पन्न साध्य होते हैं, ज्योतिष के माध्यम से चिकित्सक इसे समझें और तदनुकूल चिकित्सा करें तो लाभ ही होगा।
आज के चाकचिक्य में सर्वत्र प्रमाद ही प्रमाद है। हम किसी अनधिकारी की सामान्य टिप्पनी से भी अवास्तविक व्यथा का बाह्य प्रदर्शन तो कर डालते हैं परन्तु तद्विद्यारक्षार्थ पारम्परिक श्रमसाधना का संकल्प नहीं लेते। शास्त्रों में ही सब विभाग के धन्धेबाजों की निन्दा की गई है, कहाँ-कहाँ मुर्दाबाद करेंगे? किसी ने शान्ति से सोये सर्पराज को पत्थर मार दिया, सर्पराज अपनी चेतना में वापस आने का प्रयास करे। अपनी कमी को ढूँढकर उसे समाप्त करने का संकल्प लेना और तदर्थ सत्प्रयत्न करना ही सबके लिए श्रेयस्कर होगा। हम यथाधिकार मन से शास्त्र की रक्षा करें, शास्त्र ही हमारा भी समुज्ज्वल भविष्यनिर्माण करेगा।
आज तो नये-नये रोग एवं दीर्घकालिक नये-नये रोगियों का निर्माण ही प्राय: सभी पैथ्स के अधिकतम चिकित्सकों का कर्तव्य बन गया है। दैवज्ञ जबतक शनि-राहु-केतु के भयावह परिणामों को प्रदर्शित नहीं करते तबतक उनकी या कर्मज्ञों की वृत्ति का विधाता कोई बनता नहीं। वस्तुत: यज्ञ-दानादि सदैव करणीय हैं। बड़े-बड़े ऊँचे नामवाले डेकोरेटेड पण्डितम्मन्य भी अवैध आर्टिफिशियल यज्ञ-हवन के सम्पादन और सम्प्रसारण में पीछे नहीं रहना चाहते। आज के धर्मध्वजी किसी के लिए सोशलविरोध का तीव्र अभियान चलाते हुए भी मोटे लिफाफे की कृपा से ससमारोह उसी का अभिनन्दन करते-कराते हैं। बड़ी कर्कशता या मधुरता से उच्चस्वरेण साधिकार धर्मरक्षार्थ उपदेश देते रहने वाले को वस्तुत: धर्मज्ञों एवं धर्मरक्षकों के वृत्तिव्यवस्थापन की किञ्चिदपि चिन्ता नहीं है, धनपशुओं से खुरपुजाई ही उनके उच्च भाषण का प्रधान उद्देश्य है। अभी तो कुएँ में ही भङ्ग पड़ी है; कैसे और कहाँ से धर्मरक्षा की सम्भावना ढूँढी जाय? अपवाद छोड़कर एक सनातन वेशभूषा वाला ब्राह्मण किसी अन्य सनातनी ब्राह्मण का उत्कर्ष देखना नहीं चाहता- “…..गुर्गुरायते”, धर्मपथ की ये बाधाएँ दूर हों। चिन्तनीय- “सर्वं सत्यं द्रव्याधीनं तदधीना खलु मानवता” सभी सत्य द्रव्याधीन हो गये हैं, मानवता भी उसी के अधीन हो गयी है।
लाखों-करोड़ों वर्षों से आरक्षित हमारी जीविका छिन रही है और हम परस्पर में ही एक-दूसरे को नीचा दिखाने में मस्त-व्यस्त हैं; चिन्तनीय है। एक कर्मकाण्डी किसी अन्य कर्मकाण्डी को पूजित होते देख सहन नहीं कर सकता। एक कथावाचक किसी अन्य को मञ्चस्थ देखे तो उसे औपचारिकता छोड़कर मरणान्तक पीड़ा होती है; तदर्थ पिता-पुत्र में भी वर्षों केश-मुकदमे चले हैं। एक व्यापारी अपने विभागीय पड़ोसी के यहाँ ग्राहक को देख ले तो उसके हृदय में शूल चुभने लगता है। नेताओं के उत्कर्ष में तो पिता-पुत्र भी एक-दूसरे के नहीं होते। एक क्रूर चिकित्सक या न्यायपालक पूरा आपद्ग्रस्त का रक्तशोषण कर अन्यत्र या यमालय रेफर कर देते हैं। आज के शासन-प्रशासन आदि से सभी सज्जन व्यथित हैं, दुर्जन उनकी इच्छा से ही लूट-खसोटकर उन सबको खिला-पिला रहे हैं। सज्जन व्यक्ति नेता-मन्त्री बनने के योग्य होते ही नहीं। सर्वधर्म समभाव वाली धर्मनिरपेक्ष सत्ता की वेतनसुविधा से जीने वाले वेद-धर्मशास्त्रज्ञ महाशय तो चाहकर भी धर्मशास्त्रोक्त सिद्धान्तों की रक्षा कर नहीं सकते। वेदविभागाध्यक्षों के द्वारा विभागीय संख्यात्मक प्रतिबन्धों को पूर्ण करने के लिए अपने नौकर, गृहिणी और कन्याओं से भी वेदविषय में परीक्षाएँ दिलाई जाती हैं। सरकारी वैदिक महाशय द्विजेतर ही नहीं, विधर्मियों को भी श्रुति-स्मृति पढ़ने-पढ़ाने से पीछे नहीं हट सकते; इनसे वेद और धर्मरक्षा की कल्पना भी सम्भव नहीं। सरकार इन्हीं वेतनभोगियों से अपने सिद्धान्तानुसार वेद-शास्त्र की व्याख्या प्रकाशित कराती रहती हैं। इसके लिए विभिन्न शाखीय धर्मशास्त्रों के अध्यापन हेतु विधर्मियों को ही नियुक्त क्यों न करना पड़े! इस प्रकार की सत्ता से चिपके हिन्दु सुधारकगण वेद-धर्मशास्त्रों को मानते नहीं, कदाचित् वेद-शास्त्रों को अपने अनुकूल घसीट अवश्य देते हैं। आप विप्रगण कितने भी बड़े धर्मज्ञ और सदाचारी हैं, परन्तु धनहीन होने के कारण इन शण्डामर्कों और धर्मठेकेदारों के लिए अतितुच्छ ही हैं। आज “तपसी धनवन्त दरिद्र गृही” भी सार्थक सिद्ध हो रहा है। ऐसी परिस्थिति में हम स्वयं ही एक-दूसरे के योगक्षेमोत्कर्ष की चिन्ता करते हुए धर्मरक्षा में प्रवृत्त रहें। जिन ठेकेदारों के पास प्रभूत धन है, अपवाद छोड़ उन्हें वेद-शास्त्राध्ययन और रक्षण से लेना-देना नहीं और जो शास्त्रसंरक्षण संवर्द्धन के लिए अहर्निश श्रमशील हैं, चापलूसी के अभाव में धनपशुगण उनकी पूजा नहीं कर सकते। अन्य धर्मोपदेशक समुदाय सद्गृहस्थ ब्राह्मणों की कथादि वृत्तियों का अपहरण करके भी जोर-जोर से धर्मरक्षा का उपदेश करने में संकोच नहीं करते। पूरे गाँव एवं क्षेत्र का पौरोहित्य या पाण्डित्य सँभालने वाले कर्मकाण्डी ब्राह्मण को पूरा गाँव या क्षेत्र मिलकर भी आज की सुखद व्यवस्था दे नहीं सकते। विवाह, जनेऊ, श्राद्ध, यज्ञ, अनुष्ठानादि में अच्छे पण्डित ही चाहिए परन्तु उन धनान्धों को अच्छे पण्डित के अच्छे सम्मान या अच्छे पण्डितनिर्माण से कोई लेना-देना नहीं। हमें “परस्परं भावयन्त:” का ही आश्रय लेना चाहिए, “नान्य: पन्था विद्यतेऽनाय” कोई दूसरा मार्ग नहीं है। वेदभगवान् के अनुसार साङ्गोपाङ्ग आयुर्वेद “विप्र: स उच्यते भिषक्” (शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिन संहिता १२।८०) किसी स्वधर्मनिष्ठ कुलीन विप्र में ही प्रतिष्ठित हो सकते हैं।
अन्य भले ही कोई कुछ कल्क-लुगदी-क्वाथ आदि बनाकर धन-मान कमा लें, कुछ संकलन प्रकाशित कर लेखक बन जायँ, विशाल आधुनिक औषधालय या औषधनिर्माणालय बना लें- परन्तु आयुर्वेद भगवान् का जो संकल्प है वहीं पर उनका या ओषधियों का प्राकट्य होगा, यह निश्चित है। आयुर्वेद भगवान् जहाँ प्रकट होने के लिये व्याकुल हैं, वे तदर्थ साधना-तपस्या करें। “सोम ओषधीनाम्” ओषधियों के स्वामी सोमदेवता हैं और “सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा” के गूढ़तम रहस्य को विप्रदेव समझें। अधिकृत सत्पात्र के द्वारा आयुर्वेद के प्रत्यक्षीकरण और समुत्थान का प्रयत्न न करना बहुत दु:खद है। जिज्ञासुमहोदय अन्यों की वैद्यगिरी के लिए वाचस्पत्यम् कोश के वैद्य और आयुर्वेद शब्दों के व्याख्यानों को देखें।
आयुर्वेद की मूल सुश्रुत-चरकादि संहिताओं में आयुर्वेदविधा से असाध्य और अशक्य रोगियों के लिए ज्योतिष, कर्मकाण्ड आदि से सफल चिकित्सा के असंख्य विधान हैं; जिनके अधिकारी सब नहीं हो सकते। ज्योतिष, कर्मकाण्ड और तन्त्र- ये आयुर्वेद के सर्वप्रमुख भाग हैं। मैं इन पङ्क्तियों के साथ मन्त्रभाग वेद, सुश्रुत संहिता और चरक संहिता के कुछ छायाचित्र प्रकाशित कर रहा हूँ; अवश्य देखें।
बेगूसराय के प्रसिद्ध एलोपैथी नेत्रचिकित्सक डॉ. परमानन्द चौधरी मेरे अच्छे मित्र थे। उन्होंने चाक्षुषीविद्या के महनीय प्रभाव का स्वयम् अनुभव किया था। उन्हें विश्वास हो गया था- “ग्रहशान्तिकृते शीघ्रमौषधं सुखदं भवेत्” ग्रहशान्त्यर्थ जपानुष्ठान से अन्य औषध भी रोगी के लिए शीघ्र सुखप्रद हो जाते हैं। सफल नेत्रचिकित्सक होने के लिए नित्य गायत्रीजप करते हुए उन्होंने ज्योतिष और तन्त्र का यथासाध्य गम्भीर अध्ययन किया। वे भगवती काली, गणेश और सूर्य के उपासक थे। चिकित्साकक्ष में भी काली की मूर्ति को प्रणाम करके ही रोगी को देखते थे। वे प्रायः रोगियों से जन्मपत्री या जन्मसमय माँगते थे और ग्रहस्थिति पर विचार करके रोगी को तदनुसार चिकित्सा के साथ जप-पाठादि की प्रेरणा देते थे। रोगी को सौ प्रतिशत लाभ एवं डॉ. साहब को प्रतिष्ठा प्राप्त होती थी। आज भी अनेक सात्त्विक चिकित्सक मेरे अपेक्षित मित्रपरिकर हैं, जो समय-समय पर इन विद्याओं का समुचित उपयोग करते और कराते लाभान्वित होते हैं।
किसी के प्रतीकारार्थ बदला वसूलने के चक्कर में रहने की अपेक्षा आयुर्वेद, ज्योतिष, तन्त्र और यथोक्त कर्मकाण्डादि के उद्धारार्थ स्वयं की श्रमसाधना करें तो उत्तम होगा।
शिवमस्तु