प्राणस्य ही क्रियाशक्तिर्बुद्धेर्विज्ञानशक्तिता ।
द्रव्यस्फुरणविज्ञानमिन्द्रियाणामनुग्रह ।
रस का एक प्रदेश को त्याग कर अन्य प्रदेशमें जानेवाला बल ही क्रिया है । क्रिया परिच्छिन्न वस्तुमें कम्प अर्थात स्थानच्युति करती है । परन्तु रस विभु होने से अवयवरहित है । सर्वत्र उसका उपस्थिति है । अतः उसमें स्थानच्युति सम्भव नहीं है । वह अच्युत है । क्रिया भी वहाँ आकर शान्त हो जाती है । वह अव्यय है । अतः उसका औपादानिक अथवा लाक्षणिक परिणाम नहीं होता । बल के सहायता से जो अन्तर्यत्न (चेष्टा, प्रयत्न, कृति आदि) किया जाता है, उसे प्राण कहते हैं । जहाँ से प्राण का रश्मि निर्गत होता है, उसे मन कहते हैं । मन ही इच्छा का जनक है । इच्छा के द्वारा प्राणव्यापार होता है । प्राण के द्वारा वाक् (समस्त विषय जो नाम-रूप-कर्म के द्वारा निर्देशित होते हैं) व्यापार होता है (न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धं इव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ॥ वाक्यपदीयम् १-१३१ ॥) ।
इन्द्रियों के अधिष्ठाता प्रज्ञान चन्द्रमा (मन) भोगसाधन है । प्राण के आधारपर रहनेवाला विज्ञान सूर्य (बुद्धि) वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ (अहङ्कार) रूपमें परिणत होकर भोक्ता बनता है (प्रश्नोपनिषत् १/१/६-७) । अहंभावका आग्नेयअंश जो नित्यप्रति उत्पन्न नूतन भूतोंको सुरक्षित करता है, उसे वैश्वानर कहते हैं । जो वायव्यअंश नित्यप्रति गतिद्वारा नूतन वस्तु उत्पन्न करता है, उसे तैजस कहते हैं । इन्द्रका जो आदित्यअंश विषयजात वस्तुका अनुभव करता है, उसे प्राज्ञ कहते हैं । इन तीनोंमें अहंभाव (मैं पना) बनारहता हैं। अतः इन्हे अहङ्कार कहते हैं । जैसे एक अङ्कुर अथवा पुरुष जन्म होते ही उसका छाया स्वयमेव आ जाता है, उसीप्रकार आत्माके साथसाथ प्राण स्वयमेव आ जाता है । वह प्राण मनके द्वारा शरीरमें आता है (आत्मन एष प्राणो जायते। यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्छरीरे – प्रश्नोपनिषत् १/३/३)।
जो पृथक् से स्पष्ट जाना जाये, उसे निरुक्त कहते हैं । अन्यथा उसे अनिरुक्त कहा जाता है । जिस अवस्था में जगत् ब्रह्म से पृथक् नहीं जाना जाता, वह ब्रह्म की उन्मूग्ध अवस्था है । उस स्थिति में ब्रह्म अव्याकृत और निर्विकल्प कहा जाता है । अपरिणामी ब्रह्म से ही परिणामिनी सत्ता, चेतना आदि रूप व्यक्त होते हैं । यही “एकोऽहं बहुस्याम” श्रुति वाक्य का अर्थ है । नभ्य एवं सर्व भेद से अनिरुक्त द्विधा विभक्त है । केन्द्रशक्ति नभ्य है, जो अणिमा (क्षुद्रातिक्षुद्र) है । यही प्रतिष्ठा है । ऋग-यजुः-साम में से अन्तिम साम ही सर्व है, जो भुमा (सर्वव्यापी) है । उसके विषय में सब कुछ कहना सम्भव नहीं है, कारण वह अनन्त है । परन्तु अवयवशः (खण्ड खण्ड कर – by digitizing the analog), उसकी आपेक्षिक निरुक्ति की जा सकती है । उनके मध्य में जितने रूप हैं, वह केन्द्रशक्ति से ही उदित होते हैं । अत्यधिक अन्यथा भाव को विवर्त कहते हैं । केन्द्रशक्ति सदा एकरूप होने पर भी विवर्त (evolution) उत्पन्न करती है । यह अनिरुक्त होने पर भी अवतार अथवा विकासके कारण ज्ञेयहोता है । केन्द्रशक्तिका अपनेही शक्तिसे (बिना किसी अन्य शक्तिसंयोगके) व्यक्तिकरण अवतार (incarnation) है । उसका अन्य अनेक प्रकारके संसर्गसे (अन्य शक्ति संयोग से) व्यक्तिकरण विकास (transformation) है । अनिरुक्त से ही निरुक्त बनता है (असतः सदजायत – ऋक् १०/७२/२) । परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान निरुक्त का प्रथम होता है । उससे अनिरुक्तका अनुमान किया जाता है ।
हमारा हस्त सदैव एक जैसा स्थिर रहता है । हम किसी वस्तु को लाने का इच्छा करते हैं । प्राणके अन्तर्व्यापार के बिना वाक् (भूत) के बहिर्व्यापार सम्भव नहीं है । इच्छा के अनन्तर प्राणके द्वारा हस्त में क्रिया आरम्भ हो जाती है । क्रिया सम्पन्न होने के पश्चात् हस्त पुनः स्थिर हो जाता है (उसीप्रकार ब्रह्ममें कर्म देखाजाता है । परन्तु वास्तव में ब्रह्म अविकारी रहता है) । प्राणका शक्ति त्रिविध है । देवता रूप से वही प्राणशक्ति कर्तृत्व दिखाता है । इन्द्रियरूपसे करण वनता है तथा कार्यरूपसे भूत वनता है । प्राण ही भूतका प्रतिष्ठा है । अतः भूत प्राण व्यतिरेके क्षणभर भी रह नहीं सकता । प्रवर्ग्य (प्रवृक्तवस्तु – निक्षिप्त, वर्जित वस्तु – वृजीँ वर्ज॑ने) निरात्मक होता है । उसे पशु कहते हैं (observables – यत् अपश्यत् तत् पशवः) । वही अन्य का अन्न (भोग्य) होता है । यह परप्रतिष्ठामें प्रतिष्ठित रहता है । अतः परतन्त्र हो कर वायु के द्वारा विचरण करता है (acceleration due to gravity – वायुप्रणेत्रा वै पशवः । प्राणो वै वायुः । प्राणेन ही पशवः चरन्ति) । पशु पञ्चविध होते हैं – छन्द, पोष, अन्न (वीर्य), सलिल (शरीर), अग्नि (छन्दांसि पोषा अन्नानि सलिलान्यग्नयः क्रमात् । पञ्चैते पशवो नित्यं प्राणेष्वेते प्रतिष्ठिताः) ।
भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला (प्राणियोंका उद्भव करनेवाला) जो विसर्ग (त्याग) है उसको कर्म कहा जाता है (भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ।। गीता ८-३।।) । महाप्रलयके समय अहङ्कार तथा सञ्चित कर्मोंके सहित जगत् प्रकृतिमें लीन हो जाता हैं एवं प्रकृति परमात्मामें लीन हो जाती है । उस लीन हुई प्रकृतिको पुनः क्रियाशील करने केलिए परम्ब्रह्मका सङ्कल्प ही प्रथम विसर्ग है । यहींसे कर्मोंका आरम्भ हो जाता है और उससे ही जगत् का कर्मपरम्परा चल पड़ता है । रस और बल दोनों एक ही शक्ति के अन्तर्निहित धर्म है । बलोपेत रस धर्मी है । यह दोनों धर्म अयुतसिद्ध है । एक अपरिमित (अपरिच्छिन्न) वस्तुका एक मित (परिच्छिन्न) वस्तुके साथ निरूढ (लक्षणा द्वारा अर्थप्रतिपादिक) मात्रामें सङ्क्रमण करना (एकत्र होना) संसर्ग (interaction) है । संसर्गज कर्म दो प्रकार के होते हैं – १) कर्म में कर्म (interaction between forces) और २) अकर्म में (स्थिर वस्तु में) कर्म (interaction between a charged body with a charge neutral body) । बल से बल का चिति (confinement) से विश्वसञ्चार होता है ।
(क्रमशः)