जब केवल निजस्वरूपमें अवस्थित सिसृक्षा (सर्जनेच्छा) रूप उपाधिविशिष्ट (जो किसीमें अन्वित हो कर यावत्कालस्थायी हो – जब तक एक रहता है, तब तक अन्य भी रहे – तो उसे विशेषण कहते हैं । इन दोनोंमें से एक रहनेसे, अन्य नहीं रहनेसे, उसे उपाधि कहते हैं । मुमूक्षा आनेपर सिसृक्षा नहीं रहती) परम्ब्रह्मका “बहुस्यां प्रजायेय” इति इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मिका शक्तियोंके योगसे अर्थ-शब्द सृष्टि (द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत्।) अङ्कुरछायावत् (जब अङ्कुर उत्पन्न होता है, उसका छाया भी साथ साथ उत्पन्न हो जाता है) युगपत् सृष्टि होता है । यह सृष्टि मायाबल के द्वारा ही सम्भव होता है, जो स्वरूपभेदन कर कर्म को जन्म देती है । कर्म दो प्रकार के होते हैं – एक कर्म में कर्म तथा अन्य अकर्म (ब्रह्म) में कर्म । इनका संसर्गभेद से अन्य अवान्तर कर्म का सृष्टि होता है ।
कर्म में कर्म का ५ प्रकार के संसर्गभेद है –
- स्थानावरोध (exclusion principle) । जब दो अणुओं (fermions excluding leptons) का परष्पर संयोग होता है, तब वह एककाल में एकदेश में एकत्र रह नहीं सकते । कारण विष्टम्भकत्व (स्थानावरोध) पार्थिव वस्तुमात्र का धर्म है । विष्टम्भकत्व – आग्नेय पदार्थ (fermions excluding leptons) में विशेष प्रकार के प्रतिबन्ध को कहते हैं (ष्टभिँ॒ऽ प्रतिब॒न्धे, स्त॒म्भुँऽ रोध॑न॒ इत्येके॑) । किसी स्थान के आश्रयमें रहनेवाले अणुओं का अपसर्पण से ही अन्य अणुओं का प्रवेश । यदि वहाँ अणुओं के साथ कर्म का संयोग होता है, तो बन्ध (strong nuclear interaction), विभूति (weak interaction – beta decay only) तथा योग (electromagnetic interaction) नामक तीन स्वरूप सम्बन्ध होते हैं । इनको यथाक्रम अन्तर्याम सम्बन्ध (दोनों का स्वरूप नाश हो कर अपूर्व नुतन सृष्टि होना), बहिर्याम सम्बन्ध (एक का स्वरूप नाश), तथा उपयाम सम्बन्ध (दोनों का स्वरूप रहते अपूर्व नुतन सृष्टि होना) कहते हैं । यह केवल परिमाण्डल्य (quarks) अथवा उपायप्रत्यय (quantum) वस्तुओं का धर्म नहीं है । यह पृथ्वीतत्त्व का गुण है जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है । पृथ्वी पर अथवा घर के भित में शङ्कु गाडने के समय वहाँ के अणुओं का जितना अपसर्पण होता है, शङ्कु का उतनी परिमित स्थानमें प्रवेश होता है । यह स्थानावरोधका एक उदाहरण है ।
- सामञ्जस्य (co-existence/superposition – bosonic principle) । सौम्यपदार्थों (leptons) का एक ही प्रदेशमें सहावस्थान । यहाँ दो तत्त्व एक देश-कालमें एक अपर का अपमर्दन किये विना पृथक् सत्तामें रह सकते हैं । समग्र विश्व अग्निषोमात्मक (a combination of fermions and bosons) है । अग्नि प्राण है । सोम रयि है (आदित्यो ह वै प्राणो रयिरेव चन्द्रमा । प्रश्नोपनिषत् १-५) । अग्नि सत्य (स+ती+यम् – छान्दोग्य) है । स्थितिसिद्ध (that which can be measured) सहृदय (having a three-fold structure like the nucleus – हृ – ह्वृ॒ सं॒वर॑णे, ह्वृ॒ कौटि॑ल्ये, ह्वे॒ञ् स्प॒र्धायां॒ वा – electron shells – द – दो॒ अव॒खण्ड॑ने – and intra-nucleic field यम् – य॒मँ उपर॒मे, यमँ(म्) परि॒वेष॑णे), सशरीरी (having fixed dimensions or structure. Dimension is related to the spread of a fixed body substance in mutually perpendicular directions that leave the form invariant under mutual transformation. It is not related to space. विस्तारस्य यथैवार्थ आयामेन प्रकाशितः । तथारोहसमुच्छ्रायौ पर्यायवाचिनौ मतौ । परिमाणानुसारेण व्यवहृति क्षितौ नराः । विश्वकर्माः ।) को सत्य कहते हैं । सोम (रयि) भातिसिद्ध (non-physical mental constructs like time, dimension, quantity, etc.), अहृदय (without internal structure), अशरीरी (without fixed dimension) है । इस रयि से ही सबकुछ बना है (रयिर्वा एतत्सर्वं यन्मूर्त्तं चाऽमूर्त्तं च । प्रश्नोपनिषत् १-५) । यह अप् तत्त्व का गुण है जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है । एक ही प्रदेशमें अनेक प्रकाश किरणों का सहावस्थान इसका लक्षण है । दर्पण और चक्षु का सीमित प्रदेश में अनेक प्रकाश किरणों का सहावस्थान से रूपदर्शन इसका एक उदाहरण है । अथवा एक ही बिन्दु पर विभिन्नबलों का सामञ्जस्य से उत्पन्न क्रियाशून्यता (स्थिति – स्थितस्य गतिः चिन्तनीया) भी इसका उदाहरण है । इसे अध्यास भी कहते हैं, जो मायाबल के कारण होता है ।
- एकभाव्य (complementarity principle, but not wave-particle duality) । किसी वस्तुका स्वरूप एक प्रकारसे अथवा एक इन्द्रिय द्वारा जाना नहीं जा सकता (अनवर्णे इमे भूमी । इयं चाऽसौ च रोदसी । किग्गंस्विदत्रान्तरा भूतम् । येमेने विधृते उभे । … इरावती धेनुमती हि भूतम् – तैत्तिरीयारण्यकम्) । जब हम किसी वस्तुको देखते हैं, हम उसके द्वारा विकिरित रश्मि (wave – जो कम्प के द्वारा हमारे आँखों के संस्पर्शमें आता है – तिरश्चिनो विततो रश्मिरेषा – ऋग्वेदः १0-१२९-५) को देखते हैं – उस वस्तु पिण्डको (particle) नहीं, जो विकिरण सृष्टि करता है । जब हम उसी वस्तुपिण्डको छूते हैं, हम उसके द्वारा विकिरण को छुते नहीं हैं । कारण वस्तुपिण्ड दोनों के ३) एकभाव्य सम्बन्ध से वनता है, परन्तु हमारा इन्द्रिय किसी एक ही तत्त्व को ग्रहण कर सकता है । अतः दोनों इन्द्रियों द्वारा गृहीत तत्त्वों को मिलाना पडता है । तभी हमें वस्तु का ज्ञान होगा । परन्तु दोनों को मिलाने के लिए दोनों का लिङ्ग (basic charge) भिन्न होना चाहिए । दोनों आग्नेय (पुंलिङ्ग) मिलित होने से विष्फोटक (fission) होते हैं । दोनों सौम्य (स्त्रीलिङ्ग) मिलित होने से निरर्थक होते हैं (सामञ्जस्य) । स्त्री-पुरुष लिङ्ग का मिलन सम्पूर्ण होने से पुष्टिकर (isotopes) तथा आंशिक होने से सृष्टिकर (new atoms) होता है । जैसे दो उद्जान (hydrogen) स्थूलभूतों के साथ एक अम्लयान (oxygen) स्थूलभूत का आंशिकमिलन (complementarity) से जल सृष्टि होता है । दो अथवा अधिक भिन्न स्थूलभूतों के मिलन से तृतीय स्थूलभूत का निर्माण होता है । उसीप्रकार बीज, जल, मृत्तिका के मिश्रण से अङ्कुरोत्पत्ति होता है । यह एकभाव्य सम्बन्ध का उदाहरण है । यह आग्नेय तत्त्व का गुण है जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है ।
- एकात्म (where both exist together as a natural consequence like air with different atoms) । सामञ्जस्य और एकात्म में एक अन्तर है कि सामञ्जस्यमें दोनों का पृथक् सत्ता रहता है, जब कि एकात्म में दोनों साथ मिलकर रहते हैं । एकभाव्य और एकात्म में एक अन्तर है कि एकभाव्यमें वस्तुओं का संयोग और वियोग यौगिक प्रक्रियामें होता है (in chemical reaction), जब कि एकात्म में वस्तुओं का संयोग और वियोग प्राकृतिक प्रक्रिया से होता है । यह वायुतत्त्व का गुण है जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है । वर्ण आरोपण (color charge) केवल सृष्टिके प्राथमिक अवस्था एवं मूल पदार्थों के क्षेत्र में प्रयुक्त होता है । अन्यत्र एकभाव्य सम्बन्ध ही रहता है । उसमें दो वस्तुओं का संसर्ग केवल यौगिक प्रक्रिया से ही सम्भव है (chemical process like oxygen and hydrogen combining through a transition state to form water or water converted to hydrogen and oxygen through electrolysis) । दो प्रकार के परिमाण्डल्योंका (quarks) असमान परिमाणमें (अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः – ऋग्वेदः ५-४४-१५) मिलकर त्राणुक (प्रोटोन एवं निउट्रन – proton and neutron) बनना भी इसी प्रक्रियाके अन्तर्गत आता है । परिमाण्डल्य से त्राणुक बनना तथा वर्णगतिविद्या (strong interaction including color charges of QCD and molecular bonding) इसी के उदाहरण है । मजोराना पिण्ड (Majorana particle or Angel particle) भी इसी सम्बन्ध से बनते हैं । (Color charge plays two roles in the standard model: as the 3-valued charge that labels states of quarks, antiquarks, gluons and their composites, and as the source of the strong force between quarks and antiquarks mediated by gluons) ।
- भक्ति (उभाभ्यां भज्यत इति भक्तिः – सादृश्य से होनेवाले व्यवहार – translation of motion like energy moving objects in space) । यहाँ पर एक का बिना क्रिया के अन्य प्रदेश में उपसंक्रमण होता है । जैसे स्थिर आकाशमें वायु का गति अन्य वस्तुओं को उडा कर ले जाता हुआ दिखता है । विमानयात्री विमानमें स्थिर रहते हुए भी एक स्थान से अन्य स्थान पर चले जाते हैं । वायु तथा विमान का गति उनमें उपसंक्रमण कर जाता है । भगवानका गुण भक्तमें उपसंक्रमण कर जाता है । यह आकाशतत्त्व का गुण है, जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है ।