वेदों का अपव्याख्यान – “कः” का अर्थ ।

वेदों का अपव्याख्यान – “कः” का अर्थ – श्रीवासुदेवमिश्र शर्म्मा।

हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत् ।
स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ ऋग्वेदः १०.१२१.०१॥

इस जगत् प्रपञ्च के उत्पत्ति से पूर्व सर्वप्रथम प्रजापति हिरण्यगर्भ ही विद्यमान थे (मायाध्यक्षात् सिसृक्षोः परमात्मनः समजायत)। वही एक अद्वितीय (वह जगत के धारण, सृजन तथा पालन में अन्यनिरपेक्ष) समग्र उत्पन्न भूतमय जगत् का स्रष्टा (प्रदीप्त दृश्यप्रपञ्चका गर्भ अथवा उत्पत्ति-स्थान) तथा पालक हैं। द्यावा-पृथिवी सब का आधार (धारणकर्ता) उस अविज्ञाततत्व वाले दिप्तिमान देव को छोडकर हम (कः) किसको हवनीयद्रव्य (हु॒ दानाद॒नयोः॑) के द्वारा परिचरण करें? (अन्य कोई पुजायोग्य नहीं है । ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् । जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है । मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग कर सकता है । परन्तु उनके द्रव्यसे उस अचिन्त्य का पुजा कैसे कर सकता है?)।

द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत्।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ब्रह्मबिन्दूपनिषद् – १७


दो विद्याएँ जानने योग्य हैं । प्रथम ‘शब्दब्रह्म’ और दूसरी ‘परब्रह्म’ के नाम से जाना जाता है । ‘शब्दब्रह्म’ में निष्णात होने पर परब्रह्म को जान जाता है ।

परावरे ब्रह्मणि यं सदाहुर्वेदात्मानं वेदनिधिं मुनीन्द्राः ।
तं पद्मगर्भं परमं त्वादिदेवं प्रणम्यर्चां भाष्यकृते प्रवृत्तः ।

पर (परंब्रह्म) और अवरब्रह्म (शब्दब्रह्म) में जिस (अवरब्रह्म) की श्रेष्ठ मुनीगण सर्वदा स्तुतिकरते हैँ, उस वेदात्मा, वेदनिधि, पद्मगर्भ, सर्वश्रेष्ठ तथा आदिदेव को प्रणाम कर उपरोक्त वेदमन्त्र का भाष्य लिखने प्रयास कर रहे हैं । प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्वाहुरिव वामनः । खर्व होकर चन्द्रमा को पकडने का प्रयास हमारा दुःसाहस है ।

वेद समझने वालों के लिए बहुत ही सरल है । केवल उपयुक्त पद्धति का अनुसरण करना चाहिए । बिना वेदाङ्ग के वेद को समझना असम्भव है । तथा सम्पूर्ण वेद को बिना पढे किसी अंश का अर्थ करना भ्रमात्मक है । वेद में कुछ भी पुनरावृत्ति नहीं होती । प्रकरण के अनुरोध से जितना आवश्यक, उसमें से पूर्व में कहे हुए अंश को त्यागकर केवल प्रयोजनीय अंश ही कहा जाता है । अतः किसी एक विषयमें जानने के लिए १० – १२ अथवा अधिक स्थान पर देखना पडता है । एक स्थान पर एक शब्द का एक ही अर्थ होता है । ऋषि, छन्द, देवता, विनियोग के ज्ञान नहीं होने से अर्थसङ्गति नहीं होता । अधिकांश लोग इस पद्धति का अनुसरण नहीं करते । अतः भ्रमित हो जाते हैँ ।

म्लेच्छमूलक (मैक्समूलर) आदि लेखकों तथा उनको सर्वश्रेष्ठ आचार्य माननेवाले मूर्खों ने वेद मन्त्रों के वर्णित ऋषियों को उस मन्त्र विशेष का रचनाकार माना है – “Rishi or Seer means no more than the subject or the author of a hymn” – जो कि वैदिक परम्परा के पूर्णतया विपरीत है । प्रशस्तपाद ने ऋषियों को अयोनिज माना है । शतपथब्राह्मणम् ६-१-१-१ के अनुसार “असद्वा इदमग्र आसीत् । तदाहुः किं तदसदासीदित्यृषयो वाव तेऽग्रेऽसदासीत्तदाहुः के
तऽऋषय इति प्राणा वाऽऋषयः”
। अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में सब कुछ अव्यक्त था (वस्तुरहित था । केवल शक्ति ही था, जो वस्तु के बिना प्रकाशित नहीं हो सकता) । वह अव्यक्त, जो परिस्पन्दात्मक प्राणस्वरूप थे, वे ही ऋषि थे । उनको ऋषि क्यों कहा जाता है ? कारण उन्होंने अपने श्रम (कर्म) से तथा तप (द्वन्दसहन) से सबकुछ निर्माण किया (श्रमेण
तपसारिषंस्तस्मादृषयः।
Interplay of the primordial energy on the universal base called RASA – रसो वै सः and with itself – ब्रह्ममें कर्म तथा कर्म में कर्म – created everything) 1

इन्द्रियाँ, उनके विद्यमान अर्थों (वस्तुओँ) के साथ सम्पर्क होने पर, प्रत्यक्ष ज्ञान के करण बनते हैं । अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव आदि प्रमाण भी प्रत्यक्ष का अनुगमन करते हैं । प्रत्यक्ष से स्वतन्त्र उनका कोई उपयोग नहीं । कर्तव्य कर्म विद्यमान होते नहीं हैं । जब मनुष्य कर्म करेगा तभी उनका प्रादुर्भाव होगा । अत: धर्म प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा जाना नहीं जा सकता । उसके लिये वेद का उपदेश ही एकमात्र पन्था है । मुक्ति, स्वर्ग, परलोक आदि का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । धर्म को जानने के लिये वेद के ज्ञान की ही आवश्यकता है । नित्य अर्थों (Eternal existence) का नित्य शब्दों (बिन्दुवातग्न्यम्बराणां तस्मात् साङ्केतिकाः स्मृताःतत्र शकार बिन्दूः बकार वातः दकार अग्निः विसर्गश्चाकाशः । – नामार्थकल्पसूत्रम् sound generated through compressions and rarefactions) के साथ जो नित्य सम्बन्ध है (वि॒दँ॒ सत्ता॑याम्), उससे चराचरजगत् का (विदँ॒ चेतनाख्याननिवा॒सेषु॑) समस्त ज्ञान (विदँ ज्ञाने॑) होता है । वेद में उसीका उपदेश (वि॒दँ॒ वि॒चार॑णे) है । उपदेश वह है जिससे किसी कर्तव्य की प्रेरणा मिले (उपदिश्यते अनेन इति)। उससे हम वाञ्छित फल प्राप्त करते हैं (विदॢँ॑ ला॒भे) । यह अपौरुषेय है ।

शब्द नित्य है । शब्द का अर्थ के साथ सम्बन्ध भी नित्य है – मनुष्यकृत नहीं । लौकिक व्याकरण इससे भिन्न है । ‘उत्पत्ति’ शब्द का लाक्षणिक अर्थ (भाव अथवा स्वभाव) है । शब्द और अर्थ का सम्बन्ध मनुष्य द्वारा कल्पित नहीं है । शब्द केवल बैखरी वाणी का प्रकाश है । श्रवणेन्द्रिय से श्रवणयोग्य होता है । एक मनुष्य बाणी का प्रयोग करता है, अन्य श्रवण करता है । यह दोनों स्वाभाविक हैं – कल्पित नहीं । यह “वाक्प्रयोग-श्रवण” का कार्य केवल अर्थज्ञान के निमित्त है । अर्थात् वाक्प्रयोग करने वाला अपने हृदयस्थ भाव को अन्य के हृदयमें सन्निवेशित करना चाहता है । यदि भावों को अन्य पर प्रकट करने की आवश्यकता अथवा इच्छा न होती तो कोई न वाक्प्रयोग करता न श्रवण करता । इससे सिद्ध हुआ कि शब्द का अर्थ के साथ स्वाभाविक अथवा नित्य सम्बन्ध है । शब्द का उच्चारण से नूतन शब्दसृष्टि नहीं होता है । जो है और हम जानते हैं, उसी को प्रकाश किया जाता है । वाक्प्रयोग का अर्थ उत्पन्न करना नहीं है । शब्द का क्षय-वृद्धि होता नहीँ हैं । “अन्न” शब्द निम्नस्वर में बोला जाय अथवा उच्चस्वर में, अर्थ समान ही होगा । शब्द वही रहेगा, नाद बढ़ जाएगा । “नाद” और “शब्द” में भेद है । नाद का ही क्षय-वृद्धि होता है ।

“गौ” शब्द व्यक्तिबोधक नहीं जातिबोधक है । “जाति” तथा “आकृति” समानार्थक हैं” (आकृतिग्रहणा जातिः – काशिका-वृत्तिः ४।१।६३) । “गौ” शब्द को सुनकर उन सब गायों पर ध्यान जाता है जो कहीं भी हों, कभी रही हों अथवा भविष्य में उत्पन्न होने वाली हों । “यह गाय”, “काली गाय”, “मेरी गाय” में विशेषण “यह”, “काली”, “मेरी” लगाने से विशेष्य (व्यक्ति) का बोध होता है । वाक्य का अर्थ जानने में शब्दों के अर्थों की उपेक्षा नहीं कर सकते । प्रत्येक शब्दका अपना अर्थ होता है । परन्तु वाक्य में एक ‘क्रिया’ शब्दों के साथ मिलकर ही वाक्य का अर्थवोध कराते हैं । वेद पुरुषों के बनाये नहीँ हैं । उनमें जो पुरुषों का नाम दिया गया है – जैसे काठक (कठ के बनाये), कालापक (कलाप के बनाये), पैप्पलादक (पिप्पलाद के बनाये), मौहुल (मुहुल के बनाये), यह नाम वेद बनाने वालों के नहीं, वेदों का प्रवचन करने वालों के हैं । वही मन्त्रद्रष्टा है (observer) । वेद तो इन पुरुषों से भी पहले थे । वेद में जो व्यक्तियोंजैसा नाम मिलते हैं अथवा कुछ शब्द जो निरर्थक प्रतीत होते हैं, वह नाम व्यक्तियों के नहीं हैं । उनके भिन्न अर्थ हैं । उन अर्थों पर विचार करने से पता चल जाता है कि वे विशेष पुरुषों के नाम नहीं हे । जैसे ऋग्वेदमें कहा गया है कि – अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च वि वर्तेते रजसी वेद्याभिः। जो शुक्ल स्वच्छशुद्ध अन्तरात्मास्वभाववाला हो अर्थात् पवित्र अन्तःकरणयुक्त हो उसका नाम अर्जुन है । विनियोग से ज्ञात हो जाता है कि किसी यज्ञ के सम्बन्ध में मन्त्रों के शब्दों का क्या अर्थ है । वेदों में नित्यता की पुष्टि में ऋग्वेद ८.७५.६ में कहा गया है “तस्मै॑ नू॒नम॒भिद्य॑वे वा॒चा वि॑रूप॒ नित्य॑या । वृष्णे॑ चोदस्व सुष्टु॒तिम् ॥

धर्म अतीन्द्रिय है । उसका जिन्होंने साक्षात्कार किया, वे ही ऋषि बने (साक्षात्कृतधर्माण: ऋषयो बभूवु:) । शक्ति स्वयं अलक्ष है । परन्तु शक्ति से ही सबकुछ लक्षित होता है । अतः कहा गया है कि “ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः” (निरुक्त. २ : ११) । भिन्न भिन्न ऋषियों के भिन्न भिन्न लक्षण हैं । जिस विषयके ज्ञान की चर्चा जी जा रही है, उसमें निहित शक्ति का विभागशः वर्णन उस मन्त्र के ऋषि हैं । यथा – भरद्वाज ऋषिरिति । मनो वै भरद्वाज ऋषिरन्नं वाजो यो वै मनो बिभर्ति सोऽन्नं वाजं भरति तस्मान्मनो भरद्वाज ऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वयेति प्रजापतिसृष्टया त्वयेत्येतन्मनो गृह्णामि प्रजाभ्य इति मनो दक्षिणतः
प्रापादयत नानोपदधाति ये नानाकामा मनसि तांस्तद्दधाति सकृत्सादयत्येकं तन्मनः करोत्यथ यन्नाना सादयेन्मनो ह विच्छिन्द्यात्सैषा त्रिवृदिष्टका तस्योक्तो बन्धुः । शतपथब्राह्मणम् – ८.१.१.९ ।
अर्थात मन ही भरद्वाज ऋषि है अन्न का नाम वाज है और अन्न से ही परिपुष्ट होती है वही भरद्वाज कहलाती है । आदि ।

छन्द गद्य-पद्य में रचना का विशेषप्रकार नहीँ है । प्राणमात्रा छन्द है । शक्ति से ही विश्व के प्रत्येक पदार्थ कुछ विशिष्ट नियम से छन्दित है । उसे वैदिकछन्द कहते हैं । गायत्री, उष्णीक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुप्, जगती – यह सप्त वैदिकछन्द हैं । यह लौकिकछन्द से भिन्न है । जो मन्त्र गायत्रीछन्द में है, वह पृथ्वीलोक सम्बन्धी हैजो मन्त्र त्रिष्टुप छन्द में है, वह अन्तरिक्षलोक सम्बन्धी है । जो मन्त्र जगतीछन्द में है, वह द्युलोक सम्बन्धी है । जो मन्त्र अनुष्टुप छन्द में है, वह विश्व सम्बन्धी है । मा, प्रमा, प्रतिमा, अस्रीवय छन्दको भी उसी अर्थ में व्यवहार किया जाता है ।

जिस दृश्यमान विषयके सम्बन्धमें कहा गया है, वह उस मन्त्रके देवता है (अर्थमिच्छन्नृषिर्देंवं यं यमाहायमस्त्विति । प्राधान्येन स्तुवन्भक्त्या मन्त्रस्तद्देव एव सः)। अर्थात जिस पदार्थ की कामना से ऋषि जिस देवता की स्तुति करने पर अर्थापतित्व को चाहता हुआ स्तुति करता है, वह मन्त्र उस देवता वाला हो जाता है (यत्काम ऋषिर्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छन्स्तुतिं प्रयुङ्क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति । – निरुक्तम् ७.१)

स्तुति वह है जिसमें किसी का नाम (classification and nomenclature), रूप (physical characteristics). कर्म (chemical characteristics) तथा बान्धव (interactive potential) के विषयमें चर्चा की गयी हो (स्तुतिस्तु नाम्ना रूपेण कर्मणा बान्धवेन चबृहद्देवता) । किसी कर्म से जो फलप्राप्ति होती है, उसे आशीष कहते हैं (स्वर्गायुर्धनपुत्राद्यैरर्थैराशीस्तु कथ्यते)। शब्दके द्वारा उच्चरित होने पर जिस द्रव्य का प्रतीति होता है, उसप्रकार अक्षरयुक्त प्रतीति को नाम कहते हैँ (शब्देनोच्चरितेनेह येन द्रव्यं प्रतीयते ।
तदक्षरविधौ युक्तं नामेत्याहुर्मनीषिणः ।। १.४२ ।।
बृहद्देवता)। नौ प्रकारके विचार से नामकरण किया जाता है । वह हैं – निवास, कर्म, रूप, मङ्गल, वाक्य, आशिष. यदृच्छा, उपवसन, तथा विशिष्ट व्यक्तित्व । यास्क, गार्ग्य तथा रथीतर चार प्रकारके विचार से नामकरण करते हैँ – आशीष, अर्थवैरूप्य, वाक्य तथा कर्मशौनक केवल कर्म का ही विचार करते हैं, कारण अन्य सबका कर्ममें ही अन्तर्भाव हो जाता है (सर्वाण्येतानि नामानि कर्मतस्त्वाह शौनकः ।
आशी रूपं च वाच्यं च सर्वं भवति कर्मतः ।।२७।।
यदृच्छयोपवसनात् तथामुष्यायणाच्च यत् ।
तथा तदपि कर्मैव तच्छृणुध्वं च हेतवः ।। २८ ।।
प्रजाः कर्मसमुत्था हि कर्मतः सत्त्वसंगतिः ।
क्वचित्संजायते सच्च निवासात्तत्प्रजायते ।। २९ ।।
यादृच्छिकं तु नामाभिधीयते यत्र कुत्रचित् ।
औपम्यादपि तद्विद्याद् भावस्यैवेह कस्यचित् ।। ३० ।।
नाकर्मकोऽस्ति भावो हि न नामास्ति निरर्थकम् ।
नान्यत्र भावान्नामानि तस्मात्सर्वाणि कर्मतः ।। ३१ ।।
बृहद्देवता)

हिरण्यगर्भसूक्तके हिरण्यगर्भ प्राजापति ऋषि, त्रिष्टुप् छन्द तथा प्रजापति देवता है । त्रिष्टुप छन्द अन्तरिक्षलोक सम्बन्धी है ।
(क्रमशः)